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Hindi Story : वह मेरे जैसी नहीं है – वक्त के साथ चलती बेटी की कहानी

Hindi Story : स्नेहा मां की बात न मानती, करती अपने मन की. फिर भी मां अंदर ही अंदर खुश होतीं, उसे आशीर्वाद देतीं. आखिर ऐसा था क्या? पढि़ए, पूनम अहमद की कहानी.

मैं ने तो यही सुना था कि बेटियां मां की तरह होती हैं या ‘जैसी मां वैसी बेटी’ लेकिन जब स्नेहा को देखती हूं तो इस बात पर मेरे मन में कुछ संशय सा आ जाता है. इस बात पर मेरा ध्यान तब गया जब वह 3 साल की थी. उसी समय अनुराग का जन्म हुआ था. मैं ने एक दिन स्नेहा से पूछा, ‘‘बेटा, तुम्हारा बेड अलग तैयार कर दूं, तुम अलग बेड पर सो पाओगी?’’

स्नेहा तुरंत चहकी थी, ‘‘हां, मम्मी बड़ा मजा आएगा. मैं अपने बेड पर अकेली सोऊंगी.’’

मुझे थोड़ा अजीब लगा कि जरा भी नहीं डरी, न ही उसे हमारे साथ न सोने का कोई दुख हुआ.

विजय ने कहा भी, ‘‘अरे, वाह, हमारी बेटी तो बड़ी बहादुर है,’’ लेकिन मैं चुपचाप उस का मुंह ही देखती रही और स्नेहा तो फिर शाम से ही अपने बेड पर अपना तकिया और चादर रख कर सोने के लिए तैयार रहती.

स्नेहा का जब स्कूल में पहली बार एडमिशन हुआ तो मैं तो मानसिक रूप से तैयार थी कि वह पहले दिन तो बहुत रोएगी और सुबहसुबह नन्हे अनुराग के साथ उसे भी संभालना होगा लेकिन स्नेहा तो आराम से हम सब को किस कर के बायबाय कहती हुई रिकशे में बैठ गई. बनारस में स्कूल थोड़ी ही दूरी पर था. विजय के मित्र का बेटा राहुल भी उस के साथ रिकशे में था. राहुल का भी पहला दिन था. मैं ने विजय से कहा, ‘‘पीछेपीछे स्कूटर पर चले जाओ, रास्ते में रोएगी तो उसे स्कूटर पर बिठा लेना.’’

विजय ने ऐसा ही किया लेकिन घर आ कर जोरजोर से हंसते हुए बताया, ‘‘बहुत बढि़या सीन था, स्नेहा इधरउधर देखती हुई खुश थी और राहुल पूरे रास्ते जोरजोर से रोता हुआ गया है, स्नेहा तो आराम से रिकशा पकड़ कर बैठी थी.’’

मैं चुपचाप विजय की बात सुन रही थी, विजय थोड़ा रुक कर बोले, ‘‘प्रीति, तुम्हारी मम्मी बताती हैं कि तुम कई दिन तक स्कूल रोरो कर जाया करती थीं. भई, तुम्हारी बेटी तो बिलकुल तुम पर नहीं गई.’’

मैं पहले थोड़ी शर्मिंदा सी हुई और फिर हंस दी.

स्नेहा थोड़ी बड़ी हुई तो उस की आदतें और स्वभाव देख कर मेरा कुढ़ना शुरू हो गया. स्नेहा किसी बात पर जवाब देती तो मैं बुरी तरह चिढ़ जाती और कहती, ‘‘मैं ने तो कभी बड़ों को जवाब नहीं दिया.’’

स्नेहा हंस कर कहती, ‘‘मम्मी, क्या अपने मन की बात कहना उलटा जवाब देना है?’’

अगर कोई मु?ा से पूछे कि हम दोनों में क्या समानताएं हैं तो मु?ो काफी सोचना पड़ेगा. मु?ो घर में हर चीज साफ- सुथरी चाहिए, मुझे हर काम समय से करने की आदत है. बहुत ही व्यवस्थित जीवन है मेरा और स्नेहा के ढंग देख कर मैं अब हैरान भी होने लगी थी और परेशान भी. अजीब लापरवाह और मस्तमौला सा स्वभाव हो रहा था उस का.

स्नेहा ने 10वीं कक्षा 95 प्रतिशत अंक ला कर पास की तो हमारी खुशियों का ठिकाना नहीं था. मैं ने परिचितों को पार्टी देने की सोची तो स्नेहा बोली, ‘‘नहीं मम्मी, यह दिखावा करने की जरूरत नहीं है.’’

मैं ने कहा, ‘‘यह दिखावा नहीं, खुशी की बात है,’’ तो कहने लगी, ‘‘आजकल 95 प्रतिशत अंक कोई बहुत बड़ी बात नहीं है, मैं ने कोई टौप नहीं किया है.’’ बस, उस ने कोई पार्टी नहीं करने दी, हां, मेरे जोर देने पर कुछ परिचितों के यहां मिठाई जरूर दे आई.

अब तक हम मुंबई में शिफ्ट हो चुके थे. स्नेहा जब 5वीं कक्षा में थी, तब विजय का मुंबई ट्रांसफर हो गया था और अब हम काफी सालों से मुंबई में हैं.

10वीं की परीक्षाओं के तुरंत बाद स्नेहा के साथ पढ़ने वाली एक लड़की की अचानक आई बीमारी में मृत्यु हो गई. मेरा भी दिल दहल गया. मैं ने सोचा, अकेले इस का वहां जाना ठीक नहीं होगा, कहीं रोरो कर हालत न खराब कर ले. मैं ने कहा, ‘‘बेटी, मैं भी तुम्हारे साथ उस के घर चलती हूं,’’ अनुराग को स्कूल भेज कर हम लोग वहां गए. पूरी क्लास वहां थी, टीचर्स और कुछ बच्चों के मातापिता भी थे. मेरी नजरें स्नेहा पर जमी थीं. स्नेहा वहां जा कर चुपचाप कोने में खड़ी अपने आंसू पोंछ रही थी, लेकिन मृत बच्ची का चेहरा देख कर मेरी रुलाई फूट पड़ी और मैं अपने पर नियंत्रण नहीं रख पाई. मु?ो स्वयं को संभालना मुश्किल हो गया. स्नेहा की दिवंगत सहेली कई बार घर आई थी, काफी समय उस ने हमारे घर पर भी बिताया था.

स्नेहा फौरन मेरा हाथ पकड़ कर मुझे धीरेधीरे वहां से बाहर ले आई. मेरे आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. हम दोनों आटो से घर आए. कहां तो मैं उसे संभालने गई थी और कहां वह घर आ कर कभी मु?ो ग्लूकोस पिला रही थी, कभी नीबूपानी. ऐसी ही है स्नेहा, मु?ो कुछ हो जाए तो देखभाल करने में कोई कसर नहीं छोड़ती और अगर मैं ठीक हूं तो कुछ करने को तैयार नहीं होगी.

मैं कई बार उसे अपने साथ मार्निंग वाक पर चलने के लिए कहती हूं तो कहती है, ‘‘मम्मी, टहलने से अच्छा है आराम से लेट कर टीवी देखना,’’ मैं कहती रह जाती हूं लेकिन उस के कानों पर जूं नहीं रेंगती. कहां मैं प्रकृतिप्रेमी, समय मिलते ही सुबहशाम सैर करने वाली और स्नेहा, टीवी और नेट की शौकीन.

5वीं से 10वीं कक्षा तक साथ पढ़ने वाली उस की सब से प्रिय सहेली आरती के पिता का ट्रांसफर जब दिल्ली हो गया तो मैं भी काफी उदास हुई क्योंकि आरती की मम्मी मेरी भी काफी अच्छी सहेली बन चुकी थीं. अब तक मु?ो यही तसल्ली रही थी कि स्नेहा की एक अच्छी लड़की से दोस्ती है. आरती के जाने पर स्नेहा अकेली हो जाएगी, यह सोच कर मु?ो काफी बुरा लग रहा था. आरती के जाने के समय स्नेहा ने उसे कई उपहार दिए और जब वह उसे छोड़ कर आई तो मैं उस का मुंह देखती रही. उस ने स्वीकार तो किया कि वह बहुत उदास हुई है, उसे रोना भी आया था, यह उस की आंखों का फैला काजल बता रहा था. लेकिन जिस तरह अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रख कर उस ने मु?ा से बात की उस की मैं ने दिल ही दिल में प्रशंसा की.

स्नेहा बोली, ‘‘अब तो फोन पर या औनलाइन बात होगी. चलो, कोई बात नहीं, चलता है.’’

ऐसा नहीं है कि वह कठोर दिल की है या उसे किसी से आंतरिक लगाव नहीं है. मैं जानती हूं कि वह बहुत प्यार करने वाली, दूसरों का बहुत ध्यान रखने वाली लड़की है. बस, उसे अपनी भावनाओं पर कमाल का नियंत्रण है और मैं बहुत ही भावुक हूं, दिन में कई बार कभी भी अपने दिवंगत पिता को या अपने किसी प्रियजन को याद कर के मेरी आंखें भरती रहती हैं.

जैसेजैसे मैं उसे सम?ा रही हूं, मुझे उस पर गुस्सा कम आने लगा है. अब मैं इस बात पर कलपती नहीं हूं कि स्नेहा मेरी तरह नहीं है. उस का एक स्वतंत्र, आत्मविश्वास से भरा हुआ व्यक्तित्व है. डर नाम की चीज उस के शब्दकोश में नहीं है. अब वह बी.काम प्रथम वर्ष में है, साथ ही सी.पी.टी. पास कर के सी.ए. की तैयारी में जुट चुकी है. हमें मुंबई आए 9 साल हो चुके हैं. इन 9 सालों में 2-3 बार लोकल टे्रन में सफर किया है. लोकल टे्रन की भीड़ से मु?ो घबराहट होती है.

हाउसवाइफ हूं, जरूरत भी नहीं पड़ती और न टे्रन के धक्कों की हिम्मत है न शौक. मेरी एक सहेली तो अकसर लोकल टे्रन में शौकिया घूमने जाती है और मैं हमेशा यह सोचती रही हूं कि कैसे मेरे बच्चे इस भीड़ का हिस्सा बनेंगे, कैसे कालिज जाएंगे, आएंगे जबकि विजय हमेशा यही कहते हैं, ‘‘देखना, वे आज के बच्चे हैं, सब कर लेंगे.’’ और वही हुआ जब स्नेहा ने मुलुंड में बी.काम के लिए दाखिला लिया तो मैं बहुत परेशान थी कि वह कैसे जाएगी, लेकिन मैं हैरान रह गई. मुलुंड स्टेशन पर उतरते ही उस ने मु?ो फोन किया, ‘‘मम्मी, मैं बिलकुल ठीक हूं, आप चिंता मत करना. भीड़ तो थी, गरमी भी बहुत लगी, एकदम लगा उलटी हो जाएगी लेकिन अब सब ठीक है, चलता है, मम्मी.’’

मैं उस के इस ‘चलता है’ वाले एटीट्यूड से कभीकभी चिढ़ जाती थी लेकिन मु?ो उस पर उस दिन बहुत प्यार आया. मैं छुट्टियों में उसे घर के काम सिखा देती हूं. जबरदस्ती, कुकिंग में रुचि लेती है. अब सबकुछ बनाना आ गया है. एक दिन तेज बुखार के कारण मेरी तबीयत बहुत खराब थी. अनुराग खेलने गया हुआ था, विजय टूर पर थे. स्नेहा तुरंत अनुराग को घर बुला कर लाई, उसे मेरे पास बिठाया, मेरे डाक्टर के पास जा कर रात को 9 बजे दवा लाई और मुझे खिला- पिला कर सुला दिया. मुझे बुखार में कोई होश नहीं था.

अगले दिन कुछ ठीक होने पर मैं ने उसे सीने से लगा कर बहुत प्यार किया. मुझे याद आ गया जब मैं अविवाहित थी, घर पर अकेली थी और मां की तबीयत खराब थी. मेरे हाथपांव फूल गए थे और मैं इतना रोई थी कि सब इकट्ठे हो गए थे और मुझे संभाल रहे थे. पिताजी थे नहीं, बस हम मांबेटी ही थे. आज स्नेहा ने जिस तरह सब संभाला, अच्छा लगा, वह मेरी तरह घबराई नहीं.

अब वह ड्राइविंग सीख चुकी है. बनारस में मैं ने भी सीखी थी लेकिन मुंबई की सड़कों पर स्टेयरिंग संभालने की मेरी कभी हिम्मत नहीं हुई और अब मैं भूल भी चुकी हूं, लेकिन जब स्नेहा मुझे बिठा कर गाड़ी चलाती है, मैं दिल ही दिल में उस की नजर उतारती हूं, उसे चोरीचोरी देख कर ढेरों आशीर्वाद देती रहती हूं और यह सोचसोच कर खुश रहने लगी हूं, अच्छा है वह मेरी तरह नहीं है. वह तो आज की लड़की है, बेहद आत्मविश्वास से भरी हुई. हर स्थिति का सामना करने को तैयार. कितनी सम?ादार है आज की लड़की अपने फैसले लेने में सक्षम, अपने हकों के बारे में सचेत, सोच कर अच्छा लगता है.

Family Story : लेनदेन – सादिया लंबे सफर के बाद लौटी तो ससुराल में क्या देखा?

Family Story : सादिया की ट्रेन 7 घंटे लेट पहुंची थी. मुबीन फिर भी स्टेशन पर उपस्थित था. सादिया ने पहली बार अकेले यात्रा की थी. फिर मुन्ने ने भी काफी परेशान किया था. मुबीन को देख कर उस की आधी थकान जाती रही. घर पहुंची तो द्वार पर ताला देख कर उसे अचरज हुआ. मुबीन ने बताया कि सब लोग एक विवाह में गए हैं, शाम तक आ जाएंगे. सादिया ने गरम पानी से स्नान किया, मुन्ने को नहला कर कपड़े बदले और रसोई में पहुंच गई. फ्रिज खोल कर देखा, न भाजी थी न हौटकेस में रोटियां. उसे अजीब सा लगा. सब को पता था कि वह 17 घंटों की यात्रा कर के आ रही है. फिर ट्रेन 7 घंटे देरी से आई. तब भी किसी ने उस के लिए खाना बना कर नहीं रखा. उसे बहुत जोर से भूख लग रही थी. उस ने आलू की सब्जी व परांठे बनाए और मुबीन को आवाज दी.

मुबीन ने गरम परांठे देख कर कहा, ‘‘मैं ने तो आपा से कहा था कि खाना बना कर रख देना.’’

सादिया ने सहजता से कहा, ‘‘विवाह में जाने की हड़बड़ी में समय नहीं मिला होगा.’’

मुबीन कटुता से बोला, ‘‘कौन सा समंदर पार जाना था कि तैयारी में समय लग गया…आपा भी बस…’’

‘‘छोडि़ए, खाना खाइए,’’ सादिया ऐसे विवादों से दूर ही रहती थी जिन के कारण परिवार में क्लेश उत्पन्न हो. मतीन और मुबीन 2 भाई थे. बहन उन दोनों से बड़ी थी. नाम था, शबनम. पर नाम के सर्वथा विपरीत थी. हर समय उस की जीभ चलती रहती और दूसरों को आहत करती रहती. विवाह के 8 महीने बाद ही मायके आ कर बैठ गई थी. ससुराल के नाम से चिढ़ती थी. मां ने हथेली का फफोला बना रखा था, इस बूते पर वह दोनों भावजों पर हुक्म चलाती रहती थी. मतीन की पत्नी नईमा से शबनम जरा दबती थी, क्योंकि वह भी बहुत तेज मिजाज थी. शबनम एक कहती तो वह दो सुनाती. सादिया कभी उलट कर उन्हें जवाब न देती तो वह उसे और दबाती. सादिया ने खाने के बरतन वैसे ही पड़े रहने दिए और अपने कमरे में आ गई. मुबीन मुन्ने के साथ खेल रहा था. एक महीने बाद बेटे से मिला था. सादिया को देखते ही बोला, ‘‘तुम आराम करो, बहुत थकी हुई लग रही हो. मैं मुन्ने को संभालता हूं,’’ वह मुन्ने को उठाए हुए बैठक में चला गया.

सादिया को सोए थोड़ी ही देर हुई थी कि सब लोग विवाह समारोह से लौट आए. टीनू, मीनू उस के पलंग पर चढ़ कर उसे जगाने लगे, ‘‘चाची, हमारे लिए क्या लाईं?’’

सादिया कच्ची नींद से उठ बैठी. उसे क्रोध तो बहुत आया पर पी गई. नईमा और आपा दरवाजे के पास खड़ी थीं. आपा ने हंस कर कहा, ‘‘मुझे तो धैर्य रखना कठिन हो गया, इसीलिए बच्चों से कहा कि चाची को जगा दो.’’ सादिया ने मुंहहाथ धोए. सूटकेस से मिठाई के 2-3 डब्बे निकाले और टीनू, मीनू को दे दिए. बच्चे मिठाई में मगन हो गए. तब तक नईमा चाय ले आई. सादिया ने चाय पीते हुए कहा, ‘‘अम्मी और अब्बू ने आप सब लोगों को सलाम और दुआ भेजी है.’’

‘‘बस,’’ उस की सास ने कुछ विचित्र ढंग से कहा.

‘‘हां, और क्या?’’ सादिया को हैरत हुई.

‘‘क्या दिया है तुम्हारी अम्मी ने तुम्हें?’’ आपा एकएक शब्द चबाती हुई बोलीं.

‘‘मुझे साड़ी दी है और मुन्ने को सूट,’’ सादिया बोली, ‘‘ला कर दिखाती हूं.’’

‘‘नहीं, रहने दो,’’ आपा उपेक्षा से बोलीं, ‘‘अपने दामाद के लिए कुछ नहीं भेजा तुम्हारी अम्मी ने?’’

‘‘वह…वह…,’’ सादिया हकला कर रह गई. कैसे कहती कि एक साड़ी ही बड़ी कठिनाई से खरीद सके थे उस के पिता. वह तो इस के लिए भी मना कर रही थी, पर उस की अम्मी ने कहा था, ‘तेरी सास क्या कहेगी कि मायके गई तो मां ने एक साड़ी भी नहीं दी.’

‘‘वह…बात यह है कि मेरा बहुत जल्दी में निकलना हुआ न. यह साड़ी तो पहले से ले कर रखी थी,’’ सादिया की समझ में न आया कि क्या कहे. कैसे उन्हें समझाए.

‘‘अम्मी,’’ आपा ने मां की ओर देख कर ठंडी सांस भरी, ‘‘जब दामाद के लिए ही वहां से कुछ नहीं आया तो हम और तुम किस खेत की मूली हैं.’’

‘‘बहू,’’ सास ने उसे घूरा, ‘‘लेनदेन की बातें सीखो. अभी पासपड़ोस की औरतें आएंगी, पूछेंगी कि समधिन ने क्या भेजा है तो हम क्या दिखाएंगे उन्हें? यह कहेंगे कि हमारी बहू मायके से खाली हाथ झुलाती वापस आ गई? क्या इज्जत रहेगी हमारी?’’ ‘‘नईमा भाभी तो मायके से सब के लिए कपड़े लाती हैं. पिछली बार तो सच्चे मोतियों के कंगन लाई थीं मेरे लिए.’’ नईमा जले पर नमक छिड़कती हुई बोली, ‘‘भई छोड़ो शबनम आपा. हर किसी की हैसियत अच्छा देनेदिलाने की नहीं होती.’’

सास ने बड़बड़ाते हुए कहा, ‘‘दिल भी होना चाहिए देने का. गरीब से गरीब बाप भी अपनी बेटी को नंगीबुच्ची नहीं रखता. बहू के मायके वाले एक नमूना हैं.’’ सादिया से सहन न हो सका. कमरे में आ कर फूटफूट कर रोने लगी. उसी समय मुबीन और मतीन आ गए. आपा ने मुबीन को आड़े हाथों लिया. शिकायत करने बैठ गईं कि सादिया मायके से किसी के लिए उपहार ले कर नहीं आई. ‘‘पर आपा, अभी मुन्ने के जन्म के बाद हम लोग उसे लिवाने गए थे, तब सब को कपड़े दिए थे उन लोगों ने,’’ मुबीन पत्नी का पक्ष लेता हुआ बोला.

‘‘वह दूसरा अवसर था. उन्हें देना ही था, सो दिया. पर मायके से बहू लौटती है तो ससुराल वालों के लिए उपहार लाने ही पड़ते हैं,’’ ये सादिया की सास थीं, जिन्हें बेटे का बहू के पक्ष में बोलना तनिक नहीं भाया था.

‘‘अम्मी, आप भी बस…,’’ मुबीन को क्रोध आ गया.

‘‘मैं भी क्या बस,’’ उन्होंने आंखें निकालीं, ‘‘नईमा दुलहन भी मायके जाती है. उस से तो हमें शिकायत नहीं होती.’’ मतीन ने नईमा को संकेत से वहां से हट जाने को कहा. नईमा का मन नहीं था, पर मतीन द्वारा घूरने के कारण उठ गई. सास और ननद मोरचे पर डटी रहीं. शबनम आपा बोलीं, ‘‘मुबीन, तुम्हें अम्मी के सामने बीवी का पक्ष लेते लाज नहीं आती. औरतों के बीच में क्यों बोलते हो? मतीन तो कभी बीवी के लिए अम्मी के सामने आवाज ऊंची नहीं करता.’’ ‘‘मतीन भाई को बोलने की आवश्यकता ही नहीं होती, क्योंकि आप भाभीजान को सिर पर बिठाए रखती हैं. ऐसा इसलिए होता है कि भाभीजान ट्रक भर कर दहेज लाई थीं. अब भी मायके से तोहफे ला कर आप दोनों की लगाम हाथ में रखती हैं.’’

‘‘मुबीन, तुम बदतमीजी पर उतर आए हो,’’ आपा ने नथुने फुलाए.

नईमा अपने कमरे से सब बातें सुन रही थी. वह तड़प कर बाहर आना चाहती थी, पर मतीन ने आने न दिया. मुबीन ने नईमा की ओर देख कर कहा, ‘‘भाभीजान, मुझे आप से शिकायत नहीं है. आप अपने तरीके से व्यवहार करती हैं. मुझे अम्मी से शिकायत है. वे दोनों बहुओं को एक आंख से क्यों नहीं देखतीं? वह तो कहो सादिया झगड़ालू नहीं है. मुझ से वह सासननद की शिकायतें नहीं करती, अन्यथा यह घर मेरे लिए सिरदर्द हो जाता,’’ वह पैर पटकता हुआ कमरे में चला गया. आपा ने बात पकड़ ली कि भाई ने रेशम में लपेट कर उन्हें जूते मारे हैं. फिर सारा क्रोध निकाला सादिया पर. कई दिनों तक उस से किसी ने सीधे मुंह बात नहीं की. सादिया के पिता मुबीन के पिता के मित्र थे. वे अध्यापन कार्य करते थे. घर के बहुत संपन्न नहीं थे. मुबीन के पिता को सादिया बहुत पसंद थी. मुबीन की अम्मी ने संपन्न घरानों की बहुत सी लड़कियां देख रखी थीं. एक नईमा की बूआ की लड़की थी, जिस पर उन का बहुत मन था पर बापबेटों के आगे उन की एक न चली.

सादिया के पिता ने अपनी हैसियत के हिसाब से बहुतकुछ दिया, पर सास, ननद तो पहली बहू से उस की तुलना करतीं और उसे नीचा दिखातीं. मुबीन के पिता जब तक जीवित थे, तब तक स्थिति नियंत्रण में थी. उन के देहांत के बाद आपा तो बिलकुल बेलगाम हो गई थीं. सास भी ताने देने लगीं. मई का महीना था. सादिया मायके जाने का प्रोग्राम बना रही थी. नईमा तो बच्चों की छुट्टियां आरंभ होते ही चली गई थी. सादिया को सास ने यह कह कर रोक लिया था कि नईमा के आने के बाद जाना. भला दोनों बहुएं मायके चली जातीं तो घर के कामधाम कौन करता. सादिया मन मार कर चुप रह गई थी. जानती थी कि नईमा पूरी गरमियां गुजार कर ही लौटेगी और उस का जाना न हो पाएगा. पर सादिया के मायके से पत्र आया कि बड़े चाचा और चाची पाकिस्तान से मिलने आ रहे हैं. तुरंत आ जाओ. मुबीन के कार्यालय में पत्र आया था. उस ने घर आते ही सादिया को तैयारी करने के लिए कहा.

आपा ने सुना तो बोलीं, ‘‘सादिया, हमारे हिस्से की याद रखना.’’

‘‘कैसा हिस्सा?’’ सादिया की समझ में नहीं आया.

‘‘पाकिस्तान वाले ढेरों तोहफे लाएंगे. पिछली बार तुम कुछ नहीं लाई थीं हम लोगों के लिए. अब सब कपड़े वगैरह पहले ही निकाल कर रख लेना.’’

‘‘आपा, आप भी कमाल करती हैं. वर्षों से चाचाचाची से हम लोगों का पत्रव्यवहार नहीं है. विभाजन के समय वे लोग पाकिस्तान गए थे. उन्हें क्या पता कि यहां कौनकौन भाईभतीजे अथवा दूरपास के संबंधी हैं. वे क्या एकएक के नाम के तोहफे लाएंगे,’’ सादिया ने कहा. सास भभक कर बोलीं, ‘‘बहू, कमाल की हो तुम. पहले ही पत्ता काट देती हो. हमें तजरबा है. दूसरों के यहां देखा है, सो कहते हैं. चौधरी करमदीन के बहनोई दुबई से आते हैं तो हरेक के नाम का तोहफा चिट लगा कर लाते हैं. रामास्वामी की बहन कनाडा से आती है तो इत्र की शीशियों पर भी एकएक का नाम लिख कर लाती है. नईमा की नानी पाकिस्तान गईं तो वापसी में सब के लिए साडि़यां और कमीजें लाईं. लोग हम से कहते हैं कि कहां नंगेबुच्चों के घर से लड़की लाई हो, जो…’’

सादिया की आंखें भर आईं. चुपचाप उठ कर अपने कमरे में चली गई. मुबीन भी उठ कर उस के पीछे चला गया तो आपा ने जोर से ‘जनमुरीद’ कह कर मुंह टेढ़ा कर लिया. ‘‘सादिया, तैयारी कर लो. मैं कल सुबह तुम्हें स्वयं पहुंचा कर आऊंगा. और हां, अम्मी की बातों पर कान न धरा करो,’’ मुबीन ने प्रेम से सादिया के बाल सहलाए. सादिया सिसकने लगी, ‘‘आप तो जानते हैं मेरे घर की हालत क्या है. एक वर्ष से अब्बा बिस्तर पर पड़े हैं. उन का इलाज, छोटे 3 भाइयों की पढ़ाई का खर्च, फिर दादी हमेशा बीमार रहती हैं.’’

‘‘मैं जानता हूं सादिया, इसीलिए तो तुम्हारा पक्ष लेता हूं,’’ मुबीन का मन सादिया की असहाय स्थिति पर पिघला जा रहा था. ‘‘पर अम्मी और आपा समझने का प्रयत्न नहीं करतीं. मैं हर प्रकार से उन्हें प्रसन्न रखने के जतन करती हूं. खैर,’’ वह लंबी सांस ले कर बोली, ‘‘इस बार लौटते समय मैं उन लोगों के लिए कुछ न कुछ अवश्य लाऊंगी. उन के ताने मुझ से सहन नहीं होते.’’ मुबीन बहुत देर तक सादिया को समझाता रहा, फिर टहलता हुआ दूर तक निकल गया. वह बहुत परेशान था. सादिया पर उसे दया आती थी. मन में कुढ़ते रहने से उस का स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता था. वह फिर मां बनने वाली थी. ‘‘मुबीन,’’ सहसा उसे किसी ने आवाज दी. वह चौंका तो नीना दीदी को अपने सामने खड़ा पाया. वे उस के बचपन के मित्र नरेंद्र की बहन थीं. वे उसे अपने घर ले गईं. नाश्ते के बाद वह चलने को हुआ तो नीना दीदी ने पूछा, ‘‘क्या तुम्हें कोई परेशानी है? मुझे बताओ. नरेंद्र की भांति तुम भी मेरे छोटे भाई हो. मुझ से कुछ न छिपाओ.’’

मुबीन ने टालना चाहा, पर सफल न हुआ. घर की इतनी छोटी सी बात उसे बाहर बताते अच्छा नहीं लगा. ‘‘वैसे यह इतनी छोटी बात नहीं है, क्योंकि इस के कारण सदैव तुम्हारे घर में कलह होता रहता है. और इतनी बड़ी बात भी नहीं है कि तुम यों मुंह लटकाए फिरते रहो,’’ नीना दीदी हंसते हुए बोलीं. मुबीन आश्चर्य से उन का मुंह ताकने लगा. वे आगे बोलीं, ‘‘मुबीन, ये स्त्रियां जो मायके से उपहार ला कर ससुराल में भरती हैं, वह वास्तव में ससुराल ही का रुपया होता है. वर्षभर तक घर के खर्च में से पैसे निकाल कर या यों कह लो कि रुपए बचा कर वे मायके ले जाती हैं. फिर वापस आ कर मायके का रोब झाड़ती हैं. भला सब के मायके वाले इतने संपन्न तो नहीं होते कि हर चक्कर में बेटी के साथ ससुराल वालों को भी निहाल कर दें.’’ मुबीन की आंखें खुल गईं, ‘‘आप का मतलब है दीदी…?’’

‘‘हां,’’ नीना दीदी मुसकराईं, ‘‘तुम अपनी पत्नी और मां के मध्य मधुर संबंध बनते देखना चाहते हो तो सादिया की सहायता क्यों नहीं करते. जो कुछ तुम खर्च करोगे, वह तुम्हारे ही घर में आएगा. बस, यों समझ लो कि सीधे न पकड़ कर, हाथ घुमा कर नाक पकड़नी है.’’ मुबीन ने नीना दीदी ही से रकम उधार ली और दूसरे दिन सादिया को ले कर निकल पड़ा. एक दिन ससुराल में रुक कर लौटने लगा तो 3 हजार रुपए सादिया के हाथ पर रखता हुआ बोला, ‘‘लौटते समय इस रकम से अम्मी, आपा और भाभी के लिए साडि़यां ले आना, ताकि उन्हें शिकायत न हो.’’

‘‘पर,’’ सादिया बोली, ‘‘क्या मैं झूठ बोलूं कि मेरे मायके वालों ने यह सब भेजा है. मुझे लेनदेन का यह कारोबार वैसे भी पसंद नहीं है. उपहार अपनी इच्छा से और विशेष अवसरों पर दिए जाते हैं, उधार ले कर नहीं दिए जाते, न मांग कर लिए जाते हैं.’’ ‘‘यह मेरा रुपया है, अर्थात तुम्हारा भी है,’’ मुबीन ने सादिया को समझाया, ‘‘और मैं ने झूठ बोलने के लिए कब कहा? तुम कहना कि ये उपहार आप के लिए हैं, बस. मायके से लौटी हो तो तुम लाईं या तुम्हारे मायके वालों ने भेजे हैं, यह उन्हें स्वयं समझने दो. वैसे जहां तक मैं अम्मी और आपा के स्वभाव को समझता हूं, वे आम खाने से मतलब रखेंगी, पेड़ गिनने से नहीं. ‘‘सादिया, मैं चाहता हूं अम्मी और आपा जो तुम्हारा तिरस्कार करती हैं, वह न करें. हमारे घर में शांति हो. तुम नईमा भाभी की भांति अम्मी की आंख का तारा चाहे न बनो पर वे तुम को कष्ट न दें. ऐसी छोटीछोटी युक्तियों से यदि परिवार में शांति बनी रहे तो बुराई क्या है?’’ सादिया की आंखों में कृतज्ञता के आंसू भर आए. इस समय जो विचार उस की आंखों को भिगो गया था, वह यह नहीं था कि अब वह सासननद के तानों से मुक्ति पा जाएगी, वह तो इस विचार से खुश थी कि मुबीन उस से कितना प्यार करता है.

Romantic Story : अभिलाषा – शोक जवानी हुस्न का जादू

Romantic Story : एक दिन रूपी मोहल्ले के ही रामू के साथ भाग गई. इस के बाद तो जितने लोग, उतनी तरह की बातें होने लगीं. अधिकतर लोग रूपी  के मातापिता को ही इस का दोष दे रहे थे. मामला लड़की के भागने का था, इसलिए रूपी के पिता ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दी थी.

करीब एक महीना बीत गया. काफी दौड़धूप और खोजबीन के बाद भी उन दोनों का कुछ पता नहीं चला. सब हैरान थे. आश्चर्य की बात तो यह थी कि रामू शादीशुदा था, इस के बावजूद भी उस ने ऐसा काम किया था.

रामू और रूपी शहर से दूर चले गए थे. वे कहां चले गए, यह बात मोहल्ले का कोई भी व्यक्ति नहीं जानता था. बेटी की हरकत से रूपी के मातापिता अपने संबंधियों, मोहल्ले वालों और समाज की दृष्टि में गिर चुके थे. वे किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं थे.

लोग उन के सामने ही उन्हें ताने देते थे. इस से उन का घर से निकलना दूभर हो गया था. ऐसे में वे बेचारे कर भी क्या सकते थे? लोगों की तरहतरह की बातें सुनने को वे लाचार थे.

अचानक एक दिन सुनने में आया कि रामू और रूपी जयपुर में पकड़े गए हैं. मोहल्ले के एक प्रोफेसर माथुर ने जयपुर में अपने रिश्तेदार भरत माथुर के घर रामू और रूपी को देख लिया था. फिर क्या था, उन्होंने इस बात की सूचना पुलिस को दी तो पुलिस ने रामू और रूपी को पकड़ लिया था.

पुलिस ने रूपी को तो उस के मातापिता के घर पहुंचा दिया, जबकि रामू को हिरासत में ले लिया. रामू को उम्मीद थी कि रूपी कभी भी उस के खिलाफ बयान नहीं देगी, क्योंकि वह उस के साथ करीब 6 महीने पत्नी की तरह रही थी. पर बात एकदम इस के विपरीत निकली. रूपी ने अपने मातापिता की भावनाओं और दबाव में आ कर कोर्ट में अपने प्रेमी रामू के खिलाफ ही बयान दिया था. रूपी नाबालिग थी, इसलिए कोर्ट ने रामू को एक नाबालिग लड़की को भगाने के जुर्म में 3 साल की सजा सुनाई.

इस बीच रूपी की शादी एक आवारा लड़के से कर दी गई, क्योंकि समाज में कोई भी शरीफ लड़का उस से शादी करने को तैयार नहीं था. 3 साल की सजा काट कर रामू घर आया तो मेरे दिमाग में तरहतरह की शंकाओं के बीच वही प्रश्न बारबार आ रहा था कि शादीशुदा रामू ने ऐसा क्यों किया?

मुझे उस पर रहरह कर गुस्सा भी आ रहा था, क्योंकि रामू को मैं बचपन से जानता था. वह एक चरित्रवान और शरीफ लड़का था. सब उस का सम्मान करते थे. फिर उस ने ऐसा नीच कार्य क्यों किया? यह हकीकत जानने के लिए एक दिन मैं उस के घर चला गया.

‘‘कहो, भाई क्या हालचाल है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हाल तो ठीक है, पर चाल खराब हो गई है.’’ उस ने टूटे दिल से कहा, ‘‘तुम अपना हाल बताओ.’’

‘‘मेरा हाल तो ठीक है. तुम्हारा हाल जानने आया हूं.’’ मैं ने कहा.

‘‘मेरा हाल तो एक खुली किताब की तरह है, जिसे दुनिया ने पढ़ा है, तुम ने भी पढ़ा होगा.’’ एक मायूसी मिश्रित लंबी आह भर कर रामू ने कहा और शून्य में न जाने क्या खोजने लगा.

रामू की इस ‘आह’ में कितनी विवशता, कितनी कसक और कितनी दुखभरी वेदना थी, यह मैं खुद देख रहा था. वह आंखों में छलक आए आंसुओं को रूमाल से पोंछने लगा. उस के छलकते आंसू रूमाल के धागों में विलीन हो गए.

‘‘छोड़ो बीती बातों को.’’ मैं ने सांत्वना देते हुए कहा.

‘‘यह भी एक संयोग है.’’ उस ने आगे कहा, ‘‘तुम तो जानते ही हो कि मेरी शादी हुए करीब 6 साल हो गए हैं, परंतु हम दोनों के जीवन में कोई फूल नहीं खिला. तुम्हारी भाभी के प्यार का साथ ही मेरे जीवन का सर्वस्व था. मैं सुखी था, प्रसन्न था, परंतु वह न जाने क्यों अंदर ही अंदर घुटती रहती थी. उस का सौंदर्य, उस का स्वास्थ्य धीरेधीरे उस से दामन छुड़ाने लगा था.

‘‘मैं ने इस राज को जानने का बहुत प्रयत्न किया. एक दिन तुम्हारी भाभी ने विनीत भाव से कहा, ‘कितना अच्छा होता कि हमारे आंगन में भी बच्चा होता.’

‘‘यह सुन कर उस दिन से मुझे भी अपने घर में बच्चे का अभाव अखरने लगा. डाक्टर ने तुम्हारी भाभी का परीक्षण करने के बाद बताया कि यह कभी मां नहीं बन सकती. इस बात से वह बड़ी दुखी हुई. उस ने मुझे दूसरी शादी के लिए प्रेरित किया. लेकिन मैं ने शादी करने से साफ मना कर दिया.

‘‘उस दिन से मैं उसे और अधिक प्रेम करने लगा. जिस से वह इस मानसिक दुख से छुटकारा पा सके. लेकिन वही होता है जो मंजूरे खुदा होता है. उन्हीं दिनों हमारे पड़ोस में रहने वाली रूपी तुम्हारी भाभी के पास आनेजाने लगी. दोनों एकांत में घंटों बैठी न जाने क्याक्या बातें करती रहतीं. एक दिन रात को सोने से पहले तुम्हारी भाभी ने मुझ से कहा, ‘रूपी कितनी सुशील और सुंदर लड़की है. तुम रूपी से शादी क्यों नहीं कर लेते.’

‘‘पागल हो गई हो क्या? ऐसा कभी हो सकता है?’’ मैं ने उसे बांहों में कसते हुए कहा.

‘‘क्यों नहीं, क्या आप एक बच्चे के लिए इतना भी नहीं कर सकते?’’ कह कर वह फूटफूट रोने लगी.

‘‘मैं ने तुम्हारी भाभी को बहुत समझाया कि एक विवाहित व्यक्ति के साथ कोई भी पिता अपनी लड़की का विवाह नहीं करेगा. यह असंभव है. मैं तुम्हारी सौत नहीं ला सकता. पर वह अपनी जिद पर अड़ी रही. वह फफकफफक कर रोने लगी. दूसरे दिन जब रूपी हमारे घर आई तो मैं उसे निहारने लगा.

‘‘रूपी की शोख जवानी और सुंदरता ने मुझ पर ऐसा जादू किया कि तनमन से मैं उस की ओर खिंचता चला गया. तुम्हारी भाभी ने हमें संरक्षण दिया और हमारे प्रेम को पलने के लिए अनुकूल वातावरण तैयार किया.’’

इतना कह कर रामू न जाने किन स्वप्नों में खो गया. थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह फिर कहने लगा, ‘‘रूपी मुझ से शादी करने के लिए तैयार थी, लेकिन मैं उस के मातापिता से यह सब कहने का साहस नहीं कर सका. रूपी मुझ से जिद करती रही और मैं टालता रहा.

‘‘एक दिन शाम के समय रूपी जब हमारे घर आई तो उस ने कहा, ‘रामू, ऐसे कब तक चलेगा. चलो, हम कहीं भाग चलें.’ यह सुन कर मैं कांप उठा. रूपी मुझे देखती रही और हंसती रही.

‘‘उस ने फिर कहा, ‘बस, एक साल की बात है. एक बच्चा हो जाएगा तो हम लौट आएंगे. उस के बाद पिताजी भी मजबूर हो कर मेरी शादी तुम्हारे साथ कर देंगे.’ कह कर उस ने अपना चेहरा मेरे सीने पर रख दिया.’’

रामू न जाने किन खयालों में खो गया. मैं भी कहीं खो चुका था. मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए रामू ने आगे कहा, ‘‘लेकिन स्वप्न साकार नहीं हुए. हम दोनों जोधपुर छोड़ कर जयपुर भाग गए और दोस्त भरत के यहां रहने लगे. 6 महीने बाद हम पुलिस द्वारा पकड़े गए. तुम्हारी भाभी की चिरपोषित अभिलाषा भी एक स्वप्न बन कर रह गई.’’ इतना कह कर वह चुप हो गया.

मैं ने भी इस से अधिक पूछताछ करनी उचित नहीं समझी और उस से विदा ले कर अपने घर की ओर चल पड़ा. रास्ते में सोचता रहा कि क्या रामू दोषी है, जो समाज के ताने सहन न कर सका और संतान की चाह ने उसे अंधा बना दिया. शादीशुदा होते हुए भी वह नाबालिग रूपी के साथ भाग गया.

क्या रामू की पत्नी दोषी है, जिस ने अपने पति को गलत राह पर चलने की सलाह दी? या फिर रूपी का पिता दोषी है, जिस ने 2 प्रेमियों को मिलने से रोक कर अपनी लड़की का किसी आवारा लड़के के साथ ब्याह रचा दिया? मैं अभी तक तय नहीं कर पाया हूं कि आखिर दोषी कौन है?

Hindi Story : पांव पड़ी जंजीर – क्यों अफसोस हो रहा था नीरज को

Hindi Story : विवाह के बाद नीरज को मातापिता की रोकटोक अखरने लगी. पत्नी रितु के समझाने पर भी वह मातापिता से अलग हो गया. लेकिन अपने मन की पूरी कर उसे अफसोस क्यों होेने लगा?

सुबह दाढ़ी बनाते समय अचानक बिजली चली गई. नीरज ने जोर से आवाज दे कर कहा, ‘‘रितु, बिजली चली गई, जरा मोमबत्ती ले कर आना.’’
‘‘मैं मुन्ने का दूध गरम कर रही हूं,’’ रितु ने कहा, ‘‘एक मिनट में आती हूं.’’
तब तक नीरज आधी दाढ़ी बनाए ही भागे चले आए और गुस्से से बोले, ‘‘कई दिनों से देख रहा हूं कि तुम मेरी बातों को सुन कर भी अनसुनी कर देती हो.’’
खैर, उस समय तो रितु ने नीरज को मोमबत्ती दे दी थी लेकिन नाश्ता परोसते समय वह उस से बोली, ‘‘आप तो ऐसे न थे. बातबात पर गुस्सा करने लग जाते हो. मेरी मजबूरी भी तो समझे. सुबह से ले कर देर रात तक घर और बाहर के कामों में चरखी की तरह लगी रहती हूं. रात होतेहोते तो मेरी कमर ही टूट जाती है.’’
‘‘मैं क्या करूं अब,’’ नीरज ठंडी सांस लेते हुए बोले, ‘‘समय पर औफिस नहीं पहुंचो तो बड़े साहब की डांट सुनो.’’
फिर थोड़ा रुक कर बोले, ‘‘लगता है, इस बार इनवर्टर लेना ही पड़ेगा.’’
‘‘इनवर्टर,’’ रितु ने मुंह बना कर कहा, ‘‘पता भी है कि उस की कीमत कितनी है. कम से कम 7-8 हजार रुपए तो चाहिए ही. कोई लोन मिल रहा है क्या?’’
‘‘लोन की बात कर क्यों मेरा मजाक उड़ा रही हो. तुम्हें तो पता ही है कि पिछला लोन पूरा करने में ही मेरे पसीने छूट गए थे. मैं तो सोच रहा था कि तुम अपने पापा से बात कर लो, उधार ही तो मांग रहा हूं.’’
‘‘क्याक्या उधार मांगूं?’’ रितु तल्ख हो गई, ‘‘गैस, टैलीफोन, सोफा, दीवान और भी न जाने क्याक्या. सब उधार के नाम पर ही तो आया है. अब और यह सबकुछ मुझसे से नहीं होगा.’’
‘‘क्यों, क्या मुझसे में उधार चुकाने की सामर्थ्य नहीं है?’’ नीरज बोेले, ‘‘इतने ताने मत दो. आखिर जो हुआ उस में कहीं न कहीं तो तुम्हारी भी सहमति थी.
‘‘मेरी सहमति,’’ रितु फैल गई, ‘‘मैं जिस प्रकार तुम्हें निभा रही हूं मैं ही जानती हूं.’’
‘‘तो ठीक है, निभाओ अब, कह क्यों रही हो,’’ नीरज गुस्से से उठते हुए बोले.
‘‘मैं तो निभा ही रही हूं. इतना ही गरूर था तो बसाबसाया घर क्यों छोड़ कर आ गए. तब तो बड़ी शान से कहते थे कि मैं अपना अलग घर ले कर रहूंगा. कोई मोहताज तो नहीं किसी का. और अब. मैं पापा से कुछ नहीं मांगूंगी,’’ रितु गुस्से से कहती गई.

‘‘अच्छा बाबा, गलती हो गई तुम से कुछ कह कर,’’ नीरज कोट पहनते हुए बोले, ‘‘अब तक यह घर चला ही रहा हूं, आगे भी चलाऊंगा. कोई भूखे तो नहीं मर रहे.’’

आज सुबहसुबह ही मूड खराब हो गया. अभाव में पलीबढ़ी जिंदगी का यही हश्र होता है. आएदिन किसी न किसी बात पर हमारी अनबन रहती है और फिर न समाप्त होने वाला समझौता. आज स्कूल जाने का रहासहा मूड भी जाता रहा सो गुमसुम सी पड़ी रही. मन में छिपे परतों से बीते पल चलचित्र की तरह एकएक कर सामने आने लगे.

अपना नया नियुक्तिपत्र ले कर औफिस में प्रवेश किया तो मैं पूरी तरह घबराई हुई थी. इतना बड़ा औफिस. सभी लोग चलतेफिरते रोबोट की तरह अपने में व्यस्त. एक कोने में मुझे खड़ा देख कर एक स्मार्ट से लड़के ने पूछा, ‘आप को किस से मिलना है?’
बिना कुछ बोले मैं ने अपना नियुक्तिपत्र उस की ओर बढ़ाया था.
‘ओह, तो आप को इस दफ्तर में आज जौइन करना है,’ कहते हुए वह लड़का मुझे एक कैबिन में ले गया और एक कुरसी पर बैठाते हुए बोला, ‘आप यहां बैठिए, मेहताजी आप के बौस हैं. वह आएंगे तो आप के काम और बैठने की व्यवस्था करेंगे.’

मैं इंतजार करने लगी. थोड़ी देर बाद वह लड़का फिर आया और कहने लगा, ‘सौरी, मैडम, मेहताजी आज थोड़ी देर में आएंगे. आप चाहें तो नीचे रिसैप्शन पर इंतजार कर सकती हैं. कुछ चाय वगैरह लेंगी?’
मुझे इस समय चाय की सख्त जरूरत थी किंतु औपचारिकतावश मना
कर दिया.
‘आर यू श्योर,’ उस ने चेहरे पर मुसकराहट बिखेर कर पूछा तो इस बार मैं मना न कर सकी.
‘अच्छा, मैं अभी भिजवाता हूं,’ फिर अपना परिचय देते हुए बोला, ‘मेरा नाम नीरज है और मैं सामने के हौल में उस तरफ बैठता हूं. यहां सेल्स एग्जीक्यूटिव हूं.’

नीरज मुझे बेहद सहायक और मधुर से लगे. बस, फिर तो क्रम ही बन गया. हर रोज सुबह नीरज मुझसे से मिलने आ जाते या कभी मैं ही चली जाती. इस तरह सुबह की गुडमौर्निंग कब और कहां अनौपचारिक ‘हाय’ में बदल गई पता ही न चला.

नीरज का मधुर स्वभाव मुझे अपनी ओर अनायास ही खींचता चला गया. अंतत: इस खिंचाव ने प्रगति मैदान जा कर ही दम लिया. हम दोनों अकसर इसी मैदान में आते और हाथों में हाथ डाले शाकुंतलम थिएटर की फिल्में देखते.

एक दिन मैं ने नीरज से कहा, ‘अब बहुत हो चुकी डेटिंग, नीरज. अब शादी के लिए गंभीर हो जाओ. कहीं किसी ने यों ही देख लिया तो आफत आ जाएगी. औफिस का स्टाफ तो पहले से ही शक करता है.’
‘गंभीर क्या हो जाऊं,’ वह मेरी लटों को संभालते हुए बोले, ‘यही तो दिन हैं घूमने के. फिर ये कभी हाथ नहीं आएंगे पर तुम शादी के लिए इतनी उत्सुक क्यों हो रही हो? क्या रात में नींद नहीं आती? इतना कह कर नीरज ने मेरा हाथ जोर से दबा दिया. उन का स्पर्श मुझे अभिभूत कर गया. लजा कर रह गई थी मैं. थोड़ी देर के लिए सपनों की दुनिया में चली गई थी. समय का आभास होते ही मैं ने पूछा, ‘क्या सोचा तुम ने?’
‘मुझे क्या सोचना है,’ नीरज थोड़ा चिंतित हो कर बोले, ‘मैं तो तुम्हारे साथ ही शादी करूंगा, पर…’
‘पर क्या?’ उन के चेहरे के भावों को पढ़ते हुए मैं ने पूछा.
‘मां को मनाने में थोड़ा समय लगेगा. दरअसल उन्होंने एकदम सीधीसादी सलवारकमीज वाली धार्मिक लड़की की कल्पना की है, जो हमारे घर के पास रह रही है. किंतु इस टाइप की लड़की मुझे बिलकुल अच्छी नहीं लगती.’
‘फिर क्या होगा?’ मैं ने गंभीर होते हुए पूछा.
‘होगा वही जो मैं चाहूंगा. आखिर शादी तो मुझे करनी है न. तुम चिंता न करो. समय देख कर किसी दिन मां से बात करूंगा, पर डरता हूं, कहीं वे मना न कर दें.’

एक दिन शाम को नीरज अपनी मां से मिलवाने के लिए मुझे ले गए. मेरी नानुकुर नीरज के सामने ज्यादा न चल सकी. कहने लगे, ‘मां को अपनी पसंद भी बता दूं क्योंकि सीधा कुछ कहने की हिम्मत नहीं होती है. तुम्हें मेरे साथ देख कर शायद बातचीत का कोई रास्ता निकल आए.’

नीरज ने थोड़े शब्दों में मेरा परिचय दिया. मां की अनुभवी नजरों से कुछ भी छिपा न रह सका.

नीरज की जिद और इच्छा को देखते हुए मां ने बेमन से शादी के लिए हां तो कह दी किंतु जिस तरह दुलहन को इस घर में आना चाहिए था वह सारी रस्में फीकी पड़ गईं. मेरी सारी सजनेसंवरने की आशाएं धरी की धरी रह गईं. मां ने कोई खास उत्सुकता नहीं दिखाई क्योंकि शादी उन की मरजी के खिलाफ जो हुई थी.

कुछ दिन तो हंसीखेल में बीत गए पर हमारा देर रात तक घूमना और बाहर खा कर आना ज्यादा दिन तक न चल सका. मां ने एक दिन नाश्ते पर कह दिया कि हम से देर रात तक इंतजार नहीं किया जाता. समय पर घर आ जाया करो. फिर घर की तरफ बहू को थोड़ा ध्यान देना चाहिए.

इस पर नीरज तुनक कर बोले, ‘मां, इस के लिए तो सारी उम्र पड़ी है. हम दूसरी चाबी ले कर चले जाया करेंगे आप सो जाया करो, क्योंकि पार्टी में दोस्तों के साथ देर तो हो ही जाती है.’
मेरे मन में न जाने क्यों शांत स्वभाव वाले मां और बाबूजी के प्रति सहानुभूति उभर आई. बोली, ‘मां ठीक कहती हैं, नीरज. हम समय पर घर आ जाएंगे. अपनी पार्टियां अब हम वीकैंड्स में रख लेंगे.’

मांजी के व्यवहार में आई सख्ती को मैं कम करना चाहती थी. इस के लिए अपनी एक हफ्ते की छुट्टी और बढ़ा ली ताकि मांजी के व्यवहार को सम?ा सकूं.
एक दिन नीरज शाम को मुसकराते हुए आए और कहने लगे, ‘रितु, सब लोग तुम्हें बहुत याद करते हैं. देखना चाहते हैं कि तुम शादी के बाद कैसी लगती हो.’
मैं खिलखिला कर हंस पड़ी. मुझे औफिस का एकएक चेहरा याद आने लगा. मैं ने कहा, ‘ठीक है, कुछ दिनों की ही तो बात है. अगले सोमवार से तो औफिस जा ही रही हूं?’
‘‘मांजी पास में बैठी चाय पी रही थीं. बड़े शांत स्वर में बोलीं, ‘बेटा, हमारे घरों में शादी के बाद नौकरी करने की रीति नहीं है. बहू को बहू की तरह ही रहना चाहिए, यही अच्छा लगता है. आगे जैसा तुम को ठीक लगे, करो.’

मां का यह स्वर मुझे भीतर तक हिला कर रख गया था. उन के ये बोल अनुभवजन्य थे. जोर से डांटडपट कर कहतीं तो शायद मैं प्रतिकार भी करती. मुझे मां का इस तरह कहना अच्छा भी लगा और उन का सामीप्य पाने का रास्ता भी.
नीरज फट से बोल पड़े थे, ‘मां, आजकल दोनों मिल कर कमाएं तभी तो घर ठीक से चलता है. फिर यह तो अकेली यहां बोर हो जाएगी.’
‘क्यों? क्या कमी है यहां जो दोनों को काम करने की आवश्यकता पड़ रही है. भरापूरा घर है. तेरे बाबूजी भी अच्छा कमाते हैं. सबकुछ ठीक चल रहा है. हम कौन सा तुम से कुछ मांग रहे हैं,’ मांजी का स्वर तेज हो गया, ‘फिर भी तू बहू से काम करवाना चाहता है तो तेरी मरजी.’
मैं खामोश ही रही पर इस तरह नीरज का बोलना मुझे अच्छा नहीं लगा था. भीतर जा कर मैं ने नीरज से कहा, ‘नौकरी मुझे करनी है. मांजी को अच्छा नहीं लगता तो मैं नहीं जाऊंगी. बस.’
‘नहीं, तुम नौकरी करने जरूर जाओगी. मैं ने जो कह दिया सो कह दिया,’ नीरज ने कठोर स्वर में कहा.
मन के झंझावात में मैं अंतत: कोई निर्णय नहीं ले पाई. मैं ने हार कर मां से पूछा, ‘मैं क्या करूं, मां?’
‘जो नीरज कहता है वही कर,’ मां ने सीधासपाट सा उत्तर दिया.

उस दिन काम पर तो चली गई किंतु मां के मूक आचरण से एहसास हो गया था कि उन को यह सब ठीक नहीं लगा.

मैं, मां और बाबूजी को खुश करने के लिए हरसंभव प्रयास करती रही. नीरज को भी सम?ाया कि यह सब उन को ठीक नहीं लगता पर उन के व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया. क्या पता था कि ऊपर से इतने मृदुभाषी और हंसमुख इंसान अंदर से इतने अस्वाभाविक और सख्त हो सकते हैं.

इस प्रपंच से जल्दी ही मुझे मुक्ति मिल गई. मेरा पांव भारी हो गया और औफिस न जाने का बहाना मिल गया. इस में मां ने मेरी तरफदारी की तो अच्छा लगा.
मुन्ना के होने के बाद तो मांबाबूजी के स्वभाव में पहले से कहीं ज्यादा बदलाव आ गया. औफिस के साथियों ने पार्टी की जिद पकड़ ली तो मैं ने नीरज को कहा कि पार्टी घर पर ही रख लेते हैं. किसी होटल या रेस्तरां में पार्टी करेंगे तो बहुत महंगा पड़ेगा. फिर मां और बाबूजी को भी अच्छा लगेगा. नीरज भी बजट को देखते हुए कुछ नहीं बोले.

सारा दिन मैं घर संवारने में लगी रही. मां को घर में आ रहे इस बदलाव से अच्छा लगने लगा था. सारे सामान का और्डर पास ही के रैस्तरां में दे दिया था.
‘मांजी कहां हैं,’ मेरी एक औफिस की सहेली ने पूछ लिया. मैं मां को बुलाने उन के कमरे में गई तो मां हंस कर बोलीं, ‘मैं वहां जा कर क्या करूंगी. बच्चों की पार्टी है, तुम लोग मौजमस्ती करो.’
‘नहीं, मां, आप वहां जरूर चलो. बस, मिल कर आ जाना, अच्छा लगता है,’ मैं ने स्नेहवश मां को कहा तो मेरा दिल रखने के लिए उन्होंने कह दिया, ‘अच्छा, तुम चलो, मैं तैयार हो कर आती हूं.’
मैं मुन्ने को ले कर ड्राइंगरूम में आ गई. मांबाबूजी अभी ड्रांइगरूम में आए ही थे कि दरवाजे की घंटी बजी. बाबूजी दरवाजे की तरफ जाने लगे तो मैं ने नीरज को इशारा किया.
‘बाबूजी, आप बैठिए. मैं जा रहा हूं. बाजार से खाना मंगवाया है, वही होगा.’
‘अरे, कोई बात नहीं,’ बाबूजी बोले.
‘नहीं, बाबूजी,’ नीरज थोड़ी तेज आवाज में बोले, ‘इसे हाथ न लगाना. इस में चिकन है. बाजार से दोस्तों के लिए मंगवाया है.’
‘नौनवैज?’
मां और बाबूजी बिना किसी से मिले चुपचाप अपने कमरे में चले गए. मैं नीरज के साथ उन के पीछेपीछे कमरे तक गई तो देखा, मांजी माथा पकड़ कर एक तरफ पसर कर बैठी कह रही थीं, ‘अब यही दिन देखना रह गया था. जिस घर में अंडा, प्याज और लहसुन तक नहीं आया चिकन आ रहा है.’
‘मां, हम लोग तो खाते नहीं. बस, दोस्तों के लिए मंगवाया था. मैं ने घर पर तो नहीं बनवाया,’ नीरज ने सफाई देते हुए कहा. मेरा चेहरा पीला पड़ गया था.
‘तुम लोग भी खा लो, रोका किस ने है. मैं क्या जानती नहीं कि तुम लोग बाहर जा कर क्या खाते हो और अब यह घर पर भी…’ मां सुबक पड़ीं, ‘मेरा सारा घर अपवित्र कर दिया तू ने. मैं अब इस घर में एक पल भी नहीं रहूंगी.’
‘नहीं, मां, तुम क्यों जाती हो, हम ही चले जाते हैं. हमारी तो सारी खुशियां ही छीनी जा रही हैं. मैं ही अलग घर ले कर रह लेता हूं, कहते हुए नीरज बाहर चले गए.

सुबह नाश्ते पर बैठते ही नीरज ने कहा, ‘मां, कल रात के लिए मैं माफी मांगता हूं किंतु मैं ने अलग रहने का फैसला ले लिया है.’
‘नीरज,’ मैं चौंक कर बोली, ‘आप क्या कह रहे हो, आप को पता भी है.’
‘तुम बीच में मत बोलो, रितु,’ वह एकाएक उत्तेजित और असंयत हो उठे. मैं सहम गई. वह बोलते रहे, ‘अच्छा कमाताखाता हूं, अलग रह सकता हूं. अब यही एक रास्ता रह गया है. आप को हमारे देर से आने में परेशानी होती है. यह करो वह न करो, कितने सम?ौते करने पड़ रहे हैं. मेरा अपना कोई जीवन ही नहीं रहा.’

‘ठीक है, बेटा, जैसा तुम को अच्छा लगे, करो. हम ने तो अपना जीवन जैसेतैसे काट दिया. किंतु इस घर के नियमों को तोड़ा नहीं जा सकता. मन के संस्कार हमें संयत रखते हैं. खेद है, तुम में ठीक से वे संस्कार नहीं पड़ सके. तुम चाहते हो कि तुम्हारे मिलनेजुलने वाले यहां आएं, हुड़दंग मचाएं, खुल कर शराब पीएं और जुआ खेलें और इस घर को मौजमस्ती का अड्डा बनाएं.’ बाबूजी पहली बार तेज आवाज में अपने मन की भड़ास निकाल रहे थे. कहतेकहते बाबूजी की आंखें भर आईं.

मेरे बहुत समझने के बाद भी नीरज ने अलग घर ले कर ही दम लिया. 2-3 महीने तो घर को व्यवस्थित करने में लग गए पर जब घर का बजट हिलने लगा तो पास के एक स्कूल में मुझे भी नौकरी करनी पड़ी. मुन्ने की आया और क्रैच के खर्चे बढ़ गए. असुविधाएं, अभाव और आधीअधूरी आशाओं के सामने प्यार ने दम तोड़ दिया. कभी सोचा भी न था कि मुझसे पर दुनिया की जिम्मेदारियां पड़ेंगी. मुन्ने के किसी बात पर मचलते ही मैं अतीत से वर्तमान में आ गई.

एक दिन सुबह कपड़े धोतेधोते पानी आना बंद हो गया. मैं ने उठ कर नीरज से कहा कि सामने के हैंडपंप से पानी ला दो.
‘‘सौरी, यह मुझसे से नहीं होगा,’’ उन्होंने साफ मना कर दिया.
‘‘तो फिर वाशिंग मशीन ला दो, कुछ काम तो आसान हो जाएगा,’’ मैं ने उठते हुए कहा.
‘‘मैं कहां से ला दूं,’’ बड़बड़ाते हुए नीरज बोले, ‘‘तुम भी तो कमाती हो. खुद ही खरीद लो.’’
‘‘मेरी तनख्वाह क्या तुम से छिपी है. सबकुछ तो तुम्हारे सामने है. जितना कमाती हूं उस का आधा तो क्रैच और आया में चला जाता है. आनेजाने और खुद का खर्च निकाल कर बड़ी मुश्किल से हजार भी नहीं बच पाता.’’
‘‘कमाल है,’’ नीरज नरम होते हुए बोले, ‘‘तो फिर यह सब पहले मां के घर पर कैसे चलता था.’’
‘‘वहां काम करने वाली आया थी. बाबूजी का सहारा था. कोई किराया भी नहीं देना पड़ता था और उन सब से ऊपर मांजी की सुलझ हुई नजर. वह घर जो सुचारु रूप से चल रहा था उस के पीछे सार्थक श्रम और निस्वार्थ समर्पण था पर यह सब तुम्हारी सम?ा में नहीं आएगा क्योंकि सहज से प्राप्त हुई वस्तु का कोई मोल नहीं होता,’’ मैं ने ?ाट से बालटी उठाई और पानी लेने चली गई.
पानी ले कर वापस आई तो नीरज वहीं गुमसुम बैठे थे. उन के चेहरे के बदलते रंग को देखते हुए मैं ने कहा, ‘‘क्या सोचने लगे?’’
‘‘चलो, मां से मिल आते हैं,’’ उन की आंखें नम हो गईं.

अभावों में पलीबढ़ी जिंदगी ने वे सारे सुख भुला दिए जिन के लिए नीरज ने घर छोड़ा था. चिकनऔमलेट तो छोड़ उन का दोस्तों के साथ आनाजाना भी कम होता गया. मांजी कभीकभी मिलने चली आतीं और शाम तक लौट जातीं. बस, बंटी हुई जिंदगी जी रही थी मैं.

एक दिन बाबूजी का फोन आया. बोले, ‘‘2 दिन के लिए लंदन वाले चाचा आए हैं. खाना रखा है तुम्हारी मां ने. ठीक समय से पहुंच जाना.’’
‘‘ठीक है, बाबूजी, मैं पूरी कोशिश करूंगी,’’ मैं ने औपचारिकतावश कह दिया.
‘‘कोशिश,’’ वे थोड़ा रुक कर बोले, ‘‘क्यों, कहीं जाना है क्या?’’
‘‘नहीं, बाबूजी,’’ मैं सुबक पड़ी. मेरे सारे शब्द बर्फ बन कर गले में अटक गए. मैं ने आंसू पोंछ कर कहा, ‘‘हफ्तेभर से इन की तबीयत ठीक नहीं है. दस्त और उलटियां लगी हुई हैं. डाक्टर की दवा से भी आराम नहीं आया.’’
‘‘अरे, तो हमें फोन क्यों नहीं किया?’’
‘‘मना किया था इन्होंने,’’ मैं बोली.
‘‘नालायक,’’ बाबूजी भारीभरकम आवाज में बोले, ‘‘चिंता न करो, मैं अभी आता हूं.’’

थोड़ी देर में मां और बाबूजी भी पहुंच गए. नीरज एक तरफ सिमट कर पड़े हुए थे. मां को देखते ही उन की रुलाई फूट पड़ी. बेटे के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘अरे, किसी से कहलवा दिया होता. देख तो क्या हालत बना रखी है. थोड़ा सा भी उलटासीधा खा लेता है तो हजम नहीं होता.’’ बाबूजी भी पास ही बैठे रहे. मैं चाय बना कर ले आई.

मांजी बोलीं, ‘‘चल, घर चल, अब बहुत हो चुका. अब तेरी एक न सुनूंगी. परीक्षा की घडि़यां तो जीवन में आती ही रहती हैं. चंचल मन इधरउधर भटक ही जाता है. कोई इस तरह मां को छोड़ कर भी चला आता है क्या. चल, बहुत मनमानी कर ली.’’

वात्सल्यमयी मां के स्वर सुन कर मेरी आंखों से आंसू बहने लगे. मांजी मेरी साड़ी के पल्लू से आंसू पोंछते हुए बोलीं, ‘‘इस तरह की जिद बहू करती तो समझ में आता. उस ने तो स्वयं को घर के वातावरण के अनुसार ढाल लिया था पर तुझ से तो ऐसी उम्मीद ही नहीं थी. तु?ा से तो मेरी बहू ही अच्छी है.’’

‘‘मां, मुझे माफ कर दो,’’ नीरज रो पड़े. उन का रोना मां और बाबूजी दोनों को रुला गया.
‘‘मैं ने दवाई के लिए नीरज को सहारा दे कर उठाया तो बड़े ही आत्मविश्वास से बोले, ‘‘अब इस की जरूरत नहीं पड़ेगी. मां आ गई हैं, अब मैं जल्दी ही अच्छा हो जाऊंगा.’’ मैं मुन्ने को उठा कर सामान समेटने में लग गई.

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आज फिर वसुधा बगैर नाश्ता किए रह गई क्योंकि जैसे ही वह अपनी नाश्ते की प्लेट ले कर बैठी, सास ने आवाज दे दी.
‘‘बहू, देखो वाशिंग मशीन चल चुकी है, कपड़े निकाल लो.’’
हमेशा की तरह बेजुबान सी आज्ञाकारी बहू के रूप में वह झट से प्लेट छोड़ कर ‘जी मांजी’ कहती व साड़ी का पल्लू संभालती मशीन से कपड़े निकाल कर फैलाने को दौड़ पड़ी. जब तक लौट कर आई, बर्फी जो उस घर की पामेरेनियन डौगी थी आराम से सैंडविच खा रही थी. मारे झल्लाहट और क्रोध के उस ने बर्फी को एक चपत लगाई और भुनभनाने लगी, ‘‘भुक्खड़ कहीं की, सुबह दी थी न इतनी ढेर सारी दूधब्रैड तु झे, फिर भी मेरा नाश्ता चट कर गई. पता नहीं कितना खाना चाहिए होता है तु झे?’’ यह कह कर फिर से एक चपत उस सफेद झबरे डौगी को लगाई.
वह समझ रही थी कि लालच में आ कर उस ने मालकिन का खाना खा लिया है, इसलिए कूंकूं करती वह भी वहीं पसर कर बैठ गई.
अब वसुधा ने पेट की भूख को चाय की गरमी से शांत करने की सोची और चाय चढ़ा दी. शायद अदरक कूटने की आवाज उस की सास तक पहुंच रही थी, वह हमेशा की तरह बोल उठी,
‘‘बहू, चाय बना रही हो तो 2 कप फीकी चाय भी निकाल देना अपने ससुरजी और मेरे लिए.’’
मन मार कर फिर उस ने ‘जी मांजी, बना रही हूं’ कह कर दूधचीनी चायपत्ती डाल कर चाय चढ़ाई. जो एक कप चाय 5 मिनट में मिल जाती वही बनाने में मजबूरन 15 मिनट लग गए.
वसुंधरा शादी के पहले बहुत धीरगंभीर और नाम के अनुरूप विस्तृत विचारधारा रखने वाली विनम्र तरुणी थी. शादी के बाद सास ने कहा, ‘मैं तो तुम्हें वसुधा ही बुलाऊंगी, यह वसुंधरा बहुत बड़ा नाम है.’
विवाहोपरांत ऐसे लगा जैसे नाम के साथ ही उस ने अपना अस्तित्व भी सिकोड़ कर छोटा कर लिया. ननद, देवर, सास, ससुर, पति एक प्यारी सी गुडि़या जैसी बेटी मिट्ठी ही प्राथमिकताओं में सर्वोपरि रहते वसुंधरा से वसुधा बनी, वह शायद अपने मौलिक रूप में बची ही न रही.
देवर की शादी हुई, देवरानी भी कामकाजी आई. सभी बहुत खुश थे पर सब से ज्यादा खुश वसुधा थी. आखिर अब वह भी घर में एक पद ऊपर हो गई थी. उस की देवरानी आ गई और वह जेठानी हो गई थी.

शादी के दूसरे ही दिन औफिस जाते समय देवरानी तृप्ति प्लाजो और कुरता पहने तैयार खड़ी थी. वसुधा अवाक रह गई थी और सोच रही थी, अब तो पक्का यह डांट खाने वाली है.
उसे अपनी ओर विस्मय से देखते तृप्ति ने कहा, ‘‘अरे भाभी, साड़ी में काम करने में असुविधा होती है और बैंक में सब क्लाइंट को थोड़ी न बताना है कि मेरी नई शादी हुई है.’’

तृप्ति पैंसिल हील पहने टकटक करती रसोई मे आ गई और कहने लगी, ‘‘वाव, आलू के परांठे बने हैं नाश्ते में, मु झ से तो कंट्रोल नहीं होता. मैं ले लेती हूं’’ कहतेकहते उस ने 2 परांठे फोल्ड किए और खातेखाते ‘बाय भाभी’ बोलती बाहर निकल गई. वसुधा कैसे रोकती कि रुको तृप्ति, अभी ठाकुरजी को भोग लगा कर नाश्ता लगाती हूं. यह अंधविश्वास ससुराल में उस ने पहले दिन से देखा था.

अपनी आरामकुरसी पर बैठी सास सब देख रही थी और वहीं से वसुधा को आवाज दी, ‘‘बड़ी बहू, जरा यहां तो आना.’’

वह आज बड़ी बहू तो हो गई थी पर अभी भी उसे अपने बड़े होने का एहसास नहीं हो पा रहा था. सासुमां उबल रही थी, ‘‘कैसी लड़की है तृप्ति, कम से कम पूछना तो चाहिए. रसोई जूठी कर दी, अभी मेरे ठाकुरजी भूखे ही हैं. अच्छा सुनो, अब तुम देशी घी का हलवा बना दो और भोग लगा दो.’’
‘‘जी मांजी’’ कह वसुधा फिर रसोई में चली गई. अभी हलवे में शक्कर डाली ही थी कि पति अमर ने आवाज दे दी, ‘‘अरे वसुधा, देखो मिट्ठी उठ गई है और रो रही है. जल्दी आओ, मु झे औफिस के लिए निकलना है.’’
उस ने जल्दीजल्दी भोग लगा कर सास और ससुर को नाश्ता दिया और अमर का नाश्ता टेबल पर रख मिट्ठी को गोद में उठा लिया. वह उस का आंचल पकड़ कर रोए जा रही थी.
अब देवर समर भी तैयार हो कर आ गए और ननद विजया भी कालेज जाने को तैयार थी. देवर ने मिट्ठी को गोद में ले लिया और कहने लगा, ‘‘अले अले, मेला बच्चा क्यों लो लहा है?’’
मिट्ठी ‘मां मां’ कह रोए जा रही थी.
ननद ने कहा, ‘‘भाभी, आप मिट्ठी को देखिए, मैं अपना और समर भैया का नाश्ता लगा लेती हूं.’’
वसुधा मिट्ठी को सीने से चिपकाए अपने कमरे में चली गई.
शाम को फिर जब सब अपनेअपने औफिस से आ गए तो सासुमां ने तृप्ति को आवाज दी, ‘‘छोटी बहू, जरा यहां तो आना.’’
‘‘जी मांजी’’ कह कर वह आ गई.
‘‘सुनो बहू, आज तक वसुधा ने घर की सारी जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठाई है. अब तुम आ गई हो तो थोड़ा उस का हाथ बंटाओ. शाम का खाना आज से तुम पकाओ, उसे अपनी बच्ची के लिए थोड़ा वक्त मिल जाएगा.’’
‘‘ठीक है मां, मैं कुछ प्लान करती हूं,’’ तृप्ति ने कहा.
जब वसुधा शाम को किचन में आई तो तृप्ति ने उसे यह कह कर हटा दिया कि ‘‘भाभी, इट्स माई जौब एंड आई विल डू दिस इन माई वे. आप आराम करिए, अब तक बहुत काम कर लिया आप ने.’’

वसुधा कहती रह गई, ‘‘लाओ मैं कुछ मदद कर दूं,’’ पर तृप्ति ने उसे कमरे में भेज दिया. थोड़ी देर बाद बहुत जोर से हंसने की आवाजें सुन वसुधा ने अपने कमरे से देखा तो देवर समर सब्जी काट रहे थे, तृप्ति मिक्सी चला कर मसाले पीस रही थी और ननद चाय बना रही थी. वसुधा अवाक रह गई और सोचने लगी, बहुत चालू लड़की है यह. इस ने तो शातिराना अंदाज में काम बांट दिए और अपना काम हलका कर लिया.

खैर, सब ने खाना खा लिया. अब तृप्ति और वसुधा टेबल पर बैठी खा रही थीं. तृप्ति ने कहा, ‘‘दी, देखा आप ने, शेयरिंग इज केयरिंग बांटने से कैसे झट से काम हो जाता है.’’ तभी सास की आवाज आई, ‘‘बड़ी बहू, जरा एक गिलास गरम पानी ले कर आओ.’’

जैसे ही वसुधा उठने को तत्पर हुई, तृप्ति ने उस का हाथ पकड़ कर बैठा दिया, ‘‘दी, खाना खत्म कर के उठिए, ऐसे में मां अन्नपूर्णा का अपमान होता है.’’

वसुधा अचकचाहट में बैठ गई पर बारबार सास के कमरे की तरफ देखे जा रही थी. सास ने फिर से आवाज दी, ‘‘अरे बड़ी बहू, जरा गुनगुना पानी तो दे जाओ, दवा खानी है.’’ इस बार तृप्ति बोल उठी, ‘‘लाती हूं मां. बस, खाना खा कर ले आती हूं.’’

वसुधा अवाक रह गई. तृप्ति ने आराम से खाना खत्म किया और पानी गरम करने को रख दिया. अंदर सास भन्नाई बैठी थी क्योंकि ऐसा पहली बार हुआ था कि जब एक आवाज में पानी न मिला हो.

वसुधा सोच रही थी, कितनी बिंदास है तृप्ति. कभी भी उसे परेशान या उदास नहीं देखा. अपनी मरजी से जिंदगी जी रही है. जबकि मैं सारी उम्र बस घरपरिवार को खुद से ऊपर रखती रही. परिणाम क्या रहा, खुद का अवसाद और कुढ़ना.

छोटी बूआ की बेटी निहारिका की शादी थी. सासुमां यानी बूआ की बड़ी भाभी की राय हमेशा से सर्वाधिक मान्य होती पर इस बार जब खरीदारी करने और शादी की योजनाओं की तैयारी में हाईटैक बहू तृप्ति ने बढ़चढ़ कर योगदान दिया, सासुमां कुछ राय देती, इस से पहले ही उस ने बूआजी को भी अपने सम्मोहिनी वशीकरण मंत्र से मुग्ध कर लिया.

‘‘बूआजी, यह देखिए आजकल हाईटैक जमाना है, सबकुछ उंगलियों की एक क्लिक पर उपलब्ध है. पार्लर से ले कर फूलों की सजावट और भी जो कहिए सबकुछ यहीं से घर बैठेबैठे बुक कर देती हूं.’’ तृप्ति ने यहां भी अपनी धाक जमा ली थी.

अभी तक घर की सभी शादियों में सासुमां की ही राय मान्य होती. खुद को महत्त्व न मिलते देख सासुमां ने कहा, ‘‘सुनो छोटी, आज शाम को मैं ने अपने खानदानी ज्वैलर्स कन्हैया लाल को बुलाया है. लेटैस्ट गहनों और टीका व नथिया सब की डिजाइन देख कर परख कर पसंद कर लेना.’’

तृप्ति फिर बीच में कूद पड़ी, ‘‘ओह, सुनार आ रहा है पर निहारिका एक बार तनिष्क की डिजाइन जरूर देख लो, बहुत खूबसूरत और आधुनिक कशीदाकारी के गहने होते हैं. और तो और, बूआजी, सोना भी खरा पूरे चौबीस कैरेट गोल्ड होता है.’’ उस ने अपनी सम झदार सलाह दे डाली जो सम्मोहिनी वशीकरण मंत्र से पूर्ववत प्रभावित निहारिका को भा भी गई और वह कहने लगी, ‘‘भाभी बिलकुल सच कह रही हैं, मामी. मां, आप सब का जमाना अब गया. अब तो सच में सब गहने भी ब्रैंडेड ही पहनते हैं.’’

सासुमां के चेहरे के उडे़ रंग बता रहे थे कि उन्हें तृप्ति की वजह से हाशिए पर कर दिया गया है जिसे वह बिलकुल भी नहीं पचा पा रही है. वसुधा सबकुछ समझ रही थी.

धूमधाम से शादी संपन्न हुई. पूरे समारोह में फिर से तृप्तितृप्ति की ही गूंज रही चाहे वह लेडीज संगीत में नाचना हो या फिर कोई देनेलेने की राय. बूआजी को भी अब तृप्ति पर ही सब से ज्यादा भरोसा था. निमंत्रण का पर्स जो अब तक सासुमां के पास रखा रहता था, वह तृप्ति ने संभाल लिया था. सासुमां ने आज सुबह सब को आंगन में बुलाया था. वसुधा सशंकित थी और जान रही थी कि कुछ तो गड़बड़ी होगी. लेकिन अनुभवी सासुमां ने बड़ी सावधानी से अपनी बात रखी.

‘‘मैं ने तुम सब को इसलिए बुलाया है कि मैं और तुम्हारे पापा कल सुबह गांव जा रहे हैं. यहां तो सब ठीक चल रहा है लेकिन गांव का घर किसी के न रहने से गिरपड़ रहा है. अब जब हम दोनों वहां रहेंगे तो सबकुछ सही हो जाएगा.’’
अमर ने कहा, ‘‘क्या हो गया मां, तुम नाराज हो क्या?’’
‘‘अरे, मैं भला क्यों नाराज होने लगी. मु झे कोई शिकायत नहीं है. बस, वह पुश्तैनी संपत्ति है, उस की भी देखभाल होनी चाहिए.’’
समर बोल पड़ा, ‘‘मां, इस घर में आए कुछ परिवर्तनों के कारण तुम जा रही हो पर तुम न जाओ मां, जैसे कहोगी वैसा ही पूर्व के जैसा हो जाएगा. पर प्लीज, तुम मत जाओ,’’ समर भर्राए गले से बोल पड़ा.

तृप्ति चुपचाप अपने कमरे में चली गई. वसुधा रसोई में लौट गई, वह जानती थी, यह सब मांजी ने तृप्ति के कारण ही निर्णय लिया है. वह खाना बनाने में जुट गई. रात का खाना तृप्ति सब की मदद ले कर बनाती थी पर रसोई में किसी को न पा कर वसुधा ने सोचा कि वह खुद ही खाने की तैयारी करे पर उसे सासुमां के कमरे से जोरजोर की हंसने की आवाजें सुनाई दे रही थीं. वह धीरेधीरे सासुमां के कमरे में पहुंच गई. वहां का नजारा अजीब ही था. तृप्ति सासुमां की गोद में सिर रख कर जमीन पर बैठी थी और सासुमां उस का सिर सहला रही थीं. वसुधा को देख कर उन्होंने कहा, ‘‘आओ बेटी, यहां आओ, मेरे पास बैठो.’’ वसुधा स्तब्ध थी. आज वह बहू, फिर बड़ी बहू से बेटी कैसे बन गई.

वसुधा धीरे से बैठ गई. सासुमां ने बोलना शुरू किया, ‘‘देखो न, तृप्ति ने आ कर रोरो कर मु झे भावनात्मक रूप से कमजोर बना दिया और कसम दे कर रोक लिया, कहने लगी कि कल उस का बर्थडे है, यहां तो उस के मां और पापा हम दोनों ही हैं, हम चले गए तो उसे आशीर्वाद कौन देगा. शादी के बाद यह उस का पहला बर्थडे है. बिना हम सब के आशीर्वाद के वह नहीं मना सकती. इसलिए या तो हम रुकें या फिर वह भी गांव चलेगी, बतातेबताते सासुमां हंसने लगी, ‘एकदम बच्चों जैसी जिद पकड़ ली इस ने, आखिर हार कर हमें रुकना पड़ा.’’

वसुधा बोल उठी, ‘‘यह तो बहुत अच्छा किया मांजी जो आप रुक गईं. मैं चाय बनाती हूं’’ कह कर वह रसोई की ओर जाने को मुड़ी ही थी कि तृप्ति उठ गई, कहने लगी, ‘‘वेट वेट, भाभी, मैं भी आती हूं.’’ और उस ने सब से पहले सासुमां को कस के गले लगा कर कहा, ‘‘थैंक्यू सो मच मां. आप नहीं जानतीं कि आज मैं कितनी खुश हूं जो आप को रोक सकी.’’ सासुमां हंस रही थी और तृप्ति वसुधा का हाथ पकड़ कर रसोई की तरफ चल दी.

वसुधा ने कहा, ‘‘तू ने असंभव को संभव कर दिया, तृप्ति. सासुमां को मनाना किसी के वश का नहीं था.’’ तृप्ति बोल उठी, ‘‘अरे भाभी, थोड़ा ग्लिसरीन लगाया और थोड़ा सा झूठ बोलने से अगर वह मान जाती है तो मैं ने सोचा, हर्ज ही क्या है.’’
‘‘क्या कह रही हो तृप्ति, तुम ने ग्लिसरीन लगाई रोने के लिए और कल तुम्हारा बर्थडे नहीं है?’’ वसुधा अवाक थी.

कल मेरा बर्थडे भले न हो, दी, लेकिन मांजी का वरदहस्त इस घर पर होना ही चाहिए वरना यह घरौंदा तिनके के जैसे बिखर जाएगा. बस, इसी की कोशिश की मैं ने कि वृक्ष अपनी जड़ों से न अलग हो सके.

चाय बन गई थी, उबलते हुए अपना रंग छोड़ रही थी और वसुधा सोच रही थी कि मैं ने तो कभी भी इतने हठ, अधिकार और प्यार से कुछ भी नहीं किया. दरअसल मैं सारा दिन काम करती झल्लाती रहती थी और औपचारिकताओं के तानेबाने के साथ बंधी ससुराल में बंधन महसूस करती रह गई. मैं ने जैसे औपचारिक व्यवहार किया, बदले में भी औपचारिक प्यार मिला. इस लड़की तृप्ति ने तो हृदय से बिना किसी बाहृय आवरण के संपूर्णता के साथ बिना लागलपेट उन बंधनों को काट कर स्वच्छंद माहौल बना लिया और फिर प्यार के मंत्र फूंक कर सब को अपना बना लिया.

मु झे दुख हो रहा था सासुमां के जाने का पर मेरा हृदय तो निर्विकार भाव में था. मैं ने एक बार भी उन्हें नहीं रोका और इस ने जुगत लगा कर उन्हें रोक भी लिया. सच में तृप्ति के वशीकरण सम्मोहिनी मंत्र केवल ढाई शब्द से बने हैं- प्यार.

तभी तृप्ति ने टोका, ‘‘अरे दी, आज सब को कड़क चाय पिलाएंगे. क्या चाय उबल गई है, लाइए मैं सब को दे आती हूं और मेरी मिट्ठी के लिए दूध के साथ बिस्कुट निकाल लाइए, वह मेरे साथ खेलखेल के खा लेती है.’’

‘‘हांहां, लाती हूं,’’ वसुधा ने कहा और मन में सोचने लगी, तुम्हारा वशीकरण सम्मोहिनी मंत्र उस छोटी बच्ची पर भला कैसे न चलता और मैं भी कहां अछूती रही तृप्ति के सम्मोहिनी मंत्र के मायाजाल से. बांध लिया इस ने मु झे भी अपने प्रेमपाश में.

लेखिका : अरुणिमा

Social Story : विमला – वृद्धवस्था की बेबसी बयां करती कहानी

Social Story : अकेली थी विमला. 80 साल की इस उम्र में दुखदर्द बांटने वाला पास में कोई अपना न था. बुढ़ापे का यह अकेलापन, बेबसी अच्छी तरह समझती थी इसलिए तो अपना दर्द भुला कर दूसरों की मदद के लिए चल पड़ती थी विमला.

रोज की तरह सुबह 7 बजे सोसाइटी के चौराहे पर आने वाली स्कूलबस का हौर्न बजा तो 80 साल की विमला की आंख खुली. उन्होंने पहले थोड़ी देर यों ही बैठ कर अपने घुटने को सहलाया, फिर उठ कर फ्रैश होने के लिए वाशरूम गईं. यह मुंबई के ठाणे की रोज वैली सोसाइटी की बिल्डिंग नंबर 3 के 5वें फ्लोर का टू बैडरूम फ्लैट है. विमला अकेली रहती हैं. पति सालों पहले साथ छोड़ गए.

उन के दोनों बेटे विदेश जा बसे हैं. अब उन का दिन अकेले, उदास ऐसे बीतता है जैसे महानगरों में रहने वाले अकेले इंसानों का बीतता है. ब्रश कर के उन्होंने थोड़ा लंगड़ाते हुए किचन में जा कर पानी पिया. आर्थराइटिस के कारण सुबहसुबह पैर ज्यादा ही अकड़ा रहता है. अपने लिए चाय चढ़ा दी. एक नजर फ्रिज खोल कर देखा कि क्याक्या रखा है, क्या मंगवाना है.

अपनी चाय छान कर रोज की तरह 2 बिस्कुट लिए और बैडरूम की खिड़की के पास ऐसी जगह अपनी चेयर रख कर बैठ गईं जहां से बाहर की आवाजाही देखती रहें. वे बाहर देखती रहीं. लोग आजा रहे थे. उन में से कई लोगों से आमनासामना होने पर हायहैलो भी हो गई है. बस, इतना ही तो फैशन है इस शहर का. कोई खास हो गया तो कभी घर आ गया वरना सड़क पर आतेजाते सब रिश्ते निभा लिए जाते हैं. बाहर देखने पर लगता है कि एक दौड़ सी है, सब भागे ही जा रहे हैं. खैर, कोई आएजाए, जिएमरे, उन्हें क्या. उन्हें जितने दिन जीना है, अकेले ही जीना है, यह सच वे स्वीकार कर चुकी हैं तो अब उन्हें किसी बात का फर्क ही नहीं पड़ता.

अरे, वाह. आज तो चाय कब खत्म हो गई, पता ही न चला. सुबह से फोन भी नहीं देखा. विमला ने अपना मोबाइल फोन औन किया. बेटों प्रतीक और प्रयाग के ‘गुड मौर्निंग, मां’ के मैसेज थे. उन्होंने खुशी के भाव से ‘गुड मौर्निंग, बच्चो’ लिख दिया. सोसाइटी के इस फेज का एक व्हाट्सऐप ग्रुप था. कई लोगों ने व्हाट्सऐपिया ज्ञान बघारा हुआ था जिन से वे बहुत चिढ़ती थीं. जो यह ज्ञान फौरवर्ड करते थे उन्हें विमला अच्छी तरह जानती थीं. उन में से कोई एक भी यह ज्ञान अपने जीवन में उतार ले तो समाज में कोई बुराई रहे ही न. कुछ मैसेज उन के कुछ रिश्तेदारों के थे जिन पर उन्होंने सरसरी नजर डाली. जवाब जितना छोटा हो सकता था, उतना दे दिया.

विमला एक रिटायर्ड टीचर थीं. थोड़ी देर वे फिर खिड़की के बाहर देखती रहीं. वे यहां 25 सालों से रह रही थीं. काफी लोगों को पहचानती थीं वे. अब तो मेड लता के आने का टाइम हो गया था. लता के घंटी बजाने पर ही वे उठीं. लता आती है तो उन का मुंह खुलता है वरना बात करने वाला कोई नहीं. 50 साल की लता उन के घर 10 सालों से आती है. महाराष्ट्रियन लता बहुत मेहनती स्त्री है. विमला के लिए और विमला जैसी दूसरी अकेली रहने वाली स्त्रियों के लिए उस के दिल में करुणा का भाव रहता है. आते ही बोली, ‘‘सौरी आंटी, अनीता मैडम की बाई मिल गई थी, उस की बात सुनने में देर हो गई. अनीता मैडम को 2 दिनों से बहुत तेज बुखार है. आप को तो पता ही है, देखने वाला कोई नहीं.’’
‘‘क्या हुआ?’’
‘‘उठ नहीं पा रही हैं. अंजू ने बताया, वह उन्हें मुश्किल से कुछ खिला कर आई है पर कोई उन्हें हौस्पिटल ले जाने वाला नहीं है.’’
‘‘अरे, अरे, चल मेरे साथ. बस, मैं कपड़े बदल लूं. वह उठ कर दरवाजा तो खोल पाएगी?’’
‘‘नहीं, आंटी. अंजू बता रही थी कि अनीता मैडम ने कहा है कि वे उठ नहीं पाएंगीं. वह चाबी उन की बिल्डिंग के वाचमैन माधव को दे दे.’’

इतनी देर में विमला ने कपड़े बदल लिए थे, अपना पर्स उठाया और कहा, ‘‘चल, जरा. देख आऊं, अकेली रहती है, उस के बच्चे भी तो बाहर ही हैं, देखती हूं, क्या कर सकती हूं.’’
‘‘पर आंटी, आप जाएंगी और अभी तो आप ने कुछ खाया भी नहीं होगा, नाश्ता बना देती हूं, फिर चलते हैं. आप का तो उन के साथ झगड़ा हुआ था न?’’
‘‘अरे, ठीक है, 10 साल हो गए इस बात को तो.’’
अपना दरवाजा बंद करतेकरते विमला बोलीं, ‘‘बच्चों को देखा है कभी? लड़ते हैं, चार दिन बाद फिर साथ खेलने लगते हैं. ये तो हम बड़े ही बेकार होते हैं कि लड़ कर बैठ जाते हैं. अब सोचती हूं कि इंसान को हमेशा बच्चों की तरह झगड़ा करना चाहिए. लड़े, चिल्लाए, फिर एक हो गए.’’ लिफ्ट आ गई तो लता का हाथ पकड़ कर विमला बात करती जा रही थी. लता से वे हमेशा कुछ न कुछ बात करती रहतीं. उस के जाने के बाद उन का फिर पूरा दिन चुपचाप ही बीत जाता. लता ने पूछा, ‘‘आंटी. आप को चलने में दर्द होता है न? कैसे चलोगी?’’
‘‘तू रहना मेरे साथ.’’
‘‘आंटी, बाकी घरों में मेरा काम बचा है, मैडम लोग गुस्सा होंगीं.’’
‘‘पहले अनीता के घर जा कर देखती हूं, फिर सोचते हैं.’’
लिफ्ट से निकल कर विमला अनीता की बिल्ंिडग की तरफ चलते हुए बहुतकुछ सोच रही थीं. अपने दर्द की तरफ से भी ध्यान हट गया था. उन के पति रमेश 60 साल के होते ही इस दुनिया को अलविदा कह गए थे. वे भी सरकारी स्कूल में टीचर थे. दोनों की पैंशन से उन का खर्चा चल जाता. पति का जाना उन्हें बहुत तोड़ गया था. बड़ी मुश्किल से उन्होंने खुद को संभाला था और चारा भी क्या था.

बच्चे उन्हें अपने पास 3-4 साल में एक महीने के लिए एक बार बुला कर बेटे होने का फर्ज निभा देते. उन्हें खुद आए हुए तो सालों बीत चुके थे. अब उन्हें सम झ आ गया था कि उन्हें अकेले ही जीना है, सो, वे इस सच को न चाहते हुए भी स्वीकार कर ही चुकी थीं. पहले उन्हें सब से ज्यादा दुख इस बात का होता था कि वे जब भी बीमार हुईं तो बेटों ने हर बार यही कहा, ‘‘मां, आप फुलटाइम मेड क्यों नहीं रख लेतीं? पैसा हम दोनों भाई शेयर कर लेंगे.’’

वे यह बात कह नहीं पाईं कि कोई अपना कभी तो उन के साथ रहे, उन का भी मन होता है कि कोई उन से बात करे, बच्चे कुछ दिन ही सही, कभी तो आएं या उन्हें ही कोई बेटा अपने साथ ले जाए, उन से जबरदस्ती अपने साथ चलने के लिए कहे. उन के बड़ेबड़े घरों में मां के लिए थोड़ी सी भी जगह नहीं? न उन के खाने के कभी नखरे रहे, न कभी पहनने के. तो भी बच्चे उन्हें अपने पास क्यों नहीं रख लेते? क्यों नहीं कोई उन्हें अकेले देख अपने साथ जबरदस्ती ले जाता कि चलो, कोई जरूरत नहीं यहां अकेले रहने की. हम अपनी मां को अकेले नहीं रहने दे सकते. उन्होंने तो कभी यह नहीं कहा कि वे अपना घर छोड़ कर कहीं नहीं जाएंगी.

जैसेजैसे उन्हें धीरेधीरे बहुतकुछ सम झ आता गया, वैसेवैसे मन उतना कोमल नहीं रहा जैसा हुआ करता था पर एक बात जरूर थी कि जैसे ही उन्हें पता चलता कि कोई मुसीबत में है, वे मदद करने से पीछे न हटतीं. अब भी यही हो रहा था, जिस से अपने काम आसानी से न होते थे, वे अनीता की मदद के लिए लता का सहारा ले कर तेजी से जा रही थीं.

एक सोसाइटी के लोगों में बातचीत भले ही रोज न हो लेकिन चेहरों से तो एकदूसरे को पहचानते ही हैं. अनीता की बिल्ंिडग में पहुंच कर विमला ने माधव से कहा, ‘‘माधव, अनीता के फ्लैट की चाबी देना.’’
‘‘जी, मैडम.’’ साफ सम झा जा सकता था कि वे अनीता को देखने आई हैं. लता के साथ विमला अनीता के फ्लैट में घुसी. लिविंग रूम में ही सामने रखी उस के पति की माला चढ़ी फोटो पर नजर डालते हुए आवाज दी, ‘अनीता, अनीता.’ कोई आवाज नहीं आई. एकदम सन्नाटा. इस सन्नाटे से विमला परिचित थीं. ऐसा सन्नाटा ही तो उन के अपने घर में भी रहता है. विमला कुछ कदम तेज रख कर अनीता के बैडरूम में पहुंचीं. अनीता को आवाज देते हुए उस का माथा छुआ, जैसे किसी अंगारे पर हाथ रख दिया हो.

अनीता ने उन के हाथ की छुअन महसूस करते हुए आंखें खोलीं, फिर बंद कर लीं. अनीता तेज बुखार में बेसुध सी थी. उस की उम्र भी विमला से करीब 75-7 साल ही कम होगी.
उन्होंने जल्दी से कैब बुक की, लता से कहा, ‘‘इसे ले कर हौस्पिटल जा रही हूं. तबीयत बहुत खराब लग रही है. इसे नीचे तक पहुंचाने में मेरी हैल्प करना, लता.’’

विमला ने अनीता के कपड़ों पर नजर डाली. उस ने सलवारसूट पहना हुआ था. मुंह से कराह निकल रही थी. विमला का मन भर आया. अनीता को उठाते हुए उस का सिर सहलाया, ‘‘थोड़ी हिम्मत कर लो, अनीता, हौस्पिटल चलते हैं.’’

अनीता ने अपना सिर पकड़ते हुए उठने की कोशिश की, सम झ आ रहा था कि उस के सिर में तेज दर्द है. अनीता का एक हाथ विमला ने पकड़ा, दूसरा लता ने. उसे नीचे लिफ्ट से लाए. कैब आ चुकी थी. माधव को चाबी सौंपी और विमला लता की हैल्प से अनीता को पीछे लिटा कर खुद ड्राइवर की सीट के बराबर वाली सीट पर बैठ गई. इतना करने में उन का दर्द भी बहुत बढ़ चुका था. लता उन्हें इज्जत से देख रही थी. वह अच्छी तरह सम झ सकती थी कि इस समय खुद विमला को कितनी परेशानी हो रही होगी पर विमला अकेले रहने वालों का दर्द अच्छी तरह से जानती थी तो वे इस समय अनीता को अकेले नहीं छोड़ पाई थीं.

हौस्पिटल पहुंच कर विमला ने तुरंत इमरजैंसी में अनीता को देखने के लिए रिक्वैस्ट की. अनीता को एडमिट कर लिया गया और टैस्ट्स शुरू हो गए. विमला वहां रखी एक चेयर पर बैठ गईं. चेयर बिलकुल आरामदायक नहीं थी. विमला को तकलीफ होने लगी. जल्दी में वे अपनी स्टिक घर छोड़ आई थीं. वे इस चेयर पर ज्यादा देर नहीं बैठ सकती थीं. उन्हें सम झ आ गया. उन्होंने वहीं बैठेबैठे अपनी सोसाइटी के चेयरमैन राजीव देशमुख को पूरी बात बताई. राजीव ने फौरन कहा, ‘‘मैं अभी उन के बेटों को अनीताजी की हालत बता देता हूं और किसी से बात कर के आप के पास भेज देता हूं.’’
राजीव सज्जन इंसान थे. उन्होंने कमेटी मैंबर्स से बात की. एक मैंबर की पत्नी रीता ऐसी स्थितियों में हैल्प के लिए हमेशा तत्पर रहती.

उस ने सुनते ही विमला को फोन किया, ‘‘आंटी, मैं आ रही हूं. तब आप घर आ जाना. आप की भी तबीयत खराब रहती है. आप ने कुछ खाया? आप के लिए कुछ ले आऊं? अनीता आंटी कैसी हैं?’’
‘‘अभी तो एडमिट कर लिया है, उसे बहुत तेज बुखार था. तुम आ जाओ तो मैं कैंटीन में ही कुछ खा लूंगी.’’

राजीव ने अनीता के बेटे युग और पर्व को भी फोन कर दिया. अकेले रहने वाले बुजुर्गों के बाहर गए बच्चों के नंबर सोसाइटी की कमेटी के पास रहते ही हैं. युग और पर्व परेशान हो उठे, बोले, ‘‘मम्मी ने बुखार तो बताया था पर ऐसी हालत है, इस का अंदाजा तो हमें भी नहीं हुआ था. सुबह से फोन नहीं उठाया तो हम ने सोचा कि मम्मी सो रही होंगीं. अंकल, हम सोसाइटी के अकाउंट में कुछ पैसे ट्रांसफर कर रहे हैं. और, बस, निकल रहे हैं. आप हमें विमला आंटी का भी नंबर दे दें.’’

अनीता के बच्चों ने एक मोटी रकम सोसाइटी के अकाउंट में ट्रांसफर कर दी. रीता हौस्पिटल के लिए निकल गई. सख्त बैंच जैसी चेयर पर बैठेबैठे विमला की कमर और घुटने का बुरा हाल था पर इस समय उन्हें अनीता की चिंता थी. उन्हें याद आने लगा कि कैसे एक छोटी सी बात पर उन की अनीता से बहस हो गई थी. विमला स्ट्रीट डौग्स को बहुत प्यार करती थी और अनीता इन से बहुत चिढ़ती थी. ऐसे ही एक बार विमला सोसाइटी में जगहजगह बने डौग्सफीडिंग प्लेस पर कुत्तों के लिए खाना डाल रही थी. अनीता वहां से गुजर रही थी. उस ने कहा था, ‘आप जैसे लोगों के कारण सोसाइटी में कुत्ते हो गए हैं.

‘किसी को भी काट सकते हैं. आप लोगों को कुत्तों का इतना ही शौक है तो अपने फ्लैट में ही रखें, किस ने मना किया है.’

विमला को भी गुस्सा आ गया था, उन्होंने कहा था, ‘तुम्हें कोई कुछ कह रहा है? बेजबानों के पेट में कुछ जा रहा है तो तुम्हें क्या तकलीफ हो रही है? इन्होंने कभी किसी को काटा है?’

दोनों थोड़ी देर बहस करती रही थीं. इस के बाद आमनासामना होने पर हायहैलो बंद हो गई थी. रीता ने आ कर जब कहा, ‘‘हैलो आंटी,’’ तब वे वर्तमान में वापस लौटीं. रीता उन के पास बैठ गई, ‘‘आंटी, आप अब घर जा कर आराम कर लो. अब कोई न कोई आता रहेगा. सब मिल कर संभाल लेंगे. उन के बेटे भी आ रहे हैं.’’
‘‘बेचारे बच्चे. भागे आ रहे हैं. वैसे, हम मिल कर संभाल ही लेते.’’ स्त्रीसुलभ ममता छलक उठी.
‘‘राजीवजी ने मना तो किया था पर वे माने नहीं.’’
अनीता के घर की चाबी ले कर पीछे से माली ने चौकीदार के सामने पूरा घर साफ कर दिया. बीमार जने की दवाओं की बदबू न रह जाए, इसलिए माली किसी घर से स्प्रे भी ले आया.

चौकीदार से विमला ने फोन कर कहा कि अनीता की मेड को बुलवा कर सारे कपड़े साफ करवा दो. अनीता और विमला का लिहाज सब करते थे. फटाफट घर चकाचक कर दिया गया और गार्ड चाबी अपने साथ ले गया.

विमला घर तो आ गईं पर उन्हें अनीता की चिंता हो रही थी. घर आ कर नहाधो कर वे फिर हौस्पिटल चली गईं. ऐसे करकर के सब थोड़ीथोड़ी देर हौस्पिटल की ड्यूटी मिलजुल कर निभाते रहे. रीता रात को भी वहां रुकने के लिए तैयार हो गई. विमला सुबह ही तैयार हो कर हौस्पिटल पहुंच गईं. जिस से रीता घर आ सके और भी कई लोग अब हौस्पिटल में रुक कर विमला का साथ दे रहे थे.

अनीता की रिपोर्ट्स आ गई थीं. उसे डेंगू हुआ था. प्लेटलेट्स चढ़ाई जा रही थीं पर साथ ही और भी परेशानियां हो रही थीं. दूसरे दिन उसे निमोनिया हुआ, परेशानियां और बढ़ीं. अब उसे एडमिट हुए 4 दिन हो रहे थे. युग और पर्व आ चुके थे. जब युग और पर्व आए तो घर को साफ देख कर थोड़े चौंके पर पता चलने पर सब को थैंक्स बोला.

विमला उन का खाना लता से बनवा लेतीं और दोनों को स्नेह से खिलातीं. युग और पर्व विवाहित थे पर अभी अकेले आए थे. दोनों उदास थे, परेशान थे. सब के सामने शर्मिंदा थे कि दोनों के होते हुए मां अकेली यहां रहती हैं. विमला अनुभवी थीं, यह बात अच्छी तरह से सम झती थीं कि पत्नियों की अगर मां से न बने तो बेटे कुछ नहीं कर सकते. मां को अकेले छोड़ कर ही उन की घरगृहस्थी बसती है. यह घरघर की कहानी है.

डेंगू ने अनीता को पूरी तरह से अपनी गिरफ्त में ले लिया था. एक के बाद एक परेशानियां इतनी बढ़ीं कि उसे बचाया नहीं जा सका. बेटे बिलख पड़े, सब ठगे से रह गए. विमला जैसे पत्थर सी बैठी रह गईं. कुछ न सू झा. उस समय वे घर पर ही युग और पर्व के लिए खाना बनवा रही थीं जब उन्हें रीता ने हौस्पिटल से यह बुरी खबर दी. विमला ने एक ठंडी सांस ली, आंसू पोंछे.

इतने में उन के बेटों का भी फोन आ गया. उन्होंने उन्हें कुछ नहीं बताया. स्वर संयत रख कर बातचीत की और फोन रख दिया. फिर सोचा, यह तो बैठने का टाइम नहीं है और भी काम होंगे. युग और पर्व को अभी बहुत सारे कामों में कोई चाहिए होगा, किसी की जरूरत होगी. अपने घुटने को सहलाते हुए वे फिर आगे की जाने वाली क्र्रियाओं के बारे में बात करने के लिए कई लोगों से बात कर के फिर अनीता के फ्लैट पर जाने के लिए स्टिक ले कर खड़ी हो गईं. अनीता का शव ले कर एंबुलैंस आने वाली थी. उस से पहले अनीता की बिल्डिंग में जा कर उन्हें अनीता की विदाई की तैयारी करनी थी. युग और पर्व को कोई परेशानी न हो, यह देखना था. अपनी झुकती कमर और दर्द में अकड़े पैर के साथ स्टिक ले कर वे भारी मन और नम आंखों के साथ बिना किसी का सहारा लिए चुपचाप लिफ्ट की तरफ बढ़ गईं.

पड़ोसियों का तो पता नहीं पर आसपास की मेड्स, माली, वाशरमैन, गार्ड्स सब सम झ रहे थे कि विमलाजी ने क्याक्या किया.

Emotional Story : मां, कुछ देर और – मांबेटी के बीच अटूट रिश्ता

Emotional Story : मांबेटी के बीच जुड़े प्यार के तार वही समझ सकता है जिस ने खुद उसे महसूस किया हो. कविता अपनी हर सांस आज मां के साथ जी लेना चाहती थी, लेकिन वक्त कहां था.

‘‘कविता जल्दी आ जा, मां की हालत बहुत खराब है. वे बोल भी नहीं पा रहीं. बस, चारों ओर बेचैनी से तुझे ढूंढ़ रही हैं.’’

जैसे ही कविता के भाई विनम्र ने कविता को फोन पर बताया, उस के हाथों से फोन गिर गया. उधर भाई फोन पर हैलोहैलो बोले जा रहा था पर कविता को तो कुछ होश नहीं. वह लगभग गिरने ही वाली थी कि बड़ी मुश्किल से दीवार के सहारे खुद को संभाल धम्म से सोफे पर बैठ गई. आंखों से अश्रुधारा गालों पर उस नदी की तरह बहने लगी जैसे बारिश में नदी अपने रौद्र रूप में बहती है. मन तो उस का कब का मां के पास पहुंच चुका था परंतु तन, तन से तो अब भी वह यहीं थी, मां से दूर. वह बेचैन हो रही कि कैसे फटाफट मां के पास जाऊं, एक बार उन्हें अपने गले से लगा लूं, अपनी आंखों में भर लूं.
‘‘कविता, क्या हुआ, सामान पैक करो, हमें तुरंत निकलना होगा,’’ कविता के पति अशोक हड़बड़ी में कमरे में प्रवेश करते हुए बोले पर कविता यहां हो तब न. जब अशोक ने उसे झिंझोड़ा तो वह वर्तमान में आई और अशोक के गले लग कर रो पड़ी, ‘‘अशोक, मां, मुझे मां के पास ले चलो.’’
‘‘हां कविता, चिंता मत करो. तुम खुद को संभालो. हम चल रहे हैं. हिम्मत रखो. सफर बहुत लंबा है.’’
और अशोक ने बड़ी मुश्किल से कविता व खुद के कपड़े बैग में रखे. नीचे गाड़ी खड़ी थी, अशोक और कविता गाड़ी में आ कर बैठ गए. 14-15 घंटे का सफर है, कैसे कटेगा यह सफर, कहीं सफर के खत्म होने से पहले ही मां… कविता के मन में बुरे खयाल आने लगे.
नहीं मां, प्लीज, तुम मुझे छोड़ कर नहीं जा सकतीं. आप तो हमेशा से धैर्य की मूर्ति रही हैं. मां को अशोक बहुत पसंद थे. बस, इस बात का मलाल था कि कविता शादी कर इतनी दूर दूसरे शहर में चली जाएगी कि देखने को आंखें तरस जाएंगी. कभीकभी वे कविता से कहतीं भी, ‘बेटा डर लगता है कहीं ये आंखें तुझे देखे बिना ही न बंद हो जाएं.’
कविता इस बात पर मां से रूठ जाती तो मां उसे मनाते हुए कहती, ‘अरे बेटा, मौत से कह दूंगी मेरी लाडो को देखे बिना मैं न जाने वाली.’
कविता डर गई, कहीं उस की मां का डर सही न हो जाए. वह घबरा कर मन ही मन बोली, मां, आप तो हमेशा अपना वादा निभाती थीं. बस, आज भी
निभा देना.
कविता खयालों में मां से बात कर रही थी. बचपन में मैं किसी काम में कितनी देर लगा दूं, तू आराम से मेरा इंतजार करती. कभी तुझे गुस्सा करते नहीं देखा. आज भी याद है मुझे जब तुम मुझे रोटी बनाना सिखा रही थीं, कभी मैं आड़ी बनाती कभी तिरछी और कभीकभी तो भारत का नक्शा पर तू ने कभी भी अपना धैर्य नहीं खोया. उतने ही प्यार और धैर्य से मुझे रोटी गोल बनाना सिखाया.

तू इतने प्यार से मेरी चोटी बनाती और मु?ो पसंद नहीं आती, मैं हर बार तेरी बनाई चोटी खोल देती पर तू अपना धीरज न खोती और उतने ही प्यार से दोबारा से चोटी बनाती. पता नहीं कहां से इतना धीरज था. मैं तो छोटीछोटी बातों में बच्चों पर ?ां?ाला जाती हूं. मां, तू तो बहुत धीरज वाली है. जीवन के हर मोड़ पर, हर पल मेरा साथ दिया, मेरा इंतजार किया. फिर आज भी तुझे धैर्य रखना पड़ेगा.

‘‘मां, मैं आ रही हूं, नहीं, तू ऐसे नहीं जा सकती, नहीं मां, नहीं.’’
खयालों में गुम कविता के मुंह से निकला तो अशोक ने कविता से पूछा, ‘‘क्या हुआ, क्या बोल रही हो?’’

कविता खयालों से बाहर आई. अशोक ने उस के आंसू पोंछ उसे पानी पिलाया. तभी उस के मोबाइल पर भाई का फोन आया. कविता का दिल बहुत घबरा रहा था, क्यों आया फोन, कहीं कुछ… नहीं, नहीं.
‘‘अरे कविता, फोन उठाओ न,’’ अशोक ने कहा तो कविता ने कातर नजरों से अशोक को देखा. अशोक उस की मनोदशा समझ गया. अशोक ने फोन उठाया, उधर से भाई की आवाज आई, ‘‘क्या हुआ जीजाजी, निकल गए आप लोग?’’
‘‘हां विनम्र, हम निकल गए, मां कैसी हैं?’’
‘‘वैसी ही हैं. बस, कविता का इंतजार कर रही हैं.’’

फोन स्पीकर पर था, यह सुनते ही कविता बोली, ‘‘भैया, मैं आ रही हूं, तब तक मां को…’’ कहते हुए कविता की आवाज रुंध गई, उस से आगे बोला न गया और वह अशोक के सीने में मुंह छिपा कर रोने लगी.

जिस गति से गाड़ी भाग रही थी, कविता का दिमाग उस से तीव्र गति से अपनी मां की यादों में भाग रहा था. जब से पापा इस दुनिया से गए तब से कविता और उस की मां सहेली बन गईं. सोलह साल की ही तो थी कविता जब उस के पापा नहीं रहे. तब से मां को अकेले लड़ते देखा है. उन का अकेलापन, तनहाई, उदासी कविता ने महसूस की है. भले वह बोले न पर कविता से उन की आंखों की उदासी छिप नहीं पाई.

याद है उसे अशोक से उस की शादी भी आसान न थी. जब उस ने घर पर बताया कि वह अशोक से शादी करना चाहती है तो सब ने उस का विरोध किया भाईभाभी, नातेरिश्तेदार सब. कारण, एक तो अशोक दूसरी जाति का था, फिर उस वक्त उस की आर्थिक हालत भी ज्यादा अच्छी नहीं थी पर कविता जातिधर्म के बंधन को नहीं मानती थी. वह यह जानती थी कि अशोक बहुत मेहनती और अपनी धुन का पक्का है और एक दिन वह खुद को साबित कर के रहेगा पर जब कोई उस की बात नहीं मान रहा तो वह मां ही तो थीं जिन्हें न सिर्फ अपनी बेटी पर बल्कि अशोक पर भी भरोसा था. वे जानती थीं कि उन की बेटी कभी कोई गलत निर्णय नहीं लेगी. उन्हें अपने दिए संस्कारों पर ज्यादा भरोसा था या कविता पर, कहना मुश्किल था और उन्होंने सब को अपना निर्णय सुना दिया कि कविता की शादी अशोक से ही होगी.

मां अपनी बेटी के निर्णय के समर्थन में सब के सामने चट्टान की भांति खड़ी थीं पर बाहर दिखती इस चट्टान का भीतर का डर सिर्फ कविता ने देखा था. याद है शादी से पहले मां ने अपना डर अशोक के सामने जाहिर किया, ‘बेटा, इस के पिता को गए कितने बरस हो गए, तब से अकेले संभाला है सबकुछ. एक अकेली औरत के हर निर्णय को समाज न ही कभी गंभीर लेता बल्कि उसे गलत साबित करने का मौका ढूंढ़ता है. कहीं मेरे इस निर्णय को…’

मां अशोक के सामने हाथ जोड़े खड़ी थीं. कविता मां की हालत देख अपने निर्णय पर सोचने लगी कि कहीं वह कुछ गलत तो नहीं कर रही पर उस वक्त अशोक ने मां को यकीन दिलाया कि वह उस के भरोसे के लायक बन कर दिखाएगा और वह मां का ही विश्वास था जिस अशोक को कोई अपनाने को तैयार न था, आज नातेरिश्तेदारों में उस का कितना सम्मान है.

गाड़ी अपनी गति से भाग रही थी. वैसे तो लंबे सफर पर कविता को नींद आते देर नहीं लगती पर आज उस की आंखें कैसे बंद होतीं जब तक वह अपनी मां को न देख ले. अशोक ने कविता के चेहरे पर बिखरे बालों को सही किया और उस के कंधे पर हाथ रख उसे हौसला दिया.

इधर कविता अब भी अपने खयालों में ही गुम थी. शादी के बाद शुरू में तो नियमित रूप से मां के पास महीना बिता कर आती पर जैसेजैसे बच्चे बड़े हुए, जिम्मेदारी बढ़ी. मां के पास जाना कम हो गया. मां कितनी बार उलाहना देतीं, ‘तेरे पास तो अब मेरे लिए समय नहीं. तू अपने बच्चों में व्यस्त हो गई पर मैं किस के पास जाऊं?’

मां के अनुरोध करने पर 2-4 दिन बिता कर आती, कई बार लगता भी जिस मां ने हमारे लिए सारी जिंदगी गुजार दी उस के साथ रहने को दो पल, दो दिन का भी समय नहीं है पर जिम्मेदारियों के आगे वह मन मसोस कर रह जाती.

आज उस को लग रहा था, काश, मां कुछ दिन और… तो मैं उन को छोड़ूंगी नहीं. उन की सारी शिकायत दूर कर दूंगी. सही है, हमारे पास जब जो चीज होती है तब उस की कद्र नहीं होती और उस के न होने पर ही उस की कमी महसूस होती है. और फिर, बस, रह जाते हैं काश… बहुत सारे काश.

आखिर गाड़ी कविता की मां के घर के सामने रुक गई. एक अजीब सा सन्नाटा दिख रहा था. आज यहां कविता के मन में बुरे खयाल आ रहे थे. कहीं मां ने धीरज तो नहीं खो दिया? नहीं मां, तुम ऐसे नहीं जा सकतीं और कविता गाड़ी का दरवाजा खोल मां के पास भागी. अंदर मां पलंग पर लेटी हैं. कविता मां के पास जा कर उन से लिपट गई-
‘‘मां, देखो, मैं आ गई, मैं आ गई, मां.’’
मां ने धीरे से आंखें खोलीं, ‘‘आ गई बेटा, बड़ी देर लगा दी. बहुत इंतजार करवाया पर अब और धीरज नहीं
रख सकती.’’
‘‘नहीं मां, बस, कुछ देर और.’’
और दोनों मांबेटी गले लग कर रोती रहीं. कविता मन ही मन सोच रही थी, सच, मां तो मां है. आज भी उन्होंने अपनी बेटी के लिए आखिर धीरज रख ही लिया, पर कब तक?

Social Story : नारीवाद – जननी के व्यक्तित्व और सोच में कैसा विरोधाभास था?

Social Story : मैं पत्रकार हूं. मशहूर लोगों से भेंटवार्त्ता कर उन के बारे में लिखना मेरा पेशा है. जब भी हम मशहूर लोगों के इंटरव्यू लेने के लिए जाते हैं उस वक्त यदि उन के बीवीबच्चे साथ में हैं तो उन से भी बात कर के उन के बारे में लिखने से हमारी स्टोरी और भी दिलचस्प बन जाती है.

मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ. मैं मशहूर गायक मधुसूधन से भेंटवार्त्ता के लिए जिस समय उन के पास गया उस समय उन की पत्नी जननी भी वहां बैठ कर हम से घुलमिल कर बातें कर रही थीं. जननी से मैं ने कोई खास सवाल नहीं पूछा, बस, यही जो हर पत्रकार पूछता है, जैसे ‘मधुसूधन की पसंद का खाना और उन का पसंदीदा रंग क्या है? कौनकौन सी चीजें मधुसूधन को गुस्सा दिलाती हैं. गुस्से के दौरान आप क्या करती हैं?’ जननी ने हंस कर इन सवालों के जवाब दिए. जननी से बात करते वक्त न जाने क्यों मुझे ऐसा लगा कि बाहर से सीधीसादी दिखने वाली वह औरत कुछ ज्यादा ही चतुरचालाक है.

लिविंगरूम में मधुसूधन का गाते हुए पैंसिल से बना चित्र दीवार पर सजा था.

उस से आकर्षित हो कर मैं ने पूछा, ‘‘यह चित्र किसी फैन ने आप को तोहफे में दिया है क्या,’’ इस सवाल के जवाब में जननी ने मुसकराते हुए कहा, ‘हां.’

‘‘क्या मैं जान सकता हूं वह फैन कौन था,’’ मैं ने भी हंसते हुए पूछा. मधुसूधन एक अच्छे गायक होने के साथसाथ एक हैंडसम नौजवान भी हैं, इसलिए मैं ने जानबूझ कर यह सवाल किया.

‘‘वह फैन एक महिला थी. वह महिला कोई और नहीं, बल्कि मैं ही हूं,’’ यह कहते हुए जननी मुसकराईं.

‘‘अच्छा है,’’ मैं ने कहा और इस के जवाब में जननी बोलीं, ‘‘चित्र बनाना मेरी हौबी है?’’

‘‘अच्छा, मैं भी एक चित्रकार हूं,’’ मैं ने अपने बारे में बताया.

‘‘रियली, एक पत्रकार चित्रकार भी हो सकता है, यह मैं पहली बार सुन रही हूं,’’ जननी ने बड़ी उत्सुकता से कहा.

उस के बाद हम ने बहुत देर तक बातें कीं? जननी ने बातोंबातों में खुद के बारे में भी बताया और मेरे बारे में जानने की इच्छा भी प्रकट की? इसी कारण जननी मेरी खास दोस्त बन गईं.

जननी कई कलाओं में माहिर थीं. चित्रकार होने के साथ ही वे एक अच्छी गायिका भी थीं, लेकिन पति मधुसूधन की तरह संगीत में निपुण नहीं थीं. वे कई संगीत कार्यक्रमों में गा चुकी थीं. इस के अलावा अंगरेजी फर्राटे से बोलती थीं और हिंदी साहित्य का भी उन्हें अच्छा ज्ञान था. अंगरेजी साहित्य में एम. फिल कर के दिल्ली विश्वविद्यालय में पीएचडी करते समय मधुसूधन से उन की शादी तय हो गई. शादी के बाद भी जननी ने अपनी किसी पसंद को नहीं छोड़ा. अब वे अंगरेजी में कविताएं और कहानियां लिखती हैं.

उन के इतने सारे हुनर देख कर मुझ से रहा नहीं गया. ‘आप के पास इतनी सारी खूबियां हैं, आप उन्हें क्यों बाहर नहीं दिखाती हैं?’ अनजाने में ही सही, बातोंबातों में मैं ने उन से एक बार पूछा. जननी ने तुरंत जवाब नहीं दिया. दो पल के लिए वे चुप रहीं.

अपनेआप को संभालते हुए उन्होंने मुसकराहट के साथ कहा, ‘आप मुझ से यह  सवाल एक दोस्त की हैसियत से पूछ रहे हैं या पत्रकार की हैसियत से?’’

जननी के इस सवाल को सुन कर मैं अवाक रह गया क्योंकि उन का यह सवाल बिलकुल जायज था. अपनी भावनाओं को छिपा कर मैं ने उन से पूछा, ‘‘इन दोनों में कोई फर्क है क्या?’’

‘‘हां जी, बिलकुल,’’ जननी ने कहा.

‘‘आप ने इन दोनों के बीच ऐसा क्या फर्क देखा,’’ मैं ने सवाल पर सवाल किया.

‘‘आमतौर पर हमारे देश में अखबार और कहानियों से ऐसा प्रतीत होता है कि एक मर्द ही औरत को आगे नहीं बढ़ने देता. आप ने भी यह सोच कर कि मधु ही मेरे हुनर को दबा देते हैं, यह सवाल पूछ लिया होगा?’’

कुछ पलों के लिए मैं चुप था, क्योंकि मुझे भी लगा कि जननी सच ही कह रही हैं. फिर भी मैं ने कहा, ‘‘आप सच कहती हैं, जननी. मैं ने सुना था कि आप की पीएचडी आप की शादी की वजह से ही रुक गई, इसलिए मैं ने यह सवाल पूछा.’’

‘‘आप की बातों में कहीं न कहीं तो सचाई है. मेरी पढ़ाई आधे में रुक जाने का कारण मेरी शादी भी है, मगर वह एक मात्र कारण नहीं,’’ जननी का यह जवाब मुझे एक पहेली सा लगा.

‘‘मैं समझा नहीं,’’ मैं ने कहा.

‘‘जब मैं रिसर्च स्कौलर बनी थी, ठीक उसी वक्त मेरे पिताजी की तबीयत अचानक खराब हो गई. उन की इकलौती संतान होने के नाते उन के कारोबार को संभालने की जिम्मेदारी मेरी बन गई थी. सच कहें तो अपने पिताजी के व्यवसाय को चलातेचलाते न जाने कब मुझे उस में दिलचस्पी हो गई. और मैं अपनी पीएचडी को बिलकुल भूल गई. और अपने बिजनैस में तल्लीन हो गई. 2 वर्षों बाद जब मेरे पिताजी स्वस्थ हुए तो उन्होंने मेरी शादी तय कर दी,’’ जननी ने अपनी पढ़ाई छोड़ने का कारण बताया.

‘‘अच्छा, सच में?’’

जननी आगे कहने लगी, ‘‘और एक बात, मेरी शादी के समय मेरे पिताजी पूरी तरह स्वस्थ नहीं थे. मधु के घर वालों से यह साफ कह दिया कि जब तक मेरे पिताजी अपना कारोबार संभालने के लायक नहीं हो जाते तब तक मैं काम पर जाऊंगी और उन्होंने मुझे उस के लिए छूट दी.’’

मैं चुपचाप जननी की बातें सुनता रहा.

‘‘मेरी शादी के एक साल बाद मेरे पिता बिलकुल ठीक हो गए और उसी समय मैं मां बनने वाली थी. उस वक्त मेरा पूरा ध्यान गर्भ में पल रहे बच्चे और उस की परवरिश पर था. काम और बच्चा दोनों के बीच में किसी एक को चुनना मेरे लिए एक बड़ी चुनौती थी, लेकिन मैं ने अपने बच्चे को चुना.’’

‘‘मगर जननी, बच्चे के पालनपोषण की जिम्मेदारी आप अपनी सासूमां पर छोड़ सकती थीं न? अकसर कामकाजी औरतें ऐसा ही करती हैं. आप ही अकेली ऐसी स्त्री हैं, जिन्होंने अपने बच्चे की परवरिश के लिए अपने काम को छोड़ दिया.’’

जननी ने मुसकराते हुए अपना सिर हिलाया.

‘‘नहीं शंकर, यह सही नहीं है. जैसे आप कहते हैं उस तरह अगर मैं ने अपनी सासूमां से पूछ लिया होता तो वे भी मेरी बात मान कर मदद करतीं, हो सकता है मना भी कर देतीं. लेकिन खास बात यह थी कि हर औरत के लिए अपने बच्चे की परवरिश करना एक गरिमामयी बात है. आप मेरी इस बात से सहमत हैं न?’’ जननी ने मुझ से पूछा.

मैं ने सिर हिला कर सहमति दी.

‘‘एक मां के लिए अपनी बच्ची का कदमकदम पर साथ देना जरूरी है. मैं अपनी बेटी की हर एक हरकत को देखना चाहती थी. मेरी बेटी की पहली हंसी, उस की पहली बोली, इस तरह बच्चे से जुड़े हर एक विषय को मैं देखना चाहती थी. इस के अलावा मैं खुद अपनी बेटी को खाना खिलाना चाहती थी और उस की उंगली पकड़ कर उसे चलना सिखाना चाहती थी.

‘‘मेरे खयाल से हर मां की जिंदगी में ये बहुत ही अहम बातें हैं. मैं इन पलों को जीना चाहती थी. अपनी बच्ची की जिंदगी के हर एक लमहे में मैं उस के साथ रहना चाहती थी. यदि मैं काम पर चली जाती तो इन खूबसूरत पलों को खो देती.

‘‘काम कभी भी मिल सकता है, मगर मेरी बेटी पूजा की जिंदगी के वे पल कभी वापस नहीं आएंगे? मैं ने सोचा कि मेरे लिए क्या महत्त्वपूर्ण है-कारोबार, पीएचडी या बच्ची के साथ वक्त बिताना. मेरी अंदर की मां की ही जीत हुई और मैं ने सबकुछ छोड़ कर अपनी बच्ची के साथ रहने का निर्णय लिया और उस के लिए मैं बहुत खुश हूं,’’ जननी ने सफाई दी.

मगर मैं भी हार मानने वाला नहीं था. मैं ने उन से पूछा, ‘‘तो आप के मुताबिक अपने बच्चे को अपनी मां या सासूमां के पास छोड़ कर काम पर जाने वाली औरतें अपना फर्ज नहीं निभाती हैं?’’

मेरे इस सवाल के बदले में जननी मुसकराईं, ‘‘मैं बाकी औरतों के बारे में अपनी राय नहीं बताना चाहती हूं. यह तो हरेक औरत का निजी मामला है और हरेक का अपना अलग नजरिया होता है. यह मेरा फैसला था और मैं अपने फैसले से बहुत खुश हूं.’’

जननी की बातें सुन कर मैं सच में दंग रह गया, क्योंकि आजकल औरतों को अपने काम और बच्चे दोनों को संभालते हुए मैं ने देखा था और किसी ने भी जननी जैसा सोचा नहीं.

‘‘आप क्या सोच रहे हैं, वह मैं समझ सकती हूं, शंकर. अगले महीने से मैं एक जानेमाने अखबार में स्तंभ लिखने वाली हूं. लिखना भी मेरा पसंदीदा काम है. अब तो आप खुश हैं न, शंकर?’’ जननी ने हंसते हुए पूछा.

मैं ने भी हंस कर कहा, ‘‘जी, बिलकुल. आप जैसी हुनरमंद औरतों का घर में बैठना गलत है. आप की विनम्रता, आप की गहरी सोच, आप की राय, आप का फैसला लेने में दृढ़ संकल्प होना देख कर मैं हैरान भी होता हूं और सच कहूं तो मुझे थोड़ी सी ईर्ष्या भी हो रही है.’’

मेरी ये बातें सुन कर जननी ने हंस कर कहा, ‘‘तारीफ के लिए शुक्रिया.’’

मैं भी जननी के साथ उस वक्त हंस दिया मगर उस की खुद्दारी को देख कर हैरान रह गया था. जननी के बारे में जो बातें मैं ने सुनी थीं वे कुछ और थीं. जननी अपनी जिंदगी में बहुत सारी कुरबानियां दे चुकी थीं. पिता के गलत फैसले से नुकसान में चल रहे कारोबार को अपनी मेहनत से फिर से आगे बढ़ाया जननी ने. मां की बीमारी से एक लंबी लड़ाई लड़ कर अपने पिता की खातिर अपने प्यार की बलि चढ़ा कर मधुसूधन से शादी की और अपने पति के अभिमान के आगे झुक कर, अपनी ससुराल वालों के ताने सह कर भी अपने ससुराल का साथ देने वाली जननी सच में एक अजीब भारतीय नारी है. मेरे खयाल से यह भी एक तरह का नारीवाद ही है.

‘‘और हां, मधुसूधनजी, आप सोच रहे होंगे कि जननी के बारे में यह सब जानते हुए भी मैं ने क्यों उन से ऐसे सवाल पूछे. दरअसल, मैं भी एक पत्रकार हूं और आप जैसे मशहूर लोगों की सचाई सामने लाना मेरा पेशा है न?’’

अंत में एक बात कहना चाहता हूं, उस के बाद जननी को मैं ने नहीं देखा. इस संवाद के ठीक 2 वर्षों बाद मधुसूदन और जननी ने आपसी समझौते पर तलाक लेने का फैसला ले लिया.

Love Story : पतझड़ में झांकता वसंत – क्या सूखा ही रह गया रूपा का जीवन?

Love Story : ‘‘हैलो सर, आज औफिस नहीं आ पाऊंगी, तबीयत थोड़ी ठीक नहीं है,’’ रूपा ने बुझीबुझी सी आवाज में कहा. ‘‘क्या हुआ रूपाजी, क्या तबीयत ज्यादा खराब है?’’ बौस के स्वर में चिंता थी.

‘‘नहींनहीं सर, बस यों ही, शायद बुखार है.’’ ‘‘डाक्टर को दिखाया या नहीं? इस उम्र में लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए, टेक केयर.’’

‘‘आप ठीक कह रहे हैं सर,’’ कह कर उस ने फोन रख दिया. 55 पतझड़ों का डट कर सामना किया है रूपा सिंह ने, अब हिम्मत हारने लगी है. हां, पतझड़ का सामना, वसंत से तो उस का साबका नहीं के बराबर पड़ा है. जब वह 7-8 साल की थी, एक ट्रेन दुर्घटना में उस के मातापिता की मृत्यु हो गई थी. अपनी बढ़ती उम्र और अन्य बच्चों की परवरिश का हवाला दे कर दादादादी ने उस की जिम्मेदारी लेने से इनकार कर दिया. नानी उसे अपने साथ ले आई और उसे पढ़ायालिखाया. अभी वह 20 साल की भी नहीं हुई थी कि नानी भी चल बसी. मामामामी ने जल्दी ही उस की शादी कर दी.

पति के रूप में सात फेरे लेने वाला शख्स भी स्वार्थी निकला. उस के परिवार वाले लालची थे. रोजरोज कुछ न कुछ सामान या पैसों की फरमाइश करते रहते. वे उस पर यह दबाव भी डालते कि नानी के घर में तुम्हारा भी हिस्सा है, उन से मांगो. मामामामी से जितना हो सका उन्होंने किया, फिर हाथ जोड़ लिए. उन की भी एक सीमा थी. उन्हें अपने बच्चों को भी देखना था. उस के बाद उस की ससुराल वालों का जुल्मोसितम बढ़ता गया. यहां तक कि उन लोगों ने उसे जान से मारने की भी प्लानिंग करनी शुरू कर दी. श्वेता और मयंक अबोध थे. रूपा कांप उठी, बच्चों का क्या होगा. वे उन्हें भी मार देंगे. उन्हें अपने बेटे की ज्यादा दहेज लेने के लिए दोबारा शादी करनी थी. बच्चे राह में रोड़ा बन जाते. एक दिन हिम्मत कर के रूपा दोनों बच्चों को ले कर मामा के यहां भाग आई. ससुराल वालों का स्वार्थ नहीं सधा था. वे एक बार फिर उसे ले जाना चाहते थे, लेकिन उस घर में वह दोबारा लौटना नहीं चाहती थी. मामा और ममेरे भाईबहनों ने उसे सपोर्ट किया और उस का तलाक हो गया.

उसे ससुराल से छुटकारा तो मिल गया लेकिन अब दोनों बच्चों की परवरिश की समस्या मुंहबाए खड़ी थी. बस, रहने का ठिकाना था. उस के लिए यही राहत की बात थी. मामा ने एक कंपनी में उस की नौकरी लगवा दी. उस के जीवन का एक ही मकसद था, श्वेता और मयंक को अच्छे से पढ़ानालिखाना. दोनों बच्चों को वह वैल सैटल करना चाहती थी. वह जीतोड़ मेहनत करती, कुछ मदद ममेरे भाईबहन भी कर देते. उस के मन में एक ही बात बारबार उठती थी कि जैसी जिंदगी उसे गुजारनी पड़ी है, बच्चों पर उस की छाया तक न आए. रूपा ने दोनों बच्चों का दाखिला अच्छे स्कूल में करवा दिया. उन्हें हमेशा यही समझाती रहती कि पढ़लिख कर अच्छा इंसान बनना है. बच्चे होनहार थे. हमेशा कक्षा में अव्वल आते. वक्त सरपट दौड़ता रहा. मयंक ने आईआईटी में दाखिला ले लिया. श्वेता ने फैशन डिजाइनिंग में अपना कैरियर बनाया. श्वेता बैंगलुरु में ही जौब करने लगी थी. उस ने अपने जीवनसाथी के रूप में देवेश को चुना. दोनों ने साथसाथ कोर्स किया और साथसाथ स्टार्टअप भी किया. रूपा और मयंक को भी देवेश काफी पसंद आया. मयंक ने भी अपने पसंद की लड़की से शादी की. रूपा काफी खुश थी कि उस के दोनों बच्चों की गृहस्थी अच्छे से बस गई. उन्हें मनपसंद जीवनसाथी मिले. मयंक पहले हैदराबाद में कार्यरत था. पिछले साल कंपनी ने उसे अमेरिका भेज दिया. वह कहता, ‘मम्मा, यदि मैं यहां सैटल हो गया, तो फिर तुम्हें भी बुला लूंगा.’

रूपा हंस कर कहती, ‘बेटा, मैं वहां आ कर क्या करूंगी भला. तुम लोग लाइफ एंजौय करो. मामामामी की भी उम्र काफी हो गई है. ऐसे में उन्हें छोड़ कर मैं कैसे जाऊंगी.’

मयंक भी इस बात को समझता था लेकिन फिर भी वीडियो चैटिंग में यह बात हमेशा कहता. मामामामी भी रूपा से कहते, ‘अब हमारी उम्र हो गई. जाने कब बुलावा आ जाए. इसलिए तुम मयंक के पास चली जाओ.’ श्वेता और देवेश बीचबीच में आते और बेंगलुरु में सैटल होने के लिए कहते. बच्चों को हमेशा मां की चिंता सताती रहती. उन्होंने बचपन से मां को कांटों पर चलते, चुभते कांटों से लहूलुहान होते और सारा दर्द पीते हुए देखा था. वे चाहते थे कि अब मां को खुशी दें. उन्हें अब काम करने की क्या जरूरत है. लेकिन वह कहती, ‘जब तक यहां हूं, काम करने दो. इसी काम ने हम लोगों को सहारा दिया और हमारा जीवन जीने लायक बनाया है. जब थक जाऊंगी, देखा जाएगा.’

कुछ समय बाद मामामामी की मृत्यु हो गई. रूपा अब निपट अकेली हो गई. इधर कुछ दिनों से बारबार उस की तबीयत भी खराब हो रही थी. इस वजह से वह थोड़ी कमजोर हो गई थी. 6 महीने पहले उस के औफिस में नए बौस आए थे, रूपेश मिश्रा. वे कर्मचारियों से बहुत अच्छे से पेश आते, उन के साथ मिल कर काम करते. उन की उम्र 60 साल के आसपास होगी. कुछ साल पहले एक लंबी बीमारी से उन की पत्नी का साथ छूट गया था. 2 बेटियां थीं, दोनों की शादी हो गई थी. वे अकेलेपन से जूझते हुए खुद को काम में लगाए रहते. कर्मचारियों में अपनापन ढूंढ़ते रहते. वे उदार और खुशदिल थे. कभीकभी रूपा से अपने दिल की बात शेयर करते थे. जब वे अपनी पत्नी की बीमारी का जिक्र करते तब उन की आंखें भर आतीं. वे पत्नी को बेहद प्यार करते थे. वे कहते, ‘हम ने रिटायरमैंट के बाद की जिंदगी की प्लानिंग कर रखी थी, लेकिन वह बीच में ही छोड़ कर चली गई. मेरी बेटियां बहुत केयरफुल हैं, लेकिन इस मोड़ पर तनहा जीवन बहुत सालता है.’

तनहाई का दर्द तो रूपा भी झेल रही थी. उसे भी रूपेश से दिल की बात करना अच्छा लगता था. जल्दी ही दोनों अच्छे दोस्त बन गए. वे दोनों जब अपनी आगे की जिंदगी के बारे में सोचते, तब मन कसैला हो जाता. यह भी कि यदि कभी बीमार पड़ गए तो कोई एक गिलास पानी पिलाने वाला भी न होगा. उस पर आएदिन अकेले बुजुर्गों की मौत की खबर उन में खौफ पैदा करती. जब भी ऐसी खबर पढ़ते या टीवी पर ऐसा कुछ देखते कि मौत के बाद कईकई दिनों तक अकेले इंसान की लाश घर में सड़ती रही, तो उन के रोंगटे खड़े हो जाते. मौत एक सच है. यदि उस की बात छोड़ भी दें तो भी शेष जीवन अकेले बिताना आसान नहीं था. न कोई बात करने वाला, न कोई दुखदर्द बांटने वाला. बंद कमरा और उस की दीवारें. कैसे गुजरेंगे उन के दिन? रात की तनहाई में जब वे सोचते, सन्नाटा राक्षस बन कर उन्हें निगलने लगता. रूपा ने बातोंबातों में मयंक और श्वेता को अपने बौस रूपेश मिश्रा के बारे में बता दिया था. यह भी कि वे एक अच्छे इंसान हैं और सब के सुखदुख में काम आते हैं. वह बच्चों से वैसे भी कुछ नहीं छिपाती थी. बच्चों के साथ शुरू से ही उस का ऐसा तारतम्य है कि वह जितना बताती उस से ज्यादा वे दोनों समझते.

रूपा बिस्तर पर लेटीलेटी जिंदगी के पन्ने पलट रही थी. एकएक दृश्य चलचित्र बन उस की आंखों में उभर आए थे. उस की बीती जिंदगी पर लगाम तब लगी जब कौलबैल बजी. उस ने घड़ी देखी तो शाम के साढ़े 6 बज रहे थे. इस वक्त कौन होगा? वह अनमनी सी बालों का जूड़ा बनाते हुए उठी. की-होल से देखा, सामने रूपेश मिश्रा खड़े थे. उस ने झटपट दरवाजा खोल दिया, ‘‘अरे आप?’’

‘‘आप की तबीयत कैसी है? मुझे फिक्र हो रही थी, इसलिए चला आया’’, रूपेश ने खुशबूदार फूलों का बुके उस की तरफ बढ़ाया. बहुत दिनों बाद कमरा भीनाभीना महक उठा. इस महक ने रूपा को भी सराबोर कर दिया, ‘‘सर, बैठिए न मैं ठीक हूं.’’ उस के होंठों पर प्यारी सी मुसकराहट आ गई.

‘‘आप ने डाक्टर को दिखाया?’’ ‘‘अरे, बस यों ही मामूली बुखार है, ठीक हो जाएगा.’’

‘‘देखिए, ऐसी लापरवाही ठीक नहीं होती. चलिए, मैं साथ चलता हूं,’’ रूपेश मोबाइल निकाल कर डाक्टर का नंबर लगाने लगा. ‘‘नहीं सर, मैं ठीक हूं. यदि बुखार कल तक बिलकुल ठीक नहीं हुआ, तो मैं चैकअप करा लूंगी.’’ उस की समझ में नहीं आया कि क्या जवाब दे. उसे इस बात का थोड़ा भी अंदाजा नहीं था कि रूपेश घर आ जाएंगे.

‘‘यह सरसर क्या लगा रखा है आप ने, यह औफिस नहीं है,’’ उस ने प्यार से झिड़की दी, ‘‘मैं कुछ नहीं सुनूंगा, डाक्टर को दिखाना ही होगा. बस, आप चलिए.’’ यह कैसा हठ है. रूपा असमंजस में पड़ गई. उसी समय मयंक का वीडियोकौल आया. उसे जैसे एक बहाना मिल गया. उस ने कौल रिसीव कर लिया. मयंक ने भी वही सवाल किया, ‘‘मम्मी, तुम ने डाक्टर को दिखाया? तुम्हारा चेहरा बता रहा है कि तुम सारा दिन कष्ट सहती रही.’’

‘‘अब तुम मुझे डांटो. तुम लोग तो मेरे पीछे ही पड़ गए. अरे, कुछ नहीं हुआ है मुझे.’’ ‘‘मम्मी, तुम अपने लिए कितनी केयरफुल हो, यह मैं बचपन से जानता हूं. अरे, अंकल आप, नमस्ते,’’ मयंक की नजर वहीं सोफे पर बैठे रूपेश पर पड़ी.

‘‘देखो न बेटे, मैं भी यही कहने आया हूं, पर ये मानती ही नहीं. वैसे तुम ने मुझे कैसे पहचाना?’’ ‘‘मम्मी से आप के बारे में बात होती रहती है. अंकल, आप आ गए हो तो मम्मी को डाक्टर के पास ले कर ही जाना. आप को तो पता ही है कि अगले महीने हम लोग आ रहे हैं, फिर मम्मी की एक नहीं चलेगी.’’

मयंक ने रूपेश से भी काफी देर बात की. ऐसा लगा जैसे वे लोग एकदूसरे को अच्छे से जानते हों. दोनों ने मिल कर रूपा को राजी कर लिया. मयंक ने कहा, ‘‘अब आप लोग जल्दी जाइए. आने के बाद फिर बात करता हूं.’’ साढ़े 8 बजे के करीब वे लोग डाक्टर के यहां से लौटे. रूपेश ने उसे दरवाजे तक छोड़ जाने की इजाजत मांगी, लेकिन रूपा ने उन्हें अंदर बुला लिया. इस भागदौड़ में चाय तक नहीं पी थी किसी ने. वह 2 कप कौफी ले आई. साथ में ब्रैड पीस सेंक लिए थे. अब वीडियोकौल पर श्वेता थी, अपने बिंदास अंदाज में, ‘‘चलो मम्मी, तुम ने किसी की बात तो मानी. मयंक ने मुझे सब बता दिया है. मम्मी और अंकल, हम लोगों ने आप दोनों के लिए कुछ सोचा है…’’

दोनों आश्चर्य में पड़ गए. अब ये दोनों क्या गुल खिला रहे हैं? श्वेता ने बिना लागलपेट के दोनों की शादी का प्रस्ताव रख दिया. उन लोगों की समझ में नहीं आया कि कैसे रिऐक्ट करें, गुस्सा दिखाएं, इग्नोर करें या…दोनों ने कभी इस तरह सोचा ही नहीं था. लेकिन बात यह भी थी कि दोनों को एकदूसरे की जरूरत और फिक्र थी. श्वेता देर तक मां और दोस्त की भूमिका में रही. आखिर, उस ने कहा कि आप लोगों को अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीने का पूरा हक है. अगर आप दोनों दोस्त हो तो क्या साथसाथ नहीं रह सकते. हमारा समाज इस दोस्ती को बिना शादी के कुबूल नहीं करेगा और इस से ज्यादा की परवा करने की हमें जरूरत भी नहीं. आप की शादी के गवाह हम बनेंगे. रूपेश के मन में हिचक थी, बोले, ‘‘मेरी बेटियों को भी रूपा के बारे में पता है, लेकिन उतना नहीं जितना तुम दोनों भाईबहनों को.’’ ‘‘अंकल, आप फिक्र मत कीजिए. उन लोगों का नंबर मुझे दे दीजिए. मैं बात करूंगी. सब ठीक हो जाएगा. और मम्मी ब्रैड से काम नहीं चलेगा. आप खाना और्डर कर दो. अंकल को खाना खिला कर ही भेजना. और हां, डाक्टर ने जो दवा लिखी है, उसे समय पर लेना और कल सारा चैकअप करवा लेना.’’

दोनों अवाक थे. बच्चों को यह क्या हो गया है? उन के दिल में कब से कुछ घुमड़ रहा था, वह आंखों के रास्ते छलक आया. रूपेश ने रूपा का हाथ थाम लिया, ‘‘और कुछ नहीं तो उम्र के इस पड़ाव पर हमें सहारे की जरूरत तो है ही.’’

रूपा ने उस के कंधे पर सिर रख दिया. इतना सुकून शायद जीवन में उसे पहली बार महसूस हुआ. वह सोच रही थी, जब वसंत की उम्र थी, उस ने पतझड़ देखे. अब पतझड़ के मौसम में वसंत आया है…लकदक लकदक.

Best Hindi Story : ऊंच नीच की दीवार – भवानीराम कब सोच में पड़ गए?

Best Hindi Story : ‘‘बाबूजी…’’

‘‘क्या बात है सुभाष?’’

‘‘दिनेश उस दलित लड़की से शादी कर रहा है,’’ सुभाष ने धीरे से कहा.

‘‘क्या कहा, दिनेश उसी दलित लड़की से शादी कर रहा है…’’ पिता भवानीराम गुस्से से आगबबूला हो उठे.

वे आगे बोले, ‘‘हमारे समाज में क्या लड़कियों की कमी है, जो वह एक दलित लड़की से शादी करने पर तुला है? अब मेरी समझ में आया कि उसे नौकरी वाली लड़की क्यों चाहिए थी.’’

‘‘यह भी सुना है कि वह दलित परिवार बहुत पैसे वाला है,’’ सुभाष ने जब यह बात कही, तब भवानीराम कुछ सोच कर बोले, ‘‘पैसे वाला हुआ तो क्या हुआ? क्या दिनेश उस के पैसे से शादी कर रहा है? कौन है वह लड़की?’’

‘‘उसी के स्कूल की कोई सरिता है?’’ सुभाष ने जवाब दिया.

‘‘देखो सुभाष, तुम अपने छोटे भाई दिनेश को समझाओ.’’

‘‘बाबूजी, मैं तो समझा चुका हूं, मगर वह तो उसी के साथ शादी करने का मन बना चुका है,’’ सुभाष ने जब यह बात कही, तब भवानीराम सोच में पड़ गए. वे दिनेश को शादी करने से कैसे रोकें? चूंकि उन के लिए यह जाति की लड़ाई है और इस लड़ाई में उन का अहं आड़े आ रहा है.

भवानीराम पिछड़े तबके के हैं और दिनेश जिस लड़की से शादी करने जा रहा है, वह दलित है, फिर चाहे वह कितनी ही अमीर क्यों न हो, मगर ऊंचनीच की यह दीवार अब भी समाज में है. सरकार द्वारा भले ही यह दीवार खत्म हो चुकी है, मगर फिर भी लोगों के दिलों में यह दीवार बनी हुई है.

दिनेश भवानीराम का छोटा बेटा है. वह सरकारी स्कूल में टीचर है. जब से उस की नौकरी लगी है, तब से उस के लिए लड़की की तलाश जारी थी. उस के लिए कई लड़कियां देखीं, मगर वह हर लड़की को खारिज करता रहा.

तब एक दिन भवानीराम ने चिल्ला कर उस से पूछा था, ‘तुझे कैसी लड़की चाहिए?’

‘मुझे नौकरी करने वाली लड़की चाहिए,’ दिनेश ने उस दिन जवाब दिया था. भवानीराम ने इस शर्त को सुन कर अपने हथियार डाल दिए थे. वे कुछ नहीं बोले थे.

जिस स्कूल में दिनेश है, वहीं पर सरिता नाम की लड़की भी काम करती है. सरिता जिस दिन इस स्कूल में आई थी, उसी दिन दिनेश से उस की आंखें चार हुई थीं. सरिता की नौकरी रिजर्व कोटे के तहत लगी थी.

सरिता उज्जैन की रहने वाली है. वहां उस के पिता का बहुत बड़ा जूतों का कारोबार है. इस के अलावा मैदा की फैक्टरी भी है. उन का लाखों रुपयों का कारोबार है.

फिर भी सरिता सरकारी नौकरी करने क्यों आई? इस ‘क्यों’ का जवाब स्टाफ के किसी शख्स ने नहीं पूछा.

सरिता को अपने पिता की जायदाद पर बहुत घमंड था. उस का रहनसहन दलित होते हुए भी ऊंचे तबके जैसा था. वह अपने स्टाफ में पिता के कारोबार की तारीफ दिल खोल कर किया करती थी. वह हरदम यह बताने की कोशिश करती थी कि नौकरी उस ने अपनी मरजी से की है. पिता तो नौकरी कराने के पक्ष में नहीं थे, मगर उस ने पिता की इच्छा के खिलाफ आवेदन भर कर यह नौकरी हासिल की.

स्टाफ में अगर कोई सरिता के पास आया, तो वह दिनेश था. ज्यादातर समय वे स्कूल में ही रहा करते थे. पहले उन में दोस्ती हुई, फिर वे एकदूसरे के ज्यादा पास आए. जब भी खाली पीरियड होता, उस समय वे दोनों स्टाफरूम में बैठ कर बातें करते रहते.

शुरूशुरू में तो वे दोस्त की तरह रहे, मगर उन की दोस्ती कब प्यार में बदल गई, उन्हें पता ही नहीं चला. स्टाफरूम के अलावा वे बगीचे और रैस्टोरैंट में

भी मिलने लगे, भविष्य की योजनाएं बनाने लगे.

ऐसे ही रोमांस करते 2 साल गुजर गए. उन्होंने फैसला कर लिया कि अब वे शादी करेंगे, इसलिए सरिता ने पूछा था, ‘हम कब शादी करेंगे?’

‘तुम अपने पिताजी को मना लो, मैं अपने पिताजी को,’ दिनेश ने जवाब दिया.

‘मेरे पिताजी ने तो अपने समाज में लड़के देख लिए हैं और उन्होंने कहा भी है कि आ कर लड़का पसंद कर लो. मैं ने मना कर दिया कि मैं अपने ही स्टाफ में दिनेश से शादी करूंगी,’ सरिता बोली.

‘फिर पिताजी ने क्या कहा?’ दिनेश ने पूछा.

‘उन्होंने तो हां कर दी…’ सरिता ने कहा, ‘तुम्हारे पिताजी क्या कहते हैं?’

‘पहले मैं बड़े भैया से बात करता हूं,’ दिनेश ने कहा.

‘हां कर लो, ताकि मेरे पिताजी शादी की तैयारी कर लें,’ कह कर सरिता ने गेंद दिनेश के पाले में फेंक दी. मगर दिनेश कैसे अपने पिता से कहे. उस ने अपने बड़े भाई सुभाष से बात करनी चाही, तो सुभाष बोला, ‘तुम समझते हो कि बाबूजी इस शादी के लिए तैयार हो जाएंगे?’

‘आप को तैयार करना पड़ेगा,’ दिनेश ने जोर देते हुए कहा.

‘अगर बाबूजी नहीं माने, तब तुम अपना इरादा बदल लोगे?’

‘नहीं भैया, इरादा तो नहीं बदलूंगा. अगर वे नहीं मानते हैं, तो शादी करने का दूसरा तरीका भी है,’ कह कर दिनेश ने अपने इरादे साफ कर दिए.

मगर सुभाष ने जब पिताजी से बात की, तब उन्होंने मना कर दिया. अब सवाल यह है कि कैसे शादी हो? सुभाष भी इस बात से परेशान है. एक तरफ पिता?हैं, तो दूसरी तरफ छोटा भाई. इन दोनों के बीच में उस का मरना तय है.

बाबूजी का अहं इस शादी में आड़े आ रहा है. इन दोनों के बीच में सुभाष पिस रहा?है. ऐसा भी नहीं है कि दोनों नाबालिग हैं. शादी के लिए कानून भी उन पर लागू नहीं होता है.

एक बार फिर बाबूजी का मन टटोलते हुए सुभाष ने पूछा, ‘‘बाबूजी, आप ने क्या सोचा है?’’

भवानीराम के चेहरे पर गुस्से की रेखा उभरी. कुछ पल तक वे कोई जवाब नहीं दे पाए, फिर बोले, ‘‘अब क्या सोचना है… जब उस ने उस दलित लड़की से शादी करने का मन बना ही लिया है, तब उस के साथ शादी करने की इजाजत देता हूं? मगर मेरी एक शर्त है.’’

‘‘कौन सी शर्त बाबूजी?’’ कहते समय सुभाष की आंखें थोड़ी चमक उठीं.

‘‘न तो मैं उस की शादी में जाऊंगा और न ही उस दलित लड़की को बहू स्वीकार करूंगा और मेरे जीतेजी वह इस घर में कदम नहीं रखेगी. आज से मैं दिनेश को आजाद करता हूं,’’ कह कर बाबूजी की सांस फूल गई.

बाबूजी की यह शर्त भविष्य में क्या गुल खिलाएगी, यह तो बाद में पता चलेगा, मगर यह बात तय है कि परिवार में दरार जरूर पैदा होगी.

जब से अम्मां गुजरी हैं, तब से बाबूजी बहुत टूट चुके हैं. अब कितना और टूटेंगे, यह भविष्य बताएगा. उन की इच्छा थी कि दिनेश शादी कर ले तो एक और बहू आ जाए, ताकि बड़ी बहू को काम से राहत मिले, मगर दिनेश ने दलित लड़की से शादी करने का फैसला कर बाबूजी के गणित को गड़बड़ा दिया है.

उन्होंने अपनी शर्त के साथ दिनेश को खुला छोड़ दिया. उन की यह शर्त कब तक चल पाएगी, यह नहीं कहा जा सकता है.

मगर शादी की सारी जिम्मेदारी सरिता के बाबूजी ने उठा ली.

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