Download App

डायबिटीज : चपेट में परिवार भी

भारत में हर व्यक्ति किसी न किसी ऐसे व्यक्ति को जानता होगा जिसे डायबिटीज की बीमारी होगी क्योंकि यहां 6.20 करोड़ लोग इस मर्ज से पीडि़त हैं. अनुमान है कि 2030 तक पीडि़तों की संख्या 10 करोड़ तक पहुंच जाएगी. अस्वस्थ खानपान, शारीरिक व्यायाम की कमी और तनाव डायबिटीज का मुख्य कारण बनते हैं. इस बीमारी से भविष्य में मरीजों के साथसाथ उन के परिवारों और देश पर पड़ने वाले आर्थिक व मानसिक बोझ को देखते हुए इस से बचाव और समय पर इस का प्रबंधन बेहद जरूरी है. एक अध्ययन के मुताबिक, डायबिटीज और इस से जुड़ी बीमारियों के इलाज व मैनेजमैंट का खर्च भारत में 73 अरब रुपए है.

पेनक्रियाज जब आवश्यक इंसुलिन नहीं बनाती या शरीर जब बने हुए इनसुलिन का उचित प्रयोग नहीं कर पाता तो डायबिटीज होती है जो कि एक लंबी बीमारी है. इंसुलिन वह हार्मोन है जो ब्लडशुगर को नियंत्रित करता है. अनियंत्रित डायबिटीज की वजह से आमतौर पर ब्लडशुगर की समस्या हो जाती है. इस के चलते आगे चल कर शरीर के नाड़ी तंत्र और रक्त धमनियों सहित कई अहम अंगों पर गहरा प्रभाव पड़ सकता है.

रोग, रोगी और बचाव

डायबिटीज बचपन से ले कर बुढ़ापे तक किसी भी उम्र में हो सकती है. गोरों के मुकाबले भारतीयों में यह बीमारी 10-15 साल जल्दी हो जाती है. चूंकि इस का अभी तक कोई पक्का इलाज नहीं है और नियमित इलाज पूरी उम्र चलता है, इसलिए बाद में दवा पर निर्भर होने से बेहतर है अभी से बचाव कर लिया जाए. जीवनशैली में मामूली बदलाव कर के डायबिटीज होने के खतरे को कम किया जा सकता है, कुछ मामलों में तो शुरुआती दौर में इसे ठीक भी किया गया है.

परिवार पर मार

दूसरी बीमारियों के मुकाबले डायबिटीज एक पारिवारिक रोग सरीखा है. इस के प्रभाव एक व्यक्ति पर नहीं पड़ते. घर के किसी सदस्य के डायबिटीज से पीडि़त होने पर पूरे परिवार को अपने खानपान व जीवन के अन्य तरीके बदलने पड़ते हैं. रोग का परिवार के बजट पर भी गहरा असर पड़ता है.

पर्सन सैंटर्ड केयर इन द सैकंड डायबिटीज एटीट्यूड, विशेज ऐंड नीड्स: इंसपीरेशन फ्रौम इंडिया नामक एक मल्टीनैशनल स्टडी में पता चला कि डायबिटीज की वजह से शारीरिक, आर्थिक व भावनात्मक बोझ पूरे परिवार को उठाना पड़ता है. इस के तहत दुनियाभर के 34 प्रतिशत परिवार कहते हैं कि किसी परिवारजन को डायबिटीज होने से परिवार के आर्थिक हालात पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है, जबकि भारत में ऐसे परिवारों की संख्या 93 से 97 प्रतिशत तक है.

दुनियाभर में 20 प्रतिशत पारिवारिक सदस्य मानते हैं कि डायबिटीज की वजह से लोग उन के अपनों से भेदभाव करते हैं. दरअसल, जिस समाज में वे रहते हैं उसे डायबिटीज पसंद नहीं है जबकि भारत में ऐसे 14-32 प्रतिशत परिवार ऐसा ही महसूस करते हैं.

वक्त पर इस का प्रबंधन करने के लिए डायबिटीज के रोगी के परिवार की भूमिका अहम होती है. यह साबित हो चुका है कि परिवार का सहयोग न मिलने पर रोगी अकसर अपनी दवा का नियमित सेवन और ग्लूकोज पर नियंत्रण नहीं रख पाता. इसलिए जरूरी है कि परिवार का एक सदस्य शुरुआत से ही इन सब बातों का ध्यान रखने में जुट जाए. डाक्टर के पास जाते वक्त साथ जा कर पारिवारिक सदस्य न सिर्फ काउंसलिंग सैशन का हिस्सा बन सकता है बल्कि यह भी समझ सकता है कि इस हालत को वे बेहतर तरीके से कैसे मैनेज कर सकते हैं.

कैसे करें शुगर प्रबंधन

डायबिटीज को मैनेज किया जा सकता है. अगर उचित कदम उठाए जाएं तो इस के रोगी लंबा व सामान्य जीवन गुजार सकते हैं. प्रबंधन के लिए कुछ कदम इस प्रकार हैं :

–  पेट के मोटापे पर नियंत्रण रख के इस से बचा जा सकता है क्योंकि इस का सीधा संबंध टाइप 2 डायबिटीज से है. पुरुष अपनी कमर का घेरा 40 इंच और महिलाएं 35 इंज तक रखें. सेहतमंद और संतुलित खानपान, नियमित व्यायाम मोटापे पर काबू पाने में मदद कर सकता है.

– गुड कोलैस्ट्रौल 50 एमजी रखने से दिल के रोग और डायबिटीज से बचा जा सकता है.

–  ट्रिग्सीसाइड एक आहारीय फैट है जो मीट व दुग्ध उत्पादों में होता है जिसे शरीर ऊर्जा के लिए प्रयोग करता है और अकसर शरीर में जमा कर लेता है. इस का स्तर 150 एमजी या इस से ज्यादा होने पर यह डायबिटीज का खतरा बढ़ा सकता है.

–  आप का सिस्टौलिक ब्लडप्रैशर 130 से कम और डायस्टौलिक ब्लडप्रैशर 85 से कम होना चाहिए. तनावमुक्त रह कर ऐसा किया जा सकता है.

– खाली पेट ग्लूकोज 100 एमजी या ज्यादा होने से डायबिटीज का खतरा बढ़ जाता है.

– दिन में 10,000 कदम चलने की सलाह दी जाती है.

परिवार मिल कर सप्ताह में 6 दिन सेहतमंद खानपान और रविवार को चीट डे के रूप में अपना सकते हैं ताकि नियमितरूप से हाई ट्रांस फैट और मीठा खाने से बचा जा सके. रविवार को बाहर जा कर शारीरिक व्यायाम करने के लिए भी रखा जा सकता है. परिवार में तनावमुक्त जीवन जीने की प्रभावशाली तकनीक बता कर सेहतमंद व खुशहाल जीवन जीने के लिए उत्साहित कर के एकदूसरे की मदद की जा सकती है.

(लेखक एंडोक्राइनोलौजिस्ट हैं.)

मझली : एक पिता के मन को छू देने वाली कहानी

ठाकुर साहब के यहां मैं छोटी के बाद आई थी, लेकिन मझली मैं ही कहलाई. ठाकुर साहब के पास 20 गांवों की मालगुजारी थी. महलनुमा बड़ी हवेली के बीच में दालान और आगे ठाकुर साहब की बैठक थी. हवेली के दरवाजों पर चौबीसों घंटे लठैत रहते थे. हां, तो बड़ी ही ठाकुर साहब के सब से करीब थीं. जब ठाकुर साहब कहीं जाते, तब वे घोड़े पर कोड़ा लिए बराबरी से चलतीं. उन में दयाधरम नहीं था. पूरे गांवों पर उन की पकड़ थी. कहां से कितना पैसा आना है, किस के ऊपर कितना पैसा बकाया है, इस का पूरा हिसाब उन के पास था.

ठाकुर साहब 65 साल के आसपास हो चले थे और बड़ी 60 के करीब थीं. ठाकुर साहब को बस एक ही गम था कि उन के कोई औलाद नहीं थी. इसी के चलते उन्होंने पहले छोटी से शादी की थी और 5 साल बाद अब मुझ से. छोटी को राजकाज से कोई मतलब नहीं था. दिनभर ऐशोआराम की जिंदगी गुजारना उस की आदत थी. वह 40 के आसपास हो चली थी, लेकिन उस के आने के बाद भी ठाकुर साहब का गम कम नहीं हुआ था. कहते हैं कि उम्मीद पर दुनिया टिकी है, इसीलिए ठाकुर साहब ने मुझ से ब्याह रचाया था. मेरी उम्र यही कोई 20-22 साल के आसपास चल रही थी. मैं गरीब परिवार से थी. एक बार धूमरी गांव में जब ठाकुर साहब आए थे, तब मैं बच्चों को इकट्ठा कर के पढ़ा रही थी. ठाकुर साहब ने मेरे इस काम की तारीफ की थी और वे मेरी खूबसूरती के दीवाने हो गए थे. और न जाने क्यों उन के दिल में आया कि शायद मेरी वजह से उन के घर में औलाद की खुशियां आ जाएंगी.

मेरी मां तो इस ब्याह के लिए तैयार नहीं थीं, लेकिन पिताजी की सोच थी कि इतने बड़े घर से रिश्ता जुड़ना इज्जत की बात है. खैर, बहुत शानोशौकत के साथ ठाकुर साहब से मेरा ब्याह हुआ. जैसा कि दूसरी जगह होता है, सौतन आने पर पुरानी औरतें जलन करती हैं, लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं था. बड़ी ने ही मेरी नजर उतारी थी और छोटी मुझे ठाकुर साहब के कमरे तक ले गई थी. मेरे लिए शादीब्याह की बातें एक सपने जैसी थीं, क्योंकि गरीब घर की लड़की की इज्जत से गांव में खेलने वाले तो बहुत थे, पर इज्जत देने वाले नहीं थे, इसलिए जब ठाकुर साहब के यहां से रिश्ते की बात आई, तब मैं ने भी नानुकर नहीं की. अब बड़ी और छोटी के कोई औलाद नहीं थी, इसलिए आपसी तनातनी वाली कोई बात भी नहीं थी.

हां, तो मैं बता रही थी कि बड़ी ही ठाकुर साहब के साथ गांवगांव जाती थीं और वसूली करती थीं. ऐसे ही एक बार वे रंभाड़ी गांव गईं. वहां सब किसानों ने तो अपने कर्ज का हिस्सा ठाकुर साहब को भेंट कर दिया था, लेकिन सिर्फ रमुआ ही ऐसा था, जो खाली हाथ था. वह हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘ठाकुरजी… ओले गिरने से फसल बरबाद हो गई. पिछले दिनों मेरे मांबाप भी गुजर गए. अब इस साल आप कर्ज माफ कर दें, तो अगले साल पूरा चुकता कर दूंगा.’’ लेकिन बड़ी कहां मानने वाली थीं. उन्होंने लठैतों से कहा, ‘‘बांध लो इसे. इस की सजा हवेली में तय होगी.’’

मैं जब ठाकुर साहब के यहां आई, तब पहलेपहल तो किसी बात पर अपनी सलाह नहीं दी थी, लेकिन ठाकुर साहब चाहते थे कि मैं भी इस हवेली से जुड़ूं और जिम्मेदारी उठाऊं. धीरेधीरे मैं हवेली में रचबस गई और वक्तजरूरत पर सलाह देने के साथसाथ हवेली के कामकाज में हिस्सा लेने लगी. रात हो चली थी कि तभी हवेली में हलचल हुई. पता करने पर मालूम हुआ कि ठाकुर साहब आ गए हैं. बड़ी ने अपना कोड़ा हवा में लहराया, तब मुझे एहसास हुआ कि आज भी किसी पर जुल्म ढहाया जाना है. अब मैं भी झरोखे में आ कर बैठ गई. रमुआ को रस्सियों से बांध कर आंगन में डाल दिया गया था. अब बड़ी ठाकुर साहब के इशारे का इंतजार कर रही थी कि उस पर कोड़े बरसाना शुरू करे. मैं ने अपनी नौकरानी से उस को मारने की वजह पूछी, तब उस ने बताया, ‘‘मझली ठकुराइन, यहां तो यह सब होता ही रहता है. अरे, कोई बकाया पैसा नहीं दिया होगा.’’ रमुआ थरथर कांप रहा था.

तभी मैं ने उस नौकरानी से ठाकुर साहब के पास खबर भिजवाई कि मैं उन से मिलना चाहती हूं और मैं झरोखे के पीछे चली गई.

तभी वहां ठाकुर साहब आए और उन्होंने मेरी तरफ देखा

मैं ने कहा, ‘‘ठाकुर साहब, यह रमुआ मुझे ईमानदार और मेहनती लगता है, इसलिए इसे यहीं पटक देते हैं. पड़ा रहेगा. हवेली, खेतखलिहान के काम तो करेगा ही, यह मजबूत लठैत भी है.’’ ठाकुर साहब को मेरी सलाह पसंद आई, लेकिन दूसरों पर अपना खौफ बनाए रखने के लिए उन्होंने रमुआ को 10 कोड़े की सजा देते हुए हवेली के पिछवाड़े की कोठरी में डलवा दिया. एक दिन मैं ने नौकरानी से रमुआ को बुलवाया. हवेली में कोई भी मर्द औरतों से आमनेसामने बात नहीं कर सकता था, इसलिए बात करने के लिए बीच में परदा डाला जाता था. रमुआ ने परदे के दूसरी तरफ आ कर सिर झुका कर कहा, ‘‘मझली ठकुराइनजी आदेश…’’ झीने परदे में से मैं ने रमुआ को एक निगाह देखा. लंबा कद, गठा हुआ बदन. सांवले रंग पर पसीने की बूंदें एक अजीब सी कशिश पैदा कर रही थीं. उसे देखते ही मेरे तन की उमंगें और मन की तरंगें उछाल मारने लगीं.

मैं ने रमुआ पर रोब गांठते हुए कहा, ‘‘तो तू है रमुआ. अब क्या हवेली में बैठेबैठे ही खाएगा, यहां मुफ्त में कुछ नहीं मिलता है… समझा?’’

यह सुन कर रमुआ घबरा गया और बोला, ‘‘आदेश, मझली ठाकुराइन.’’

मैं ने कहा, ‘‘इधर आ… यह जो ठाकुरजी की बैठक है, उस के ऊपर मयान (पुराने मकानों में छत इन पर बनाई जाती थी) में हाथ से झलने वाला पंखा लगा है. उस की डोरी निकल गई है. जरा उसे अच्छी तरह से बांध दे.’’ मैं अब भी परदे के पीछे नौकरानी के साथ खड़ी थी. रमुआ बंदर की तरह दीवार पर चढ़ कर मयान तक पहुंच गया और उस ने पंखे की सभी डोरियां बांध दीं. इस के बाद बैठक को साफ कर अच्छी तरह जमा दिया. दोपहर को ठाकुर साहब ने बैठक का इंतजाम देखा, तो उन्हें बहुत अच्छा लगा. जब उन्होंने इस बारे में नौकरानी से पूछा, तब उस ने मेरा नाम बताया. ठाकुर साहब की निगाह में मेरी इमेज अच्छी बनती जा रही थी.

एक दिन मैं ने ठाकुर साहब से कहा, ‘‘इस रमुआ को हवेली की हिफाजत के लिए रख लेते हैं और कहीं जाते समय मैं भी अपनी हिफाजत के लिए नौकरानी के साथ इसे भी रख लिया करूंगी.’’ ठाकुर साहब ने मेरी बात मान ली और मेरी हिफाजत की जिम्मेदारी रमुआ के ऊपर सौंप दी. हवेली से कुछ ही दूरी पर खेत था. खेत में मकान बना था, जिस से हवेली का कोई आदमी वहां जाए, तो उसे कोई परेशानी न हो. एक दिन मैं ने नौकरानी को बैलगाड़ी लगाने के लिए कहा. बैलगाड़ी के चारों डंडों पर चादर बांध दी गई थी, जिस से बाहर के किसी मर्द की निगाह हवेली की औरतों पर नहीं पडे़. चूंकि बड़ी अब 60 के पार हो चुकी थीं, इसलिए ये सब बंदिशें उन पर तो नहीं थीं, छोटी पर कम और मेरे ऊपर सब से ज्यादा थीं.

खैर, हवेली के दरवाजे से बैलगाड़ी तक दोनों तरफ परदे लगा दिए गए और मैं उन परदों के बीच से हो कर बैलगाड़ी में बैठ गई और रमुआ बैलगाड़ी पर लाठी रख कर हांकने लगा. खेत पर जा कर मैं ने रमुआ को मेड़ बांधने और पानी की ढाल ठीक करने के लिए कहा. थोड़ी देर में काली घटाएं उमड़घुमड़ कर बरसने लगीं. रमुआ अभी भी खेत पर काम कर रहा था. नौकरानी को मैं ने ऊपर के कमरे में भेज दिया और कहा, ‘‘जब चलेंगे, तब बुला लूंगी,’’ और बाहर से कुंडी लगा दी. बरसात तेज हो गई थी और रमुआ छपरे में खड़ा हो कर पानी से बच रहा था. मैं ने रमुआ को अंदर आने के लिए कहा, तभी जोर से बिजली कड़की और ऐसा लगा कि वह मकान पर ही गिर रही है. मैं ने डरते हुए रमुआ को जोर से जकड़ लिया. उस समय मैं रमुआ के लिए औरत और रमुआ मेरे लिए मर्द था.

थोड़ी देर में बरसात थम गई. मेरा मन सुख से भर गया था. रमुआ मुझ से आंखें नहीं मिला पा रहा था. मैं ने उसे फिर से खेत पर भेज दिया और ऊपर के कमरे में नौकरानी, जो अभी भी सो रही थी, को झिड़क कर उठाते हुए कहा, ‘‘क्या रात यहीं गुजारने का इरादा है?’’ नौकरानी हड़बड़ा कर उठी और बैलगाड़ी लगवाई. वापस हवेली में आ कर मैं ने रमुआ को दालान में बुलवाया और बड़ी से कोड़ा ले कर रमुआ पर एक ही सांस में 10-20 कोड़े बरसा दिए. मेरे इस बरताव की किसी को उम्मीद नहीं थी, लेकिन ठाकुर साहब और बड़ी खुश हो रहे थे कि मझली भी अब हवेली के रंगढंग में रचबस रही है. और उधर रमुआ अब भी यह नहीं समझ पाया कि आखिर मझली ठकुराइन ने उस पर कोड़े क्यों बरसाए?

पहली बात तो यह कि रमुआ को मैं ने एहसास दिलाया कि जो खेत पर हुआ है, उस के लिए उसे चुप रहना है, वरना… दूसरी, ठाकुर साहब और नौकरानी को यह एहसास दिलाना कि मुझे रमुआ से कोई लगाव नहीं है. तीसरी यह कि अगर हवेली में मेरे से वारिस आता है, तो उस के हक के लिए मैं कोडे़ भी बरसा सकती हूं. इस के बाद मैं ने ठाकुर साहब को रात मेरे कमरे में गुजारने की गुजारिश इतनी अदाओं के साथ की कि वे मना नहीं कर सके. मैं खुद नहीं समझ पा रही थी कि यह औरतों वाला तिरिया चरित्तर मुझ में कहां से आ गया, जिस के बल पर मैं अपने इरादे पूरे कर रही थी.

अगले दिन मैं पहले की तरह सामान्य थी. नौकरानी से रमुआ को बुला कर हवेली की साफसफाई कराई. वह अभी भी डरा और सहमा हुआ था. समय अपनी रफ्तार से गुजर रहा था. आज ठाकुर साहब की खुशियों का पारावार नहीं था. हवेली दुलहन की तरह सजी हुई थी. दावतों, कव्वाली और नाचगानों का दौर चल रहा था. कब रात होती, कब सुबह, मालूम नहीं पड़ता. जो पैसा अब तक हवेली की तिजोरियों में पड़ा था, खुशियां मनाने में खर्च हो रहा था, जगहजगह लंगर चल रहे थे, दानधर्म चल रहा था और हो भी क्यों नहीं, ठाकुर साहब का वारिस जो आ गया था. बड़ी और छोटी भी औरत थीं और इतने दिनों तक हवेली को वारिस नहीं देने की वजह वे जानती थीं, लेकिन इस के बावजूद वे यह समझ नहीं पा रही थीं कि मझली ने यह कारनामा कैसे कर दिया?

सीलन : दो सहेलियों की दर्द भरी कहानी

बचपन से ही वह हमेशा नकाब में रहती थी. स्कूल के किसी बच्चे ने कभी उस का चेहरा नहीं देखा था. हां, मछलियों सी उस की आंखें अकसर चमकती रहती थीं. कभी शरारत से भरी हुई, तो कभी एकदम शांत और मासूम. लेकिन कभीकभी उन आंखों में एक डर भी दिखाई देता था. हम दोनों साथसाथ पढ़ते थे. पढ़ाई में वह बेहद अव्वल थी. जोड़घटाव तो जैसे उस की जबां पर रहता था. मुझे अक्षर ज्ञान में मजा आता था. कहानियां, कविताएं पसंद आती थीं, जबकि गणित के समीकरण, विज्ञान, ये सब उस के पसंदीदा सब्जैक्ट थे.

वह थोड़ी संकोची, किसी नदी सी शांत और मैं एकदम बातूनी. दूर से ही मेरी आवाज उसे सुनाई दे जाती थी, बिलकुल किसी समुद्र की तरह. स्कूल में अकसर ही उसे ले कर कानाफूसी होती थी. हालांकि उस कानाफूसी का हिस्सा मैं कभी नहीं बनता था, लेकिन दोस्तों के मजाक का पात्र जरूर बन जाता था. मैं रिया के परिवार के बारे में कुछ नहीं जानता था. वैसे भी बचपन की दोस्ती घरपरिवार सब से परे होती है. बचपन से ही मुझे उस का नकाब बेहद पसंद था, तब तो मैं नकाब का मतलब भी नहीं जानता था. शक्लसूरत उस की अच्छी थी, फिर भी मुझे वह नकाब में ज्यादा अच्छी लगती थी.

बड़ी क्लास में पहुंचते ही हम दोनों के स्कूल अलग हो गए. उस का दाखिला शहर के एक गर्ल्स स्कूल में हो गया, जबकि मेरा दाखिला लड़कों के स्कूल में करवा दिया गया. अब हम धीरेधीरे अपनीअपनी दिलचस्पी के काम के साथ ही पढ़ाई में भी बिजी हो गए थे, लेकिन हमारी दोस्ती बरकरार रही. पढ़ाईलिखाई से वक्त निकाल कर हम अब भी मिलते थे. वह जब तक मेरे साथ रहती, खुश रहती, खिली रहती. लेकिन उस की आंखों में हर वक्त एक डर दिखता था. मुझे कभी उस डर की वजह समझ नहीं आई. अकसर मुझे उस के परिवार के बारे में जानने की इच्छा होती. मैं उस से पूछता भी, लेकिन वह हंस कर टाल जाती.

हालांकि अब मुझे समझ आने लगा था कि नकाब की वजह कोई धर्म नहीं था, फिर ऐसा क्या था, जो उसे अपना चेहरा छिपाने को मजबूर करता था? मैं अकसर ऐसे सवालों में उलझ जाता. कालेज में भी मेरे अलावा उस की सिर्फ एक ही सहेली थी उमा, जो बचपन से उस के साथ थी. मेरे मन में उसे और उस के परिवार को करीब से जानने के कीड़े ने कुलबुलाना शुरू कर दिया था. शायद दिल के किसी कोने में प्यार के बीज ने भी जन्म ले लिया था. मैं हर मुलाकात में उस के परिवार के बारे में पूछना चाहता था, लेकिन उस की खिलखिलाहट में सब भूल जाता था. अकसर मैं अपनी कहानियों और कविताओं की काल्पनिक दुनिया उस के साथ ही बनाता और सजाता गया.

बड़े होने के साथ ही हम दोनों की मुलाकात में भी कमी आने लगी. वहीं मेरी दोस्ती का दायरा भी बढ़ा. कई नए दोस्त जिंदगी में आए. उन्हें मेरी और रिया की दोस्ती की खबर हुई. एक दिन उन्होंने मुझे उस से दूर रहने की नसीहत दे डाली. मैं ने उन्हें बहुत फटकारा. लेकिन उन के लांछन ने मुझे सकते में डाल दिया था. वे चिल्ला रहे थे, ‘जिस के लिए तू हम से लड़ रहा है. देखना, एक दिन वह तुझे ही दुत्कार कर चली जाएगी. गंदी नाली का कीड़ा है वह.’ मैं कसमसाया सा उन्हें अपने तरीके से लताड़ रहा था. पहली बार उस के लिए दोस्तों से लड़ाई की थी. मैं बचपन से ही अकेला रहा था. मातापिता के पास समय नहीं होता था, जो मेरे साथ बिता सकें. उमा और रिया के अलावा किसी से कोई दोस्ती नहीं. पहली बार किसी से दोस्ती हुई और

वह भी टूट गई. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था. वह एक सर्द दोपहर थी. सूरज की गरमाहट कम पड़ रही थी. कई महीनों बाद हमारी मुलाकात हुई थी. उस दोपहर रिया के घर जाने की जिद मेरे सिर पर सवार थी. कहीं न कहीं दोस्तों की बातें दिल में चुभी हुई थीं.

मैं ने उस से कहा, ‘‘मुझे तुम्हारे मातापिता से मिलना है.’’

‘‘पिता का तो मुझे पता नहीं, लेकिन मेरी बहुत सी मांएं हैं. उन से मिलना है, तो चलो.’’ मैं ने हैरानी से उस के चेहरे की ओर देखा. वह मुसकराते हुए स्कूटी की ओर बढ़ी. मैं भी उस के साथ बढ़ा. उस ने फिर से अपने खूबसूरत चेहरे को बुरके से ढक लिया. शाम ढलने लगी थी. अंधेरा फैल रहा था. मैं स्कूटी पर उस के पीछे बैठ गया. मेन सड़क से होती हुई स्कूटी आगे बढ़ने लगी. उस रोज मेरे दिल की रफ्तार स्कूटी से भी ज्यादा तेज थी. अब स्कूटी बदनाम बस्ती की गलियों में हिचकोले खा रही थी.

मैं ने हड़बड़ा कर पूछा, ‘‘रास्ता भूल गई हो क्या?’’

उस ने कहा, ‘‘मैं बिलकुल सही रास्ते पर हूं.’’ उस ने वहीं एक घर के किनारे स्कूटी खड़ी कर दी. मेरे लिए वह एक बड़ा झटका था. रिया मेरा हाथ पकड़ कर तकरीबन खींचते हुए एक घर के अंदर ले गई. अब मैं सीढि़यां चढ़ रहा था. हर मंजिल पर औरतें भरी पड़ी थीं, वे भी भद्दे से मेकअप और कपड़ों में सजीधजी. अब तक फिल्मों में जैसा देखता आया था, उस से एकदम अलग… बिना किसी चकाचौंध के… हर तरफ अंधेरा, सीलन और बेहद संकरी सीढि़यां. हर मंजिल से अजीब सी बदबू आ रही थी. जाने कितनी मंजिल पार कर हम लोग सब से ऊपर वाली मंजिल पर पहुंचे. वहां भी कमोबेश वही हालत थी. हर तरफ सीलन और बदबू. बाहर से देखने पर एकदम छोटा सा कमरा, जहां लोगों के होने का अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता था. ज्यों ही मैं कमरे के अंदर पहुंचा, वहां ढेर सारी औरतें थीं. ऐसा लग रहा था, मानो वे सब एक ही परिवार की हों.

मुझे रिया के साथ देख कर उन में से कुछ की त्योरियां चढ़ गईं, लेकिन साथ वालियों को शायद रिया ने मेरे बारे में बता रखा था, उन्होंने उन के कान में कुछ कहा और फिर सब सामान्य हो गईं.

एकसाथ हंसनाबोलना, रहना… उन्हें देख कर ऐसा नहीं लग रहा था कि मैं किसी ऐसी जगह पर आ गया हूं, जो अच्छे घर के लोगों के लिए बैन है. वहां छोटेछोटे बच्चे भी थे. वे अपने बच्चों के साथ खेल रही थीं, उन से तोतली बोली में बातें कर रही थीं. घर का माहौल देख कर घबराहट और डर थोड़ा कम हुआ और मैं सहज हो गया. मेरे अंदर का लेखक जागा. उन्हें और जानने की जिज्ञासा से धीरेधीरे मैं ने उन से बातें करना शुरू कीं.

‘‘यहां कैसे आना हुआ?’’

‘‘बस आ गई… मजबूरी थी.’’

‘‘क्या मजबूरी थी?’’

‘‘घर की मजबूरी थी. अपना, अपने बच्चों का, परिवार का पेट पालना था.’’

‘‘क्या घर पर सभी जानते हैं?’’

‘‘नहीं, घर पर तो कोई नहीं जानता. सब यह जानते हैं कि मैं दिल्ली में रहती हूं, नौकरी करती हूं. कहां रहती हूं, क्या करती हूं, ये कोई भी नहीं जानता.’’

मैं ने एक और औरत को बुलाया, जिस की उम्र 45 साल के आसपास रही होगी.

मेरा पहला सवाल वही था, ‘‘कैसे आना हुआ?’’

‘‘मजबूरी.’’

‘‘कैसी?’’

‘‘घर में ससुर नहीं, पति नहीं, सिर्फ बच्चे और सास. तो रोजीरोटी के लिए किसी न किसी को तो घर से बाहर निकलना ही होता.’’

‘‘अब?’’

‘‘अब तो मैं बहुत बीमार रहती हूं. बच्चेदानी खराब हो गई है. सरकारी अस्पताल में इलाज के लिए गई. डाक्टर का कहना है कि खून चाहिए, वह भी परिवार के किसी सदस्य का. अब कहां से लाएं खून?’’

‘‘क्या परिवार में वापस जाने का मन नहीं करता?’’

‘‘परिवार वाले अब मुझे अपनाएंगे नहीं. वैसे भी जब जिंदगीभर यहां कमायाखाया, तो अब क्यों जाएं वापस?’’

यह सुन कर मैं चुप हो गया… अकसर बाहर से चीजें जैसी दिखती हैं, वैसी होती नहीं हैं. उन लोगों से बातें कर के एहसास हो रहा था कि उन का यहां होना उन की कितनी बड़ी मजबूरी है. रिया दूर से ये सब देख रही थी. मेरे चेहरे के हर भावों से वह वाकिफ थी. उस के चेहरे पर मुसकान तैर रही थी. मैं ने एक और औरत को बुलाया, जो उम्र के आखिरी पड़ाव पर थी. मैं ने कहा, ‘‘आप को यहां कोई परेशानी तो नहीं है?’’

उस ने मेरी ओर देखा और फिर कुछ सोचते हुए बोली, ‘‘जब तक जवान थी, यहां भीड़ हुआ करती थी. पैसों की कोई कमी नहीं थी. लेकिन अब कोई पूछने वाला नहीं है. अब तो ऐसा होता है कि नीचे से ही दलाल ग्राहकों को भड़का कर, डराधमका कर दूसरी जगह ले जाते हैं. बस ऐसे ही गुजरबसर चल रही है. ‘‘आएदिन यहां किसी न किसी की हत्या हो जाती है या फिर किसी औरत के चेहरे पर ब्लेड मार दिया जाता है. ‘‘अब लगता है कि काश, हमारा भी घर होता. अपना परिवार होता. कम से कम जिंदगी के आखिरी दिन सुकून से तो गुजर पाते,’’ छलछलाई आंखों से चंद बूंदें उस के गालों पर लुढ़क आईं और वह न जाने किस सोच में खो गई.मुझे अचानक वह ककनू पक्षी सी लगने लगी. ऐसा लगने लगा कि मैं ककनू पक्षियों की दुनिया में आ गया हूं. मुझे घबराहट सी होने लगी. धीरेधीरे उस के हाथों की जगह बड़ेबड़े पंख उग आए. ऐसा लगा, मानो इन पंखों से थोड़ी ही देर में आग की लपटें निकलेंगी और वह उसी में जल कर राख हो जाएंगी. क्या मैं ऐसी जगह से आने वाली लड़की को अपना हमसफर बना सकता हूं? दिमाग ऐसे ही सवालों के जाल में फंस गया था.

अचानक ही मुझे बुरके में से झांकतीचमकती सी रिया की उदास डरी हुई आंखें दिखीं. मुझे अपने मातापिता  की भागदौड़ भरी जिंदगी दिख रही थी, जिन के पास मुझ से बात करने का वक्त नहीं था और साथ ही, वे दोस्त भी दिखे, जो अब भी कह रहे थे, ‘निकल जा इस दलदल से, वह तुम्हारी कभी नहीं होगी.’ मेरा वहां दम घुटने लगा. मैं वहां से बाहर भागा. बाहर आते ही रिया की अलमस्त सुबह सी चमकती हंसी ने हर सोच पर ब्रेक लगा दिया. मैं दूर से ही उसे खिलखिलाते देख रहा था. उफ, इतने दमघोंटू माहौल में भी कोई खुश रह सकता है भला क्या?

गुड्डन : कामवाली के प्यार से परेशान मालकिन की कहानी

story in hindi

शिणगारी : आखिर क्यों आज भी इस जगह से दूर रहते हैं बंजारे ?

बंजारों के एक मुखिया की बेटी थी शिणगारी. मुखिया के कोई बेटा नहीं था. शिणगारी ही उस का एकमात्र सहारा थी. बेहद खूबसूरत शिणगारी नाचने में माहिर थी. शिणगारी का बाप गांवगांव घूम कर अपने करतब दिखाता था और इनाम हासिल कर अपना व अपनी टोली का पेट पालता था. शिणगारी में जन्म से ही अनोखे गुण थे. 17 साल की होतेहोते उस का नाच देख कर लोग दांतों तले उंगली दबाने लगे थे.ऐसे ही एक दिन बंजारों की यह टोली उदयपुर पहुंची. तब उदयपुर नगर मेवाड़ राज्य की राजधानी था. महाराज स्वरूप सिंह मेवाड़ की गद्दी पर बैठे थे. उन के दरबार में वीर, विद्वान, कलाकार, कवि सभी मौजूद थे.

एक दिन महाराज का दरबार लगा हुआ था. वीर, राव, उमराव सभी बैठे थे. महफिल जमी थी. शिणगारी ने जा कर महाराज को प्रणाम किया. अचानक एक खूबसूरत लड़की को सामने देख मेवाड़ नरेश पूछ बैठे, ‘‘कौन हो तुम?’’

‘‘शिणगारी… महाराज. बंजारों के मुखिया की बेटी हूं…’’ शिणगारी अदब से बोली, ‘‘मुजरा करने आई हूं.’’

‘‘ऐसी क्या बात है तुम्हारे नाच में, जो मैं देखूं?’’ मेवाड़ नरेश बोले, ‘‘मेरे दरबार में तो एक से बढ़ कर एक नाचने वालियां हैं.’’

‘‘पर मेरा नाच तो सब से अलग होता है महाराज. जब आप देखेंगे, तभी जान पाएंगे,’’ शिणगारी बोली.

‘‘अच्छा, अगर ऐसी बात है, तो मैं तुम्हारा नाच जरूर देखूंगा. अगर मुझे तुम्हारा नाच पसंद आ गया, तो मैं तुम्हें राज्य का सब से बढि़या गांव इनाम में दूंगा. अब बताओ कि कब दिखाओगी अपना नाच?’’ मेवाड़ नरेश ने पूछा.

‘‘मैं सिर्फ पूर्णमासी की रात को मुजरा करती हूं. मेरा नाच खुले आसमान के नीचे चांद की रोशनी में होता है…’’ शिणगारी बोली, ‘‘आप अपने महल से पिछोला सरोवर के उस पार वाले टीले तक एक मजबूत रस्सी बंधवा दीजिए. मैं उसी रस्सी पर तालाब के पानी के ऊपर अपना नाच दिखाऊंगी.’’ शिणगारी के कहे मुताबिक मेवाड़ नरेश ने अपने महल से पिछोला सरोवर के उस पार बनेरावला दुर्ग के खंडहर के एक बुर्ज तक एक रस्सी बंधवा दी.पूर्णमासी की रात को सारा उदयपुर शिणगारी का नाच देखने के लिए पिछोला सरोवर के तट पर इकट्ठा हुआ. महाराजा व रानियां भी आ कर बैठ गए.

चांद आसमान में चमक रहा था. तभी शिणगारी खूब सजधज कर पायलें छमकाती हुई आई. उस ने महाराज व रानियों को झुक कर प्रणाम किया और दर्शकों से हाथ जोड़ कर आशीर्वाद मांगा. फिर छमछमाती हुई वह रस्सी पर चढ़ गई. नीचे ढोलताशे वगैरह बजने लगे. शिणगारी लयताल पर उस रस्सी पर नाचने लगी. एक रस्सी पर ऐसा नाच आज तक उदयपुर के लोगों ने नहीं देखा था. हजारों की भीड़ दम साधे यह नाच देख रही थी. खुद मेवाड़ नरेश दांतों तले उंगली दबाए बैठे थे. रानियां अपलक शिणगारी को निहार रही थीं. नाचतेनाचते शिणगारी पिछोला सरोवर के उस पार रावला दुर्ग के बुर्ज पर पहुंची, तो जनता वाहवाह कर उठी. खुद महाराज बोल पड़े, ‘‘बेजोड़…’’कुछ पल ठहर कर शिणगारी रस्सी पर फिर वापस मुड़ी. बलखातीलहराती रस्सी पर वह ऐसे नाच रही थी, जैसे जमीन पर हो. इस तरह वह आधी रस्सी तक वापस चली आई.

अभी वह पिछोला सरोवर के बीच में कुछ ठहर कर अपनी कला दिखा ही रही थी कि किसी दुष्ट के दिल पर सांप लोट गया. उस ने सोचा, ‘एक बंजारिन मेवाड़ के सब से बड़े गांव को अपने नाच  से जीत ले जाएगी. वीर, उमराव, सेठ इस के सामने हाथ जोड़ेंगे. क्षत्रियों को झुकना पड़ेगा और ब्राह्मणों को इस की दी गई भिक्षा ग्रहण करनी पड़ेगी…’ और तभी रावला दुर्ग के बुर्ज पर बंधी रस्सी कट गई. शिणगारी की एक तेज चीख निकली और छपाक की आवाज के साथ वह पिछोला सरोवर के गहरे पानी में समा गई.

सरोवर के पानी में उठी तरंगें तटों से टकराने लगीं. महाराज उठ खड़े हुए. रानियां आंसू पोंछते हुए महलों को लौट गईं. भीड़ में हाहाकार मच गया. लोग पिछोला सरोवर के तट पर जा खड़े हुए. नावें मंगवाई गईं. तैराक बुलाए गए. तालाब में जाल डलवाया गया, पर शिणगारी को जिंदा बचा पाना तो दूर उस की लाश तक नहीं खोजी जा सकी अगले दिन दरबार लगा. शिणगारी का पिता दरबार में एक तरफ बैठा आंसू बहा रहा था.मेवाड़ नरेश बोले, ‘‘बंजारे, हम तुम्हारे दुख से दुखी हैं, पर होनी को कौन टाल सकता है. मैं तुम्हें इजाजत देता हूं कि तुम्हें मेरे राज्य का जो भी गांव अच्छा लगे, ले लो.’’ ‘‘महाराज, हम ठहरे बंजारे. नाच और करतब दिखा कर अपना पेट पालते हैं. हमें गांव ले कर क्या करना है. गांव तो अमीर उमरावों को मुबारक हो…’’ शिणगारी का बाप रोतेरोते कह रहा था, ‘‘शिणगारी मेरी एकलौती औलाद थी. उस की मां के मरने के बाद मैं ने बड़ी मुसीबतें उठा कर उसे पाला था. वही मेरे बुढ़ापे का सहारा थी. पर मेरी बेटी को छलकपट से तो नहीं मरवाना चाहिए था अन्नदाता.’’मेवाड़ नरेश कुछ देर सिर झुकाए आरोप सुनते रहे, फिर तड़प कर बोले, ‘‘तेरा आरोप अब बरदाश्त नहीं हो रहा है. अगर तुझे यकीन है कि रस्सी किसी ने काट दी है, तो तू उस का नाम बता. मैं उसे फांसी पर चढ़वा कर उस की सारी जागीर तुझे दे दूंगा.’’

‘‘ऐसी जागीर हमें नहीं चाहिए महाराज. हम तो स्वांग रच कर पेट पालने वाले कलाकार हैं,’’ शिणगारी के पिता ने कहा.

‘‘तो तुम जो चाहो मांग लो,’’ मेवाड़ नरेश गरजे.

‘‘नहीं महाराज…’’ आंसुओं से नहाया बंजारों का मुखिया बोला, ‘‘जिस राज्य में कपटी व हत्यारे लोग रहते हैं, वहां का इनाम, जागीर, गांव लेना तो दूर की बात है, वहां का तो मैं पानी भी नहीं पीऊंगा. मैं क्या, आज से उदयपुर की धरती पर बंजारों का कोई भी बच्चा कदम नहीं रखेगा महाराज.’’

यह सुन कर सभा में सन्नाटा छा गया. वह बंजारा धीरेधीरे चल कर दरबार से बाहर निकल गया. इस घटना को बीते सदियां गुजर गईं, पर अभी भी बंजारे उदयपुर की जमीन पर कदम नहीं रखते हैं.

पीढ़ी दर पीढ़ी बंजारे अपने बच्चों को शिणगारी की कहानी सुना कर उदयपुर की जमीन से दूर रहने की हिदायत देते हैं.

दुख की छांव में सुख की धूप : बहू की बेरंग जिंदगी में रंग भरती सास

story in hindi

कोहरा : किसी की मौत किसी की कमाई का जरिया बन जाती है.. उफ…

जनवरी में कड़ाके की ठंड और कोहरे के चलते दोपहर के बाद ही लगता है दिन ढल गया. पिछले एक महीने से कोहरे की यही स्थिति है. लगता है इस बार सर्दी पिछले सारे रिकार्ड तोड़ देगी.

शव यात्रा की बस जैसे ही श्मशान घाट पहुंची, कई लोगों ने आ कर बस को घेर लिया. बस के साथ 20-25 गाडि़यों का काफिला भी था. लगता था कि किसी बड़े आदमी का श्मशान पर आना हुआ है वरना आजकल 10-15 आदमी भी मुश्किल से जुट पाते हैं. अब किसे फुरसत है जो दो कदम जाने वाले के साथ चल सके.

अपनीअपनी गाडि़यों में से निकल कर लोग शव वाहन के पास आ कर जमा हो गए. अच्छी दक्षिणा मिलने की उम्मीद में राघव की आंखों में चमक आ गई. वह पिछले 20 सालों से अपने पूरे परिवार के साथ यहां है. अब तो उस का बेटा भी उस के काम में सहयोग करता है. बड़े बेटे खिल्लू ने तो चाय की गुमटी में एक छोटामोटा होटल ही खोल लिया है. अंदर बैठने की भी व्यवस्था है. 8-10 लोग कुरसियों पर बैठ कर आराम से चाय पी सकते हैं. दुकान में बीड़ी, सिगरेट, माचिस और बिस्कुट सभी कुछ मिलता है.

दुकान के करीब एक नल भी है. लोग हाथमुंह धो कर अकसर चाय की फरमाइश कर ही देते हैं. गरमियों में ठंडा भी मिलता है. कई बार भीड़ ज्यादा हो तो खिल्लू आवाज लगा कर जीवन को भी बुला लेता है. जीवन 14-15 साल का उस का छोटा भाई है. मां भी अकसर हाथ बंटाती रहती हैं. एक नौकर भी दुकान पर है. आजकल ठंड के कारण लोग भट्ठी के पास सिमट आते हैं और हाथ सेंकते रहते हैं. चाय का आर्डर भी खूब मिलता है. एक मुर्दे को जलाने में 3 साढ़े 3 घंटे तो लग ही जाते हैं.

राघव हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया, ‘‘बाबूजी, इधर आइए. यह शेड खाली है.’’

शव वाहन के साथ आए आदमियों में से एक जा कर शेड देख आया. लोग अरथी को उठा कर कंधों पर रखते तभी एक लाला टाइप आदमी ने टोक दिया :

‘‘बाबूजी, 10 मन लकडि़यां काफी होंगी?’’

तभी राघव चीखा, ‘‘अरे, पूछता क्या है? तु   झे नहीं पता कि एक मुर्दे के लिए कितनी लकडि़यां चाहिए. बाबूजी क्या मोलभाव करेंगे? कौन रोजरोज मरने आता है. बस, यही एक अंतिम खर्चा है.’’

राघव की बातें सुन कर वह आदमी जाने लगा. राघव ने फिर कहा, ‘‘रज्जो, ध्यान रखना लकडि़यां सूखी हों.’’

‘‘और बाबूजी,’’ राघव बोला, ‘‘फूल, बताशे, घी, गंगाजल आदि?’’

‘‘नहीं, हमारे पास सब हैं,’’ शव के साथ आए एक अन्य व्यक्ति ने उत्तर दिया.

‘‘और पंडित?’’

एक व्यक्ति ने गाड़ी में अंदर    झांक कर मालूम किया तो पता चला कि पंडित साथ नहीं आया था.

‘‘घबराने की बात नहीं है बाबूजी,’’ राघव बोला, ‘‘यहां सब व्यवस्था हो जाएगी,’’ फिर आवाज लगाई, ‘‘अरे, जीवन, जा जरा पंडितजी को बुला ला.’’

सबकुछ पल भर में तैयार. एक आवाज पर हर काम में पारंगत आदमी मिल जाता है. कोई    झं   झट नहीं. बस, कुछ पैसे चाहिए. पंडित भी कुछ मिनटों में हाजिर हो गया.

अरथी को एक टिन शेड के नीचे ले जाया गया. पंडित ने जमीन पर गंगाजल छिड़का, थोड़ा दूध भी छिड़का, कुछ फूलों की पंखडि़यां और बताशे डाले. फिर अरथी को नीचे रखने का इशारा किया. इस दौरान वह मंत्रों जैसा कुछ संस्कृत में बुदबुदाता रहा. इसी समय लकडि़यां भी आ गईं. साथ आए लोग चिता तैयार करने के लिए आगे बढ़े तभी 2 लोगों ने टोका :

‘‘बाबूजी, यह हमारा काम है. अभी किए देते हैं.’’

उन दोनों ने टिन शेड के एक कोने में चिता तैयार कर दी. अरथी खोल कर उस पर पड़ी चादर, कफन, रूमाल, गोले, रुपए चिता तैयार करने वालों ने समेट लिए. पंडित ने फिर गंगाजल छिड़का, फूल चढ़ाए और साथ आए लोगों से अरथी को चिता पर रखने को कहा. पंडित कर्मकांड कराता रहा और कपाल क्रिया तक वहीं बना रहा. साथ आए लोग चिता के पूरी तरह जलने के इंतजार में इधरउधर छिटक कर बैठ गए. कुछ चाय की गुमटी पर रुक गए. ठंड भी खूब पड़ रही है. कोहरा भी खूब छाया है. चाय की भट्ठी पर कुछ लोग हाथ सेंकने लगे. राघव घूमघूम कर देखता कि चिता की आग कहीं से धीमी तो नहीं पड़ गई. हाथ में पकड़े बांस से जलते लट्ठों को कुरेद देता. आग और तेज हो जाती. शेड के दूसरे कोने में भी चिता जल रही थी. राघव उधर भी जा कर देख आता और वहां भी उलटपुलट कर देता.

5 बड़ेबड़े शेड थे और सभी में 2-2, 3-3 चिताएं जल रही थीं. वैसे भी एक शेड में 5-6 चिताएं आराम से जल सकती थीं. चिताओं की लपटों की गरमी से ठंड में ठंड का एहसास नहीं होता. राघव की तरह ही बनवारी, श्यामू, जग्गू और काले खां के भी शेड्स हैं. किसी को पलक झपकाने की भी फुरसत नहीं है.

कोहरे के कारण खूब ऐक्सीडैंट हो रहे हैं. खूब चिताएं जल रही हैं. ठंड या बीमारी से जाड़ों में अधिक मौत नहीं होतीं, लेकिन इस बार सभी पर लक्ष्मी की अपार कृपा बरस रही है. लगता है पूरे साल की कमाई कुछ ही दिनों में हो जाएगी. इन सब के लिए मरने वाला आदमी 1,000-500 का नोट है. कोई मोहममता नहीं. अपने काम में मोहममता कैसी? आदमी अपना व्यवसाय देखता है. वे सभी व्यवसाय से बंधे हैं. पंडित को भी पूजा कराने की फुरसत नहीं. सभी के रेट निश्चित हैं. चाय की गुमटी के बाहर की दीवार पर रेटलिस्ट लगी है. मुर्दे के घरवाले उसी के मुताबिक सब के पैसे गिन कर खिल्लू को थमा देते हैं. वही सब का हिसाब चुकता कर देता है.

खिल्लू ने एक मोटरसाइकिल भी ले ली है. राघव का पक्का दोमंजिला मकान बन गया है. पत्नीबच्चे अब भूख से नहीं बिलखते. चिता की आग में उन की भूख जल गई है. कितना कुछ बदल गया है. शुरूशुरू में मुर्दे को छूते राघव के हाथ कांपे थे, दिल रोया था. सारा दिन मन खराब रहा कि मुर्दे की कमाई खाएगा. कफन ओढ़ेगाबिछाएगा, लेकिन धीरेधीरे आदत बन गई.

कफन और चादरें साप्ताहिक बाजार में बिक जाती हैं. सोच को एक तरफ    झटक राघव जल्दीजल्दी बांस चलाने लगा. मुर्दा पूरा फूंकने की गारंटी उसी की है. परसों अस्थियां चुनी जाएंगी. राघव पूरी तरह चुस्तदुरुस्त है. तभी ‘राम-नाम-सत्य है’ की आवाज कानों में पड़ी. एक और अरथी आ कर रुक गई. पहली अरथी के लोग धीरेधीरे खिसकने लगे. राघव भी बांस एक तरफ टिका आने वाली अरथी की ओर लपक लिया.

इजराइल-फिलिस्तीन जंग

इजराइल को पश्चिम एशिया का मिलिट्री ताकत के रूप में सब से मजबूत देश माना जाता है. वह अपने पर हमला करने वाले हर देश व गुट को जड़ से उखाड़ देने की धमकी ही नहीं देता, कितनी बार कर के दिखा भी चुका है. उस के खिलाफ फिलिस्तीनियों के एक गुट हमास द्वारा 7 अक्तूबर को किया गया जबरदस्त हमला, जिस में करीब 5,000 रौकेट एकसाथ दागे गए और समुद्र व जमीन से हमलावर इजराइल में घुसे भी, एक अचंभा था.

इजराइल की बांह मरोड़ने की आदत को अलोकतांत्रिक मानते हुए भी जो देश उस का साथ देते रहे हैं वे हमास के इस हमले से भौचक्के रह गए हैं. इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने कहा तो है कि वे ऐसा सबक सिखाएंगे कि हमलावर आगापीछा भूल जाएंगे पर लगता है फिलिस्तीन ने अब मरनेमारने का वैसा ही फैसला किया है जैसा रूस के खिलाफ यूक्रेन के व्लोदोमीर जेलेंस्की ने पिछले साल लिया था कि वे रूस के हमले का जवाब सही ढंग से देंगे.

इजराइल असल में उन यहूदियों द्वारा बनाया गया देश है जो द्वितीय विश्वयुद्ध में 1,500 से 2,000 वर्ष पहले इस इलाके को छोड़ कर पूरे यूरोप में बस गए थे क्योंकि यहां उन पर रोमन साम्राज्य हमले कर रहा था. इसलाम बाद में आया. जो गैरयहूदी इस इलाके में थे उन में से कुछ ईसाई बने और कुछ मुसलमान.

फिलिस्तीनी भी इस इलाके में सदियों से रह रहे थे पर यूरोप ने हिटलर के जुल्मों के शिकार यहूदियों को अपना एक देश देने का फैसला किया और फिलिस्तीनियों से जगह छीन कर यहूदियों को बसा दिया.

वर्ष 1947 से अब तक इजराइल में दुनियाभर से आ कर बसे यहूदियों ने इस बंजर, पथरीले, रेतीले इलाके को आबाद कर दिया. आसपास के देशों को पछाड़ते हुए यहूदियों ने इतना उत्पादन किया कि प्रतिव्यक्ति उत्पादन वहां 52,170 डौलर है जिस के मुकाबले भारत का लगभग 2,020 डौलर और चीन का 14,000 डौलर व यूरोप के मुसलिम बहुल देश तुर्की का 10,000 डौलर के आसपास है.

फिलिस्तीनी गरीबी और गुरबत में इजराइली सेना के साथ में इजराइल से घिरे कुछ इलाकों और समुद्र के किनारे गाजा पट्टी में रहते हैं. फिलिस्तीनियों का यह ताजा हमला गाजा पट्टी से हुआ क्योंकि समुद्री रास्ते से हथियार लाना संभव था. इजराइल अब गाजा पट्टी पर बने शहरों पर जबरदस्त हमले कर रहा है पर इस लड़ाई में कौन जीतेगा, यह कहना मुश्किल है.

मोटे तौर पर यह फिलिस्तीनियों का आत्मघाती हमला है क्योंकि वे इजराइल की ताकत और उस को मिलने वाले हथियारों का मुकाबला नहीं कर सकते. फिर भी नेतन्याहू ने माना है कि उन का देश हमास के खिलाफ एक लंबी लड़ाई में फंसने वाला है. कुल 23 लाख की आबादी वाले हमास के कंट्रोल में फिलिस्तीन का यह इलाका इतनी हिम्मत दिखा रहा है, यह बड़ी बात है. सही या गलत क्या है, यह दूसरी बात है.

इजराइल असल में पश्चिम एशिया में एक बिगड़ैल बुलडौग की तरह व्यवहार करता है और पिछले युद्धों की सफलता व आर्थिक संपन्नता का नशा उस पर बहुत है. फिर भी, जैसे गुफाओं और पहाडि़यों में रहते अफगानों ने रूस, अमेरिका और पाकिस्तान को पस्त किया, यदि वैसे ही हमास ने मरने की ठान ली है तो इजराइल का एक लंबे युद्ध में फंसना तय है.

यह एक उदाहरण है उन सब देशों के लिए जहां शासक अत्याचार, पुलिस, सेना के सहारे जनता को कुचल कर राज करने की कोशिश करते हैं. यह एक ऐसा उदाहरण है जो देश के बाहर वालों और देश के अंदर अपनी ही जनता दोनों के लिए है.

अभी कुछ वर्षों पहले ट्यूनीशिया, इजिप्ट (मिस्र) और सीरिया में जनता के विद्रोह का बड़ा असर हुआ था. हमास की लड़ाई में फिलिस्तीनी जनता एकसाथ है या नहीं, पता नहीं. वह अपने घरबार न्योछावर करने को तैयार है या नहीं, पता नहीं.

यदि वह तैयार है तो जैसे यहूदियों ने 1940-45 के बीच बुरी तरह अत्याचार झेलने के बाद एक खुशहाल देश इजराइल बनाया था, हमास भी अपने लोगों को एक नई उम्मीद दे सकता है. हां, अगर वे अल्लाह पर ही निर्भर रहे, तो शायद कुछ न होगा और फिर फिलिस्तीनी मजदूर इजराइल में नौकरी करने के लिए दिनभर के परमिटों की लाइनों में खड़े मिलेंगे.

दीपोत्सव या घूसोत्सव

पिछले साल दीवाली के इन्हीं दिनों में कर्नाटक की भाजपा सरकार पर लगा यह आरोप काफी सुर्खियों में रहा था कि मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने अपने करीबी सहयोगियों के जरिए राज्य के कुछ पत्रकारों को मिठाई के डब्बों के साथ एक से ढाई लाख रुपए तक नकद भिजवाए थे. तब न केवल मीडिया बल्कि सोशल मीडिया पर भी मीम्स और प्रतिक्रियाओं की झड़ी लग गई थी. यूजर्स ने जम कर बसवराज बोम्मई को ट्रोल किया था. मामले में दिलचस्पी और हैरत तब और बढ़ी थी जब कुछ पत्रकारों द्वारा दीवाली उपहार या रिश्वत में मिला पैसा वापस कर देने की खबरें आई थीं.

कांग्रेस इस मुद्दे पर दिल्ली से ले कर बेंगलुरु तक हमलावर रही थी और सकपकाए मुख्यमंत्री सफाई देते रह गए थे. लेकिन विधानसभा चुनाव में भाजपा की करारी हार हुई तो सहज लगा था कि दाल में कुछ तो काला था.

बात आईगई हो गई लेकिन दीवाली के तोहफों के एक और स्याह सच के साथ वह यह भी उजागर कर गई कि उपहाररूपी रिश्वतखोरी केवल सरकारी महकमों में ही आम नहीं है, मीडिया भी इस का हिस्सा है क्योंकि अपनी पहुंच और हैसियत के मुताबिक वह काफीकुछ बना और बहुतकुछ बिगाड़ भी सकती है. मीडिया की घटती विश्वसनीयता किसी सुबूत की मुहताज नहीं रह गई है लेकिन यह मामला एक शक को यकीन में बदल गया था कि क्यों दीवाली पर तोहफों के लेनदेन का रिवाज बढ़ रहा है.

उपहार उल्लू सीधा करने का जरिया

दीवाली पर उपहार देना बेहद आम बात है लेकिन अब यह रिश्वतखोरी का दूसरा नाम हो गया है क्योंकि मौका भी होता है, मौसम भी होता है और दस्तूर तो है ही. एक स्वस्थ परंपरा को भी कैसे घूसखोरी और घूसखोरों ने अपना उल्लू सीधा करने का जरिया बना लिया है, बड़े पैमाने पर इस की एक मिसाल अब से कोई 7 साल पहले तब सामने आई थी जब तत्कालीन केंद्रीय वित्त सचिव हसमुख आधिया को किसी ने दीवाली के तोहफे में सोने के 2 बिस्कुट भिजवाए थे. यह राज खुद हसमुख आधिया ने ही खोला था कि उन के राजस्व सचिव रहते किसी ने इतनी बड़ी घूस देने की हिमाकत की.

गौरतलब है कि हसमुख उन इनेगिने रसूखदार और पहुंच वाले अफसरों में से थे जिन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 8 नवंबर, 2016 को लागू होने वाली नोटबंदी की अग्रिम जानकारी थी. तब वित्त मंत्री अरुण जेटली थे. जब बवाल मचा तो सवाल भी उठने लगे. लेकिन मीडिया के सामने बड़ी मासूमियत से उन्होंने इतना भर कहा था कि यह रहस्मयी कीमती उपहार उन के मोतीबाग स्थित आवास पर भेजा गया था और इस की डिलीवरी के वक्त वे घर पर नहीं थे.

वित्त विभाग का एक बड़ा अधिकारी किसी कुबेर से कम नहीं होता जिस की जेब में सरकार यानी जनता के खरबों के खजाने की चाबी रहती है.

हसमुख आधिया ने खुद पहल करते मामला उजागर किया था. इस बाबत उन की तारीफ ही हुई थी लेकिन इस सवाल का जवाब वे टाल गए थे कि फिर क्यों इस मामले और रिश्वतदाताओं की पहचान के लिए उन्होंने केंद्रीय जांच ब्यूरो से जांच की मांग नहीं उठाई.

इस पर उन्होंने चतुराई से यह कहते बात खत्म कर दी थी कि उन्होंने सोने के उन बिस्कुटों को सरकारी तोशखाने में जमा करवा दिया है. तब सूंघने वाले हालांकि यह कहते नजर आए थे कि यह कीमती उपहार कथित रूप से नीरव मोदी ने भेजा था या भेजा होगा.

शिष्टाचार बना भ्रष्टाचार

बात यह भी आईगई हो गई लेकिन स्पष्ट यह कर गई कि दीवाली पर उपहारों की आड़ में कितनी भारीभरकम घूस ली व दी जाती होगी. अब अगर देशभर के सभी अधिकारी दीवाली पर मिले उपहारों को हसमुख आधिया की तरह सरकारी तोशखाने में ईमानदारी से जमा कराने लगें तो देश में खाने की कमी न रहेगी.

अब से कोई 40-50 साल पहले तक दीवाली पर उपहार देना शिष्टाचार माना जाता था, जो अब पूरी तरह से भ्रष्टाचार में तबदील हो गया है. दीवाली के दिनों में किसी भी बड़े नेता, मंत्री और सरकारी अधिकारियों के यहां तोहफे देने वालों की लाइन लगी रहती है. दाताओं के हाथ में दिखते तो मिठाई के डब्बे हैं लेकिन उन के अंदर होती है लक्ष्मी जो अपनी स्वार्थसिद्धि और लेने वाले की हैसियत के मुताबिक नोटों की शक्ल में पैक की जाती है. भोपाल के पौश इलाके चारइमली में आईएएस अधिकारी और मंत्री-नेता रहते हैं. दीवाली के दिनों में इस इलाके में हरेक बंगले के बाहर तरहतरह की महंगी से महंगी कारों के दर्शन होते हैं.

ऐसे ही एक आईएएस अधिकारी के पास से रिटायर हुए क्लर्क की मानें तो सिर्फ नकदी ही नहीं बल्कि साहबों के पास तोहफों या घूस कुछ भी कह लें, में सोने के जेवरात, महंगेमहंगे मोबाइल फोन, नए दौर के चपटे वाले टीवी (एलसीडी प्लाज्मा), लैपटौप, विदेशी शराब की बोतलें और, और भी जाने क्याक्या आता है. दिनभर आम और खास लोगों की आवाजाही लगी रहती है. साहब गिफ्ट के डब्बों को कुरसी के पीछे की तरफ खिसकाते जाते हैं ठीक वैसे ही जैसे ब्रैंडेड मंदिरों के पुजारी चढ़ावे में आए नारियलों को फेंकते नजर आते हैं. मिठाई वह भी महंगीमहंगी तो क्ंिवटलों से आती है जिसे साहब लोग उदारतापूर्वक अपने स्टाफ को बांट देते हैं क्योंकि वे खुद इतनी मिठाई खा ही नहीं सकते.

किस ने क्या दिया, इस का हिसाब साहब लोग जेहन में रखते हैं, डायरी में नहीं लिखते. तोहफे की कीमत के हिसाब से देने वाले के काम कर दिए जाते हैं. किसी को ठेका चाहिए तो किसी को टैंडर पास कराना रहता है, किसी को मुद्दत से अटका पेमैंट या वर्कऔर्डर पास कराना होता है. तबादले के ख्वाहिशमंद भी साहबों की दीवाली की रोशनी के लिए लक्ष्मी लिफाफों में ठूंस कर दे आते हैं. बड़े उपहारों का लेनदेन दीवाली के दस दिनों पहले से शुरू हो कर देवउठनी ग्यारस तक चलता रहता है. इन तोहफों के जरिए करोड़ों के काम हो जाते हैं जिन के बारे में कहा जा सकता है कि हलदी लगे न फिटकरी, रंग भी आए चोखा. वैसे तो शायद ही कभी रहता हो लेकिन दीवाली के उपहार लेते वक्त किसी के दिल में गिल्ट नहीं रहता क्योंकि तोहफे को तोहफा ही माना व सम?ा जाता है, घूस नहीं. बेईमानी के अपराधबोध से बचने के लिए इन से बेहतर दिनरात और क्या होंगे.

इन दिनों में देने वाला भी निडर हो कर साहब के सामने पहुंच खीसें निपोर कर कहता है- ‘दीवाली की मिठाई है, सर, स्वीकार करें.’ उधर सर की चिंता यह रहती है कि सचमुच ही डब्बे में केवल मिठाई ही न हो जो मेरे किस काम की क्योंकि डायबिटीज, ब्लडप्रैशर और पाइल्स वगैरह पहले से ही घेरे हुए हैं. यानी, डब्बे में मिठाई का होना टैंशन की वजह बन जाता है. इसलिए तजरबेकार दाता 2 तरह के डब्बे ले जाता है- एक मिठाई वाला और दूसरा नोटों वाला. ड्राई फ्रूट्स वाला डब्बा साहब रख लेता है और मिठाई वाला डब्बा माली या ड्राइवर को दीवाली के ईनाम में मिल जाता है और कैश वाला, जिस में वजन कम होता है, सर की लक्ष्मी मैडम नफासत व नजाकत से तिजोरी में डाल देती हैं.

छोटे भी कम खोटे नहीं

रिश्वतखोर देवीदेवताओं की तरह होते हैं जिन की पूजा न करो यानी दक्षिणा न दो तो काम निचले लैवल पर भी अटक जाता है. यानी, घूस केवल अधिकार संपन्न क्लास वन और टू अफसर ही नहीं खाते बल्कि दीवाली पर छोटे दर्जे के मुलाजिमों की ?ाली भी तोहफों से भरी होती है. यह और बात है कि औकात के हिसाब से तोहफे बहुत ज्यादा बड़े नहीं होते. सरकारी क्लर्क यानी बाबू से होते हुए चलें तो पुलिस कौंस्टेबल, पटवारी के अलावा खाद्य और आबकारी सहित दर्जनों विभागों के इंस्पैक्टर्स भी घूसोत्सव का सुख भोगते हैं.

इन से भी छोटे होते हैं चपरासी जिन की स्थिति या गिनती वैसी ही होती है जैसी सनातन धर्म में शूद्रों की होती है. इस वर्ण के कर्मचारियों, जिन्हें हेय नजर से देखते फोर्थ क्लास वाला कहा जाता है, को हजारपांच सौ के लिफाफे ज्यादा मिलते हैं, जिस से ये सालभर कभी दाता का साहब तक पहुंचने का रास्ता न रोकें.

संक्षिप्त में कहें तो इन की स्थिति शंकर मंदिर के बाहर विराजे नंदी जैसी होती है जिसे कुछ न भी दो तो काम में कोई विघ्न नहीं आता. लेकिन चूंकि उपहार देने वाला अंधविश्वासी और आशंकित रहता है, इसलिए इन्हें भी कुछ न कुछ देता है. इस मानसिकता के पीछे एक अनैतिक कृत्य को नैतिकता का जामा पहनाने की कोशिश भी ज्यादा रहती है कि यह बेचारा भी तो आखिर घरगृहस्थी वाला आदमी ही है, इस को भी घूस ले कर दीवाली मनाने का हक है.

कई साहब लोग तो बचाव के लिए इन छोटों को ही मोहरा बना लेते हैं, इसलिए आएदिन ऐसी खबरें दिल हिला और दुखा जाती हैं कि चपरासी के यहां से करोड़ों मिले या लगभग 5 लाख रुपए सालाना की पगार लेने वाला बाबू 50 करोड़ रुपए का आसामी निकला. दिल इसलिए नहीं दुखता कि रिश्वत लेनदेन के प्रचलित प्रकारों में से एक यह भी है, बल्कि इसलिए भी दुखता है कि हम अगर ठसक छोड़ते चपरासी या बाबू ही बन जाते तो करोड़ों में खेल रहे होते.

मुंशी प्रेमचंद ने अपनी प्रसिद्ध कहानी ‘नमक का दारोगा’ में इस मानसिकता को उठाया है. कहानी का केंद्रीय पात्र मुंशी बंसीधर नौकरी की तलाश में निकलता है तो उस का बुजुर्ग पिता उसे सलाह देता है कि नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना. यह तो पीर का मजार है, निगाह चादर और चढ़ावे पर रखनी चाहिए. पगार आदमी देता है लेकिन बरकत भगवान देता है.

पहले जांच नहीं होती थी, अब चुनिंदा मामलों में होने लगी है जिन में साहब पर आंच भी नहीं आती और सालोंसाल मुकदमा चलता रहता है जिस का कोई रंज चपरासी या बाबू को नहीं होता क्योंकि जिंदगीभर की जीहुजूरी वाली नौकरी करने के बाद भी वह उतना नहीं कमा पाता जितना कि सालछह महीने साहब की लक्ष्मी पर सांप जैसे कुंडली मार कर बैठे रहने से हिस्से में आ जाता है.

अपराध नहीं है उपहार

दीवाली लक्ष्मीपूजन का त्योहार है जिस में और लक्ष्मी आने की कामना के लिए क्याक्या किया जाता है, यह घर के आसपास नजर डालने से पता चल जाता है. लोग धन की देवी को और धन आने के लिए रिश्वत देते हैं.  फलफूल, मिठाई, नकदी और सजावट सामग्री में ही तबीयत से पैसा फूंकते हैं जिस से लक्ष्मी प्रसन्न हो और बकौल प्रेमचंद, उस का बरकत वाला रूपस्वरूप हमारे द्वार पर आए. लेकिन चंचला लक्ष्मी जाती वहीं है जहां वह पहले से इफरात से होती है. अब यह घूस की या तोहफों की शक्ल में जाती है तो यह कोई जुर्म नहीं है, बल्कि सदियों से चला आ रहा शिष्टाचार है जिसे मानव मात्र ने ईश्वर की आराधना से सीखा कि जब कुछ पैसे चढ़ाने से वह खुश हो जाता है और 11 या 21 रुपए के एवज में करोड़ों के काम करवा सकता है तो साहबों और बाबुओं सहित दूसरों की औकात क्या.

अब यह शिष्टाचार लोग जरूरत से ज्यादा निभाने लगे हैं, इसलिए इस में कुछकुछ लोगों को भ्रष्टाचार नजर आने लगा है. ये वे कुंठित लोग हैं जिन्हें दीवाली के शुभ अवसर पर लाखोंकरोड़ों के उपहार नहीं मिलते.

ये वे लोग हैं जो बेईमानी नहीं कर पाते या बेईमानी से पैसे कमाने और बनाने लायक इन्हें मौके और अधिकार ही नहीं मिले. इन की तिलमिलाहट से सिस्टम तो नहीं बदलता, हां, मौका मिले तो ये खुद बदल जाते हैं. इन की भड़ास या मांग भी मूलतया बराबरी के मौकों और अधिकारों की होती है.

दीवाली का उपहार अभी घोषित जुर्म नहीं है. इस का यह मतलब नहीं कि पहले कभी था या आगे कभी होगा. इसलिए इस में कोई पकड़ा नहीं जाता और किसी को सजा भी नही होती. इस पर लगाम कसने को इनकम टैक्स एक्ट में इतना प्रावधान भर है कि अगर आप को सालभर में 50 हजार रुपए से ज्यादा के उपहार मिलते हैं तो उस पर स्लैब के मुताबिक टैक्स लगना शुरू हो जाएगा, जिसे वैल्यू टैक्स कहा जाता है. अब इसे घूस का लाइसैंसीकरण न कहने की कोई वजह नहीं है. आप इत्मीनान से 5 करोड़ रुपए के उपहार लो और वैल्यू टैक्स अदा कर रिश्वतखोर होने के अपराध व अपराधबोध दोनों से बच जाओ. लेकिन ऐसा भी नहीं होता, इनेगिने हरिश्चंद्र ही होंगे जो उपहारों की जानकारी सरकार को देते हों.

घूसखोरी सिस्टम की तरह विकसित हो चुकी है. उसे खत्म करने की कोशिश उसे और ही बढ़ावा देने वाली साबित होगी. दीवाली पर कौन किस को क्या उपहार दे रहा है, इस के लिए अलग से कोई महकमा बना दिया जाए तो उस के मुलाजिम दीवाली के दिनों में लेने वाले के यहां कुरसी डाल कर बैठ जाएंगे. कुछ दिनों बाद देने वाले उसे भी आंखें बंद रखे रिश्वत देने लगेंगे. सो, मौजूदा सिस्टम ही ठीक है.

बात निराशाजनक न लगे, इसलिए कहा जा सकता है कि इतफाक और लोकतंत्र की किस्मत से कभी कोई दृढ़ इच्छाशक्ति वाली सरकार आई तो शायद कुछ हो. हालांकि 8 नवंबर, 2016 की नोटबंदी के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दावा किया था कि इस से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा लेकिन वह बजाय खत्म होने के और फलफूल रहा है. सुबूत सब से ऊपर दिया गया है कि उन्हीं की पार्टी के एक मुख्यमंत्री ने पत्रकारों को उपहाररूपी घूस पिछली ही दीवाली पर दी थी.

महंगाई है पर दीवाली है

वैसे तो सालभर रहती है लेकिन महंगाई की टीस दीवाली के दिनों में कुछ ज्यादा ही सालती है क्योंकि हर कोई अपना बजट बना रहा होता है. इसी वक्त एहसास होता है कि बहुत सी चीजें हाथ से फिसल रही हैं. त्योहार खासतौर से दीवाली के मजे पर महंगाई की मार कोई नई बात नहीं है लेकिन इस साल बात वाकई जुदा है क्योंकि महंगाई बेकाबू हो कर बढ़ी है.

आटादाल से ले कर सोनाचांदी, पैट्रोल-डीजल और न जाने क्याक्या महंगा हो गया है. अर्थशास्त्र की भाषा में भले ही महंगाई की अपनी न समझ आने वाली शब्दावली और परिभाषाएं हों पर सटीक यही बैठती है कि महंगाई एक ऐसा टैक्स है जो दिखता नहीं.

लेकिन आंकड़ों के आईने में बहुतकुछ दिखता है. मसलन, यही कि ज्यादा नहीं बल्कि एक साल में खाद्य पदार्थों के दाम 50 फीसदी तक बढ़े हैं. जो आटा पिछली दीवाली 25 रुपए प्रति किलो था वह अब 38-40 रुपए प्रति किलो है. 75-80 रुपए किलो मिलने वाली दाल तो 150 रुपए से भी ज्यादा कीमत की हो गई है.

खाने का तेल चाहे सरसों का हो सोयाबीन का या फिर मूंगफली का 50-60 रुपए प्रति लिटर तक बढ़ कर 150 रुपए पार कर चुका है. दूध के दाम 15 रुपए प्रति लिटर तक बढ़े हैं. मावा 200 से 300 रुपए प्रति किलो और ड्राई फ्रूट्स तिगुने दामों पर मिल रहे हैं. हाल यह है कि फल, सब्जी महंगे, सफर महंगा, पढ़ाई महंगी और इलाज भी महंगा.

दीवाली पर अब लोग भले ही रोजमर्रा के आइटमों के बढ़ते दामों पर ज्यादा चिंतित न होते हों लेकिन एक गृहिणी ही बेहतर बता सकती है कि हजार रुपए का गैस सिलैंडर रसोई में जब मुंह चिढ़ाता है तो कोफ्त क्यों होती है. महंगाई है और अनापशनाप है तो वह दीवाली पर महसूस क्यों नहीं होती? लाख टके के इस सवाल के कई जवाब हैं, जिन में से पहला यह है कि महंगाई से लड़ने की हिम्मत कोई नहीं जुटा सकता, इसलिए इस से सम?ाता कर लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं. दूसरे, त्योहारी खुशी और उत्साह कायम रखने के लिए लोग हर चीज में कटौती करने के आदी होते जा रहे हैं.

मिठाई 2 किलो की जगह आधा किलो ले लेंगे और खुद को तसल्ली यह कहते देंगे कि ज्यादा शकर नुकसान करती है और डाइबिटीज के मरीज दिनोंदिन बढ़ रहे हैं. बच्चों की अतिशबाजी से चूंकि प्रदूषण फैलता है, इसलिए हजारपांच सौ रुपए के पटाखे बहुत हैं रोशनी की रस्म अदा करने के लिए. वैसे भी, यह फुजूलखर्ची नहीं तो और क्या है जिस में आग से जलने का डर बना ही रहता है. कपड़े पहले से ही बहुत हैं, फिर भी सभी के लिए एकएक जोड़ी सर्दी के हिसाब से खरीद लेंगे.

धनतेरस पर नया कुछ खरीदने के नाम पर छोटामोटा बरतन ले लेंगे ताकि रिवाज कायम रहे. इन दिनों बाजारों में इतनी भीड़ उमड़ती है कि पांव रखने की जगह भी नहीं मिलती. दिल बहलाने के लिए ऐसे कई खयाल मौजूद हैं.

कटौती और समझोतों के आदी हो चले लोग, जिसे बेबसी कहना ज्यादा बेहतर होगा, बड़े खर्चों के भार से भी दबे हैं. इन हजारसौ रुपयों के खर्च खींचतान कर पूरे करने के बाद मकान, कार और ज्वैलरी की सोचें जिन के इश्तिहारों में ही दीवाली की रौनक बची है और इसी के दम पर कहने वाले चैलेंज सा दे रहे हैं कि कौन कहता है कि महंगाई है. यह तो सरकार को बदनाम करने की साजिश है वरना देखिए बाजारों की रौनक, चारों तरफ हर जगह लोग खरीदारी के लिए टूटे पड़ रहे हैं.

कारों के लिए महीनों वेटिंग क्लियर होने का इंतजार लोग कर रहे हैं. इस दीवाली कारों की 3 लाख यूनिट ज्यादा बिकीं. रियल एस्टेट जो पिछली दीवाली इतने लाख करोड़ का था वह बढ़ कर इतने लाख करोड़ रुपए का हो गया है. रियल एस्टेट में ऐसा बूम पहले कभी देखने में नहीं आया.

सराफा में भी आग लगी हुई है. लोग रिकौर्ड गहने खरीद रहे हैं. सोना के 60 हजार रुपए प्रति 10 ग्राम से भी ऊपर होने का भी कोई असर खरीदी और खरीदारों पर नहीं हुआ है. इलैक्ट्रौनिक्स मार्केट के तो कहने क्या, पिछले 10 वर्षों का रिकौर्ड टूट गया.

इन खबरों और दलीलों से तार्किक रूप से असहमत होने के लिए बहुत अंदर तक ?ांकने की जरूरत है कि महंगाई तो उम्मीद से ज्यादा बढ़ी है लेकिन दीवाली पर उस का असर अगर नहीं दिख रहा तो, दरअसल, लोग उसे देखने से कतरा रहे हैं. इस के लिए लोग खुद के ही बजट पर गौर नहीं कर रहे जो बहुत छोटा हो गया है. दीवाली लोग किफायत से मना रहे हैं और खर्च फूंकफूंक कर रहे हैं. इस के लिए उन्होंने अपनी खुद की कितनी जरूरतों की हत्या की है, यह वे ही जानते हैं.

हकीकत यह है

मशहूर इंटरनैश्नल डेटा एनलिस्टिक फर्म युगाव, जो बीते 3 वर्षों से भारतीयों के दीवाली खर्च के तौरतरीकों पर भी नजर रखे हुए है, की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस साल शहरी लोग गैरजरूरी खर्च को ले कर सतर्क हैं, यानी कम खर्च में दीवाली मना रहे हैं. जाहिर है ऐसा सिर्फ महंगाई के चलते हो रहा है नहीं तो दीवाली पर जरूरी और गैरजरूरी खर्च के बीच सीमारेखा खींचने की पहले कभी नौबत ही नहीं आई. युगाव के दीवाली खर्च सूचकांक में 52 फीसदी भारतीयों ने माना कि ज्यादा नहीं बल्कि पिछले 3 महीनों जुलाई से ले कर सितंबर तक महंगाई की वजह से हर महीने खर्च बढ़ा है जिसे पूरा करना ही चैलेंज हो गया है.

इस महंगाई से जीवनयापन की लागत में बढ़ोतरी हुई है. 32 फीसदी शहरियों ने बढ़े खर्चों को रोकने का फैसला लिया है या फिर उन्हें रद कर दिया है. वे खर्च में 31 फीसदी कटौती कर रहे हैं. सिर्फ 17 फीसदी लोग ही बचत के पैसों का इस्तेमाल इस दीवाली कर रहे हैं, बाकियों ने स्थिति को संभालने के लिए कर्ज या उधार लिया है.

हालांकि, रिपोर्ट यह भी कहती है कि बीते साल के मुकाबले लोगों की आमदनी और बचत में सुधार हुआ है और लोग सर्वाइव करने के खर्च से लड़ने की कोशिश कर रहे हैं. इस बात को स्पष्ट करते युगाव इंडिया की महाप्रबंधक दीपा भाटिया कहती हैं, ‘‘आंकड़े बता रहे हैं कि इस फैस्टिव सीजन में लोगों के खर्च करने के तरीके में बदलाव देखा जा सकता है.’’

जाहिर है, अधिकतर लोगों, जिन के पास बचत लायक भी आमदनी नहीं, ने महंगाई की मार का रोना रोया है और यह भी जताया है कि वे कम खर्च में दीवाली मना कर संतुष्ट या खुश हो लेंगे लेकिन कर्ज और उधारी ले कर महंगाई से जीतने का सपना देखने वालों की तादाद भी कम नहीं है.

महंगाई पर कर्ज की चादर

युगाव के अपनी रिपोर्ट पेश करने के साथ ही देश के सब से बड़े बैंक स्टेट बैंक औफ इंडिया ने अपनी एक रिसर्च में दिलचस्प लेकिन चिंतनीय आंकड़े दिए थे जो एक तरह से सिर्फ इतना बताते हैं कि महंगाई का मजार कर्ज के चादर से ढका हुआ है. इस रिसर्च का निचोड़ कम से कम शब्दों में बयां करें तो वह यह है कि लोगों की बचत का बड़ा हिस्सा महंगाई से लड़ने में खर्च हो रहा है. बढ़ती महंगाई से लोगों के पास बचत के पैसे खत्म हो रहे हैं और उन पर कर्ज का बो?ा दोगुना हो चुका है.

इस रिसर्च के मुताबिक, लोगों की बचत वित्त वर्ष 2023 में जीडीपी के 5 फीसदी के करीब रह गई है जो पहले 10 फीसदी थी. आंकड़ों में इस स्थिति को देखें तो लोगों पर पहले के मुकाबले 8.5 लाख करोड़ रुपए का कर्ज बढ़ गया है. लोगों की बचत घट कर 55 फीसदी पर आ गई है. उलट इस के, उन पर वित्त वर्ष 2021 की तुलना में कर्ज बढ़ कर 15.6 लाख करोड़ रुपए हो गया है.

कम ब्याज दरों के चलते लोग रियल एस्टेट में ज्यादा पैसा लगा रहे हैं. यानी, इस दीवाली बाजार कर्ज की लक्ष्मी से गुलजार हैं और जो पैसा रियल एस्टेट में लग रहा है वह न तो निवेश है और न ही बचत उसे कहा जा सकता. यह एक तरह का सेविंग या रिकरिंग डिपौजिट अकाउंट ही है जिस में ब्याज मिलता नहीं, बल्कि देना पड़ता है.

इसे इस उदाहरण से सम?ाना बेहतर होगा कि अगर कोई 40 लाख रुपए का मकान बैंक से कर्ज ले कर खरीदता है तो 10-12 साल में कुल 65 लाख बैंक को चुकाता है, यानी, 25 लाख रुपए के लगभग ब्याज देता है. इसे भी और आसान शब्दों में सम?ों तो निष्कर्ष यह निकलता है कि बिना बढ़ा लोन लिए आप सेविंग भी नहीं कर सकते. 40 लाख की ईएमआई 40 हजार रुपए महीना आती है जिसे 80 हजार से ऊपर की आमदनी वाला चुकाए तो उस के पास 40 हजार रुपए ही घर और दीगर खर्चों के लिए बचते हैं वह भी उस सूरत में जब उस ने कार लोन या दूसरा कोई कर्ज न ले रखा हो. ये बचे 40 हजार रुपए भी चार दिनों में ही अपने जाने का रास्ता बना चुके होते हैं. बाकी 26 दिन जैसेतैसे कट जाते हैं.

अब दीवाली पर महंगाई इसीलिए महसूस नहीं होती कि लोगों के पास त्योहार मनाने लायक पैसा बच जाता है पर वह कंगाल होने की शर्त तक जोखिमभरा है. जैसेजैसे महंगाई बढ़ती है वैसेवैसे लोगों का आर्थिक दायरा कम होता जाता है. एक काबिलेगौर बात यह भी है कि अब शहरी परिवारों में कमाने वालों की तादाद बढ़ रही है, इसलिए भी महंगाई उन पर कोई खास असर नहीं डाल पाती. गांवदेहातों में तो शुरू से ही दीवाली का मतलब मिट्टी के दीये जलाना और मिठाई खाना रहा है. हालात कुछ खास नहीं बदले हैं. गरीबी वहां ज्यों की त्यों है. कुछ ट्रैक्टर और 60 फीसदी देहातियों के हाथ में स्मार्टफोन का होना उन के अमीर होने की निशानी नहीं है बल्कि ये जरूरत की चीजें हैं.

सरकार है जिम्मेदार

तंग होते आर्थिक दायरे का बड़ा सच यह है कि प्रति व्यक्ति औसत आय के मामले में भारत दुनिया के 197 देशों में 142वें नंबर पर है. कहने को तो नरेंद्र मोदी सरकार यह दम भरती है कि उस के अब तक के कार्यकाल की एक बड़ी उपलब्धि प्रति व्यक्ति औसत आय दोगुनी हुई है और हम दुनिया की 5वीं बढ़ी अर्थव्यवस्था से और छलांग लगाते 2030 में जापान को पछाड़ कर तीसरे नंबर पर आ जाएंगे, लेकिन सरकार यह नहीं बताती कि उस की ढुलमुल और अस्पष्ट आर्थिक नीतियों के चलते यह सब्जबाग नहीं तो और क्या है.

दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में सब से कम प्रति व्यक्ति आमदनी भारतीयों की ही क्यों है, इस सवाल को आंकड़ों की बाजीगरी और लच्छेदार धार्मिक भाषणों के मकड़जाल में उलझ दिया जाता है. अमेरिका की प्रति व्यक्ति औसत आय 80,035 डौलर है जो भारतीयों से 31 गुना ज्यादा है. भारतीयों की सालाना औसत आमदनी 2,601 डौलर है. जिस जापान को पछाड़ने का दावा किया जा रहा है उस की प्रति व्यक्ति औसत आय 14 गुना ज्यादा है. इसी तरह कनाडा, फ्रांस और जरमनी के सामने भी भारत कहीं नहीं ठहरता.

ये तो बेहद मजबूत और संपन्न देश हैं. हैरानी और अफसोस तो यह जान कर होता है कि अंगोला जैसे गरीब सम?ो जाने वाले देश की प्रतिव्यक्ति आय भारत से ज्यादा 3,205 डौलर है. वनातु, आइवरी कोस्ट और साओ टोम प्रिंसिपे जैसे छोटे और गुमनाम देशों से भी हम काफी पिछड़े हुए हैं. किस दौड़ में शामिल होने, जीतने और विश्वगुरु बनने का दावा सरकार करती है, यह बात सिरे से ही सम?ा से परे है.

ऐसा नहीं है कि सरकार महंगाई को ले कर बिलकुल ही कुंभकर्णी नींद में हो बल्कि कभीकभी वह इस का जिक्र करती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लालकिले से दिए 15 अगस्त के भाषण में इसे शामिल किया था कि यह तो ग्लोबल समस्या है, हम इसे कम करने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन काबू होने के बजाय महंगाई और बेकाबू हो गई तो लगता है कि मोदी सरकार महंगाई के मोरचे पर भी विफल रही है. सफल तो वह कर्मकांडों और मंदिर बनवाने में ही रही है.

दरअसल, महंगाई हवा की तरह है जो दिखती नहीं लेकिन महसूस लगातार होती है. दीवाली की गुलाबी होती सर्दी में तो यह कांटों की तरह चुभने लगी है. लेकिन लोग बाद दीवाली इस चुभन को भूल जाएंगे, जबकि आमजनों को सरकार से सवाल करना चाहिए कि वह महंगाई की बाबत अपना रुख और नियत साफ करे क्योंकि इस के लिए जिम्मेदार तो आखिरकार वही होती है. किसानों, व्यापारियों और कर्मचारियों के सिर इस का ठीकरा नहीं फोड़ा जा सकता. हां, चंद पूंजीपतियों की मोटी होती तिजोरियों पर जरूर हसरतभरी निगाह डाली जा सकती है जिन के यहां धन की देवी बांदी सी पड़ी है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें