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पेनकिलर एडिक्शन से बचें

आज की भागतीदौड़ती जिंदगी में हमारे पास आराम करने का बिलकुल भी समय नहीं है. ऐसे में भीषण दर्द की वजह से हमें बैठना पड़े तो उस से बड़ी मुसीबत कोई नहीं लगती है. कोई भी दर्द से लड़ने के लिए न तो अपनी एनर्जी लगाना चाहता है और न ही समय. इसलिए पेनकिलर टैबलेट खाना बहुत आसान विकल्प लगता है. बाजार में हर तरह के दर्द जैसे बदनदर्द, सिरदर्द, पेटदर्द आदि के लिए कई तरह के पेनकिलर मौजूद हैं.

अलगअलग तरह के पेनकिलर शरीर के विभिन्न दर्दों के लिए काम करते हैं और वह भी इतने बेहतर ढंग से कि कुछ ही मिनटों में दर्द गायब हो जाता है और व्यक्ति फिर से काम करने को तैयार हो जाता है.

शरीर में हलका सा दर्द होते ही हम एक पेनकिलर मुंह में डाल लेते हैं. इस से होता यह है कि शरीर की दर्द से लड़ने की क्षमता घट जाती है और हम शरीर को दर्द से स्वयं लड़ने देने के बजाय उसे यह काम करने के लिए पेनकिलर्स का मुहताज बना देते हैं. काम को सरल बनाने के लिए तरीकों का इस्तेमाल करना मानव प्रवृत्ति है और ईजी पेनकिलर एडिक्शन उसी प्रवृत्ति का परिणाम है.

क्या है पेनकिलर एडिक्शन

पेनकिलर ऐसी दवाइयां हैं जिन का इस्तेमाल मैडिकल कंडीशंस जैसे माइग्रेन, आर्थ्राइटिस, पीठदर्द, कमरदर्द, कंधे में दर्द आदि से अस्थायी तौर पर छुटकारा पाने के लिए किया जाता है. पेनकिलर बनाने में मार्फिन जैसे नारकोटिक्स, नौनस्टेरौइडल एंटी इन्फ्लेमेटरी ड्रग्स और एसेटेमिनोफेन जैसे नौननारकोटिक्स कैमिकल का इस्तेमाल होता है. पेनकिलर एडिक्शन तब होता है जब जिसे ये पेनकिलर दिए गए हों और वह शारीरिकतौर पर उन का आदी हो जाए.

इस एडिक्शन के कितने बुरे प्रभाव हो सकते हैं, यह बात हमारे दिमाग में जब चाहे मुंह में पेनकिलर टैबलेट्स डालते हुए आती ही नहीं है. अन्य एडिक्शन की तरह इस के भी साइड इफैक्ट्स समान ही होते हैं. कई बार दर्द न होने पर भी इस के एडिक्ट पेनकिलर खाने लगते हैं. इन्हें खाने वालों को तो लंबे समय तक पता ही नहीं चलता है कि वे इस के शिकार हो गए हैं. उन का मनोवैज्ञानिक स्तर अस्तव्यस्त हो जाता है. इस एडिक्शन से बाहर आने के लिए उन्हें चिकित्सीय मदद लेनी पड़ती है.

साइड इफैक्ट्स

पेनकिलर्स में सेडेटिव इफैक्ट्स होते हैं जिस की वजह से हमेशा नींद आने का एहसास बना रहता है. पेनकिलर लेने वालों में कब्ज की शिकायत अकसर देखी गई है. पेट में दर्द, चक्कर आना, डायरिया और उलटी इन्हें लेने वालों में आम देखी जाती है. इस के अतिरिक्त भारीपन महसूस होने के कारण सिरदर्द और पेट में दर्द रहने लगता है. मूड स्ंिवग्स और थकावट इन में आम बात हो जाती है. साथ ही, कार्डियोवैस्कुलर और रैस्पिरेट्री गतिविधियों पर भी असर होता है, हार्टबीट व ब्लडप्रैशर में तेजी से उतारचढ़ाव तक ऐसे मरीजों में देखा गया है. पेनकिलर एडिक्शन लिवर पर भी असर डालता है और इन का अधिक मात्रा में सेवन करने से जोखिम और बढ़ जाता है.

मिचली आना, उलटी होना, नींद आना, मुंह सूखना, आंखों की पुतली का सिकुड़ जाना, रक्तचाप का अचानक कम हो जाना, कौंसटिपेशन होना दर्दनिवारक दवाइयों के सेवन से होने वाले कुछ आम साइड इफैक्ट्स हैं. इस के अलावा खुजली होना, हाइपोथर्मिया, मांसपेशियों में तनाव जैसे साइड इफैक्ट्स भी पेनकिलर के सेवन से होते हैं.

फोर्टिस अस्पताल, वसंत कुंज, नई दिल्ली के कंसल्टैंट फिजिशियन डा. विवेक नांगिया के अनुसार, ‘‘अकसर मरीज हमारे पास यह शिकायत ले कर  आते हैं कि उन की किडनी ठीक ढंग से कार्य नहीं कर रही है. जब हम विस्तृत जानकारी लेते हैं तो पता चलता है कि मरीज एनएसएआईडी नौन स्टीरौयड एंटी इंफ्लेमेटरी ड्रग्स गु्रप की दवाइयां लंबे समय से ले रहा है.

‘‘न केवल किडनी फेलियर, बल्कि मरीज अल्सर या पेट में ब्लीडिंग की शिकायत ले कर भी हमारे पास आते हैं, जो अत्यधिक मात्रा में पेनकिलर लेने की वजह से होती है. पेनकिलर लेना ऐसे में एकदम बंद कर देना चाहिए. पैरासिटामोल जैसी सुरक्षित दवाइयां बिना डाक्टर की सलाह के ली जा सकती हैं, पर बहुत कम समय के लिए.’’

अकसर महिलाएं पीरियड्स के दिनों में भी दर्द से बचने के लिए पेनकिलर लेती हैं. हालांकि इस से राहत महसूस होती है पर इस का अधिक मात्रा में सेवन करने से एसिडिटी, गैसट्राइटिस, पेट में अल्सर आदि की समस्याएं हो सकती हैं. इस के अलावा, अगर पेनकिलर खाने से दर्द से राहत मिलती है तो भी चिकित्सकों की राय लें. अगर पेनकिलर्स का उपयोग गलत ढंग से किया जाए तो उस से दर्द और बढ़ सकता है. इसलिए दर्द कम करने के लिए अगर पेनकिलर ले रहे हों तो यह भी याद रखें कि इस से दर्द बढ़ भी सकता है.

अपने पैर कुल्हाड़ी : दो सहेलियों के बीच पिघलते मनमुटाव की कहानी

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जातपात : मायके की जातपात की बेड़ियां तोड़ती दबंद लड़की की कहानी

निर्मला अपने पति राजन के साथ जिद कर के अपनी दादी के श्राद्ध में मायके आई थी. हालांकि राजन ने उसे बारबार यही कहा था कि बिन बुलाए वहां जाना ठीक नहीं है, फिर भी वह नहीं मानी और अपना हक समझते हुए वहां पहुंच ही गई. निर्मला ने सोचा था कि दुख की इस घड़ी में वहां पहुंचने पर परिवार के सभी लोग गिलेशिकवे भूल कर उसे अपना लेंगे और दादी की मौत का दुख जताएंगे. पर उस का ऐसा सोचना गलत साबित हुआ.

सभी ने निर्मला को देख कर भी नजरअंदाज कर दिया, मानो वह कोई अजनबी हो. इस के बावजूद भी निर्मला को उम्मीद थी कि परिवार वाले भले ही उसे नजरअंदाज करें, मां ऐसा नहीं कर सकतीं. तभी निर्मला ने राजन की तरफ इस तरह देखा, मानो वह मां के पास जाने की उस से इजाजत ले रही हो. फिर वह अकेली ही मां की तरफ बढ़ गई.

उस समय निर्मला की मां औरतों के हुजूम में आगे बैठी हुई थीं. जब मां ने निर्मला को अपने करीब आते देखा, तो वे उठ कर तेजी से दूसरे कमरे में चली गईं. मां के पीछेपीछे निर्मला भी वहां पहुंच गई और प्यार से बोली, ‘‘मां, यह सब कैसे हुआ? क्या दादी बहुत दिनों से बीमार थीं?’’

‘‘तुम से मतलब? आखिर तुम पूछने वाली होती कौन हो? चली जाओ यहां से. फिर कभी भूल कर भी इस घर की तरफ मत देखना, नहीं तो तुम मेरा मरा हुआ मुंह देखोगी,’’ गुस्से से चीखते हुए उस की मां बोलीं.

‘‘ऐसा न कहो, मां. नहीं तो मैं अनाथ हो जाऊंगी. आखिर तुम्हारा ही तो सहारा है मुझे. मां हो कर भी तुम मेरे मन की भावना को नहीं समझोगी, तो और कौन समझेगा?’’ रोते हुए निर्मला बोली.

‘‘नहीं समझना है मुझे. कुछ नहीं समझना,’’ चीखते हुए उस की मां ने कहा.

‘‘क्यों नहीं समझना है, मां? तुम्हें समझना ही पड़ेगा. अपनी बेटी के दुख को महसूस करना ही पड़ेगा. आखिर मेरा इतना ही कुसूर था न कि मैं ने राजन से सच्चा प्यार किया? उस से शादी की, जो हमारी बिरादरी का नहीं है?

‘‘लेकिन मां, तुम मुझे गौर से देखो कि मैं राजन के साथ कितनी खुश हूं. मुझे किसी बात का दुख नहीं है,’’ खुशी जताते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘मुझे कुछ नहीं देखना है और न ही सुनना है, बस. तुम अभी और इसी समय उस राजन को ले कर यहां से चली जाओ, ताकि तुम्हारी दादी का श्राद्ध शांति से पूरा हो सके,’’ मां बोलीं.

‘‘हम यहां से चले जाएंगे, मां, रहने के लिए नहीं आए हैं. केवल दादी के श्राद्ध में आए हैं. बस, उसे पूरा हो जाने दो. क्योंकि दादी से मेरा और मुझ से उन का कितना गहरा लगाव था, यह तुम अच्छी तरह से जानती हो. मेरे बिना तो वे कुछ भी नहीं खातीपीती थीं,’’ सुबकते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘इसीलिए तो तुम उस कलमुंहे राजन के साथ भाग गई और कोर्ट में जा कर शादी कर ली. तब तुम्हें दादी का इतना खयाल नहीं था, जबकि उन्होंने तुम्हारी याद में अपनी जान दे दी?’’

‘‘मुझे दादी का बहुत खयाल था, मां. परंतु मैं क्या करती, आप सभी तो मुझ से खफा थे. डर के चलते मैं नहीं आ सकी,’’ रोते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘बड़ी आई डर वाली. जब इतना ही डर था, तो घर से कदम बाहर निकालते समय हजार बार सोचती? फिर भी कुछ नहीं सोचा.

‘‘अरे, क्या अपनी बिरादरी में लड़कों की कमी हो गई थी, जो उस नाशपीटे राजन के साथ भाग गई?’’ तीखी आवाज में उस की मां ने कहा.

मां के सवालों का जवाब देने के बजाय निर्मला ने कहा, ‘‘मां, मुझे जी भर कर कोस लो, लेकिन उन्हें कुछ न कहो, क्योंकि अब वे मेरे पति हैं.’’

‘‘तुम तो ऐसे कह रही हो, जैसे दुनिया में केवल एक तुम ही पति वाली हो, बाकी सब दिखावे वाली हैं,’’ खिल्ली उड़ाते हुए उस की मां बोलीं.

‘‘मां, मेरी अच्छी मां, तुम तो मुझे ऐसा न कहो. हर मांबाप का सपना होता है कि मेरी बेटी अच्छे घर में ब्याहे, सुखशांति से रहे. उन्हीं में से मैं एक हूं.

‘‘तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि मैं ने अपने जीवनसाथी का खुद ही चुनाव कर तुम लोगों की परेशानी को दूर किया है. इस के बावजूद भी सभी की तरह तुम भी मुझे नजरअंदाज कर रही हो?’’ दुखी हो कर निर्मला ने कहा.

‘‘हां, तुम इसी काबिल हो, इसीलिए नहीं मिलेगा अब तुम्हें वह लाड़प्यार और अपनापन, जो कभी यहां मिला करता था…’’

निर्मला की मां की बातें अभी पूरी भी नहीं हो पाई थीं कि पिता, भाई, बहन व भाभी सभी वहां आ गए और गुस्से से निर्मला को घूरने लगे.

तभी उस के पिता दयाशंकर ने गुस्से में कहा, ‘‘कलंकिनी, मुझे तो तेरा नाम लेते हुए भी नफरत हो रही है. आखिर तुम ने मेरे घर में कदम रखने की हिम्मत कैसे की?’’

‘‘ऐसा न कहिए, पापा. आखिर इस घर से मेरा भी तो कोई रिश्ता है? उसी रिश्ते के वास्ते तो मैं यहां आई हूं. मुझे और मेरे पति को अपना लीजिए, पापा,’’ रोतेगिड़गिड़ाते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘खबरदार, जो मुझे पापा कहा. तेरा पापा तो उसी दिन मर गया था, जिस दिन तू इस घर को छोड़ कर गई थी. रहा सवाल अपनाने का, तो यह हक अब तुम खो चुकी हो.’’

‘‘नहीं, पापा नहीं. ऐसा न कहो और ठंडे दिमाग से सोचो कि प्यार करना क्या कोई जुर्म है?

‘‘आखिर मैं भी तो बालिग हूं. जब मैं अपना भलाबुरा सोचसमझ सकती हूं, तो फिर मुझे फैसला लेने का हक क्यों नहीं है? और फिर चाहे बातें भविष्य की हों या जीवनसाथी चुनने की, लड़कियों को यह हक जरूर मिलना चाहिए,’’ थोड़ा खुश हो कर निर्मला ने कहा.

‘‘तू मुझे हक के बारे में समझा रही है? अगर तू इतनी ही समझदार होती, तो अपनी ही जाति के लड़के से शादी करती, न कि किसी दूसरी जाति के लड़के से,’’ निर्मला के पिता ने कहा.

‘‘दूसरी जाति के लड़के क्या इनसान नहीं होते? क्या उन में समझदारी नहीं होती? इस की मिसाल तो राजन ही हैं, जिन्होंने मुझे जिंदगी की सारी खुशियां दे रखी हैं, कोई कमी महसूस नहीं होने दी है उन्होंने. मैं इस तरह के जातपांत के भेदभाव को नहीं मानती, जो एक इनसान को दूसरे इनसान से अलग करता हो, आपस में दूरियां बढ़ाता हो…

‘‘मैं केवल इनसानियत की जात को जानती व मानती हूं,’’ निर्मला बोलती चली गई.

‘‘बस करो अपनी यह बकवास और उस राजन के साथ यहां से चलती बनो,’’ इस बार चीखते हुए निर्मला का भाई विशाल बोला.

‘‘भैया, मुझे जो चाहो कह लो, मैं सब बरदाश्त कर लूंगी. लेकिन उन के बारे में कुछ भी नहीं सुन सकती. क्योंकि एक पत्नी अपने सामने पति की बेइज्जती कभी बरदाश्त नहीं कर सकती.’’

‘‘अच्छा, तब तो मुझे तुम्हारे पति की बेइज्जती करनी ही होगी, वह भी तुम्हारे सामने,’’ नजरें तिरछी करते हुए विशाल बोला.

‘‘क्या…? यह तुम कह रहे हो? जबकि तुम भी किसी के पति हो और तुम्हारी पत्नी तुम्हारे सामने खड़ी है. महाभारत मचा दूंगी मैं यहां. तुम क्या समझते हो अपनेआप को कि वे तुम से कमजोर हैं?

‘‘वे जूडोकराटे में ब्लैकबैल्ट हैं और साथ ही पुलिस में भी हैं. उन से टकराना तुम्हें महंगा पड़ेगा, भैया.

‘‘हां, मैं यदि चाहूं, तो तुम्हारी पत्नी के सामने तुम्हारी बेइज्जती जरूर करवा सकती हूं, ताकि तुम बेइज्जती के दर्द को महसूस कर सको.

‘‘लेकिन, मैं इतनी बेवकूफ भी नहीं हूं कि तुम्हारी तरह कुछ करने से पहले कुछ सोचसमझ न सकूं. औरत हूं, इसलिए औरत का दर्द समझती हूं. लिहाजा, ऐसा कुछ नहीं करना चाहूंगी, जिस से कि भाभी के मन में दुख हो.’’

निर्मला की बातें सुन कर उस की भाभी सुबक पड़ी और उस ने आगे बढ़ कर निर्मला को गले लगा लिया.

‘‘माधुरी, यह तुम क्या कर रही हो? दूर हटो उस से. इस से हमारा कोई रिश्ता नहीं है,’’ चीखते हुए विशाल बोला.

‘‘रिश्ता है क्यों नहीं? खून का रिश्ता है हमारा, इसलिए अपनी बहन को अपना लीजिए. इस ने ठीक ही कहा है कि जातपांत कुछ नहीं होता. होती है तो केवल इनसानियत, और इनसानियत का रिश्ता,’’ निर्मला की तरफदारी लेते हुए उस की भाभी माधुरी ने कहा, मानो वह भी इनसानियत के रिश्ते को ही अहमियत दे रही हो.

लेकिन माधुरी की बातें सुन कर विशाल बौखला गया. वह गुस्से से बोला, ‘‘माधुरी, लगता है इस के साथसाथ तुम्हारा भी दिमाग खराब हो गया है, कहीं…’’

अभी विशाल अपनी बातें पूरी भी नहीं कर पाया था कि तभी वहां राजन आ गया और सूझबूझ का परिचय देते हुए गंभीरता से बोला, ‘‘निर्मला, अब चलो यहां से. बहुत हो चुकी तुम्हारी बेइज्जती. मैं अब और सहन नहीं कर सकता.

‘‘मैं ने सबकुछ सुन लिया है और जान लिया है कि ये लोग ऐसे पत्थरदिल इनसान हैं, जो जातपांत का ढोंग रच कर समाज को गंदा करते हैं.’’

‘‘आप बिलकुल ठीक कहते हैं. अब मुझे समझ में आया कि मैं ने यहां आ कर कितनी बड़ी भूल की है?

‘‘ले चलिए मुझे. अब एक पल भी मैं यहां रुकना नहीं चाहूंगी,’’ उठते हुए निर्मला बोली और अपने पति राजन का हाथ थाम कर घर से बाहर जाने लगी.

उस की छोटी बहन उर्मिला ने दौड़ कर निर्मला का हाथ थाम लिया और सिसकते हुए बोली, ‘‘दीदी, मत जाओ. मुझे छोड़ कर मत जाओ.’’

‘‘पगली, मैं कहां तुम्हें छोड़ कर जा रही हूं? हां, जातपांत और उन बुरे रिवाजों को छोड़ कर जा रही हूं, जिसे मां, पापा व भैया ने अपनी मुट्ठियों में जकड़ रखा है.

‘‘मैं यहां नहीं आऊंगी तो क्या हुआ, तुम तो अपनी दीदी के घर आ सकती हो?’’ निर्मला बोली.

‘‘जरूर आऊंगी दीदी,’’ उर्मिला ने खुश हो कर कहा.

‘‘मैं इंतजार करूंगी,’’?प्यार से उस के सिर पर अपना हाथ फेरते हुए निर्मला ने कहा और अपने पति राजन के साथ घर से बाहर निकल गई.

गुड गवर्नेंस या बैड गवर्नेंस

आधार कार्ड को आज सरकार ने सिर्फ पहचानपत्र नहीं रहने दिया बल्कि उस के सहारे हर नागरिक को अपना गुलाम बना डाला है ताकि देशवासियों पर चौबीसों घंटे निगरानी रखी जा सके कि वह क्या कर रहा है, कैसे कर रहा है, क्यों कर रहा है. टैक्नोलौजी के सहारे पूरे देश को एक बड़ी खुली जेल में बदल डाला गया है जहां जेब में बिना आधार कार्ड रखे कोई चल नहीं सकता.

मजेदार बात यह है कि आधार बनाया ही ऐसे गया है कि जिस से इस की जानकारी सिर्फ सरकार के पास रहे और वह जब चाहे इसे बदल दे. हर औनलाइन ट्रांजैक्शन पर आधार नंबर कहीं न कहीं आ जाता है. जो लोग डैबिट या क्रैडिट कार्ड का इस्तेमाल करते हैं उन्हें आधार कार्ड का नंबर एक स्टेज पर देना पड़ता है जिस के जरिए उन की हर गतिविधि पर सरकार की नजर रहती है. रेल, बस, मैट्रो पर चढऩे पर आप को पहचान बताने के लिए आधार दिखाना होता है.

सरकार मनमानी पर उतारू है, वह अपने फायदे के लिए कोई भी बहाना बना कर जब चाहे आधार कार्ड के नियम बदल सकती है. गुड गवर्नेंस रूल्स 2020 के नाम पर सरकार का शिकंजा अकसर कसा जाता है जबकि सब को यह मालूम नहीं हो पाता. सरकार ने गुड गवर्नेंस और प्राइवेसी की भाषा ऐसी तैयार कर रखी है मानो वह कह रही हो कि किसी को जेल में तो उस की सुरक्षा के लिए डाला जाता है ताकि कोई उसे लूट न सके. आधार नंबर का इस्तेमाल गैरसरकारी संस्थाएं भी कर सकें, इस के लिए बड़ी लच्छेदार भाषा में पिरो कर रूल्स में एक संशोधन कर दिया गया, कि आधार नंबर का इस्तेमाल गैर केंद्र सरकारी संस्थाएं भी कर सकती हैं. लंबेचौड़े, उलझी भाषा वाले नियमों पर जनता से राय भी मांगी गई पर उन्हें केवल वे जानते हैं जिन्हें सरकारी वैबसाइटें खंगालने का मर्ज है.

अखबारों में कोई विज्ञापन नहीं, कोई टीवी पर सूचना नहीं, कोई एक्स (x) या ब्रैंड्स पर सूचना नहीं. 20 अप्रैल से 20 मई तक का समय देश की 140 करोड़ जनता को दिया गया कि देख लो, तुम्हारी नई जंजीर ठीक है न. तुम्हारे पैर की छोटी उंगली बांधी जा रही है ताकि वह किसी मेज से न टकरा जाए. चिंता न करो, हम हैं न, तुम्हारी चुनी सरकार. तुम्हारा भला करेंगे. जंजीरों का यह जाल जिस में तुम बंधे हो, यह जनता की मरजी के हिसाब से है. अरे, 30 दिन कमैंट करने के लिए काफी नहीं हैं, तो हम 15 दिन और दिए देते हैं. अब न कहना कि हम तानाशाह हैं.

इस तरह की लफ्फाजी से घिरे शब्दों की इतनी भरमार है कि जनप्रतिनिधि, पत्रकार, कानून कुछ नहीं जान पाते कि क्या हो रहा है और आपहम सब एक और बंधन में बंध जाते हैं गुड गवर्नेंस के नाम पर.

तरहतरह की सरकारी वसूली

सरकार किस तरह जनता को टैक्सों से चूस रही है, इस का एक उदाहरण जीएसटी में बढ़ती बढ़ोतरी है. सरकार ने अपनी पीठ थपथपाते हुए कहा है कि अक्तूबर 2023 में जीएसटी का कलैक्शन पिछले माह से 9 लाख करोड़ रुपए बढ़ गया है और अब वह 1.72 लाख करोड़ रुपए पहुंच गया है. सितंबर में 1.63 लाख करोड़ रुपए था. पिछले साल इसी माह सरकार ने 1.52 लाख करोड़ रुपए जुटाए थे.

सरकार की आमदनी सिर्फ जीएसटी, सेल्स टैक्स या नमक कानून से ही नहीं होती है जिस का विरोध करने के लिए महात्मा गांधी ने वर्ष 1930 में डांडी यात्रा की थी, बल्कि आयात करों, पैट्रोल पर कर, ठेकों पर सरकारी जमीनें देने, सरकारी जमीनें, खानें. बंदरगाहों, एयरपोर्टों, रेल आदि सैकड़ों दूसरे तरीकों से होती है. और तभी तो भारीभरकम सरकारी मशीनरी चलती है. सरकार का मोटा पैसा जनसेवा में भी खर्च होता है. वहीं, सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी की इच्छापूर्ति के लिए आठआठ हजार रुपए के 2 वीआईपी विमानों में सरकारी धन का  दुरुपयोग होता है.

अगर एक माह में 9 लाख करोड़ रुपए और एक साल में 20 लाख करोड़ रुपए का कर बढ़ गया है तो क्या कहीं से यह दिखता है कि आम आदमी की आय इसी रफ्तार से बढ़ी है. आम आदमी की आय का कोई पैमाना नहीं बताता कि वह पिछले साल से ज्यादा खुशहाल है. यह अतिरिक्त कर असल में जनता को बिना बंदूक से लूटने जैसा है. आज करों का ढांचा ऐसा बनाया गया है कि सरकार जमींदारों की तरह बिना पुलिस कार्रवाई के गरीबों से पैसा लूट सकती है.

इस के 2 बड़े तरीके हैं. एक तरीका यह है कि जो आधुनिक चीजें बन रही हैं वे केवल बड़ी फैक्ट्रियों मं बनें ताकि वहां से टैक्स वसूलना आसान रहे. इस के लिए सरकार ने ऐसा ढांचा बना दिया है कि अब कोई छोटा कारोबारी उद्योगपति बन ही नहीं सके. टैक्नोलौजी पर दुनियाभर में कुछ अमीरों का कब्जा है और उन्होंने यह उपहार सरकार को दिया है कि वह हर काम टैक्नोलौजी से जोड़ दे ताकि टैक्स के फंदे से कोई बच न सके.

पहले जो छोटे उद्योगपति रहते थे, उन को सरकार ने तरहतरह फंदों में फांस दिया है. आज छोटे उद्योग केवल बड़े उद्योगों के लिए या बड़े ब्रैंड्स के लिए काम कर रहे हैं. रिटेलिंग भी अब औनलाइन हो गई है, जिस से टैक्स वसूलना बहुत आसान हो गया है. यहां तक कि अब टैक्सी, थ्रीव्हीलर और टूव्हीलर भी किराए पर लेना हो तो इसे भी टैक्नोलौजी से जोड़ दिया गया है, ताकि हर उत्पादन, हर सेवा पर कर वसूला जा सके.

दूसरा बड़ा तरीका यह है कि हर दुकान, व्यापारी, कर्मचारी, पैसा पाने वाले आदि से पहले ही टैक्स वसूल लिया जाए. आयकर में टीडीएस जैसे तरीके निकाल लिए गए हैं जिन में भुगतान के समय पैसे देने वाले को कर कटवाना पड़ता है. हर जगह कर लगाना असल में पुरानी कहानी की लहरें गिनने जैसा है ताकि हर लहर पर कर वसूला जा सके.

टैक्स विशेषज्ञ तो इस बारे में और साफसफाई से बच सकते है. पर आमतौर पर सभी यह समझ लें कि जब हर कदम पर टैक्स देना पड़ रहा हो तो यह सरकार का जनता को निचोडऩे का एक हथकंडा है. लोकतंत्र के दौर में मौजूदा सरकार तो आज पुराने राजाओं, रजवाड़ों, जमींदारों से भी बढ़ कर वसूली कर रही है और इस के लिए उस ने अपने पास कुख्यात ठग व डकैत भी पाल रखे हैं जो टैक्स कलैक्शन में उसे मदद करते हैं. औनलाइन टैक्स भरने वालों की फौज, पैन कार्ड बनवाने वालों की फौज, संपत्ति रजिस्ट्रेशन में सुविधा दिलाने वालों की फौज आदि एक तरह से सरकारी एजेंट हैं जो सरकार के टैक्स लूट कृत्य में उस के लिए काम करते हैं.

सरकार के टैक्स कलैक्शन में वृद्धि पर हर नागरिक को डर लगना चाहिए कि वह और ज्यादा गरीब हो गया है. हर नया टैक्स सुधार असल में टैक्स बढ़ाता है. ‘हफ्तावसूली’ का सरकार का यह नया तरीका होता है जिस पर अब संसद व विधानसभाएं चुप रहती हैं क्योंकि पार्टी चाहे कोई हो, उसे पैसे आते दिखते हैं तो चुप रहती है. हम जिन्हें चुन कर भेजते हैं वे असल में हमारे टैक्स वसूली एजेंट व उन के सहायक होते हैं, हमारे बचाव की ढाल नहीं.

दीवाली उत्साह का उज्ज्वल उत्सव

दीपावली, दीवाली, दीप पर्व या दीपोत्सव कुछ भी कह लीजिए, यह दीयों और रोशनी का त्योहार है. दीप वह जो अज्ञान और मन के अंधेरों को दूर करता है. सच तो यह है कि दीप हम स्वयं ही हैं ओर ज्योति हमारे अंदर ही प्रदीप्त होनी है. यही दीवाली का असली मर्म है.

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रकाश यानी रोशनी ऊर्जा का एक रूप है. पौधों से ले कर जीवजंतु तक के भोजन और जीवन के लिए प्रकाश की आवश्यकता होती है. बिना इस के पेड़पौधे अपना भोजन बना ही नहीं सकते क्योंकि प्रकाश संश्लेषण (फोटोसिंथेसिस) का अर्थ ही है फोटो, प्रकाश या ज्योति जिस से निर्माण कार्य संपन्न होता है. प्रकाश के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती. अमावस्या की अंधेरी रात में दीये जला कर हम यही रोशनी यानी प्रकाश को प्रतीकात्मक रूप से अपने जीवन में लाते हैं.

बहुत से लोगों को लगता है कि दीवाली एक धार्मिक त्योहार है यानी इस का धर्म से गहरा जुड़ाव है. पूजापाठ, लक्ष्मीपूजन, विधिविधान ज्यादा अहम हैं पर इस में पूरा दिन लगा देना अनुचित है. दीवाली तो हंसीखुशी और रोशनी का त्योहार है. यह दिन हमें एक पारंपरिक प्रथा के रूप में मिला है जिस में हम अपनी सालभर की जिंदगी की बोरियत दूर करते हैं, दिल और दिमाग में रोशनी भरते हैं और अपनों से मिलतेजुलते हैं, परिवार, रिश्तेदारों, पड़ोसियों और दोस्तों के साथ समय बिताते हैं. उन के सान्निध्य का खूबसूरत एहसास महसूस कर पाते हैं. इस तरह हमारी जिंदगी में एक ऊर्जा और रोशनी का संचार होता है. हम एक नया उत्साह महसूस करते हैं. यही असली दीवाली है.

दीवाली को सिर्फ हिंदुओं का त्योहार न मानें. इस तरह के त्योहार तो एक पूरे समूह द्वारा मनाए जाते हैं, जैसे क्रिसमस और न्यू ईयर. अगर आप के पड़ोस में किसी और धर्म के लोग हैं तो आप उन के साथ भी दीवाली मनाएं. उन्हें दीवाली की मिठाई दीजिए. जरूरतमंदों में गिफ्ट बांटिए और अपने घर को रोशन कीजिए. मिठाइयां खाना, मिलनामिलाना, हंसीमजाक करना, प्यार बांटना यही तो दीवाली है. इस से एकदूसरे के बीच प्यार और जुड़ाव बढ़ता है. दीवाली का पहला मकसद भी यही है.

अगर आप अपने रिश्तेदारों, अपने घर से दूर हैं, किसी और शहर, किसी और देश में हैं तो भी दीवाली मनाएं, बिना किसी के साथ मनाएं. किसी भी नागरिकता वालों के साथ मनाएं. फिर आप औनलाइन अपनों के टच में आ सकते हैं. इस दौरान आप अपने आसपास के सभी लोगों के साथ अपनी खुशियां बांट सकते हैं. सब को गिफ्ट दे सकते हैं. सब को कुछ मीठा दे सकते हैं. दीवाली का मकसद आप की जिंदगी में खुशी, रौनक और उत्साह लाना है.

दीवाली पर रंज न करें, झगड़ा न करें, दीवाली पर पटाखे इस तरह न चलाएं कि आसपास के लोगों को आपत्ति हो. यह समूह का त्योहार है. चीनी न्यू ईयर सा है जब पूरे बाजार सजते हैं. महीनों से लोग दीवाली पर विशेष खरीद की तैयारी करते हैं, पैसा जमा करते हैं. दीवाली पर खरीदी गई चीज हरदम दोगुना मजा देती है.

दीवाली पर खरीदे कपड़े, खिलौने, घरेलू सामान को त्योहार से जोड़ना विरासत में मिला है, यह सब आज आनंद देता है.

दीवाली पर हरेक से मिलें. जिन्हें भूल चुके हैं उन से भी संपर्क करने की कोशिश करें. एक कार्ड बहुत समय तक याद रहता है. व्हाट्सऐप के युग में एक छोटा कार्ड, पत्र, उपहार को ज्यादा वरीयता दें. डिजिटल मैसेज तो आज आए, घंटेभर बाद गायब.

दीवाली पर घरपरिवार का ध्यान ज्यादा रखें. हरेक को लगे कि यह त्योहार खास है.

सब से बड़ी बात है कि दीवाली प्रकाश और रोशनी देने वाले दीयों का त्योहार है. इसे किसी भी हाल में दीवालिएपन का त्योहार न बनाएं. आप सोचेंगे दीवाली से दीवालिएपन का क्या संबंध? दरअसल, संबंध बहुत गहरा और पुराना है. उतना ही पुराना जितना दीवाली और जुए खेलने का रिश्ता है. जैसे शराब का नशा कर के घरवालों से मारपीट करना या बाहर लड़ाई?ागड़ा करना इंसान के जीवन की सारी खुशियां समेट कर उसे अंधेरों में धकेल सकता है उसी तरह जुआ उस के जीवन की हर खुशी छीन कर उसे सड़कों पर ला सकता है. कहने को यह लक्ष्मी पाने को किया जाता है पर आखिरकार यह लक्ष्मी गंवाने का माध्यम बन सकता है.

संस्कारों और संस्कृति की अंधकारमय कथा

हमारी संस्कृति का सदियों से दीवाली और जुए का घनिष्ठ संबंध रहा है. महाभारत जैसा युद्ध अक्षक्रीड़ा (जुए) के कारण ही हुआ था. पाणिनि की अष्टाध्यायी तथा काशिका के अनुशीलन से अक्षक्रीड़ा के स्वरूप का पूरा परिचय मिलता है. पतंजलि ने सिद्धहस्त द्यूतकर के लिए अक्षकितव या अक्षधूर्त शब्दों का प्रयोग किया है.

इस के अलावा प्राचीन ग्रंथों में जुए का वर्णन है. मनु, याज्ञवल्क्य आदि ने राजाओं के लिए दिशानिर्देश लिखे हैं. उन के मुताबिक, जुआ उस समय खेला जाता था. ऋग्वेद में एक जुआरी के रुदन का उल्लेख है. अथर्ववेद में भी इस खेल के प्रकार, दांव लगाने और पासों का उल्लेख है.

दीवाली के साथ जुए का उल्लेख महज परंपरा या रस्मोरिवाज नहीं है बल्कि ये दोनों बहनभाई जैसे रिश्तेदार हो गए हैं. हर घर में दीयों के साथसाथ ताश खेलने की मेजें भी लग जाती हैं.

जुआ चाहे दीवाली पर रस्म के नाम पर खेला जाए या वैसे किसी और दिन, यह भी विरासत का हिस्सा है. महाभारत काल में युधिष्ठिर ने जुए की वजह से अपना सबकुछ गंवा दिया. वह अपनी अकूत धनसंपत्ति के साथ अपने भाई और अपनी पत्नी को भी हार गया. पत्नी का भरे सभागार में अपमान हुआ और वह आंखें नीची किए बैठा रहा. जुए की वजह से 5 पांडव भी अपनी पत्नी के अपमान को रोक नहीं सके.

महाभारत के उद्योग पर्व में यह कहा गया है कि-

‘अक्षद्यूतं महाप्राज्ञ सतां मति विनाशम् . असतां तत्र जायन्ते भेदाश्च व्यसनानि च’.

अर्थात द्यूत समान पाप कोई नहीं, यह समझदार की बुद्धि फेर सकता है. अच्छा व्यक्ति बुरा बन सकता है पर इसे ये ग्रंथ रोक नहीं पाए.

पर महान संस्कृति के पैरोकार मिल जाते हैं कि दीवाली पर भी संस्कृति के नाम पर जुआ खेल लिया जाता है. महाभारत के अष्टषष्टितमोऽध्याय: में राजाओं के चार कर्मों की आलोचना है- शिकार, मदिरापान, जुआ तथा विषयभोग में अत्यंत आसक्ति. यानी, उस युग में भी यह सब चलता था जो आज तक जिंदा है. हम उस युग को याद कर के दीवाली मनाएं तो गलत होगा.

चत्वार्याहुर्नरश्रेष्ठा व्यसनानि महीक्षिताम्,

मृगयां पानमक्षांश्च ग्राम्ये चैवातिरक्तताम्॥

महाभारत के रचयिता को मालूम था कि यह गलत काम है. लिखा है, ‘इन दुर्व्यसनों में आसक्त मनुष्य धर्म की अवहेलना कर के मनमाना बरताव करने लगता है. इस प्रकार व्यसनासक्त पुरुष द्वारा किए हुए किसी भी कार्य को लोग सम्मान नहीं देते हैं.

एतेषु हि नर: सक्तो धर्ममुत्सृज्य वर्तते,

यथायुक्तेन च कृतां क्त्रियां लोको न मन्यते.

दुर्योधन का सलाहकार शकुनि जानता था कि वह युधिष्ठिर को जुए के लिए आमंत्रित कर उस का सबकुछ छीन सकता है. इसलिए योजना बनाते हुए उस ने दुर्योधन से कहा था- ‘विजयी वीरों में श्रेष्ठ दुर्योधन. तुम पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर की जिस लक्ष्मी को देख कर संतप्त हो रहे हो, उस का मैं जुए द्वारा अपहरण कर लूंगा.

यां त्वमेतां श्रियं दृष्ट्वा पाण्डुपुत्रे युधिष्ठिरे,

तप्यसे तां हरिष्यामि द्यूतेन जयतां वर.

शकुनि के शब्दों में, ‘मैं किसी संशय में पड़े बिना, सेना के सामने युद्ध किए बिना, केवल पासे फेंक कर स्वयं किसी प्रकार की क्षति उठाए बिना ही पांडवों को जीत लूंगा क्योंकि मैं द्यूतविद्या का ज्ञाता हूं और पांडव इस कला से अनभिज्ञ हैं. भरत, दावों को मेरा धनुष सम?ा और पासों को मेरे बाण.’

इतने स्पष्ट शब्दों में महाभारत में जुए की बुराई की गई है पर जिस पक्ष की ओर कृष्ण थे उसी ने इस चैलेंज को स्वीकार कर लिया. इस पर विदुर ने युधिष्ठिर को चेताते हुए कहा भी था, ‘राजकुमार, तुम द्यूतरूपी अनर्थ को ही अर्थ मान रहे हो. यह जुआ कलह को ही गूंथने वाला व अत्यंत भयंकर है. यदि किसी प्रकार यह शुरू हो गया तो तीखी तलवारों और बाणों की भी सृष्टि कर देगा.

अनर्थमर्थं मन्यसे राजपुत्र,

संग्रन्थनं कलहस्याति घोरम् .

तद् वै प्रवृत्तं तु यथाकथंचित्,

सृजेदसीन् निशितान् सायकांश्च.

विदुर ने युधिष्ठिर को समझाया, कहते हैं, ‘जुआ खेलना ?ागड़े की जड़ है. इस से आपस में फूट पैदा होती है, जो बड़े  भयंकर संकट की सृष्टि करती है. यह धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन उसी का आश्रय ले कर इस समय भयानक वैर की सृष्टि कर रहा है.’

द्यूतं मूलं कलहस्याभ्युपैति,

मिथो भेदं महते दारुणाय.

यदास्थितोऽयं धृतराष्ट्रस्य पुत्रो,

दुर्योधन: सृजते वैरमुग्रम्.

फिर भी न युधिष्ठिर माने, न आज के युवा प्रौढ़ मानते हैं और दीवाली के खुशी के त्योहार पर काला धब्बा लगा देते हैं.

वैसे तो युधिष्ठिर ने क्षत्रिय व्रत को ध्यान में रख कर दूसरों की इच्छा से जुआ खेला पर अंत में अपना सबकुछ हार गए या फिर यह कहिए कि युधिष्ठिर द्यूतरूपी दुर्व्यसन में अत्यंत आसक्त हो कर और दुश्मन पक्ष के धूर्त जुआरियों के बहकावे में आ कर अपनी प्रिय पत्नी द्रौपदी को भी दांव पर लगा बैठे और उसे भी हार गए. यह संस्कृति की डोर आज भी हमारे हाथ में है. एक तरफ लक्ष्मी पूजने को कहा जाता है, वहीं दूसरी तरफ उस महाभारत और उस के नायक कृष्ण का गुणगान है जिस ने धनलक्ष्मी और गृहलक्ष्मी दोनों का अपमान करना सिखाया है.

युधिष्ठिर के अंजाम से क्रोधित भीम ने अर्जुन से अपने अंदर का विद्रोह घर की लक्ष्मी द्रौपदी के बारे में इन शब्दों में प्रकट किया था-

‘‘यह भोलीभाली, अबला पांडवों को प्रतिरूप में पा कर इस प्रकार अपमानित होने के योग्य नहीं थी परंतु आप के कारण ये नीच, नृशंस और अजितेदिं्रय कौरव इसे नाना प्रकार के कष्ट दे रहे हैं.’’

एषा ह्यनर्हती बाला पाण्डवान् प्राप्य कौरवै:

त्वत्कृते क्लिश्यते क्षुद्रैर्नृशंसैरकृतात्मभि:.

वे क्रोध में कह बैठते हैं, ‘अर्जुन, यदि मैं इस विषय में यह न जानता कि इन का यह कार्य क्षत्रिय धर्म के अनुकूल ही है तो बलपूर्वक प्रज्ज्वलित अग्नि में इन की (युधिष्ठिर की) दोनों बांहों को एकसाथ जला कर राख कर डालता.’

एवमस्मिन् कृतं विद्यां यदि नाहं धनंजय दीप्तेऽग्नौ सहितौ बाहू निर्दहेयं बलादिव.

लक्ष्मीपूजन के दिन घरों में जुआ खेल कर उन का क्या होता है, यह उस युग में भी मालूम था और अफसोस कि आज भी यह चालू है. ‘जुआरियों के घर में अकसर कुलटा स्त्रियां रहती हैं, किंतु वे भी उन्हें पाकदांव पर लगा कर जुआ नहीं खेलते. उन कुलटाओं के  प्रति भी उन के हृदय में दया रहती है.’

भारत में जुआ को नियंत्रित करने वाले कानून सार्वजनिक जुआ अधिनियम 1867, जिसे जुआ अधिनियम के रूप में भी पहचाना जाता है, भारत में जुआ को नियंत्रित करने वाला सामान्य कानून है. औनलाइन जुआ पर कोई कानून नहीं बना हुआ है, इसलिए लोग बिना डर के इसे खेल रहे हैं.

जुए के आधुनिक रूप भी अब प्रचलित हैं-

घुड़दौड़ : यह जुए के अति प्राचीन प्रकारों में से एक है. इस का अस्तित्व करीब 2 हजार सालों से है. घोड़ों को एक तयशुदा मार्ग पर दौड़ाने व उन के प्रदर्शन के आधार पर बोली लगाने की परंपरा दुनियाभर में मशहूर है और इस में अरबों रुपयों का धंधा होता है. इस के अलावा बैलों की लड़ाई, मुरगों की लड़ाई और बुलफाइटिंग जैसे खेल भी जुए की श्रेणी में ही आते हैं.

लौटरी : लौटरी भी राजस्व की कमाई का बड़ा जरिया रही है. दोनों में फर्क सिर्फ इतना है कि ज्यादातर लोकप्रिय सरकारें लाइसैंस के जरिए यह कारोबार निजी क्षेत्र को सौंप देती हैं और फिर टैक्स के जरिए कमाई करती हैं. भारत में भी कई राज्य सरकारें लौटरी चलाती रही हैं. रातोंरात लखपति बनने की चाह में लाखों लोग इस के पीछे पागल हो गए. हजारों घर बरबाद हो गए. लौटरी के चक्कर में फंस कर खुदकुशी करने वालों की तादाद भी हजारों में होगी. इसी कारण भारत में लौटरी बैन कर दी गई है.

औनलाइन गेमिंग : बीते कुछ सालों में जुए के इस प्रकार ने बहुत जोर पकड़ा है. औनलाइन खेल के लोकप्रिय होने का प्रमुख कारण है उस का गोपनीय रहना. जुए से सामाजिक प्रतिष्ठा के प्रभावित होने का खतरा बना रहता है क्योंकि शौकीन व्यक्ति को सार्वजनिक तौर पर ऐसा करते देखे जाने का खतरा बना रहता है, मगर औनलाइन गेमिंग में ऐसा नहीं है.

कैसीनो में जुआ : केवल 2 राज्यों  गोवा और सिक्किम ने कैसीनो जुआ को एक सीमित सीमा तक वैध माना है, जहां केवल पांचसितारा होटल ही राज्य द्वारा अनुमोदित लाइसैंस प्राप्त कर सकते हैं.

खेल में सट्टेबाजी : आईपीएल या दूसरे खेलों पर सट्टा लगाना कौशल माना जाता है. लोग बढ़चढ़ कर इस में हिस्सा लेते हैं. कोई भी जुआ कानून भारतीयों को क्रिकेट पर सट्टा लगाने से सख्ती से और स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित नहीं करता है.

पोकर : पोकर एक कार्ड गेम है जो तीनपत्ती गेम की तरह होता है. आज कार्ड गेम को बहुत पसंद किया जाता है. हर राज्य में अपनेअपने अलगअलग नियम बने हुए हैं.

दीवाली को प्रकाश का दिन मनाएं. संस्कृति और संस्कार का हवाला दे कर उस महाभारत की याद न दिलाएं जिस के नायक कृष्ण द्रौपदी के चीरहरण को रोकने तो आए पर युधिष्ठिर को जुआ खेलने से रोकने को नहीं आए.

पुरातन की ओर

देश को पुरातन व पौराणिक सोच की ओर लगातार धकेला जा रहा है, इस का एक और सुबूत भारतीय जनता पार्टी की केंद्रीय सरकार द्वारा नियुक्त दिल्ली के उपराज्यपाल द्वारा लेखिका अरुंधति राय के खिलाफ 2010 की एक स्पीच पर मुकदमा चलाने की अनुमति देना है. वर्ष 2010 में अरुंधति राय ने एक सभा में एक भाषण दिया था.

दो समुदायों के बीच वैमनस्य पैदा करने और आम शांति को भंग करने के आरोप में वरिष्ठ व गंभीर लेखिका के खिलाफ मुकदमे दर्ज तो 2010 में हुए थे पर भारतीय जनता पार्टी ने सरकार में आने के बाद उन्हें कब्र खोद कर फिर से निकाला. इन मुकदमों को निचली अदालतों में महीनोंसालों घसीटा जा सकता है और वक्ता के तौर पर कहे अपने विचार 10वीं पास पुलिस कौंस्टेबलों द्वारा तय किए जाएंगे कि वे सही हैं या नहीं. कोई बड़ी बात नहीं कि इस दौरान निचली अदालत लेखिका को जमानत भी न दे कि कहीं अभियुक्त ‘तथाकथित अपराध’ करने के 13 साल बाद भाग न जाए.

भारत देश की चूलें किस तरह हिल चुकी हैं, यह इस तरह के मामलों से साफ है. कोई भी समाज तब ही उन्नति कर सकता है जब आम लोगों के पास बोलने की स्वतंत्रता और आजादी हो. वैचारिक स्वतंत्रता ही बहुत से नए प्रयोगों की जन्मदात्री होती है. जिन लोगों ने समाज, शासन, मुद्दों के बारे में नई सोच दी उन्होंने ही विज्ञान, भौतिकी, कैमिस्ट्री, ज्योग्राफी, एस्ट्रोनौमी में नई खोजों और आविष्कारों की जमीन तैयार की. आज हम पहले से ज्यादा सुखी हैं, तकनीक का सुख भोग रहे हैं तो इसलिए कि कभी कहीं किसी ने जो सोचा उस पर रिसर्च कर कामयाबी हासिल की. हालांकि, तब भी उन सोचों, आविष्कारों के खिलाफ विद्रोह किए गए.

हम कहने को चाहे 21वीं डिजिटल क्रांति वाली सदी में जी रहे हों पर असलीयत यह है कि हम में से अधिकांश आज भी पुराने रीतिरिवाजों को ढो रहे हैं और भारत की आर्थिक उन्नति में बड़ा रोड़ा बने हुए हैं. यह ऐसे ही नहीं है कि आर्थिक संपन्नता के तौर पर प्रति व्यक्ति आय के पैमाने पर भारत दुनिया के 180 देशों में से 132-135वां है.

यह इसलिए है कि हमें नया, परंपरा के खिलाफ सोचने की इजाजत नहीं है. इस में ‘राज्य गलत नहीं सोचता, सरकार हमेशा सही होती’ वाली पारंपरिक सोच है. अरुंधति राय जैसे लेखक सरकार व पुरातनवादियों को ?िं?ाड़ते हैं, उन्हें एहसास कराते हैं कि वे कैसे गलत हैं.

अगर औरतें आज भी दहेज की मारी हैं, छोटी लड़कियों के साथ बलात्कार हो रहे हैं, विधवाएं दोबारा विवाह नहीं कर पातीं, लड़कियों को संपत्ति में से हिस्सा ही नहीं मिल रहा, उन्हें अपनी संपत्ति नहीं बनाने दी जा रही तो इसलिए कि हम सब पर पुरानी सोच आज भी सवार है और उस की आलोचना करने वालों, पोल खोलने वालों को समाज व सरकार का दुश्मन मान लिया जाता है.

अरुंधति राय जैसों के खिलाफ 2010 के भाषण पर अब पुलिसिया कार्रवाई शुरू करने का अर्थ यह है कि सारी जनता को संदेश दिया जा रहा है कि कुछ अलग, कुछ नया कहने की कोशिश न करो.

धार्मिक सामग्री से पटा बाजार

रश्मि की हार्दिक इच्छा थी कि नवरात्रों में जब उस का परिवार अपने खुद के फ्लैट में शिफ्ट हो तो उस में एक कोना मंदिर के लिए भी हो. अभी तक रश्मि का परिवार किराए के घर में रह रहा था, लेकिन उस के पति और बेटे ने पैसे जमा कर के आखिरकार उस के अपने घर का सपना इस साल पूरा कर दिया. किराए के घर में इतनी जगह नहीं थी कि अलग से मंदिर बन सके मगर नए फ्लैट में बिल्डर ने जो स्टोररूम बनाया है, उस को वह मंदिर के रूप में बदलने को उतावली थी. उस स्टोररूम में एक बढि़या सजे हुए मंदिर में ही इस बार दीवाली की पूजा हो, ऐसा उस का मन था.

आखिर बेटे ने उस की वह ख्वाहिश पूरी की और नवरात्र के पहले ही दिन वह सफेद मार्बल का एक बड़ा मंदिर खरीद लाया. इतना सुंदर मंदिर देख कर रश्मि तो ?ाम उठी. वह दूसरे ही दिन अपनी पड़ोसिन अंकिता के साथ सदर बाजार निकल गई ताकि नए मंदिर में सजाने के लिए भगवान की मूर्ति और पूजा से जुड़ी चीजें खरीद लाए. रश्मि कई सालों के बाद सदर मार्केट गई थी. वहां का तो रंगरूप ही बदला हुआ था. पहले पूजा आदि से जुड़ी चीजों की जहां सिर्फ दोतीन दुकानें होती थीं, अब पूरी एक सड़क इन्हीं सामग्रियों से भरी हुई थी.

धार्मिक चीजों की खरीदारी के लिए ग्राहक दुकानों पर जैसे टूटे पड़ रहे थे. नवरात्र के त्योहार की वजह से पूरा बाजार धार्मिक सामग्री से पटा पड़ा था. हर दुकान में जमीन से ले कर छत तक चीजें सजी हुई थीं. इतना सामान था कि कई दुकानों के तो भीतर ही नहीं समा रहा था. दुकानदारों ने दुकानों के बाहर आधीआधी सड़कें घेर कर बड़ेबड़े तख्त बिछा कर उन पर सामान डिस्प्ले कर रखा थे.

हर चीज की दसदस वैराइटियां मौजूद थीं. माता की चुन्नी 5 रुपए से ले कर 5 हजार रुपए तक की. भगवानों की मिट्टी की मूर्तियां 100 रुपए से ले कर 500 रुपए तक की थीं जबकि धातु की मूर्तियों के दाम तो आसमान छू रहे थे. 8 हजार,

10 हजार, 15 हजार रुपए कीमत की मूर्तियां थीं. जिस की जैसी श्रद्धा वैसी मूर्तियां खरीद रहा था.

रश्मि ने लक्ष्मी गणेश, राम सीता लक्ष्मण, मां दुर्गा, शिवजी, कृष्ण भगवान और साईं बाबा की एकएक मूर्ति अपने मंदिर के लिए खरीदीं.

इसी में उस के हजार रुपए खर्च हो गए. उस की सहेली अंकिता बोली, ‘दीदी, मंदिर में मूर्तियों के नीचे बिछाने का आसन और सब के लिए कपड़े व शृंगार की चीजें भी खरीद लीजिए. उन के बिना मूर्तियां कैसे स्थापित करेंगी?’

‘हां, हां’ कहते हुए रश्मि अगली दुकान पर इन चीजों को देखने के लिए घुस गई. भगवानों के कपड़े तो बड़े ही सुंदर थे. जरी, गोटे, लेस और शीशे-मोती से जड़े छोटेछोटे रेशमी कपड़े देख कर रश्मि का मन ललचा गया.

इन सुंदर वस्त्रों को पहन कर तो उस के भगवान खूब जचेंगे. 1,200 रुपए के कपड़े और 300 रुपए का आसन उन्होंने खरीदा. सामान ले कर बाहर निकली तो अंकिता बोली, ‘‘पिछली दुकान से पूजा की थाली, दीपदान और घंटी वगैरह देख लो. उन के बिना पूजा कैसे करोगी.’’

रश्मि असमंजस में पड़ गई, जितने पैसे ले कर आई थी वे तो सब इस थोड़े से सामान में ही खर्च हो चुके थे. मंदिर को पूरी तरह सजाने के लिए तो अभी इतने ही और चाहिए थे. उस को अनुमान नहीं था कि बाजार में चमक बिखेरती इन धार्मिक चीजों की कीमत इतनी ज्यादा हो चुकी होगी.

कोई 10 साल पहले जब दीवाली में वह और उस के पति लक्ष्मी-गणेश की मूर्ति खरीदने आते थे तो मुश्किल से 75 रुपए में मूर्ति के साथ पूजा की सामग्री भी मिल जाती थी, जिन्हें रसोई के कोने में बने ताक में सजा कर वे दीवाली की पूजा कर लेते थे. मगर यहां तो 5 हजार रुपए खर्च हो गए और नए मंदिर के लिए अभी आधा सामान भी नहीं आया.

सामान अनगिनत

उन्होंने अंकिता से पूछा कि और क्याक्या ले सकते हैं? तो वह बोली, ‘मेरे मंदिर में तो पूजा की सिल्वर थाली, घंटी, दीपदान, अगरबत्ती स्टैंड के साथ अगरबत्ती, धूपबत्ती, गंगाजल, शहद, सरसों के तेल की शीशी, देसी घी, मिट्टी के दीये-बांती, सभी भगवानों के लिए अलगअलग आसन और मालाएं, कृष्णजी के लिए अलग से मोरमुकुट वगैरह भी हैं. इन सब चीजों की जरूरत पूजा के समय पड़ती है और तुम को तो नए घर में हवन भी करवाना है. आखिर, उस का सामान भी तो लेना होगा?’

रश्मि ने हां में सिर हिलाया, बोली, ‘चलो फिर कल आते हैं क्योंकि मैं जितने पैसे ले कर आई थी वे तो इतने सामान में ही खर्च हो गए.’

दोनों उस दिन घर लौट आईं. दूसरे दिन मंदिर के बचे हुए सामान के साथ हवन की सामग्री, 2 किलो घी, मिठाई, पंडितजी के कपड़े, उन की पत्नी के लिए साड़ी और शृंगार का सामान आदि की खरीदारी में साढ़े 5 हजार रुपए और खर्च हो गए.

रश्मि सोच रही थी कि घर में मंदिर की स्थापना करवाने का उन का खयाल तो बहुत महंगा पड़ गया. उस ने सोचा था कि हजारदोहजार रुपए में सब हो जाएगा, मगर सामान की लिस्ट तो हनुमान की पूंछ की तरह बढ़ती ही चली गई और उस के करीब 8 हजार रुपए धर्म के बाजार में स्वाहा हो गए. इतने पैसे में तो उस के घर में 3 महीने का राशन आ जाता है. मगर अब क्या किया जा सकता है. चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं और पूजापाठ से जुड़ी चीजों की मार्केट तो आजकल सब से बड़े मुनाफे का व्यापार बन चुकी है.

दिल्ली के सदर मार्केट में पूजापाठ से जुड़ी चीजों का बहुत बड़ा बाजार है. अक्तूबर माह में पितृपक्ष शुरू होते ही यह मार्केट श्राद्ध के सामान से पट जाता है और फिर नवरात्र शुरू होते ही दुर्गा की पूजा से जुड़ी सामग्रियों से पूरा बाजार भर जाता है.

दीवाली आतेआते इस मार्केट की रौनक देखने लायक होती है. भारतीय धर्मसंस्कृति में चीन ने कैसे सेंध लगाई हुई है, यह भी दीवाली के अवसर पर दिखता है. चाइनीज बल्ब, रंगीन रोशनी की लडि़यां, चाइनीज मोमबत्तियां, खुशबूदार दीये, प्लास्टिक के सजावटी फूल, बेलें, नकली मखमली घास जो देखने में बिलकुल असली लगती है, दमदमाते हुए लक्ष्मी-गणेश, छोटेबड़े रंगीन रोशनी से सजे टिमटिमाते मंदिर, खूबसूरत कंदीलें, दरवाजों के बंधनवार, बनेबनाए रंगोली के पैटर्न, यहां तक कि दरवाजों पर लगाए जाने वाले लक्ष्मी के पदचिह्न तक चाइना से आ रहे हैं.

ये तमाम चीजें जितनी खूबसूरत और आकर्षित करने वाली हैं, इन के दाम भी उतने ही ऊंचे हैं.धर्म के धंधे में लगे व्यापारियों की पांचों उंगलियां घी में हैं.

मुनाफा ही मुनाफा

नवरात्र का त्योहार यों 9 दिन चलता है जिसे बंगाली बहुत धूमधाम से मनाते हैं और इस त्योहार पर खूब पैसा खर्च करते हैं. मगर हिंदू महिलाएं जब नवमी या दशमी पर दुर्गा की पूजा करती हैं तो मंदिर में चढ़ाने के लिए उन की थाली में मां की चुन्नी, नारियल, फूलों की माला, मां के शृंगार का सामान, चूडि़यां, फल, हलवापूरी और पैसे होते हैं.

ये सारा सामान कोई 300 से 700 रुपए तक का होता है. एक मध्यवर्गीय परिवार की महिला नवमी या दशमी पर कम से कम इतना सामान तो मंदिर में चढ़ाती है. आप अंदाजा लगा सकते हैं कि त्योहारों के दौरान मंदिरों में कितना चढ़ावा और कितना पैसा आता है.

इस के अलावा धर्म के बाजार कितनी मुनाफा कमाते हैं. नवरात्रों के 9 दिन मंदिरों में मूर्तियों पर जो गोटेदार सुंदर लाल चुन्नियां चढ़ाई जाती हैं, वे न तो कहीं सहेज कर रखी जाती हैं और न फेंकी जाती हैं बल्कि अगली शाम को माता की मूरत से उतर कर अच्छी तरह तह कर के बाहर लगी धर्म की दुकानों पर फिर बिकने के लिए आ जाती हैं. यह क्रम चलता रहता है.

माल की कमी नहीं

सदर मार्केट में जहां तक आप की नजर जाएगी, धार्मिक वस्तुओं का बाजार आप को दिखेगा, पूजा, व्रत, आरती की चीजें, माता की चुन्नी, विभिन्न आकारप्रकार और विभिन्न धातुओं से बने दीये, घंटियां, घंटे जो 50 रुपए से ले कर 3,000 रुपए तक हैं. आरती की थाली जो स्टील, फूल, पीतल और चांदी की होती हैं, प्लास्टिक के फूलों की मालाएं, मां के शृंगार का सामान और भोलेनाथ के त्रिशूल से ले कर लक्ष्मी के वाहन उल्लू तक की खरीदारी यहां हो रही है.

70 रुपए का एक छोटा सा 2 इंच का उल्लू भी है और 500 रुपए का थोड़ा बड़ा उल्लू भी है. 700 से ले कर 1,500 रुपए की लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियां, 200 रुपए का शिव का त्रिशूल तो 1,200 रुपए के लड्डू गोपाल भी हैं जो एक छोटे से ?ाले में ?ाल रहे हैं. छोटीबड़ी बोतलों में भरे गंगाजल की कीमत 100 रुपए बोतल से ले कर 1,500 रुपए बोतल तक है.

चंदन टीका, अगरबत्तियां, धूपबत्तियां, इत्र, अलगअलग पैकिंग में कपूर, 50 रुपए की मौली, रोली, 40 रुपए का इलायची का पैकेट जिस में बमुश्किल 6 इलायचियां होंगी, 20 रुपए का ज्वार के दानों का पैकेट, 40 रुपए में 9-10 दानों का लौंग का पैकेट, 60 रुपए में मेवे का छोटा सा पैकेट जिस में एक अखरोट 2 दाने किशमिश, 2 पतले टुकड़े नारियल और दोतीन बादाम हैं.

हवन सामग्री, 50 रुपए में हनुमान पर चढ़ाने के लिए सिंदूर के पैकेट अलग और सरस्वती मां पर चढ़ाने के लिए सिंदूर का पैकेट अलग. 60 रुपए की 4 पीस सुपारी का पैकेट, भगवान को बिठाने के लिए आसन, भगवान के मोती जरी, शीशे-लेस से सुसज्जित रेशमी कपड़े, माता के लिए सोलह सिंगार का पैकेट, चूडि़यां, शहद, जनेऊ, देसी घी, सरसों का तेल. तिल का तेल, स्वास्तिक, लक्ष्मी चरण, गुग्गल, लोबान, चंदन अगरबत्ती और न जाने क्या क्या बिक रहा है इस मार्केट में.

800 रुपए के कृष्ण भगवान, 50 रुपए का उन के मुकुट के लिए एक मोरपंख, भजन के दौरान बजाने वाले बाजे जैसे, ?ां?ार, ?ान?ाना आदि. दुकानें इन चीजों से ठसाठस भरी ही हैं. छोटे वेंडर भी अपनी ट्रौलीनुमा ठेलों पर इन धार्मिक चीजों को भरभर कर यहां दिनभर बेचते हैं और सुबहशाम को आसपास की कालोनियों में भी घूमघूम कर बेचते हैं.

यही हाल सैंट्रल मार्केट, लाजपतनगर और पश्चिम विहार, दिल्ली के ख्यात ज्वाला हेड़ी रिटेल मार्केटों का है.

धर्म का ऐसा बाजार मुसलमानों का भी खूब मुनाफे में जा रहा है. आप निजामुद्दीन चले जाइए. मजार पर पहुंचने से पहले एक पूरी लंबी सड़क आप को धर्म की चीजों से भरी दुकानों की कतारों से सजी दिखेगी.

500 रुपए से ले कर 5,000 रुपए तक मजार पर चढ़ाने की चादरें गोटे-जरी के काम से सजी हुई यहां बिकती मिलेंगी. फूलों की चादरों के दाम भी खूब हैं.  800 रुपए से ले कर 2,000 रुपए तक. वहीं छोटी चादरें भी हैं मगर 100 रुपए से कम की कोई चादर नहीं मिलेगी.

इस के साथ मजार पर चढ़ाने के लिए फूलों की टोकरी, अगरबत्तियों का पैकेट, मोमबत्तियों का पैकेट, मजार के चारों तरफ बनी जालियों में बांधने के लिए मन्नतों के धागे सब यहां खूब ऊंचे दामों में बिक रहा है.

दलालों की अपनी चांदी

दिनभर इस सड़क पर मन्नत मांगने वालों की भीड़ खचाखच भरी रहती है. निजामुद्दीन पर जैसे ही आप उतरेंगे सड़क के बाहर से ही दलाल आप के साथ लग जाएंगे. वे आप को सस्ता सामान दिलाने का लालच दे कर अपनी दुकानों में ले जाने की पुरजोर कोशिश करेंगे. आप की मन्नतें क्याक्या सामान चढ़ाने से पूरी होंगी, इस की पूरी जानकारी वे देंगे, जैसे आत्माएं उन को आ कर बताती हों कि मु?ो आज क्याक्या चाहिए. साथ में दलाल अपने पैसे भी आप से लेता है और आसपास भीख मांगने का धंधा करने वालों के कटोरे में भी आप से यह कह कर पैसा डलवाते हैं कि इन की दुआओं से आप का काम जल्दी होगा.

मजे की बात यह है कि आप जो महंगी चादर खरीद कर मजार पर चढ़ाएंगे वह कुछ घंटों बाद वापस उसी दुकान पर अगले ग्राहक को बिकने के लिए आ जाएगी.

लोगों की मन्नतों के धागे बंधबंध कर जब मजार की जालियों को बंद करने लगते हैं तो सप्ताह में एक दिन इन्हें काट कर कूड़े में फेंक दिया जाता है. मान लीजिए आप ने जो मन्नत मांगी और आप की कोशिशों से वह काम अगर पूरा हो गया और आप अपनी मन्नत पूरी होने पर अपना धागा खोलने आएं तो आप किसी और का धागा ही खोल कर जाते हैं. बल्कि देश में जितनी भी मजारें हैं जिन पर चादरें चढ़ाने का धंधा और मन्नतें मांगने का काम होता है, सभी का यही हाल है.

अजमेर शरीफ में तो इस से भी बुरा हाल है. वहां तो मजार के अंदरबाहर सफेद टोपी पहने अनेक कथित मौलाना तैनात हैं जो आप को वीआईपी जगह से जल्दी अंदर ले जाएंगे और आप को भीड़ में धक्के नहीं खाने पड़ेंगे, बदले में आप को इन के हाथ पर दो हजार रुपए रखने होंगे. इस के एवज में आप आराम से अंदर जाएंगे और आप को मजार के सामने कुछ देर बैठ कर दुआ करने का वक्त भी दिया जाएगा. चादर, अगरबत्ती, धूपबत्ती, मोमबत्ती, फूल आदि तो आप अपनी श्रद्धा और जेब के मुताबिक खरीदेंगे ही.

कोर्ट का ‘सरकारी’ निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने लंबी बहस के बाद बड़े प्रवचननुमा वाक्यों से अपने निर्णय को सजाते हुए आखिर वही कह दिया जो देश की कट्टरपंथी सरकार चाहती है कि भारत में समलैंगिक विवाह संभव नहीं है और इस बारे में कदम संसद को ही उठाना पड़ेगा. केंद्र की सत्ता पर काबिज भाजपाई सरकार विवाह को संस्कार मानती है.

समलैंगिक जोड़े जानते हैं कि इस तरह का फैसला कभी भी संसद या विधानसभाओं में नहीं हो सकता क्योंकि वहां तो वे बैठे हैं जो समलैंगिक तो क्या, किसी भी तरह के विवाह की उम्र से गुजर चुके हैं और जो धर्म की दी गई व्याख्या से बाहर नहीं जा सकते.

हर धर्म ने प्राकृतिक सैक्स को अपने दायरे में ले लिया है. मानव सुबह से शाम तक बहुत सारी प्राकृतिक क्रियाएं करता है पर सैक्स संबंध ऐसा है जिस में दुनिया के हर धर्म ने अपनी टांग घुसा दी और उस के नियम बना कर जनता पर थोप दिए. राजा और शासकों ने इसे सहज स्वीकार कर लिया क्योंकि इस का युद्ध में बहुत फायदा होता है.

सैक्स को धर्म और शासन से जोड़ कर ही औरतों को सदियों से गुलाम बनाया जा सका है. शादी के बिना सैक्स करना औरतों के लिए अपराध जैसा घोषित कर दिया गया. बिना शादी के पैदा हुए बच्चे अवैध, बास्टर्ड, हरामी बन गए, औरतें बदचलन, रंडियां. लेकिन उन के साथ जिन पुरुषों ने संबंध बनाए, वे तो इस चर्चा में आते ही नहीं.

भारत की सुप्रीम कोर्ट जब समलैंगिक विवाहों के बारे में तर्क सुन रही थी तो उस के दिमाग में यही धारणा बैठी थी कि सदियों से धर्म ने जो विवाह की परंपरा बनाई है और जिसे शासकों ने लागू किया है, उसे ज्यादा डिस्टर्ब किया तो धर्म और शासकों के पत्तों के घर कहीं ढह न जाएं. एक आम व्यक्ति के अधिकारों को कुचलते हुए 5 जजों की पीठ ने कह डाला कि विवाह का अधिकार तो मौलिक अधिकार भी नहीं है और संसद जो चाहे कानून बना सकती है और स्त्रीस्त्री, पुरुषपुरुष विवाह को अगर कानूनी संरक्षण चाहिए तो उसे तराजूनुमा अदालत का नहीं, तिकोने त्रिशूलनुमा संसद का दरवाजा खटखटाना होगा.

जैसे राममंदिर के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने किया था, शब्दजाल में तो बड़ी बातें कही गईं पर जब आखिरी लाइन लिखनी थी तो याचिकाकर्ता को सरकार के हाथों सौंप दिया.

समलैंगिक विवाहों की अनुमति देने से अदालतों का कुछ ज्यादा जाता नहीं. यह पागलपन थोड़े से लोगों का फितूर है. जो चाहते हैं कि वे एक छत के नीचे रहते हैं, एक रजाई में सोते हैं तो उन को उन लोगों से अलग नहीं समझ जाए जो विधि समान विवाह कर के कहीं काम कर रहे हैं. उस बराबरी के हक से समाज का कुछ बिगड़ता नहीं. सरकार को कुछ हानि न होती. संसद की कानून बनाने की शक्ति कम न होती.

हां, धर्म को हानि होती. उसे एक और दरार अपने महल में दिखने लगती. लोग संस्कारविहीन विवाह करें पर जिन में संतान न हो, यह भला कैसे संभव है. हर विवाह पर हमेशा धर्म टैक्स लेता रहा है. कुछ जगह राजा भी लेता था जब वर वधू को पहली रात अपने बिस्तर में सोने को मजबूर करता था और उस पर धर्म की मोहर थी.

समलैंगिक विवाह जोड़ों को संयुक्त संपत्ति रखने, एक के मरने के बाद विरासत के सवालों को हल करने, बच्चे गोद लेने, अपनेअपने घरों से आई संपत्ति के निबटान, वैवाहिक जोड़ों को गिफ्ट देने के कानून आदि का निबटान कर सकते थे. सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया है कि समलैंगिक साथ रह सकते हैं पर उन अलगअलग लकडि़यों की तरह जो नदियों या समुद्र में साथसाथ बह रही हैं पर वे मिल कर नाव नहीं बन सकतीं जिस में सवार हो कर जीवन सुखी, सफल व स्थिर हो सके. यह हमारी सुप्रीम कोर्ट का एक और सरकारी निर्णय है, बस.

घर में मेरे मुंहबोले भाई को लेकर झगड़ा होता रहता है, बताएं मैं क्या करूं ?

सवाल

मैं 16 बरस की अविवाहिता हूं. मेरा सगा भाई नहीं है. मैं ने एक मुंहबोला भाई बनाया था जिसे मैं सगे से भी ज्यादा मानती हूं. इस शहर में ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने मेरे पापा से कह कर भाई से मेरी बोलचाल बंद करवा दी. पापा से बात करने में मुझे डर लगता है. पूरे 6 महीने से भाई से मेरी बात भी नहीं हुई, मेरी मानसिक स्थिति बिगड़ गई है, क्या करूं?

जवाब

मुंहबोला यानी तथाकथित रिश्ता अकसर ऐसी ही कड़वाहट के दौर से गुजरता है. इसे टूटते देर भी नहीं लगती. होता यह है कि भाईबहन के ये मुंहबोले रिश्ते दरक जाते हैं और चूंकि रिश्ता खून का तो होता नहीं, सो, ये दूसरे कगार पर पहुंच जाते हैं. आप के मम्मीपापा ने ऐसा कुछ जरूर महसूस किया होगा जो आप का किशोर मन नहीं सम?ा पा रहा है. आप खुद स्वीकारती हैं कि आप का उस से दोस्ती का भी रिश्ता है. रिश्तों की मर्यादा को बनाए रखना आसान नहीं है. एक तरह से ये रिश्ते तलवार की धार पर रहते हैं. हो सकता है आप के मुंहबोले भाई ने रिश्तों की गरिमा ठीक से न समझ हो और इस बात को आप न सम?ा पा रही हों. इस बारे में आप को अपने मम्मीपापा से बात करनी चाहिए. घर में चचेरे, ममेरे किसी भाई को भी आप अपना सगा भाई जैसा मान सकती हैं जिस से आप का खून का रिश्ता भी होगा.

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