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2023 के वे फिल्मी गाने जो बरसों बजेंगे, विक्की कौशल का यह गाना तो मस्त रहा

पुराना साल 2023 बौलीवुड की कुछ फिल्मों के लिए काफी हिट साबित हुआ है. शाहरुख़ खान, विक्की कौशल, सारा अली खान, रणबीर कपूर की फिल्मों ने 2023 ने काफी अच्छी कमाई की. इन की फिल्मों के गाने भी लोगों को खूब पसंद आए और लम्बे समय तक लोगों की जुबां पर चढ़े रहे. साल 2023 की शुरुआत शाहरुख़ खान की ब्लॉकबस्टर फिल्म ‘पठान’ से हुई थी. फिल्म ‘पठान’ का गाना ‘झूमे जो पठान’, सुपरडुपर हिट हुआ. इस गाने को अरिजीत और सुकृति कक्कड़ ने अपनी आवाज दी थी और इस का संगीत विशालशेखर की हिट जोड़ी ने तैयार किया था.

रणबीर कपूर और बौबी देयोल अभिनीत फिल्म ‘एनिमल’ के गाने भी काफी पसंद किये गए। इसका एक सौंग ‘जमाल कुडू’ जो बौबी देयोल की एंट्री के साथ शुरू होता है, ने अभी भी धमाल मचाया हुआ है. यह गाना ईरानी शादी के गाने से प्रेरित है. इस के बोल भले लोगों की समझ में न आए होने मगर इस का म्यूजिक इतना शानदार है कि नृत्य न जानने वालों के भी पैर थिरकने लगें. फर्क ये है कि पहले बौबी देयोल के बाल लम्बे थे लेकिन इस फिल्म में उन की दाढ़ी लंबी है. बाकी गाने का मतलब कोई समझ पाए या न समझ पाए लेकिन सिर पर बोतल रख कर लोग अभी भी नाचते नजर आते हैं. इस गाने ने रिलीज के चंद घंटों के अंदर ही मिलियन व्यूज हासिल कर लिए थे. वहीं सोशल मीडिया पर इस गाने पर जम कर रील बन रही है.

फिल्म एनीमल का ही एक और गीत ‘सारी दुनिया जला देंगें’ भी लोगों के बीच खूब हिट हुआ. इस गाने को पंजाबी गीतकार जानी ने लिखा है और उन की टीम के सिंगर बी प्राक ने इसे बड़े ही शानदार ढंग से गाया है. वहीं एनीमल का तीसरा हिट सौंग ‘अर्जन वैली’ भी चार्टबस्टर में टौप पर है. इस गाने को पंजाबी सिंगर भूपिंदर बब्बल ने गाया है.

2023 में रणबीर कपूर की पहली रिलीज फिल्म ‘तू झूठी मैं मक्कार’ का गीत ‘प्यार होता – होता कई बार है’, भी नौजवानों की जुबान पर खूब लम्बे समय तक चढ़ा रहा. इस गीत के लिए रणबीर और अरिजीत की काफी सराहना हुई. इसी फिल्म का दूसरा गान ‘तेरे प्यार में’ को भी लोगों ने खूब पसंद किया. इस गाने में रणबीर कपूर और श्रद्धा कपूर के बीच की मस्ती और रोमांस ही काबिलेतारीफ नहीं हैं बल्कि इस का जीवंत संगीत शरीर में सिहरन सी पैदा करता है. पूरे गाने में दिखाई गई स्पेन की अलग अलग खूबसूरत लोकेशन्स, स्टाइलिश आउटफिट और रणबीर और श्रद्धा के बीच आकर्षक केमिस्ट्री गाने की सुंदरता को बढ़ाते हैं.

बौलीवुड के शानदार एक्टर विक्की कौशल और सारा अली खान की फिल्म ‘जरा हट के जरा बच के’ बौक्स औफिस पर हिट साबित हुई है. इसका गाना ‘फिर और क्या चाहिए’ लोगों को बड़ा कर्णप्रिय लगा. इस गाने को अरिजीत सिंह ने गाया है. फिल्म का दूसरा गाना ‘तेरे वास्ते फलक से मैं चांद लाऊंगा’ जबरदस्त हिट साबित हुआ. इस गाने को भी अरिजीत सिंह ने अपनी आवाज से सजाया है.

2023 में फिल्म ‘पठान’ से कमबैक करने वाले शाहरुख खान ने फिल्म ‘जवान’ में भी बड़ा धमाका किया. फिल्म का गीत ‘चलैया’ बड़ा हिट हुआ और इस पर देश विदेश में खूब रील्स बनीं. वहीं ‘जवान’ का एक और गाना ‘जिंदा बंदा’ भी शाहरुख खान के फैंस के सिर चढ़ कर बोला. ‘ज़िंदा बन्दा’ में शाहरुख खान की जवां पर्सनालिटी और एनर्जेटिक डांस उनके फैंस को खूब भाया.

इन फिल्मी गीतों के अलावा 2023 में कुछ म्यूजिक एलबम्स ने भी काफी धमाल मचाया. जानी और बी प्राक की जोड़ी ने ‘क्या लोगे तुम’, गाने से सुनने वालों का दिल जीत लिया. इस गाने में अक्षय कुमार और अमायरा दस्तूर लीड रोल में हैं.

साल 2023 में एक और वीडियो एल्बम ‘हीरिए’ भी छाया रहा. इस लव रोमांटिक सॉन्ग को जसलीन रौयल और अरिजीत सिंह ने मिल कर गाया है. इस गाने में खुद जसलीन ने एक्ट किया है और इस में उन का साथ साउथ के एक्टर दुलकर सलमान ने दिया है.

साल 2002 में शमिता शेट्टी का गाना आया था ‘शरारा-शरारा’. शादियों-पार्टियों में लोग इस पर झूमते देखे जाते थे, लेकिन, 2023 आतेआते इस में अपडेट हुआ. शरारा को रंग मिल गया. अब ये हो गया ‘गुलाबी शरारा’. फिर क्या था, लोगों को गाने की बाकी लिरिक्स भले ही कम समझ आयी हों, पर धुन और मुखड़े पर लोग खूब थिरके. दरअसल यह एक कुमाऊनी गाना है. इसका जो वर्जन वायरल हुआ उसे इंदर आर्या ने गाया है. इस को लिखा है गिरीश जीना ने और कोरियोग्राफ किया है अंकित कुमार ने. इस गाने के हुक स्टेप की रीलें सोशल मीडिया पर फैली नजर आती हैं.

2023 की सफल फिल्में : फिल्मों ने की बंपर कमाई, मगर सिनेमाघर के अंदर कुर्सियां रहीं खाली

बौलीवुड में हमेशा माना जाता रहा है कि सिनेमा में सिर्फ सैक्स और हिंसा बिकता है.कम से कम 2023 के बौक्स औफिस आंकड़े भी इसी बात की ओर इशारा करते हैं. 2023 में ‘एनिमल‘, ‘जवान‘, ‘पठान‘ और ‘गदर 2‘ बड़ी हिट फिल्में मानी गई हैं. अफसोस की बात यह रही कि यह चारों फिल्में कहानी के स्तर पर शून्य रहीं, मगर इन फिल्मों में हिंसा व सैक्स जरुर हावी रहा. पर जब हम फिल्मों के निर्माण की लागत और बौक्स ओफिस कलैक्शन के आधार पर तुलना करते हैं, तो ‘द केरल स्टोरी‘ और ‘गदर 2‘ साल की सब से ज्यादा मुनाफा कमाने वाली फिल्में नजर आती हैं. हम सभी को यह पता होना चाहिए कि किसी भी फिल्म को ‘सफलता’ का तमगा पाने के लिए अपनी निर्माण लागत के मुकाबले कम से कम दोगुनी से अधिक कमाई भारतीय बौक्स औफिस पर करना अनिवार्य है.

इस कसोटी पर बड़े बजट व बड़े सितारों वाली फिल्में ही बौक्स पर हिट रहें, यह आवश्यक नहीं है. अगर फिल्म की कहानी अच्छी हो तो कम बजट व बिना बड़े स्टार की फिल्में भी बौक्स औफिस पर कमाई का झंडा लहरा सकती हैं. इस कसौटी पर विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म ‘‘12वीं फेल’, अमित राय की ‘ओह माई गाॅड 2’, विक्टर बनर्जी की फिल्म ‘लकड़बग्घा’, राज शांडिल्य की ‘ड्रीमगर्ल 2’ को सफल माना जाना चाहिए. जबकि कहानी के स्तर पर ओटीटी पर प्रदर्शित मनोज बाजपेयी अभिनीत फिल्म ‘सिर्फ एक बंदा’ तथा यशवर्धन निर्देशित फिल्म ‘कटहल’ को भी सफल माना जाना चाहिए. पर अफसोस यह सभी अच्छी कहानी व छोटे स्टार के अभिनय से सजी पांच सौ करोड़ी क्लब का हिस्सा नहीं बन पाई.

सोशल मीडिया पर जबरन हिट

सिनेमा एक नकली दुनिया है. यहां सपने बेचे जाते हैं. पिछले कुछ साल से एक नया चलन शुरू हो गया है. पहले हर फिल्मकार अपनी फिल्म का प्रीमियर करता था, जहां वह फिल्म इंडस्ट्री के लोगों को अपनी फिल्म दिखा कर उन की राय मांगता था. अब भी फिल्म के प्रीमियर होते हैं, मगर फिल्म के प्रीमियर पर पहुंचे कलाकार व फिल्मकार के लिए अनिवार्य होता है कि वह तुरंत अपनी प्रतिक्रिया सोशल मीडिया पर पोस्ट करे.

परिणामतः फिल्म के रिलीज से पहले ही सोशल मीडिया पर कई कलाकार व फिल्मकार फिल्म की प्रशंसा करने के साथ ही फिल्म की बंपर कमाई करने की बातों की बौछार हो जाती है. उस के अलावा फिल्म की पीआरटीम भी कई फर्जी एकाउंट से बाक्स आफिस के बनावटी आंकड़ों सोशल मीडिया पर दिनरात बौछार करते रहते हैं. इन सभी का मकसद यही होता है कि लोग उन की फिल्म की अच्छाई या बुराई पर जाने की बनिस्पत फिल्म की कमाई देख कर लोग फिल्म को हिट समझें और इसे देखने ज्यादा से ज्यादा संख्या में आएं.

लोग अपने पसंदीदा सितारों की यह पोस्ट देख कर फिल्म देखने पहुंच भी जाते हैं. फिल्म की टिकटें बिक जाती हैं, बाद में दर्शक सिनेमाघर से गाली देते हुए बाहर निकलता है. पर यह धंधा बदस्तूर जारी है. फिल्म ‘जीरो’ की असफलता के बाद 4 साल बाद ‘पठान’ से परदे पर वापसी करते हुए शाहरुख खान 2 कदम आगे निकल गए. उन्होने अपनी फिल्म ‘पठान’ की कारपोरेट बुकिंग, बल्क बुकिंग और फैंस क्लब की बुकिंग के माध्यम से पैसे जमा कर लिए, पर सिनेमा घर के अंदर विरानी छाई रही.

बहरहाल, ऐन केन प्रकारणे निर्माताओं ने बाक्स आफिस के जो आंकड़े दिए, उस के अनुसार 2023 में पठान, जवान, गदर 2 और एनीमल ने बाक्स आफिस पर बंपर कमाई की.

पठान

2023 के शुरू होने से पहले तक कहा जा रहा था कि बौलीवुड खत्म हो गया. और अब बौलीवुड पर दक्षिण का कब्जा हो गया. लेकिन 4 साल से असफलता का दंश झेल रहे शाहरुख खान की फिल्म ‘‘पठान’’ 25 जनवरी 2023 को सिनेमाघरों में पहुंची और दूसरे ही दिन से सोशल मीडिया पर शोर मच गया कि बौलीवुड के सुनहरे दिन आ गए.

सिद्धार्थ आनंद के निर्देशन में बनी यह एक्शन थ्रिलर फिल्म वाईआरएफ के स्पाई यूनिवर्स की चौथी किस्त है, जिस में शाहरुख खान के अलावा दीपिका पादुकोण और जौन अब्राहम की मुख्य भूमिकाएं हैं, इस फिल्म में सलमान खान कैमियो में नजर आए.

एक्शन प्रधान, देशभक्ति व जासूसी फिल्म ‘‘पठान’’ की कहानी के केंद्र में रा एजेंट फिरोज पठान (शाहरुख खान) और पूर्व ‘रा’ अफसर जिम्मी (जौन अब्राहम) और पाकिस्तानी खुफिया एजंसी की जासूस डा. रूबैया मोहसीन (दीपिका पादुकोण) और पाकिस्तानी आईएसआई जनरल हैं.

फिल्म में शाहरुख खान का अभिनय नहीं जमा. दीपिका पादुकोण तो जिस्म की नुमाइश ही रकती रही. मगर इस के कुछ एक्शन सीन्स जरुर अच्छे हैं. 225 करोड़ करोड़ रुपये की लागत में बनी इस फिल्म ने बाक्स आफिस पर 543.05 करोड़ रुपए एकत्र किए. इस में कारपोरेट बुकिंग,बल्क बुकिंग और फैंस क्लब बुकिंग का ही सब से बड़ा योगदान रहा.अन्यथा थिएटर अंदर खाली पड़े हुए थे.

अफसोस ‘पठान’ के बाद प्रदर्शित फिल्में बाक्स आफिस पर धराशाही होती रहीं. इस के बाद 11 अगस्त 2023 को अनिल शर्मा निर्देशित फिल्म ‘गदर 2’ प्रदर्शित हुई. यह 2001 की फिल्म ‘गदर एक प्रेम कथा’ का सीक्वल है. पहली फिल्म तारा सिंह व सकीना की प्रेम कहानी थी. जबकि ‘गदर 2’ तो 1971 की पृष्ठभूमि में तारा सिंह व जीते यानी कि बाप बेटे की कहानी है.

पूरी फिल्म देख कर इस बात का भी अहसास होता है कि अनिल शर्मा ने इस फिल्म का निर्माण अपने बेटे उत्कर्ष शर्मा के कैरियर को संवारने के लिए बनाई, जिस में वह बुरी तरह से विफल रहे हैं. इस में कुछ राष्ट्रवादी व देशभक्ति के संवाद के अलावा कुछ एक्शन दृश्य हैं. सनी देओल पूरी फिल्म में छाए हुए हैं. सनी देओल,उत्कर्ष शर्मा और अमीषा पटेल के अभिनय से सजी यह फिल्म सर्फ 60 करोड़ रुपये में बनी और इसने भारतीय बाक्स आफिस पर 523.45 करोड़ रुपये एकत्र कर लिए.

इस फिल्म के सफलता की मूल वजह यह रही कि इस फिल्म में एक्शन के साथ ही राष्ट्रवाद व देशभक्ति का वह तड़का है, जिस से वर्तमान सरकार इत्तफाक रखती है. कहा जाता है कि इस फिल्म में कारपोरेट बुकिंग तो नहीं हुई, मगर एक खास विचारधारा के लोगों ने जरुर इस की टिकटें खरीद कर लोगों के बीच मुफ्त में बांटी.

जवान

फिल्म ‘‘पठान’’ से जिस तरह शाहरुख खान ने सफलता का स्वाद चखा था, उसी तरह उन्होने अपनी 7 सितंबर 2023 को प्रदर्शित फिल्म ‘‘जवान’’ के साथ किया. फिल्म ‘जवान‘ में शाहरुख खान ने बाप व बेटे की दोहरी भूमिका निभाई. एटली कुमार के निर्देशन में बनी यह फिल्म भारतीय सेना से ले कर किसानों तक की बात करती है. भ्रष्ट सिस्टम से प्रतिशोध की कहानियों पर कई फिल्में बन चुकी हैं. यह फिल्म भ्रष्ट सिस्टम की बात करते हुए जिस संघर्ष को जन्म देती हैं, उस में कुछ भी नवीनता नहीं है. यदि हम कला सिनेमा को नजरंदाज कर दें, तो भी राकेश ओम प्रकाश मेहरा (फिल्म ‘रंग दे बसंती’) या रेंसिल डिसिल्वा (फिल्म ‘उंगली’) से ले कर अब तक कई फिल्मकार इस तरह की कहानियां सशक्त तरीके से पेश करते आए हैं.

एटली उसी ढर्रे पर चलते हुए भ्रष्ट सिस्टम के खिलाफ संघर्ष के साथ ही चुनाव में वोट देने से पहले नेताओं से सवाल करने की बात करने वाली दो घंटे पचास मिनट लंबी अवधि की फिल्म ‘‘जवान’’ बना दी.

इस फिल्म ने कामयाबी में शाहरुख खान की ही फिल्म ‘पठान‘ को मात दे दी. 300 करोड़ रुपये के बजट में बनी इस फिल्म ने बाक्स आफिस पर 643.87 करोड़ रुपये एकत्र किए.

एनिमल

2023 की सर्वाधिक सफल फिल्मों में एक दिसंबर 2023 को प्रदर्शित संदीप रेड्डा वांगा निर्देशित अति सैक्स व हिंसा से भरपूर फिल्म ‘‘एनिमल’ रही. इस फिल्म में पहली बार अभिनेता रणबीर कपूर एकदम अलग अवतार में नजर आए. वह ‘अल्फा मैन’ के रूप में परदे पर जो कुछ किया, उस को ले कर विरोध के स्वर भी उठे. पर फिल्म ‘एनिमल‘ अभिनेता रणबीर कपूर के कैरियर की जबर्दस्त एक्शन फिल्म है. इस फिल्म में रणबीर कपूर के अलावा अनिल कपूर, बौबी देओल, रश्मिका मंदाना और तृप्ति डिमरी की मुख्य भूमिकाएं हैं. इस फिल्म से सब से ज्यादा फायदा तृप्ति डीमरी को ही हुआ. महज 100 करोड़ रुपये के बजट में बनी यह फिल्म का बाक्स आफिस पर 880.83 करोड़ रुपये कमा चुकी है.

यूं तो फिल्म ‘एनिमल’ की कहानी के केंद्र में पिता पुत्र का रिश्ता ही है मगर कहानी जरुरत से ज्यादा कन्फ्यूजन पैदा करती है. कहानी दिल्ली, केदारनाथ, अमरीका, स्काटलैंड से ले कर इंस्ताबुल तक फैली हुई है. पर दर्शक समझ नहीं पाता कि कब कहानी कहां से कहां पहुंच जाती है. लेखक व निर्देशक ने जानबूझकर सीधे कहानी पेश करने की बजाय कन्फ्यूजन पैदा करने का प्रयास किया है.

फिल्मकार ने ‘अल्फा मैन’ की परिभाषा बताते हुए नायक को सैक्स के प्रति दीवाना दिखाने के अलावा पतिपत्नी के आंतरिक संबंधो व सैक्स संबंधों पर जिस तरह के संवाद हैं, उन संवादों ने युवा पीढ़ी को आकर्षित किया,पर महिलाओं ने इस का विरोध भी किया.

फिल्म में अतिरंजित हिंसा व खूनखराबा के दृष्य भी हैं लेकिन फिल्म में रणबीर कपूर,अनिल कपूर और बौबी देओल का जबरदस्त अभिनय का रस भी है.

‘डंकी’ को नहीं मिला प्रतिसाद

सर्वाधिक आश्चर्य की बात यह रही कि ‘पठान’, ‘जवान’ और ‘एनिमल’ ने महज दो दिन के अंदर सौ करोड़ का आंकड़ा पार कर लिया था जबकि ‘गदर 2’ ने 3 दिन में सौ करोड़ का आंकड़ा पार किया था. शाहरुख खान ने जो तरकीब फिल्म ‘पठान’ व ‘जवान’ को सफल बनाने के लिए अपनाई, वही तरकीब उन्होने अपनी 22 दिसंबर को प्रदर्शित फिल्म ‘‘डंकी’’ के साथ भी लगाई और फिल्म के प्रदर्शन से 15 दिन पहले से ही सोशल मीडिया पर चिल्लाना शुरू कर दिया था कि यह फिल्म 3 दिन में ही हजार करोड़ कमा लेगी.

मगर सूत्रों के अनुसार शाहरुख खान ने जिस तरह से फिल्म ‘सालार’ को डुबाने का खेल रचा, उस से कारपोरेट नाराज हुआ और ‘डंकी’ की पहले दिन की एडवांस बुकिंग के बाद कारेपोेरट ने अपने हाथ पीछे खींच लिए. जिस के चलते ‘डकी’ को सफलता नसीब न हो सकी.

और्गन सेल पर रिस्ट्रिक्शन से माफिया के मजे

देश में हर साल हजारों मरीज हार्ट, किडनी या लिवर की बीमारी से मर रहे हैं. कितने लोगों का पूरा जीवन अंधकारमय ही रहता है क्योंकि नेत्रदान के लिए लोग सामने नहीं आते हैं. दूसरी तरफ अपराध की काली दुनिया में किडनी से ले कर कोख तक नाजायज तरीके से बिक रही है. गरीबों की मजबूरी का फायदा उठाने वाले अपराधी गिरोह बड़ेबड़े अस्पतालों में डाक्टर्स और नर्सों की मिलीभगत से लाखों रुपयों के वारेन्यारे कर रहे हैं. गरीब आदमी से चंद हजार रुपयों में किडनी या लिवर खरीद कर जरूरतमंद मरीज को लाखों रुपयों में बेचे जा रहे हैं. यह धंधा छोटेबड़े तमाम अस्पतालों में चल रहा है.

इसी तरह बच्चे की चाह रखने वाले युगल जोड़ों को अस्पतालों से नवजात बच्चे या किराए की कोख भी बड़ी कीमत चुका कर आसानी से मिल जाती है. दिल्ली के अनेक अस्पतालों में यह धंधा खुलेआम चल रहा है. कई गरीब औरतें बच्चे पैदा ही इसलिए कर रही हैं ताकि उन्हें ऊंचे दामों में उन विवाहित जोड़ों को बेच सकें जिन के पास औलाद नहीं है. इन अपराधों के फलनेफूलने की जिम्मेदार सरकार है जिस ने सेरोगेसी पर प्रतिबंध लगा कर और अनाथाश्रमों से बच्चे गोद लेने की प्रक्रिया को कानून के तहत इतना मुश्किल कर दिया है कि बच्चे की चाह रखने वाले लोग गलत रास्ता अपना कर अपने जीवन में बच्चे की कमी को पूरा कर रहे हैं.

अगर इन चीजों को लीगल कर दिया जाए और एक रेट तय कर दिया जाए तो शायद गरीब आदमी अपराधी तत्वों और डाक्टरों के हाथों शोषण से बच जाए. लोगों के दिमाग में यह बात भी होती है कि अपना कोई करीबी बीमार पड़े और उस को किसी अंग की जरूरत हो तो हम दे दें, मगर किसी अनजान को दान क्यों दें? लेकिन इसी व्यक्ति से अगर कहा जाए कि उस की एक किडनी या लिवर के एक छोटे से अंश के लिए सरकार ने रेट तय किया है तो वह खुशीखुशी अपना अंग बेचने को तैयार हो जाएगा. इस से बीच के दलालों को भी खत्म किया जा सकता है.

धर्म की वजह से अंगदान नहीं

लोग अंगदान के लिए इसलिए भी आगे नहीं आते हैं क्योंकि धर्म ने उन्हें अनेक भ्रांतियों में जकड़ रखा है. पूर्वजन्म और अगले जन्म की भ्रांति में फंसा आदमी सोचता है कि इस जन्म में यदि उस ने अपना कोई अंग दान किया तो अगले जन्म में उस को उस अंग के अभाव का सामना करना पड़ेगा. मैं यदि अपनी मृत्यु के पश्चात अपने अंगदान का फौर्म भर दूं तो शायद अगले जन्म में मेरे शरीर के वे अंग रोगग्रस्त रहें. ऐसी अनेक भ्रांतियां समाज में फैली हुई हैं जिन को किसी धर्मगुरु ने दूर करने की कोशिश नहीं की बल्कि स्वर्ग, नरक, दूसरा जन्म, दूसरी योनि जैसी आधारहीन बातों में उलझा कर उसे अंगदान जैसे महान कार्य से रोक कर रखा है.

अंगदान कर के किसी लाचार व्यक्ति की जिंदगी में जीवन की नई उम्मीद जगाने से ज्यादा संतोषप्रद कार्य कोई दूसरा नहीं है. अंगदान करने की उदारता और संवेदना व्यक्ति की महानता को प्रदर्शित करती है. इंसान की संपत्ति का कोई मतलब नहीं अगर उसे बांटा और उपयोग में न लाया जाए, फिर चाहे वह शरीर के अंग ही क्यों न हों.

मानवीय दृष्टि से हर इंसान परिपूर्ण शरीर और स्वस्थ अंगों के साथ जीवन जीने का अधिकारी है. किसी कारणवश या बीमारी की वजह से यदि कोई अंग बेकार हो जाए तो कई बार व्यक्ति अवसादग्रस्त हो जाता है अथवा मर जाता है. ऐसे में अंगदान से उस व्यक्ति का जीवन बचाया जा सकता है. इस पुनीत कार्य से खुद का जीवन भी सार्थक नजर आता है.

डोनर के इंतजार में मरीजों की मौतें

सिर्फ भारत में ही नहीं दुनिया भर में लाखों लोग शरीर के अंग खराब होने के चलते अकाल मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं. दुनिया भर के अंगदाताओं की संख्या की तुलना में अंगों की मांग काफी ज्यादा है. इसलिए हर साल कई मरीज डोनर के इंतजार में मर जाते हैं.

आंकड़े बताते हैं कि भारत में 2 लाख किडनियों की औसत वार्षिक मांग के मुकाबले केवल 6 हजार किडनियां प्राप्त होती हैं. इसी तरह, दिलों की औसत वार्षिक मांग 50 हजार है जबकि अस्पतालों को इस का केवल 15 फीसदी ही मिल पाता है.

ब्रेन स्टेम डेथ की स्थिति में एक व्यक्ति 8 अंगों को दान कर सकता है. अंगदान में किडनी, लिवर, छोटी आंत,कोर्निया, बोन, त्वचा और हृदय वाल्व शामिल हैं. इस स्थिति में एक ब्रेन डेड व्यक्ति के शरीर से 8-9 लोगों को जीवनदान मिल सकता है.

आज लिवर की बीमारी से बहुत बड़ी संख्या में लोग पीड़ित हैं. एक स्वस्थ व्यक्ति के लिवर का छोटा सा अंश दो व्यक्तियों को प्रत्यारोपित किया जा सकता है. लिवर की भांति पैंक्रियाज का भी आंशिक दान किया जाता है. दान देने वाले व्यक्ति का लिवर या पेन्क्रियाज कुछ ही दिन में फिर परिपूर्ण हो जाता है और दान पाने वाले व्यक्ति में भी ये दोनों अंग स्वयं को विकसित कर लेते हैं. लेकिन अफसोस की बात है कि इस दान के लिए लोग आगे नहीं आते. वहीं अगर उस को कुछ आर्थिक फायदा दिखे तो वह अवश्य अपने लिवर का छोटा सा अंश बेच देगा.

अंगों की खरीदफरोख्त एक अपराध

प्रत्यारोपित होने वाले अंगों में दोनों गुर्दे (किडनी), यकृत (लिवर), हृदय, फेफड़े, आंत और पेन्क्रियाज शामिल हैं. जबकि ऊतकों के रूप में कोर्निया, त्वचा, हृदय वाल्व कार्टिलेज, हड्डियों और वेसेल्स का प्रत्यारोपण होता है. आंख, पाचक ग्रंथि, आंत, अस्थि ऊतक, हृदय छिद्र, नसें आदि अंगों का भी दान किया जा सकता है. पूरे देश में अभी तक ज्यादातर अंगदान अपने परिजनों के बीच में ही हो रहा है यानी कोई व्यक्ति सिर्फ अपने रिश्तेदारों को ही अंगदान करता है क्योंकि अंगों की खरीदफरोख्त को अपराध माना जाता है. हालांकि यह अपराध निर्बाध गति से हो रहा है.

अब मान लें कि कोई व्यक्ति अकेला है, उस के पास ऐसा कोई नहीं है जो उस की शारीरिक कमी को दूर करने में उस की मदद कर सके और उस के पास लाखों रुपया भी नहीं है कि वह अंगों की खरीदफरोख्त करने वाले लोगों से जरूरी अंग खरीद पाए, ऐसे में अगर इस कार्य को लीगल कर दिया जाए तो जरूरतमंद व्यक्ति एक निश्चित धनराशि में किसी अंग बैंक से जरूरी अंग खरीद सकता है और अपनी पूरी जिंदगी जी सकता है.

अगर अंगों की कमी को दान से ही पूरा करवाने की मंशा सरकार की है तो इस दिशा में अब जबरदस्त जागरूकता फैलाने और लोगों को अंधविश्वास से बाहर निकालने की आवश्यकता है क्योंकि स्थितियां बहुत गंभीर हैं. अभी तक तो अनेक डाक्टर्स ही इस के लिए चिंता व्यक्त
करते थे मगर पिछले दिनों देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने भी अंगदान की आवश्यकता पर मार्मिक अपील की है. और्गन्स की अनुपलब्धता पर चिंता जताते हुए राष्ट्रपति ने कहा कि अंगदान के लिए बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान शुरू करने की जरूरत है. लिवर हमारे शरीर का सुरक्षा गार्ड है. हमारे देश में लिवर से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याएं बहुत गंभीर हैं और इन से होने वाली बीमारियों की बहुत बड़ी संख्या चिंता का कारण हैं.

अंगों की कमी के कारण लिवर, किडनी के अनेक मरीज प्रत्यारोपण से वंचित रह जाते हैं और असमय ही उन का देहांत हो जाता है. इस समस्या का समाधान करना एक जागरूक समाज की जिम्मेदारी है. अंगदान जीवन के लिए अमूल्य उपहार है. अंगदान उन व्यक्तियों को किया जाता है जिन की बीमारी अंतिम अवस्था में होती हैं और सिर्फ अंगदान ही जीवन बचाने का एकमात्र रास्ता बचता है.

गौरतलब है कि देश के विभिन्न अस्पतालों में सालाना सिर्फ अपने मरीज के लिए उन के रिश्तेदारों द्वारा लगभग 4000 किडनियां और 500 लिवर डोनेट किए जाते हैं जबकि भारत में प्रतिवर्ष 5 लाख लोग किडनी और लिवर का इंतजार करते हुए पलपल मौत की तरफ बढ़ रहे हैं.

मौजूदा समय में सिर्फ उत्तर प्रदेश में करीब 40 हजार मरीजों को किडनी ट्रांसप्लांट की और 15 हजार मरीजों को लिवर ट्रांसप्लांट की जरूरत है. मगर पूरे प्रदेश में हर साल महज 400 किडनी ट्रांसप्लांट हो पा रहे हैं जबकि लिवर ट्रांसप्लांट सिर्फ 35 से 40 मरीजों में हो रहा है.

जागरूकता जरूरी

समस्या को दूर करने के लिए अब ब्रेन डेड मरीजों के अंगदान को बढ़ावा देने की कोशिश शुरू हुई है मगर चींटी की चाल से. लोग अपने मृत परिजनों के अंगों को भी आधारहीन धार्मिक कारणों से दान करने को तैयार नहीं हैं जबकि हर साल उत्तर प्रदेश में सड़क दुर्घटना में करीब 22000 लोगों की मौत होती है. इस में ज्यादातर ब्रेन डेड होते हैं. ब्रेन डेड के बाद मरीज तो जीवित नहीं बचता मगर उस के शरीर के कुछ अंग कुछ घंटों के लिए जीवित रहते हैं. इन में से यदि सिर्फ एक फीसदी मरीजों के घरवालो को ही अंगदान के लिए राजी कर लिया जाए तो हर साल 440 मरीजों को किडनी और 220 मरीजों का लिवर ट्रांसप्लांट हो सकता है.

पीजीआई के स्टेट और्गन एंड टिश्यू ट्रांसप्लांट और्गेनाइजेशन के इंचार्ज डा. हर्षवर्धन कहते हैं कि 2015 से ले कर अब तक मात्र 32 ब्रेन डेड लोगों के घरवालों ने अंगदान किया है. इस तरह हर साल औसतन महज 4 डोनेशन हुए हैं जबकि ब्रेन डेड मरीज हर साल हजारों की संख्या में होते हैं. भ्रांतियों के कारण लोग अंगदान नहीं करते. वे सोचते हैं कि इस जन्म में शरीर का कोई अंग दे दिया तो अगले जन्म में शरीर में वह अंग नहीं होगा. कोई नहीं जानता कि कोई अगला जन्म होना भी है या नहीं. जबकि अंगदान की कमी से रोजाना देश में करीब 283 मौतें हो रही हैं.

अंगदान और प्रत्यारोपण मानव अंग प्रत्यारोपण अधिनियम (टीएचओए) 1994 के अंतर्गत आता है जो फरवरी 1995 से लागू हुआ था. इस अधिनियम के अनुसार अंगदान सिर्फ उसी अस्पताल में किया जा सकता है जहां उसे ट्रांसप्लांट करने की भी सुविधा हो. यह अपने आप में काफी मुश्किल नियम था. इस नियम से दूरदराज के इलाकों के लोगों का अंगदान तो हो ही नहीं पाता था.

इस समस्या को देखते हुए सरकार ने 2011 में इस अधिनियम को संशोधित किया. अब नए नियम के मुताबिक अंगदान किसी भी आईसीयू में किया जा सकता है अर्थात उस अस्पताल में ट्रांसप्लांट न भी होता हो लेकिन आईसीयू है तो वहां भी अंगदान किया जा सकता है. मगर समस्या का समाधान तब तक नहीं हो सकता जब तक लोगों में इस को ले कर जागरूकता पैदा न हो. अंगदान करने वालों की संख्या बढ़ाने के लिए अंगदान की आवश्यकता को जनता के बीच संवेदनशील बनाने की जरूरत है. हालांकि टीवी इंटरनैट के माध्यम से कुछ चेतना फैलाई जा रही है मगर यह अपर्याप्त है. इस के लिए लंबा रास्ता तय करना होगा और इस दौरान लाखों मरीज अंगों के इंतजार में दम तोड़ देंगे. इस से बेहतर है अंगों की खरीदफरोख्त को सरकार लीगल कर दे.

सैक्स पर बनी फिल्में : ‘ओ माय गौड’ व ‘थैंक यू फौर कमिंग’ भी पूर्वाग्रह का शिकार

‘ओ माय गौड – 2’ की एक आम मध्यमवर्गीय परिवार के किशोर विवेक ( आरुष शर्मा ) की है जो हस्तमैथुन को ले कर कुछ गलतफहमियों और तनाव का शिकार हो कर नीमहकीमों के चक्कर में पड़ जाता है . स्कूल के टौयलेट में जब वह हस्तमैथुन कर रहा होता है तो कुछ दोस्त उस का वीडियो बना कर वायरल कर देते हैं . स्कूल में उस की खिल्ली उड़ती है और घबराया विवेक आत्महत्या करने की कोशिश करता है.

विवेक के पिता कांति शरण मुदगल ( पंकज त्रिपाठी ) ऐसे में समझ से काम लेते हैं .यह समझ भी मानवीय न हो कर दैवीय होती है. हालांकि इस से फिल्म का इतना ही लेनादेना है कि यह शायद निर्देशक अमित राय की मजबूरी हो गई थी कि उन्हें शंकर के दूत के रूप में अक्षय कुमार को दिखाना पड़ा.

बेटे और परिवार को शर्मिंदगी से बचाने के लिए कांति शरण अदालत की शरण लेता है . फिल्म मनोरंजक ढंग से चलती रहती है और यह साबित हो जाता है कि मास्टरवेशन कोई पाप या गलती नहीं है बल्कि टीनएज की जरूरत है जिस के बारे में स्कूलों में पढ़ाया जाना चाहिए. सैक्स की अहमियत को दिखाने के लिए कामसूत्र और पंचतंत्र जैसे ग्रन्थों का भी हवाला फिल्म में दिया गया है .

मास्टरवेशन जरूरी है

‘ओ माय गौड ‘ की दूसरी खूबी यह है कि यह आज के लड़कों की कहानी है . हस्तमैथुन हालांकि हर दौर के किशोर करते रहे हैं लेकिन इसे ले कर डर यह बैठाल दिया गया है कि यह पाप है या फिर इस से कमजोरी आती है जिस के चलते युवा पत्नी को संतुष्ट नहीं कर पाते , खुद भी सैक्स का लुत्फ नहीं उठा पाते और इस से पेनिस का साइज छोटा हो जाता है वगैरहवगैरह . उलट इस के चिकित्सक और मनोवैज्ञानिक हस्तमैथुन को एक जरूरी सैक्स क्रिया मानने लगे हैं जिस से कोई नुकसान नहीं होता. यह सत्य भी है कि हस्तमैथुन अच्छे स्वास्थ की ही निशानी है.

इंटरनैट पर टीनएजर्स की सारी समस्याओं का हल नहीं मिलता. खासतौर से हस्तमैथुन को ले कर आज का युवा भी डर और गलतफहमियों का शिकार है. ‘ओ माय गौड’ फिल्म पेरेंट्स की भूमिका भी तय करती हुई है कि उन्हें बच्चों की यौन समस्याओं और जिज्ञासाओं को ले कर क्या रवैया अपनाना चाहिए. इस फिल्म में सेंसर ने 27 कट लगाए थे और पंडेपुजारियों ने भी एतराज जताया था कि इस से देवताओं की इमेज खराब होती है.

पर तमाम झंझटों से परे सुकून देने वाली इकलौती बात यह थी कि एक महत्त्वपूर्ण विषय पर पहली बार फिल्म बनी , नहीं तो सैक्स पर फिल्में बनाने से बौलीवुड कतराता ही है क्योंकि इस में जोखिम ज्यादा है और मुनाफा कम. पहला डर तो विरोध का ही रहता है कि क्या पता कब कौन सा धार्मिक या नैतिकता का पैरोकारी संगठन सड़कों पर आ कर हायहाय करने लगे कि देखो हमारी संस्कृति पर हमला हो रहा है. ‘ओ माय गौड’ में तो उसी धर्म और संस्कृति के हवाले से बात कही गई है कि सैक्स कोई वर्जित या अछूत विषय नहीं है.

मोक्ष जैसा और्गेज्म

इस साल सैक्स पर प्रदर्शित दूसरी फिल्म ‘थैंक यू फौर कमिंग’ थी. इस की निर्माता एकता कपूर और निर्देशक करण बुलानी ने भी अहम मुद्दा महिलाओं में और्गेज्म का उठाया था. फिल्म की नायिका 30 वर्षीय कनिका कपूर (भूमि पेडनेकर) और्गेज्म महसूस करने के लिए कई पुरुषों से सहवास करती है. आमतौर पर कनिका शराब के नशे में धुत रहती है और किसी मर्दखोर औरत जैसे और्गेज्म महसूस करने के लिए हर किसी से सहवास करने के लिए तैयार रहती है.

एकता कपूर अपनी बोल्डनैस के लिए बदनाम हैं लेकिन वह इस की चिंता नहीं करतीं. ‘थैंक यू फौर कमिंग’ के विषय पर भी वे आलोचना का शिकार हुई . इस बार तो साफसाफ लगा कि वे मीडियाई बहिष्कार का भी शिकार हो चली हैं .फिल्म समीक्षकों ने विषय की तो नहीं की लेकिन उस के प्रस्तुतीकरण की जम कर छिलाई की कि वह भारतीय समाज से मेल नहीं खाता और कोई हिन्दुस्तानी औरत ऐसा नहीं कर सकती जैसा कि फिल्म में नायिका कनिका को दिखाया गया है.

असल में फिल्म में कुछ ऐसा था नहीं जिस पर एतराज जताया जाए या जो वास्तविकता में न होता हो. लाख टके का सवाल महिलाओं का और्गेज्म को महसूस करना न करना है जिस पर विकट का विरोधाभास है. अभिजात्य वर्ग में इस को ले कर असमंजस है लेकिन कोई निष्कर्ष नहीं है . गोया कि और्गेज्म कुछकुछ मोक्ष जैसा हो चला है जो है भी और नहीं भी है.

एकता कपूर ने भी सटीक विषय हस्तमैथुन की तरह उठाया लेकिन फिल्म अपनी लागत भी नहीं वसूल पाई जबकि ‘ओ माय गौड’ ने ठीकठाक बिजनैस कर लिया था. ‘थैंक फौर कमिंग’ का हश्र बताता है अभी भी हम सैक्स पर बनी फिल्मों को सहज नहीं स्वीकार पा रहे हैं क्योंकि हम अपनी परम्पराओं और रूढ़ियों के गुलाम हैं. हमारी रोजमर्राई जिन्दगी भी धर्म से नियंत्रित और संचालित होती है जिस में स्त्री की छवि ऐसी नहीं है कि वह सम्पत्ति की तरह यौनाधिकार भी मांग सके . उसे तो अपनी यौन इच्छाएं जाहिर करने का हक नहीं और जिन्हें है वे समाज का बहुत छोटा सा हिस्सा हैं.

सैक्स फिल्मों का अतीत भी अच्छा नहीं

इन दोनों फिल्मों की तरह पहले भी सैक्स पर फिल्में बनी हैं लेकिन ज्यादा चल नहीं पाई क्योंकि सैक्स के प्रति धार्मिक सामाजिक और पारिवारिक पूर्वाग्रह ज्यों के त्यों हैं. हौलीवुड में सैक्स पर बनी फिल्मों की मिसाल दी जाती है जबकि बौलीवुड की सैक्स फिल्मों को समीक्षक फिल्म ही नहीं मानते. हर कोई चाहता है कि आप सैक्स की जानकारियां मस्तराम छाप किताबों से ले कर पोर्न साइट्स पर ढूंढते रहें जहां कचरा ज्यादा मिलता है. सैक्स एजुकेशन गाहेबगाहे चर्चा का विषय रह गया है जो किसी बड़े सैक्स क्राइम के बाद ज्यादा याद आता है. लेकिन सहमति जताने से तब भी समाज के ठेकेदार डरते हैं.

70 के दशक में गुप्त ज्ञान को प्रगट करती कुछ फिल्में बनी थीं जो निचले दर्शक की उत्तेजना का विषय हो कर रह गईं थीं बौक्स औफिस पर सफलता इन्हें भी नहीं मिल पाई थी. मध्यमवर्गीय तब ऐसी फिल्मों के पोस्टर देखने से भी घबराता था. चोरीछिपे सीमित साधनों से जो मिल जाए उसे ही ज्ञान समझ ग्रहण कर लिया जाता था.

सैक्स पर बनी एक अहम फिल्म गुप्त ज्ञान साल 1974 में प्रदर्शित हुई थी जिसे साकिब पेंड्रर ने निर्देशित किया था. फिल्म में कहानी के नाम पर कुछ खास नहीं था और हिम्मत जुटा कर जो दर्शक थिएटर तक पहुंचे भी थे उन्हें उम्मीद के मुताबिक गरमागरम दृश्य और ज्ञान नहीं मिला था, फिल्म में दो ही जाने माने चेहरे थे कादर खान और भरत कपूर. यह फिल्म पैसा इकट्ठा नहीं कर पाई तो निर्माताओं को सैक्स आधारित फिल्में बनाना रिस्की लगने लगा.

इस के दस साल बाद सलीके की फिल्म ‘उत्सव’ रिलीज हुई जो एक क्षत्रिय राजा शूद्रक के नाटक मृच्छकटिकम पर आधारित थी. इस में अमजद खान ने सूत्रधार का रोल निभाया था. शशि कपूर रेखा, नीना गुप्ता, अनुपम खेर, कुलभूष्ण खरबंदा, अन्नू कपूर और शेखर सुमन जैसे मझे और सधे कलाकारों से सजीधजी इस कलात्मक और एतिहासिक फिल्म का निर्देशन गिरीश कर्नाड ने किया था. उत्सव वर्ग विशेष यानी अभिजात्य दर्शकों में सिमट कर रह गई थी लेकिन सैक्स को ले कर कुछ मैसेज तो इस में थे.

साल 1996 में आई फिल्म ‘कामसूत्र’ से भी दर्शक निराश ही हुए थे इस फिल्म की कहानी मीरा नायर ने लिखी थी. रेखा के अलावा कोई पहचाना चेहरा इस फिल्म में भी नहीं था. इस के एक साल बाद ही रेखा की ही एक और फिल्म ‘आस्था’ रिलीज हुई थी जिस में ओम पुरी उन के अपोजिट थे . फिल्म एक पत्नी की यौन जिज्ञासाओं और फोर प्ले पर आधारित थी जिस के कलात्मक अनुभव नायिका मानसी को एक धनाड्य पुरुष से मिलते हैं यह भूमिका नवीन निश्छल ने निभाई थी.

इस के बाद अनियमित अन्तराल से सैक्स पर फिल्में प्रदर्शित होती रहीं लेकिन उन के विषय थोड़े अलग थे और कई फिल्मों को सेंसर बोर्ड ने पास नहीं किया. मसलन ‘कामसूत्र 3 डी’ शर्लिन चोपड़ा द्वारा अभिनीत यह फिल्म यू ट्यूब पर उपलब्ध है. इसी तरह शबाना आजमी अभिनीत ‘फायर’ को भी सेंसर बोर्ड ने पास नहीं किया था जो अब ओटीटी प्लेटफौर्म पर देखी जा सकती है. जौन अब्राहम की ‘वाटर’ का भी यही हश्र हुआ था.

ऐसे में ‘ओ माय गौड’ और ‘थैंक यू फौर कमिंग’ फिल्में उम्मीद तो जगाती हैं कि सैक्स एजुकेशन का मुद्दा अभी सुनहरे परदे से गायब नहीं हुआ है और ऐसी फिल्मों को समीक्षकों से ज्यादा दर्शकों के प्रोत्साहन की जरूरत है.

रील्स मार रहीं हैं गानों की मधुरता, फैल रहा है नंगापन

सोशल मीडिया पर रील्स तेजी से पौपुलर हो रही हैं. यह बिजनैस का भी टूल्स बन गया है. इंस्टाग्राम, फेसबुक और यूट्यूब पर रील्स सब से अधिक ट्रैंड हो रही हैं. कई बड़े सोशल ब्रांड इस प्लेटफौर्म पर डैवलप हुए हैं. रील्स से लोग की कमाई हो रही है. क्रिकेट सुपरस्टार विराट कोहली एक इंस्टाग्राम पोस्ट से लगभग 9 करोड़ रुपए कमाते हैं. दुनियाभर में इंस्टाग्राम के एक्टिव यूजर्स की संख्या 2 अरब है. भारत में ये 32 करोड़ रुपए के आसपास है. सोशल मीडिया की बढ़ती पहुंच के चलते रील्स लोकप्रिय हो रही हैं.

सोशल मीडिया पर तमाम इंफ्लुएंसर्स हैं जिन का काम लोगों का प्रचार कर के पैसा कमाना होता है. इस वजह से रील्स के जरिए इंफ्लुएंसर्स पहले अपने फौलोअर्स बढ़ाते हैं, इस के बाद पैसा कमाते हैं. इंफ्लुएंसर्स रील्स के अलावा फोटो, वीडियो और स्टारी पोस्ट कर के प्रचार का काम करते हैं. स्टोरीज 24 घंटे तक ही लाइव रहती है. रील्स के लिए नौर्मल म्यूजिक के अलावा ट्रेंडिंग म्यूजिक का सहारा भी लिया जाता है. यह आजकल सब से अधिक पौपुलर है.

सोशल मीडिया पर रील्स बना कर फेमस हो रहे लोगों के लिए कमाई का जरिया खुल जाता है. यही वजह है कि छोटेछोटे गांवकस्बे के लड़केलड़कियां रील्स बनाते रहते हैं.

रील्स के जरिए रातोंरात फेमस हो कर इंफ्लुएंसर्स की कैटेगरी मिल जाती है. इस के बाद प्रचार करने के बदले पैसा मिलता है. सैक्स, बोल्ड विषय, गालियां, देहाती कहावतें, स्ट्रीट फूड और मोटिवेशनल स्पीच भी रील्स में खूब पसंद की जाती हैं. रातोंरात फेमस होने की चाह में संगीत की आत्मा मर रही है.

म्यूजिक के साथ है रील्स का गहरा रिश्ता

20 सैकंड से ले कर 50 सैकंड में ही रील्स का सफर खत्म हो जाता है. इस से मुखड़े भले ही फेमस हो जाएं लेकिन गीत और संगीत की आत्मा खत्म हो जाती है. इस की वजह यह है कि गानों का मजा उस के पूरी सुनने में होता है. गाने लिखने वाला पहले गाना लिखता है इस के बाद संगीतकार उस को धुन देता है तब गायक गाता है. इस के बाद उस का फिल्माकंन होता है. यह काम पूरे इत्मीनान और तैयारी से होता है. गाने पर डांस करने वाले को भी कोरियोग्राफर स्टेप्स सिखाता है. तब उस डांस की शूटिंग होती है. इस के बाद दर्शकों तक पहुंचता है. तो गाने और डांस दोनों को देख कर मजा आता है.

रील्स में यही काम अचानक होता है. 5 से 7 मिनट तक के गाने को 20 से 50 सैकंड में समेट दिया जाता है. इतने कम समय में गाने की पहली लाइन ही आ पाती है. म्यूजिक भी केवल एकदो लाइन का ही हो पाता है. रील्स में न पूरा गाना सुनाई देता है और न ही म्यूजिक समझ आता है. इस से गीत, संगीत और एक्टिंग तीनों की आत्मा मर रही है.

मोबाइल में सिमट गई पूरी दुनिया में अचानक सब कुछ रिकौर्ड हो जाता है. सोशल मीडिया पर गाने और म्यूजिक दोनों मिल जाते हैं. आधेअधूरे डांस कर के तैयार रील्स को सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दिया जाता है. देखने वाले भी इस आधेअधूरे मैटेरियल को खुश हो कर देखते हैं, जिस के बाद म्यूजिक ट्रेंडिंग में जाता है.

नए गायक ले रहे रील्स का सहारा

रील्स में वैसे तो हर तरह के गाने आ रहे हैं. सब से ज्यादा सुने जाने वाले गानों में पंजाबी और भोजपुरी गाने हैं. लोकगीतों को ज्यादा पसंद किया जा रहा है. यह लोगों की समझ में आ जाते हैं और थिरकने के लिए मजबूर कर देते हैं. नए गायक कलाकार अपने गानों के प्रचार के लिए रील्स का सहारा लेते हैं. रील्स के ट्रेंडिंग यानी वायरल होने पर गाने भी सुने जाने लगते हैं. इन की रीच मिलियंस में होती है. इस के बाद यह गाने गायक की कमाई का जरिया बन जाते हैं.

रील्स के साथ सब से बड़ी बात यह होती है कि देखने वाले को अगर लत लग गई तो वह जब देखना शुरु करता है तो उसे छोड़ना मुश्किल हो जाता है. एक के बाद दूसरी रील स्क्रोल कर के आगे बढ़ाई जाने लगती है. जिस तरह के गाने वाली रील्स को ठहर कर देखते हैं सोशल मीडिया आप की पसंद समझ कर उसी तरह की रील्स दिखाने लगती है. दर्शकों को पसंद आने वाली खूबियों के बीच रील्स गीत, संगीत और एक्टिंग की आत्मा को मारने का काम कर रही है. वायरल होने वाली खूबियों के बीच इस के नुकसान अभी समझ नहीं आ रहे हैं.

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रिश्वत पर फैसला

किसी मैडिकल, मैनेजमैंट या इंजीनियरिंग कालेज में सीटें पाने के लिए बिचौलियों को अगर मोटी रकम दी गई हो और काम न बनने पर उन से पैसा वापस मांगा जाए तो कम से कम देश का कानून तो साथ न देगा. दिल्ली उच्च न्यायालय ने साफ कर दिया कि औल इंडिया इंस्टिट्यूट औफ मैडिकल साइंसेस में सीट दिलवाने के लिए दिए गए पैसों के लिए अदालत का दरवाजा नहीं खटखटाया जा सकता क्योंकि ये सीटें बिकाऊ नहीं हैं और देने वाले ने खुद गैरकानूनी काम किया है.

कानून की बारीक दृष्टि से देखें तो यह फैसला सही है पर इस फैसले का मतलब यह भी है कि सपने दिखा कर लूटने वालों की हिम्मत और आगे बढ़ जाएगी. देशभर में पैसा ले कर काम करने की संस्कृति हमारी ‘शान’ है और इस को लोग इतना ज्यादा मानते हैं कि जब तक कोई बिचौलिया न हो जो पैसा मांगे, उन्हें लगता है कि जो काम हुआ है उस में कहीं कुछ गढ़बढ़ रह गई है शायद.

सरकारों ने कानूनों का जाल बुन रखा है और अच्छी चीज का अभाव पैदा कर रखा है. इस के चलते ही लोगों की मानसिकता यह हो गई है कि ‘पैसा दो, काम कराओ’ की संस्कृति धर्म और संविधान की दी हुई है. इस के बिना पत्ता तक नहीं हिलेगा. विधानसभा, लोकसभा के चुनावों में टिकट से ले कर पानी के कनैक्शन तक सब जगह ऊपरी पैसों का लेनदेन होता है.

उच्च न्यायालय ने अगर फैसला दूसरी तरफ दिया होता कि, बेईमान द्वारा पैसा ले कर सीट न दिलवा पाने पर उसे पैसा वापस करना चाहिए, तो इस फैसले का सहारा ले कर दूसरे भुक्तभोगी सैकड़ों रिश्वतखोरों के खिलाफ ऐक्शन ले पाते. रिश्वतखोरों को भी मालूम होता कि काम न होने पर उन्हें कोर्ट में घसीटा जा सकता है और कहीं मामला साबित हो गया तो वही दुर्दशा होगी जो भ्रष्टाचार निरोधक कानूनों के अंतर्गत होती है.

जनता की इस चाहत में कोई बुराई नहीं है कि उस का काम हो जाए चाहे प्राइमरी स्कूल में एडमिशन हो या ठेका दिलवाना. इसे रोकना असंभव है. इसे तो अब ढीलेढाले कानूनी फंदे में फंसा कर ही रोका जा सकता है. उच्च न्यायालय ने अगर 30 लाख रुपए ले कर की एम्स की सीट न दिलवाने पर पैसे दिलवा दिए होते तो आगे से बेईमानों का धंधा कम हो सकता था.

यह सोचना तो बेकार है कि इस देश में भ्रष्टाचार पर कभी रोक लगेगी. हमारी संस्कृति ही मुक्त का खाने की है. हर पूजापाठ में दानदक्षिणा देना अनिवार्य है और पूजापाठ करने वालों को हम सिर पर बैठा कर रखते हैं. प्रधानमंत्री से ले कर बेघर तक सब पूजापाठ करते दिख जाएंगे जिन में बिना काम की गारंटी के दानदक्षिणा देना अनिवार्य है. जैसे मंदिरों में अब तख्तियां लग गई हैं कि कितने पैसों में कौन सी पूजा होगी वैसे ही हर जगह रिश्वत दरें तय हैं. बस, तख्ती नहीं लगी. उच्च न्यायालय इस मौके को इस्तेमाल कर के रिश्वत को मंदिरों की तरह विधिक रूप दे सकता था.

मेरा बेटा सुन और बोल नहीं पाता है, ऐसे में क्या कोल्कियर इंप्लांट कराना फायदेमंद होगा ?

सवाल

मेरा 2 साल का बेटा न तो सुन पाता है और न ही बोल पाता है. हम ने अपने फैमिली डाक्टर और दूसरे 2-3 डाक्टरों से बातचीत की, लेकिन उन की राय है कि वह जन्म से ही बधिर है. अत: उस की सुनने की शक्ति सामान्य बना पाना मुश्किल है. पिछले दिनों मैं ने अखबार में कोक्लियर इंप्लांट के बारे में पढ़ा. उस से कुछ उम्मीद जागी. क्या मेरे बेटे को कोक्लियर इंप्लांट से लाभ मिल सकता है? उस के लिए हमें क्या करना चाहिए? कोक्लियर इंप्लांट लगवाने पर कितना खर्च आता है? क्या यह सुविधा सरकारी अस्पतालों में भी उपलब्ध है?

जवाब

आप अपने बेटे को किसी बड़े सरकारी अस्पताल के ईएनटी विभाग में विस्तार से जांच कराएं. जब तक बच्चे के कानों की अंदरूनी जांच ठीक से नहीं हो जाती और यह स्पष्ट नहीं हो जाता कि दोष कान के किस भाग में है और यह दोष किस किस्म का है, यह कह पाना मुश्किल है कि उस के लिए कौन सा इलाज फायदेमंद साबित होगा.

दरअसल, हमारे कान देखने में चाहे बिलकुल ठीक नजर आते हों, पर उन की अंदरूनी बनावट खासी जटिल होती है. मोटे तौर पर प्रत्येक कान 3 हिस्सों में बंटा होता है. बाहरी कान जो कान का चौड़ा बाहर से दिखने वाला हिस्सा है, जिस से

1 सुरंगनुमा नली अंदर मध्य कान की ओर जाती है, इस नली के अंदरूनी सिरे पर कान का परदा होता है जिस के अंदर मध्य कान स्थित होता है. इस में 3 छोटीछोटी हड्डियां होती हैं. बाहरी कान तक आने वाली ध्वनितरंगें उस की सुरंगनुमा नली से होती हुई कान के परदे तक पहुंचती हैं और मध्य कान की हड्डियों में कंपन पैदा करती हैं. ये कंपन तरंगें इन हड्डियों के माध्यम से अंदर सटे अंदरूनी कान के चक्राकार कोक्लियर के नाजुक रोमों में पहुंच जाती हैं. कोक्लियर इन कंपन तरंगों को विद्युत सिग्नल्स में बदल देता है, जिन्हें श्रुति तंत्रिका मस्तिष्क के श्रुति केंद्र में पहुंचा देती है. यह श्रुति केंद्र इन सिग्नल्स का विश्लेषण कर उन्हें तरहतरह की ध्वनियों में बदल देता है, जिस से हम ध्वनि लोक का सुख उठा पाते हैं.

जिन बच्चों में कोक्लियर का दोष होता है, उन में नया कोक्लियर नुमा यंत्र सर्जरी से रोपित करने से सुनने की शक्ति सामान्य या लगभग सामान्य बनाई जा सकती है.

कई बच्चों में कोक्लियर का यह दोष जन्म से ही होता है. बच्चा जिस वक्त मां के पेट में होता है, उस वक्त मां को हुआ खसरा, जौंडिस, दूसरा कोई इन्फैक्शन, जन्म के समय बच्चे की सांस भिंचने से हुई क्षति या बच्चे के प्रैगनैंसी के 7वें/8वें महीने में जन्म लेने और उस के बाद लंबे समय तक इंक्यूबेटर में रहने से यह विकार जन्म ले सकता है. कुछ मांएं बच्चे के पेट में होते हुए गलत दवा ले लेती हैं. उस से भी यह परेशानी उपज सकती है. कुछ परिवारों में यह समस्या वंशानुगत भी पाई जाती है.

यह जांचने के लिए कि बच्चे को कौन सा श्रुति दोष है, कई प्रकार के उन्नत टैस्ट किए जाते हैं, जिन में बाहरी कान से ले कर अंदरूनी कान के सभी अंग, श्रुति तंत्रिका और मस्तिष्क के श्रुति केंद्र की भलीभांति जांच हो जाती है. साथ ही कान के तमाम हिस्सों और मस्तिष्क की रचना की जांच के लिए सीटी स्कैन और एमआरआई भी की जाती है. बच्चे का आईक्यू भी जांचा जाता है.

उपयुक्त मामलों में पहले बच्चे को हियरिंग एड लगाई जाती है. जिन बच्चों में उस से बात नहीं बनती और 6 महीने तक भी कोई लाभ नहीं दिखता उन में कोक्लियर इंप्लांट का औपरेशन करने का फैसला लिया जाता है.

भारत में कोक्लियर इंप्लांट की कीमत 6 से 12 लाख के बीच है. प्राइवेट अस्पतालों में इस से जुड़े औपरेशन पर अलग से लगभग 1 लाख खर्च होते हैं. फिर स्पीच थेरैपी और दूसरी चीजों का खर्च अलग से उठाना पड़ता है. कुल मिला कर यह काफी महंगा सौदा है.

पर यदि आप दिल्ली या दिल्ली के आसपास रहते हैं, तो आप केंद्र सरकार के सफदरजंग अस्पताल में यह पूरा इलाज बहुत कम लागत पर करवा सकती हैं. अस्पताल के ईएनटी विभाग में बिलकुल हाल में ही यह व्यवस्था विकसित की गई है, जिस में बच्चे की जांच, कोक्लियर इंप्लांट, सर्जरी सभी नि:शुल्क उपलब्ध कराए जा रहे हैं और मात्र विशिष्ट स्पीच थेरैपी की सुविधा उपलब्ध न होने से उस का खर्च मातापिता को वहन करना पड़ता है. आप चाहें तो अधिक जानकारी के लिए सफदरजंग अस्पताल के ईएनटी विभाग की विभागाध्यक्ष डा. गुल मोतवानी या डा. तिलकराज सिंह से संपर्क कर सकती हैं.

कैसे फैलता है मलेरिया ? जानें बचाव के उपाय

मलेरिया पैरासाइट एक सूक्ष्म जीव है जिसे प्लाजमोडियम के नाम से जाना जाता है और यह प्रोटोजोन्स के नाम से जाने जाने वाले छोटे जीवों के एक समूह से जुड़ा है.

मलेरिया खून की एक बीमारी है जो प्लाजमोडियम पैरासाइट के कारण होती है. यह एक खास तरीके के मच्छर के जरिए एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलती है. यह गंभीर बीमारी है, कभीकभी यह बहुत घातक साबित होती है. यह एक ऐसे संक्रमित मच्छर के काटने से पैदा होती है जो अपनी लार में मलेरिया पैरासाइट को ले कर चलता है.

यह पूरी तरह रोकथाम और इलाज योग्य मच्छरजनित बीमारी है. मलेरिया के संदिग्ध रोगी का इलाज जल्द से जल्द मैडिकल निगरानी में किया जाना चाहिए. अगर किसी में मलेरिया की पुष्टि होती है तो उस का इलाज बहुत जरूरी है.

सामान्य तौर पर इस का इलाज किसी अयोग्य व्यक्ति से नहीं कराया जाना चाहिए. कभी भी मलेरिया होने पर ओझा, गुनिया, तांत्रिक या भगतों के पास न जाएं. इलाज के दौरान दवाएं बीच में छोड़ना खतरनाक हो सकता है. इस के अलावा खाली पेट मलेरिया की दवाएं नहीं खानी चाहिए.

मलेरिया पैरासाइट एक सूक्ष्म जीव है जिसे प्लाजमोडियम के नाम से जाना जाता है और यह प्रोटोजोन्स के नाम से जाने जाने वाले छोटे जीवों के एक समूह से जुड़ा है. मच्छर की वह प्रजाति जो मलेरिया पैरासाइट को ढोने का काम करती है, एनोफिलीज कहलाती है. इसे मलेरिया वेक्टर्स कहा जाता है. यह एनोफिलीज मच्छर खासकर सुबह व शाम के वक्त काटता है. बरसात के मौसम के दौरान और उस के ठीक बाद यह चरम पर होता है. यह उस समय भी पैदा हो सकता है जब कम प्रतिरोधक क्षमता के लोग मलेरिया के फैलाव वाले सघन क्षेत्रों में जाते हैं. 

मलेरिया एक तेज बुखार वाला रोग है. संक्रमित मच्छर के काटने के बाद एक गैरप्रतिरोधक क्षमता वाले इंसान में इस के लक्षण 7 दिनों के बाद या फिर उस से ज्यादा (आमतौर पर 10 से 15 दिन) दिनों में जाहिर होते हैं. इस में बुखार, सिरदर्द, ठंड लगना, थकान और उल्टी हो सकती है लेकिन मलेरिया के तौर पर इस की पहचान कर पाना मुश्किल हो सकता है. मलेरिया से ग्रसित लोग अकसर फ्लू की बीमारी का अनुभव करते हैं. गंभीर मलेरिया से ग्रसित बच्चे में एक के बाद एक ये लक्षण जल्दीजल्दी आते हैं. गंभीर एनीमिया, पाचन अम्लरक्तता के चलते श्वसन तंत्र में तनाव या फिर सेरिब्रल मलेरिया. अगर 24 घंटे के भीतर इस का इलाज नहीं हो पाया तो गंभीर संकट पैदा हो सकता है. यह गंभीर बीमारी अकसर मौत का कारण बन जाती है.

कैसे फैलता है मलेरिया

जब मच्छर किसी इंसान की त्वचा से खून चूसता है तो ये परजीवी शरीर में दाखिल हो जाते हैं और फिर ये परजीवी लिवर में पहुंच जाते हैं और वहां ये अपनी संख्या बढ़ाने लगते हैं और 8-10 दिन बाद जब ये बड़े हो जाते हैं तब ये लाल रक्त कोशिकाओं में पहुंच कर तेजी से हमला कर संख्या भी बढ़ाना शुरू कर देते हैं और अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर देते हैं.

काटने से बचने के उपाय

  • ऐसी जगहों पर खड़े हों जहां दरवाजों व खिड़कियों पर स्क्रीनिंग हो. अगर यह संभव नहीं है तो इस बात को सुनिश्चित करें कि दरवाजे और खिड़कियां ठीक से बंद हैं.
  • एक ऐसी मच्छरदानी के नीचे सोएं जिस को कीटनाशक के साथ धोया गया हो.
  • नींद के समय अपनी त्वचा पर कीट से बचाने वाली क्रीम का इस्तेमाल करें.
  • हाफपैंट की जगह ढीलेढाले लंबे पतलून और लंबी आस्तीन की शर्ट पहनें. खासकर शाम को और रात में ऐसा करें जब मच्छर भोजन करना पसंद करते हैं.
  • अवरुद्ध गटर और सड़क की नालियों को साफ कर मच्छरों की आबादी को कम किया जा सकता है. इस के अलावा, अपने यार्ड को पानी के खड़े कंटेनरों से मुक्त रखें.
  • कचरा, टिन, बोतलें, बालटी या फिर घरों के चारों ओर बिखरा हुआ कोई भी पदार्थ हटा कर उसे लैंडफिल में डाल दिया जाना चाहिए.
  • कारखानों और गोदामों में पैदा स्क्रैप सामग्री को हटाए जाने तक उचित तरीके से स्टोर किया जाना चाहिए.
  • मच्छरों को मारने की दवा का छिड़काव किया जाना चाहिए.

स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार हर साल दुनियाभर में लगभग 30 करोड़ लोग मलेरिया की चपेट में आते हैं और करीब 20 लाख लोगों को यह बीमारी जानलेवा लगती है. जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट की मानें तो मात्र 2013 में ही 19 करोड़ 80 लाख इस बीमारी की जद में आए जबकि इस में 80 प्रतिशत बच्चे थे. दुनिया के करीब 100 से भी ज्यादा मुल्कों में यह बीमारी फैली है.

ऐसे में इसे महामारी बनने से रोकने का यही तरीका है कि इस बीमारी को ले कर ज्यादा से ज्यादा जागरूकता फैले. मौजूदा दौर में मलेरिया या फिर किसी दूसरे इंसानी पैरासाइट को रोकने के लिए कोई लाइसैंस वाला टीका नहीं है. मलेरिया की प्रगति का पीछा करना मलेरिया नियंत्रण के रास्ते में सब से बड़ी चुनौती है. 

मलेरिया के स्थायी उपचार के लिए अरसे से टीके विकसित करने के प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन अब तक अपेक्षित सफलता हासिल नहीं हुई. पहला प्रयास 1967 में चूहे पर किया गया था जिसे जीवित किंतु विकिरण से उपचारित बीजाणुओं का टीका दिया था. इस की सफलता दर 60 फीसदी थी. शुरुआती उत्साह के बाद यह सफलता दर 30 फीसदी नीचे आने से यह प्रयोग विफल मान लिया गया. बहरहाल, जब तक इस का टीका नहीं खोज लिया जाता तब तक सावधानी व सही उपचार ही कारगर है.

(लेखक प्राइमस सुपर स्पैशियलिटी हौस्पिटल, नई दिल्ली के इंटरनल मैडिसिन विभाग में सीनियर कंसल्टैंट हैं.)

मंदिरों का धंधा नए साल में भी चमका

25 दिसंबर के पहले से ही एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होना शुरू हो गया था जिस में माथे पर बड़ा सा तिलक लगाए एक सवर्ण सा दिखने वाला पति अपनी पत्नी को हड़का रहा है कि तुम लोग जिस तरह नया साल मनाने की बात कर रही हो वह पाश्चत्य है, ऐयाशीभरा है, लोग आधी रात को नशे में धुत रहते हैं. कौन किस की बांहों में पड़ा है, पता भी नहीं चलता. नया साल तो हम सनातनी हिंदू गुडी पडमा को सलीके और विधिविधान से मनाते हैं.

कैसे मनाते हैं, यह भी गुस्साया पति बता रहा है कि सुबह उठ कर ईश्वर का ध्यान करते हैं, फिर मांबाप को प्रणाम करते हैं, पूजापाठ करते हैं, गौमाता को चारा खिलाते हैं और फिर मंदिर जाते हैं. सनातनी पति हिंदू नववर्ष की तारीफों में कसीदे गढ़ते कुछ फुजूल की दलीलें भी देता है कि इन दिनों में ऋतु परिवर्तन होता है, मन में उल्लास रहता है, यह होता है वह होता है वगैरहवगैरह.

हिंदू एक जनवरी को नया साल मनाना बंद कर दें, ऐसी कोशिशों ने पिछले 15-20 सालों में ज्यादा जोर पकड़ा लेकिन जब वे नहीं माने तो धर्म के दुकानदारों और ठेकेदारों ने उन का रुख मंदिरों की तरफ मोड़ना शुरू कर दिया कि कोई बात नहीं, जब 1 जनवरी को ही मनाना है तो नया साल मंदिरों में मनाओ. वहां पूजापाठ करो, यज्ञहवन करो और अहम बात दानदक्षिणा देते जेब ढीली करो. इस का दूसरा मकसद यह था कि हिंदुओं की पूजापाठ और बातबात में मंदिर जाने की लत और बढ़े.

 भक्तों को तो बहाना चाहिए

इस साल तो हाल यह है कि किसी भी धर्मस्थल में पांव रखने की भी जगह नहीं है. इस के बाद भी लोग हैप्पी न्यू ईयर का गैरसनातनी मंत्र जपते मंदिरों की तरफ दौड़े पड़ रहे हैं मानो सारा मोक्ष 1 जनवरी, 2024 को ही मिलना हो. यह और बात है कि इन्हें तो परेशानियों, झिड़कियों और धक्कामुक्की के अलावा कुछ नहीं मिलना. हां, पंडेपुजारियों की जरूर चांदी है जिन्हें रोजाना से हजारलाख गुना तक ज्यादा दक्षिणा मिलना तय है.

जिन शहरों और मंदिरों में सब से ज्यादा कारोबार होना है उन में से एक मथुरा वृंदावन भी है जहां मंदिरों की पूरी श्रृंखला है. मथुरा प्रशासन की मानें तो इस साल 31 दिसंबर और 1 जनवरी को 10 लाख से भी ज्यादा लोगों के आने की संभावना है. शहर में भारी वाहनों की आवक 25 दिसंबर से ही बंद कर दी गई है और पार्किंग के लिए वाहनों को बाहर ही रोका जा रहा है.

ट्रैफिक व्यवस्था के अलग से इंतजाम किए जा रहे हैं. कृष्ण और राधा के इन मंदिरों में यों तो सालभर भक्तों की आवाजाही बनी रहती है, खासतौर से जन्माष्टमी और राधाष्टमी पर, लेकिन अब भीड़ नए साल में भी उमड़ने लगी है.

बांके बिहारी मंदिर में गुब्बारे नए साल पर लगाए जाएंगे और सुंगधित इत्रों का छिड़काव भी होगा. अब यह पूछने या बताने को वह वीडियो वाला सवर्ण पति उपलब्ध नहीं कि भैया, इधर एयरपोर्टों, रेलस्टेशनों, बसअड्डों और हाईवे पर आ कर ज्ञान बांटों कि यह हम हिंदुओं का नहीं बल्कि अंगरेजों का नया साल है, इसलिए मंदिर मत जाओ.

यही हाल काशी विश्वनाथ के मंदिर का है जहां पिछले साल के पहले ही दिन 5 लाख से ज्यादा भक्तगण पहुंचे थे. मथुरा वृंदावन के मंदिरों की तरह वाराणसी के मंदिर हजारबारह सौ वर्गफुट क्षेत्रफल वाले हैं और तंग गलीकूचों में हैं जहां सुबह 5 बजे से ही हरहर महादेव के नारे लगाते लोगों को देख लगता है कि वेद, व्यास जैसे धर्मग्रंथों के रचयिता कोई चूक कर गए जिसे मौजूदा पंडो ने संभाल लिया है.

एक और धार्मिक नगर उज्जैन में भी 8-10 लाख हिंदुओं के आने की संभावना है. पिछले साल उज्जैन में भी 5 लाख से ज्यादा लोगों ने भोलेनाथ की छत्रछाया में नया साल मनाया था. यहां के महाकाल मंदिर में खास इंतजाम साल के पहले दिन किए जाएंगे. सुबह की भस्मी आरती में भक्तों को नहीं जाने दिया जाएगा. लेकिन मंदिर के पट सुबह 6 बजे से खोल दिए जाएंगे जिस से ज्यादा से ज्यादा भक्त दर्शन कर सकें और पैसा चढ़ा सकें.

जम्मू के वैष्णोदेवी मंदिर भी लोग जाना शुरू हो गए हैं और भारी तादाद में तिरुपति मंदिर भी पहुंच रहे हैं. हर जगह अफरातफरी, धक्कामुक्की और बदइंतजामी है. होटल, लौज, रिसोर्ट फुल हो चुके हैं लेकिन भक्तों की जेबें चूंकि भरी है, इसलिए किसी को यह गिलाशिकवा नहीं कि हिंदू क्यों नया साल मनाने मुंबई के सिद्धि विनायक और हरिद्वार, ऋषिकेश जैसी धार्मिक नगरियों में जा कर अपना वक्त व पैसा बरबाद कर रहे हैं. इस से धर्म और संस्कृति नष्टभ्रष्ट होते हैं.

अंग्रेजी नए साल का नकद हिंदूकरण

धर्म के ठेकेदारों की यह बेचारगी नहीं बल्कि चालाकी है कि वे नए साल पर मंदिरों में हिंदुओं के जाने पर कोई एतराज नहीं जताते. नहीं तो कोई 10 दिनों पहले से देशभर में हल्ला मचना शुरू हो गया था कि हिंदू स्कूलों में अपने बच्चों को सांता न बनाएं. बनाना ही हो तो बच्चों को राम, कृष्ण, शंकर, महाराणा प्रताप, भगत सिंह या हनुमान बनाएं.

बच्चों को सांता बनाना गुलामी की निशानी है. क्या कोई ईसाई किसी हिंदू त्योहार पर अपने बच्चों को हिंदू देवीदेवता बनाता है. इतना ही नहीं, जगहजगह हिंदूवादी संगठनों ने स्कूलों में जा कर प्रबंधन को हड़काया भी था कि इस बार हिंदू बच्चों को सांता बनाया तो समझ लेना. मध्यप्रदेश के भोपाल और शाजापुर सहित कई शहरों में तो इन भगवा गमछाधारियों से डर कर कई स्कूलों ने नोटिस जारी कर दिए थे कि हमारे स्कूल में बच्चों को सांता नहीं बनाया जाएगा.

लेकिन यही उन्मादी और मठाधीश नए साल के हिंदूकरण पर मुंह में दही जमाए बैठे हैं क्योंकि इस की कीमत उन्हें दक्षिणा और चढ़ावे की शक्ल में मिलती है. इक्कादुक्का लोग ही सोशल मीडिया पर यह कह कर मन मसोस लेते हैं कि हमारा नया साल तो गुडी पडवा पर शुरू होता है. कोई किसी को धौंस नहीं दे रहा, फिर समझाइश की तो उम्मीद ही बेकार है कि नए साल पर मंदिर मत जाओ.

उलटे, मंदिर जाने वालों को तरहतरह से प्रोत्साहित ही किया जा रहा है. मीडिया अतिउत्साह में छाप और दिखा रहा है कि साल का पहला दिन भगवान के मंदिर में मनाएं तो सालभर सुख, शांति और समृद्धि रहेगी.

बात सच है, ये तीनों चीजें रहेंगी तो, लेकिन इफरात से दोनों हाथों से दक्षिणा बटोरते पंडेपुजारियों के पास जो मुमकिन है धर्म के नकदीकारण के लिए आने वालों सालों में न्यू ईयर भंडारों की भी इजाजत देने लगें. धंधा यों ही चलता रहा तो मुमकिन यह भी है कि कोई हिंदू देवता नए साल का भी पैदा कर दिया जाए. इन दिनों तो देश में सबकुछ मुमकिन है.

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