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निर्णय : भाग 1

रेलवे स्टेशन से बाहर निकल कर जब वह टैक्सी लेने लगी तो पलभर के लिए उस का मन हुआ कि घर न जा कर वह कहीं भाग जाए सोनू को ले कर. फिर उतनी ही त्वरित गति से उस की आंखों के सामने उस की अपनी तीनों मासूम बेटियों का चेहरा घूम गया. अपना घर, पति, बच्चे एक स्त्री का संपूर्ण संसार तो बस इन्हीं तानोंबानों में जकड़ा होता है. भाग सकने की गुंजाइश ही कहां छोड़ता है स्त्री का अपना मन. नहीं, हार मानने से नहीं चलेगा. स्त्री जब एक बार मातृत्व के गुरुगंभीर पद पर आसीन हो जाती है तो उस पद की रक्षा करने का दुर्दम्य साहस भी स्वयमेव ही चला आता है. अपनी सुषुप्त शक्ति को पहचानने भर की देर होती है, बस. नहीं, वह हार नहीं मानेगी.

भीतर ही भीतर स्वयं को दृढ़ता का पाठ पढ़ाती, तौलती, परखती वह टैक्सी में जा बैठी, रामबाग, अपने घर का पता बता कर उस ने सोनू को सीट पर बिठा दिया. बैग आगे की खाली सीट पर रख दिया. पर्स  से उस ने सोनू के दूध की बोतल निकाली और उसे पकड़ा दी. सोनू उस से टिक कर अधलेटा हो गया. खुद को उस ने सीट पर ढीला छोड़ दिया तथा आंखें बंद कर लीं. अपने 3 दिन के ससुराल प्रवास की एकएक बात उस के सिर पर हथौडे़ सी बज रही थी. विदा लेते समय छोटी ननद सरिता ने भावावेग में उस का हाथ कस कर पकड़ लिया था. उस ने कहा था, ‘अपनाया है तो रिश्तों को ईमानदारी से निभाओ. सचाइयों से घबरा कर संबंधों के प्रति बेईमान नहीं हुआ जा सकता, फिर मांबच्चे का संबंध किसी भी सहमति का मुहताज नहीं होता.’

‘ईमानदारी से भी अधिक जरूरी साहस है इस रिश्ते में.’ अपनी भर्राई हुई टूटती आवाज में कह कर वह कार में बैठ गई थी. सरिता वहीं, घर के गेट पर खड़ी उसे जाता हुआ देखती रही थी. वापसी के पूरे सफर में सरिता की कही बातें उस के दिमाग में घूमती रही थीं. वह रोना चाहती थी, चिल्लाचिल्ला कर अपने भीतर का सारा आक्रोश निकाल देना चाहती थी. क्यों उस के आसपास के सारे लोग इतने स्वार्थी हो कर सोच रहे हैं. क्यों सरिता के सिवा किसी अन्य को उस का दर्द दिखाई नहीं देता. इतना निर्मम तथा कठोर कैसे हो सकता है कोई. यों तो वह जब भी ससुराल से लौटी है, कभी खाली नहीं लौटी. मां तथा बड़ी ननद, सुषमा जिज्जी की तीखीकड़वी बातों से भरा दुखी, हताश दिलदिमाग ले कर ही लौटी है. पर डेढ़ साल पहले जब पहली बार नन्हे से सोनू को गोद में लिए ससुराल आई थी तो इन्हीं मां तथा जिज्जी ने हम दोनों को जैसे पलकों पर उठा लिया था. पोते को गोद में उठाए दादी पूरे महल्ले में घूम आई थीं. रोज शाम के वक्त उस की नजर उतारती थीं…और अब? एक सच ने मानो ममता, प्रेम, वात्सल्य सब पर डाका ही डाल दिया था. आने से पहले उसे तनिक भी अंदेशा नहीं था कि वहां ये सब हो जाएगा. अनमनी अवश्य थी, पहली बार अकेले जा रही थी, जबकि लड़कियों की परीक्षाएं सिर पर थीं. बूआ के पोते के नामकरण पर जाना कोई इतना जरूरी तो नहीं था, पर नीलाभ नहीं माने. दरअसल, उस का ससुराल और नीलाभ की बूआ का घर एक ही महल्ले में है. इसीलिए उन का तर्क था कि बूआ के घर की खुशी में सम्मिलित होने के बहाने वह अपने ससुराल वालों से भी मिल आएगी. साथ ही, सारी बिरादरी से भी मेलमुलाकात हो जाएगी. एक तरह से नीलाभ ने उसे जबरन ठेलठाल कर भेजा था.

उसे चिढ़ हो रही थी नीलाभ की बचकानी जिद पर. वह उस के पीछे छिपी उन की मंशा को भांप नहीं पाई थी. ट्रेन  4 घंटे लेट थी. ससुराल का ड्राइवर स्टेशन पर उस का इंतजार कर रहा था. घर पहुंची तो वहां की हवा में उसे कुछ भारीपन सा लगा था. मां व जिज्जी दोनों ही कुछ उखड़ीउखड़ी लग रही थीं. सोनू को भी दोनों में से किसी ने हुलस कर पहले की भांति गोद में उठा कर लाड़प्यार की बौछार नहीं की थी. उस का जी तो उसी समय हुड़क गया था. जेठानी प्रभा औपचारिक नमस्ते के बाद रसोई में जा घुसी थीं. कुछ देर बाद चायनाश्ता व सोनू का दूध रख कर फिर गायब  हो गई थीं. नौकर से कह कर मां ने उस का सामान ऊपर वाले छोटे कमरे में रखवा दिया था. शाम 5 बजे बूआ के घर के लिए निकलने व अभी ऊपर जा कर आराम करने की हिदायत दे कर दोनों उसे बैठक में अकेला छोड़ कर निकल गई थीं. उस का व सोनू का खाना भी जिज्जी ने ऊपर ही भिजवा दिया था, जिस का एक निवाला तक उस के गले नहीं उतरा था.

4 साढ़े 4 बजे वह नीचे आई तो देखा, मां ने पूरी तैयारी कर रखी है. अपनी ननद के घर जोजो नेग ले कर जाने हैं वे सब पलंग पर फैला रखे थे. उसे सब दिखाती हुई मां बोलीं, ‘छोरियां चाहे बूढ़ी ही क्यों न हों, रहेंगी छोरियां ही न घर की. माई, बापू और भाई का साया सिर पर से उठ गया तो क्या हुआ, भौजी तो जिंदा है न अभी. मेरे होते कभी मायके की कमी न अखरेगी तुम्हारी बूआ को. इतने दिनों के बाद आई है उस के घर में खुशी, सारी बिरादरी देखेगी, इसीलिए करना पड़े है ये सब.’ लहूलुहान कलेजे के बावजूद हंसी ने एक हिलोर ले ली थी, जिसे उस ने भीतर ही दबा लिया. दोहरी बातें करने में पारंगत हैं मां. तोहफे तो उस के पास भी थे. नीलाभ ने अपनी मां, जिज्जी, भाई, भाभी तथा बच्चों के लिए अलगअलग उपहार भेजे थे. सब ज्यों के त्यों रखे थे बैग में. जब बैग खोला तो सारे उपहार मुंह चिढ़ाते से लगे थे उसे. ये जो सब मिल कर उस की भावनाओं की, ममता की हत्या करने पर तुले हुए हैं, उन्हें किस कलेजे से जा कर थमाए उपहार.

फिर पता नहीं क्या सोच कर वह उठी और अपनी तरफ से बूआ को देने लाए हुए उपहार निकाल लाई. बूआ तथा उन की बहू की साड़ी व नवजात पोते के लिए चांदी के तार में काले मोतियों वाले कड़े लाई थी वह. मां को दिखा कर ये सामान भी  उस ने अन्य वस्तुओं के साथ पलंग पर रख दिया. कुछ भी हो, बिरादरी के सामने तो घर की बातों को ढक कर ही रखना पड़ता है. बहू हो कर वह अलग से कैसे करेगी लेनदेन.

विरासत : क्या लिखा था उन खतों में ? – भाग 1

अपराजिता की 18वीं वर्षगांठ के अभी 2 महीने शेष थे कि वक्त ने करवट बदल ली. व्यावहारिक तौर पर तो उसे वयस्क होने में 2 महीने शेष थे, मगर बिन बुलाई त्रासदियों ने उसे वक्त से पहले ही व्यस्क बना दिया था. मम्मी की मौत के बाद नानी ने उस की परवरिश का जिम्मा निभाया था और कोशिश की थी कि उसे मम्मी की कमी न खले.

यह भी हकीकत है कि हर रिश्ते की अपनी अलग अहमियत होती है. लाचार लोग एक पैर से चल कर जीवन को पार लगा देते हैं. किंतु जीवन की जो रफ्तार दोनों पैरों के होने से होती है उस की बात ही अलग होती है. ठीक इसी तरह एक रिश्ता दूसरे रिश्ते के न होने की कमी को पूरा नहीं कर सकता.

वक्त के तकाजों ने अपराजिता को एक पार्सल में तब्दील कर दिया था. मम्मी की मौत के बाद उसे नानी के पास पहुंचा दिया गया और नानी के गुजरने के बाद इकलौती मौसी के यहां. मौसी के दोनों बच्चे उच्च शिक्षा के लिए दूसरे शहरों में रहते थे. अतएव वह अपराजिता के आने से खुश जान पड़ती थीं.

अपराजिता के बहुत सारे मित्रों के 18वें जन्मदिन धूमधाम से मनाए जा चुके थे. बाकी बच्चों के आने वाले महीनों में मनाए जाने वाले थे. वे सब मौका मिलते ही अपनाअपना बर्थडे सैलिब्रेशन प्लान करते थे. तब अपराजिता बस गुमसुम बैठी उन्हें सुनती रहती थी. उस ने भी बहुत बार कल्पनालोक में भांतिभांति विचरण किया था अपने जन्मदिन की पार्टी के सैलिब्रेशन को ले कर मगर अब बदले हालात में वह कुछ खास करने की न तो सोच सकती थी और न ही किसी से कोई उम्मीद लगा सकती थी.

2 महीने गुजरे और उस की खास सालगिरह का सूर्योदय भी हुआ. मगर नानी की हाल ही में हुई मौत के बादलों से घिरे माहौल में सालगिरह उमंग की ऊष्मा न बिखेर सकी. अपराजिता सुबह उठ कर रोज की तरह कालेज के लिए निकल गई.

शाम को घर वापस आई तो देखा कि किचन टेबल पर एक भूरे रंग का लिफाफा रखा था. वह लिफाफा उठा कर दौड़ीदौड़ी मौसी के पास आई. लिफाफे पर भेजने वाले का नामपता नहीं था और न ही कोई पोस्टल मुहर लगी थी.

‘‘मौसी यह कहां से आया?’’ उस ने आंगन में कपड़े सुखाने डाल रहीं मौसी से पूछा.

‘‘उस पर तो तुम्हारा ही नाम लिखा है अप्पू… खोल कर क्यों नहीं देख लेतीं?’’

अपराजिता ने लिफाफा खोला तो उस के अंदर भी थोड़े छोटे आकार के कई सफेद रंग के लिफाफे थे. उन पर कोई नाम नहीं था. बस बड़ेबड़े अंकों में गहरीनीली स्याही से अलगअलग तारीखें लिखी थीं. तारीखों को गौर से देखने पर उसे पता चला कि ये तारीखें भविष्य में अलगअलग बरसों में पड़ने वाले उस के कुछ जन्मदिवस की हैं. खुशी की बात कि  एक लिफाफे पर आज की तारीख भी थी. अपराजिता ने प्रश्नवाचक निगाहों से मौसी को निहारा तो वे मुसकरा भर दीं जैसे उन्हें कुछ पता ही नहीं.

‘प्लीज मौसी बताइए न ये सब क्या है. ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि आप को इस के बारे में कुछ खबर न हो… यह लिफाफा पोस्ट से तो आया नहीं है… कोई तो इसे दे कर गया है… आप सारा दिन घर में थीं और जब आप ने इसे ले कर रखा है तो आप को तो पता ही होना चाहिए कि आखिर यह किस का है?’’

‘‘मुझे कैसे पता चलता जब कोई बंद दरवाजे के बाहर इसे रख कर चला गया. तुम तो जानती हो कि दोपहर में कभीकभी मेरी आंख लग जाती है. शायद उसी वक्त कोई आया होगा. मैं ने तो सोचा था कि तुम्हारे किसी मित्र ने कुछ भेजा है. हस्तलिपि पहचानने की कोशिश करो शायद भेजने वाले का कोई सूत्र मिल जाए,’’ मौसी के चेहरे पर एक रहस्यपूर्ण मुस्कराहट फैली हुई थी.

अपराजिता ने कई बार ध्यान से देखा, हस्तलिपि बिलकुल जानीपहचानी सी लग रही थी. बहुत देर तक दिमागी कसरत करने पर उसे समझ में आ गया कि यह हस्तलिपि तो उस की नानी की हस्तलिपि जैसी है. परंतु यह कैसे संभव है? उन्हें तो दुनिया को अलविदा किए 2 महीने गुजर गए हैं और आज अचानक ये लिफाफे… उसे कहीं कोई ओरछोर नहीं मिल रहा था.

‘‘मौसी यह हस्तलिपि तो नानी की लग रही है लेकिन…’’

‘‘लेकिनवेकिन क्या? जब लग रही है तो उन्हीं की होगी.’’

‘‘यह असंभव है मौसी?’’ अपराजिता का स्वर द्रवित हो गया.

‘‘अभी तो संभव ही है अप्पू, मगर 2 महीने पहले तक तो नहीं था. जिस दिन से तुम्हारी नानी को पता चला कि उन का हृदयरोग बिगड़ता जा रहा है और उन के पास जीने के लिए अधिक समय नहीं है तो उन्होंने तुम्हारे लिए ये लैगसी लैटर्स लिखने शुरू कर दिए थे, साथ ही मुझे निर्देश किया था कि मैं यह लिफाफा तुम्हें तुम्हारे 18वें जन्मदिन वाले दिन उपहारस्वरूप दे दूं. अब इन खतों के माध्यम से तुम्हें क्या विरासत भेंट की गई है, यह तो मुझे भी नहीं मालूम. कम से कम जिस लिफाफे पर आज की तारीख अंकित है उसे तो खोल ही लो अब.’’

वैलेंटाइन डे : पति पत्नी की प्यार भरी कहानी – भाग 1

वैसे तो आजकल ‘बर्थ डे’, ‘मदर्स डे’,  ‘फादर्स डे’, ‘रिब्बन डे’, ‘रोज डे’, ‘वैलेंटाइन डे’ आदि की भरमार है पर इन में सब से ज्यादा अहमियत दी जाती है ‘वैलेंटाइन डे’ को. क्यों? पता नहीं, पर एक बुखार सा चढ़ जाता है. सारा माहौल गुलाबी हो जाता है, प्यारमोहब्बत की अनदेखी रोमांचक तरंगें तनमन को छू कर उत्तेजित कर देती हैं. महीना भर पहले जो हर किसी की जबान पर यह एक बार चढ़ जाता है तो फिर कई दिनों तक उतरने का नाम ही नहीं लेता.

मुझे सुबह की पहली चाय पीते हुए अखबार पढ़ने की आदत है. आज मेरे सामने अखबार तो है पर चाय नहीं. देर तक इंतजार करता रहा पर चाय नहीं आई. दिमाग में एक भी शब्द नहीं जा रहा था. गरमगरम चाय के बिना अखबार की गरमगरम खबरें भी बिलकुल भावशून्य लगने लगीं. जब दिमाग ने बिलकुल ही साथ देने से मना कर दिया तो मैं ने अखबार वहीं पटक दिया और किचन की ओर चला.

देखा, चूल्हा ठंडा पड़ा है. माथा ठनका, कहीं पत्नी बीमार तो नहीं. मैं शयनकक्ष की ओर भागा. मैं इसलिए चिंतित नहीं था कि पत्नी बीमार होगी बल्कि इसलिए परेशान था कि सच में अगर श्रीमतीजी की तबीयत नासाज हो तो उन का हालचाल न पूछने के कारण उन के दिमाग के साथ यह नाचीज भी आउट हो जाएगा. कहीं होतेहोते बात तलाक तक न पहुंच जाए. अजी, नहीं, आप फिर गलतफहमी में  हैं. तलाक से डरता कौन है? तलाक मिल जाए तो अपनी तो चांदी ही चांदी हो जाएगी. मगर तलाक के साथ मुझे एक ऐसी गवर्नेस भी मिल जाए जो हर तरह से मेरे घर को संभाल सके. यानी सुबह मुझे चाय देने से ले कर, दफ्तर जाते वक्त खाना, कपड़ा, मोजे देना, बच्चों की देखभाल करना, उन की सेहत, पढ़ाई- लिखाई आदि पर ध्यान रखना, फिर घर की साफसफाई आदि…चौबीस घंटे काम करने वाली (बिना खर्चे के), एक मशीन या रोबोट मिल जाए. फिर मैं तो क्या दुनिया में कोई भी किसी का मोहताज न होगा.

मैं ने शयनकक्ष में जा कर क्या देखा कि मेरी पत्नी तो सच में ही बिस्तर में पड़ी है. मैं ने घबरा कर पूछा, ‘‘अरे, यह तुम्हें क्या हो गया? तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

पत्नी ने नाकभौं सिकोड़ते हुए कहा, ‘‘मुझे क्या हुआ है? मैं तो अच्छीभली हूं.’’

‘‘फिर मुझे चाय…’’ उस का तमतमाया चेहरा देख कर मैं चुप हो गया.

‘‘क्यों? क्या मैं कोई नौकरानी हूं कि सुबह उठ कर सब की जरूरतें पूरी करती रहूं. आज मेरा चाय बनाने का मूड नहीं है.’’

मैं भौचक्का रह गया. यह क्या कह रही है? मैं कुछ सम?ा नहीं पाया. इतने में बबलू आ गया.

‘‘मम्मी, मेरा टिफिन बाक्स तैयार है? तुम ने वादा किया था, याद है कि आज मेरे टिफिन में केक रखोगी?’’

‘‘मैं ने कुछ नहीं रखा.’’

‘‘क्यों, मम्मी? आज सभी बच्चे अपनेअपने घर से अच्छीअच्छी चीजें लाएंगे. मैं ने भी उन को प्रौमिस किया था कि मैं केक लाऊंगा.’’

मैं बीच में ही बोल पड़ा, ‘‘अरे, बबलू, आज क्या खास बात है? आप की बर्थ डे है क्या?’’

बबलू ने अपना माथा ठोक लिया.

‘‘पापा आप भी न…अभी पिछले महीने ही तो मनाया था मेरा बर्थ डे.’’

‘‘यू आर राइट,’’ मैं खिसियाते हुए बोला. कैसे भूल गया मैं बबलू का बर्थ डे जबकि मेरी जेब में उस दिन इतना बड़ा होल हो गया था कि टूटे मटके के पानी की तरह सारा पैसा बह गया था.

‘‘फिर आज क्या बात है जो आप सारे बच्चे इतने खुश हो?’’

बबलू ने फिर माथा ठोक लिया. यह आदत उसे अपनी मम्मी से विरासत में मिली थी. दोनों मांबेटे बारबार मेरी नालायकी पर इसी तरह माथा ठोकते हैं.

‘‘पापा, आप को इतना भी नहीं मालूम कि आज सारी दुनिया ‘वैलेंटाइन डे’  मनाती है. जानते हैं दुनिया में इस दिन की कितनी इंपोर्टेंस है? आज के दिन लोग अपने बिलव्ड को अच्छा सा गिफ्ट देते हैं.’’

चौथी कक्षा में पढ़ रहे बेटे के  सामान्य  ज्ञान को देखसुन कर मेरा मुंह खुला का खुला और आंखें फटी की फटी रह गईं. वाह, क्या बात है. फिर उस की आवाज आई, ‘‘पापा, आप ने मम्मी को क्या गिफ्ट दिया?’’

मेरे दिमाग में बिजली सी कौंध गई. तो यह राज है श्रीमती के मुंह लपेट कर पडे़ रहने का. मैं यह सोच कर अंदर से परेशान हो रहा था कि अब मुझे इस कहर से कौन बचाएगा? मैं ने अपने बेटे के बहाने अपनी पत्नी को सम?ाते हुए कहा, ‘‘बेटे, वैलेंटाइन का अर्थ भी जानते हो? वैलेंटाइन किसी संत का नाम है जिस ने हमारे प्रसिद्ध संत कबीर की तरह दुनिया को पे्रम का संदेश दिया था. यह पे्रम या प्यार किसी के लिए भी हो सकता है. मातापिता, भाईबहन, गुरु, दोस्त आदि. मीरा कृष्ण की दीवानी थी, राधा कृष्ण की पे्ररणा. यह सब प्यार नहीं तो और क्या है? आज का विकृत रूप प्यार…खैर, जाने दो, तुम नहीं समझेगे.’’

‘‘क्या अंकल, बबलू क्या नहीं समझेगा? आप ने जो कहा वह मैं सम?ा गया. बबलू ने ठीक ही तो कहा था, आप ने आंटी को क्या तोहफा दिया?’’

‘‘हूं,’’ सांप की फुफकार सुनाई दी. मैं ने पलट कर देखा. मेरी पत्नी मुझे घूर रही थी. मैं ने उधर ध्यान न देते हुए टिंकू से पूछा, ‘‘तुम कब आए, टिंकू?’’

‘‘अभीअभी, अंकल. आप बात को टाल रहे हैं. खैर, आंटी से ही पूछ लेता हूं. आंटी, अंकल ने आप को क्या तोहफा दिया? कुछ नहीं न?’’ टिंकू को जैसे अपनी आंटी को उकसाने में मजा आ रहा था.

‘‘हुंह, ये क्या देंगे मुझे तोहफा, कंजूस मक्खीचूस. जेब से पैसे निकालने में नानी मरती है,’’ उस ने मुंह बिचकाया.

‘‘जानेमन, मैं तुम्हें क्या तोहफा दूंगा. हम तो जनमों के साथी हैं जिन्हें ऐसी औपचारिकताओं की जरूरत नहीं पड़ती.’’

‘‘रहने दो, ज्यादा मत बनो. अगले जनम में भी इसी कंजूस पति को झेलना पडे़गा. इस से तो मैं कुंआरी भली,’’ मेरी पत्नी बोल पड़ी. बच्चों के सामने कबाड़ा हो गया न.

‘‘सुनो भी यार, मेरा सबकुछ तुम्हारा ही तो है. अपनी सारी तनख्वाह महीने की पहली तारीख को तुम्हें ला कर दे देता हूं और घर तो तुम्हीं चलाती हो. मेरे पास दोस्तों को चाय पिलाने के भी पैसे नहीं बचते. मैं तुम्हें कोई ऐसावैसा तोहफा नहीं दे सकता न? जिस दिन मैं इतना अमीर हो जाऊं कि दुनिया का सब से खूबसूरत और अनमोल तोहफा तुम्हें दे सकूं, उसी दिन मैं तुम्हें तोहफा दूंगा.’’

मैं ने अपने बचाव में पासा फेंका तो वह सही निशाने पर जा कर लगा. श्रीमतीजी के चेहरे पर गुस्से का स्थान शरम ने ले लिया. छूटते ही मैं ने एक और तीर छोड़ा, ‘‘दूसरी बात यह है डार्लिंग, विदेशों में लड़की और लड़के के बीच की केमिस्ट्री कब अपना इक्वेलिब्रियम खो दे कुछ ठिकाना नहीं रहता. इस साल पत्नी की सीट पर कोई है पर अगले साल कौन होगा कुछ पता नहीं. इसलिए उन्होंने एक भी साल का पड़ाव पार कर लिया तो अपने को बहुत भाग्यशाली मानते हैं. और इतना भी झेलने के लिए एक दूसरे को गिफ्ट देते हैं,’’ मेरे इतने लंबे भाषण का उस पर कुछ तो असर होना चाहिए.

भोर- राजवी को कैसे हुआ अपनी गलती का एहसास- भाग 1

उस दिन सवेरे ही राजवी की मम्मी की किट्टी फ्रैंड नीतू उन के घर आईं. उन की कालोनी में उन की छवि मैरिज ब्यूरो की मालकिन की थी. किसी की बेटी तो किसी के बेटे की शादी करवाना उन का मनपसंद टाइमपास था. वे कुछ फोटोग्राफ्स दिखाने के बाद एक तसवीर पर उंगली रख कर बोलीं, ‘‘देखो मीरा बहन, इस एनआरआई लड़के को सुंदर लड़की की तलाश है. इस की अमेरिका की सिटिजनशिप है और यह अकेला है, इसलिए इस पर किसी जिम्मेदारी का बोझ नहीं है. इस की सैलरी भी अच्छी है. खुद का घर है, इसलिए दूसरी चिंता भी नहीं है. बस गोरी और सुंदर लड़की की तलाश है इसे.’’

फिर तिरछी नजरों से राजवी की ओर देखते हुए बोलीं, ‘‘उस की इच्छा तो यहां हमारी राजवी को देख कर ही पूरी हो जाएगी. हमारी राजवी जैसी सुंदर लड़की तो उसे कहीं भी ढूंढ़ने से नहीं मिलेगी.’’

यह सब सुन रही राजवी का चेहरा अभिमान से चमक उठा. उसे अपने सौंदर्य का एहसास और गुमान तो शुरू से ही था. वह जानती थी कि वह दूसरी लड़कियों से कुछ हट कर है.

चमकीले साफ चेहरे पर हिरनी जैसी आंखें और गुलाबी होंठ उस के चेहरे का खास आकर्षण थे. और जब वह हंसती थी तब उस के गालों में डिंपल्स पड़ जाते थे. और उस की फिगर व उस की आकर्षक देहरचना तो किसी भी हीरोइन को चैलेंज कर सकती थी.

इस से अपने सौंदर्य को ले कर उस के मन में खुशी तो थी ही, साथ में जानेअनजाने में एक गुमान भी था.

मीरा ने जब उस एनआरआई लड़के की तसवीर हाथ में ली तो उसे देखते ही उन की भौंहें तन गईं. तभी नीतू बोल पड़ीं, ‘‘बस यह लड़का यानी अक्षय थोड़ा सांवला है और चश्मा लगाता है.’’

‘लग गई न सोने की थाली में लोहे की कील,’ मीरा मन में ही भुनभुनाईं. उन्हें लगा कि मेरी राजवी शायद इसे पसंद नहीं करेगी. पर प्लस पौइंट इस लड़के में यह था कि यह नीतू के दूर के किसी रिश्तेदार का लड़का था, इसलिए एनआरआई लड़के के साथ जुड़ी हुई मुसीबतें व जोखिम इस केस में नहीं था. जानापहचाना लड़का था और नीतू एक जिम्मेदार के तौर पर बीच में थीं ही.

फिर कुछ सोच कर मीरा बोलीं, ‘‘ओह, बस इतनी सी बात है. आजकल ये सब देखता कौन है और चश्मा तो किसी को भी लग सकता है. और इंडियन है तो रंग तो सांवला होगा ही. बाकी जैसा तुम कहती हो लड़का स्मार्ट भी है, समझदार भी. फिर क्या चाहिए हमें… क्यों राजवी?’’

अपने ही खयालों में खोई, नेल पेंट कर रही राजवी ने कहा, ‘‘हूं… यह बात तो सही है.’’

तब नीतू ने कहा, ‘‘तुम भी एक बार फोटो देख लो तो कुछ बात बने.’’

‘‘बाद में देख लूंगी आंटी. अभी तो मुझे देर हो रही है,’’ पर तसवीर देखने की चाहत तो उसे भी हो गई थी.

मीरा ने नीतू को इशारे में ही समझा दिया कि आप बात आगे बढ़ाओ, बाकी बात मैं संभाल लूंगी.

मीरा और राजवी के पापा दोनों की इच्छा यह थी कि राजवी जैसी आजाद खयाल और बिंदास लड़की को ऐसा पति मिले, जो उसे संभाल सके और समझ सके. साथ में उसे अपनी मनपसंद लाइफ भी जीने को मिले. उस की ये सभी इच्छाएं अक्षय के साथ पूरी हो सकती थीं.

नीतू ने जातेजाते कहा, ‘‘राजवी, तुम जल्दी बताना, क्योंकि मेरे पास ऐसी बहुत सी लड़कियों की लिस्ट है, जो परदेशी दूल्हे को झपट लेने की ख्वाहिश रखती हैं.’’

नीतू के जाने के बाद मीरा ने राजवी के हाथ में तसवीर थमा दी, ‘‘देख ले बेटा, लड़का ऐसा है कि तेरी तो जिंदगी ही बदल जाएगी. हमारी तो हां ही समझ ले, तू भी जरा अच्छे से सोच लेना.’’पर राजवी तसवीर देखते ही सोच में डूब गई. तभी उस की सहेली कविता का फोन आया. राजवी ने अपने मन की उलझन उस से शेयर की, तो पूरे उत्साह से कविता कहने लगी, ‘‘अरे, इस में क्या है. शादी के बाद भी तो तू अपना एक ग्रुप बना सक ती है और सब के साथ अपने पति को भी शामिल कर के तू और भी मजे से लाइफ ऐंजौय कर सकती है. फिर वह तो फौरेन कल्चर में पलाबढ़ा लड़का है. उस की थिंकिंग तो मौडर्न होगी ही. अब तू दूसरा कुछ सोचने के बजाय उस से शादी कर लेने के बारे में ही सोचना शुरू कर दे…’’

कविता की बात राजवी समझ गई तो उस ने हां कह दिया. इस के बाद सब कुछ जल्दीजल्दी होता गया. 2 महीने बाद नीतू का दूर का वह भतीजा लड़कियों की एक लिस्ट ले कर इंडिया पहुंच गया. उसे सुंदर लड़की तो चाहिए ही थी, पर साथ में वह भारतीय संस्कारों से रंगी भी होनी चाहिए थी. ऐसी जो उसे भारतीय भोजन बना कर प्यार से खिलाए. साथ ही वह मौडर्न सोच और लाइफस्टाइल वाली हो ताकि उस के साथ ऐडजस्ट हो सके. पर उस की लिस्ट की सभी मुलाकात के बाद एकएक कर के रिजैक्ट होती गईं.

तब एक दिन सुबह राजवी के पास नीतू का फोन आया, ‘‘शाम को 7 बजे तक रेडी हो जाना. अक्षय के साथ मुलाकात करनी है. और हां, मीरा से कहना कि वे तुझे अच्छी सी साड़ी पहनाएं.’’

‘‘साड़ी, पर क्यों? मुझ पर जींस ज्यादा सूट करती है,’’ कहते हुए राजवी बेचैन हो गई.

‘‘वह तुम्हारी समझ में नहीं आएगा. तुम साड़ी यही समझ कर पहनना कि उसी में तुम ज्यादा सुंदर और अटै्रक्टिव लगती हो.’’

नीतू आंटी की बात पर गर्व से हंस पड़ी राजवी, ‘‘हां, वह तो है.’’

और उस दिन शाम को वह जब आकर्षक लाल रंग की डिजाइनर साड़ी पहन कर होटल शालिग्राम की सीढि़यां चढ़ रही थी, उस की अदा देखने लायक थी. होटल के मीटिंग हौल में राजवी को दाखिल होता देख सोफे पर बैठा अक्षय उसे देखता ही रह गया.

नीतू ने जानबूझ कर उसे राजवी का फोटो नहीं भेजा था, ताकि मिलने के बाद ही अक्षय उसे ठीक से जान ले, परख ले. नीतू को वहीं छोड़ कर दोनों होटल के कौफी शौप में चले गए.

‘‘प्लीज…’’ कह कर अक्षय ने उसे चेयर दी. राजवी उस की सोच से भी अधिक सुंदर थी. हलके से मेकअप में भी उस के चेहरे में गजब का निखार था. जैसा नाम वैसा ही रूप सोचता हुआ अक्षय मन ही मन में खुश था. फिर भी थोड़ी झिझक थी उस के मन में कि क्या उसे वह पसंद करेगी?

ऐसा भी न था कि अक्षय में कोई दमखम न ?था और अब तो कंपनी उसे प्रमोशन दे कर उस की आमदनी भी दोगुनी करने वाली थी. फिर भी वह सोच रहा था कि अगर राजवी उसे पसंद कर लेती है तो वह उस के साथ मैच होने के लिए अपना मेकओवर भी करवा लेगा. मन ही मन यह सब सोचते हुए अक्षय ने राजवी के सामने वाली चेयर ली.

अक्षय के बोलने का स्मार्ट तरीका, उस के चेहरे पर स्वाभिमान की चमक और उस का धीरगंभीर स्वभाव राजवी को प्रभावित कर गया. उस की बातों में आत्मविश्वास भी झलकता था. कुल मिला कर राजवी को अक्षय का ऐटिट्यूड अपील कर गया.

उस मुलाकात के बाद दोनों ने एकदूसरे को दूसरे दिन जवाब देना तय किया. पर उसी दिन रात में राजवी ने अक्षय को फोन लगाया, ‘‘एक बात का डिस्कशन तो रह गया. क्या शादी के बाद मैं आगे पढ़ाई कर सकती हूं? और क्या मैं आगे जा कर जौब कर सकती हूं? अगर आप को कोई एतराज नहीं तो मेरी ओर से इस रिश्ते को हां है.’’

‘‘ओह. इस में पूछने वाली क्या बात है? मैं मौडर्न खयालात का हूं क्योंकि मौडर्न समाज में पलाबढ़ा हूं. नारी स्वतंत्रता मैं समझता हूं, इसलिए जैसी तुम्हारी मरजी होगी, वैसा तुम कर सकोगी.’’

अक्षय को भी राजवी पसंद आ गई थी, उसे इतनी सुंदर पत्नी मिलेगी, उस की कल्पना ही उस को रोमांचित कर देने के लिए काफी थी.

फिर तो जल्दी ही दोनों की शादी हो गई. रिश्तेदारों की उपस्थिति में रजिस्टर्ड मैरिज कर के 4 ही दिनों के बाद अक्षय ने अमेरिका की फ्लाइट पकड़ ली और उस के 2 महीने बाद आंखों में अमेरिका के सपने संजोए और दिल में मनपसंद जिंदगी की कल्पना लिए राजवी ने ससुराल का दरवाजा खटखटाया.

मंजिल तक भाग 1

कुमार रंगा अपनी प्रेमिका सोनिया की खुशियों के लिए धर्मा ने अपनी जमीन तक बेच दी और उसे अमेरिका पढ़ने भेज दिया. मगर वहां जा कर सोनिया धर्मा को भूल अपराध की दुनिया में जा फंसी और फिर वही हुआ जिस की कल्पना खुद उस ने भी नहीं की थी. धर्मा ने ट्रैक्टर को एक किनारे लगाया और कूद कर पास बहते नल के नीचे बैठ गया. दिनभर की कड़ी मेहनत का पसीना और पानी की बूंदें आपस में यों मिल गईं जैसे सदियों से बिछड़े प्रेमी युगल मिलते हैं.

कुछ समय के लिए धर्मा मानो गरमी से कहीं दूर जा चुका था. आंखें बंद कर के भारत से कहीं दूर पश्चिम के किसी देश में पहुंच गया था और वहां की ठंडी हवाएं उसे जमा रही थीं और सर्दी ने उस के बदन को जकड़ लिया था कि अचानक भाभी की आवाज उस के कानों में पड़ी, ‘‘थक गया धर्मा, आज गरमी ने भी न जाने कब का बदला चुकाया है. इतनी चिलचिलाती धूप, बादल का कहीं नाम ही नहीं और उस पर तुम्हें दिनभर खेत में रहना पड़ता है,’’ भाभी के हाथ से तौलिया लेते हुए धर्मा मुसकराते हुए बोला, ‘किसान धूप में नहीं जाएगा तो क्या साहूकार जाएंगे. असली किसान का तो मंदिर, पूजापाठ, गुरुद्वारा सब खेत की मिट्टी में ही है.’’ भाभी ने धर्मा की इन बातों को सुन कर अनसुना कर दिया, ‘‘तू यहां खुश नहीं है धर्मा, तु?ो सोतेजागते, उठतेबैठते परदेस याद आता है.’’ ‘‘यह तो नहीं पता भाभी, लेकिन एक सपना जरूर है कि अमेरिका जाऊं, वहां रहूं, मजे करूं लेकिन क्या करूं पढ़ालिखा नहीं हूं न, इंग्लिश के 4 लफ्ज नहीं आते.’’ ‘‘हां, सो तो है. अगर तेरे भैया जिंदा होते तो शायद, तेरे जाने का कुछ…’’ ‘‘उदास मत हो भाभी, आप तो जानती हैं कि मैं आप को और भतीजे को हमेशा खुश देखना चाहता हूं. मेरी तरफ से हमेशा कोशिश रहती है कि आप दोनों को कोई तकलीफ न हो.’’ ‘‘अच्छा, मु?ो तुम से एक काम है. मेरी सहेली सोनिया आई हुई है. उसे कुछ पैसे चाहिए. रकम बड़ी है,

इसलिए हो सकता है अपनी जमीन का एक टुकड़ा गिरवी रखना पड़े या बेचना पड़ जाए. मैं ने उस से वादा कर दिया कि उस का काम हो जाएगा. वह चंद महीनों में ही पैसे वापस कर देगी, यह मेरा तु?ा से वादा है.’’ ‘‘भाभी, आप क्या नहीं जानतीं कि वह पैसे लेने के बाद तुम से भी कन्नी काट लेगी. वह तुम्हें बेवकूफ बना रही है. मु?ो बताना पड़ेगा क्या कि वह कितनी मतलबी और खुदगर्ज है.’’ ‘‘होगी, मगर शादी के बाद सब ठीक हो जाएगा.’’ ‘‘शादी? किस की शादी भाभी, आप तो आज पहेलियां बु?ा रही हैं. मु?ो आप की बात पल्ले नहीं पड़ रही.’’ ‘‘देख धर्मा, मैं जानती हूं कि तुम्हें सोनिया पसंद है. सिर्फ उस की फितरत थोड़ी कम पसंद है. तू उस से शादी कर ले. मैं वादा करती हूं कि उस की आदतें बदल जाएंगी, फिर परदेस जाएगी तो जमाने की ठोकरें और तेरा साथ उसे बदल देगा.’’

‘‘परदेस, अब यह क्या पहेली है भाभी?’’ ‘‘साफसाफ सुन धर्मा, सोनिया अमेरिका जाएगी और तु?ो वहीं बुला लेगी और इस तरह तेरा सपना भी पूरा हो जाएगा और घर में एक सुंदर, पढ़ीलिखी बहू भी आ जाएगी. इस में ही सब का भला है, तेरामेरा, सोनिया का और अपने परिवार का. जानता है, पूरे गांव में सिर्फ हमारे परिवार से कोई अमेरिका या कनाडा नहीं गया, कितना बुरा लगता है .’’ ‘‘देख लो भाभी, मैं तो अनपढ़ हूं, आप तो पढ़ीलिखी हो, सुंदर हो, 10वीं पास भी हो, स्मार्ट हो, मु से ज्यादा चीजों की बारीकियों को सम?ाती हो, आप कह रही हैं तो ठीक ही कह रही होंगी.’’ धर्मा ने देखा, भाभी फूल कर कुप्पा हो रही थीं.

लेखक-राकेश कुमार 

दस्विदानिया : उसने रूसियों को क्या गिफ्ट दिया – भाग 1

दीपक उत्तरी बिहार के छोटे से शहर वैशाली का रहने वाला था. वैशाली पटना से लगभग 30 किलोमीटर दूर है. 1982 में गंगा नदी पर गांधी सेतु बन जाने के बाद वैशाली से पटना आनाजाना आसान हो गया था. वैशाली की अपनी एक अलग ऐतिहासिक पहचान भी है.

दीपक इसी वैशाली के एनएनएस कालेज से बीएससी कर रहा था. उस की मां का देहांत बचपन में ही हो चुका था. उस के पिता रामलाल की कपड़े की दुकान थी. दुकान न छोटी थी न बड़ी. आमदनी बस इतनी थी कि बापबेटे का गुजारा हो जाता था. बचत तो न के बराबर थी. वैशाली में ही एक छोटा सा पुश्तैनी मकान था. और कोई संपत्ति नहीं थी. दीपक तो पटना जा कर पढ़ना चाहता था, पर पिता की कम आमदनी के चलते ऐसा नहीं हो सका.

दीपक अभी फाइनल ईयर में ही था कि अचानक दिल के दौरे से उस के पिता भी चल बसे. उस ने किसी तरह पढ़ाई पूरी की. वह दुकान पर नहीं बैठना चाहता था. अब उसे नौकरी की तलाश थी. उस ने तो इंडियन सिविल सर्विस के सपने देखे थे या फिर बिहार लोक सेवा आयोग के द्वारा राज्य सरकार के अधिकारी के. पर अब तो उसे नौकरी तुरंत चाहिए थी.

दीपक ने भारतीय वायुसेना में एअरमैन की नियुक्ति का विज्ञापन पढ़ा, तो आवेदन कर दिया. उसे लिखित, इंटरव्यू और मैडिकल टैस्ट सभी में सफलता मिली. उस ने वायुसेना के टैक्नीकल ट्रेड में एअरमैन का पद जौइन कर लिया. ट्रेनिंग के बाद उस की पोस्टिंग पठानकोट एअरबेस में हुई. ट्रेनिंग के दौरान ही वह सीनियर अधिकारियों की प्रशंसा का पात्र बन गया. पोस्टिंग के बाद एअरबेस पर उस की कार्यकुशलता से सीनियर अधिकारी बहुत खुश थे.

वायुसेना के रसियन प्लेन को बीचबीच में मैंटेनैंस के लिए रूस जाना पड़ता था. दीपक के अफसर ने उसे बताया कि उसे भी जल्दी रूस जाना होगा. वह यह सुन कर बहुत खुश हुआ. उस ने जल्दीजल्दी कुछ आमतौर पर इस्तेमाल होने वाले रसियन शब्द और वाक्य सीख लिए. अपने एक दोस्त, जो 2 बार रूस जा चुका था से हैवी रसियन ओवरकोट भी उधार ले लिया. रूस की जबरदस्त ठंड के लिए यह जरूरी था.

1 महीने के अंदर ही दीपक को एक रसियन प्लेन के साथ बेलारूस की राजधानी मिंस्क जाना पड़ा. उस जहाज का कारखाना वहीं था. तब तक सोवियत संघ का बंटवारा हो चुका था और बेलारूस एक अलग राष्ट्र बन गया था.

अपने दोस्तों की सलाह पर उस ने भारत से कुछ चीजें जो रूसियों को बेहद पसंद थीं रख लीं. ये स्थानीय लोगों को मित्र बनाने में काम आती थीं. चूंकि जहाज अपना ही था, इसलिए वजन की सीमा नहीं थी. उस ने टूथपेस्ट, परफ्यूम, सुगंधित दार्जिलिंग चायपत्ती, ब्रैंडेड कौस्मैटिक आदि साथ रख लिए.

‘‘लेडीज कौस्मैटिक वहां की लड़कियों को इंप्रैस करने में बहुत काम आएंगे,’’ ऐसा चलते समय दोस्तों ने कहा था.

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मिंस्क में लैंड करने के बाद दीपक का सामना जोरदार ठंड से हुआ. मार्च के मध्य में भी न्यूनतम तापमान शून्य से थोड़ा नीचे था. मिंस्क में उस के कम से कम 2 सप्ताह रुकने की संभावना थी. खैर, उस के मित्र का ओवरकोट प्लेन से निकलते ही काम आया.

दीपक के साथ पायलट, कोपायलट, इंजीनियर और क्रू  मैंबर्स भी थे. दीपक को एक होटल में एक सहकर्मी के साथ रूम शेयर करना था. वह दोस्त पहले भी मिंस्क आ चुका था. उस ने दीपक को रसियन से दोस्ती के टिप्स भी दिए.

अगले दिन से दीपक को कारखाना जाना था. उस की टीम को एक इंस्ट्रक्टर जहाज के कलपुरजों, रखरखाव के बारे में रूसी भाषा में समझाता था. साथ में एक लड़की इंटरप्रेटर उसे अंगरेजी में अनुवाद कर समझाती थी.

नताशा नाम था उस लड़की का. बला की खूबसूरत थी वह. उम्र 20 साल के आसपास होगी. गोरा रंग तो वहां सभी का होता है, पर नताशा में कुछ विशेष आकर्षण था जो जबरन किसी को उस की तारीफ करने को मजबूर कर देता. सुंदर चेहरा, बड़ीबड़ी नीली आंखें, सुनहरे बाल और छरहरे बदन को दीपक ने पहली बार इतने करीब से देखा था.

दीपक की नजरें बारबार नताशा पर जा टिकती थीं. जब कभी नताशा उस की ओर देखती दीपक अपनी निगाहें फेर लेता. वह धीमे से मुसकरा देती. जब वह सुबहसुबह मिलती तो दीपक हाथ मिला कर रूसी भाषा में गुड मौर्निंग यानी दोबरोय उत्रो बोलता और कुछ देर तक उस का हाथ पकड़े रहता.

नताशा मुसकरा कर गुड मौर्निंग कह आगे बोलती कि प्रस्तिते पजालास्ता ऐक्सक्यूज मी, प्लीज, हाथ तो छोड़ो. तब दीपक झेंप कर जल्दी से उस का हाथ छोड़ देता.

उस की हरकत पर उस के साथी और इंस्ट्रक्टर भी हंस पड़ते थे. लंच के समय कारखाने की कैंटीन में दीपक, नताशा और इंस्ट्रक्टर एक ही टेबल पर बैठते थे. 1 सप्ताह में वे कुछ फ्रैंक हो गए थे. इस में इंडिया से साथ लाए गिफ्ट आइटम्स की अहम भूमिका थी.

नताशा के साथ अब कुछ पर्सनल बातें भी होने लगी थीं. उस ने दीपक को बताया कि रूसी लोग इंडियंस को बहुत पसंद करते हैं. उस के मातापिता का डिवोर्स बहुत पहले हो चुका था और कुछ अरसा पहले मां का भी देहांत हो गया था. उस के पिता चेर्नोबिल न्यूक्लियर प्लांट में काम करते थे और वह उन से मिलती रहती थी.

लगभग 10 दिन बाद दीपक को पता चला कि प्लेन को क्लीयरैंस मिलने में अभी 10 दिन और लगेंगे. एक दिन दीपक ने इंस्ट्रक्टर से कहा कि उस की मास्को देखने की इच्छा है.

इंस्ट्रक्टर ने कहा, ‘‘ओचिन खराशो (बहुत अच्छा) शनिवार को नताशा भी किसी काम से मास्को जा रही है. तुम भी उसी की फ्लाइट से चले जाओ. मात्र 1 घंटे की फ्लाइट है.’’

‘‘स्पासिबा (थैंक्स) गुड आइडिया,’’ दीपक बोला और फिर उसी समय नताशा से फोन पर अपनी इच्छा बताई तो वह बोली नेत प्रौब्लेमा (नो प्रौब्लम).

दीपक बहुत खुश हुआ. उस ने अपने दोस्त से मास्को यात्रा की चर्चा करते हुए पूछा, ‘‘अगर मुझे किसी रूसी लड़की के कपड़ों की तारीफ करनी हो तो क्या कहना चाहिए?’’

जवाब में दोस्त ने उसे एक रूसी शब्द बताया. शनिवार को दीपक और नताशा मास्को पहुंचे. दोनों होटल में आसपास के कमरों में रुके. नताशा ने उसे क्रेमलिन, बोलशोई थिएटर, बैले डांस, रसियन सर्कस आदि दिखाए.

1 अप्रैल की सुबह दोनों मिले. उसी दिन शाम को उन्हें मिंस्क लौटना था. नताशा नीले रंग के लौंग फ्रौक में थी, कमर पर सुनहरे रंग की बैल्टनुमा डोरी बंधी थी, जिस के दोनों छोरों पर पीले गुलाब के फूलों की तरह झालर लटक रही थी. फ्रौक का कपड़ा पारदर्शी तो नहीं था, पर पतला था जिस के चलते उस के अंत:वस्त्र कुछ झलक रहे थे. वह दीपक के कमरे में सोफे पर बैठी थी.

दीपक बोला, ‘‘दोबरोय उत्रो. तिह क्रासावित्सा (यू आर लुकिंग ब्यूटीफुल).’’

‘‘स्पासिबा (धन्यवाद).’’

वह नताशा की ओर देख कर बोला ‘‘ओचिन खराशो तृसिकी.’’

‘‘व्हाट? तुम ने कैसे देखा?’’

‘‘अपनी दोनों आंखों से.’’

‘‘तुम्हारी आंखें मुझ में बस यही देख रही थीं?’’

फिर अचानक नताशा सोफे से उठ

खड़ी हुई और बोली, ‘‘मैं इंडियंस की इज्जत करती हूं.’’

‘‘दा (यस).’’

‘‘व्हाट दा. मैं तुम्हें अच्छा आदमी समझती थी. मुझे तुम से ऐसी उम्मीद नहीं थी,’’ और फिर बिना दीपक की ओर देखे कमरे से तेजी से निकल गई.

दीपक को मानो लकवा मार गया. वह नताशा के कमरे के दरवाजे की जितनी बार बैल बजाता एक ही बात सुनने को मिलती कि चले जाओ. मैं तुम से बात नहीं करना चाहती हूं.

उसी दिन शाम की फ्लाइट से दोनों मिंस्क लौट आए. पर नताशा ने अपनी सीट अलग ले ली थी. दोनों में कोई बात नहीं हुई.

अगले दिन लंच के समय कारखाने की कैंटीन में दीपक, उस का मित्र,

नताशा और इंस्ट्रक्टर एक टेबल पर बैठे थे. दीपक बारबार नताशा की ओर देख रहा था पर नताशा उसे नजरअंदाज कर देती. दीपक ने इंस्ट्रक्टर के कान में धीरे से कुछ कहा तो इंस्ट्रक्टर ने नताशा से धीरे से कुछ कहा.

नताशा से कुछ बात कर इंस्ट्रक्टर ने दीपक से पूछा, ‘‘तुम ने नताशा से कोई गंदी बात की थी? वह बहुत नाराज है तुम से.’’

‘‘मैं ने तो ऐसी कोई बात नहीं की थी,’’ बोल कर दीपक ने जो आखिरी बात नताशा को कही थी उसे दोहरा दिया.

इंस्ट्रक्टर ने भी सिर पीटते हुए कहा, ‘‘बेवकूफ यह तुम ने क्या कह दिया? इस का मतलब समझते हो?’’

‘‘हां, तुम्हारी ड्रैस बहुत अच्छी है?’’

‘‘नेत (नो), इस का अर्थ तुम्हारी पैंटी बहुत अच्छी है, होता है बेवकूफ.’’

तब दीपक अपने मित्र की ओर सवालिया आंखों से देखने लगा. फिर कहा, ‘‘तुम ने ही सिखाया था यह शब्द मुझे.’’

नताशा भी आश्चर्य से उस की तरफ देखने लगी थी. दोस्त भी अपनी सफाई में बोला, ‘‘अरे यार मैं ने तो यों ही बता दिया था. मुझे लेडीज ड्रैस का यही एक शब्द आता था. मुझे क्या पता था कि तू नताशा को बोलने जा रहा है. आई एम सौरी.’’

फिर नताशा की ओर देख कर बोला, ‘‘आई एम सौरी नताशा. मेरी वजह से यह गड़बड़ हुई है. दरअसल, दीपक ने तुम्हारी ड्रैस की तारीफ करनी चाही होगी… यह बेचारा बेकुसूर है.’’

यह सुन कर सभी एकसाथ हंस पड़े.

दीपक ने नताशा से कहा, ‘‘ईजवीनीते (सौरी) नताशा. मैं ने जानबूझ कर उस समय ऐसा नहीं कहा था.’’

‘‘ईजवीनीते. प्रस्तिते (सौरी, ऐक्सक्यूज मी). हम दोनों गलतफहमी के शिकार हुए.’’

इंस्ट्रक्टर बोला, ‘‘चलो इसे भी एक अप्रैल फूल जोक समझ कर भूल जाओ.’’

इस के बाद नताशा और दीपक में मित्रता और गहरी हो चली. दोनों शालीनतापूर्वक अपनी दोस्ती निभा रहे थे. दीपक तो इस रिश्ते को धीरेधीरे दोस्ती से आगे ले जाना चाहता था, पर कुछ संकोच से, कुछ दोस्ती टूटने के भय से और कुछ समय के अभाव से मन की बात जबान पर नहीं ला रहा था.

इसी बीच दीपक के इंडिया लौटने का दिन भी आ गया था. एअरपोर्ट पर नताशा दीपक को बिदा करने आई थी. उस ने आंखों में छलक आए आंसू छिपाने के लिए रंगीन चश्मा पहन लिया. दीपक को पहली बार महसूस हुआ जैसे वह भी मन की कुछ बात चाह कर भी नहीं कर पा रही है. दीपक के चेहरे की उदासी किसी से छिपी नहीं थी.

‘‘दस्विदानिया, (गुड बाई), होप टु सी यू अगेन,’’ बोल कर दोनों गले मिले.

दीपक भारत लौट आया. नताशा से उस का संपर्क फोन से लगातार बना हुआ था. इसी बीच डिपार्टमैंटल परीक्षा और इंटरव्यू द्वारा दीपक को वायुसेना में कमीशन मिल गया. वह अफसर बन गया. हालांकि उस के ऊपर कोई बंदिश नहीं थी, उस के मातापिता गुजर चुके थे, फिर भी अभी तक उस ने शादी नहीं की थी.

इस बीच नताशा ने उसे बताया कि उस के पापा भी चल बसे. उन्हें कैंसर था. संदेह था कि चेर्नोबिल न्यूक्लियर प्लांट में हुई भयानक दुर्घटना के बाद कुछ लोगों में रैडिएशन की मात्रा काफी बढ़ गई थी. शायद उन के कैंसर की यही वजह रही होगी.

पिता की बीमारी में नताशा महीनों उन के साथ रही थी. इसलिए उस ने नौकरी भी छोड़ दी थी. फिलहाल कोई नौकरी नहीं थी और पिता के घर का कर्ज भी चुकाना था. वह एक नाइट क्लब में डांस कर और मसाज पार्लर जौइन कर काम चला रही थी. उस ने दीपक से इस बारे में कुछ नहीं कहा था, पर बराबर संपर्क बना हुआ था.

लगभग 2 साल बाद दीपक दिल्ली एअरपोर्ट पर था. अचानक उस

की नजर नताशा पर पड़ी. वह दौड़ कर उस के पास गया और बोला, ‘‘नताशा, अचानक तुम यहां? मुझे खबर क्यों नहीं की?’’

नताशा भी अकस्मात उसे देख कर घबरा उठी. फिर अपनेआप को कुछ सहज कर कहा, ‘‘मुझे भी अचानक यहां आना पड़ा. समय नहीं मिल सका बात करने के लिए…तुम यहां कैसे?’’

‘‘मैं अभी एक घरेलू उड़ान से यहां आया हूं. खैर, चलो कहीं बैठ कर कौफी पीते हैं. बाकी बातें वहीं होंगी.’’

दोनों एअरपोर्ट के रेस्तरां में बैठे कौफी पी रहे थे. दीपक ने फिर पूछा, ‘‘अब बताओ यहां किस लिए आई हो?’’

नताशा खामोश थी. फिर कौफी की चुसकी लेते हुए बोली, ‘‘एक जरूरी काम से किसी से मिलना है. 2 दिन बाद लौट जाऊंगी.’’

‘‘ठीक है पर क्या काम है, किस से मिलना है, मुझे नहीं बताओगी? क्या मैं भी तुम्हारे साथ चल सकता हूं?’’

‘‘नहीं, मुझे वहां अकेले ही जाना होगा.’’

‘‘चलो, मैं तुम्हें ड्रौप कर दूंगा.’’

‘‘नेत, स्पासिबा (नो, थैंक्स). मेरी कार बाहर खड़ी होगी.’’

‘‘कार को वापस भेज देंगे. कम से कम कुछ देर तक तो तुम्हारे साथ ऐंजौय कर लूंगा.’’

‘‘क्यों मेरे पीछे पड़े हो?’’ बोल कर नताशा उठ कर जाने लगी.

दीपक ने उस का हाथ पकड़ कर रोका और कहा, ‘‘ठीक है, तुम जाओ, मगर मुझ से नाराजगी का कारण बताती जाओ.’’

नताशा तो रुक गई, पर अपने आंसुओं को गालों पर गिरने से न रोक सकी.

दीपक के द्वारा बारबार पूछे जाने पर वह रो पड़ी और फिर उस ने अपनी पूरी कहानी बताई, ‘‘मैं तुम से क्या कहती? अभी तक तो मैं सिर्फ डांस या मसाज करती आई थी पर मैं पिता का घर किसी भी कीमत पर बचाना चाहती हूं. मैं ने एक ऐस्कौर्ट एजेंसी जौइन कर ली है. शायद आने वाले 2 दिन मुझे किसी बड़े बिजनैसमैन के साथ ही गुजारने पड़ेंगे. तुम समझ रहे हो न मैं क्या कहना

चाहती हूं? ’’

‘‘हां, मैं समझ सकता हूं. तुम्हें किस ने हायर किया है, मुझे बता सकती हो?’’

‘‘नो, सौरी. हो सकता है जो नाम मैं जानती हूं वह गलत हो. मैं ने भी उसे अपना सही नाम नहीं बताया है. वैसे भी इस प्रोफैशन की बात किसी तीसरे आदमी को हम नहीं बताते हैं. मैं बस इतना जानती हूं कि मुझे 3 दिनों के लिए 4000 डौलर मिले हैं.’’

‘‘तुम उसे फोन करो, उसे पैसे वापस कर देंगे.’’

‘‘नहीं, यह आसान नहीं है. वह मेरी एजेंसी का पुराना भरोसे वाला ग्राहक है.’’

New Year Special : नया कैलेंडर

नए साल की पहली सुबह थी. बच्चों ने बिस्तर छोड़ने के साथ ही मुझे और आकाश को नए साल की मुबारकबाद दी. रसोई में जा कर मैं ने नववर्ष का विशेष व्यंजन बनाने के लिए सामग्री का चुनाव किया. फिर चाय ले कर मैं बाबूजी के कमरे में गई. आकाश वहीं पिता से सट कर बैठे थे. मैं ने स्टूल पर चाय रखी और आकाश से मुखातिब हो कर कहा, ‘‘चाय पी कर बाजार निकल जाइए, सब्जी वगैरह ले आइए.’’

‘‘नए साल की शुरुआत गुलामी से?’’ आकाश ने आंखें तरेर कर कहा.

मैं कुछ कहती इस से पूर्व ही बाबूजी ने कहा, ‘‘घर का काम करना खुशी की बात होती है, गुलामी की नहीं.’’चाय पी कर ज्यों ही मैं उठने को हुई, चंदनजी का स्कूटर सरसराता हुआ आ कर रुक गया.

‘‘नए साल की बहुतबहुत बधाई हो,’’ कह कर उन्होंने आकाश, बाबूजी एवं मुझे नमस्कार किया.

बाबूजी ने कहा, ‘‘नए साल का पहला मेहमान आया है. मुंह मीठा कराओ, दुलहन.’’

‘‘जी, बाबूजी, अभी लाई,’’ कह कर ज्यों ही मैं उठने लगी, चंदनजी ने 2 प्लास्टिक के थैले मुझे पकड़ाते हुए कहा, ‘‘एक में मिठाई है बच्चों के लिए, दूसरे में चिकन है, आकाश साहब के लिए.’’

‘‘और मेरे लिए?’’ बाबूजी ने शरारती बच्चों की तरह पूछा.

‘‘नए साल का कलैंडर और डायरी लाया हूं चाचाजी,’’ कह कर चंदनजी ने भारतीय जीवन बीमा निगम का एक खूबसूरत कलैंडर अपने थैले से निकाल कर दीवार पर टांग दिया. राजस्थानी वेशभूषा से सुसज्जित 8-10 युवतियां, परंपरागत आभूषणों से लदी नृत्य कर रही थीं. पृष्ठभूमि में चमकीली रेत और रेत पर पड़ती सूर्य की सुनहरी किरणें बहुत आकर्षक लग रही थीं. डायरी भी बेहद खूबसूरत थी.

‘‘इतना सब करने की क्या जरूरत थी?’’ बाबूजी ने स्नेहपूर्वक कहा.

‘‘आप के प्यार और सहयोग से इस वर्ष मैं ने रिकौर्ड व्यवसाय दिया है. बोनस भी भरपूर मिला है. आप लोगों को पहले जानता नहीं था, कुछ खिलायापिलाया नहीं. इसे एक बेटे की कमाई समझ कर स्वीकार कीजिए.’’

‘‘अच्छी बात है बेटे. मगर आज दिन का खाना तुम मेरे साथ खाओ तब मुझे आनंद आएगा,’’ बाबूजी ने कहा.

‘‘ऐसा है चाचाजी, मुझे आज 7-8 और घनिष्ठ मित्रों के घर मिठाई पहुंचानी है. सुप्रियाजी के ससुर के लिए मछली लेनी है. इसलिए आज आप मुझे क्षमा कर दें. मेरा लाया कलैंडर हर पल आप के साथ है न,’’ कह कर चंदनजी ने आज्ञा ली और हाथ जोड़ कर मुझे नमस्कार किया.उन के जाने के बाद बाबूजी ने कहा, ‘‘दुलहन का यह सहकर्मी भला इंसान है. देखो तो, सब की रुचि के अनुसार नववर्ष की भेंट दे कर चला गया. आजकल के युग में ऐसे भलेमानुष दुर्लभ हैं. आकाश बेटे, तुम्हारा क्या विचार है?’’

‘‘मैं आप से विपरीत विचार रखता हूं. मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि अति विनम्रता, अकारण विनम्रता व्यक्ति की धूर्तता पर पड़ा आवरण है. मुझे यह व्यक्ति मतलबी, धोखेबाज और…’’

आकाश की बात बीच में ही काटते हुए मैं ने कहा, ‘‘आप को तो हर बात में मनोविज्ञान नजर आने लगता है. अकारण किसी पर संदेह करना कौन सा बड़प्पन है? कालेज में वे सब के सुखदुख में शामिल रहने वाले आदमी हैं.’’

‘‘ओहो, आप दोनों बहस करने बैठ गए. देखिए, चंदन चाचा का दिया, कलैंडर कितना खूबसूरत है,’’ बेटे ने पिता के गले में बांहें डाल कर लाड़ जताते हुए कहा.

‘‘वाह, साल का नया कलैंडर. बेटे, यह तो मछली को फंसाने के लिए फेंका गया चारा है…चारा. चंदन बीमा एजेंट है और नएनए लोगों को येनकेन प्रकारेण आकर्षित करना उस का खास शगल है,’’ आकाश ने मुंह बनाते हुए कहा और उठ कर स्नानघर में चले गए.

कालेज में सुप्रिया से भेंट हुई. वह मेरी अंतरंग सहेली थी. उस से मैं ने चंदन वाली बात बताई तो उस ने भी मेरे विचारों से सहमत होते हुए कहा, ‘‘ये पति लोग भी बड़े अजीब होते हैं, हमारे मुंह से किसी की तारीफ सुन ही नहीं सकते. कोई न कोई मीनमेख जरूर निकाल लेंगे. न हुआ तो उसे आवारा, बदचलन ही साबित कर देंगे.’’

‘‘ठीक कहती हो तुम. आकाश को भी हर चीज में गड़बड़ नजर आती है. पर मेरे बाबूजी बहुत भले आदमी हैं. वे ही मेरे सब से बड़े हिमायती हैं.’’

‘‘क्या बातें हो रही हैं?’’ दूर से आते हुए चंदनजी ने कहा.

‘‘जी, कुछ नहीं, नई समयसारणी की चर्चा हो रही थी. 2-2 पीरियड खाली रहने के बाद शाम तक क्लास…’’ सुप्रिया ने बात बदलते हुए कहा.

‘‘लाइए, समयसारणी मुझे दे दीजिए और कक्षाएं कैसेकैसे ऐडजस्ट करनी हैं, इस पर पीछे लिख दीजिए. मैं इंचार्ज से कह कर ठीक करवा दूंगा,’’ चंदन ने विनम्रता से कहा.

सुप्रिया ने समयसारणी निकाली और इच्छानुसार हम दोनों की कक्षाएं निर्धारित कर कागज के पीछे लिख दीं. फिर कागज चंदन को देते हुए कहा, ‘‘इंचार्ज तो बड़े टेढ़े आदमी हैं, संभव है, इसे स्वीकार नहीं करेंगे.’’

‘‘उन्हें समझाना और मनाना मेरा काम है, आप निश्ंचत रहें.’’

‘‘लो, चंदन बहुत ही नेक इंसान है. मैं ने उसे एक झूठी बात कही तो उस ने उस मुश्किल को भी आसान कर दिया,’’ सुप्रिया ने कहा.

‘‘चल, कैंटीन में बैठ कर चाय पीते हैं,’’ कह कर मैं ने सुप्रिया का हाथ थामा और कैंटीन की ओर बढ़ गई.

20 जनवरी को चंदनजी हमारी पदोन्नति का आदेश ले कर रसायनशास्त्र विभाग में पधारे. हमारी खुशी का तो ठिकाना ही नहीं था. घर बैठे, बिना कुलपति, कुलसचिव की जीहुजूरी किए पदोन्नति हमारी कल्पना से परे थी, अविश्वसनीय थी. सब ने हमें बधाई दी और एक स्वर में कहा, ‘‘चंदन ने आप दोनों के लिए बहुत परिश्रम किया, उसे तो इनाम मिलना चाहिए.’’

इनाम शब्द कह कर कुछ लोग बड़े अजीब ढंग से मुसकराए, जो हमें अजीब लगा.

बाबूजी को जब मैं ने अपनी पदोन्नति का कागज दिया तो वे बेहद खुश हुए और चंदनजी को मन ही मन शुभकामनाएं दीं. दिन बीतते रहे. फरवरी माह में आयकर की विवरणी के संबंध में कार्यालय से एक नोटिस मिला. उस में चेतावनी थी कि अगर हम ने 40 हजार रुपयों का राष्ट्रीय बचतपत्र अथवा अन्य उपाय नहीं किए तो लगभग 8 हजार रुपए आयकर के रूप में जमा करने होंगे. हर वर्ष इस प्रकार की स्थिति आती थी और सामान्यतया आकाश की इच्छानुसार मैं आयकर ही देती आई थी. इस बार भी मेरे जिक्र करने पर आकाश ने कहा, ‘‘8 हजार रुपए बचाने के लिए 40 हजार रुपए निवेश करना हमारे लिए मुश्किल है. हाउसिंग बोर्ड को पैसे देने हैं, बच्चों का दाखिला है…आयकर दे देना.’’

अकसर मैं वही करती थी जो आकाश चाहते थे. इस से 2 लाभ होते, एक तो परिणाम से मैं निश्ंिचत रहती. जो भी होता, अच्छा या बुरा, आकाश के ऊपर उस की जवाबदेही होती. दूसरे, इस से परिवार में असीम सुख एवं शांति रहती थी. दूसरे दिन दोपहर में मैं अपने ससुर के साथ बैठी पुरानी तसवीरों का अलबम पलट रही थी कि चंदनजी आ गए. बाबूजी को प्रणाम किया और मगही पान का बीड़ा उन को दे कर बोले, ‘‘इस बेटे की ओर से.’’

इधरउधर की बातें होने के बाद चाय की चुसकियों के साथ आयकर की चर्चा छिड़ गई. चंदन ने जीवन बीमा के सैकड़ों फायदों का बखान किया.

मैं ने कहा, ‘‘मेरे पति आयकर देने के ही मूड में हैं.’’

‘‘वह तो ठीक है, परंतु आप सोचिए, सरकारी खजाने में 8 हजार रुपए जाने से सरकार को जो भी लाभ हो, हमें और आप को क्या लाभ है?’’ चंदन ने पूछा.

‘‘देखो बेटा, सरकार को जो पैसा आयकर के रूप में देते हैं, उसी से तो कल्याण कार्य होते हैं,’’ बाबूजी ने कहा.

‘‘पर चाचाजी, जो 8 हजार रुपए सपनाजी टैक्स के रूप में जमा करेंगी, केवल उतने का ही अगर बीमा करवा लें तो मालूम है, अगले 20 वर्षों में उन्हें लगभग 6 लाख रुपए बीमा कंपनी देगी.’’

‘‘हां, यह बात तो ठीक है, पर बाकी राशि तो टैक्स के रूप में भरनी ही होगी,’’ मैं ने 6 लाख रुपए का सपना देखते हुए कहा.

‘‘उस की चिंता आप मुझ पर छोड़ दें, मैं आप को कुछ ऋण दिला दूंगा. आप के आरडी अथवा बीमा के एवज में उन पैसों की अदायगी प्रतिमाह किस्त के रूप में हो जाएगी. पदोन्नति के बाद जो बढ़ोतरी हुई है, उन्हीं पैसों से वह सब हो जाएगा,’’ चंदनजी ने मुसकराते हुए आगे कहा, ‘‘तो लीजिए, यह फौर्म भर दीजिए, मुझे चार पैसे मिल जाएंगे कमीशन के रूप में और आप का भविष्य पूरी तरह सुरक्षित हो जाएगा.’’

मैं ने ससुरजी से कहा, ‘‘जरा भीतर चलिए, बाबूजी.’’

‘‘क्या बात है, बेटी?’’ भीतर जा कर बाबूजी ने पूछा.

‘‘बाबूजी, मैं क्या करूं? आप के पुत्र टैक्स देने को कहते हैं, चंदनजी बीमा कराने को. चंदनजी के अलावा अन्य कोई ऐसा नहीं जो कालेज में हमारी समस्याओं को सुलझा सके.’’

‘‘तुम फौर्म पर दस्तखत कर दो, मैं आकाश को समझा दूंगा,’’ बाबूजी ने मेरे सिर पर हाथ रखते हुए कहा.

मैं ने हस्ताक्षर कर फौर्म चंदनजी को लौटा दिया और बाकी कौलमों को उन्हें स्वयं भर देने का आग्रह किया. चंदनजी ने उन्हें भर दिया और प्रसन्न मन से चले गए. सबकुछ चंदनजी ने ही किया था. ऋण दिलाना, ऋण के पैसों से फिर बचतपत्र खरीद कर ला देना, बीमा की राशि जमा करवा देना वगैरहवगैरह. आकाश से हम ने न तो चर्चा की, न उन्होंने स्वयं कभी इस संबंध में पूछताछ की. एक दिन मैं कालेज से लौटी तो पितापुत्र दोनों मुंह फुलाए बैठे थे.

‘‘क्या बात है, आप लोग चुपचाप हैं?’’ मैं ने हिम्मत कर के पूछ लिया.

‘‘तो क्या जश्न मनाऊं? बीमा कराने का बड़ा शौक है न तुम्हें, पहले का कराया हुआ बीमा ही हम से नहीं संभल रहा है, ऊपर से यह सब…’’ कहते हुए उन्होंने बीमे का बौंड, जो रजिस्टर्ड डाक से आया था, मेरी ओर फेंक दिया.

पहले तो चोरी पकड़ी जाने के एहसास से मैं घबराई, फिर संभलते हुए कहा, ‘‘आप को तो मेरा लिया गया एक भी निर्णय सही नहीं लगता.’’

‘‘बकवास बंद करो, हमेशा उलटा सोचने की आदत है तुम्हारी. अरी पागल, बाबूजी तो सीधेसादे गृहस्थ ठहरे, ये क्या जानें आयकर और बीमावीमा को. इन्होंने इसलिए हां कर दी, क्योंकि तुम्हारे कथनानुसार चंदन तुम्हारी बहुत सहायता करता है. पर जान लो, तुम ने बीमा करा के उस का काम पूरा कर दिया. वह अब तुम से कोई भी मतलब नहीं रखेगा. बीमा न करातीं तो कम से कम वह मृगतृष्णा में ही तुम्हारी मदद करता रहता,’’ इतना कह कर आकाश मुसकरा दिए.

उन का मुसकराना देख बाबूजी हंस पड़े और बोले, ‘‘अब तुम भी हंसो दुलहन. आकाश का गुस्सा जाड़े की धूप की तरह है, बैठो तो सरकता जाए.’’

बहरहाल, वह साल गुजर गया, नया साल फिर आ गया. पूरे दिन मैं मन ही मन चंदनजी का इंतजार करती रही. पुराना कलैंडर उतर चुका था. उस की जगह खाली पड़ी थी. बाबूजी ने शाम को कहा, ‘‘चंदन कहता था कि वह हर साल इतना ही खूबसूरत नया कलैंडर दीवार पर टांगता रहेगा…आया नहीं?’’

‘‘वह अब कभी नहीं आएगा बाबूजी, नया कलैंडर ले कर वह किसी नए शिकार की टोह में निकला होगा,’’ आकाश ने कहा.

‘इंसान भूल भी तो सकता है, व्यस्त भी तो हो सकता है, बीमार भी तो पड़ सकता है. आप को तो बस…’ मैं ने बुदबुदाते हुए कहा. तभी फोन की घंटी बजी. चंदन ने मुबारकबाद दे कर कहा कि इस वर्ष नया कलैंडर मिला ही नहीं.

2 जनवरी को कालेज के बाद सुप्रिया ने कहा, ‘‘मेरी एक सहपाठिन यहां डाक्टर बन कर आई है. उस ने फोन किया था. चलो, आज उस के घर चल कर उसे नए साल की बधाई दे आएं.’’

रास्ते में सुप्रिया मुझे अपनी सहेली के स्वभाव के बारे में बताती रही. उस ने कहा कि वह किसी सहपाठी से प्यार करती है, इसलिए अब तक कुंआरी है.

मैं ने कहा, ‘‘तो शादी क्यों नहीं कर लेती?’’

‘‘कैसे करेगी, प्रेमी तो शादीशुदा है. इसे जब तक मालूम हुआ, पानी सिर से ऊपर पहुंच चुका था. अब यह बिहार में और वह गुजरात में, अपनेअपने दिलों में प्यार छिपाए बैठे हैं.’’

‘‘यह तो पागलपन है, छिछोरापन है,’’ मैं ने कहा.

‘‘क्या राधा पागल थी? कृष्ण छिछोरे थे?’’ उस ने पूछा.

‘‘अब मैं क्या कहूं. वह हमारी तरह साधारण…’’ बात बीच में ही रुक गई. डा. शोभना का निवास आ चुका था.

गैलरी में हम दोनों ठिठक गईं. चंदनजी, शोभना के पिताजी के लिए ताजी मछलियां, डायरी और कलैंडर ले कर हाजिर थे. सुप्रिया ने मुझे चुप रहने का संकेत किया.

चंदनजी कह रहे थे, ‘‘शोभनाजी, 2 माह पूर्व आप आईं, मगर समाजसेवा से मुझे फुरसत कहां जो इतनी महान त्याग की मूर्ति के दर्शन कर सकूं. आज सोचा आप के पिताजी मेरे पिताजी जैसे हैं. कोई ला कर दे, न दे, मैं हर साल पिताजी को पुत्र की तरह नया कलैंडर, नई डायरी और ताजी मछलियां दे कर बधाई दूंगा.’’

‘‘बड़ा सुंदर कलैंडर है,’’ पिताजी ने कहा.

‘‘सीमित मिलता है, कल से ही खासखास मित्रों को बांट रहा हूं. यह अंतिम आप के घर की दीवार पर मेरी याद…’’

मैं ने कहा, ‘‘चंदनजी, हमारा कलैंडर कहां गया?’’

‘‘अरे, तुम दोनों कब आईं?’’ शोभना ने उठ कर स्वागत करते हुए कहा.

‘‘जब ये महोदय तुम्हें खास मित्र, त्याग की मूर्ति और न जाने क्याक्या कह रहे थे,’’ सुप्रिया ने कहा.

चंदनजी को काटो तो खून नहीं. दीवार पर कलैंडर टांगते हुए उन के हाथ रुक से गए. अचानक उन्होंने, ‘नमस्ते पिताजी, नमस्ते शोभनाजी,’ कहा और चले गए.

‘‘बड़ा अजीब आदमी है. अभी साथ में खाना खाने का प्रोग्राम बना रहा था, तुम्हें देखते ही…’’

शोभना की बात बीच में ही काटते हुए मैं ने कहा, ‘‘दुम दबा कर भाग गया.’’ और फिर वहां समवेत ठहाका गूंज उठा

New Year Special : एक नया सवेरा

प्रधानाचार्या ने पठनपाठन को ले कर सभी शिक्षिकाओं से मीटिंग की थी. इसी कारण रेणु को स्कूल से निकलने में देर हो गई, घर पहुंचतेपहुंचते 5 बज गए. जैसे ही वह घर में घुसी तो देखा कि उस के महल्ले की औरतों के साथ उस की सास और ननदों की पंचायत चालू थी. उस ने मन ही मन सोचा कि सिवा इन के पास पंचायतबाजी और गपशप करने के, कोई काम भी तो नहीं है. सारा दिन दूसरों के घरों की बुराई, एकदूसरे की चुगली और महल्ले की खबरों का नमकमिर्च लगा कर बखान करना, बस यही काम था उन का. कपड़े बदल कर, हाथमुंह धो कर वह वापस कमरे में आई तो उस की नजर घड़ी पर पड़ी. शाम के 6 बज चुके थे. ‘मुकेश अब आते ही होंगे’ यह सोच कर वह रसोई में जा कर चाय बनाने लगी. साथसाथ चिप्स भी तलने लगी.

रेणु का विवाह उस परिवार के इकलौते लड़के मुकेश के साथ हुआ था. घर के खर्चों को सुचारु रूप से चलाने के लिए उसे नौकरी भी करनी पड़ी थी और घर का भी सारा काम करना पड़ता था, जबकि ससुराल में 1 अविवाहित ननद थी और 2 विवाहित, जिन में से एक न एक घूमफिर कर मायके आती ही रहती थी. इन सब ने मिल कर रेणु का जीना हराम कर रखा था. सारा दिन बैठ कर गपें मारना, टीवी देखना और रेणु के खिलाफ मां के कान भरना, बस यही उन का काम होता था.

अभी वह चाय कपों में डाल ही रही थी कि मुकेश आ गए. मेज पर चाय के कपों को देख कर बोले, ‘‘वाह, क्या बात है. ठीक समय पर आ गया मैं.’’

तभी चापलूसी के अंदाज में छोटी ननद बोली, ‘‘भैया, देखिए न आप के लिए मैं ने चिप्स भी तले हैं.’’

रेणु यह सुन मन ही मन कुढ़ कर रह गई. कुछ कह नहीं पाई क्योंकि सास जो सामने बैठी थी.

बहन की बात सुन कर मुकेश रेणु की ओर देख हंसते हुए बोले, ‘‘देखा, मेरी बहनें मेरे खानेपीने का कितना खयाल रखती हैं.’’

यह सुन कर रेणु के तनबदन में आग लग गई पर वह एक समझदार, शिक्षित युवती थी. घर के माहौल को तनावपूर्ण नहीं बनाना चाहती थी, अतएव चुप रही. मुकेश अपनी मां और बहनों से काफी प्रभावित रहते थे. य-पि रेणु के प्रति उन का रवैया खराब न था मगर उन की आदत कुछ ऐसी थी कि वे मां और बहन के विरुद्ध एक भी शब्द सुनना पसंद नहीं करते थे.

‘‘भैया, शाम के खाने में क्या बनाऊं?’’ छोटी ननद बोली.

‘‘ऐसा करो कि आलू के परांठे और मटरपनीर की सब्जी बना लो,’’ मुकेश ने उत्तर दिया.

रेणु मन ही मन भन्ना गई कि बातें तो ये ऐसी करती हैं कि मानो सारा काम यही करती हों जबकि हकीकत तो यह थी कि इन को करनाधरना कुछ नहीं होता, सिवा मुकेश के सामने चापलूसी करने के.

चाय पी कर रेणु कपप्लेटें उठा कर रसोई में आ कर उन्हें साफ करने लगी. मगर किसी भी ननद से यह नहीं हुआ कि आखिर भाभी औफिस से थकहार कर आती हैं, उन की जरा सी मदद ही कर दें.

ननदों द्वारा उस के काम में छींटाकशी और नुक्ताचीनी करना प्रतिदिन का काम बन गया था. रेणु को अपमान का घूंट पी कर चुप रह जाना पड़ता था. मन ही मन सोचती कि मांजी का बस चले तो दोनों विवाहिता बेटियों को बुला कर यहीं रखें. उन्हें इस बात का एहसास ही नहीं कि इस महंगाई के जमाने में, इस थोड़ी सी कमाई में अपना ही खर्च ठीक से नहीं चल पाता, ऊपर से ननदों का आनाजाना जो लगा रहता, सो अलग. पर इन सब बातों से उन्हें क्या मतलब?

अगर कभी रेणु कुछ कहे भी, तो वे कहतीं, ‘मैं कौन सी तुम्हारी कमाई पर डाका डाल रही हूं, मैं तो अपने बेटे की कमाई खर्च करती हूं. आखिर वह मेरा बेटा है. उस पर मेरा अधिकार है.’

मुकेश तो इन मामलों में बोलते ही न थे, न ही वे जानते थे. वे तो मां के सामने हमेशा आज्ञाकारी बेटा बने रहते और मांजी उन की कमाई इसी तरह लुटाती रहतीं.

रेणु ने रसोई में आ कर प्रैशरकुकर में आलू चढ़ा दिए. तभी छोटी ननद आ कर बोली, ‘‘भाभी, मैं भी सीरियल देखने जा रही हूं, बाकी काम आप निबटा लेना.’’

रेणु ने मन ही मन सोचा कि यह तो उन लोगों का रोज का काम है. बस, भैया या फिर उस के मायके से कोई आ जाए तो दिखावे के लिए उस के इर्दगिर्द घूमती रहेंगी. खैर, यह कोई एक दिन की समस्या नहीं है. और उस ने अपने विचारों को किनारे झटक कर एक चूल्हे पर सब्जी चढ़ा दी और दूसरे पर परांठे सेंकने लगी. इधर उस ने परांठे सेंक कर खत्म किए कि सब लोग खाने बैठ गए. सब को परोसनेखिलाने के बाद जो कुछ भी बचा, उसे खा कर वह उठ गई. रात काफी देर तक बरतन आदि साफ कर जब वह अपने कमरे में पहुंची तो मुकेश जाग ही रहे थे. वे कोई पत्रिका पढ़ने में तल्लीन थे. रेणु को देख कर बोले, ‘‘आज तो तुम ने काफी देर लगा दी?’’

‘‘जल्दी आ जाती तो घर के ये काम कौन करता?’’

‘‘क्या घर में मां और बहनें हाथ नहीं बंटातीं?’’

‘‘पहले कभी हाथ बंटाया है जो आज बंटाएं,’’ रेणु ने उत्तर दिया.

‘‘क्यों तुम हमेशा झूठ बात कहती हो, मेरे सामने तो वे सब तुम्हारी मदद करती रहती हैं?’’

‘‘बस, उतनी ही देर जितनी देर आप घर में रहते हैं.’’

‘‘मुझे तो ऐसा नहीं लगता,’’ मुकेश बोला.

बात को आगे न बढ़ने देने के उद्देश्य से रेणु चुप रही.

रेणु जब सुबह सो कर उठी तो देखा कि भोर की किरणें खिड़की के रास्ते कमरे में आहिस्ताआहिस्ता प्रवेश कर रही थीं. वह जल्दी से उठ कर स्नानघर की ओर चल दी, क्योंकि उसे मालूम था कि उस की सास और ननदों में से कोई भी जल्दी सो कर उठने वाला नहीं है. खाना बना कर उस दिन रेणु तैयार हो कर औफिस चल दी. तब तक उस की सास उठ गई थी, जबकि ननदें तब भी सो ही रही थीं. सुबह रेणु कपड़े धो कर छत पर सूखने के लिए डाल गई थी, सो, शाम को जब वह औफिस से लौटी तो उन्हें उठाने के लिए छत पर गई. कपड़ों को ले कर लौट ही रही थी कि न जाने कैसे उस का पैर फिसला और वह धड़ाम से 7-8 सीढि़यां लुढ़कती हुई आ कर आंगन में गिर गई. उस का सिर फट गया और वह बेहोश हो गई थी. सास और ननदों के शोर मचाने पर पूरा महल्ला इकट्ठा हो गया. महल्ले के किसी व्यक्ति ने मुकेश को खबर कर दी थी. सो, वे भी बुरी तरह घबराए हुए अस्पताल पहुंच गए. डाक्टरों ने तुरंत रेणु को आपातकालीन कक्ष में ले जा कर उस का इलाज शुरू कर दिया. उस के सिर में काफी चोट आ गई थी. 4-5 टांके लगाने पड़े. कुछ देर पश्चात सीनियर डाक्टर ने कहा, ‘‘दाहिने पैर की हड्डी टूट गई है. उस पर प्लास्टर चढ़ाना होगा.’’ काफी देर रात तक उस का उपचार चलता रहा. मुकेश ने पूरी रात जाग कर गुजार दी. जब रेणु को होश आया तो उस ने खुद को अस्पताल के बिस्तर पर पट्टियों से बंधा हुआ पाया. उस ने कराहते हुए पूछा, ‘‘मैं कहां हूं, और यह मुझे क्या हो गया है?’’

‘‘तुम्हें कुछ नहीं हुआ है. बस, सिर व पैर में थोड़ी सी चोट आ गई है,’’ मुकेश ने उस के सिर पर अपनत्व के साथ हाथ फेरते हुए जवाब दिया.

एक हफ्ते बाद रेणु को अस्पताल से छुट्टी देते हुए डाक्टर ने मुकेश और साथ में खड़ी उस की मां को हिदायत देते हुए कहा, ‘‘मांजी, अब  बहू को 3 महीने के पूर्ण आराम की आवश्यकता है. और हां, मरीज को हर रोज दूध, फल, जूस आदि दिया जाए.’’

घर पहुंच कर मुकेश ने उस का बिस्तर खिड़की के किनारे लगा दिया, जिस से खुली हवा भी आती रहे और बाहर के दृश्य से रेणु का मन भी बहला रहे. इधर रेणु को 3 महीने तक लगातार पूर्ण आराम करने की बात सुन कर उस की सास छोटी बेटी से कहने लगी, ‘‘बेटी, अब घर का काम कैसे होगा? हम लोगों ने तो काम करना ही छोड़ दिया था. सारा काम बहू ही करती थी. फिर, मैं कुछ करना भी चाहती थी तो तू मना कर देती थी.’’

दूसरे दिन मुकेश को औफिस जाना था. उन्हें न समय से चाय मिल सकी और न ही नाश्ता. खाने की मेज पर पहुंचते ही उन की तबीयत खिन्न हो गई क्योंकि मां ने खिचड़ी बना कर रखी थी. मुकेश को खिचड़ी बिलकुल पसंद न थी. जैसेतैसे थोड़ी सी खिचड़ी खा कर मुकेश ने दफ्तर का रास्ता लिया. पिछले 15 दिनों से मुकेश देख रहे थे कि घर की सारी व्यवस्था बिलकुल चरमरा गई थी. घर में कोई भी काम समय से पूरा न होता था. न ढंग से नाश्ता बनता, न समय से चाय मिलती और न ही समय पर खाना मिलता. इधरउधर गंदे बरतन पड़े रहते. जबकि रेणु के ठीक रहने पर घर का कोई भी काम अधूरा न रहता था.

आखिर एक दिन मुकेश ने गुस्से में आ कर मां के सामने ही कह दिया. छोटी बहन भी खड़ी सुन रही थी, ‘‘इन दिनों आखिर घर को क्या हो गया है? कोई भी काम समय पर, सलीके से क्यों नहीं होता? आखिर पहले इस घर का सारा काम कौन करता था? कैसे समय पर चायनाश्ता, समय पर खाना, कपड़ेलत्ते धुले हुए और सारे घर में झाड़ूपोंछा लगा होता था. हर सामान करीने से सजा और अपनी जगह मिलता था, जबकि अब पूरा घर कूड़ाघर में तबदील हो चुका है. हर सामान अपनी जगह से गायब, कपड़े गंदे, जहांतहां धूल की परतें और हर जगह मक्खियां भिनभिनाती हुईं. आखिर यह घर है या कबाड़खाना?’’

‘‘भैया, हम लोग पूरी कोशिश करते हैं, फिर भी थोड़ीबहुत कमी रह ही जाती है,’’ छोटी बहन बोली.

अब मां और छोटी बहन कहें तो क्या कहें? कैसे अपनी गलती स्वीकार करें? अपनी गलती स्वीकार करने का मतलब था कि इस से पहले वे रेणु के साथ दुर्व्यवहार करती थीं. मगर अब झूठ का परदाफाश होना ही था. आखिर कितने दिन सचाई को झुठलाया जाता.

एक दिन शाम को मां चौके में खाना बना रही थीं जबकि उन की उस दिन तबीयत ठीक नहीं थी. उन्होंने छोटी बेटी को आवाज दे कर कहा, ‘‘बेटी, जरा मेरी मदद कर दे. आज मेरी तबीयत ठीक नहीं है,’’ बेटी रानी आराम से लेट कर टीवी पर फिल्म देख रही थी, अतएव उस ने वहीं से लेटेलेटे उत्तर दिया, ‘‘क्या मां, थोड़े से काम के लिए भी पूरा घर सिर पर उठा रखा है. जरा सा काम क्या करना पड़ा कि मेरी नाक में दम कर दिया है.’’

अपनी ही जाई संतान का टके सा उत्तर सुन कर मां का चेहरा उतर गया. उन्हें अपनी बेटी से ऐसी आशा न थी. वे सोचने लगीं कि रेणु है तो बहू पर उस ने कभी भी उन की किसी बात का पलट कर जवाब नहीं दिया. हमेशा मांजीमांजी कहती उस की जबान नहीं थकती जबकि वे हमेशा उस के हर काम में नुक्ताचीनी करतीं. इन्हीं बेटियों के कहने पर वे रेणु के साथ दुर्व्यवहार करतीं, छींटाकशी करतीं. अब तो वह बिस्तर पर पड़ी है. उस के साथ ज्यादती करना गुनाह होगा. फिर बहू भी तो बेटी ही होती है.

मांजी खाना बनाते हुए सोचती जा रही थीं कि रेणु भी आखिर किसी की बेटी है. फिर उस ने इस घर को सजानेसंवारने में क्या कमी छोड़ी है. मुकेश तो सारा दिन घर पर रहता नहीं, और यह छुटकी सारा दिन इधरउधर कूदा करती है. कल को इस की शादी हुई नहीं कि फुर्र से चिडि़या की तरह उड़ जाएगी और रह जाऊंगी मैं अकेली. फिर मेरी सेवा कौन करेगा? बुढ़ापे में तो बहू को ही काम में आना है. कभी कोई हादसा हो गया तो सिवा बहू के, कोई देखभाल करने वाला न होगा. बेटियों का क्या, 2-4 दिनों के लिए आ कर खिसक लेंगी. काम तो आएगी बहू ही, तो फिर असली बेटी तो बहू ही हुई…एक के बाद एक विचार आजा रहे थे.

अब मांजी ने रेणु की देखभाल कायदे से करनी शुरू कर दी. उसे समय पर दवा देतीं, चाय देतीं, जूस देतीं और पास बैठ कर घंटों उस से बातचीत करती थीं.

तीसरा महीना खत्म होतेहोते रेणु का स्वास्थ्य काफी सुधर गया. अब उस के पैर का प्लास्टर भी काट दिया गया था. फिर भी डाक्टर ने उसे किसी भी प्रकार का काम करने के लिए मना किया था. रेणु ने सुबह उठ कर चाय बनाने की कोशिश की तो मांजी ने उस का हाथ पकड़ कर उसे कुरसी पर बिठा दिया. फिर उन्होंने छुटकी को बुला कर डांटते हुए चाय बनाने का आदेश दिया और बोलीं, ‘‘बहू कुछ दिन और आराम करेगी. चौके का काम अब तुझे संभालना है. बहुत हो चुकी पढ़ाईलिखाई और इधरउधर कूदना.’’

छुटकी ने तपाक से उत्तर दिया, ‘‘मां, जब मुझे कुछ बनाना ही नहीं आता तो कैसे करूंगी यह सब काम?’’

‘‘तुझे अब सबकुछ सीखना होगा, नहीं तो कल को तू भी बड़की की तरह कामकाज से बचने के लिए रोज ससुराल छोड़ कर आ जाया करेगी. यह बहानेबाजी अब और नहीं चलने वाली. तुम सब के चक्कर में ही बहू की यह दशा हुई है.’’

‘‘आखिर भाभी अगर सीढि़यों से गिर पड़ीं तो उस में मेरा क्या दोष?’’ छुटकी ने उत्तर दिया.

‘‘क्या सारे घर के कपड़े सुखानाउठाना उसी का काम है? तुम अगर इतनी ही लायक होतीं तो यह हादसा ही न होता,’’ मांजी बोलीं.

छुटकी हैरानपरेशान थी कि आखिर मां को यह क्या हो गया है जो वे एकदम से भाभी की तरफदारी में लग गईं. आखिर भाभी ने ऐसी कौन सी घुट्टी पिला दी मां को.

शाम को खाने की मेज पर बड़ा ही खुशनुमा पारिवारिक माहौल था. सब खाने की मेज पर बैठे हुए थे. छुटकी सब को खाना परोस रही थी कि तभी मुकेश बोले, ‘‘मां, आज तो छुटकी बड़ी मेहनत कर रही है.’’

‘‘तो कौन सा हम पर एहसान कर रही है. इसे पराए घर जाना है. यह सब इसे सीखना ही चाहिए.’’

मांजी का उत्तर सुन कर मुकेश और रेणु एकदूसरे की ओर देख कर अर्थपूर्ण ढंग से मुसकराए. रेणु समझ नहीं पा रही थी कि मां और ननद इतनी जल्दी कैसे बदल गईं.

उधर मां को रेणु की दुर्घटना से नसीहत के रूप में एक नई दृष्टि मिली थी. रेणु परिवार में परिवर्तन देख कर एक नए सवेरे का एहसास कर रही थी.

New Year Special : एक नई शुरुआत

बैंक के जोनल औफिस पहुंचा तो पता चला जोनल मैनेजर मीटिंग में व्यस्त हैं. उन के पीए ने बताया कि लगभग 3 घंटे बाद मैडम फ्री होंगी. उन के आते ही आप के मिलने की स्लिप उन तक पहुंचा दी जाएगी. मेरे पास सिवा इंतजार करने के और कोई चारा न था, इसलिए वहीं सोफे पर बैठ गया. जोनल औफिस, मैं अपनी नियुक्ति के सिलसिले में गया था. मेरा बैंक अधिकारी से शाखा प्रबंधक के लिए प्रमोशन हुआ था. मेरी नियुक्ति मेरे शहर से काफी दूर कर दी गई थी. मैं इतनी दूर जाना नहीं चाहता था क्योंकि पत्नी का देहांत हाल ही में हुआ था और मैं बिलकुल तनहा रह गया था. नए शहर जा कर मुझे और तनहाइयों से रूबरू होना पड़ता, सो स्थानीय नियुक्ति ही चाहता था. बेटाबहू आस्ट्रेलिया में थे. वे चाहते थे कि मैं वीआरएस ले कर उन के साथ रहूं लेकिन मैं ने इनकार कर दिया. मेरी सर्विस के अभी 5 साल बाकी थे. दिन तो बैंक में कट जाता था लेकिन रात काटे नहीं कटती थी.

कुछ मित्रों ने दूसरी शादी की सलाह दी लेकिन इस के लिए मैं राजी न था क्योंकि इस उम्र में शादी के बारे में सोच कर ही शर्म सी महसूस होती थी. बेटेबहू क्या सोचेंगे? लोग क्या कहेंगे? और फिर मैं अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करता था, उस ने मेरा इतना साथ निभाया और अब उम्र के इस मोड़ पर शादी, मेरी नजर में यह उस के साथ विश्वासघात जैसा था. हां, कुदरती जरूरतें पूरी न हो सकने के कारण मैं जिद्दी हो गया था. कामवाली बाई को मैं बिना वजह डांट देता था. वह पासपड़ोस वालों के बीच मुझे ‘सनकी’ कहती थी. अकसर सहकर्मियों और ग्राहकों से मेरी झड़प हो जाती. वे सब मुझे पीठपीछे न जाने क्याक्या कहते रहते.

‘‘सर, मैडम आ चुकी हैं. प्लीज, अपना नाम बताइए,’’ पीए ने कहा तो मैं वर्तमान में लौट आया.

‘‘जी, शुभेंदु कुमार.’’ थोड़ा इंतजार करने के बाद जैसे ही घंटी बजी, चपरासी दौड़ कर मैडम के केबिन में गया. लौट कर आया तो पता चला मैडम ने मुझे बुलाया है. केबिन में प्रवेश करते ही मैडम को देखा तो ठगा सा रह गया. मेरी उम्र से लगभग 1-2 वर्ष ही छोटी होंगी. देखने में सौम्य और सुंदर. पद की गरिमा से उन का संपूर्ण व्यक्तित्व दमक रहा था.

‘‘आप किस काम से आए हैं?’’ बहुत ही संयमित स्वर में उन्होंने पूछा.

‘‘जी मैडम, मेरी नियुक्ति मेरे शहर से बहुत दूर कर दी गई है. मैं चाहता हूं मुझे स्थानीय नियुक्ति ही मिल जाए.’’

‘‘दूर न जाने की कोई तो वजह होगी शुभेंदुजी?’’

‘‘मैडम, मैं वहां बिलकुल अकेला पड़ जाऊंगा, न जान न पहचान,’’ मैं निरीहभाव से बोला.

‘‘जानपहचान तो धीरेधीरे बढ़ जाएगी, फिर आप अकेले कहां हैं, आप अपनी पत्नी को साथ ले जाइए,’’ मैडम ने हलकी सी मुसकराहट से कहा.

‘‘उन का देहांत हो चुका है,’’ मैं ने भरे स्वर में कहा तो मैडम असहज सी हो उठीं. ‘‘सौरी, शुभेंदुजी, मुझे मालूम नहीं था,’’ कहते हुए वे हलकी सी भावुक हो उठीं. उन की आंखों में मैं ने आंसुओं की नमी को देख लिया था जिसे उन्होंने बड़ी चतुराई से पसीना पोंछने के बहाने अपने रूमाल से पोंछ लिया. वास्तव में नारी बहुत संवेदनशील होती है. जरा सा भी दुख का झोंका उस के करीब से गुजर जाए तो वह सूखे पत्ते की तरह कंपकंपा उठती है, झट से आंखें भर आती हैं. जबकि पुरुष इस मामले में थोड़े अलग होते हैं. वे अपना दुखदर्द अपने अंदर इस तरह जब्त कर लेते हैं कि सामने वाले को इस का एहसास ही नहीं होता. बस, भीतर ही भीतर घुटते रहते हैं, जैसे मैं घुट रहा था.

फिर वे थोड़ा सहज हुईं. शायद, वे अपने औरत वाले खोल से बाहर आ कर एक अधिकारी वाली छवि से बोलीं, ‘‘शुभेंदुजी, आप के पास कोई ठोस वजह नहीं है कि जिस के आधार पर हम आप की नियुक्ति स्थानीय ही रहने दें. अगर आप प्रमोशन लेना चाहते हैं तो आप को बाहर जाना ही पड़ेगा.’’

‘‘मैडम, गाजियाबाद जैसे शहर में तो मेरा अपना कोई है ही नहीं. अगर संभव हो तो मेरे शहर के आसपास ही मेरी नियुक्ति हो जाए जिस से मैं रोजाना अपडाउन कर सकूं,’’ मैं चापलूसीभरे स्वर में बोला. ‘‘गाजियाबाद में तो मैं भी रहती हूं. रोजाना दिल्ली आती हूं. मेरे फ्लैट की ऊपरी मंजिल खाली है, आप चाहें तो मेरे यहां बतौर पेइंगगैस्ट रह सकते हैं.’’ मैडम की आत्मीयता और अपनापन देख कर मैं गदगद हो उठा. भला कौन इतनी बड़ी अधिकारी अपने ब्रांच मैनेजर के लिए ऐसा सोच सकती है. जाने मुझे क्यों लगा, वे मुझ में दिलचस्पी ले रही हैं. सच कहूं तो वे मुझे अपनी अधिकारी से ज्यादा एक औरत लगीं और उन की गठी हुई देह देख कर इस उम्र में भी मैं रोमांचित हो उठा. जल्दी ही गाजियाबाद ब्रांच में जौइन करने के लिए उतावला हो गया. लेकिन मन में एक अज्ञात भय भी था, कहीं वहां रहते हुए मैं उन से कोई अमर्यादित या अशोभनीय हरकत न कर बैठूं जिस से मैं कहीं खुद अपनी नजरों में न गिर जाऊं.

जल्दी ही अपनी ब्रांच से रिलीव हो कर मैं ने गाजियाबाद की शाखा में जौइन कर लिया. शाम को मैडम के घर पहुंचा तो वहां एक बुजुर्ग पुरुष ने मेरा स्वागत किया, ‘‘आप बैंक मैनेजर शुभेंदुजी हैं न?’’

‘‘जी हां, मैडम ने अपने यहां…’’ मेरा वाक्य पूरा होने से पहले ही वे बोले, ‘‘जी हां, वह मैडम, मेरी बेटी अपूर्वा है, जोनल मैनेजर है. अभी औफिस से आई नहीं है. बस, आने वाली होगी. तब तक हम दोनों एकएक कप चाय पीते हैं,’’ कहते हुए उन्होंने अपने नौकर से चाय के लिए कह दिया. तभी गाड़ी का हौर्न बजा. शायद, मैडम आ गई थीं. मैं ने खड़े हो कर उन का अभिवादन किया तो वे खिलखिला कर बोलीं, ‘‘शुभेंदुजी, यह औफिस नहीं, मेरा घर है. यहां आप मेरे मेहमान हैं. आप मुझे अपूर्वा कहेंगे

तो मुझे अच्छा लगेगा.’’ वे फ्रैश हो कर आईं तो तब तक चाय आ गई थी. फिर हम तीनों ने साथ बैठ कर चाय पी. उन के पिताजी ने जब यह बताया कि अपूर्वा के पति का निधन एक सड़क दुर्घटना में हो गया है तो मुझे उन के प्रति सहानुभूति उमड़ आई. उन की सिर्फ एक ही बेटी थी जो अमेरिका में जौब कर रही थी. मैं घर की ऊपरी मंजिल में पेइंगगैस्ट बन रहने लगा था. मेरा मन वहां लग गया था. उन के पिताजी बहुत सुलझे, समझदार और जिंदादिल इंसान थे. रात का खाना हम तीनों साथ ही खाते थे. एक रोज सब्जी सर्व करते वक्त अपूर्वा का हाथ मुझ से छू गया तो मेरा पूरा जिस्म झनझना उठा.

बस, ट्रेन और भीड़भाड़ में न जाने कितनी बार स्त्रियों का शरीर मुझ से छुआ होगा लेकिन तब ऐसा कुछ महसूस नहीं हुआ. लेकिन अपूर्वा का क्षणिक स्पर्श मुझे अंदर तक बेचैन कर गया और मैं जल बिन मछली की तरह छटपटाने लगा. उस दिन से वे भी मुझे कुछ असहज सी दिखने लगीं. उस के बाद मुझे ऐसा महसूस होने लगा कि हम दोनों के बीच कुछ ऐसा है जरूर जो अदृश्य तो है लेकिन हम दोनों को जोड़ने के लिए प्रेरित कर रहा है. वह जुड़ाव कुछ भी हो सकता है- मानसिक, शारीरिक या भावात्मक. लेकिन अपनी बेचैनी और छटपटाहट का राज मुझे मालूम था, झूठ नहीं बोलूंगा, मेरा मन उन से शारीरिक जुड़ाव चाहता था. शायद वे मेरी इस मंशा को भांप गई थीं. लेकिन मैं उन का मन नहीं जान पा रहा था. हम दोनों के मध्य चल रहे अंर्तद्वंद्वों को सुलझाने में उन के अनुभवी पिताजी ने पहल की, ‘‘शुभेंदुजी, बिना किसी भूमिका और लागलपेट के मैं आप से स्पष्ट रूप से पूछना चाहता हूं, क्या आप मेरी बेटी से विवाह करेंगे.’’

वे इतनी जल्दी स्पष्ट रूप से शादी की बात पर आ जाएंगे, यह तो मैं ने सोचा ही नहीं था. मैं थोड़ा डर सा गया. यह डर समाज का, बेटेबहू का या खुद अपने अंदर का था, मुझे नहीं मालूम. मैं उन के सामने चुप ही रहा. ‘‘मैं जानता हूं, इस सवाल का जवाब आप के लिए थोड़ा मुश्किल है, इसलिए आप वक्त ले सकते हो. मेरी बेटी और उस के अतीत से तो आप परिचित हैं ही, मेरी धेवती अमेरिका में जौब कर रही है, शादी कर के वहीं सैटल होने का इरादा है उस का. उस ने खुद कहा है, ‘नानू, मौम हमेशा के लिए अमेरिका नहीं आएंगी, इसलिए उन की शादी करा दीजिए.’ ‘‘और सच कहूं, तो मैं भी चाहता हूं उस की जल्दी से शादी हो जाए. मेरा बुलावा पता नहीं कब आ जाए,’’ कहते हुए उन का गला भर आया.

मैं खुद समझ नहीं पा रहा था कि क्या कहूं, इसलिए उन से क्षमा मांग कर अपने कमरे में चला गया. इस उम्र में दूसरी शादी के बारे में सोचते हुए भी झिझक सी महसूस हुई. बेटेबहू के सामने शादी की बात करने की सोच कर तो शर्म सी महसूस हुई. लोग यही कहेंगे बीवी को मरे एक साल भी नहीं हुआ और दूसरा ब्याह रचा लिया और वह भी बुढ़ापे में. निशा ने पूरे 30 साल साथ निभाया, कितना खयाल रखती थी मेरा. मेरी छोटी से छोटी जरूरत पूरी करने के लिए पूरे दिन घर में चक्करघिन्नी की तरह घूमती रहती थी. यह तो उस के साथ विश्वासघात होगा. और वह भी तो अकसर कहती थी, ‘आप सिर्फ मेरे हो, मेरे. मुझे वचन दो कि मेरे मरने के बाद आप दूसरी शादी नहीं करोगे.’ चाहे वह यह बात सीरियसली कहती हो या मजाक में, लेकिन मैं हंस कर हामी भर देता था. इन्हीं सब वजहों से मैं शादी करने से हिचकिचा रहा था. हां, अपूर्वा का साथ तो चाहता था लेकिन सिर्फ शारीरिक रूप से. 2-3 दिन बाद अपूर्वा के पिताजी बोले, ‘‘शुभेंदु, मैं आप का जवाब जानना चाहता हूं. अपूर्वा चाहती है कि पहले आप जवाब दें.’’ ‘‘बाबूजी, इस उम्र में शादी? थोड़ा सा अजीब सा लगता है. हां, मैं जब तक यहां हूं अपूर्वाजी का पूरा खयाल रखूंगा. उन्हें किसी चीज के लिए कोई परेशानी नहीं होगी,’’ मैं थोड़ा अटकते स्वर में बोला.

‘‘यानी आप शादी नहीं करना चाहते,’’ उन के स्वर में भरपूर निराशा थी. मैं मन ही मन कुढ़ गया, ‘अजीब बुड्ढा है. शादी के पीछे ही पड़ गया है. बिना शादी के भी तो इस की बेटी खुश रह सकती है मेरे साथ. इस तरह एक पंथ दो काज हो जाएंगे. दोनों को अकेलेपन से छुटकारा मिल जाएगा और कुदरती जरूरत भी पूरी होती रहेगी.’ उसी रात अपूर्वा के पिताजी को हार्टअटैक आ गया तो मैं घबरा उठा, कहीं यह मेरी वजह से तो नहीं हुआ है. रात में ही उन्हें अस्पताल ले गए और उन का इलाज शुरू हो गया. दूसरी रात को उन के विश्वसनीय नौकर ने हम दोनों को घर भेज दिया, और खुद वहीं रुक गया. यह पहला मौका था जब पूरे घर में हम दोनों अकेले थे. कोई और वक्त होता तो शायद अपूर्वा से मैं कुछ कहता. अस्पताल में पूरा दिन हम दोनों ने काटा था, इसलिए थकान स्वभाविक थी. चायबिस्कुट के सिवा कुछ खाया भी नहीं था, इसलिए भूख भी महसूस हो रही थी लेकिन संकोचवश कुछ कह नहीं पा रहा था.

‘‘शुभेंदुजी, मुझे पता है इस वक्त हम दोनों पर थकान और भूख हावी है, इसलिए आप हाथमुंह धो कर जल्दी ही डाइनिंग हौल में आ जाइए, मैं तब तक खिचड़ी बना लेती हूं.’’ डाइनिंग टेबल पर गरमागरम खिचड़ी, साथ में दही, अचार और पापड़ भी थे. हम खिचड़ी खा रहे थे तभी अपूर्वा का मोबाइल बज गया, ‘‘ठीक है, मैं सुबह डाक्टर से बात कर लूंगी.’’

‘‘बाबूजी तो ठीक हैं न?’’ मैं ने चिंता व्यक्त करते हुए पूछा. गहरी सांस भर कर अपूर्वा बोलीं, ‘‘पिताजी कहां ठीक हैं? उन का ब्लडप्रैशर नौर्मल नहीं हो रहा, मुझे ले कर परेशान रहते हैं. बड़ी उम्मीद थी उन्हें आप से कि आप उन की बेटी से शादी कर लेंगे. आप का इनकार सह न सके वे.’’

‘‘अपूर्वाजी, मैं चाहता था…’’

‘‘मुझे पता है आप क्या चाहते थे और क्या चाहते हैं,’’ मेरा वाक्य पूरा होने से पहले ही वे बोल पड़ीं, ‘‘शुभेंदुजी, मैं एक औरत हूं, पूरे 50 वसंत काट चुकी हूं. अपने औफिस में काम के सिलसिले में रोज सैकड़ों पुरुषों से मिलना पड़ता है मुझे. चपरासी से ले कर मेरा पीए भी एक पुरुष है. मैं नादान टीनएजर नहीं हूं. ‘‘अरुण के जाने के बाद बाबूजी को सिर्फ मेरी चिंता खाए जा रही है. आप को देख कर उन्हें लगा, शायद आप उन की बेटी के अच्छे जीवनसाथी साबित हो सकते हो. यही सोच कर उन्होंने इस संबंध में आप से बात की थी. लेकिन अफसोस आप भी उन्हीं मर्दों की श्रेणी में आ गए जो सिर्फ अपने निजी स्वार्थ की खातिर मुझे अपनाना चाहते हैं.

‘‘मुझे से आधी उम्र के युवकों ने भी शादी के लिए हाथ बढ़ाया लेकिन मैं जानती थी कि वे शादी क्यों करना चाहते हैं. सिर्फ मेरी दौलत की खातिर. कुछ ऐसे हमउम्रों ने भी मुझ से विवाह की इच्छा व्यक्त की जो मेरे पद और प्रतिष्ठा से काफी कम थे. वे समाज में अपना रुतबा बढ़ाना चाहते थे अपनी बीवी को ढाल बना कर. ‘‘लेकिन आप को मेरी न तो दौलत की चाह है न पदप्रतिष्ठा की. आप मेरा साथ चाहते हैं लेकिन सिर्फ एक औरत के रूप में, पत्नी के रूप में नहीं.’’ यह सुन कर मेरी घिग्घी बंध गई. उन्होंने जो कुछ भी कहा था वह बिलकुल सच कहा था. वास्तव में वे नादान नहीं थीं. ‘‘शुभेंदुजी, झूठ नहीं बोलूंगी, पहली बार जब अपने केबिन में आप को देखा था और आप ने अपनी पत्नी के विषय में बताया था तो मुझे ऐसा लगा था जैसे आप का और मेरा दर्द एकजैसा है, एकजैसी समस्याएं हैं. तभी से मेरे मन में आप के प्रति कुछ सुप्त भावनाएं जाग उठी थीं. इसलिए मैं ने आप को अपने यहां पेइंगगैस्ट के लिए कहा था. आप सोच रहे होंगे कि यह कैसी औरत है? शुभेंदुजी, औरत सिर्फ देह नहीं होती, एक मन भी होती है जहां उस के ढेरों सपने, इच्छाएं और जज्बात महफूज रहते हैं.

‘‘पर कभीकभी वह इन सपनों, भावनाओं और इच्छाओं को साकार करने और कुछ खास पाने की चाहत करने लगती है. अगर यह चाहत अनैतिक तरीके से पूरी होती है तो सारी जिंदगी आत्मग्लानि और अपराधबोध की भावना पनपती रहती है और अगर यही चाहत पूरी निष्ठा व पवित्रता से हासिल की जाती है तो वह औरत के जीवन का सब से सुंदर और अविस्मरणीय क्षण बन जाता है. ‘‘इसी विशुद्ध चाहत की खातिर मैं ने खुद बाबूजी से आप का जिक्र किया था. लेकिन आप की मंशा और नीयत को मैं ही नहीं, बाबूजी भी भांप गए थे. लेकिन मैं आप को बता देना चाहती हूं कि मैं सिर्फ एक औरत बन कर आप का साथ नहीं दे सकती चाहे कितनी भी कमजोर क्यों न पड़ जाऊं.’’ ‘‘अपूर्वाजी, सत्यता यह है कि मैं अपनी पत्नी को बेहद प्यार करता था और उस के वचन का मान रखना चाहता हूं. बेटेबहू और लोग क्या कहेंगे, यह सोच कर भी मैं हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूं.’’

‘‘शुभेंदुजी, औरत जिस से प्यार करती है, पूरी निष्ठा से करती है. वह बहुत ही भावुक, कोमल और संवेदनशील होती है. भावात्मक और अंतरंग क्षणों में अपने प्रिय से सिर्फ यही चाहती है, मांगती है कि वह सारी जिंदगी सिर्फ उस का हो कर ही रहे लेकिन उस वक्त यथार्थ से वह कोसों दूर होती है. इसी तरह आप की पत्नी भी आप को वचन से बांध गईं. लेकिन उन्होंने यह नहीं सोचा कि उन के न रहने पर उन के जीवनसाथी को कितने दुख, अकेलापन, तनाव झेलने के साथसाथ अनेक मानसिक एवं शारीरिक समस्याओं से जूझना पड़ेगा. इस तरह के वचन में बांधना, यह उन का प्यार नहीं, बल्कि एक ईर्ष्याभाव था कि दूसरी औरत उन के पति को छीन लेगी. जीतेजी तो यह चाहत ठीक है लेकिन मरने के बाद ऐसी चाहत क्यों?

‘‘मैं भी अपने पति से बहुत प्यार करती थी, दिल की गहराइयों से चाहती थी और अंतरंग क्षणों में उन से कहती भी थी, ‘अरुण, आप सिर्फ मेरे हो. मेरे रहते अगर किसी दूसरी औरत के बारे में सोचा भी तो जान दे दूंगी अपनी. लेकिन मेरे मरने के बाद आप दूसरी शादी जरूर कर लेना क्योंकि मैं नहीं चाहती कि आप मेरे बाद अकेलापन भोगने के साथसाथ तमाम समस्याओं से जूझें.’ ‘‘वे सिर्फ मुसकरा देते थे लेकिन कहते कुछ नहीं थे. पर वक्त की बात है. मुझे अकेले छोड़ कर चले गए. आखिरी वक्त उन्होंने पहली बार यह कहा था, ‘अपूर्वा, मैं तुम्हें जान से भी ज्यादा प्यार करता हूं लेकिन तुम शादी जरूर कर लेना क्योंकि मैं तुम से सच्चा प्यार करता हूं और सच्चा प्यार करने वाले कभी नहीं चाहते कि उन के जाने के बाद उन का जीवनसाथी दुखदर्द झेले.’ ‘‘वे जा चुके थे. मैं पत्थर बन गई थी, समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं. लेकिन धीरेधीरे जीवन रूटीन पर आने लगा और मैं इतने बड़े दुख से उबर कर संभल गई. और फिर से औफिस जौइन कर लिया.

‘‘ऐसा नहीं है कि मैं उन की इच्छा पूरी करने या उन की बात का मान रखने के लिए शादी करना चाहती हूं और यह भी नहीं है कि मैं ने उन्हें पूरी तरह भुला दिया है लेकिन शुभेंदुजी, हम ऊपर से जो सच और झूठ बोलते हैं उस के अलावा भी हमारे अंदर का एक सच होता है, वह कोई नहीं जानता, वह सिर्फ हम ही जानते हैं. वह सच होता है हमारे तनमन की इच्छाएं, जज्बात और तूफान जो प्राकृतिक हैं, कभी दबाए नहीं जा सकते. बेशक, हम उन्हें काबू में रखने के भरसक प्रयत्न करें, लेकिन कभीकभी वे बेकाबू हो ही जाते हैं तब उन के परिणाम खुद के लिए, समाज के लिए और परिवार के लिए बेहद घातक होते हैं. इस अप्रिय स्थिति से बचने के लिए हमें अपने अंदर के इस सच को स्वीकार कर लेना चाहिए.

‘‘आप का कहना है कि अगर हम ऐसा कर लेंगे तो समाज और लोग क्या कहेंगे? अरे, वे कुछ न कुछ तो कहेंगे ही क्योंकि उन का तो काम ही कहना है. अगर हम नहीं भी करेंगे तो भी वे कुछ कहेंगे. ‘‘आप सोच रहे होंगे, मैं एक औरत हो कर कैसी बातें कर रही हूं, ऐसी बातें औरत को शोभा नहीं देतीं. लेकिन औरत जब पुरुषों से बराबरी कर रही है, वाहन चला रही है, औफिस व व्यवसाय संभाल रही है तो अपनी बात खुल कर क्यों नहीं कर सकती? ‘‘मैं सच बोलने से नहीं झिझकती. तनहाइयों में अकसर मेरे अंदर का सच मुझ पर हावी हो जाता है और मुझे बहुत मुश्किल, परेशानी, उलझनों व समस्याओं से जूझना पड़ता है. इन्हीं सब को मेरी युवा बेटी और अनुभवी पिता समझते हैं. और मुझ से दूसरी शादी करने के लिए कहते हैं.

‘‘अगर आप के बेटेबहू भी आप के अकेलेपन, तनाव और निजी समस्याओं को दिल से महसूस करते होंगे तो वे भी आप को यही सलाह देंगे.’’ तभी मेरा मोबाइल घनघना उठा. आस्ट्रेलिया से बहू का फोन था, ‘‘पापा, आप सारी जिंदगी इस तरह अकेले कैसे रहोगे? यह सोच कर मैं और सनी बेहद परेशान रहते हैं. इस समस्या का हल मेरी अमेरिका वाली फ्रैंड अक्षरा ने बताया है. उस ने अपनी विडो मौम का रिश्ता आप के लिए सुझाया है. आप उन से मिल लेना. उन का नाम अपूर्वा है. वे दिल्ली में बैंक की जोनल मैनेजर हैं. उन का पता आप को ईमेल कर दिया है. बात बन जाए तो प्लीज पापा, अपनी शादी में बुलाना न भूलना,’’ वह मुसकरा कर बोली तो मैं अचंभित हो उठा. मेरे बेटेबहू मेरे बारे में इतना सोचते हैं और मैं व्यर्थ ही परेशान था.

तभी थोड़ी देर बाद अपूर्वा का भी मोबाइल बज उठा. अमेरिका से उन की बेटी का फोन था. उस ने भी अपनी मां से वही कहा जो मेरी बहू ने मुझ से कहा. हम दोनों हैरानी से एकदूसरे को देखने लगे. यह सब भी अजीब संयोग था. हमारे बच्चे भी हमारे एक होने के बारे में सोच रहे थे. कौन कहता है आजकल के बच्चे अपने मांबाप की फीलिंग्स नहीं समझते, उन की केयर नहीं करते. मांबाप के पैर दबाने और उन की आज्ञा का पालन करने वाले बच्चे ही सिर्फ संस्कारी नहीं होते. अपने पेरैंट्स की प्रौब्लम्स, उन की निजी समस्याओं को समझने व उन के सुखदुख शेयर करने वाले हजारों मील दूर बैठे बच्चे भी स्मार्ट और संस्कारी होते हैं  बातोंबातों में रात कब गुजर गई, पता ही नहीं चला. अपूर्वा अपने कमरे में जाने लगी तो मैं ने कहा, ‘‘अपूर्वा, अपने बेटेबहू को क्या जवाब दूं मैं?’’

‘‘यही सवाल मैं आप से पूछती हूं, मैं अपनी बेटी से क्या कहूं?’’ अपनेअपने सवाल पर हम दोनों खुल कर हंस पड़े. मैं मुसकरा कर बोला, ‘‘मैं अपनी बेटी से बात करूंगा और तुम अपने बेटेबहू से बात करना और हां, बहू को विश जरूर करना वह जल्दी ही तुम्हें दादी बनाने वाली है.’’ यह सुन कर अपूर्वा थोड़ा लजा गई, ‘‘बाबूजी को यह खुशखबरी दे कर, हम अपने जीवन की एक नई शुरुआत करेंगे,’’ कहते हुए वे मेरे सीने से लग गई और मैं ने उसे अपनी बांहों के मजबूत घेरे में कैद कर लिया.

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