हाल ही में एन्वल स्टेट्स औफ एजुकेशन रिपोर्ट (एएसईआर) में ये बात सामने आई है कि देश में स्कूल जाने वाले 14 से 18 साल की उम्र के करीब एकचौथाई बच्चे अपनी क्षेत्रीय भाषा की कक्षा 2 की किताब तक ठीक से नहीं पढ़ पाते हैं. अंग्रेजी ज्ञान की तो बात ही छोड़ दें.

14 से 18 साल की आयुवर्ग के बच्चे आमतौर पर कक्षा 9 से 12 तक में होते हैं. गांवदेहातों के स्कूलों में अधिकांश बच्चे मिड डे मील के लालच में स्कूल जाते हैं. कुछ के मातापिता यह सोच कर उन को स्कूल भेजते हैं कि उन्हें यूनिफार्म मिल जाएगी. एक वक्त का खाना मिल जाएगा, कुछ सरकारी योजना का पैसा खाते में आ जाएगा और बच्चा अपना नाम लिखना सीख जाएगा.

स्कूल में मास्टर या मास्टरनी क्या पढ़ाते हैं, पढ़ाते भी हैं या नहीं, इस की पड़ताल करने कोई नहीं जाता. सरकारी स्कूल के तो टीचर्स तक ठीक से किताबें नहीं पढ़ पाते हैं. अंगरेजी का एक वाक्य नहीं बोल पाते हैं, तो शिक्षा का स्तर देश में क्या है, इस को समझना मुश्किल नहीं है. सरकार देशभर में साक्षरता मिशन चला ले, शिक्षा देने के ढोल पीट ले, बड़ीबड़ी योजनाएं कागजों पर बना ले, मगर हकीकत इस तरह की रिपोर्ट से सामने आ जाती है.

शिक्षा के स्तर में लगातार गिरावट आ रही है. गांव के सरकारी स्कूलों के बच्चे ही नहीं, शहरी क्षेत्र के स्कूलों के बच्चे भी अपनी या अपने से निचले दर्जे की पाठ्यपुस्तकों को ठीक से नहीं पढ़ पाते हैं. इस की वजह है.

विगत 2 दशकों में देश के भीतर सिर्फ धर्म का कारोबार बढ़ा है. पहले घरों में बूढ़ेबुजुर्ग सुबह का अखबार पढ़ते थे. अखबार हर घर में आता था. घर की देहरी पर 6-7 लोग इकट्ठा होते और एक व्यक्ति ऊंचे स्वर में अखबार की खबर पढ़ कर सब को सुनाता था. चौपाल पर बैठे लोग अखबार पढ़तेदेखते थे. घर के बच्चों पर भाषा सुधारने के लिए अखबार पढ़ने का दबाव होता था.

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