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गोरी तेरे प्यार में

‘गोरी तेरे प्यार में’ लाइट मूड की रोमांटिक फिल्म है जिस में नायक को नायिका का प्यार पाने के लिए पापड़ बेलने पड़ते हैं. यहां तक कि नायिका को हासिल करने के लिए उसे शहर की चकाचौंध भरी लाइफ को छोड़ कर गांव में जा कर रहना पड़ता है और गोबर से भरी सड़क पर चलते हुए, रूखीसूखी खा कर एक पुल का निर्माण करना पड़ता है. मरता क्या न करता, गोरी के प्यार को जो पाना था.

फिल्म का निर्माण करण जौहर ने किया है. वर्ष 2010 में ‘कभी खुशी कभी गम’ फिल्म में करण जौहर के सहायक रहे पुनीत मल्होत्रा के स्वतंत्र निर्देशन में बनी यह दूसरी फिल्म है. पुनीत मल्होत्रा ने इस फिल्म की शुरुआत तो ठीक ढंग से की है लेकिन मध्यांतर के बाद उस ने आशुतोष गोवरिकर की फिल्म ‘लगान’ और ‘स्वदेश’ की कौपी करने की कोशिश की है. इस कोशिश में वह नाकाम रहा है और फिल्म फुस्स हो कर रह गई है.

फिल्म की कहानी बेंगलुरु में रहने वाले एक तमिलियन आर्किटैक्ट श्रीराम (इमरान खान) और दिल्ली में रहने वाली एक पंजाबन दीया (करीना कपूर) की है. दीया एक एनजीओ के साथ जुड़ी है और समाजसेवा करती है. दोनों की मुलाकात होती है और प्यार हो जाता है. उधर श्रीराम के घर वाले उस की शादी एक तमिल लड़की वसुधा (श्रद्धा कपूर) से कराना चाहते हैं, जो एक सिख युवक से प्रेम करती है और श्रीराम से शादी से मना करने को कहती है. श्रीराम शादी के मंडप से भाग जाता है और दीया को हासिल करने के लिए एक गांव में पहुंच जाता है, जहां दीया समाजसेवा में लगी है.

गांव में जिले के कलैक्टर लतेश भाई (अनुपम खेर) की ही चलती है. दीया गांव में एक पुल का निर्माण कराना चाहती है परंतु कलैक्टर रोड़ा अटकाता है. श्रीराम पुल के निर्माण में दीया की सहायता करता है और दीया का प्यार हासिल कर लेता है.

मध्यांतर तक तो इस कहानी का बखान निर्देशक ने ठीकठाक कर लिया है लेकिन गांव में पहुंचते ही कहानी भटकने लगती है. अनुपम खेर के कैरेक्टर को देख कर 70-80 के दशक में आई फिल्मों में कन्हैयालाल के किरदार की याद ताजा हो जाती है. निर्देशक ने गांव का खाका तो अच्छा खींचा है परंतु कहींकहीं इस में बनावटीपन आ गया है. फिल्म का निर्देशन साधारण है. क्लाइमैक्स में फिल्म उस के हाथों से फिसलती चली गई है.

करीना कपूर को सलवारसूट में दिखा कर निर्देशक ने उसे बहनजी टाइप का दिखाया है. कोई लटकेझटके नहीं, कोई सैक्सी अदा नहीं. हां, श्रद्धा कपूर बहुत सुंदर लगी है. इमरान खान में कोई बदलाव नहीं है, जैसा पहले था वैसा ही अब भी है.

फिल्म का गीतसंगीत पक्ष साधारण है. ‘ओ रे छोरे…’ गाना कुछ अच्छा बन पड़ा है. फिल्म का छायांकन ठीक है.   

सिंह साब द ग्रेट

सनी देओल पर सिख किरदार फबते हैं. इस फिल्म में सनी देओल ने सिख किरदार निभाया है, जो भ्रष्ट समाज में बदलाव लाने की कोशिश करता है. फिल्म को देख कर लगा, काश देश के ‘सिंह साहब’ भी ग्रेट होते और भ्रष्टाचारियों को कुछ सबक सिखाते.

निर्देशक अनिल शर्मा ने अपनी इस फिल्म में कोई नई बात नहीं कही है. उस ने एक ईमानदार कलैक्टर के जरिए देश में बदलाव लाने की कोशिश की है. इस तरह का बदलाव लाने की कोशिश प्रकाश झा ‘सत्याग्रह’ में कर चुके हैं. लेकिन प्रकाश झा के बदलाव और अनिल शर्मा के बदलाव में जमीनआसमान का अंतर है. अनिल शर्मा यह बदलाव ऐक्शन के बल पर लाए हैं. सनी देओल की फिल्म में जब तक जबरदस्त ऐक्शन न हो, फिल्म नहीं चलती.

फिल्म को मौजूदा हालात को ध्यान में रख कर बनाया गया है. इस में आम आदमी, जो भ्रष्टाचार से त्रस्त है, की बात कही गई है. 

फिल्म की कहानी एक छोटे से कसबे में ट्रांसफर हो कर आए कलैक्टर सरनजीत तलवार (सनी देओल) की है, जिस की नईनई शादी मिनी (उर्वशी रौतेला) से हुई है. उस की एक जवान बहन भी है. कसबे में एक भ्रष्ट नेता भूदेव (प्रकाश राज) का गुंडाराज है. भूदेव सरनजीत को एक झूठे केस में फंसा कर उम्रकैद की सजा करा देता है. मिनी की जान भी चली जाती है. अच्छे चालचलन के कारण सरनजीत सिंह की रिहाई जल्दी हो जाती है. जेल से छूटने के बाद सरदार बन कर वह एक खबरिया चैनल की रिपोर्टर के साथ मिल कर एक स्टिंग औपरेशन कर भूदेव को जेल भिजवा देता है. लेकिन भूदेव के गुंडे सरनजीत की बहन का किडनैप कर लेते हैं. सरनजीत सिंह जनसमर्थन के साथ भूदेव और उस के गुंडों का सफाया कर डालता है.

फिल्म की इस कहानी में कुछ भी नया नहीं है. पूरी फिल्म सनी देओल और प्रकाश राज के इर्दगिर्द घूमती है. फिल्म में मसालों का छौंक काफी अधिक है. सनी देओल की ऐंट्री धमाकेदार ढंग से की गई है. सनी देओल ने अपने प्रशंसकों को खुश किया है जबकि प्रकाश राज ने एक बार फिर से वही किया है जो वे ‘वांटेड’ और ‘सिंहम’ में कर चुके हैं.

फिल्म के कुछ संवाद दमदार और जोशीले हैं. सनी देओल के संवादों पर हाल में तालियां बजने लगती हैं. एक गाने में दारू पी कर 58 वर्षीय सनी देओल खूब नाचा भी है और इस डांस गीत में उस के पिता धर्मेंद्र और भाई बौबी देओल ने गेस्ट अपीयरैंस के तौर पर उस का साथ दिया है.

फिल्म की नायिका सनी से उम्र में काफी छोटी लगभग 19-20 साल की उर्वशी रौतेला बहुत सुंदर लगी है. उस ने ऐक्ंिटग भी अच्छी की है. मध्यांतर से पहले ही उसे मार दिया गया है. इस से फिल्म में ग्लैमर कुछ कम हो जाता है.

फिल्म का गीतसंगीत पक्ष कुछ अच्छा है. एक आइटम सौंग ‘खा के पलंगतोड़ पान तू ने ले ली मेरी जान…’ द्विअर्थी और सैक्सी है. 1-2 गाने पंजाबी टच लिए हुए हैं. फिल्म में सिख समुदाय को बहादुर बताते हुए उस कौम की तारीफ भी की गई है. फिल्म का छायांकन काफी अच्छा है.

 

गोलियों की रासलीला राम-लीला

संजय लीला भंसाली भव्य फिल्में बनाने में माहिर हैं. जहां ‘ब्लैक’ में उन्होंने काले रंग का जादू चलाया वहीं ‘सांवरिया’ के ब्लू शेड्स ने दर्शकों को अचंभित किया. ‘हम दिल दे चुके सनम’ में ऐश्वर्या राय के रंगबिरंगे कौस्ट्यूम्स और महलों की भव्यता ने भी दर्शकों को चकित कर दिया.

नई फिल्म ‘… राम-लीला’ भी काफी कलरफुल और भव्य है, आंखों को सुकून देती है. इस फिल्म में संजय लीला भंसाली ने एक तरफ भव्य हवेलियां, बाग, बगीचे और कुहकते मोरों के बीच पनपती लवस्टोरी को दिखाया है वहीं हजारोंलाखों गोलियों की तड़तड़ की गूंज को बड़े भव्य पैमाने पर फिल्माया है यानी भव्य…भव्य… और भव्य.

इस फिल्म का अयोध्या वाले ‘भगवान’ राम से कुछ लेनादेना नहीं है, न ही इस में कृष्ण और गोपियों की रासलीला है. यह अलग बात है कि रणवीर सिंह जब अपनी शर्ट उतार कर डांस करता है तो गांव की बहुत सी गोपियां आहें भरती हैं. कुछ तो उस के कूल्हे पर अपने हाथ भी मारती हैं. वैसे फिल्म का यह ‘राम’ एक नंबर का ऐयाश, हमेशा ब्लू फिल्में देखने वाला, शराबी, लड़कियों को पटाने में माहिर और सैक्सी है.

‘राम-लीला’ पर काफी कंट्रोवर्सी हो चुकी है. कट्टरपंथियों को इस के टाइटल पर एतराज था. अदालत को दखल देना पड़ा तब जा कर फिल्म रिलीज हुई.

फिल्म की कहानी शेक्सपियर के उपन्यास ‘रोमियो जूलियट’ पर आधारित है जिस में 2 समुदायों के बीच 500 सालों से चली आ रही आपसी रंजिश को दिखाया गया है. इस आपसी खूनी रंजिश को खत्म करने के लिए नायकनायिका अपनी जान तक न्योछावर कर देते हैं.

कहानी गुजरात के एक सीमांत गांव की है, जहां हर घर में बंदूकें, स्टेनगनें बनती हैं. हर वक्त गोलियों की गूंज हवा में सुनाई पड़ती है. पुलिस का भी कोई जोर नहीं चलता. वहां के 2 समुदायों, रजाड़ी और सनोरा के बीच आपसी दुश्मनी है. रजाड़ी समुदाय के राम (रणवीर सिंह) को सनोरा समुदाय की लीला (दीपिका पादुकोण) से प्यार हो जाता है. लीला की मां और सनोरा समुदाय की डौन बा दनकौर (सुप्रिया पाठक) को यह बात बरदाश्त नहीं होती. इधर गुस्से में राम के भाई और लीला के भाई को गोलियां लगती हैं और वे मारे जाते हैं. मौका पा कर राम और लीला घर से भाग जाते हैं परंतु बा ऐसा जाल बुनती है जिस में दोनों फंस जाते हैं. दोनों समुदायों में मारकाट होती है. यह देख कर राम और लीला फैसला करते हैं कि वे अपनीअपनी जान दे कर इस खूनखराबे को रोकेंगे. दोनों एकदूसरे को गोली मार कर खत्म कर डालते हैं. दोनों का जनाजा शान से निकाला जाता है और दोनों समुदायों के बीच भाईचारा बन जाता है.

हालांकि फिल्म की यह कहानी घिसीपिटी है परंतु संजय लीला भंसाली का इसे कहने और प्रेजैंट करने का तरीका ऐसा है कि दर्शक बंधे से रहते हैं. रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण के बीच गजब की कैमिस्ट्री है. दीपिका पादुकोण ने खुल कर रोमांस किया है. युवाओं को इस कपल को रोमांस करते देखना काफी अच्छा लगेगा. राम का लीला के घर छिप कर जाना, होली के मौके पर वहां लीला के साथ डांस करना. लीला के साथ घर से भागने के सीन काफी अच्छे बन पड़े हैं.

फिल्म का निर्देशन बहुत अच्छा है. निर्देशक ने प्रियंका चोपड़ा पर एक आइटम सौंग भी फिल्माया है. फिल्म में दिखाई गई इस खूनी रंजिश में जो गरमी, जो उबाल होना चाहिए था, वह असरदायक नहीं है. लगता है किरदार हवा में बंदूकें लहराते हुए तड़तड़तड़तड़ कर रहे हैं. यह सब नाटकीय लगता है.

सुप्रिया पाठक ने एक लेडी डौन की भूमिका में जान फूंकी है. रिचा चड्ढा का काम भी अच्छा है. फिल्म का गीतसंगीत पक्ष अच्छा है. संगीत खुद लीला भंसाली ने दिया है जिस में जान है. छायांकन लाजवाब है.

वैसे चाहे प्रारंभ में इस फिल्म के पात्रों का किसी धर्म से जुड़े न होने का चित्रण किया गया है पर संवादों में लीला भंसाली ने खासी कोशिश की है धार्मिक चरित्रों पर कटाक्ष करने की. यह स्वतंत्रता का अधिकार है जो हर निर्देशक को इस्तेमाल करना चाहिए. यह अफसोस की बात है कि देश की अदालतें कट्टरपंथियों से डर कर या स्वयं कट्टर होने के कारण इस तरह की फिल्मों को ले कर खड़े किए गए विवादों को सुनने के लिए तैयार हो जाती हैं और कई बार स्थगन आदेश भी दे देती हैं. अदालतों का कर्तव्य है कि वे सरकार, धर्म, समाज, पैसे वालों, व्यवसायियों द्वारा स्वतंत्रता के अधिकार पर अंकुश लगाने के प्रयासों को रोकें. पर देश में उलटा हो रहा है. अदालतें धर्म के मामलों में सरकार से भी पहले हथियार डाल देती हैं.

 

चैलेंजिंग रोल करना मेरी पहली पसंद है

टीवी और फिल्मों में समान रूप से सक्रिय अदाकारा इंदिरा कृष्णा अपने हर किरदार में विशेष छाप छोड़ जाती हैं. कई भाषाओं में निपुण और डांस की शौकीन इंदिरा से अपने धारावाहिक ‘फिरंगी बहू’ और आगामी फिल्मों से जुड़े कई अहम पहलुओं पर राम जोशी ने बातचीत की. पेश हैं मुख्य अंश.

‘तेरे नाम’, ‘तथास्तु’ व ‘चतुर सिंह टू स्टार’ सरीखी फिल्में और ‘कृष्णा बेन खाखरवाला’, ‘अफसर बिटिया’ व ‘सीआईडी’ जैसे सीरियल्स में नजर आ चुकीं टैलीविजन की चर्चित मां और सास इंदिरा कृष्णा अपनी सासूमां टाइप छवि से बाहर आना चाहती हैं. प्रतिभा उन के अंदर कूटकूट कर भरी है, इसलिए वे कुछ रोमांचकारी, चैलेंजिंग और बोल्ड रोल करना चाहती हैं.

तमिल, गुजराती, उडि़या, हिंदी और अंगरेजी समेत कई भाषाओं में निपुण इंदिरा कृष्णा वैसे तो कत्थक डांसर थीं लेकिन अचानक अभिनय के क्षेत्र में आ कर उन्होंने कला के कई और पहलुओं पर महारत हासिल की. फिलहाल वे एक चैनल पर प्रसारित हो रहे सीरियल ‘फिरंगी बहू’ में दिख रही हैं.

‘फिरंगी बहू’ सीरियल में सब से खास क्या लगा आप को?

बड़े परदे पर तो आप ने दर्जनों विदेशी कलाकारों को ऐंट्री मारते देखा है लेकिन भारतीय टैलीविजन की दुनिया में ऐसा पहली बार हुआ है जब कोई यूरोपियन लड़की मुख्य किरदार के तौर पर ऐंट्री कर रही है.

अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में कुछ बताएं?

मैं दक्षिण भारतीय परिवार की लड़की हूं. मेरी मां डांसर थीं. मैं ने उन्हीं से डांस की टे्रनिंग हासिल की है. विभिन्न भाषाओं से मेरा परिचय मेरी मां ने ही करवाया और उन्होंने ही मुझे अभिनय की दुनिया में आने के लिए प्रेरित किया. आज जो कुछ भी हूं, अपनी मां की वजह से हूं.

नृत्य की तरह, अभिनय की भी तालीम ली है?

नहीं, मैं ने ऐक्टिंग नहीं सीखी. हकीकत तो यह है कि ऐक्टिंग कोई सिखा नहीं सकता. बचपन से ही शबाना आजमी, नसीरुद्दीन शाह, तब्बू जैसे कलाकारों को अभिनय करते गौर से देखा करती थी. नाटकों के दौरान मैं ने इन कलाकारों के अभिनय की बारीकियों को समझा और इन्हें अपने अभिनय में ढालने की कोशिश की. इस के अलावा मैं ने बहुत सारे स्टेज शो किए हैं और उन्हीं के जरिए अपने अभिनय में सुधार लाने का प्रयास करती रहती हूं.

आप ने काफी वजन कम किया है?

हां, डेली सोप में लगातार व्यस्त रहने के कारण अपनी सेहत पर ध्यान नहीं दे पाई और मोटी होती चली गई. आखिर में टीवी की दुनिया से बे्रक ले कर अपने शरीर पर ध्यान दिया और 8 किलो वजन कम कर लिया.

कोई खास ट्रीटमैंट इस के लिए?

नहीं, केवल व्यायाम, ध्यान और खानपान में संतुलन बैठा कर मैं ने अपना वजन कम किया है.

अभिनय को वास्तविकता में बदलने के लिए फिल्मों में वर्कशौप कल्चर है. क्या टीवी पर भी ऐसा कुछ हो रहा है?

हां, इस की शुरुआत हो चुकी है. विपुल शाह इस पर बहुत ध्यान देते हैं. दरअसल, वर्कशौप से ही आप का कैरेक्टर निखरता है. ‘कृष्णा बेन खाखरावाला’ में जब मैं ने एक वर्कशौप के तहत खाखरे बनाए और उस काम में लगे लोगों से मिली, तभी उस रोल को अच्छी तरह से कर सकी. वर्कशौप की वजह से न सिर्फ अपने किरदार को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलती है बल्कि अपने साथी कलाकारों के साथ भी बेहतर तालमेल बनता है. अच्छा है कि यह कौंसेप्ट अब टीवी की दुनिया में भी आजमाया जा रहा है.

डेली सोप करते हुए डांस के लिए वक्त निकालना मुश्किल होता है तो क्या करती हैं?

यह सही बात है कि अब डांस के लिए समय नहीं मिल पाता है लेकिन किसी तरह से शूटिंग के दौरान ब्रेक ले कर प्रैक्टिस हो जाती है. वैसे, मुझे डांस के अलावा संगीत सुनना, पुरानी फिल्में देखना, चरित्र विशेष पर आधारित अंगरेजी फिल्में देखना पसंद है.

सासू मां के अलावा किस तरह के किरदार करना चाहेंगी?

सास या मां का रोल करना मेरी मजबूरी है क्योंकि मुझे औफर ही उसी तरह के मिल रहे हैं. वैसे मैं डिटैक्टिव एडवोकेट, आईएएस औफिसर जैसे कुछ चैलेंजिंग और बोल्ड रोल करना चाहती हूं. अगर फिल्म या सीरियल की कहानी की डिमांड कुछ बोल्ड करने की है तो मैं पीछे नहीं हटूंगी. एक कलाकार के लिए चैलेंजिंग किरदार करना बेहद जरूरी है.

सुना है कि एक फिल्म में सोनाक्षी सिन्हा की मां की भूमिका भी कर रही हैं?

हां, अगले साल आने वाली फिल्म ‘हौलीडे’ में अक्षय और सोनाक्षी के साथ काम करने का मौका मिला है. रोल बहुत बड़ा नहीं है लेकिन महत्त्वपूर्ण है. दरअसल, निर्देशक ए आर मुरुगदास को लगा कि मेरा और सोनाक्षी का चेहरा काफी मिलता है, इसलिए उन्होंने मुझे यह रोल औफर किया.     

खेल खिलाड़ी

जातेजाते रुला गए सचिन
क्रिकेट के बेताज बादशाह और बड़ेबड़े गेंदबाजों के अपने बल्ले से छक्के छुड़ाने वाले लिटिल मास्टर सचिन रमेश तेंदुलकर ने 16 नवंबर को वेस्टइंडीज के खिलाफ अपना 200वां टैस्ट मैच खेल कर इंटरनैशनल क्रिकेट को अलविदा कह दिया.  15 नवंबर, 1989 को पाकिस्तान के खिलाफ अपना पहला टैस्ट मैच खेलने वाले सचिन के नाम आज रिकौर्डों का पहाड़ है. उन्होंने अपने 24 साल के कैरियर में टैस्ट मैचों में जहां 51 शतक और 68 अर्धशतक व 239 मैचों की पारियों में 53.78 की औसत से कुल 15,921 रन बनाए तो वहीं एकदिवसीय क्रिकेट मैच में 452 पारियों में 44.83 की औसत से 18,426 रन बनाने का रिकौर्ड है जिस में 463 मैचों में 49 शतक और 96 अर्धशतक शामिल हैं.
हालांकि सचिन के जीवन में भी कई उतारचढ़ाव आए. कई बार ऐसा लगा कि वे टीम को हार से बचा लेंगे पर उस में वे खरे नहीं उतरे. एक दौर ऐसा
भी आया जब उन्हें आलोचनाओं से दोचार होना पड़ा. लेकिन सचिन ने साबित कर दिया कि चाहे कितनी भी मुश्किलों का दौर हो उस से घबराना नहीं चाहिए.
लिटिल मास्टर के लिए तो रिटायरमैंट एक न एक दिन आना ही था. लेकिन यह विदाई इतनी यादगार होगी, शायद खुद सचिन को भी इल्म न होगा. स्टेडियममेंमौजूद हर दर्शक की आंखें नम हो गईं जब सचिन ने 21 मिनट की स्पीच में अपने 24 साल के कैरियर को दर्शकों के सामने बयां किया. करोड़ों क्रिकेट प्रेमी उन की बात सुनते रहे.
इन सालों में न जाने कितने क्रिकेटर आएगए. किसी ने संन्यास ले लिया तो कोई खराब परफौरमैंस की वजह से टीम में जगह नहीं बना पाया और कोई मैच फिक्ंिसग में उलझ गया. मैचों में हारजीत का सिलसिला जारी रहा, धूम मचती रही पर एक चीज नहीं बदली और वह थी सचिन का क्रिकेट प्रेम. लेकिन यह महान खिलाड़ी अपने हुनर व मेहनत की बदौलत बुलंदियों को छूता गया. वे आने वाली पीढ़ी को
एक सीख जरूर दे गए कि अगर आत्मविश्वास, मेहनत, लगन और ईमानदारी के साथ कोई काम करो तो निश्चित ही एक न एक दिन कामयाबी मिलती है. क्रिकेट को अलविदा करने से उन की कमी तो क्रिकेट प्रेमियों को हमेशा खलेगी.
बहरहाल, सचिन की खेल उपलब्धियों को देखते हुए सरकार ने उन्हें ‘भारत रत्न’ देने का ऐलान किया है.


शतरंज के नए चैंपियन
कहते हैं न कि लोकप्रियता और सफलता पाना जितना आसान है सफलता के शीर्ष पर टिके रहना उतना ही मुश्किल. विश्व चैंपियन रह चुके शतरंज के उस्ताद विश्वनाथन आनंद के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है. तमाम शतरंज खिलाडि़यों को रौंद कर शीर्ष पर पहुंचे आनंद की कुरसी भी छीनने के लिए एक शतरंज का उस्ताद आ चुका है.
23 वर्षीय नौर्वे के मैग्नस कार्लसन ने चेन्नई में 5 वर्ष से विश्व चैंपियन रहे विश्वनाथन आनंद को हरा कर शतरंज के नए विश्व चैंपियन बन गए. वर्ष 1991 से शुरू हुए अपने कैरियर में विश्वनाथन आनंद ने हर बार कम से कम एक बाजी अपने नाम जरूर की पर यह पहला मौका ऐसा आया जब कार्लसन ने 10 बाजी में से 7 बाजी अपने नाम कीं और 3 बाजी ड्रा रहीं.
यह तो सत्य है कि एक आदमी हमेशा से विश्व चैंपियन नहीं रह सकता. विश्वनाथन आनंद 44 वर्ष के हैं और कार्लसन अभी 23 वर्ष के हुए हैं तो उम्र का असर तो होना स्वाभाविक है. जब शुरुआती चालों में कार्लसन ने उन्हें रोक दिया तो वे दबाव में आ गए और हमेशा कूल रहने वाले आनंद फिर गलती करते चले गए, जिस से जाहिर है उन का हौसला डगमगाने लगा.
उम्मीद है विश्वनाथन जल्द ही अगले खेल में जबरदस्त वापसी करना चाहेंगे, क्योंकि शतरंज की बिसात पर कब कौन सा मोहरा भारी पड़ जाए, कह नहीं सकते.


हौकी खिलाडि़यों पर धनवर्षा
अब हौकी खिलाडि़यों पर भी उम्मीद से बढ़ कर पैसा बरस रहा है. हौकी इंडिया लीग यानी एचआईएल के दूसरे सीजन में भारत, स्पेन, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, अर्जेटीना, दक्षिण अफ्रीका, इंगलैंड और आयरलैंड जैसे देशों के खिलाड़ी शामिल हुए.
इस बंद नीलामी में 49 खिलाडि़यों को खरीदा गया जिस में भारत के मिडफील्डर रमनदीप सिंह को उत्तर प्रदेश विजार्ड्स ने 81 हजार डौलर यानी तकरीबन 51 लाख रुपए की बोली लगा कर खरीदा. यही नहीं अब हौकी फेडरेशन की वर्ल्ड हौकी सीरीज में खेलने वाले खिलाडि़यों के लिए भी एचआईएल के दरवाजे खुल गए हैं. मुंबई मैजीशियंस ने प्रभजोत सिंह को 46 हजार डौलर यानी तकरीबन 28 लाख रुपए में खरीदा.
एचआईएल के चेयरमैन और हौकी इंडिया के महासचिव नरेंद्र बत्रा के मुताबिक इस में 28 भारतीयों और 21 अंतर्राष्ट्रीय खिलाडि़यों सहित कुल 49 खिलाड़ी बिके.
यह सही है कि वर्तमान समय में हौकी की हालत ठीक नहीं है. अब यह राष्ट्रीय खेल भी क्रिकेट की तरह होने वाला है. पहले जहां एक देश के खिलाड़ी दूसरे देश के खिलाडि़यों से टक्कर लेते थे वहीं अब तो 2 मालिकों के बीच खेल को खेला जाता है. पहले तो मैच के दौरान रोमांच पैदा होता था पर अब तो जिसे खेल से दूरदूर तक नाता नहीं वे भी खिलाडि़यों से मैच खिलवाते हैं और अपना कारोबार चलाते हैं.
हौकी खिलाडि़यों को यह शिकायत रहती थी कि हमेशा से हौकी के खिलाडि़यों की अनदेखी की जाती है लेकिन लगता है आने वाले समय में अब यह शिकायत नहीं होगी.  

प्री मैडिकल टैस्ट का फर्जीवाड़ा

मध्य प्रदेश में हुए प्री मैडिकल टैस्ट फर्जीवाड़े के परदाफाश से जहां व्यापमं के अधिकारियों और संलिप्त गिरोहों का गठजोड़ सामने आया है वहीं इस ने चिकित्सा जगत में आने वाले छात्रों को सचेत भी कर दिया है. एसटीएफ की जांच से इस घोटाले की पूरी कहानी जानने के लिए पढि़ए भारत भूषण श्रीवास्तव की रिपोर्ट.

मध्य प्रदेश के चर्चित व्यावसायिक परीक्षा मंडल यानी व्यापमं घोटाले में जुलाई महीने से औसतन हर हफ्ते 1 गिरफ्तारी हो रही है और रोज एक नया सनसनीखेज खुलासा हो रहा है. इस फर्जीवाड़े में अब तक 30 आरोपी गिरफ्तार किए जा चुके हैं और उन पर ही स्पैशल टास्क फोर्स यानी एसटीएफ शिकंजा कसने जा रही है.

डा. संजीव सागर, सुधीर राय, संतोष गुप्ता, तरंग शर्मा, पंकज त्रिवेदी, नितिन महिंद्रा और संजीव शिल्पकार ये आदमियों के ही नहीं बल्कि गिरोहों के नाम हैं जो बडे़ पैमाने पर प्री मैडिकल टैस्ट यानी पीएमटी में फर्जीवाड़े को बेहद तकनीकी ढंग से अंजाम दे रहे थे. उन्होंने कितने करोड़ रुपया कमाया, इस का हिसाबकिताब लगाने में जांच एजेंसियों के पसीने छूट रहे हैं. ये सभी जेल में बंद हैं.

पीएमटी की परीक्षा बेहद कठिन मानी जाती है. डाक्टर बनने का सपना लिए लाखों छात्र 12वीं के बाद इस में बड़ी उम्मीदें ले कर शामिल होते हैं. मैडिकल की एक सीट के मुकाबले औसतन 100 छात्रों के बीच योग्यता की कड़ी प्रतिस्पर्धा में जो उत्तीर्ण होता है उसे गैरमामूली बेवजह नहीं कहा जाता. इस परीक्षा को सफलता और निष्पक्षतापूर्वक संपन्न कराने की जिम्मेदारी व्यापमं की है. इस के अलावा यह एजेंसी दूसरी कई प्रवेश और चयन परीक्षाएं भी आयोजित करती है जो सीधेसीधे उम्मीदवार को व्यावसायिक डिगरी और सरकारी नौकरी दिलाती है. व्यापमं की एक खूबी, जो अब खामी साबित हो रही है, यह है कि इस में तमाम अधिकारी दूसरे विभागों से प्रतिनियुक्ति पर लिए जाते हैं. ऐसा क्यों है, इस का सटीक जवाब किसी के पास नहीं, सिवा इस के कि यह तो शुरू से होता रहा है.

व्यापमं में प्रतिनियुक्ति पर जाने के लिए अधिकारी क्यों तरसते हैं, जुगाड़ करते हैं, नेताओंमंत्रियों की सिफारिश  करवाते हैं और लाखों रुपए की घूस भी इस बाबत चढ़ाते हैं, यह हालिया फर्जीवाड़े से उजागर हो गया.

उदाहरण पंकज त्रिवेदी का लें. उस की मूल पदस्थापना उच्च शिक्षा विभाग में है. 1982 में वह खंडवा के सरकारी महाविद्यालय में संविदा शिक्षक के पद पर भरती हुआ था. धीरेधीरे वह दूसरे प्राध्यापकों की तरह नियमित हो गया और राजनीतिक संबंधों के चलते 2008 में राज्य सरकार की महत्त्वाकांक्षी विवेकानंद कैरियर मार्गदर्शन योजना का डायरैक्टर बना दिया गया. साल 2011 में पंकज त्रिवेदी को बगैर किसी योग्यता के व्यापमं के परीक्षा नियंत्रक जैसे पद पर नियुक्त कर दिया गया. वाणिज्य संकाय के इस प्रोफैसर में कौन सी खूबी इस अहम पद को संभालने के लिए सरकार को दिखी थी, यह अब समझ आ रहा है जब उस ने लाखों छात्रों का कैरियर चौपट कर करोड़ों रुपए का खेल कर डाला.

बीती जुलाई की 7 तारीख को पंकज त्रिवेदी की प्रतिनियुक्ति की अवधि खत्म हो गई थी लेकिन तमाम नियमकायदेकानूनों को ठेंगा दिखाते तकनीकी शिक्षा विभाग ने इस अवधि को 1 साल और बढ़ाने के आदेश जारी कर दिए. इत्तफाक से इसी दौरान इंदौर से पीएमटी फर्जीवाड़े का खुलासा होना शुरू हुआ जब एक छात्र की शिकायत पर डा. जगदीश सागर को गिरफ्तार किया गया था. इस के बाद तो मामला एसटीएफ के हाथों में आते ही शृंखलाबद्ध तरीके से गिरोह पकडे़ गए जो नकल कराने और ‘मुन्नाभाइयों’ की पैदावार के विशेषज्ञ थे. अब तक इस हैरतअंगेज फर्जीवाड़े में 5 गिरोह पकड़े गए हैं.

पहले गिरोह का सरगना जगदीश सागर, दूसरे का सुधीर राय, तीसरे का संतोष गुप्ता, चौथे का तरंग शर्मा और पांचवें का संजीव शिल्पकार है. ये सभी पूछताछ में उगल रहे हैं कि कितनी आसानी और बेफिक्री से पीएमटी में फर्जीवाड़ा और हेरफेर की जाती रही.

ये रही झंझटें

एक प्रमुख झंझट फर्जी तरीके से या घूस दे कर एमबीबीएस में दाखिल हुए छात्रों की कि उन्हें बाहर निकालना न्यायसंगत है या नहीं? इस पर बहस चल रही है और राज्य के छहों मैडिकल कालेजों में हड़कंप मचा हुआ है. गलत तरीके से दाखिल हुए छात्रों को निकालने की कार्यवाही शुरू भी हो गई है. फर्जीवाड़े में अच्छी बात यह हुई कि घूस देने वाले अभिभावकों पर भी कार्यवाही की जा रही है. एसटीएफ ने अक्तूबर के दूसरे हफ्ते में कई अभिभावकों को गिरफ्तार किया जिन्होंने अपनी संतानों को मुन्नाभाई बनाने के लिए 20-20 लाख रुपए दिए थे. ये छात्र विभिन्न मैडिकल कालेजों में पढ़ाई भी करने लगे थे, जिन के ऐडमिशन रद्द कर दिए गए हैं. शेखर पटेल पुत्र मानसिंह पटेल (रतलाम निवासी), दीपक कुमार गोयल पुत्र रघुवीर प्रसाद (होशंगाबाद निवासी), अभिषेक सक्सेना पुत्र एस के सक्सेना (उज्जैन निवासी) जैसे सैकड़ों अन्य घूसदाता एसटीएफ के निशाने पर हैं जो गिरफ्तारी से बचने को अग्रिम जमानत के लिए वकीलों और अदालत के चक्कर लगा रहे हैं.

घूस देने वाले इन लोगों को घूसखोरों से कमतर आरोपी नहीं माना जा सकता जिन्होंने अपनी निकम्मी और नाकाबिल संतानों को डाक्टर बनाने के वास्ते दूसरे काबिल छात्रों का हक मारा, वह भी पैसे के दम पर जो संभवतया सही तरीके से नहीं कमाया गया होगा. गिरफ्तार किए गए और किए जा रहे अधिकांश अभिभावक अधिकारी स्तर के या फिर धनाढ्य व्यापारी हैं.

दरअसल, सारा खेल पैसे का है और इस पर भी विवाद शुरू हो गया है. लोग कालेज में जमा की गई फीस को वापस लेने के लिए कानूनी सलाह ले रहे हैं. ‘क्या गलत तरीके से दाखिल हुए छात्रों की फीस वापस की जाएगी?’ इस सवाल के जवाब में संयुक्त संचालक, चिकित्सा शिक्षा विभाग, डा. निर्भय श्रीवास्तव का कहना है, ‘अभी तक कोई फीस वापस मांगने नहीं आया है और आएगा तो कानूनी सलाह ले कर ही कार्यवाही की जाएगी.’

गिरफ्तारी के डर से अभी लोग फीस वापस नहीं मांग रहे हैं. एसटीएफ अभिभावकों को गिरफ्तार कर सराहनीय काम ही कर रही है जो फर्जीवाड़े और घूसखोरों को बढ़ावा देते हैं. अदालत में इन्हें आज नहीं तो कल, घूस देना स्वीकारना ही पड़ेगा क्योंकि इन के नाम आरोपियों ने लिए हैं.

पीएमटी के माने क्या

बड़े पैमाने पर उजागर हुए इस फर्जीवाड़े से योग्य छात्र निराश हैं और वे गलत नहीं पूछ रहे कि जब यही सब होना था और होता रहा है तो पीएमटी के माने क्या? पिछले साल इस परीक्षा में 2 साल मेहनत कर और तैयारी कर शामिल हुई एक छात्रा अपूर्वा का कहना है, ‘मुझे अपने सिलैक्शन की पूरी उम्मीद थी क्योंकि मैं 90 फीसदी जवाब सही लिख कर आई थी.’

अब अपूर्वा जैसे सैकड़ों छात्रों को समझ आ रहा है कि उन की अयोग्यता क्या थी. पर असल दिक्कत इस महत्त्वपूर्ण प्रवेशपरीक्षा का सारा नियंत्रण 4-6 लोगों के हाथोें में सिमट जाना है. जाहिर है बड़ी खामी परीक्षा का तरीका ही है जिस में कंप्यूटर के जरिए मनमानी व छेड़खानी कर फर्जीवाड़ा किया गया. उत्तरपुस्तिकाएं जमा होने और उन के मूल्यांकन होने के पहले उन की निगरानी व्यापमं में होती है पर इस में भी छेड़छाड़ की गुंजाइश बनी रहती है.

फर्जीवाड़े से प्रवेश लेने वाले डाक्टरों पर हायहाय इसलिए भी बेमानी लगती है कि कई छात्र चीन और रूस जा कर डिगरी ला कर सरकारी नौकरियां कर रहे हैं. इन्होंने रिश्वत नहीं दी पर विदेश में पढ़ाई कर खासा पैसा खर्च किया और पीएमटी में शामिल होने से बच गए. प्राइवेट मैडिकल कालेजों में डोनेशन दे कर पैसे वाले छात्र पीएमटी से बच रहे हैं तो साफ है उन्हें सिर्फ पैसे की बिना पर पीएमटी उत्तीर्ण छात्रों के समतुल्य माना जाता है.

देश में डाक्टरों का टोटा है और देहाती इलाकों में, जहां डाक्टरों की सब से ज्यादा जरूरत है, वहां डाक्टर जाना पसंद नहीं कर रहे. यह सेवा या पेशा, जो भी कह लें, शहरों तक ही सिमटता जा रहा है जिस की वजहें किसी सुबूत की मुहताज नहीं कि डाक्टर अब सिर्फ ऐशोआराम की जिंदगी जीने, अनापशनाप पैसा कमाना चाह रहे हैं. चूंकि वे संख्या में कम हैं इसलिए उन की पूछ ज्यादा है. जमाना सुपर स्पैशलिटी का है. ऐसे में आम आदमी नीमहकीमों और अर्धशिक्षित डाक्टरों के हवाले है.

जाहिर है जरूरत ज्यादा से ज्यादा डाक्टर पैदा करने की है, इस के लिए लोग पैसा दे रहे हैं तो हर्ज क्या है? सरकार सीटें या कालेज बढ़ाए तो इस से डाक्टर भी बढ़ेंगे. मध्य प्रदेश में 1 साल में महज 800 डाक्टर ही निकल रहे हैं. यह तादाद बेहद कम है. व्यापमं जैसी सरकारी एजेंसी के जरिए प्रवेशपरीक्षा आयोजित कराई जाएगी तो फर्जीवाड़ा होता रहेगा. बेहतर है वह तमाम विकल्प खुले रखे और योग्यता के पैमाने पर दोबारा विचार करे.

और भी हैं सच

लगता नहीं कि सरकार या चिकित्सा व्यवसाय से जुड़ी उस की आईसीएमआर और आईएमए जैसी एजेंसियां इस तरफ सोचेंगी. वजह, पूरे सरकारी तंत्र का भ्रष्ट और निकम्मा होना है. मध्य प्रदेश में व्यापमं अकेले प्रवेशपरीक्षा से करोड़ों रुपए कमा रहा है. पीएमटी के उस फौर्म की ही कीमत 1500 रुपए होती है जिस की छपाई की लागत 30 रुपए भी नहीं आती. प्रति छात्र परीक्षा प्रबंधन या अगर व्यापमं 100 रुपए भी खर्च करता है तो भी 1,370 रुपए वह बचा रहा है, बल्कि यह कहना बेहतर होगा कि कमा रहा है.

जो अभिभावक औसतन 20 लाख रुपए की घूस दे रहे हैं उन्हें इतना ही पैसा महंगी स्नातक डिगरी पर भी खर्च करना पड़ता है. तकरीबन 50 लाख रुपए खर्च कर जो डाक्टर बनेगा उस से गांवदेहातों में जा कर किताबी शैली में सेवाएं देने यानी आदर्श पालने की उम्मीद करना बेकार है. स्नातकोत्तर होतेहोते तो यह खर्च और बढ़ जाता है.

सरकार को इस फर्जीवाड़े की तकनीक के साथसाथ यह मंथन भी करना चाहिए कि मैडिकल की पढ़ाई कर युवा क्यों सरकारी डाक्टर नहीं बनना चाहते. प्राइवेट प्रैक्टिस जमाने और अनुभव लेने के लिए जरूर मध्यवर्गीय छात्र सरकारी नौकरी करते हैं पर 4-6 साल बाद इस्तीफा दे कर किसी नर्सिंग होम में

मोटी पगार पर चले जाते हैं या खुद का क्लीनिक खोल लेते हैं. एमबीबीएस के दाखिले में घूसखोरी चलती है, जिस का सीधा सा मतलब है छात्र डाक्टर तो बनना चाहते हैं पर प्रवेशपरीक्षा को अहमियत नहीं देते. ऐसे में बेहतर होगा कि इसे बंद कर 12वीं या जीव विज्ञान से फर्स्टक्लास उत्तीर्ण करने वाले छात्रों को मैरिट के आधार पर प्रवेश दिया जाए. साथ ही प्रवेश प्रक्रिया को भ्रष्टाचार व फर्जीवाड़े से बचाने के लिए हर 5 साल में बदला भी जाता रहे.

इन्हें भी आजमाइए

  1. पड़ोसियों के दुखसुख में अवश्य साथ रहें. जरूरत के वक्त उन की सहायता करें. पर इस का अर्थ यह नहीं कि हर समय उन के हर काम में दखलंदाजी करते रहें, उन के घर में जरा सा ऊंचा बोल सुनते ही वहां हाजिर हो जाएं. यानी जब उन्हें सहायता की आवश्यकता हो तभी सहायता करें. अनावश्यक रूप से पड़ोसियों के यहां अपनी उपस्थिति दर्ज कराना अच्छे पड़ोसी का परिचायक नहीं है.
  2. रात को सोने से पहले सूची बनाइए कि आप ने काम टालने की कितनी बार कोशिश की. इस कोशिश के आगे उस का कारण लिखिए. लगभग एक माह ऐसा कीजिए. इस तरह भगोड़ेपन तथा बहानेबाजी की अपनी आदत को समझिए और कम कीजिए.
  3. हंसने वाला व्यक्ति स्वस्थ मानसिकता का व्यक्ति माना जाता है. अगर हंसने की आदत न हो तो हंसने के बनावटी तरीके अपनाएं. धीरेधीरे स्वाभाविक हंसना जान लेंगे.
  4. सफर के दौरान मोबाइल पर किसी को अपने घर का पता न बताएं. इस से यह नुकसान हो सकता है कि पास में बैठा यात्री इसे सुन कर गलत फायदा उठा सकता है.
  5. जो व्यक्ति हमेशा उत्साहित रहते हैं उन से दोस्ती करें. उन की काम करने की शैली को समझें और उसे स्वयं भी अपनाएं.

आज मन क्यों उल्लास है

आज मन क्यों उल्लास है
आज जमीं को आसमां से हुई बात है
फिजाओं ने भी छेड़ी राग है

आज मन क्यों उल्लास है
आज हवाओं को घटाओं से हुई बात है
बहारों ने भी बरसाए फूल हैं

आज मन क्यों उल्लास है
आज चांद की चांदनी से हुई बात है
तारों ने भी सजाया आसमां है

आज मन क्यों उल्लास है
आज मन की मीत से हुई बात है
धड़कन ने भी छेड़ा साज है.
रंजना वर्मा

हमारी बेड़ियां

बात पुरानी है. हमारे घर के पास एक परिवार रहता था. करवाचौथ का व्रत सास व बहू दोनों ने रखा हुआ था. सारा दिन दोनों का काम करते हुए आराम से गुजर रहा था. बहू बेचारी व्रत में भूखप्यास को भूलने के लिए काम पर काम किए जा रही थी.
शाम को चांद निकलने के समय अचानक बादल छा गए और बूंदाबांदी शुरू हो गई. चांद बादल में छिप गया. काफी रात हो गई पर चांद नहीं दिखा. काफी इंतजार के बाद बहू के ससुर और पति ने उन दोनों से कहा कि चांद निकल चुका है लेकिन बादलों में छिप गया है इसलिए तुम दोनों जल चढ़ा कर खाना खा लो. इस पर बहू तो तैयार हो गई मगर सास ने न खुद खाया न बहू को खाने दिया. सुबह बहू की काफी तबीयत खराब हो गई, वह गर्भवती थी. उसे तुरंत डाक्टर के यहां ले जाना पड़ा.
आशा गुप्ता, जयपुर (राज.)
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एक दिन 3 पंडे उजले सफेद धोती-  कुरता पहने, माथे पर टीका और चंदन का लेप लगाए हमारे घर आए. आते ही दादी से बोले, ‘‘माताजी, हम हरिद्वार के मशहूर हस्तविद्या के जानकार हैं. माथा देख कर भी भूत, वर्तमान और भविष्य बता देते हैं. हमें मां मंशा देवी का आशीर्वाद मिला हुआ है. माताजी, आप का माथा बता रहा है कि आप का छोटा बेटा शनि के कब्जे में है. जो भी काम हाथ में लेता है, नुकसान ही नुकसान होता है.’’
अब एक पंडे ने हाथ देखना शुरू किया. उस ने दादी को भयभीत कर दिया. जब दादी ने उस का निवारण पूछा तो पंडे ने मां मंशा देवी का हवाला दे कर कहा, ‘‘मांजी, एक गिलास में पानी मंगाइए.’’
पानी आया, पंडे ने मंत्र पढ़ा. गिलास में फूंक मारी और दादी से पानी पीने को कहा. दादी ने पानी पिया, कुछ कसैला सा लगा. दादी ने सिर झटका. पंडा मुसकराते हुए बोला, ‘‘माताजी, मंशा देवी की कृपा से आप के बेटे के सारे कष्ट दूर हो जाएंगे. माताजी, अब मंशा देवी की भेंट 500 रुपए शीघ्र दीजिए. अन्यथा अनर्थ हो जाएगा.’’
दादी डर गईं. अंदर से 500 रुपए निकाल लाईं और पंडे को थमा दिए. उन पंडों ने बुआजी और मम्मीजी से भी पैसे झटक लिए.
पंडे ने दूसरी चाल चली और कहा, ‘‘हम सोने को भी चमकाते हैं, बिलकुल नया जेवर बन जाएगा.’’ तभी दादाजी आ गए. दादाजी को देखते ही पंडे चौंके. अपना झोलाडंडा पकड़ा और नौ दो ग्यारह हो गए.
दादाजी ने पूछा, ‘‘वे लोग क्या कर रहे थे?’’ तब तक दादी सामान्य हो गई थीं. कहा, ‘‘भविष्य बता रहे थे. हम तीनों से
500-500 रुपए ले गए.’’
धर्म और अंधविश्वास ने हमारे समाज को इस तरह बेडि़यों में जकड़ रखा है कि आस्था के नाम पर लोगों की आंखें बंद हो जाती हैं और वे लुटपिट जाते हैं और पता भी नहीं चलता.
नितिन मेहरा, नैनीताल (उत्तराखंड) 

सूक्तियां

यश
यश लूटने में एक बुराई भी है. अगर हम इसे अपने पास रखना चाहते हैं तो हमें अपनी जिंदगी लोगों को खुश करने में और यह जानने में बिता देनी चाहिए कि उन्हें क्या पसंद है और क्या नहीं.
सौंदर्य
अच्छा स्वभाव हमेशा सुंदरता के अभाव को पूरा कर देगा, लेकिन सुंदरता अच्छे स्वभाव के अभाव में पूर्ति नहीं कर सकती.
व्यवसाय
जब एक व्यवसाय में दो व्यक्ति हमेशा एकदूसरे से सहमत हों तो वहां उन दोनों में से एक की आवश्यकता नहीं है.
नाम
नामों में क्या रखा है? जिसे हम गुलाब का फूल कहते हैं, कोई अन्य नाम होने पर भी वह वैसी ही मीठी सुगंध देता है.
स्त्री
स्त्रियां कुरूप कभी नहीं होतीं. हां, ऐसी स्त्रियां अवश्य होती हैं जो अपनेआप को सुंदर बनाने की कला नहीं जानतीं.
दुख
जो व्यक्ति दूर की नहीं सोचता, दुख उस के द्वार पर आया ही समझना चाहिए.
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