संजय लीला भंसाली भव्य फिल्में बनाने में माहिर हैं. जहां ‘ब्लैक’ में उन्होंने काले रंग का जादू चलाया वहीं ‘सांवरिया’ के ब्लू शेड्स ने दर्शकों को अचंभित किया. ‘हम दिल दे चुके सनम’ में ऐश्वर्या राय के रंगबिरंगे कौस्ट्यूम्स और महलों की भव्यता ने भी दर्शकों को चकित कर दिया.

नई फिल्म ‘… राम-लीला’ भी काफी कलरफुल और भव्य है, आंखों को सुकून देती है. इस फिल्म में संजय लीला भंसाली ने एक तरफ भव्य हवेलियां, बाग, बगीचे और कुहकते मोरों के बीच पनपती लवस्टोरी को दिखाया है वहीं हजारोंलाखों गोलियों की तड़तड़ की गूंज को बड़े भव्य पैमाने पर फिल्माया है यानी भव्य…भव्य… और भव्य.

इस फिल्म का अयोध्या वाले ‘भगवान’ राम से कुछ लेनादेना नहीं है, न ही इस में कृष्ण और गोपियों की रासलीला है. यह अलग बात है कि रणवीर सिंह जब अपनी शर्ट उतार कर डांस करता है तो गांव की बहुत सी गोपियां आहें भरती हैं. कुछ तो उस के कूल्हे पर अपने हाथ भी मारती हैं. वैसे फिल्म का यह ‘राम’ एक नंबर का ऐयाश, हमेशा ब्लू फिल्में देखने वाला, शराबी, लड़कियों को पटाने में माहिर और सैक्सी है.

‘राम-लीला’ पर काफी कंट्रोवर्सी हो चुकी है. कट्टरपंथियों को इस के टाइटल पर एतराज था. अदालत को दखल देना पड़ा तब जा कर फिल्म रिलीज हुई.

फिल्म की कहानी शेक्सपियर के उपन्यास ‘रोमियो जूलियट’ पर आधारित है जिस में 2 समुदायों के बीच 500 सालों से चली आ रही आपसी रंजिश को दिखाया गया है. इस आपसी खूनी रंजिश को खत्म करने के लिए नायकनायिका अपनी जान तक न्योछावर कर देते हैं.

कहानी गुजरात के एक सीमांत गांव की है, जहां हर घर में बंदूकें, स्टेनगनें बनती हैं. हर वक्त गोलियों की गूंज हवा में सुनाई पड़ती है. पुलिस का भी कोई जोर नहीं चलता. वहां के 2 समुदायों, रजाड़ी और सनोरा के बीच आपसी दुश्मनी है. रजाड़ी समुदाय के राम (रणवीर सिंह) को सनोरा समुदाय की लीला (दीपिका पादुकोण) से प्यार हो जाता है. लीला की मां और सनोरा समुदाय की डौन बा दनकौर (सुप्रिया पाठक) को यह बात बरदाश्त नहीं होती. इधर गुस्से में राम के भाई और लीला के भाई को गोलियां लगती हैं और वे मारे जाते हैं. मौका पा कर राम और लीला घर से भाग जाते हैं परंतु बा ऐसा जाल बुनती है जिस में दोनों फंस जाते हैं. दोनों समुदायों में मारकाट होती है. यह देख कर राम और लीला फैसला करते हैं कि वे अपनीअपनी जान दे कर इस खूनखराबे को रोकेंगे. दोनों एकदूसरे को गोली मार कर खत्म कर डालते हैं. दोनों का जनाजा शान से निकाला जाता है और दोनों समुदायों के बीच भाईचारा बन जाता है.

हालांकि फिल्म की यह कहानी घिसीपिटी है परंतु संजय लीला भंसाली का इसे कहने और प्रेजैंट करने का तरीका ऐसा है कि दर्शक बंधे से रहते हैं. रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण के बीच गजब की कैमिस्ट्री है. दीपिका पादुकोण ने खुल कर रोमांस किया है. युवाओं को इस कपल को रोमांस करते देखना काफी अच्छा लगेगा. राम का लीला के घर छिप कर जाना, होली के मौके पर वहां लीला के साथ डांस करना. लीला के साथ घर से भागने के सीन काफी अच्छे बन पड़े हैं.

फिल्म का निर्देशन बहुत अच्छा है. निर्देशक ने प्रियंका चोपड़ा पर एक आइटम सौंग भी फिल्माया है. फिल्म में दिखाई गई इस खूनी रंजिश में जो गरमी, जो उबाल होना चाहिए था, वह असरदायक नहीं है. लगता है किरदार हवा में बंदूकें लहराते हुए तड़तड़तड़तड़ कर रहे हैं. यह सब नाटकीय लगता है.

सुप्रिया पाठक ने एक लेडी डौन की भूमिका में जान फूंकी है. रिचा चड्ढा का काम भी अच्छा है. फिल्म का गीतसंगीत पक्ष अच्छा है. संगीत खुद लीला भंसाली ने दिया है जिस में जान है. छायांकन लाजवाब है.

वैसे चाहे प्रारंभ में इस फिल्म के पात्रों का किसी धर्म से जुड़े न होने का चित्रण किया गया है पर संवादों में लीला भंसाली ने खासी कोशिश की है धार्मिक चरित्रों पर कटाक्ष करने की. यह स्वतंत्रता का अधिकार है जो हर निर्देशक को इस्तेमाल करना चाहिए. यह अफसोस की बात है कि देश की अदालतें कट्टरपंथियों से डर कर या स्वयं कट्टर होने के कारण इस तरह की फिल्मों को ले कर खड़े किए गए विवादों को सुनने के लिए तैयार हो जाती हैं और कई बार स्थगन आदेश भी दे देती हैं. अदालतों का कर्तव्य है कि वे सरकार, धर्म, समाज, पैसे वालों, व्यवसायियों द्वारा स्वतंत्रता के अधिकार पर अंकुश लगाने के प्रयासों को रोकें. पर देश में उलटा हो रहा है. अदालतें धर्म के मामलों में सरकार से भी पहले हथियार डाल देती हैं.

 

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