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मेरे पापा

बात बहुत पुरानी है. उन दिनों दिल्ली में कारों की इतनी भरमार नहीं थी. लोग साइकिलों पर दफ्तर जाते थे. जनवरी की सर्दी थी, ऊपर से मूसलाधार बारिश.
मेरे पापा ट्यूशन पढ़ाने के लिए लोधी रोड जाते थे. मां ने सुबह ही पापा को नया स्वैटर बना कर दिया था. पापा नया स्वैटर पहन कर साइकिल से पढ़ाने गए. रास्ते में बारिश बहुत तेज हो गई थी और सर्द हवा भी चल रही थी.
पापा एक घने पेड़ के नीचे रुक गए कि बारिश कम हो तो आगे जाएं. उसी पेड़ के नीचे एक गरीब व्यक्ति, जो पतली सी शर्ट पहने हुए था, सर्दी से कंपकंपा रहा था. बहुत देर तक मेरे पापा व दूसरा व्यक्ति पेड़ की शरण में थे. मेरे दयालु पापा ने फौरन अपना नया स्वैटर उतार कर उसे दे दिया. वह स्वैटर पहन कर याचना भरी आंखों से देखता रहा और पापा ठंड में बिना स्वैटर के पढ़ाने चले गए. ऐसे थे मेरे पापा.
उषा शर्मा, गुड़गांव (हरियाणा)

बात उन दिनों की है जब मेरी नईनई शादी हुई थी. मैं अपने पति के साथ जम्मू में गृहस्थी को संभालने में व्यस्त थी. तभी मेरे पिता का शादी के बाद पहला खत आया, जिस में अन्य बातों के साथ गृहस्थी चलाने की मूल्यवान नसीहत थी. वह इस प्रकार थी, ‘‘महीने के आरंभ में सभी जरूरत की वस्तुओं की सूची बनाओ और फिर किन वस्तुओं के बगैर काम चल सकता है, यह विचार कर उन अनावश्यक वस्तुओं को सूची से हटा दो. इस तरह आवश्यक वस्तुओं की खरीदारी व अनावश्यक वस्तुओं को दरकिनार कर तुम अपना बजट आय के अनुरूप बना पाओगी. गैरजरूरी वस्तुओं की खरीदारी से बच कर अपने बजट से न्याय कर पाओगी.’’
पापा की नसीहत मेरे बहुत काम आई. उन की नसीहत पर मैं ने पूरी तरह अमल किया और मैं एक कुशल गृहणी बन सकी.
मीनू त्रिपाठी

बात वर्ष 1980 की है. तब मैं ने 10वीं की परीक्षा दी थी और मेरी दीदी ने बीकौम फाइनल की. उसी साल भैया की शादी हुई और भाभी बीए पास कर के आई थीं.
पापा ने दीदी को एमकौम में दाखिला दिलवाया था. चूंकि भाभी बीए पास थीं, इसलिए पापा ने कहा कि बहू सारा दिन घर में खाली बैठ कर क्या करेगी, इसे भी आगे और पढ़ना चाहिए और फिर पापा ने दोनों को को-एड में एमकौम में दाखिला दिलवा दिया.
उस जमाने में एमकौम के लिए गर्ल्स कालेज नहीं था. मेरे पापा ने किसी भी रिश्तेदार की परवा न कर के बहू को सहशिक्षा कालेज में पढ़ने के लिए भेजा.
ऐसे हैं मेरे पापा जिन्होंने बहूबेटी में कभी फर्क नहीं किया. हमेशा अपनी सोच ऊंची रखी.
चंद्रा गुप्ता, रोहिणी (दिल्ली)
 

फासले

कोसी और घाघरा

भेद के फासले

मिटा गई घरों के

दिल्ली की सड़कों पर भी

नाव चले

तो कुछ बात बने

 

अट्टालिकाओं के झरोखे से झांकता

शहर का आदमी

इस उम्मीद में कि

धरती और आस्मां

एकसाथ दिखें

तो कुछ बात बने

 

घुप्प अंधेरा निराश मन

शहर की ओर ताकता इंसान

इस उम्मीद में कि

उस का पोता राहुल भी

पांवपांव चले

तो कुछ बात बने

आनंद नारायण

 

गुस्से से दूरी भली

काम, क्रोध, मोह, लोभ मनुष्य की स्वाभाविक भावनाएं हैं. किसी भी भावना की अति नुकसानदायक होती है लेकिन क्रोध यानी गुस्सा आने की प्रवृत्ति सब से ज्यादा नुकसानदेह होती है. छोटा, बड़ा, बूढ़ा कोई भी इस से अछूता नहीं है.

रेखा पढ़ीलिखी, सुंदर लड़की है. कोई विशेष कारण न होने पर भी उस की शादी नहीं हो पा रही है. वह आत्मनिर्भर है, फिर भी उसे लोगों के ताने सुनने पड़ते हैं. लड़की होने की वजह से लोग उसी में कमी निकालते हैं, जैसे ‘अरे, इस के तो नखरे ही नहीं खत्म होते’, ‘ज्यादा पढ़ाईलिखाई ने इस का दिमाग खराब कर दिया है’, ‘इस को अपनी सुंदरता पर बहुत घमंड है’ आदि. लोगों की ऐसी ऊलजलूल बातों ने रेखा को चिड़चिड़ा और गुस्से वाला बना दिया है. अब कोई सामान्य तौर पर ही कुछ कह रहा होता है, रेखा उसे व्यक्तिगत मान कर, गुस्सा हो जाती है.

यह सच है कि जीवन में कई ऐसी घटनाएं घटती हैं जिन के चलते गुस्सा आना स्वाभाविक है. वहीं, हर उम्र व रिश्ते का गुस्सा अलग होता है.

बच्चे पढ़ाई नहीं करते तो मां को गुस्सा आता है और बच्चे को बिना उस की इच्छा के पढ़ाई करनी पड़े तो उसे गुस्सा आता है. वह उसे दर्शाने के लिए कभी किताबें पटकता है तो कभी दरवाजा जोर से बंद करता है.

गुस्सा एक बहुत ही स्वाभाविक क्रिया है. लेकिन ऐसा नहीं है कि उस पर काबू पाना नामुमकिन है. कई बार परिस्थितियां, अच्छेभले इंसान को गुस्सैल बना देती हैं.

जिस तरह खौलते पानी में अपना प्रतिबिंब दिखाई नहीं दे सकता, उसी तरह क्रोधी मनुष्य यह नहीं समझ सकता कि उस की भलाई किस में है. क्रोध कभीकभी काबिल से काबिल आदमी को भी मूर्ख बना देता है.

क्रोध में नासमझ रवैया

संजय और सुनीता की ‘लव मैरिज’ हुई थी. संजय काफी ठंडे स्वभाव का है जबकि सुनीता बातबात पर गुस्सा हो जाती है. संजय यदि देर से घर आए, किसी और से बात कर ले, कहीं जाना चाहे, हर बात में सुनीता अपनी हुकूमत चाहती है. यदि ऐसा नहीं होता तो वह उग्र हो जाती है. सुनीता के इस नासमझ रवैये ने संजय को उस से दूर कर दिया. इतना ही नहीं, इस रवैये के चलते संजय खुद भी गुस्सैल हो गया. कई बार घर का गुस्सा, औफिस के सहयोगियों पर भी निकल जाता है.

स्वाति रसोईघर में अपनी मनपसंद सब्जी बना रही थी. तभी फोन की घंटी बजी और वह उसे ‘अटैंड’ करने चली गई. जल्दबाजी में वह गैस बंद करना भूल गई. फोन पर बात करते हुए उसे इस बात का ध्यान ही नहीं रहा कि गैस चूल्हे पर सब्जी पक रही है. थोड़ी देर बाद उसे सब्जी के जलने की बू आई. उस ने झट फोन रखा और रसोई की तरफ दौड़ी. तब तक क्या हो सकता था, सब्जी तो जल ही चुकी थी. इस घटना में स्वाति अपना दोष देखने के बजाय, गुस्सा हो गई. अपना गुस्सा उस ने अपने बच्चों पर उतरा, पति से झगड़ा किया और 2 दिन तक घर का माहौल तनावपूर्ण बना रहा.

मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि यह जरूरी नहीं है कि गुस्से का कोई महत्त्वपूर्ण कारण हो. कई बार रोजमर्रा की छोटीछोटी बातों पर गुस्सा आना भी आम बात है.

गौर किया जाए तो गुस्से के कई कारण होते हैं. बच्चों की जिद अकसर आप के धैर्य का इम्तिहान लेती है और हर समय जिद मानना बच्चों के भविष्य के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है. बच्चों की बेमतलब की जिद और कहना न मानने पर महिलाएं अकसर गुस्सा हो जाती हैं.

आज के दौर में जहां दिनप्रतिदिन खर्चों में इजाफा हो रहा है, वहीं आमदनी उस हिसाब से न हो तो यह भी गुस्से की बुनियादी वजह बनती है. इस के अलावा अकसर देखा गया है कि घर व कार्यालय में यदि आप के द्वारा की गई मेहनत व कार्य को उचित रूप से सराहा न जाए तो यह लोगों के लिए गुस्से का कारण बन जाता है.

अपनी खामियां ही वजह

हर इंसान अपनी खूबियों व खामियों से वाकिफ होता है. अकसर इंसान अपनी खामियां खत्म करना चाहता है. उस दौरान यदि वह कामयाब नहीं होता तो उसे खुद पर ही गुस्सा आता है.

यह मानव स्वभाव है कि कोई भी अपनी बुराई सुनना पसंद नहीं करता. जब कोई आप की बुराई करता है तो आप के अहं को ठेस लगती है. लोगों का ऐसा बरताव भी गुस्सा दिलाता है.

इस के अलावा जब कोई विश्वास तोड़ता है तो भी कई बार गुस्सा हावी हो जाता है. अब सविता को ही देखिए. सविता ने रीमा को अपनी सच्ची सहेली मान कर अपने राज की सारी बातें बता दी थीं. लेकिन रीमा ने वे बातें दूसरे लोगों को बता दी थीं. रीमा के इस रवैये से सविता को काफी दुख हुआ और उस ने गुस्से में आ कर रीमा को खरीखोटी तो सुनाईं ही, साथ में वर्षों पुरानी दोस्ती को भी उस ने बायबाय कह दिया.

नियंत्रित करने की जरूरत

क्रोध करना किसी भी तरह से नुकसानदेह है. शारीरिक दृष्टि से कमजोर होने के साथसाथ व्यक्ति सामाजिक मानसम्मान भी खो बैठता है. लेकिन गुस्सा जब ज्वालामुखी बन जाता है तो उसे नियंत्रित करना भी आसान बात नहीं. क्रोध में क्योंकि व्यक्ति का स्वयं पर नियंत्रण नहीं रहता. इसलिए नियंत्रण करने की शुरुआत सामने वाले व्यक्ति को ही करनी पड़ेगी.

सामने वाला व्यक्ति का पहला कदम होगा खामोशी. क्रोध करने वाला सामने वाले व्यक्ति की बातों को ही सुन कर तड़ातड़ जवाब देता है. जब सामने वाला कुछ बोलेगा ही नहीं तो वह कितना बोलेगा. थोड़ी देर में गुस्से में आया व्यक्ति अपनेआप धीरेधीरे शांत हो जाएगा.

उपरोक्त बातों पर अमल कर के आप अपने गुस्से को बखूबी नियंत्रित कर पाने में सक्षम होंगे. जब क्रोध उठे तो तुरंत उस के नतीजों पर विचार करें. इस से आप के व्यवहार व दृष्टिकोण में आश्चर्यजनक परिवर्तन आएगा. समाज में आप का मान बढ़ेगा और हर कोई आप जैसे प्रसन्नचित्त व्यक्ति से मिल कर खुशी महसूस करेगा.    

दिन दहाड़े

कुछ दिन पहले की बात है. हमारी कालोनी में लगभग 12 बजे दोपहर को 2 लड़के आए और अपनी पहचान इंडेन गैस एजेंसी के एजेंट के रूप में दी.  उन्होंने कहा कि वे गैसचूल्हा व सिलेंडर में किसी भी गड़बड़ी को सही कर देंगे और पूरे 2 साल तक जब भी गैसचूल्हे में कोई खराबी आए तो उन्हें फोन से बुलाया जा सकता है. वे फ्री सेवा देंगे.

इस के लिए वे कालोनी वालों से 200 रुपए ले कर रसीद दे रहे थे और अपना फोन नंबर भी दे रहे थे. कई लोगों ने रसीदें कटवाईं. मैं ने भी दूसरी महिलाओं की तरह गैसचूल्हा चैक करवाया तथा 200 रुपए लेने कमरे में गई. इत्तफाक से पति की तबीयत कुछ खराब होने के कारण वे घर लौट आए. उन्होंने उन लड़कों से पहचानपत्र दिखाने को कहा. इस पर वे कुछ अजीब सा पहचानपत्र दिखाने लगे.

पति ने जैसे ही कहा कि वे गैस एजेंसी फोन कर के पूछ लेते हैं, उन के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. पति गैस एजेंसी को फोन करने अंदर गए. मैं पानी लेने को किचन में चली गई, जब मैं बाहर आई तो वे दोनों गायब थे. उन का दिया फोन नंबर गलत निकला. इस तरह वे दिन दहाड़े लोगों को बेवकूफ बना गए.

संगीता राय, झांसी (उ.प्र.)

 

कुछ दिन पहले मैसूर से आ कर मुंबई के दादर स्टेशन पर सुबह 6 बजे पत्नी के साथ उतरा. सामान ज्यादा था. डब्बे के बाहर ही टैक्सी वाला मिला और चारकोप का भाड़ा 500 रुपए मांगा. कुली के सहयोग से सामान रखवा कर पीछे की सीट पर बैठ कर उस के साथ चल दिए.

अपनी सीट पर बैठेबैठे ड्राइवर ने मुझ से 1 हजार का छुट्टा मांगा. उस ने पीछे एक नीले रंग की लाइट जला रखी थी. मेरी जेब में 500 और 100 रुपए के नोट साथसाथ रखे थे. मैं ने 500 के 2 नोट दिए और बाकी पैसा जेब में रखने लगा तो उस ने कहा कि ये तो 600 रुपए हैं. मैं ने अपनी भूल समझते हुए 100 का नोट ले कर 500 का दे दिया.

थोड़ी दूर चलने पर उस ने गाड़ी रोक दी. हम लोग गाड़ी में ही बैठे रहे. ड्राइवर टैक्सी से उतर कर टायर वगैरह देखने लगा. फिर बोला कि टायर पंक्चर हो गया है, दूसरी गाड़ी किए देता हूं. और जल्दीजल्दी हमारा सामान दूसरी टैक्सी में रखवा दिया.

जब चलने लगे तो वही ड्राइवर बोला कि अब हमें छुट्टा नहीं चाहिए. अपना पैसा ले कर हमारा नोट दे दीजिए. उस ने खुले पैसे लेते समय जो 100 का नोट दिया हम ने देखे बिना उसे पैंट की जेब में रख कर उस का 1 हजार रुपए का नोट, जो ऊपर की जेब में था, दे दिया.

जब थोड़ी दूर निकल आए तो पत्नी ने कहा कि उस की कोई मक्कारी तो नहीं थी. तो मैं ने अपनी पैंट में देखा तो दोनों नोट 100 रुपए के ही थे. 500 रुपए का एक भी नोट नहीं था. इस लूट का मुझे आज तक अफसोस है.

राजेंद्र प्रसाद, मुंबई (महा.)

 

धर्म नहीं बनाता व्यवस्था

सदियों से धर्म के ठेकेदार भ्रामक प्रचार करते आए हैं कि धर्म से ही समाज और व्यवस्था चलती है. सोचने वाली बात तो यह है कि धर्म ही अगर समाज व व्यवस्था को चला रहा होता तो अदालत, सेना, पुलिस और संसद की जरूरत क्यों पड़ती? सच तो यह है कि धर्म की दुकानों में दंगेफसाद, यौनशोषण और अपराध जैसे कुकर्म पनपते हैं, पढि़ए जगदीश पंवार का लेख.

दिल्ली के उत्तरपश्चिम के समृद्ध इलाके रोहिणी में आउटर रिंग रोड पर काली माता का प्रसिद्ध मंदिर है. यहां हर शुक्रवार को भारी भीड़ जमा होती है. देर रात तक दर्शन के लिए लंबी लाइन लगती है. मंदिर के आसपास करीब 1600 वर्ग फुट तक की जगह गलत तरीके से भक्तों और दुकानदारों के लिए घेर कर रखी गई है. यहां दूरदूर से भक्त चल कर आते हैं. लोग अपनी गाडि़यां आड़ीतिरछी गलत जगह पार्किंग करते हैं, जोरजोर से शोर करते हैं. चलते हुए आपसी बातचीत में गंदे शब्दों, गालियों तक का इस्तेमाल करते हैं. पान, गुटका चबाते हुए सड़कों, गलियों में जगहजगह थूकते चलते हैं. मंदिर में आसपास प्रसाद, फूल, नारियल के टुकड़े, थैलियां, कागज तथा खानेपीने की खराब चीजें जगहजगह बिखरी पड़ी रहती हैं. आने वाले भक्तों के साथ पर्स, चैन स्नैचिंग की वारदातें होती रहती हैं. इस तरह की अनगिनत करतूतें हैं जो यहां देखी जा सकती हैं.

यहां आने वाले लगभग सभी लोग पढ़ेलिखे होते हैं लेकिन वे ये सब नहीं देखते. इस से ऐसा लगता है तमाम बुनियादी कर्तव्य, नैतिकता, धार्मिक अच्छाइयां खो गई हैं. धर्म में विश्वास रखने वाले व्यक्ति धर्म को समाज की व्यवस्था की नींव कहते नहीं थकते हैं. धर्म में अगर अच्छाइयां और सदाचार की बातें होतीं तो क्या इस तरह की अव्यवस्था होती?

मंदिर में व्यवस्था के लिए वेतनभोगी सुरक्षाकर्मी और स्वयंसेवक लगाए गए हैं. कुछ ही दूरी पर जनता के टैक्स पर पलती पुलिसपोस्ट स्थित है और वहां चौबीसों घंटे पुलिस तैनात रहती है तो व्यवस्था का निर्माण धर्म कैसे करता है? व्यवस्था को धर्म बनाता है और धर्म ही उसे चलाता है, यह दावा बारबार धर्म के प्रशंसक करते हैं.

धार्मिक लोगों को और धर्मस्थलों के आसपास का माहौल देख कर तो ऐसा कतई नहीं लगता कि व्यवस्था का निर्माण धर्म करता है. अकसर कहा जाता है कि धर्म की व्यवस्था के कारण फलां व्यक्ति धार्मिक है और इसलिए जिम्मेदार है. उस के धार्मिक होने का मतलब है कि वह दयालु, उदार, सच्चा, ईमानदार, नियमों का पालन करने वाला, इंसानियत के रास्ते पर चलने वाला होगा. लेकिन ऐसा होता नहीं है.

व्यवस्था तोड़ता धर्म

देश का आम कट्टर धार्मिक व्यक्ति तो क्या साधु, संत, महंत, गुरु, शंकराचार्य, पंडेपुजारी, पादरी, मुल्लामौलवी, ओझा, तांत्रिक जैसे धर्म में जीने व धर्म में मरने वाले तक पाप, कुकर्मों में पकडे़ जाते हैं, व्यवस्था तोड़ते पाए जाते हैं.

मजे की बात यह है कि जब कोई धार्मिक समाज, धार्मिक संस्था या व्यक्ति का अच्छा काम सामने आता है तो लोग धर्म को इस का श्रेय देने लगते हैं लेकिन अगर उस संस्कृति या धार्मिक व्यक्ति की खराबी सामने आती है तो लोग बगलें झांकने लगते हैं.

किसी धार्मिक स्थल पर दंगा हो जाता है, मंदिर में चोरी हो जाती है, भगदड़ मचती है, कोई साधु, संत, बाबा गलत कामों में पकड़ा जाता है तो भक्तों को सांप सूंघ जाता है. फिर भी लोग यही मानते रहते हैं कि धर्म व्यवस्था को बनाता है.

अगर धर्म की व्यवस्था से समाज, देश चलता तो पुलिस, सेना, अदालत, पंचायत, संसद, विधानसभाओं की जरूरत ही नहीं पड़ती. मंदिरों, मसजिदों, चर्चों, गुरुद्वारों से व्यवस्था संचालित होती जबकि धार्मिक जगहों, चर्चों में यौन शोषण, मंदिरों, मठों में जम कर बलात्कार होता है, अनाचार होता है.

आज हर जगह आपाधापी, अपराध, अराजकता, कलह, बैर, वैमनस्य, विरोध, लालच, स्वार्थ व्याप्त है. जुल्म, अपराध की शुरुआत घर से देखी जा सकती है. वह गली, महल्ले, सड़क से गांव, शहर, महानगरों तक फैला है. घर में, परिवार में अपने अपनों से ही झगड़ा कर रहे हैं. अपनों का कत्ल तक कर रहे हैं. पतिपत्नी, भाईभाई, मांबेटा, मांबेटी, बापबेटा एकदूसरे के बीच मनमुटाव, बैरविरोध और थाना, कचहरी में उलझे नजर आ रहे हैं.

अपराध सरेआम सड़कों पर होता है. दिनदहाड़े होता है, चोरीछिपे होता है. हर जगह चोरी, डाका, बलात्कार, हत्या, बेईमानी, भ्रष्टाचार, घोटालों की खबरें हैं. कोई ऐसी जगह नहीं जहां पाप न दिखाई पड़ता हो.

धर्म के इतने प्रचारप्रसार के बावजूद यह सब क्यों हो रहा है. फिर व्यवस्था का निर्माता धर्म कैसे हुआ? इतने मंदिरों, मठों के बाद भी रामराज्य क्यों नहीं है, जैसा कि रामायणकाल में बताया गया है? क्या देशभर में ऐसी कोई जगह है जहां पुण्य ही पुण्य है? शांति, प्रेम, अनुशासन है? धर्म के बावजूद व्यवस्था इस कदर बिगड़ी हुई क्यों है? धर्म में चोरी, बेईमानी, हत्या को पाप माना गया है, पापियों को नरक की सजा का भय दिखाया गया है तो अच्छे कर्म करने वालों को स्वर्ग का लालच. पर पाप, अपराध क्या कम हुए?

तीर्थों, कुंभ मेलों, प्रवचन स्थलों, मंदिरों, हज यात्राओं में धार्मिक जनता की भीड़ तो बढ़ रही है पर व्यवस्था बिगड़ रही है. व्यवस्था को बनाने, संभालने के लिए गैरधार्मिक शासन, प्रशासन को प्रबंध करने पड़ते हैं और नियमकायदे बनाने पड़ते हैं.

धर्म से अनुशासन नहीं आता. धर्म सद्मार्ग दिखाता है, यह उसी तरह का भ्रम है जैसे योग के द्वारा इंद्रियों को वश में करने का दावा. योगगुरु कहते हैं कि भृकुटी के बीचोंबीच ध्यान लगा कर मन को काबू में करिए, इधरउधर मत भटकने दीजिए. क्या ऐसा किसी के साथ होता है जब हमारा ध्यान इधरउधर जाने से रोका जा सके? मस्तिष्क की संरचना बनी ही इस प्रकार है कि वह इधरउधर सोचे बिना रह ही नहीं सकता.

असल में व्यवस्था धर्म से नहीं, समाज के नियमों, कानूनों और व्यवहार से बनती है. सब से पहले घरपरिवार को ही लें. देश का आम परिवार धार्मिक है. बातबात में धर्म की दुहाई देता है. ब्याहशादी में धर्म, संतानोत्पत्ति में धर्म, नए मकान या जमीन की खरीद में धर्म, घर में प्रवेश बिना पूजापाठ नहीं होता. जन्म से ले कर मृत्यु तक यानी कोई काम पंडितपुरोहितों के बिना पूरा नहीं होता. लड़केलड़की की जन्मपत्री के मिलान से ले कर हवनपूजन, फेरे में पंडित की मौजूदगी रहती है, फिर भी ब्याहशादियों के झगड़े, पतिपत्नी के विवाद, जमीन, संपत्ति की कलह हमेशा रहे हैं.

देश की पारिवारिक अदालतों में करीब 30 लाख से अधिक मामले पड़े हैं. यह तादाद बढ़ रही है. धर्म के चलते तो झगड़े होने ही नहीं चाहिए और फिर होते भी हैं तो उन्हें धर्म क्यों नहीं निबटाता? अदालतों के पास क्यों जाना पड़ता है?

घरपरिवार, उस के सदस्यों के व्यवहार और अपनी बनाई एक व्यवस्था व अनुशासन से चलता है, पंडितजी या मौलवी के उपदेशों से नहीं. इसी तरह समाज, देश नियमों, कानूनों से संचालित होता है, मंदिर, चर्च या मसजिद की बकवासों से नहीं.

संतानोत्पत्ति, विवाह, बच्चों का पालनपोषण, शिक्षा, नौकरी, बीमार, वृद्धावस्था में परिजनों की जिम्मेदारी आदि समाज के नियम और कानून हैं. यहां धर्म क्या करेगा. दहेज, घरेलू हिंसा, चाइल्ड कस्टडी जैसे मामले अदालतें, महिला संगठन और एनजीओ निबटाने की व्यवस्था करते हैं.

धार्मिक स्थलों के विवाद अरसे से चल रहे हैं. धार्मिक संपत्तियों के झगड़े धर्म नहीं, अदालतें ही निबटाती हैं. धर्म व्यवस्था चलाता तो इस तरह के विवाद पैदा होते ही नहीं.

धर्म का सब से बड़ा मामला अयोध्या राममंदिरबाबरी मसजिद विवाद सालों से चल रहा है. इसे सुलझाने का काम अदालत को करना पड़ रहा है.

इंसानी जिंदगियों का दुश्मन

हर साल सड़क दुर्घटनाओं में तीर्थयात्री मारे जाते हैं. मंदिरों, तीर्थयात्राओं, मेलों में भगदड़ मचती है. हजारों लोग मरते हैं. अगर धर्म की व्यवस्था में दम होता तो कोई दुर्घटना ही न होती. दुर्घटनाओं को रोकने और उन से बचने के लिए नियम, कानून बने हुए हैं.

कुंभ मेलों में शाही स्नान की पहल को ले कर हर कुंभ मेले में इंसानी जिंदगियों की क्षति होती है. इस के लिए प्रशासन को व्यवस्था बनानी पड़ती है. इस वर्ष इलाहाबाद में संपन्न हुए महाकुंभ पर केंद्र सरकार ने करोड़ों रुपए खर्च किए. यह पैसा क्या किसी धर्म की लगाई टकसाल से निकला? जनता से वसूले टैक्स का पैसा ही तो होता है.

आतंकी हमले के भय से कुंभ और महाकुंभ में चप्पेचप्पे पर पुलिस जवान लगाए गए थे. पैरामिलिट्री यूनिट्स,  कमांडो और रैपिड ऐक्शन फोर्स तैयार किए जाते हैं.

लाखों लोगों के ठहरने की व्यवस्था होटलों, धर्मशालाओं, आश्रमों, टैंटों में की जाती है. यह व्यवस्था व्यक्तियों की सामूहिक मेहनत की बदौलत होती है. नागरिक सुविधाएं स्वयंसेवी, सरकारी संस्थाओं द्वारा उपलब्ध कराई जाती है.

धार्मिक आयोजनों के लिए  विद्युत की व्यवस्था धर्म नहीं करता. धार्मिक आयोजनों में जितनी भी व्यवस्था की जाती है क्या यह सब व्यवस्था धर्म करता है?

कुंभ मेलों में हजारों लोग भगदड़ में मारे जाते हैं, क्यों? धर्म की व्यवस्था के होते तो ऐसा नहीं होना चाहिए.

यह व्यवस्था असल में मेला ऐक्ट 1938 और मेला रूल्स 1940 के तहत होती है. मेला ऐक्ट के अंतर्गत कुंभ मेले का एक इंचार्ज होता है. उसे गजट नोटिफिकेशन जारी कर शक्तियां प्रदान की जाती हैं ताकि वह व्यवस्था बना सके. जमीन का वितरण, किराया तय करना, लोगों को मेला क्षेत्र में बीमारियों से बचाने के इंतजामात करना आदि कई काम कराने होते हैं. व्यवस्था बनाने में सहयोग के लिए दूसरे विभागों के अधिकारी नियुक्त किए जाते हैं.

धार्मिक मेलों की व्यवस्था में केंद्र सरकार के विभागों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है. रेलवे विभाग नियमित रेलों के अलावा स्पैशल रेलें चलाता है. रेलवे अधिकारियों का मेला अधिकारियों से नजदीकी समन्वय रहता है. कितनी भीड़ को लाने, ले जाने की व्यवस्था बैठानी पड़ती है, इस का समन्वय व्यक्तियों द्वारा किया जाता है.

देखने, सुनने में धर्म में अच्छीअच्छी बातें कही गई हैं. धर्म के क्षमा, करुणा, दया, प्रेम, धैर्य, शांति आदि 10 लक्षण कहे गए हैं. ये सब लक्षण किसी भी व्यक्ति के व्यवहार से संबंध रखते हैं. ये प्रकृति प्रदत्त हैं. धर्म कोई इंजैक्शन नहीं है कि इन गुणों को भरा और शरीर के अंदर पहुंचा दिया. कहा गया है धर्म धारण करने की चीज है. धर्म धारण करने की नहीं, दिखावे की चीज है. ढोंग है, पाखंड है. प्रेम, करुणा, शांति, दया ये सब धर्म द्वारा किसी के भीतर प्रत्यारोपित नहीं कराए जा सकते.

धर्म और धर्मगं्रथों में उल्लिखित उपदेश व्यक्ति को दुराचार, भ्रष्टाचार करने से रोकते हैं? आज लोग धार्मिक कहलाते तो हैं, उपदेश देने और सुनने वाले दोनों, पर खुद हर तरह के कुकृत्यों में लिप्त रहते हैं.

भगवद्गीता में कृष्ण कहते हैं कि जबजब धर्म की हानि होती है, मैं अवतार लेता हूं. धर्म का राज स्थापित करने के लिए मैं बारबार जन्म लेता हूं.

क्या कौरवों का राज धार्मिक नहीं था? फिर भी झगड़े, युद्ध हुए. भेदभाव बरता जाता था. हस्तिनापुर के राजा धृतराष्ट्र के शासन में वर्ण के आधार पर भेदभाव चलता था. कौरवों के गुरु द्रोण वर्णव्यवस्था के अनुसार चलते थे. धृतराष्ट्र के शासन में एकलव्य को द्रोण ने शिक्षा देने से इनकार कर दिया था क्योंकि एकलव्य शूद्र था.

सवाल है कि धर्म की यह कैसी व्यवस्था थी जो लोगों के बीच भेद करती हो, बैर उत्पन्न कराती हो?

अव्यवस्था, अपराध की जड़

गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गोआ में धार्मिक भाजपा की सरकारें हैं. भाजपा के शासन में अलग क्या है. भाजपा के राज में क्या कुकर्म नहीं हो रहे. धार्मिक प्रचारप्रसार के बावजूद धर्म के ठेकेदार अव्यवस्था, अराजकता के सब से ज्यादा जिम्मेदार हैं. जितना अपराध धर्म की आड़ में होता है, उतना कहीं नहीं. सच तो यह है कि तमाम अव्यवस्था, अपराध धर्म की ही देन हैं. धार्मिक मेलों, वह चाहे राममंदिर निर्माण का अयोध्या मामला हो या अन्य धार्मिक जलसे, लोग रेलों, बसों में बिना टिकट तो यात्रा करते ही हैं, स्टेशनों, बाजारों में लूटपाट के अलावा दूसरे लोगों के साथ दुर्व्यवहार भी करते हैं.

फिर कहां है धर्म की व्यवस्था. पंडे- पुजारी, तांत्रिक, ज्योतिषी लोगों को सुखसमृद्धि और भविष्य के झूठे सपने दिखा कर पैसे ऐंठते हैं. यह धर्म की व्यवस्था नहीं, अव्यवस्था है. इन को सजा दिलाने के लिए गैर धार्मिक पुलिस व अदालत के पास आखिर जाना क्यों पड़ता है?

धर्म ने कभी ऐसी व्यवस्था का निर्माण नहीं किया जिस से समाज, देश, सचाई, अनुशासन और ईमानदारी से संचालित हो. हां, धर्म से ऐसी संस्कृति जरूर स्थापित हुई जिस में मनुष्यमनुष्य में आपसी भेदभाव, होड़, वैमनस्य, लालच, स्वार्थ, बेईमानी, दुराचार और लूटने की भावना उत्पन्न हुई. और पूजापाठ, परंपराओं, रीतिरिवाजों, आडंबरों और स्वर्गनरक जैसे अंधविश्वासों के प्रति आस्था की संस्कृति विकसित हुई.

वर्णव्यवस्था धर्म की व्यवस्था की देन है. यह यहीं तक नहीं रुकी. पुराणों, स्मृतियों, नीतियों, रामायण और भगवद्गीता जैसे ग्रंथों में इसे दोहराया गया. आज भी इसी व्यवस्था को पुष्ट करने वाले ये ग्रंथ पढ़ेपढ़ाए जाते हैं और गुरुओं, संतों, प्रवचकों द्वारा इन्हीं पर उपदेश दिए जाते हैं. इन्हें मानने के लिए आस्था पर जोर दिया गया. इसी आस्था से अब धार्मिक कारोबार चल रहा है. धर्म के ठेकेदारों की चांदी हो रही है. यही लोग सामाजिक, सरकारी व्यवस्था को धता बता रहे हैं.

व्यवस्था धर्म के थोपे गए उपदेशों से नहीं बनती. व्यवस्था व्यवहार, वातावरण, सामाजिक नियमकायदे, कानून और प्रकृति की देन है. सशक्त सुव्यवस्थित समाज का निर्माण धर्म के उपदेशों से नहीं, आदमी के अपने नियमों, कानूनों, नई तकनीकों से बनता है.    

सेरोगेट मदर: खुशियों से भरे सूनी गोद

2 बच्चों की मां सुनीता सिंह एक बार फिर मां बनी है. हर बार की तरह इस बार नन्ही किलकारियां उस के आंगन में नहीं बल्कि किसी दूसरे के घर में गूंज रही हैं. दरअसल, सुनीता की गोद हरी तो हुई मगर किसी दूसरे के लिए.

दिल्ली, मुंबई, चेन्नई व हैदराबाद जैसे महानगरों के बाद सेरोगेट मदर का चलन राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में भी बढ़ता जा रहा है. वजह चाहे पैसे की भूख हो या फिर प्रतिकूल परिस्थितियां, महिला चिकित्सकों के पास हर वर्ष इस तरह के मामलों की संख्या बढ़ती जा रही है. दिल्ली से सटे गाजियाबाद की इंदिरापुरम, कौशांबी, वैशाली व वसुंधरा जैसी अनेक कालोनियों में ऐसी कई महिलाएं रह रही हैं. मल्टीस्टोरी बिल्ंिडगों में बसी प्राइवेट लाइफ इस नए रंग को भी सोसायटी में बिखेर रही है.

सोसायटियों के रैजीडैंट्स वैलफेयर एसोसिएशन के पदाधिकारियों की मानें तो हर वर्ष कई नए कपल (जोड़े) किराएदार या फ्लैट के मालिक बन कर रहते हैं. कई फ्लैट्स में महिलाएं गर्भावस्था के दौरान आती हैं और कुछ महीनों बाद वे फ्लैट या तो खाली हो जाते हैं या फिर उन में कोई और बस जाता है. ऐसे में कई बार संदेह भी होता है.

बढ़ता चलन

जानीमानी चिकित्सक डा. मधु कंसल का कहना है कि इन महिलाओं के केस उजागर तब होते हैं जब इन के अस्पताल के कागजों में मातापिता का अलग नाम होता है. सेरोगेट मदर्स अकसर दूसरे शहरों से आ कर अस्पताल व नर्सिंग होम में ऐडमिट होती हैं.

संतानसुख का सवाल होने के कारण पुरुष पारिवारिक महिलाओं की ही कोख किराए पर लेते हैं, क्योंकि कौल गर्ल्स के मुकाबले पारिवारिक और संतान वाली महिलाओं में एचआईवी एड्स, यौन रोग व गुप्त रोगों की संभावना कम होती है. पेशेवर महिलाओं के मुकाबले पारिवारिक महिलाएं गर्भावस्था को भी गंभीरता और सजगता से लेती हैं, जिस से होने वाले शिशु का स्वास्थ्य ठीक रहता है.

इंदिरापुरम निवासी महिला चिकित्सक डा. रेणु शर्मा बताती हैं कि यह चलन बदलती जीवनशैली की वजह से बढ़ रहा है. हाईप्रोफाइल माहौल में कार्यरत महिलाओं का खानपान व काम का गड़बड़ाता सिस्टम कई बार गर्भधारण के अनुकूल नहीं हो पाता. रात की पार्टियों में स्टेटस सिंबल बनाए रखने के लिए कई महिलाओं में शराब का सेवन भी बढ़ रहा है. यह सेवन बच्चेदानी को कमजोर कर देता है, जिस से गर्भपात की संभावना बनी रहती है.

वहीं, बढ़ती उम्र में शादी के बाद 2 से 3 वर्ष तक गर्भधारण न करने के लिए महिलाएं पिल्स का सेवन भी करती हैं. बिना चिकित्सकीय जांच के इन गोलियों का नियमित सेवन भी बच्चेदानी में इन्फैक्शन पैदा कर देता है. ऐसे में संतानसुख की तड़प उन्हें हर तरह का काम करवाने के लिए उकसाती है. पैसों का लालच सेरोगेट मदर्स को सरोगेसी के लिए मजबूर करता है.

आदर्श सेरोगेट मदर कौन?

क्या 40 वर्ष की उम्र के बाद सेरोगेट मदर बनना मां व बच्चे की सेहत को प्रभावित कर सकता है? इस सवाल का जवाब देते हुए संतान सफलता केंद्र, हैदराबाद की डा. पद्मजा कहती हैं, ‘‘आमतौर पर स्वस्थ सेरोगेसी की उम्र 24 से 34 वर्ष होती है. इस उम्र में सेरोगेसी से मां व बच्चे का स्वास्थ्य ठीक रहता है और स्वस्थ बच्चे का जन्म होता है. साथ ही गर्भावस्था के दौरान कोई समस्या नहीं आती.’’ वे आगे कहती हैं, ‘‘अगर कोई महिला चाहे तो 40 वर्ष की  आयु के बाद भी सेरोगेट मदर बन सकती है लेकिन अधिक उम्र में हाइपरटैंशन जैसी समस्या मां व गर्भ में पल रहे शिशु के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव डाल सकती है. सेरोगेसी के लिए मां का मानसिक तौर पर भी स्वस्थ होना बेहद जरूरी है ताकि वह सेरोगेसी की सारी प्रक्रियाओं से सहजता से गुजर सके और अपने गर्भावस्था के समय को पूरी तरह एंजौय कर सके.’’

औल इंडिया वुमेंस कौन्फ्रैंस की किरण सक्सेना का कहना है, ‘‘यह चलन समाज में पहले भी था, मगर इस का स्वरूप दूसरा था. पहले जेठानी, ननद व भाभी अपनी संतान को परिवार में ही निसंतान दंपती को दे देती थीं. इस से बच्चा रिश्तेदारी में ही रह जाता था और खानपान व विवाह आदि दोनों परिवारों द्वारा चलता था. मगर अब इस का स्वरूप अलग हो गया है. ऐसे में समाज पर बुरा असर पड़ रहा है.’’

रूपहले परदे पर भी फिल्ममेकर इस मामले को ला चुके हैं. फिल्म ‘चोरीचोरी चुपकेचुपके’ में प्रीति जिंटा भी सेरोगेट मदर का किरदार निभा चुकी हैं. हालांकि इस फिल्म को दर्शकों का प्यार नहीं मिला, मगर इस ने बदलते परिवेश को उकेरा है. इस फिल्म में भले ही सलमान खान व उस का परिवार प्रीति जिंटा को बहू का दरजा देने को तैयार हो जाते हैं, मगर असल जिंदगी में सूने हाथों पर सुहाग की चूडि़यां बमुश्किल ही सजती हैं.        

आदिवासी बच्चों का संवरता भविष्य

नन्हेमुन्नों की रंगबिरंगी पत्रिका चंपक के चंपक क्रिएटिव चाइल्ड कौंटैस्ट के जरिए इस बार हम पहुंचे एक ऐसे शिक्षण संस्थान में जहां संवर रही है आदिवासी बच्चों की जिंदगी. आदिवासी बच्चों को पढ़ेलिखे सभ्य समाज का हिस्सा बनाते इस संस्थान की पूरी कहानी पढि़ए इस रिपोर्ट में.

देशभर के स्कूलों के बच्चों के हुनर को राष्ट्रीय मंच दे रही दिल्ली प्रैस पत्रिका समूह की नन्हेमुन्नों की रंगबिरंगी पत्रिका ‘चंपक’ का ‘चंपक क्रिएटिव चाइल्ड कौंटैस्ट 2013-14’ का पहला राउंड शबाब पर है. बच्चे इस में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं. चंपक टीम उन के जज्बे को इनाम और खिताब से नवाज रही है.

बीते दिनों यानी जब बुलावे पर चंपक टीम आदिवासी बाहुल्य सूबे ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर के कलिंग इंस्टिट्यूट औफ सोशल साइंस यानी ‘किस’ पहुंची तो ‘किस’ के बारे में जान कर उसे न केवल हैरानी हुई बल्कि सुखद एहसास भी हुआ.

चंपक की इस प्रतियोगिता में तकरीबन 1 हजार आदिवासी बच्चों ने हिस्सा लिया. ये बच्चे ‘किस’ के छात्रावासों में ही रहते हैं. ये बच्चे ‘किस’ में हैं इसलिए अच्छी शिक्षा पा रहे हैं वरना आदिवासी बच्चों की बदहाली, पिछड़ापन और स्कूल से दूरी किसी सुबूत की मुहताज नहीं.

एकसाथ 1 हजार बच्चों ने जब ड्राइंगशीट पर रंगों के जरिए अपना हुनर उकेरना शुरू किया तो नजारा सचमुच देखने लायक था. आदिवासी बच्चे कुदरती तौर पर ड्राइंग बनाने में माहिर होते हैं लेकिन उन का तरीका अलग होता है. आदिवासी इलाकों में रह रहे विभिन्न जातियों के लोग चित्र बनाते हैं, यह हुनर उन की संस्कृति और रहनसहन का हिस्सा है. लेकिन इस प्रतियोगिता में बच्चों ने बजाय गांव, पेड़, जानवरों और देवीदेवताओं के चित्रों के रेलवे स्टेशन, राष्ट्रीय मुद्दे और पार्क वगैरह की बेहतरीन ड्राइंग्स बनाईं जो दरअसल उन के ‘किस’ तक पहुंचने और उस के बाद की जिंदगी की दास्तां बयां करती प्रतीत हो रही थीं.

जंगल से स्कूल तक का सफर

चंपक टीम ने जब ‘किस’ के बच्चों और अधिकारियों से बातचीत की तो एक सुखद हैरानी के पीछे छिपा आदिवासी समुदाय का कसैलापन भी उजागर हुआ. बात वाकई पहली बार में यकीन करने लायक नहीं कि 100 एकड़ से भी ज्यादा रकबे में फैले इस इंस्टिट्यूट में 20 हजार आदिवासी लड़केलड़कियां एकसाथ रहते, खाते, पीते और पढ़ते हैं और किसी दूसरे नामी स्कूल के बच्चों के अनुशासन और अदब को मात भी देते हैं.

फर्क सिर्फ इतना है कि पढ़ाई के साथसाथ उन्हें यहां यह सब भी सिखाया जाता है जबकि घरों में रह रहे बच्चों को बहुतकुछ विरासत में मिला होता है और मांबाप से वे सीखते हैं. ‘किस’ के एक अधिकारी मारुति प्रसाद नंदा ने पूछने पर बताया कि हम लोग दूरदराज के आदिवासी इलाकों में घूमघूम कर इन बच्चों को यहां ला कर तमीजदार इंसान बनाते हैं.

आदिवासी इलाकों में कम उम्र के बच्चे स्कूल नहीं जाते, लिहाजा वे तालीम से महरूम, पिछड़ेपन और बदहाली का हिस्सा ही बने रहते हैं. तरहतरह की बीमारियों, कुपोषण और अंधविश्वासों सहित शोषण में उन की जिंदगी गुजर जाती है. सरकारी योजनाओं का सच और अंजाम भी किसी सुबूत का मुहताज नहीं और न ही सभ्य पढ़ेलिखे समाज का नजरिया किसी से छिपा है. पर ‘किस’ में आ कर जिंदादिली से रह कर आदमी बन रहे इन बच्चों को देख लगता है कि हकीकत में जिसे इंसानियत, समाजसेवा और देशभक्ति कहा जाना चाहिए, वे सब चीजें यहां पूरी शिद्दत से हैं. गरीब और आदिवासी बच्चों के मांबाप को समझाबुझा कर ‘किस’ के मुलाजिम बच्चों को यहां लाते हैं और उन्हें सभ्य समाज में शामिल होने के गुर सिखाते हैं, ट्रेनिंग देते हैं.

चंपक प्रतियोगिता के लिए स्कूली यूनिफौर्म में बैठे ड्राइंग, पेंटिंग बना रहे ये बच्चे अगर यहां नहीं लाए गए होते तो कई सहूलियतों को न समझ पाते, न देख पाते. स्कूल के एक टीचर का कहना है कि शुरू में बच्चे हिचकिचाते हैं पर धीरेधीरे यहां के माहौल में रम जाते हैं. ‘किस’ के इंतजाम किसी बड़े इंस्टिट्यूट जैसे हैं. तयशुदा वक्त पर बच्चे उठते हैं, रोजमर्राई काम निबटाते हैं, पढ़ाई करते हैं, खेलते हैं. सभी बच्चों जैसे सपने उन के मन में भी पलते हैं.

5वीं कक्षा की एक छात्रा सुजाता की मानें तो जब वह अपने गांव में थी तो कुछ नहीं समझती थी. साबुन और टूथपेस्ट जैसी चीजें तो वहां देखने को भी नहीं मिलतीं. सुजाता पढ़लिख कर डाक्टर बनना चाहती है. उस का मकसद आदिवासियों का मुफ्त इलाज करना है.

सुजाता जैसे हजारों बच्चे अगर ‘किस’ में हैं तो इस का जिम्मा एक सुर में सारे लोग डा. अच्युत सामंत को देते हैं जिन की वजह से ‘किस’ दुनियाभर के शिक्षाविदों, समाजशास्त्रियों और अब पर्यटकों के भी आकर्षण का केंद्र बनता जा रहा है.

सभ्य व्यक्ति बनाना है मकसद

अच्युत सामंत बहुत छोटे थे जब उन के पिता का निधन हो गया था. गरीबी उन्होंने बहुत नजदीक से देखी, भुगती पर हारने के बजाय उस से लड़ने का फैसला लिया और लड़ कर वे जीते भी. अब से 20 साल पहले उन्होंने आदिवासी बच्चों के लिए अपने कुछ दोस्तों के साथ एक छोटा इंस्टिट्यूट खोला और तय किया कि इन बच्चों से कुछ नहीं लिया जाएगा. इंस्टिट्यूट चलाने के लिए खर्च का इंतजाम दूसरे खोले गए एक इंजीनियरिंग इंस्टिट्यूट की आमदनी से किया जाता है.

आदिवासी बच्चे ‘किस’ में आ कर पढ़ने लगे और तादाद बढ़ने लगी तो ‘किस’ भी बड़ा होता गया. कई होस्टल और इमारतें बनती गईं. इस बीच कई मुसीबतें आईं पर अच्युत सामंत ने हार नहीं मानी. इसे अपना इतना बड़ा मकसद बना लिया कि आज तक उन्होंने शादी नहीं की.

राजनीति को भ्रष्टाचार की दलदल मानने वाले इस शिक्षाविद और समाजसेवी का कहना है कि नक्सली अपनी बात गलत तरीके से कहते हैं. आदिवासियों की बदहाली और पिछड़ेपन को दूर करने का इकलौता तरीका उन्हें तालीम देना है, सभ्य आदमी बनाना है, जो न नक्सलवाद से मुमकिन है न ही सियासत से. क्योंकि उन की आदिवासी समुदाय में दिलचस्पी सियासी है, दिली या जज्बाती नहीं.

न केवल ओडिशा बल्कि छत्तीसगढ़, बिहार, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश और असम सहित कई प्रदेशों के आदिवासी बच्चे ‘किस’ में पढ़ कर अपनी जिंदगी संवार रहे हैं. अच्युत सामंत ने अब दिल्ली में भी अनाथ बच्चों के लिए आश्रम खोला है.

‘किस’ घूमने में चंपक टीम को पूरा दिन लग गया. यहां के अधिकारियों ओ एस राजारमन, विनापानी पांडा और मारुती प्रसाद नंदा ने दिल्ली प्रैस पत्रिका समूह का शुक्रिया किया कि उस की पत्रिकाएं समाज निर्माण में अपना रोल बखूबी निभा रही हैं.

आज हजारों बच्चे ‘किस’ में पढ़ कर कई अच्छी जगहों पर नौकरी कर रहे हैं. कुछ यहीं रुक कर ‘किस’ का हिस्सा बन जाते हैं. इन का मकसद अच्युत सामंत के मिशन में हाथ बंटाना है. ‘किस’ के बच्चों को यह जान कर हैरानी हुई कि चंपक देश की सभी प्रमुख भाषाओं में छपती है. चंपक टीम को विदा करते उन्होंने मांग की कि चंपक को उडि़या भाषा में भी छापा जाए.

सेहत के प्रति जागरूक हों महिलाएं: डा. शांति राय

उम्र की तमाम अड़चनों और पाबंदियों को परे रख डा. शांति राय गरीबों की पढ़ाईलिखाई से ले कर सेहत तक का खयाल रख न सिर्फ डाक्टरी पेशे को बखूबी निभा रही हैं बल्कि समाज के उस तबके को एक संदेश भी दे रही हैं जो पूरी तरह से उदासीन है. उन के जीवन के कुछ पहलुओं के बारे में आप भी जानिए.

पिछले 51 सालों से मरीजों की सेवा में जुटी पटना की मशहूर गाइनोकोलौजिस्ट डा. शांति राय की उम्र भले ही 72 साल की है पर उन में युवाओं से ज्यादा जोश है, उत्साह है. सुबह 9 बजे से ले कर काम करने का सिलसिला रात के 11-12 बजे तक चलता रहता है. बीच में समय निकाल कर वे अपने परिवार के साथ कुछ समय बिताती हैं.

गरीब बच्चों की पढ़ाईलिखाई के साथ गरीब औरतों की सेहत के लिए मैडिकल कौन्फ्रैंसों में भी हिस्सा लेती हैं. इतनी उम्र में और काम की व्यस्तता के बावजूद वे सामाजिक सेवा से जुड़े हर काम के लिए समय निकाल ही लेती हैं. वे बताती हैं कि उन्होंने कभी डाक्टर बनने के बारे में सोचा नहीं था. इस के पीछे काफी दिलचस्प कहानी है.

वे बताती हैं कि उन के छोटे चाचा उन से 1 क्लास आगे थे और उन की पढ़ी हुई पुरानी किताब ही उन्हें पढ़ने के लिए मिलती थीं. वे आर्ट्स लेना चाहती थीं पर उन के चाचा ने चूंकि साइंस पढ़ी थी और उन की सारी किताबें साइंस की थीं, इसलिए उन्हें भी मजबूरी में साइंस पढ़नी पड़ी. जब इंटर पास किया तो उन के दादा ने कहा कि मैडिकल में ऐंट्रैंस के लिए टैस्ट देने के लिए उन्हें उन के साथ पटना चलना है.

डा. राय बताती हैं कि मन मार कर उन्होंने टैस्ट दे दिया. मजेदार बात यह हुई कि जब रिजल्ट आया तो वे लड़कियों के ग्रुप में टौप कर गईं. वर्ष 1962 में एमबीबीएस करने के बाद से ले कर अब तक बगैर थके और रुके वे मरीजों की सेवा में लगी हुई हैं.

गजल सुनने और उपन्यास पढ़ने की शौकीन डा. शांति राय का मन यह देख कर अशांत हो जाता है कि आज काफी कम डाक्टर्स में सेवा और समर्पण की भावना नजर आती है. ज्यादातर डाक्टर मैडिकल के सिद्धांतों पर खरे नहीं उतर रहे हैं. सेवा के भाव पर बिजनैस हावी हो गया है. हर डाक्टर को यह समझना चाहिए कि डाक्टरी नोबेल प्रोफैशन है और कोई भी मरीज जिस उम्मीद और विश्वास के साथ उन के पास इलाज के लिए आता है उसे जरा भी दरकने नहीं दें.

उन का मानना है कि अगर मेहनत और ईमानदारी से कोई भी काम किया जाए तो पैसा खुद पीछेपीछे आएगा, इसलिए आज युवाओं को चाहिए कि आंखें मूंद कर पैसे के पीछे भागने के बजाय वे मन लगा कर काम करें.

वे बताती हैं कि एक बार उन के 1 मरीज के साथ यह दिक्कत थी कि उस का बच्चा 5-6 महीने के बाद पेट में ही मर जाता था. तीसरी बार जब वह गर्भवती हुई तो उसे पटना मैडिकल कालेज हौस्पिटल में भरती किया गया.

रात में 2 बजे उन्हें फोन आया कि मरीज की तबीयत काफी खराब हो गई है. उस समय ड्राइवर भी नहीं था, इसलिए हौस्पिटल से ही ऐंबुलैंस मंगवाई. ऐंबुलैंस के आने में काफी देर हुई तो वे रात में अकेले ही पैदल हौस्पिटल की ओर चल पड़ीं. काफी आगे जाने पर रास्ते में ऐंबुलैंस मिल गई. मरीज के लिए डाक्टरों में ऐसा ही जज्बा होना जरूरी है.

‘जब दीप जले आना, जब शाम ढले आना…’ गीत को अकसर गुनगुनाने वाली डा. शांति राय के चेहरे पर व्यस्तताओं और उम्र का असर जरा भी नहीं दिखता है. खुद को फिट रखने वाली डा. राय की सब से बड़ी चिंता यह है कि ज्यादातर औरतें अपनी सेहत के प्रति लापरवाह होती हैं.

महिलाओं को अपनी सेहत के प्रति सजग रहना चाहिए. औरतों को यह समझना चाहिए कि अगर उन की सेहत ठीक नहीं रहेगी और वे हमेशा बीमार रहेंगी तो उन का पूरा परिवार परेशान हो जाएगा. परिवार की जिम्मेदारियों के बोझ का हवाला दे कर औरतें समय पर नाश्ता और खाना नहीं खाती हैं, लेकिन वे यह नहीं समझती हैं कि समय पर खाना नहीं खाने, खाली पेट 4-5 कप चाय गटकने और पूजापाठ के नाम पर 1-2 बजे तक उपवास रखने से उन की सेहत पर काफी बुरा असर पड़ता है.

डा. राय महिलाओं को सेहत के प्रति जागरूक करने की मुहिम में लगी हुई हैं. वे बताती हैं कि महिलाओं में मोटापा सब से बड़ी बीमारी के रूप में बढ़ता जा रहा है. इस की वजह से औरतों में सेहत से जुड़ी दिक्कतें काफी बढ़ रही हैं. मोटापे की वजह से उन में समय पर माहवारी का न आना, मिसकैरेज हो जाना, बांझपन, गैस आदि समस्याओं से घिर जाती हैं.

समाज सेवा, परहित की भावना व अपने न भूलने वाले योगदान के कारण आज डा. शांति राय का जीवन समाज के लिए प्रेरणादायी है.

आओ बनाएं सास क्लब

बेटाबहू अपनेअपने काम के लिए निकल जाते हैं. बच्चे स्कूल से दोपहर तक ही लौटते हैं और फिर वे ट्यूशन पढ़ने चले जाते हैं. शाम को पोते की गिटार क्लास होती है और पोती पेंटिंग क्लास में चली जाती है. जिस दिन दोनों की क्लास नहीं होती, दोनों पढ़ते हैं या फ्रैंड्स के पास चले जाते हैं. माया का दिन देखा जाए तो एक तरह से खाली ही बीतता है.

माया के पति को गुजरे 5 साल हो गए हैं. घर का काम करने के लिए नौकर है, इसलिए रसोई में उन्हें जाना नहीं पड़ता है. उन की बड़ी इच्छा होती है कि बेटाबहू और बच्चे उन के पास बैठें, उन से बातें करें लेकिन उन की अपनीअपनी व्यस्तताएं हैं. इस बात को माया अच्छी तरह से समझती हैं और इसीलिए वे किसी तरह की शिकायत भी नहीं करतीं.

वे जब बोर होती हैं तो पासपड़ोस में चली जाती हैं, पर उन की उम्र की अन्य महिलाएं भी पूरी तरह खाली हों, ऐसा अनिवार्य तो नहीं, इसलिए 10-15 मिनट से ज्यादा देर कहीं बैठ भी नहीं पाती हैं. हालांकि उन की उम्र की हर महिला अपने खालीपन को कुछ अलग ढंग से भरने के लिए आतुर रहती हैं.

60 वर्ष की हो रही हैं माया. अपने को स्वस्थ रखने के लिए वे सैर पर जाती हैं और व्यायाम भी करती हैं. एक बार बेटे से जब दिनभर बोर होने की बात कही तो वह हंस कर बोला, ‘मां, किसी क्लब की मैंबर बन जाओ. पार्टियों में जाओगी तो चार फ्रैंड्स बनेंगे, हो सकता है कुछ काम करने का विचार ही बन जाए.’

माया को बेटे की बात सही लगी. अचानक उन के मन में विचार आया कि क्यों न एक सास क्लब बनाया जाए. आखिर उम्र के इस पड़ाव तक पहुंचने के बाद अनुभवों का जो विशाल भंडार उन जैसी महिलाओं के पास जमा हो जाता है, उसे बांट कर आने वाली पीढ़ी के साथसाथ एकदूसरे को भी लाभ पहुंच सकता है.

वे अगले दिन ही पासपड़ोस की महिलाओं से मिलीं और सास क्लब के बारे में बातचीत की. सब ने खुशीखुशी प्रस्ताव को मान लिया और फिर तो अगले ही दिन सास क्लब की नींव पड़ गई. उस की पहली मीटिंग माया के घर पर ही हुई. उन्होंने पहले ही तय कर लिया था कि यह क्लब आम किट्टी पार्टी की तरह केवल खाने और कमेटी उठाने पर ही केंद्रित नहीं होगा, वे और भी बहुत सारे उपयोगी कामों को इस क्लब का हिस्सा बनाएंगी.

निकालें दिल का गुबार

माया ने तो सास क्लब बना कर अपनी बोरियत को दूर कर लिया और उन की तरह की दूसरी सासों को भी इस से बहुत फायदा पहुंचा. अगर आप भी एक सास हैं और अकेलापन महसूस करती हैं या घर की किचकिच, ब?हू के झगड़ों से परेशान हैं तो अपने महल्ले में एक सास क्लब बना लें. निसंदेह आप क्लब में जा कर बहू की वजह से होने वाली परेशानियों को तो बांट ही सकती हैं, साथ ही अन्य महिलाओं से उस विषय में बात कर कुछ समाधान भी ढूंढ़ सकती हैं.

घर में तो आप ऐसी बातें किसी से कर नहीं सकती हैं, क्योंकि घर वाले सुनेंगे नहीं उलटे नाहक विवाद और बढ़ जाएगा. इसलिए सास क्लब में आप बेहिचक हो कर अपने दिल का गुबार निकाल सकती हैं. बहू की बुराई भी खुल कर कर सकती हैं. बात करने से मन हलका हो जाता है और जब आप क्लब से वापस घर पहुंचेंगी तो आप का सारा रोष खत्म हो चुका होगा.

इतना ही नहीं, उर्मिला को तो सास क्लब जौइन करने का फायदा यह हुआ कि बहू को ले कर जो उन्होंने गलत धारणा बना रखी थी, वह दूर हो गई. उन्होंने जब दूसरी सासों के दुख सुने तो उन्हें लगा कि उन की बहू तो बहुत अच्छी है. बस, जबान की तीखी है, वरना सेवा तो खूब करती है. अगर वे ही उसे थोड़ा और प्यार से हैंडल करें तो बहू उन का सम्मान करने लगेगी. एक सास जब बहू पुराण खोल कर बैठती है तो कितनी अनकही बातें भी सामने आ जाती हैं और तब दूसरी सासों के अनुभवों से समाधान भी चुटकियों में मिल जाता है. जब समाधान मिल जाएगा तो घर झगड़े का क्षेत्र बनेगा ही नहीं. सास भी खुश और बहू भी खुश. यानी उम्रदराज महिलाओं को व्यवहारकुशल बनने के लिए सास क्लब एक बेहतरीन औप्शन हो सकता है.

कुछ क्रिएटिव करें

सास क्लब में आ कर आप अपनी योग्यताओं के अनुसार कुछ कोर्स भी आरंभ कर सकती हैं. सिलाईबुनाई, विभिन्न तरह के व्यंजन बनाना सिखाने के अतिरिक्त हो सकता है आप कभी जो पेंटिंग करती रही हों, वह हुनर भी सिखाना शुरू कर सकती हैं. इस तरह से आमदनी का जरिया भी निकल आएगा और बेकार की बातें भी दिमाग को परेशान नहीं करेंगी. थोड़ी देर अगर सास घर से बाहर रहेगी तो बहू भी सुकून महसूस करेगी. सारा दिन सास घर में रहे तो बहू असहज महसूस करती है और सास को भी लगता है कि वह बंधन में जकड़ी हुई है.

सास घर से बाहर निकलती है तो अकेलेपन की पीड़ा से बच जाती है और दूसरों के साथ हंसीमजाक के बीच एक स्फूर्ति उस में आ जाती है. अनुराधा की ही बात लें. 65 वर्ष की आयु में उन्हें लगने लगा कि अब उन की किसी को जरूरत नहीं है. पति, बच्चे, बहू, बेटियां, सब अपनी तरह से जी रहे हैं. वे करें तो क्या करें. सारा दिन टीवी देख कर वे उकता जाती थीं. एक जमाने में वे क्लेपौट बनाया करती थीं. बस, जब बाकी महिलाओं ने उन का उत्साह बढ़ाया और कहा कि वे क्ले, रंग आदि लाने में उन की मदद करेंगी तो वे पौट बनाने में जुट गईं.

आज स्थिति यह है कि सास क्लब उन की पौट प्रदर्शनी लगाता है. उस से हुई आमदनी का आधा हिस्सा वे क्लब को और बेहतर बनाने के लिए देती हैं. अनुराधा इस बात से खुश हैं कि बहू को ले कर जिस तनाव में वे रहती थीं वह तो खत्म हुआ ही है, साथ ही कुछ कर पाने की उमंग ने उन के अंदर गजब की ऊर्जा भी भर दी है.

जिएं अपनी मरजी से

ऐसी कितनी ही सास होती हैं जिन की केवल बेटियां होती हैं, बेटा है तो वह दूर कहीं शहर में रहता है. ऐसे में उन के लिए वक्त काटना सब से बड़ी समस्या होती है. वे अगर इसी तरह एक सास क्लब बना लें तो वे जीवन की कमी को भर सकती हैं. जरूरी नहीं कि क्लब में केवल बहुओं की बुराइयां की जाएं या कुछ काम आरंभ कर लिया जाए, बल्कि आप घूमने भी जा सकती हैं. ऐसे कई क्लब आजकल खुले हुए हैं जो

केवल महिलाओं के लिए हैं और विभिन्न टूर आयोजित करते हैं. सास क्लब बना कर आप भी कुछ ऐसे ट्रिप अरेंज कर सकती हैं. यकीन मानिए, अपनी हमउम्र सहेलियों के साथ घरपरिवार की जिम्मेदारियों से कुछ समय के लिए मुक्त हो कर यों कहीं निकलने का मजा कुछ और ही होता है. नईनई जगहें देखने का अवसर आप को मिलता है और अपनी तरह से जीने की आजादी भी.

आप की उम्र हो गई है या अब आप सास, दादीनानी बन चुकी हैं तो इस का मतलब यह नहीं है कि आप जीना छोड़ दें. या बहुएं ही मान लें कि घूमनाफिरना अब सास को शोभा नहीं देता है. जीवन को सही और नए सिरे से जीने की कोई उम्र नहीं होती है. बस, जरूरत है एक पहल करने की. अपने घर को कुरुक्षेत्र बनाने से अच्छा है कि सास क्लब बना लें और नईनई बातें एक्सप्लोर करें.  

महिलाओं की इज्जत लूटते मुसलिम ढोंगी

मजहब कोई भी हो, चमत्कार और पाखंड की दुकान सजाए व ऐयाशी का लिबास पहने धर्मगुरु हर जगह मौजूद हैं. फिर चाहे वह कश्मीर का तथाकथित फकीर गुलजार बट ही क्यों न हो, जिस का मकसद धर्म की आड़ में औरतों के जिस्म से खेलना था. पढि़ए खुरशीद आलम की विश्लेषणात्मक रिपोर्ट.

बात चाहे बहुसंख्यक समाज की हो या मुसलिम समाज की, हर जगह आसाराम जैसे सामाजिक पथभ्रष्ट लोगों की कमी नहीं है. कहीं कोई चमत्कार की आड़ में अंधविश्वास को फैला रहा है तो कोई धर्म के लिबास में लोगों को गुमराह कर रहा है. मुसलिम समाज में भी बाबाओं की कमी नहीं है जो ढोंगी हैं और अंधविश्वास पैदा कर महिलाओं की इज्जत लूटते हैं. अपनी काली करतूतों के चलते जब तक वे कानून के शिकंजे में फंसते हैं उस वक्त तक बहुत सी मासूम कलियां उन की भेंट चढ़ चुकी होती हैं.

ऐसी ही एक घटना कश्मीर की है जहां पीर, फकीर के नाम पर ढोंग करने वाले गुलजार बट नामी व्यक्ति की गिरफ्तारी से यह सनसनीखेज खुलासा हुआ कि किस तरह यह व्यक्ति खुद को पीर कहलाता था और इस की आड़ में औरतों के जिस्म से खेलता था. औरतें उस की हरकत पर मौन रहती थीं क्योंकि उस ने किसी को कुछ भी बताने से मना कर दिया था. मई, 2013 में पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर श्रीनगर के सैंट्रल जेल भेज दिया जिस के बाद उस की रंगीली दास्तान सामने आने लगी.

गुलजार बट नामी व्यक्ति, जो स्वयं को सूफी के तौर पर पेश करता था, ‘देशी बुजुर्ग’ के नाम से मशहूर था. उस ने औरतों के लिए अपना एक हरम बना रखा था जिस में कम उम्र लड़कियां और महिलाएं थीं. देशी बुजुर्ग का कथन था कि वह शादी नहीं करेगा लेकिन रूहानी तौर पर वह 72 महिलाओं के साथ निकाह करेगा.

गुलजार बट नाम का यह व्यक्ति महिलाओं को अपना मुरीद बनाता था. औरतों को उन की मनोकामना पूरी करने का आश्वासन दे कर वह उन्हें अपने करीब लाता और उन से वादा लेता कि जो कुछ यहां देखा है उस का जिक्र वे किसी से नहीं करेंगी.

शाम को होता था घिनौना खेल

इस के बाद उन्हें हरम में दाखिल कर लिया जाता. हरम का तरीका यह था कि शाम होते ही उस के सारे मुरीद यहां जमा होते और लाइट बंद कर दी जाती. फिर शुरू होता घिनौना खेल और औरतों की इज्जत लूटी जाती. लेकिन औरतों का मुंह बंद रहता. नतीजतन, उस सूफी का मनोबल बढ़ता जा रहा था. इसी संदर्भ में उस ने लड़कियों को अपने हरम में रखने के वास्ते 2 महीने का विशेष कोर्स तैयार किया था ताकि जो लड़कियां इस कोर्स को करने के लिए तैयार हों वे वहीं रहें और रात की महफिल को गरम करें.

उस का कहना था कि जो जिस्म मेरे जिस्म से छू जाएगा अर्थात संभोग करेगा वह प्रलय यानी कयामत के दिन नरक में नहीं जलाया जाएगा. औरतों में शिक्षा की कमी और अंधविश्वास की परंपरा ने इस सूफी के घिनौने मिशन को चारचांद लगा दिए. औरतें उस का आदर और सम्मान करतीं, उस की मुरीद बन जातीं. यह सब धर्म के नाम पर हो रहा था.

यही नहीं, अपने कोर्स द्वारा वह अपने मुरीदों को प्रचलित नमाज के बजाय अपने द्वारा तैयार की गई नमाज पढ़ाता था. गिरफ्तार होने के बाद उस ने प्रचार किया कि जिस तरह ईश दूतों पर आरोप लगाए जाते हैं उसी तरह मुझ पर आरोप लगाए जा रहे हैं. उस ने कितनी महिलाओं की इज्जत लूटी, कोई सही विवरण अभी तक सामने नहीं आया. महिलाएं समाज के डर से अपना मुंह अभी भी नहीं खोल रही हैं.

सवाल यह है कि समाज से अंधविश्वास कब खत्म होगा? यदि महिलाएं अपनी इज्जत लुटाने के बाद भी इस सचाई को नहीं समझ पा रही हैं तो यह अत्यंत चिंता और दुख की बात है. थोड़ी सी सामाजिक चेतना के चलते इस तरह के ढोंगी बाबाओं से बचा जा सकता है लेकिन क्या हम इस के लिए तैयार हैं? समाज की अनदेखी के चलते ही इन बाबाओं की दुकानें चल रही हैं. जो पकड़े गए हैं उन की संख्या आज भी उन के मुकाबले कम है जो समाज में अंधविश्वास फैला रहे हैं. ये हर जगह मौजूद हैं और अंधविश्वास को बढ़ावा दे रहे हैं. समाज को इन ढोंगी बाबाओं के खिलाफ उठ खड़ा होना चाहिए ताकि अंधविश्वास को फैलने से रोकना संभव हो सके.   

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