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ये पति


एक बार मैं इन के साथ ऊनी कपड़े की एक दुकान पर पहुंची. मु?ो अपने लिए कुछ वुलेंस लेने थे. इन्होंने दुकानदार से कहा, ‘‘भाई साहब, ऊनी ब्लाउज दिखाइए लेडीज के लिए.’’ इतना सुनते ही आसपास खड़े सभी कस्टमर हंस पड़े. अपने शब्दों पर ध्यान देते हुए मेरे पति की हालत देखने लायक थी.
सुधा अग्रवाल, लखनऊ (उ.प्र.)

मेरी माताजी अस्पताल में भरती थीं. सभी रिश्तेदार उन्हें देखने आ रहे थे. मेरी बहन के पति भी कानपुर से आए हुए थे. अस्पताल से घर वापस आते समय हमारी चाचीजी, जो पहली बार लखनऊ आई थीं, जीजाजी के साथ स्कूटर पर बैठ गईं. रास्ते में पैट्रोल पंप पर जीजाजी ने स्कूटर रोक कर पैट्रोल भराया. वहीं उन के एक दोस्त मिल गए. दोनों बातें करतेकरते पास ही पान की दुकान में पान खाने लगे. चाचीजी थोड़ी दूर खड़ी इंतजार कर रही थीं.
पान खाने के बाद जीजाजी ने दोस्त से हाथ मिला कर विदा ली और स्कूटर स्टार्ट कर के चल दिए. चाचीजी ने सोचा शायद कुछ काम से कहीं गए हैं, अभी वापस आ जाएंगे. काफी इंतजार करने के बाद भी जब जीजाजी वापस नहीं आए तो चाचीजी परेशान हो गईं. न उन के पास मोबाइल था और न ही घर का पता. जाएं तो जाएं कहां? किस से पूछें?
गनीमत थी कि उन्हें अस्पताल का नाम याद था. बड़ी दिक्कत के साथ रिकशा कर के वे अस्पताल वापस पहुंचीं. वहां हमारे भाई आदि उन्हें मिले और घर ले आए. घर पहुंच कर चाची के साथ घटी घटना और जीजाजी के भुलक्कड़पन पर सब खूब हंसे. आज तक उस घटना को ले कर हम जीजाजी को छेड़ते हैं.
शिवकांती, लखनऊ (उ.प्र.)

मेरी सहेली बहुत मिलनसार, बातूनी व हंसमुख स्वभाव की है. वह जब भी बात करने लगती है तो उस को रोकना मुश्किल होता है. इस के विपरीत उस के पति बहुत शांत हैं. जब भी मेरी सहेली बोलने लगती है तो उस के पति ‘कंट्रोल कंट्रोल’ कह कर उसे चुप करा देते हैं.
एक दिन सहेली के पति का पेट खराब हो गया. उन्हें खिचड़ी इत्यादि सात्विक भोजन खाना पड़ा. अगले दिन उन्हें एक पार्टी में जाने का अवसर मिला. वहां हम पतिपत्नी को भी निमंत्रण था.
पार्टी में कई तरह के स्वादिष्ठ व्यंजन व चाट का प्रबंध था. खिचड़ी खा कर उकताए मेरी सहेली के पति ने प्लेट भर कर खाना लेना शुरू किया. मेरी सहेली ने धीरे से ‘कंट्रोल कंट्रोल’ कह कर उन को सचेत किया. हंसते हुए वे सहेली का मुंह देखने लगे.
सुनीता भटनागर, विजयवाड़ा (आं.प्र.)
 

बस यही है जिंदगी

बस यही है जिंदगी
सुबह अलसाई सी
दोपहर झुलसाई सी
शाम धुंधलाई सी
रात डबडबाई सी
बस यही है जिंदगी
बचपन ममता से रीते
युवा मन राहों से भटके
वृद्ध उपेक्षित से जीते
पेट भूखे ही सोते
बस यही है जिंदगी
गांव वीराने हुए
शहर बेगाने हुए
पनघट प्यासे हुए
घर मरघट हुए
बस यही है जिंदगी
आंगन नीम पेड़ सूखे
रक्त वेदना को सींचे
भीड़ में सब अकेले
मन में अश्कों के मेले
बस यही है जिंदगी
प्रीत तो पीर बन गई
गर्ज ही मीत बन गई
रिश्तों पर गर्द जम गई
अर्थ की पूछ बढ़ गई
बस यही है जिंदगी.
 विष्णु ‘बसंत’

परदे पर बेपरदा होमोसैक्स

समलैंगिक संबंधों का मसला विवादास्पद होने के साथसाथ देशभर की अदालतों में भी चर्चा का विषय रहा है. गौरतलब है कि जुलाई 2009 में दिल्ली हाईकोर्ट ने आईपीसी की धारा 377 में समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था लेकिन 11 दिसंबर, 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसलों को पलटते हुए समलैंगिक संबंधों को अपराध माना है. लेस्बियन, गे, बाई सैक्सुअल और ट्रांस जेंडर कम्युनिटी के लोगों के लिए यह बड़ा झटका है. लेकिन ग्लैमर जगत की कहानी जरा जुदा है. यहां इस तरह के संबंधों को ले कर फिल्मों से जुड़ी शख्सियतों और मौडलिंग जगत की हस्तियों की बेबाकी देखने वाली होती है.

यहां न सिर्फ इस तरह के संबंधों को बेपरदा किया जा रहा है बल्कि इस क्षेत्र से जुड़े लोग अपनी पहचान को सार्वजनिक करने से गुरेज भी नहीं करते नतीजतन गे-लेस्बियन रिश्ते वाले मीडिया के सामने खुल कर बोल रहे हैं, यहां तक कि वे अपनी नजदीकियों का खुलेआम प्रदर्शन कर रहे हैं. एक प्रमुख वैबसाइट पर लोड किए गए एक मौडल लड़की के साथ होंठों का चुंबन लेते हुए अपने एमएमएस क्लिप को ले कर अभिनेत्री किम शर्मा बेबाक लहजे में कहती हैं कि वे लेस्बियन हैं. किम कहती हैं कि एक होटल के स्विमिंग पूल में अपनी साथी मौडल के साथ मेरा गरमागरम चुंबन मुझे लड़कियों में चर्चित कर देगा.

यही नहीं, इस विषय को ले कर कलाकारों में खासी दिलचस्पी देखी जाती रही है. आइटम गर्ल यास्मीन खान और सुपर रैंप मौडल नताशा सिक्का ने भी समलैंगिक फोटो शूट करवाया. इसे फोटोग्राफर शान बनर्जी ने शूट किया.

लेस्बियन विषय पर अभिनेत्री सोनम कपूर के एक बयान ने भी सनसनी फैला दी थी. दरअसल, उन दिनों सोनम ‘मौसम’ फिल्म को ले कर इंटरव्यू दे रही थीं और उसी दौरान उन से पूछा गया कि वे किस अभिनेत्री के साथ लेस्बियन रोल करना चाहेंगी तो सोनम ने बिना कुछ सोचे बेबो का नाम ले लिया. उन के इस बयान के साथ मीडिया ने सनसनी फैला दी थी कि सोनम भी लेस्बियन बनना चाहती हैं.

छोटा परदा

बाल विवाह, कन्याभू्रण हत्या, घरेलू हिंसा और किसानों की आत्महत्याओं के बाद छोटे परदे पर भी होमोसैक्सुअलिटी अब एक न्यू ब्रांड मुद्दा है. स्टार चैनल के सीरियल ‘मर्यादा-लेकिन कब तक’ में लीड कैरेक्टर्स गौरव और करण के बीच समलैंगिक संबंध दिखाए गए थे. गे कैरेक्टर से मिले रिस्पौंस पर इस धारावाहिक से जुड़े गौरव यानी दक्ष अजीत सिंह कहते हैं कि इस धारावाहिक से मुझे अच्छा रिस्पौंस मिला है. यही नहीं, नैटवर्किंग साइट के जरिए मुझे 3 ऐसे लड़कों ने स्क्रैप किया, जिन के घरवालों ने यह शो देख कर उन की भावनाएं समझनी शुरू कर दी हैं.

बड़ा परदा

अभिनेता राहुल बोस ने फिल्म ‘आई एम’ में होमोसैक्सुअल का कैरेक्टर प्ले किया और वे इस मुद्दे पर स्पष्ट नजरिया रखते हुए कहते हैं, ‘‘समाज द्वारा होमोसैक्सुअलिटी को नैगेटिव लेना बुरी बात है. हम एक लोकतांत्रिक देश में रहते हैं जहां सभी को समान अधिकार प्राप्त हैं और सभी कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हैं. मुझे समझ नहीं आता कि लोग क्यों किसी दूसरे की निजी इच्छाओं को कुचलना चाहते हैं. सरकार को आईपीसी की धारा 377 जरूर देखनी चाहिए और वह समझे कि हर आदमी को फ्रीडम चाहिए. होमोसैक्सुअल भी हमारी तरह नौर्मल लोग हैं.’’

मुंबई की एक गे पार्टी से जब पुलिस ने बौबी डार्लिंग समेत कई युवाओं को धरा, तो उस का बौलीवुड में विरोध किया गया. विरोध इस बात को ले कर था कि गे समुदाय को भी तो इंजौय करने का हक है. आखिर पुलिस ने उन्हें क्यों पकड़ा, जबकि वे सभी कोई गैरकानूनी काम नहीं कर रहे थे. यही बात तो राहुल बोस ने कही है कि फ्रीडम सभी को मिलनी चाहिए, चाहे वे नौर्मल लोग हों या गे-लेस्बियन.

परदे पर फैलते होमोसैक्स को देह दिखाने की मानसिकता कहें या बिकने की रणनीति, फिल्म मेकर्स ऐसे विषयों को उठाने लगे हैं जिन पर बवाल उठने की संभावना हो. स्त्रीदेह दिखाना अब साहस का काम नहीं, लगभग हर फिल्म में नायिका एक्सपोज हो रही है. स्क्रीन पर ऐसे संबंधों को दर्शाना साहस का काम है जिन्हें समाज खुलेआम स्वीकृति नहीं देता.

लेकिन अब लोग ऐसे संबंधों के बारे में बोलनासुनना ही नहीं उन से संबंधित दृश्यों को देखना भी पसंद कर रहे हैं. ‘दोस्ताना’ जैसी फिल्में भी हिट हो रही हैं. फिल्म ‘शैतान’ में जहां अनुराग कश्यप की पत्नी कल्कि कोचलिन और कीर्ति कुलहारी के बीच चुंबन सीन हैं, वहीं फिल्म के लीड ऐक्टर शिव पंडित का परदे पर पहला चुंबन किसी लड़की के साथ न हो कर अपने मेल कोस्टार नील भूपलम के साथ था. कुछ समय पहले तक हिंदी फिल्मों के अधिकांश कलाकार समलैंगिक किरदार निभाने से बचते रहे हैं. मधुर भंडारकर को फिल्म ‘फैशन’ के लिए समलैंगिक किरदारों की जरूरत थी लेकिन ऐसे रोल करने के लिए कोई तैयार न था. बड़ी मुश्किल से हर्ष छाया और समीर सोनी इस के लिए तैयार हुए. इस बारे में मधुर कहते हैं कि कलाकारों को लगता है कि ऐसे रोल करने से उन की इमेज खराब हो जाएगी. कुछ ऐसी ही कठिनाई फिल्म ‘माई ब्रदर निखिल’ के निर्देशक ओनिर को भी उठानी पड़ी. वे तो कहते हैं कि जिस कलाकार को भी मैं ने फिल्म की कहानी और उस का रोल सुनाया, उस ने करने में हिचक दिखाई. हां, फिल्म ‘आई एम’ में समलैंगिक किरदार निभाने के लिए राहुल बोस ने ‘हां’ कहने में देर नहीं लगाई.

ऐसा भी नहीं है कि सभी कलाकार समलैंगिक किरदार निभाने से डरते हों. अभिनेता जौन अब्राहम कहते हैं कि उन्हें फिल्म ‘दोस्ताना-2’ में भी लिया जाए. वे तो यहां तक कहते हैं, ‘‘जब मेरा शरीर सुंदर है तो इसे क्यों न दिखाऊं. आखिर दिखाने के लिए ही तो मैं ने बौडी पर इतनी मेहनत की है.’’

अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा कहती हैं कि वे लेस्बियन किरदार निभाने के लिए तैयार हैं बशर्ते उस की भूमिका जोरदार होनी चाहिए. वे आगे कहती हैं कि रोल के साथसाथ अगर पूरा सेटअप अच्छा है तो मैं ऐसा कैरेक्टर जरूर करूंगी.

जौन अब्राहम और प्रियंका को तो दोस्ताना के प्रदर्शन के बाद समलैंगिक व्यक्तियों के औफर आने लगे थे. प्रियंका कहती हैं कि एक औरत ने मुझे छू कर कहा था कि क्या मेरे साथ डेट पर चल सकती हो पर मैं ने हंसते हुए इनकार कर दिया.

अभिनेत्री सेलीना जेटली तो रील ही नहीं, रीयल लाइफ में भी समलैंगिकों के पक्ष में आवाज बुलंद करती नजर आती हैं. वे समलैंगिकों की परेड में भी शामिल होती रही हैं. सेलिना कहती हैं, ‘‘मैं बचपन से ऐसे लोगों को जानती हूं. किसी भी इंसान में जैनेटिकली यह होता है जिस पर हम कुछ नहीं कह सकते. लेकिन सरकार अब इस मामले में जागती नजर आ रही है.’’

फिल्म ‘दोस्ताना’ में समलैंगिक होने का किरदार निभाने वाले अभिषेक बच्चन का कहना है कि उन्हें फिल्म में गे किरदार निभाने से खुशी हुई और गर्व भी. वे कहते हैं, ‘‘समलैंगिकता अब फैशन का रूप लेती जा रही है. मेरा तो मानना है कि समलैंगिकता आपसी तालमेल से ही बनती है और ऐसे लोग अपने समुदाय में खुश भी रहते हैं इसलिए इस विषय पर कमैंट करने का हमें कोई हक नहीं है. जिस तरीके से आज समलैंगिकों की तादाद बढ़ रही है, उस से तो यही लगता है कि समलैंगिकता कई लोगों की जरूरत बन गई है.’’

निर्देशिका मीरा नायर कहती हैं, ‘‘सचाई सामने आए, इस में हर्ज ही क्या है. हम ने कुछ गलत तो नहीं दिखाया.’’

दीपा मेहता ने लेस्बियन रिलेशनशिप पर फिल्म ‘फायर’ बनाई जिस का शुरू में तो विरोध हुआ पर फिल्म की सफलता से साबित हो गया कि दीपा ने कुछ गलत नहीं दिखाया. विरोध से मिली पब्लिसिटी दीपा की फिल्म के लिए कारगर ही साबित हुई.

दीपा मेहता की फिल्म ‘फायर’ पहली हिंदी फिल्म नहीं थी जिस में लेस्बियन रिलेशनशिप को दिखाया गया हो. इस से पहले 1981 में आई जब्बार पटेल की फिल्म ‘सुबह’ में भी 2 महिलाओं के बीच लेस्बियन संबंध दिखाए गए थे. इस फिल्म में स्मिता पाटिल थीं. रमेश सिप्पी की फिल्म ‘शोले’ में भी जेल के भीतर बंद कैदियों के बीच कुछ ऐसे हावभाव दिखाए गए जो उन के समलिंगी होने की पुष्टि करते हैं पर दर्शकों ने उन दृश्यों पर ज्यादा गौर नहीं किया. पिछले कुछ अरसे में प्रदर्शित फिल्मों पर नजर डालें तो पाएंगे कि स्थापित और प्रतिष्ठित निर्देशक भी फिल्मों में समलैंगिकता को सहज रूप से प्रस्तुत करने लगे हैं. हालांकि यह नहीं कहा जा सकता कि फिल्ममेकर्स का मकसद समलैंगिकता को प्रोत्साहित करना है.

समलैंगिकता अब बौलीवुड के लिए बुरा विषय नहीं रहा. फिल्म ‘कल हो ना हो’ में शाहरुख खान व सैफ अली खान के हावभाव ऐसे दिखाए गए मानो वे समलैंगिक हों. फिल्म में सुलभा आर्य अभिनेता शाहरुख व सैफ को समलिंगी समझती हैं. उन्हें लगता है कि दोनों पुरुष आपस में यौन संबंध बनाते हैं. इसी तरह जब सैफ व प्रीति जिंटा का सगाई समारोह होता है तो उस की साजसज्जा के लिए आने वाला युवक समलिंगी होता है.

अर्जुन सबलोक की फिल्म ‘न तुम जानो न हम’ में ऐसी स्थितियां उत्पन्न की गई हैं जिन से दर्शकों को लगता है कि रितिक रोशन और सैफ अली खान के बीच समलैंगिक संबंध हैं. फिल्म ‘कुछ न कहो’ और ‘आउट औफ कंट्रोल’ में भी समलैंगिकता को चित्रित किया गया. ‘प्यार किया तो डरना क्या’ में समलैंगिकता चुपके से घुस आई लेकिन इस की कथावस्तु उपहास का विषय रही. रितुपर्णों घोष फिल्म ‘मैरिज इन मार्च’ में गे बने थे. इस से पहले फिल्म ‘जस्ट अंडर लव स्टोरी’ में भी उन्होंने ऐसा किरदार निभाया था.

फिल्म ‘घाव’, ‘मैंगो सौफल’ और ‘संवेदना’ में समलैंगिक संबंधों का खुल कर चित्रण किया गया है. महेश दत्ताणी की फिल्म ‘मैंगो सौफल’ में अंकुर विकल और डोडो भुजवाला स्विमिंग पूल में निर्वस्त्र नहाते हैं. कई दृश्यों में उन का परस्पर यौन झुकाव और संबंधों के नाजुक पहलू भी सामने आते हैं. ‘घाव’ में महिला समलिंगी जेलर मीता वसिष्ठ सजायाफ्ता सीमा विश्वास से शारीरिक छेड़छाड़ करती है. इन फिल्मों में समलैंगिक संबंधों के अंतर्द्वंद्वों का यथार्थवादी चित्रण हुआ है.

निर्देशक श्रीधर रंगायन की समलिंगी संबंधों पर आधारित फिल्म ‘गुलाबी आईना’ 2 पुरुषों, बिब्बो और शिब्बो की कहानी है जिन के आपस में प्रेम संबंध हैं. इस फिल्म में समलिंगी संबंध रखने वालों के बीच प्यार, जलन, लड़ाई, झगड़े, आंसू और हंसी के दृश्यों को उन के असली रूप में दर्शकों के सामने लाने की कोशिश की गई.

होमोसैक्सुअल रिलेशंस पर आधारित फिल्म ‘औरोविल-316’ के निर्माता शमिन देसाई कहते हैं, ‘‘सजावटी सिनेमा की खुराक पर पले लोगों को परदे पर पूरी तरह समलैंगिकता देखने के लिए अभी वक्त लगेगा लेकिन आखिरकार ये फिल्में समाज में स्वीकृति तो पाएंगी ही क्योंकि सचाई देरसवेर स्वीकार करनी पड़ती है.’’

विरोध

होमोसैक्सुअल फिल्मों का विरोध करने वालों के अपने तर्क हैं. आलोचक कहते हैं कि समलैंगिक फिल्मों का विरोध क्यों न किया जाए. आखिर क्रिएटिविटी की भी तो एक मर्यादा होती है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर आप कुछ भी कैसे दिखा सकते हैं. अप्राकृतिक सैक्स संबंध को भारतीय कानून में अपराध की श्रेणी में रखा गया है. समलैंगिकता भी तो अप्राकृतिक ही है, इसलिए सैंसर बोर्ड को ऐसी फिल्में पास नहीं करनी चाहिए. लेकिन फिल्ममेकर्स भी चालाकी से काम ले रहे हैं. वे सीधे तौर पर समलैंगिकता को आधार भले ही न बनाएं पर इस विषय को स्क्रिप्ट के साथ कहीं न कहीं जोड़ने की कोशिश जरूर कर रहे हैं. फिल्म ‘स्ट्रेट’ को ही लें, जिस की कहानी में समलैंगिकता के सदाबहार मुद्दे को बड़ी ही खूबसूरती के साथ पेश किया गया है. फिल्ममेकर्स समझ गए हैं कि समलैंगिकता ने पश्चिमी देशों से निकल कर भारत में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवा ली है इसलिए वे ऐसी फिल्में बना रहे हैं ताकि इस वर्ग को थिएटर तक खींचा जा सके.

बौलीवुड में गे संबंधों को किसी न किसी रूप में परदे पर दिखाने का फैशन ही चल निकला है. दिव्या दत्ता ने फिल्म ‘मोनिका’ में किट्टू गिडवानी के साथ बेहद उत्तेजनात्मक लेस्बियन सीन्स दिए हैं. दिव्या कहती हैं कि शुरुआत में किट्टू के साथ लेस्बियन संबंध दिखाते समय हम दोनों ही असहज महसूस कर रही थीं लेकिन हमें निर्देशक पर पूरा भरोसा था. फिर भारतीय सिनेमा अब परिपक्व हो रहा है और दर्शक भी यथार्थ देखने की इच्छा रखते हैं. संजय गुप्ता के बैनर तले बन रही फिल्म ‘पंख’ में अभिनेता मैराडोना रिबेलो ने एक नग्न दृश्य दे कर सभी को चौंका दिया. फिल्म में रिबेलो और कोस्टार अमित पुरोहित के बीच नशे की हालत में 10 सैकंड का एक लंबा चुंबन दृश्य भी फिल्माया गया है.

मीरा नायर की शौर्ट फिल्म ‘द माइगे्रशन’ में इरफान खान ने एक समलिंगी का किरदार निभाया है. इरफान कहते हैं कि मीरा ने पहले मुझे एक किसान का किरदार निभाने को कहा था लेकिन वह मुझे चुनौतीपूर्ण नहीं लगा इसलिए मना कर दिया. फिल्म ‘वाटर’ में नजर आई लिसा रे ने फिल्म ‘आय कैन नौट थिंक स्ट्रेट’ में अपनी कोस्टार शीतल सेठ के साथ एक न्यूड लव मेकिंग सीन किया है.

दिलचस्प बात यह है कि अन्य अभिनेत्रियों के विपरीत लीसा ने यह सीन बिना किसी बौडी डबल के किया ताकि उस में विश्वसनीयता आ सके. एक फिल्मी चैनल ने तो एक स्पूफ यानी व्यंग्य ही बना डाला जिस में रणबीर कपूर की गे समुदाय में लोकप्रियता को देखते हुए उन के किरदार को गे दिखाया गया है. रणबीर का रोल हर्ष वसिष्ठ ने किया तो दूसरे गे किरदार में सुनील ग्रोवर नजर आए. कोंकणा सेन शर्मा ने भी फिल्म ‘द प्रैसीडैंट इज कमिंग’ में एक लेस्बियन का किरदार निभाया है.

भले ही देश की सर्वोच्च अदालत ने समलैंगिक संबंधों को अपराध घोषित कर दिया है लेकिन बौलीवुड के लिए यह सैलेबल इश्यू हो गया है और फिल्ममेकर्स को लगने लगा है कि परदे पर ऐसे किरदारों को लाने से उन की फिल्मों को मुफ्त की पब्लिसिटी मिलेगी, जो नाम के साथसाथ दाम भी दिलाएगी.    

स्वास्थ्य सेवाओं का भविष्य

स्वास्थ्य की दुनिया में विज्ञान और तकनीक के संगम से अनोखे प्रयोग किए जा रहे हैं. इन प्रयोगों के तहत मैडिकल साइंस इंसानी जिस्म के कई महत्त्वपूर्ण अंगों को तैयार करने में जुटी है. मानव शरीर में कृत्रिम अंगों के प्रत्यारोपण से ले कर कई दुरूह बीमारियों के आसान इलाज तक के क्रांतिकारी बदलावों पर रोशनी डाल रहे हैं जितेंद्र कुमार मित्तल.

नए साल के साथ ही 21वीं सदी के दूसरे दशक ने हमारे दरवाजे पर दस्तक दे दी है और इस के साथ ही शुरू हो गया है विज्ञान की नई व चमत्कारिक संभावनाओं का नया दौर, जो शायद हमारे जीवन को पूरी तरह बदल देने की क्षमता रखता है. जो चीजें

अभी तक वैज्ञानिक उपन्यासकारों की कल्पनाशक्ति का अंग बनी हुई थीं, उन में से कई इस सदी के दूसरे दशक में उपन्यास के पन्नों से निकल कर न केवल वास्तविकता बनने के कगार पर हैं बल्कि उन से हमारा जीवन भी बहुत सुलभ हो जाएगा. इन संभावनाओं में सब से ज्यादा चौंका देने वाली संभावनाएं स्वास्थ्य के क्षेत्र से संबंध रखती हैं.

वह समय दूर नहीं है जब शरीर के अवयव यानी अंग बड़े पैमाने पर प्रयोगशाला में बनाए जाने लगेंगे. आप को यह जान कर आश्चर्य होगा कि वैज्ञानिक काफी समय से इस दिशा में काम कर रहे हैं और वे हृदय, रक्तवाहिनी शिराएं, शरीर की त्वचा, हड्डियां व उपस्थि यानी कार्टिलेज जैसी चीजें प्रयोगशाला में बनाने में काफी हद तक सफल रहे हैं. अब तक के वैज्ञानिक प्रयोगों की सफलता को देखते हुए यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि वह दिन दूर नहीं है जब हमारे शरीर के सभी अवयव प्रयोगशालाओं में बनने लगेंगे.

यहां पर हम भारतीय मूल के अमेरिकी वैज्ञानिक शुवो राय का जिक्र करना चाहेंगे, जो नैनो तकनीक का इस्तेमाल कर के अपनी प्रयोगशाला में कृत्रिम गुर्दे यानी किडनी जैसे एक महत्त्वपूर्ण अवयव को बनाने में सफल रहे हैं. अभी तक संसार के लाखों लोगों को गुर्दे के प्रत्यारोपण के लिए किसी ऐसे दानकर्ता का बरसों इंतजार करना पड़ता है जिस के गुर्दे को उन का शरीर स्वीकार कर ले.

कृत्रिम गुर्दे के साथ ऐसी कोई बात नहीं है. उसे हरेक व्यक्ति के शरीर में बिना किसी झिझक या समस्या के प्रत्यारोपित किया जा सकेगा.

गौरतलब है कि हर साल लगभग डेढ़ लाख लोगों के गुर्दे काम करना बंद कर देते हैं और उन्हें जीवित रहने के लिए इस के प्रत्यारोपण की जरूरत पड़ती है. उन डेढ़ लाख लोगों में से बमुश्किल कुल साढ़े

3 हजार लोगों को ही किसी दूसरे व्यक्ति का गुर्दा मिल पाता है और बाकी लोगों को किसी उचित दानकर्ता की बाट जोहते रहना पड़ता है. शुवो राय के प्रयोगों की सफलता के बाद अब इन लोगों के इंतजार की घडि़यां समाप्त हो गई हैं और बहुत जल्दी ही कृत्रिम गुर्दा बाजार में मिलना शुरू हो जाएगा. यह बात दूसरी है कि शुरूशुरू में इस की उन्हें एक बड़ी कीमत चुकानी पड़े.

नई परीक्षण विधियां

स्वास्थ्य के क्षेत्र में दूसरी सब से बड़ी सफलता है एक ऐसी परीक्षण विधि की खोज जिस के जरिए सिर्फ 100 मिनट में तपेदिक (टीबी) के रोग का पता लगाया जा सकेगा. अभी तक तपेदिक का पता लगाने के लिए सूक्ष्मदर्शी यंत्र यानी माइक्रोस्कोप के जरिए रोगी के थूक के परीक्षण वाली सदियों पुरानी विधि अपनाई जाती रही है. इस नई आधिकारिक परीक्षण विधि के विकसित हो जाने के बाद लाखों रोगी राहत की सांस ले सकेंगे. तपेदिक के कारण 15 से 45 वर्ष की आयु वाले 5 लाख रोगियों की हर साल मौत हो जाती है. इस का मतलब यह हुआ कि हर रोज 1 हजार से भी ज्यादा रोगी यानी प्रति मिनट 1 रोगी तपेदिक की भेंट चढ़ जाता है. इस नई परीक्षण विधि की खोज से इन रोगियों के रोग का प्रारंभिक स्टेज में ही पता लगा कर उन्हें बचाया जा सकेगा.

बौडी स्कैनर मिरर

ऐसे बाथरूम तैयार करने में भी काफी हद तक सफलता मिल चुकी है कि जिस का शीशा आप के शरीर का स्कैन कर के आप को यह बता सकेगा कि आप के शरीर में कोई रोग पैदा होने का खतरा तो नहीं पनप रहा है. इस से आप को यह पता चल सकेगा कि कहीं आप की शूगर या कोलैस्ट्रौल तो नहीं बढ़ गया है. इस से उन प्रोटीन का भी पता लगाया जा सकेगा जो शरीर में कैंसर जैसे गंभीर रोगों को जन्म देते हैं.

जापान इस दृष्टि से सारी दुनिया से बहुत आगे निकल गया है. वहां ऐसे आधुनिक तकनीक वाले बाथरूम केवल कल्पना की चीज नहीं रहे, बल्कि वहां वे आप को देखने को भी मिल जाएंगे. सारी दुनिया में इस तकनीक में अग्रणी मानी जाने वाली मशहूर कंपनी टोटो ने ऐसे वैज्ञानिक उपकरणों से लैस बाथरूम बनाने शुरू भी कर दिए हैं. ये बाथरूम आवासीय मकान बनाने वाली कंपनी दैवा हाउसिंग की नई इमारतों में वृद्धों की जरूरतों को ध्यान में रख कर बनाए गए हैं. इन में जब आप प्रवेश करते हैं तो आप के पेशाब, रक्तचाप यानी ब्लडप्रैशर, शरीर के तापमान व वजन आदि का परीक्षण स्वचालित उपकरणों के माध्यम से हो जाता है.

बेजान रेटीना में जान

नेत्रहीनों को देख पाने की क्षमता देने से संबंधित वैज्ञानिकों ने एक ऐसी तकनीक खोज निकाली है जिस के अंतर्गत नेत्रहीनों की बेजान रेटीना में एक नई जान डाली जा सकेगी. नेत्रहीनों की आंखों में औपरेशन के जरिए एक ऐसा टैलिस्कोप प्रत्यारोपित किया जा सकेगा जिस से उन्हें फिर से दिखाई देने लगेगा.

एक आंकड़े के मुताबिक हमारे देश में 1 करोड़ 50 लाख से भी ज्यादा नेत्रहीन लोग हैं और 5 करोड़ 20 लाख से भी अधिक लोगों ने किसी न किसी रोग के कारण अपनी ज्योति खो दी है. इस नई खोज से इन करोड़ों लोगों के जीवन में आशा और उत्साह का नया सवेरा आ जाएगा.

इसी क्षेत्र में एक ऐसी भी खोज चल रही है जिस के सफल होने के बाद आप के चश्मों व कौंटैक्ट लैंस में ऐसे चिप लगाए जा सकेंगे जो आप को इंटरनैट से तुरंत जोड़ देंगे. इस का लाभ यह होगा कि अगर आप किसी स्टोर में कुछ खरीदारी कर रहे हैं तो आप अपना चश्मा लगाते ही इंटरनैट पर यह पता लगा सकते हैं कि उस स्टोर की कीमतें सही हैं या नहीं.

इतना ही नहीं, वैज्ञानिक ऐसा वालपेपर ईजाद करने में भी जुटे हुए हैं जिस पर आप दुनिया में कहीं भी अपनी मनपसंद फिल्म देख सकेंगे या फिर कोई कंप्यूटर गेम खेल सकेंगे.

कैंसर के टीके की खोज

कैंसर जैसी गंभीर बीमारी पर काबू पाने के लिए भी वैज्ञानिक लगातार कोशिशें कर रहे हैं और कई मामलों में स्टेम सेल के माध्यम से इस रोग का सफल उपचार भी किया जा सका है. बहुत जल्दी ही एक ऐसे टीके यानी वैक्सीन के भी बाजार में आने की संभावना है, जिस का इस्तेमाल फेफड़े, त्वचा व वक्ष कैंसर के इलाज के लिए किया जा सकेगा. पुरस्थ ग्रंथि यानी प्रोस्टेट कैंसर के इलाज के लिए तो कुछ विशेष रोगियों के लिए प्रोवेंज नामक कैंसर वैक्सीन का पहले ही इस्तेमाल किया जा चुका है. इस वैक्सीन से रोगी की कैंसर से लड़ने की क्षमता इस कदर बढ़ा दी जाती है कि कैंसर के दोषयुक्त कोष नष्ट हो जाते हैं.

वैज्ञानिकों को विज्ञान खासतौर से स्वास्थ्य के क्षेत्र में लगातार मिल रही कामयाबियों के मद्देनजर यह उम्मीद उभरी है कि निकट भविष्य में इंसानी जिस्म के कई महत्त्वपूर्ण अंगों को तैयार कर लिया जाएगा और ये कृत्रिम अंग तकनीक के जरिए जिस्म में सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित किए जा सकेंगे.

सैक्स पर पहरा क्यों?

उम्र का कोई भी पड़ाव हो, हर अवस्था में इंसान को साथी की व प्यार की जरूरत होती है. फिर क्यों किसी पार्क या मौल में किसी बुजुर्ग दंपती को जब हाथ में हाथ डाले घूमते देखा जाता है तो उसे शर्मनाक माना जाता है? क्यों उन का मजाक बनाया जाता है? क्या प्यार व साथी की जरूरत सिर्फ युवाओं को होती है? बुजुर्ग होने का अर्थ क्या प्यार व साथी से भी रिटायरमैंट होता है?

इन सब सवालों का एक जवाब है, नहीं, बिलकुल नहीं. तो फिर 60 वर्ष से अधिक उम्र का कोई जोड़ा अकेले वक्त बिताना चाहता है तो क्यों समाज, उस के अपने बच्चे उन्हें गलत ठहराने लगते हैं?

बौलीवुड की फिल्म ‘बागबान’ की कहानी भी एक ऐसे ही बुजुर्ग दंपती के इर्दगिर्द घूमती है जिस में पतिपत्नी को उन के ही बच्चों के कारण उम्र के उस पड़ाव पर एकदूसरे से अलगाव व जुदाई का दर्द सहना पड़ता है जब उन्हें एकदूसरे के प्यार व अपनेपन की सब से अधिक जरूरत होती है. फिल्म के एक दृश्य में जब अमिताभ बच्चन अपनी पत्नी हेमा मालिनी से अलग न होने की बात कहते हैं तो उन के फिल्मी बच्चे उन का उपहास बनाते हैं कि मौमडैड को इस उम्र में प्यार सूझ रहा है.

यह कहानी उम्र के आखिरी पड़ाव पर पहुंच चुके उन सभी दंपतियों के अलगाव व जुदाई के दर्द को दर्शाती है जो ऐसे दौर से गुजर रहे हैं. अलगाव व जुदाई का यह दर्द शारीरिक व मानसिक दोनों जरूरतों पर प्रभाव डालता है.

दरअसल, भारतीय समाज में 60 के पार जीवन में स्थायित्व आने लगता है, जिम्मेदारियां कम होने लगती हैं, कैरियर व आर्थिक स्थिति बेहतर होती है. बच्चों की जिम्मेदारियों से मुक्त बुजुर्गों को आजादी व जिंदगी में सुकून का एहसास देती है और यही आजादी बुजुर्ग जोड़ों को एकदूसरे के प्रति सैक्स संबंधों की ओर खूब आकर्षित करती है. बुजुर्ग दंपतियों के ऐसे खुशनुमा दौर पर परिवार, समाज व परंपराओं के बंधन पानी फेर देते हैं.

सामाजिक सोच और ढांचा

हिंदू समाज का संगठन 2 संस्थाओं, वर्ण व आश्रम व्यवस्था के आधार पर हुआ है. व्यक्ति को उन्हीं के मुताबिक अपने कर्तव्यों का निर्वाह करना होता है. हिंदू धर्म के अनुसार किसी भी मानव की 4 अवस्थाएं, बाल्य व किशोरावस्था, यौवनावस्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था होती हैं. इन्हीं अवस्थाओं के अनुसार पूरे जीवन को 25-25 वर्ष के आधार पर 4 आश्रमों में बांट दिया गया है. इन आश्रमों का संबंध विकास कर्म के साथसाथ जीवन के मौलिक उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष से था.

ब्रह्मचर्य का संबंध धर्म अर्थात संयम व नियम से था, गार्हस्थ्य का संबंध अर्थ व काम से, वानप्रस्थ का उपराम व मोक्ष की तैयारी से व संन्यास संबंध का मोक्ष से. यानी जीवन के आखिरी पड़ाव यानी वानप्रस्थ आश्रम में सांसारिक कार्य से उदासीन हो कर तप, स्वाध्याय, यज्ञ, दान आदि के द्वारा वन में जीवन बिताना चाहिए. और संन्यास आश्रम में सांसारिक संबंधों का पूरी तरह से त्याग कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहना चाहिए.

सामाजिक तानाबाना

दरअसल, यह व्यवस्था और इस की सोच ही सामाजिक तानेबाने की जड़ में समाई हुई है जिस के अनुसार बुजुर्गों को प्यार व सैक्स से कोई लेनादेना नहीं होना चाहिए. यह रूढि़वादी सोच है जो बुजुर्गों को अपनी शारीरिक जरूरतों से दूर करती है, उन की सैक्स की चाह को गुनाह मानती है और बुजुर्ग दंपती के अकेले में साथ में समय बिताने को पापपुण्य के तराजू पर तौलती है.

दिलचस्प यह है कि भारत ही में जहां खजुराहो और वात्स्यायन की कामसूत्र कृति में सैक्स के हर पहलू पर रोशनी डाली गई है, सैक्स को स्वस्थ व सुखी जीवन के लिए उपयोगी माना गया है, वहीं 60 के पार सैक्स को अश्लील व भारत की गौरवशाली सभ्यता व संस्कृति के खिलाफ और घातक माना जाता है, उसे शर्मनाक व उपहास का पात्र माना जाता है.

60 के पार सैक्स के फायदे

इंडियाना विश्वविद्यालय के अध्ययन के अनुसार, जो बुजुर्ग पुरुष अपने पार्टनर को किस करते हैं या सीने से लगा कर प्यार करते हैं वे अन्य पुरुषों की तुलना में अधिक खुश रहते हैं. शोध की प्रमुख जूलिया हैमन का कहना है कि शादी के कई वर्ष बाद सैक्स संबंधों में स्त्रियों की रुचि इसलिए अधिक होती है कि वे घरेलू जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाती हैं.

आस्ट्रेलियन सैंटर और एविडैंस बेस्ड ऐज केयर नामक संस्था की हालिया जारी रिपोर्ट के अनुसार, बुजुर्गों के लिए बने देखभाल केंद्रों में रहने वाले बुजुर्गों को सैक्स के अधिकार से वंचित किया जा रहा है. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि सैक्स एक सामान्य चीज है व ढलती उम्र में स्वस्थ रहने के लिए जो भी क्रियाएं होती हैं उन में सैक्स भी शामिल है. देखभाल केंद्रों में बुजुर्गों की बढ़ती उम्र व सुरक्षा चिंताओं के चलते उन्हें सैक्स का आनंद नहीं उठाने दिया जाता, जो गलत है.

विश्वभर के कई शोध यही साबित करते हैं कि सैक्स की जरूरत का उम्र से कोई लेनादेना नहीं. सैक्स स्वस्थ रहने का बेहतरीन टौनिक है. सैक्स शारीरिक व मानसिक तनाव को दूर कर के बुजुर्गों को युवा होने की फीलिंग देता है और साथ ही अपने पार्टनर के साथ जुड़ाव का एहसास भी देता है.

एक अमेरिकी रिसर्च के मुताबिक, अमेरिका में 75 वर्ष की आयु के बाद भी महिला व पुरुष बैडरूम में व्यस्त रहते हैं. 

ऐज यूके के लूसी हारमर के अनुसार, बुढ़ापे का अर्थ सैक्सुअल लाइफ का अंत कदापि नहीं है. वे कहते हैं कि जैसे शरीर की भूख मिटाने के लिए भोजन जरूरी है ठीक उसी तरह सैक्स मन की भूख मिटाने के लिए जरूरी होता है. सैक्स मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य में सुधार लाने के साथसाथ फैट बर्न कर के एंडोरफिन नामक कैमिकल रिलीज करता है जिस से तनाव कम होता है.

उम्र के बढ़ने से बुजुर्गों की भावनाएं बदल नहीं जाती हैं. दरअसल, यही वह उम्र होती है जब जिम्मेदारियों से मुक्त हो कर पतिपत्नी एकदूसरे के साथ खुशनुमा प्यारभरे पल बिता सकते हैं. तो फिर इस में समाज, परिवार या धर्म को परेशानी क्यों?

जरूरत बदलाव की

भारतीय समाज में बुजुर्गों के सैक्स अधिकार पर जब हम ने हैल्प ऐज इंडिया के डायरैक्टर हिमांशु रथ से बात की तो उन का कहना था कि आज आदमी की उम्र बढ़ी है, उस की जरूरतें व इच्छाएं बढ़ी हैं. संयुक्त परिवार टूट कर एकल परिवारों में बदल रहे हैं. ऐसे में बुजुर्गों की सैक्स की चाहत बढ़ना भी लाजिमी है.

हिमांशु रथ कहते हैं कि उन की हैल्पलाइन में आने वाली समस्याओं में अधिकांश समस्याएं सैक्स से जुड़ी होती हैं. औरतें कहती हैं कि उन के पति अभी भी उन से सैक्स की चाह रखते हैं. ऐसे पुरुष जो अकेले हैं वे किसी साथी की तलाश में रहते हैं.

आप को जान कर हैरानी होगी कि गुजरात के अहमदाबाद में ‘बिना मूल्य अमूल्य सेवा’ नामक एक एनजीओ ऐसे अनोखे सम्मेलन का आयोजन करता है जिस में बुजुर्गों के लिए साथी की तलाश की जाती है. सम्मेलन यह साबित करता है कि बुजुर्गों को भी साथी की व सैक्स की दरकार होती है.

हमारे यहां कृष्ण की प्रेमलीला को पवित्र माना जाता है और बुजुर्गों के साथ प्यार व अपनेपन को अपवित्र. ऐसा क्यों? जरूरत है इस कुत्सित सोच में बदलाव लाने की. अगर बुजुर्गों की सैक्स की प्राकृतिक चाहत को रोका जाएगा तो वे अपनी भड़ास घर से बाहर, सड़कों, बसों, औफिस में गलत तरीके से निकाल सकते हैं जो अपराध का रूप भी ले सकती है. बुजुर्गों की निजी जिंदगी में खलल डालने का किसी को भी अधिकार नहीं है. 

…राम-लीला विवाद भावना पर नहीं धंधे पर चोट

धर्म के तथाकथित पैरोकारों की धार्मिक भावनाएं इतनी खोखली और बचकानी हैं कि आएदिन फिल्मों से आहत हो कर कच्चे घड़े की तरह फूट जाती हैं. संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘…राम-लीला’ को ले कर हिंदू संगठनों ने बवाल दरअसल धार्मिक भावनाओं के चलते नहीं बल्कि धर्म के धंधे पर चोट पहुंचने की वजह से किया. धर्म की खाने वाले खौफजदा हैं कि कहीं राम के नाम पर चल रही उन की दुकानदारी ठप न हो जाए. क्या है पूरा मामला, बता रहे हैं जगदीश पंवार.

संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘गोलियों की रासलीला राम-लीला’ को ले कर कई याचिकाएं दायर की गई हैं. देश के कई हिस्सों में फिल्म का प्रदर्शन नहीं होने दिया गया. गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पंजाब, उत्तर प्रदेश के कई शहरों में हिंदू संगठनों ने फिल्म पर प्रतिबंध लगाने की मांग की तो कहीं नाम बदलने की. विरोधस्वरूप पोस्टर फाड़ डाले गए, तोड़फोड़ की गई. निर्माताओं के पुतले जलाए गए. उत्तर प्रदेश के बरेली, रामपुर में हिंदू युवा वाहिनी ने फिल्म के पोस्टर जला डाले. सैंसर बोर्ड के खिलाफ नारेबाजी की और पोस्टर फाड़ दिए. पंजाब के होशियारपुर में भगवान परशुराम सेना और हिंदू संघ ने सीजेएम कोर्ट में शिकायत दर्ज कर फिल्म पर प्रतिबंध की मांग की.

गुजरात में क्षत्रिय समुदाय ने फिल्म पर आपत्ति जताते हुए प्रदर्शन किए. समुदाय का आरोप है कि निर्माताओं ने हिंदू धर्म का अनादर किया है. फिल्म में दिखाए गए कुछ दृश्य गुजरात के 2 समुदायों, ‘दरबार’ और ‘रेबारी’ के बीच संघर्ष का कारण बन सकते हैं. समुदाय का कहना है कि उस ने भंसाली से आग्रह किया था कि वे फिल्म रिलीज होने से पहले उन दोनों समुदायों के नाम बदल दें.

इस पर भंसाली ने गुजरात के अखबारों में विज्ञापन दे कर क्षत्रिय समाज से माफी मांगी और दोनों समुदायों के नाम ‘दरबार’ और ‘रेबारी’ को बदल कर ‘सानेदो’ और ‘रजाडी’ कर दिया.

बौंबे हाईकोर्ट में भी याचिका दायर कर फिल्म पर कई आरोप लगाए गए. महाराष्ट्र रामलीला मंडल ने याचिका में फिल्म का नाम बदलने की मांग की थी. याचिका में कहा गया कि फिल्म में पूरी तरह से अश्लीलता, फूहड़ता व सैक्स दिखाया गया है. पूरी फिल्म में भगवान राम का चरित्रहनन किया गया है. इस पर बौंबे हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति वी एम कानडे व न्यायमूर्ति एम एस सोनक की खंडपीठ ने संजय लीला भंसाली को फिल्म की अश्लीलता व उस के मुख्य किरदार के जरिए राम के चरित्रहनन व याचिका में लगाए गए आरोपों का जवाब देने को कहा.

अदालत ने सैंसर बोर्ड को भी स्पष्ट करने का निर्देश दिया कि क्या उस ने फिल्म को सर्टिफिकेट जारी करते समय उन सभी दिशानिर्देशों पर विचार किया था जो प्रमाणपत्र देने से पहले जरूरी हैं?

याचिकाओं का सहारा

मध्य प्रदेश के उच्च न्यायालय में भी 2 याचिकाएं दायर की गईं और कहा गया कि ‘रामलीला’ शब्द हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं से जुड़ा हुआ है और यह फिल्म भारत के सांस्कारित मूल्यों व हिंंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाली है.

इस पर न्यायालय ने भंसाली को निर्देश दिया कि रामलीला टाइटल के बिना प्रदर्शित करने का आदेश पूरे देश में लागू है. अदालत ने कहा था कि यदि निर्माता यह शब्द हटाना नहीं चाहते तो फिल्म 22 नवंबर तक प्रदर्शित न करें.

प्रभु समाज धार्मिक रामलीला कमेटी सहित कई याचिकाओं की सुनवाई के बाद अदालत के आदेश पर फिल्म का नाम ‘गोलियों की रासलीला राम-लीला’ कर दिया गया. फिल्म 15 नवंबर को रिलीज हुई थी. फिल्म का नाम शुरू में ‘रामलीला’ था.

एक अन्य याचिका में कहा गया कि भंसाली ने जानबूझ कर अपनी फिल्म को बिना किसी आवश्यकता के ऐसा नाम दिया है जिस से हिंदुओं की भावना अपमानित हो रही है. इसलिए यह धारा 295ए, आईपीसी के अंतर्गत दंडनीय अपराध होने के कारण इस फिल्म को सैंसर बोर्ड द्वारा सिनेमेटोग्राफर एक्ट की धारा 5बी में दिया गया प्रसारण प्रमाणपत्र विधिविरुद्ध है. इस प्रमाणपत्र को निरस्त किया जाए और फिल्म के प्रसारण पर तत्काल रोक लगाई जाए.

हमारे यहां आएदिन धार्मिक भावना पर ठेस को ले कर कोई न कोई मामला चलता रहता है. कभी किसी फिल्म से धार्मिक भावना को चोट पहुंचती है तो कभी किसी पुस्तक या लेख से और कभी धर्म के अनुकूल ऐसी कोई बात या क्रिया करने से. पुलिस और अदालतों में शिकायतें दर्ज कराई जाती हैं. शिकायत होते ही पुलिस और अदालत तुरंत कार्यवाही शुरू कर देती हैं.

पिछले दिनों ‘ओ माई गौड’ फिल्म से भी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंची थी. लगभग उसी समय ‘स्टूडैंट औफ द ईयर’ के एक गाने में राधा को सैक्सी बताए जाने पर कुछ लोगों की धार्मिक भावनाएं आहत हुईं.

थोपी जाती है धार्मिक भावना

प्रचलित मान्यताओं और कानून के दायरे में धार्मिक भावनाएं इस प्रकार मानी गई हैं: ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करना हमें बचपन से ही सिखाया गया है. सृष्टि की रचना ईश्वर ने की है. ईश्वर की मरजी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता, ऐसी बातें हमें बारबार सुनाई जाती हैं. धार्मिक किताबों, अपने संतों, गुरुओं के द्वारा धर्म के बारे में जो पढ़ा, सुना, जाना है, उस को सच मान कर हम विश्वास करते हैं. उस पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगाना चाहते. धर्म के रीतिरिवाजों का पालन करना जैसे व्रत, उपवास, पूजा, अर्चना, कथा, प्रवचन, भजन सुनना और उत्सव मनाया जाता है. धर्मस्थलों में जाना, तीर्थयात्राएं करना, दानदक्षिणा देना धर्म के प्रति हमारी आस्था का अनिवार्य अंग है. पाप, पुण्य पर भरोसा करना सिखाया गया है. जन्म से मृत्यु और बाद तक धर्म के संस्कारों को निभाते जाना पड़ता है.

हम धर्म, ईश्वर को न मानने वाले को धर्म का दुश्मन व मानवता के विरोध वाला मानते हैं. जातिव्यवस्था को ईश्वर की देन मान कर उस का पालन करते हैं. धर्मस्थल या घर पर नियमित पूजापाठ, प्रार्थना, आशीर्वाद, हवनयज्ञ करना हमारे जीवन की दिनचर्या में शामिल हैं. मंदिर का निर्माण, मूर्ति की स्थापना करना धर्म की वृद्धि और पुण्य का काम माना जाता है.

धार्मिक देवी, देवताओं के बारे में ध्यान, मनन, जप, तप करना धर्म का अंग बताया गया है. अपने धर्म की श्रेष्ठता का बखान करना और अपने धर्र्म को दूसरों के धर्र्म से श्रेष्ठ बताना भी मनुष्य के धार्मिक गुणों में शामिल माना गया है.

उधर, कानून की नजरों में इन बातों के खिलाफ जाने वाला दोषी ठहराया जा सकता है. धार्मिक किताब फाड़ने या जलाने पर, मूर्ति तोड़ने या नष्ट करने पर, धर्मस्थल को नुकसान पहुंचाने, ईश्वर के बारे में धर्म से उलट कहने जैसी बातों से धार्मिक भावना आहत करने का मामला बनाया जा सकता है.

पर असल में धार्मिक भावना के नाम पर जो बातें प्रचलित हैं उन्हें अंधविश्वास नहीं बल्कि सत्य समझा जाता है. धर्म तो मानवता, कल्याण, परोपकार की बातें करता है. क्या किसी को धर्म, ईश्वर के बारे में अपनी राय व्यक्त करने से रोकना और उसे पुलिस, अदालत में घसीटना मानवता है?

धार्मिक भावना प्राकृतिक नहीं है. यह किसी में जन्मजात भी नहीं होती, जन्म के बाद थोपी जाती है. यह धर्र्म के दुकानदारों, प्रचारकों द्वारा लगातार प्रचार से थोपी हुई है. धार्मिक भावना अगर नैसर्गिक होती तो अलगअलग धर्म, अलगअलग वर्ग, अलग जाति, अलग संप्रदाय क्यों होते? धर्मयुद्ध होते ही नहीं जबकि भिन्नभिन्न धर्मों, संप्रदायों, वर्गों और जातियों में सदियों से झगड़े होते आए हैं.

धार्मिक भावना जीवन जीने के लिए भी आवश्यक नहीं है. जो किसी धर्म, ईश्वर को नहीं मानते वे भी अच्छी जिंदगी जीते हैं और ज्यादा ईमानदार, नैतिक, मानवता से प्रेम करने वाले, शांति, क्षमा, करुणा को धारण करने वाले होते हैं.

धर्म का माफियाराज

धार्मिक भावना कोरी धर्म को बचाने की कोशिश है. जैसे तानाशाह तानाशाही बचाने के लिए करते हैं. धार्मिक भावना बेची जा रही है. लोगों पर थोप कर पैसा कमाया जाता है. ऐसे में क्या यह जमींदारी, डकैती और माफियाराज नहीं है? इस में लालच, भय भी दिखाया जाता है. बदले में कुछ दिए बगैर पैसे झटक लिए जाते हैं.

धार्मिक भावना देशभक्ति से भी कमजोर है. देशभक्ति की भावना सामूहिक होती है. यह किसी राष्ट्र की सुरक्षा, संरक्षा, बचाव और प्रेम की भावना को व्यक्त करती है. जब किसी राष्ट्र पर संकट आता है तो समूचे देशवासियों की भावना अपने राष्ट्र के प्रति एक जैसी होती है और अधिक बलवती हो जाती है लेकिन धार्मिक भावना का प्रश्न जब सामने आता है तो प्रत्येक नागरिक के विचार, सोच और स्वर अलगअलग देखनेसुनने को मिलते हैं. धार्मिक भावना सामूहिक नहीं होती.

धार्मिक भावना व्यक्ति विशेष के लिए है, धर्म के माफियाओं का पैसा कमाने का जरिया है. धर्म को न मानने वाले, नौन बिलीवर्स की भी कोई भावना होती है. उन की भावना  भी आहत होती है. अगर स्कूल, कालेज में धर्म विशेष की कोई अनिवार्य प्रार्थना न करना चाहे और उसे जबरदस्ती गवाया जाए तब क्या उस की भावना आहत नहीं होती?

धर्म, ईश्वर को ले कर स्वतंत्र विचार व्यक्त करने वालों को ईशनिंदा, धार्मिक भावना आहत करने जैसे आरोपों से परेशान किया जाता है पर इस तरह के जो कानूनी प्रावधान और उन के मुताबिक निर्धारित सजाएं हैं, क्या प्राकृतिक नियमों के खिलाफ नहीं हैं? जो धर्म अपने ही धर्म की समालोचना की इजाजत  नहीं देता वह उदार नहीं, तानाशाह है.

एक धर्म वाला अपने ही धर्र्म के लोगों की धार्मिक भावना को ठेस नहीं पहुंचा सकता. अपने धर्म की जो बातें उसे पसंद न हों, उन के बारे में लिखनेबोलने का हक उसे होना चाहिए. जरूरी नहीं है कि हरेक को अपने धर्म को श्रेष्ठ बताना चाहिए. आंख मींच कर सिर्फ अच्छाइयों का ही जिक्र करें, यह तो  धर्र्म द्वारा इंसान पर तानाशाही थोपना हुआ. अगर वह अपने ही धर्म की कुछ ऐसी चीजें, जो इंसानियत के विरुद्ध हों, अनैतिक हों, तानाशाहपूर्ण हों, इच्छा, विचारों के खिलाफ हों, मानव के बुनियादी हक के विरुद्ध हों तो ऐसे में उसे कहने की पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिए. लेकिन धर्म की स्थापित परंपराओं से हट कर कोई कुछ बोलता है, व्यवहार करता है या विरुद्ध जाता है तो वह कानून की नजर में दोषी बन जाता है.

धर्म की उखडती दूकान 

इस फिल्म से अगर आम हिंदू की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचती है तो वे सिनेमाहाल में अपनी भावना को आहत करने क्यों जाते? फिल्म की कमाई 100 करोड़ से ऊपर पहुंच गई. लाखों हिंदुओं ने यह फिल्म देखी है. अखबारों,  टैलीविजन चैनलों की समीक्षाओं में राम और लीला के चरित्र और भंसाली की सिनेमेटोग्राफी की लंबी चर्चा है पर फिल्म हिंदुओं की भावना की कहीं नहीं.

कट्टरपंथी इस बात का जवाब नहीं दे पाते कि धार्मिक भावना होती क्या है? कहां चोट लगती है? यह कैसे आहत होती है? फिल्म बनाने वाले संजय लीला भंसाली की भी कोई भावना होगी. क्या आलोचक से उन की भावना आहत नहीं हुई? जो लाखों दर्शक इस फिल्म को देख रहे हैं, क्या आलोचना से उन की कोई भावना नहीं है, जिसे चोट पहुंचाई गई?

मजे की बात यह है कि फिल्म का विरोध दर्शकों की ओर से नहीं है, हिंदुओं के कुछ स्वयंभू धार्मिक संगठनों और हिंदुओं के ठेकेदार कर रहे हैं. धार्मिक भावना के नाम पर बातबात पर शोर मचाने वालों को आखिर किस बात का खौफ है? क्या धार्मिक भावना या धर्म कोई कच्ची मिट्टी का घड़ा है जो हलकी सी चोट से बिखर जाएगा? क्या धार्मिक भावना इतनी कमजोर है कि महज फिल्म उसे ठेस पहुंचा सकती है?

दिक्कत यह है कि धर्म के व्यवसाय पर चोट पड़ रही है. राम के नाम और रामलीला से कारोबार करने वाले लोगों के धंधे पर चोट पड़ रही है. रामलीला के नाम पर कमाई कोई दूसरा क्यों करे. यह पेटैंट तो केवल धर्म के ठेकेदारों, रामलीला कमेटी वालों के पास है.

राम-लीला जैसी फिल्में लाखों लोगों द्वारा पसंद की जाती हैं, धर्म की समालोचना करने वाली किताबें, लेख आम लोगों द्वारा पसंद किए जाते हैं और सराहे जाते हैं. इस तरह की फिल्में धर्र्म के धंधेबाजों की पोलपट्टी खोलती हैं. दरअसल, आंच धर्म पर नहीं, धर्म के धंधे पर आती है.

ऐसा भी होता है

मेरी पड़ोसिन अपने पहले प्रसव के लिए अस्पताल में भरती थी. उस ने पुत्र को जन्म दिया. उस के बाद हम उस से मिलने और बधाई देने अस्पताल गए. बेटा पा कर दोनों पतिपत्नी बहुत खुश थे. उन के बेटे को प्यार करते हुए कहा कि बेटा, तुम एक दिन पहले पैदा होते तो अंकल के साथ तुम्हारा जन्मदिन भी मनाते. क्योंकि एक दिन पहले ही मेरे पति का जन्मदिन था.
इस पर मेरी पड़ोसिन ने कहा, ‘‘अरे नहीं, भाभीजी, कल डिलीवरी होती तो लड़की होती. कल अमावस्या थी और कल अस्पताल में सब लड़कियां ही पैदा हुईं.’’
पड़ोसिन की बात सुन कर मैं दंग रह गई. मुझे विश्वास नहीं हुआ कि एमए पास महिला इस तरह की दकियानूसी सोच रख सकती है.
विमला सिंह, नागपुर (महा.)
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मेरे पति कानपुर में जौब कर रहे थे और मैं हमारे 3 छोटे बच्चों के संग लखनऊ में रहती थी. रोजाना आनेजाने में कभी ये जल्दी आते तो कभी आने में काफी देर हो जाती थी.
एक दिन शाम को एक सज्जन आए और बोले, ‘‘मुझे श्रीवास्तवजी ने बुलाया था. मैं रायबरेली से आ रहा हूं.’’
कानपुर से पहले मेरे पति की पोस्ंिटग रायबरेली में थी. मैं असमंजस में पड़ गई. उस समय मोबाइल इतना प्रचलित नहीं था. मैं मन ही मन घबरा गई. किसी अनजान व्यक्ति को घर में बुलाऊं तो कैसे? फिर सोचने लगी कि बाहर से आए इंसान को लौटाना इंसानियत का तकाजा नहीं. जो होगा देखा जाएगा. मैं ने उन सज्जन को बाहर के कमरे में बैठा दिया.
चाय पीने के बाद वे सज्जन आराम से कागज फैला कर काम करने लगे. धीरेधीरे घड़ी की सूई ने जब 9 बजाए और मेरे पति नहीं आए तब मेरे सब्र का बांध टूट गया. मैं बोली, ‘‘भाईसाहब, यह सच होगा कि मेरे पति ने आप को बुलाया होगा परंतु उन्होंने मुझ से इस बारे में कुछ भी नहीं कहा और मैं आप को पहले से जानती भी नहीं हूं इसलिए मैं आप को अब यहां ठहराने की स्थिति में नहीं हूं.’’
कुछ देर वे सज्जन सोचते रहे फिर उन्होंने अपना समान समेटा और घर से बाहर निकल गए. कभीकभी ऐसा भी होता है कि हम समझ नहीं पाते हैं कि हम ने सही किया कि गलत.
एक पार्टी में वे सज्जन दोबारा मिले. मेरे पास आ कर वे बोले, ‘‘भाभीजी, आप ने उस दौरान जो किया था वह समय के बिलकुल अनुकूल और सही था. मुझे परेशानी तो हुई पर मैं ने बुरा नहीं माना.’’
किसी अजनबी को हद के आगे पनाह देना उचित नहीं है इसलिए उस दिन मेरा फैसला उचित था.
रेणुका श्रीवास्तव, लखनऊ (उ.प्र.)

दांतों की चमक का बाजार

स्वस्थ दांतों के प्रति लोगों की उदासीनता घटी है. लोग दंत स्वास्थ्य के प्रति ज्यादा सचेत हो रहे हैं. दूरदराज इलाकों में भी दांतों के प्रति लोगों में जागृति आ रही है. अप्रशिक्षित लोगों की दांतों की दुकानों पर स्वयं ताले लग रहे हैं. उन के ग्राहक अच्छे दंत चिकित्सकों को खोज रहे हैं. अच्छे चिकित्सकों से दांतों का निरीक्षण करवाना एक फैशन जैसा बन गया है. लोगों में इसी तरह का उत्साह टूथपेस्ट के प्रति भी बढ़ा है. टूथपेस्ट कंपनियां विज्ञापनों पर खूब पैसा खर्च कर रही हैं. बाजार में एक से बढ़ कर एक टूथपेस्ट विज्ञापनों के जरिए धूम मचाए हुए हैं.

सभी टूथपेस्ट कंपनियां अपने उत्पाद की गुणवत्ता की कहानी बेहद नाटकीय अंदाज से पेश कर के ग्राहकों को लुभाने में जुटी हैं. बाजार में प्रतिस्पर्धा है. असंख्य टूथपेस्ट हैं और सभी दांतों को चमकाने व मसूड़ों को मजबूत करने का दम भरते हैं. गुणवत्ता की परख किसी उपभोक्ता के लिए आसान नहीं होती, इसलिए कंपनियां बाजार में पैसा फूंक कर अपनेअपने दावे को प्रभावी बनाने में लगी हैं.

कोलगेट कंपनी तो पैप्सोडैंट के एक विज्ञापन के खिलाफ कोर्ट में भी गई और कहा कि उस के मजबूत दांत वाला विज्ञापन उस के दावे को प्रभावित कर रहा है. लेकिन दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका को ठुकरा दिया और कहा कि उन के मजबूत दांत वाला विज्ञापन प्रभावित नहीं हो रहा है. टूथपेस्ट कंपनियां किस तरह से बाजार में पैसा फेंक रही हैं इस का उदाहरण यही है कि जुलाई 2011-12 में टूथपेस्ट कंपनियों ने विज्ञापन पर 5,102 करोड़ रुपए लुटाए जबकि इस साल जुलाई तक यह आंकड़ा 5,795 करोड़ रुपए तक पहुंच चुका है.                                           

शिक्षा में गुणवत्ता से समझौता ठीक नहीं

देश की तरक्की का रास्ता शिक्षा है. अच्छे शिक्षण संस्थानों के आधार पर किसी देश की तरक्की को सुनिश्चित माना जा सकता है. भारत आर्थिक विकास की राह पर जिस रफ्तार से चल रहा है उस से दुनिया में भारत को जरूर अहमियत मिली है और दुनिया की सब से तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था का तमगा भी हमें मिल रहा है. इस सम्मान को बनाए रखने की जिम्मेदारी हम सब की है. इस में बड़ी तथा अहम भूमिका हमारे शिक्षण संस्थानों की है.

वैश्विक स्तर पर आ रहे सर्वेक्षणों पर नजर डालें तो हर सर्वेक्षण में भारतीय संस्थानों की स्थिति बहुत पिछड़ी हुई है. शीर्ष 10 वैश्विक संस्थानों में हमारे किसी संस्थान के लिए जगह पाना सपना हो गया है.

हाल ही में टाइम्स हायर एजुकेशन ब्रिक्स ऐंड एमर्जिंग इकोनौमिज रैंकिंग ने दुनिया के प्रमुख शिक्षण संस्थानों का सर्वेक्षण कराया है. इस में भारत के सिर्फ 10 संस्थानों ने ही शीर्ष 100 में जगह हासिल की है. सूची में भारत का कोई भी शिक्षण संस्थान 10 शीर्ष संस्थानों में शामिल नहीं है. पंजाब विश्वविद्यालय ने थोड़ी लाज रखी और यह 20 प्रमुख संस्थानों में शामिल है. आईआईटी खड़गपुर 34वें, आईआईटी दिल्ली 37वें और आईआईटी रुड़की 37वें स्थान पर हैं. इस तरह से इन संस्थानों के साथ ही दुनिया के 100 प्रमुख संस्थानों में भारत के सिर्फ 10 संस्थानों को ही जगह मिल सकी है.

इस के ठीक विपरीत चीन है, जिसे भारत अपना प्रमुख आर्थिक प्रतिस्पर्धी नहीं मानता है, निरंतर आर्थिक विकास की सीढि़यां भारत की तुलना में तेजी से चढ़ रहा है. शिक्षा के क्षेत्र में भी यही स्थिति है. इस सर्वेक्षण में चीन के 4 संस्थान दुनिया के 10 शीर्ष शिक्षण संस्थानों में शामिल हैं. इसी तरह से उस के 23 संस्थान दुनिया के 100 शीर्ष संस्थानों में शामिल हैं.

भारतीय भले ही इस सर्वेक्षण को भेदभावपूर्ण बता रहे हैं लेकिन इस में कोई दोराय नहीं है कि हमारे यहां शिक्षा उद्योग बन गया है. शिक्षण संस्थानों को सेवाभाव या देश का भविष्य तैयार करने वाले केंद्र नहीं बल्कि पैसा कमाने की मशीन के रूप में लिया जा रहा है. शिक्षण संस्थानों को जब तक उन का वास्तविक सम्मान नहीं दिया जाएगा देश का समग्र विकास संभव नहीं है. हम आर्थिक विकास को जितना महत्त्व दे रहे हैं उसी स्तर पर शिक्षण संस्थानों और उन की गुणवत्ता को महत्त्व दिया जाना चाहिए.

 

लोकतंत्र की मजबूती के लिए कंपनियों की पहल

चुनाव सभाओं में भीड़ उमड़ी हो या न उमड़ी हो लेकिन मतदान केंद्रों पर भीड़ जरूर उमड़ी है और मजबूत लोकतंत्र में यही होता है. ज्यादा मतदान होना लोकतंत्र के भविष्य के लिए भी अच्छा संकेत है. लेकिन इस बार कंपनियों ने भी मतदान का प्रतिशत बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई है. देश की कई प्रतिष्ठित बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने कर्मचारियों को वोट देने के लिए प्रेरित किया है. कंपनियां मोबाइल संदेश दे कर मतदान के दिन तक अपने कर्मचारियों को मतदान के लिए प्रेरित करती रहीं. डाबर, कोकाकोला, इन्फोटैक, गूगल, थौमस कुक जैसी कई प्रतिष्ठित कंपनियां अपने कर्मचारियों को हर हाल में मतदान करने के लिए प्रोत्साहित करती रही हैं. इन कंपनियों ने एसएमएस या ईमेल ही नहीं भेजे बल्कि कार्यशालाएं भी आयोजित की हैं.

इन्फोसिस ने एक निजी स्वयंसेवी संगठन के जरिए अपने 8 हजार कर्मचारियों को प्रोत्साहित किया. उसी तरह से एक अमेरिकी कंपनी अपने करीब पौने 8 हजार कर्मचारियों से ईमेल आदि के जरिए जुड़ कर लगातार उन्हें वोट देने के लिए तैयार करती रही. लोकतंत्र में यह अलग तरह की पहल है. नौकरियां युवा आएदिन बदलते रहते हैं. कहा जाता है कि इस तरह की मानसिकता में कर्मचारी भावनात्मक रूप से कंपनी से जुड़ा नहीं रहता है लेकिन लोकतंत्र की मजबूती के लिए कंपनियों, खासकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने जो पहल की है वह स्वागतयोग्य है.

 

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