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शेयर बाजार में माहौल चमकदार

शेयर बाजार के लिए 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजे मानो सौगात ले कर आए. शेयर बाजार का सूचकांक इस अवधि में फिर 21 हजार अंक के मनोवैज्ञानिक स्तर को पार कर गया.

बाजार के जानकारों का कहना है कि यह असर पूरी तरह से चुनाव नतीजों का रहा. इस से रुपया भी मजबूत हो गया. इस से पहले यानी 3 दिसंबर को बाजार गिरावट पर रहा, हालांकि माह की 1 और 2 तारीख को बाजार में तेजी रही. उस की वजह सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की दर का अनुमान सकारात्मक रहने और आर्थिक विकास का आंकड़ा लगातार दूसरी तिमाही में बढ़ना रहा. नवंबर के आखिरी कारोबारी दिनों में भी बाजार में तेजी रही. वैश्विक स्तर पर अच्छे संकेत रहे और इसी दौरान जापानी शेयर बाजार के 6 माह के उच्चतम स्तर पर पहुंचना इस की वजह रही. इस का बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई के सूचकांक पर भी अच्छा असर रहा और बाजार में तेजी का माहौल रहा.

बाजार 2014 के आम चुनाव में केंद्र में स्थायी सरकार और राजनीतिक स्थिरता का पक्षधर है. विकास के लिए राजनीतिक स्थिरता आवश्यक है.

 

सफेद कैनवास पर मस्ती

मौसम का बदलता मिजाज और ठंड की दस्तक सफेद चादर बन कर दुनिया भर में फैल गई है. बर्फबारी के संगमरमरी लिबास को पहने शहर, कूचे और गलियां देख कर लगता है कि प्रकृति दुनिया के सफेद कैनवास पर कुछ रंग बिखेरने की फिराक में है. जरमनी, यूरोप, इस्तांबुल, फ्रांस और भारत समेत तमाम मुल्कों में बर्फबारी का समां देखते ही बनता है.
मौसम के इस बदले मिजाज को देख कर आप भी कह उठेंगे कि जब नजारा ऐसा हो तो मस्ती और सैरसपाटा बनता ही है.

मजहब यही सिखाता आपस में बैर रखना

कर्नाटक के शिक्षामंत्री की जहालत की इंतहा देखिए कि जनाब सर्कुलर जारी कर स्कूलों के पाठ्यक्रम में गीता पढ़ाने को अनिवार्य करना चाहते हैं. जिस गीता में धनसंपत्ति के नाम पर दो परिवारों की आपसी कलह और मारकाट के अलावा कुछ भी नहीं है उस से भला छात्रों को क्या शिक्षा हासिल होगी? हां, बच्चों में धर्म व जाति का भेदभाव, संप्रदायवाद और लड़नेमारने की प्रवृत्ति जरूर पनपेगी. पेश है सुरेंद्र कुमार शर्मा ‘अज्ञात’ का एक विश्लेषण.

भारतीय जनता पार्टी के राज में कर्नाटक के शिक्षामंत्री ने एक परिपत्र यानी सर्कुलर जारी किया था कि स्कूलों में छात्रों को प्रतिदिन 1 घंटा गीता अवश्य पढ़ाई जाए. मंत्री ने कहा था कि यदि कोई इस ग्रंथ के पढ़ाने का विरोध करता है और इस का आदर नहीं करता तो उस के लिए देश में कोई जगह नहीं है अर्थात गीता का आदर करो या देश छोड़ दो.

यह समाचार दैनिक भास्कर के जालंधर के 21 जुलाई, 2011 अंक में प्रकाशित हुआ था. इस से पहले भी एक अन्य राज्य में इसी तरह गीता के अध्यापन के थोपे जाने का समाचार आया था.

संविधानविरोधी

प्रथम दृष्ट्या सर्कुलर और मंत्री का धमकीभरा बयान दोनों संविधानविरोधी थे क्योंकि इस देश में मंत्री हो या संतरी, सब संविधान की शपथ लेते हैं. संविधान में किसी ग्रंथ के आदर करने की न बाध्यता है न उसे पढ़नेपढ़ाने की अनिवार्यता. ध्यान रहे, प्राचीन ग्रंथों में, जिन में धर्मग्रंथ भी शामिल हैं, अनेक ऐसी बातें हैं जो मौजूदा कानून और संविधान द्वारा प्रतिबंधित घोषित की गई हैं. संविधान के अनुच्छेद 13 में कहा गया है :

(1) इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले भारत के राज्यक्षेत्र में प्रवृत्त सभी विधियां (=अध्यादेश, आदेश, उपविधियां, नियम, विनियम, अधिसूचनाएं, रूढि़यां व प्रथाएं) उस मात्रा तक शून्य होंगी जिस तक वे इस भाग के उपबंधों के विपरीत हैं.

(2) राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा जो इस भाग (=मूल अधिकार) द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनती है या न्यून करती है और इस खंड के उल्लंघन में बनाई गई प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी.

ऐसे में उक्त ग्रंथों की अपनी ही स्थिति संकटापन्न हो जाती है, जब तक उन के आदेश संविधानसम्मत सिद्ध नहीं हो जाते.

एक मान्य ग्रंथ नहीं

हिंदू धर्म में कोई एक गं्रथ सर्वमान्य नहीं है, क्योंकि यहां ग्रंथों की बहुतायत है. कोई वेदों को मानता है, कोई पुराणों को, कोई तुलसी के रामचरितमानस को मानता है तो कोई श्रीमद्भगवद्गीता को.

ऐसे में यदि कोई शिक्षामंत्री रामचरित- मानस को मानने वाला हुआ तो वह उसे लागू करने की जिद कर सकता है और यदि कोई शिक्षामंत्री हनुमान का भक्त हुआ तो वह हनुमान चालीसा थोपने की कोशिश कर सकता है.

यदि सभी शिक्षामंत्री अपनीअपनी पसंद के धर्मग्रंथ स्कूलों में पढ़ाने को अनिवार्य कर देंगे तो छात्र बाकी सब विषयों को पढ़ने के लिए समय ही नहीं निकाल पाएंगे और बड़े हो कर वे सिर्फ पुजारी, कथावाचक या पंडापुरोहित ही बन पाएंगे, न कि वैज्ञानिक, डाक्टर, वकील, इंजीनियर आदि, और देश पिछड़ जाएगा. हो सकता है भारतीय जनता पार्टी की सरकारों का यह किया लक्ष्य हो पर यह संवैधानिक तो नहीं है.

कुरान व बाइबिल

हिंदू समाज को इन धर्मगर्दों से बचना होगा. उन्हें यह नहीं समझना चाहिए कि धर्मग्रंथ की पढ़ाई अनिवार्य कर के ये राजनीतिबाज उन के बच्चों को अच्छी राह दिखा रहे हैं, क्योंकि कल को यदि कोई कुरान या बाइबिल को पसंद करने वाला मुसलमान या ईसाई शिक्षामंत्री उक्त ग्रंथों को अनिवार्य बना देगा तब यही राजनीतिबाज उस का विरोध करने को कहेंगे. तब आप किस मुंह से उस का विरोध करेंगे? धर्मग्रंथ तो धर्मग्रंथ है, वह चाहे गीता हो, कुरान हो या बाइबिल.

धर्मनिरपेक्ष देश

भारत धर्मनिरपेक्ष देश है, जहां किसी एक धर्म को या उस के किसी ग्रंथ को सरकारी तौर पर राज्य का आश्रय प्राप्त नहीं है. हां, यहां धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है सब धर्मों के प्रति समभाव. अब इस अर्थ के अनुसार स्कूलों में यदि धर्मग्रंथ पढ़ाने हों तो सब धर्मों के धर्मग्रंथों को एकसमान, समभाव से, आदर देना होगा और उन की पढ़ाई करानी होगी.

जहां गीता अनिवार्य बनाई जा रही है वहां कुरान और बाइबिल भी अनिवार्य बनाने होंगे. यह काम मदरसे, गुरुकुल, संस्कृत पाठशालाएं आदि पहले से कर ही रहे हैं. फिर स्कूलों और शिक्षामंत्रियों की जरूरत ही क्या है?

यदि आधुनिक शिक्षा देने वाले स्कूलों को भी उक्त मानसिकता को मजबूत बनाने के काम में ही लगाना है तो फिर स्कूली शिक्षा के अस्तित्व का औचित्य ही क्या रह जाता है?

पारिवारिक कलह

सब जानते हैं कि गीता का ज्ञान न तो किसी राष्ट्रीय समस्या के समाधान के लिए दिया गया ज्ञान था और न किसी दार्शनिक गुत्थी को सुलझाने के लिए, यह न सामाजिक एकता के लिए दिया गया था और न वैज्ञानिक प्रगति के लिए, बल्कि यह तो चाचा के पुत्र अर्जुन को तब दिया गया था जब वह अपने ताऊ के पुत्रों से लड़ने से विमुख हो कर बैठ गया था. इस ज्ञान से उस परिवार को दरपेश समस्या हल नहीं हुई, क्योंकि इस से अर्जुन सिर्फ मरनेमारने को फिर से तैयार हुआ था. उस ने अपने परिवार के सदस्यों, युवाओं, बड़ेबूढ़ों और दूसरे गुरुजनों का बड़ी बहादुरी से खून बहाया था. वह राजपरिवार आपस में लड़, कट कर नष्ट हो गया, जिस से इस देश की महाहानि हुई बताई जाती है.

हत्या की प्रेरणा

गीता में अर्जुन को समझाया गया है कि तुम अपने स्वजनों अर्थात पारिवारिक लोगों, गुरुजनों अर्थात बड़ेबूढ़ों आदि की हत्या निसंकोच हो कर करो, क्योंकि जब हम किसी को बाण मार कर या तलवार चला कर मौत के घाट उतारते हैं तब हम उस का सिर्फ शरीर नष्ट करते हैं. शरीर तो एक दिन वैसे भी नष्ट हो जाएगा (गीता, 2/18). असली चीज तो आत्मा है और वह शरीर के नष्ट कर दिए जाने पर भी नहीं मरती. इसलिए तुम्हें इस विषय में ज्यादा सोचविचार नहीं करना चाहिए. समझदार लोग इस बारे में चिंता नहीं किया करते (2/11).

इस तरह के उपदेशों से बच्चों की नजरों में ऐसा लगता है कि इंसान की हत्या करना एक साधारण सी बात बन जाएगी. वे ‘नैनं छिंदंति शस्त्राणि,’ (गीता 2/23), यानी इस आत्मा को कोई शस्त्र काट नहीं सकता, रटतेरटते निसंकोच हो कर अपने साथी के पेट में चाकू व छुरा घोंप सकते हैं और उस पर गोली चला सकते हैं. इस तरह हत्या करने वाले बच्चे को क्या कोई अदालत गीता का आत्मा की अमरता का तर्क मान कर निर्दोष स्वीकार कर लेगी और बरी कर देगी?

जातिगत ऊंचनीच

बच्चों में समानता की भावना भरने के लिए उन्हें एकसमान कपड़े व एक ही रंग की वरदी पहनाई जाती है, एक जैसे बूट पहनने को कहा जाता है और एक जैसे बैंचों पर बैठाया जाता है, ताकि बड़े हो कर वे समाज में समरसता ला सकें और देश में एकता की भावना सुदृढ़ हो सके. परंतु गीता में कहा गया है कि चातुर्वर्ण्य ईश्वर का बनाया हुआ है (गीता, 4/13). इस का अर्थ है कि सब समान नहीं हैं, सब इंसान नहीं हैं, बल्कि कुछ लोग ब्राह्मण हैं, कुछ क्षत्रिय, कुछ वैश्य और कुछ शूद्र हैं.

जब बच्चे को यह समझाया जाएगा कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ईश्वर के बनाए हैं, इसलिए इन में भेदभाव व ऊंचनीच की भावना ईश्वर की पैदा की हुई है, तब वे आपस में समानता का व्यवहार करना कैसे सीखेंगे और समाज में समरसता कैसे उत्पन्न होगी?

लैंगिक भेदभाव

बच्चों में लिंगगत भेदभाव की भावना खत्म करने और लड़केलड़की को समान समझने की भावना पैदा करने के लिए अनेक यत्न हो रहे हैं. सहशिक्षा के जरिए दोनों को एकदूसरे के निकट लाने के प्रयास हो रहे हैं. छोटे बच्चों की वरदी एकजैसी बनाई जाती है ताकि वे लिंग की अपेक्षा इंसान को पहचानें.

परंतु गीता का उपदेश है कि स्त्रियां, वैश्य जाति और शूद्र जाति के लोग पापयोनि हैं अर्थात ये पाप की पैदाइश है.

येऽपि स्यु: पापयोनय:,

स्त्रियो वैश्यास्तया शूद्रा: (9/32)

गीता की सब से प्राचीन व्याख्या शंकर की मिलती है. शंकराचार्य ने इस श्लोक की व्याख्या करते हुए सब तरह की भ्रांतियों को दूर करते हुए लिखा है: पापयोनि अर्थात पाप की पैदाइश किसे कहते हैं? इस का उत्तर है कि स्त्रियां, वैश्य जाति तथा शूद्र पापयोनि हैं-

पापयोनय: पापा योनिर्येषां ते

पापयोनय:, पापजन्मान:,

के त इत्याह स्त्रियो

वैश्यास्तया शूद्रा:

(गीता, 9/32 पर शंकरभाष्य,गीता प्रैस, गोरखपुर)

अब जब बच्चे यह सीखेंगे कि स्त्रियां और शूद्र (अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े वर्गों के लोग) पापी हैं, पाप की पैदाइश (पापयोनि व पापजन्मा) हैं, तब वे न स्त्रियों के प्रति लैंगिक भेदभाव करना छोड़ सकेंगे और न अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों व पिछड़े वर्गों के प्रति समानता का व्यवहार करना सीख पाएंगे.

यह आदर्श मार्ग है?

सवाल यह है कि क्या क्षत्रिय का कर्म या उस का धर्म हर जगह लड़नाझगड़ना व मरनामारना ही है? जब देश पर कोई शत्रु चढ़ आया हो तब तो उस का कर्म या धर्म लड़ना व मरनामारना हो सकता है परंतु क्या पारिवारिक समस्याओं का एकमात्र हल भी लड़ना व मरनामारना ही है?

स्कूल में क्षत्रिय जातियों के बच्चे क्या इस से आपस में या दूसरी जातियों के बच्चों से जराजरा सी बात पर लड़ना व मरनामारना नहीं सीखेंगे? इस से क्या बच्चों का स्वस्थ विकास हो पाएगा? क्या उन में आपराधिक प्रवृत्तियों के विस्फोट की संभावना नहीं बढ़ जाएगी?

गैरक्षत्रिय क्यों पढ़ें

गीता का उपदेश क्षत्रिय जाति के सदस्य अर्जुन को दिया गया है, परंतु स्कूल में तो हर जाति में जन्मे बच्चे पढ़ते हैं. उन्हें गीता पढ़ाने का तो कोई औचित्य ही नहीं होगा, क्योंकि उन जातियों के न गीता में पात्र हैं और न उन के लिए गीता में कोई विशेष उपदेश है, फिर वे गीता से कौन सा कर्तव्य सीखेंगे? गीता में ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र और स्त्रियों के लिए किस कर्तव्यपालन का उपदेश है? वैश्यों व शूद्रों के बच्चे और लड़कियां गीता में जब अपने बारे में यह पढ़ेंगे कि वे सब पापयोनि हैं, पाप की पैदाइश हैं, तब क्या वे क्षत्रियों और ब्राह्मणों के बच्चों और लड़कियां लड़कों के सामने अपमानित व हीनभावनाग्रस्त नहीं होंगे? क्या उन का स्वस्थ विकास हो सकेगा? क्या वे हीनता और अपमान हासिल करने के लिए ही गीता को अनिवार्य तौर पर पढ़ें?

गीता एक प्राचीन ग्रंथ है और इस का ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्व भी हो सकता है, परंतु इस का अध्ययन बच्चों के लिए अनिवार्य करना किसी भी तरह निरापद नहीं है. हां, वयस्क आदमी सावधान हो कर इसे पढ़े तो शायद कई बातें सीखे. पर बच्चे तो आखिर बच्चे हैं. उन में सयाने आदमी जैसी परिपक्वता और सजगता नहीं होती. उन के मन कोमल, कोरी स्लेट और पूर्वाग्रह व दुराग्रहमुक्त होते हैं.

इसलिए हमें अपनी सनकें बच्चों पर लादने से बचना चाहिए, भले ही हम कुछ समय के लिए राज्य विशेष के शिक्षामंत्री हों.

गीता बनाम गेम्स

मंत्रीपद अस्थायी चीज है, जबकि हिंदू समाज और भारत राष्ट्र स्थायी चीजें हैं. इसलिए सत्ता के मद में आ कर ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जो समाज और राष्ट्र के भविष्य के लिए हानिकारक व घातक हो. स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि गीता पढ़ने की अपेक्षा फुटबाल खेलना ज्यादा श्रेयस्कर है क्योंकि उस से युवा लोग शक्तिशाली बनते हैं.

(विवेकानंद समग्र ग्रंथावली (अंगरेजी), भाग 3, पृ. 242)

स्वामीजी के ये शब्द गीता की अनिवार्य पढ़ाई के संदर्भ में स्कूली छात्रों के मामले में आज पहले की अपेक्षा भी ज्यादा प्रासंगिक हैं, क्योंकि टीवी, वीडियो गेम्स आदि ने और कहींकहीं कई तरह के नशों ने भी हमारी इस नई पीढ़ी को एक तरह से पंगु बना दिया है. इसलिए स्कूली बच्चों के लिए स्वामीजी के कथन को नारे के रूप में इस तरह रखा जा सकता है : गीता नहीं, गेम्स. बड़े हो कर बच्चे जितना चाहें गीता का स्वाध्याय कर सकते हैं, परंतु अभी उन्हें मजबूर न करो.

इन मंत्री महोदय का पद आखिर छीन लिया गया. जब चुनावों के बाद सरकार बदल गई और गीता का पाठ वोटों की बाढ़ में बह गया.

छद्म धार्मिकता

गीता को स्कूली बच्चों के लिए अनिवार्य बनाना दरअसल समुदाय विशेष की वोटें ऐंठने के लिए, अपने क्षुद्र राजनीतिक उद्देश्य के लिए, छद्म धार्मिकता का प्रदर्शन मात्र है. यह स्वांग रच कर वे निवेश करते हैं ताकि मतदान के समय लोगों को भरमा कर वोटों का डिविडैंड प्राप्त कर सकें. परंतु राजनीतिबाजों के ऐसे हथकंडे देश के लिए अकसर घातक ही सिद्ध होते हैं. इसलिए हमें उन से सावधान रहना चाहिए, और याद रखना चाहिए कि गीता यदि एक धर्मग्रंथ है तो उसे न राजनीतिबाजों के हाथ का खिलौना बनने की जरूरत है और न वह अबोध स्कूली बच्चों पर अनिवार्य तौर पर थोपी जाने से ही ज्यादा प्रामाणिक व महान बनती है. इसलिए राजनीतिबाजो, गीता से खिलवाड़ बंद करो और बच्चों को गेम्स खेलने दो ताकि उन का ठीक से विकास हो सके व देश में सांप्रदायिक सद्भाव बना रहे.

भारत भूमि युगे युगे

सौ करोड़ की डायरी
मोबाइल और इंटरनैट जैसे गैजेट्स से डायरी की महत्ता और उपयोगिता पर खास फर्क नहीं पड़ा है. एक चर्चित डायरी बिड़ला समूह की है जो सीबीआई ने 18 अक्तूबर को जब्त की थी. उक्त डायरी में कोल ब्लौक आवंटन घोटाले में किए गए भ्रष्टाचार के अंश दर्ज हैं.
कानूनी खानापूर्तियों से फारिग हुई यह डायरी अब सुप्रीम कोर्ट में है जिस में दर्ज है कि बिड़ला समूह की कंपनियों ने पिछले 10 सालों के दौरान 1,000 से भी ज्यादा भुगतान विभिन्न दलों और नेताओं को किया. बिड़ला समूह की दानवीरता का ही बखान इस डायरी में है जिसे संभाल कर किसी छापे के लिए ही रखा गया था ताकि जरूरत पड़ने पर कहा जा सके कि हम भ्रष्टाचार करते नहीं, भ्रष्टाचार करने के लिए हमें मजबूर किया जाता है. सारा ब्योरा जाने क्यों सीडी में नहीं रखा गया जो डायरी की बिक्री गिरने की बड़ी वजह है.


उद्धव का दर्द
पिता का छोड़ा साम्राज्य संभालने में शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे को पसीने आ रहे हैं. बीते दिनों पार्टी के कुछ बगावतियों पर वे कड़े हुए पर तेवर बाल ठाकरे सरीखे नहीं थे. हर कोई जानता है कि शिवसेना के संविधान में नरमी वाला कौलम है ही नहीं, यह पार्टी सख्ती से ही चलती रही है.
उद्धव की दिक्कत यह है कि जब वे दहाड़ते हैं तो रिरियाते से लगते हैं, लिहाजा, शिवसैनिकों के दिलोदिमाग में ठाकरे खानदान का पसरा खौफ कम हो रहा है जो उस के टूटने की वजह भी बन सकता है. अपनी कमजोरी से नजात पाने के लिए उद्धव दूसरी गलती नरेंद्र मोदी की तरफ झुकने की कर रहे हैं. उन के नरेंद्र विरोधी तेवर सभी को पसंद आए थे जो अब बदल रहे हैं. वे खुद जा कर मोदी से मिले तो लोगों को सहज ही वह जमाना याद आया कि बाल ठाकरे अपने घर ‘मातोश्री’ से बाहर नहीं निकलते थे, जिस को जरूरत पड़ती थी वह उन से आ कर ही मिलता था.


राजनाथ का मोदी प्रेम
4 राज्यों में अपनी पार्टी के शानदार प्रदर्शन पर बोलने के लिए माइक उठाया तो भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने इस का श्रेय सीधेसीधे नरेंद्र मोदी को देते हुए यह जताने की कोशिश की कि मोदी को पीएम पद का उम्मीदवार घोषित करने का उन का फैसला या जिद गलत नहीं थी. इस बात से रातदिन हाड़तोड़ मेहनत करने वाले कार्यकर्ता मायूस हैं, साथ ही, चिंतित दूसरे बड़े नेता भी हैं कि अच्छे और शुभ कार्यों का श्रेय मोदी को ही दिया जा रहा है जबकि उन की मेहनतों का जिक्र ही नहीं हो रहा.
राजनाथ का मोदी प्रेम अब भाजपा के लिए सिरदर्द बनता जा रहा है, जिस के नतीजे लोकसभा के भावी चुनाव में उलटे भी निकल सकते हैं.


पेरोल का रोल
पेरोल कैद से आजादी नहीं है बल्कि कैदियों के लिए एक ऐसी सहूलियत है जिस में बंदिशों की भरमार है. आमतौर पर पेरोल हासिल करना टेढ़ी खीर है जिसे संजय दत्त ने सीधी खीर साबित कर खासा बवाल खड़ा कर दिया. अपनी पत्नी मान्यता की बीमारी का बहाना ले कर उन्होंने पेरोल हासिल किया जबकि वे फिल्मी पार्टियों में शिरकत कर रही थीं. इस मामले में जांच शुरू हो गई है. तय है कि जांच रिपोर्ट बवाल खड़ा करेगी.
पेरोल को अब अनिवार्य करने पर विचार किया जाना चाहिए. ऐसे कैदियों, जो खतरनाक या आदतन अपराधी नहीं हैं, को साल में 10-12 दिन की पेरोल देने में हर्ज नहीं. पेरोल के कायदेकानून बदलने से फायदा होगा कि कैदियों  को सुधरने में सहायता मिलेगी और वे मुख्यधारा से भी जुड़े रहेंगे. यानी अवसाद, अपराधबोध और ग्लानि से दूर रहेंगे, जो कैदी मनोविज्ञान के लिहाज से एक बड़ी समस्या है.
 

नेपाल-जनता ने नकारा माओवाद हारा

नेपाल में हुए आम चुनाव इस बार जुदा तसवीर के साथ संपन्न हुए. नतीजों में जनता ने माओवाद को न सिर्फ सिरे से खारिज किया बल्कि बंदूक और हिंसा की सियासत को भी नकार दिया. लेकिन लगता है माओवादी अभी भी गलतफहमी के शिकार हैं. कैसे, यह बता रहे हैं बीरेंद्र बरियार ज्योति.

पड़ोसी देश नेपाल में आम चुनाव संपन्न हो गए. नेपाली जनता ने माओवादियों की बंदूक और हिंसा की सियासत को सिरे से खारिज कर दिया है. चुनावी जनादेश को माओवादी हजम नहीं कर पा रहे और नए सिरे से जनांदोलन शुरू करने का ऐलान कर नेपाल में नया संकट खड़ा करने की योजना में जुट गए हैं. माओवादी सुप्रीमो पुष्प दहल कमल ‘प्रचंड’ खुद भारी अंतर से चुनाव हार गए और उन की बेटी रेनु दहल भी अपनी सीट नहीं बचा सकी हैं. ऐसे में माओवादियों का बौखलाना और नेपाल में फिर नए सिरे से उठापटक के हालात पैदा होना तय माना जा रहा है.

इसी साल की शुरुआत में माओवादियों के एक जलसे में माओवादी पार्टी के एक अदना कार्यकर्ता ने प्रचंड को थप्पड़ जड़ दिया था, उस थप्पड़ की गूंज को प्रचंड भूल भी नहीं पाए थे कि चुनाव में जनता ने भी जोरदार ‘चांटा’ रसीद कर उन की और माओवादियों की सियासत को मटियामेट कर दिया है.

अपनी और अपनी पार्टी नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की करारी हार से बौखलाए प्रचंड ने नेपाल में नया जनांदोलन चालू करने का ऐलान कर नया बावेला मचा दिया है. नेपाल की जनता तो लोकतंत्र के रास्ते पर चलने को तैयार है पर माओवादी इस राह में मुश्किलें खड़ी कर अपना वजूद कायम रखने की कवायद में लगे हैं. माओवादी अपनी हार को स्वीकार कर जनता और लोकतंत्र का साथ देने के बजाय एक बार फिर से अपनी डफली अपना राग के फार्मूले पर आमादा दिख रहे हैं.

थप्पड़ की गूंज

गौरतलब है कि फरवरी महीने में प्रचंड अपनी नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के नेताओं और कार्य- कर्ताओं से मिल रहे थे, तभी पदमा कुमार नाम के युवक ने पहले तो उन से हाथ मिलाया, फिर उन के चेहरे पर जोरदार तमाचा रसीद कर दिया. प्रचंड का चश्मा छिटक कर काफी दूर जा गिरा. नेपाल में राजशाही पर लोकतंत्र का तमाचा जड़ने वाले माओवादी सुप्रीमो के अपने ही कार्यकर्ता से थप्पड़ खाने की घटना ने यह साफ कर दिया था कि प्रचंड अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं तक का भरोसा खोते जा रहे हैं. नेपाल की जनता उन के खिलाफ पहले ही सड़कों पर उतर चुकी थी.

भरोसा जीतने में नाकाम प्रचंड

नेपाल के पोखरा जिले में रहने वाला रमेश गुरुंग बताता है कि प्रचंड ने नेपाल की जनता की उम्मीदों को तारतार कर दिया है. राजशाही के जाने के बाद जनता को उम्मीद थी कि नेपाल का भला होगा और जनता को रोजीरोटी का अधिकार मिलेगा, पर प्रचंड ऐसा करने में नाकाम रहे, जिस की वजह से वे सालभर भी प्रधानमंत्री की कुरसी पर बने नहीं रह सके.

10 साल तक नेपाल को हिंसा और गृहयुद्ध की आग में झोंकने वाले माओवादियों ने अपनी ताकत और बंदूक के बूते देश से राजशाही का खात्मा तो कर दिया पर नेपालियों के दिलों में अपनी जगह बनाने में कामयाब नहीं हो सके.

7 साल पहले माओवादियों ने चुनावी राजनीति की राह पकड़ी थी और साल 2008 में हुए पहले आम चुनाव में धमाकेदार जीत हासिल की थी.

माओवादी नेता प्रचंड पहले प्रधानमंत्री बने लेकिन बंदूक वाली मानसिकता की वजह से वे ज्यादा समय तक प्रधानमंत्री की कुरसी पर टिक नहीं पाए.

ताजा चुनाव में काठमांडू निर्वाचन क्षेत्र-10 से प्रचंड को करारी हार का मुंह देखना पड़ा है. वे नेपाली कांगे्रस पार्टी के के सी राजन से 7 हजार से ज्यादा वोटों से हारे हैं. साल 2008 में हुए संविधान सभा के पहले चुनाव में इसी सीट से प्रचंड को भारी जीत मिली थी. प्रचंड को दूसरा तगड़ा झटका तब लगा जब काठमांडू निर्वाचन क्षेत्र-1 से उन की बेटी रेनू दहल नेपाली कांगे्रस पार्टी के महासचिव प्रकाश सिंह मान से बड़े अंतर से हार गई.

माओवादी नेता व पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टाराई की पत्नी हिसिला यमी यानी पार्वती नेपाली माओवादी नेताओं में तीसरी सब से बड़ी दौलतमंद नेता हैं. वे काठमांडू-7 से चुनाव हार गईं. नेपाल की जनता ने बता दिया कि बंदूक और धमकियों के बूते न राजनीति की जा सकती है न ही चुनाव जीता जा सकता है.

हार से बौखलाए माओवादी

प्रचंड की तानाशाही से बगावत करने वाले माओवादी नेता मोहन वैद्य किरण मानते हैं कि माओवादियों के संगठन में बिखराव पैदा हो गया है. हार के बाद माओवादी नेता हल्ला मचा रहे हैं कि वोटिंग और वोटों की गिनती में धांधलियां हुई हैं. यह कह कर वे अपनी हार और लाज बचाने की फूहड़ दलील दे रहे हैं. दोबारा सत्ता मिलने की आस लगाए माओवादियों को जब हार का सामना करना पड़ा तो वे बौखला गए हैं और अनापशनाप बकने लगे हैं. वे नेपाल को फिर से गृहयुद्ध की ओर ढकेलने पर आमादा हैं.

नेपाल का पिछला आम चुनाव

10 अप्रैल, 2008 को हुआ था, जिस में 70 सियासी दलों ने हिस्सा लिया था. 601 सदस्यीय संसद में 25 दलों के प्रतिनिधि चुन कर पहुंचे थे. यूनाइटेड नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के 220, नेपाली कांगे्रस पार्टी के 110 और नेपाली कांगे्रस (एमाले) के 103 जीते थे. ये तीनों नेपाल के बड़े और मजबूत सियासी दलों के रूप में सामने आए थे. प्रचंड प्रधानमंत्री तो बन गए पर अपने तानाशाही रवैये और बेतुके फैसलों के चलते प्रधानमंत्री की कुरसी पर 1 साल भी नहीं टिक पाए. 18 अगस्त, 2008 से ले कर 25 मई, 2009 तक ही वे प्रधानमंत्री रहे थे.

नेपाल के 601 सदस्यीय संविधान सभा में नेपाल के पहाड़ी क्षेत्रों के 75 जिलों में 240 सीटों के लिए चुनाव हुए हैं. 335 सदस्यों को आनुपातिक प्रणाली के जरिए चुना जाएगा और बाकी 26 सदस्यों को सरकार द्वारा नामित किया जाएगा. इतनी ही सीटों पर अप्रत्यक्ष चुनाव होंगे. इस बार संविधान सभा का कार्यकाल 2 सालों का होगा, पिछली बार यह ढाई साल का था.

चुनाव पर चीनी साया

पिछले कुछेक सालों से नेपाल पर चीन मेहरबान है और दिल खोल कर उस पर रुपया लुटा रहा है. पिछले महीने ही चीन ने 17 करोड़ रुपए की चुनावी सामग्री नेपाल को सौंप कर चुनाव पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली थी.

चीन ने करीब 17 करोड़ रुपए की चुनावी सामग्री नेपाल के चुनाव आयोग को दे कर उसे अपने एहसानों के बोझ तले दबाने की कोशिश की है. चीनी राजदूत वू चुनथाई ने पिछले 27 सितंबर को ये सारा सामान सौंपते हुए कहा था कि चीन की जनता ने नेपाल को अपना समर्थन दिया है और चीन को भरोसा है कि वह नेपाल में शांति के माहौल में चुनाव करा लेगा.

नेपाल की सरकार और वहां के चुनाव आयोग के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि अगर यही काम भारत के राजदूत करते तो क्या नेपाल सरकार और वहां के सियासी दल चुप रह जाते? इस का जवाब सीधा यह है कि हरगिज नहीं. अगर ऐसा होता तो यह होहल्ला मचता कि भारत, नेपाल के भीतरी मामलों में दखलंदाजी कर रहा है.

आधी आबादी की पूरी क्षमता

घरों में काम करने वाली सुषमा के परिवार में 5 सदस्य हैं : मांबाप, 2 बेटियां और 1 बेटा, यानी 2 पुरुष और 3 औरतें. घर के काम पांचों ही करते हैं. दोनों बेटियां मां के साथ मिल कर सुबह घर के कामकाज निबटा कर चार पैसे कमाने निकलती हैं और तब जा कर एक महानगर में किराए के मकान में रहते हुए और अपने खर्च चलाते हुए यह मुमकिन हो पाता है कि सुंदरवन के किसी गांव में रहने वाले एक परिवार को पैसा भेजा जा सके. सुषमा और उस की मां जैसी महिलाएं असंगठित यानी अनऔर्गनाइज्ड वर्कफोर्स का हिस्सा हैं. गांवों की अर्थव्यवस्था में ऐसी महिलाएं अहम भूमिका अदा करती हैं.

ये महिलाएं वर्कफोर्स का एक हिस्सा हैं,  एक बेहद उपयोगी और लाभकारी पर कम पढ़ा या अनपढ़ हिस्सा. वर्कफोर्स के दूसरे हिस्से को परिभाषित करना थोड़ा आसान है. संगठित क्षेत्र में अपनी शिक्षा और काबिलीयत के दम पर अपना परचम लहराने वाली महिलाएं भारतीय प्रशासनिक सेवा से ले कर सेना में, शिक्षा के क्षेत्र से ले कर सौफ्टवेयर इंडस्ट्री में, यहां तक कि साहित्य और कला के क्षेत्र में भी अपना नाम रौशन कर रही हैं. सेना से ले कर मैडिकल, हौस्पिटैलिटी से ले कर बैंकिंग तक में उन की भागीदारी दिखाई देने लगी है. यहां तक कि पुरुषप्रधान क्षेत्र माने जाने वाले रेलवे चालक और आटो ड्राइवरी में भी इक्कादुक्का ही सही, महिलाओं की भागीदारी के किस्से सुनने को मिल जाया करते हैं.

आंकड़े एकत्रित करने वाली एजेंसियां स्वीकार करती हैं कि कामकाजी होने के तौर पर महिलाओं की भागीदारी को अकसर वास्तविकता से बहुत कम आंका जाता है. बावजूद इस के, पिछले सालों में पेड वर्कफोर्स यानी वेतनभोगी जनबल में महिलाओं की भागीदारी तेजी से बढ़ी है.

बढ़ी है आमदनी भी

आप को जान कर हैरानी होगी कि सौफ्टवेयर इंडस्ट्री में कुल वर्कफोर्स का 30 फीसदी महिलाएं हैं और तनख्वाह, पोजिशन या सुविधाओं के लिहाज से वे अपने पुरुष सहयोगियों से पीछे नहीं हैं.

2001 में भारत में शहरी महिलाओं की औसत मासिक आमदनी साढ़े 4 हजार रुपए से कम थी, जो 2010 तक बढ़ कर दोगुनी से भी ज्यादा यानी 9,457 रुपए हो गई. महिलाओं की आमदनी में हुई इस वृद्धि का असर सीधे तौर पर परिवार की आमदनी पर पड़ा जो 10 सालों में 8,242 रुपए से बढ़ कर 16,509 रुपए हो गई. इतना ही नहीं, भारत में प्रति व्यक्ति सालाना आमदनी (पर कैपिटा इनकम) 16,688 रुपए से बढ़ कर 54,825 रुपए हो गई, यानी आमदनी में 228 फीसदी वृद्धि हुई.

आमदनी बढ़ने का असर परिवार के रहनसहन और खर्च करने की ताकत पर भी पड़ा. कृषि और कृषि से जुड़े क्षेत्रों के वर्कफोर्स का बड़ा हिस्सा महिलाएं हैं. बल्कि इस क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी तकरीबन 90 फीसदी है. वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक, खेतों में महिलाएं कुल मजदूरी की 55 फीसदी से 66 फीसदी तक की भागीदारी निभाती हैं जबकि डेयरी प्रोडक्शन में तो उन की भागीदारी 94 फीसदी है. जंगलों से जुड़े छोटे और गृह उद्योगों में 51 प्रतिशत महिलाएं कार्यरत हैं और यही बात हथकरघा उद्योग के मामले में भी लागू होती है.

बदली है हमारी भी सोच

धीरेधीरे ही सही, लेकिन वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी को न सिर्फ अहमियत दी जा रही है बल्कि तमाम मुश्किलों और चुनौतियों के बावजूद उन्हें शिक्षित होने और काम करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है. शहरीकरण और भूमंडलीकरण का नतीजा कह लीजिए कि शहरों में डबल इनकम यानी दोगुनी आय की आवश्यकता महसूस होने लगी.

20 साल पहले तक महिलाएं किसी मजबूरी की वजह से काम करने निकला करती थीं. उन के लिए काम भी तय थे, स्टैनोग्राफर, टाइपिस्ट, रिसैप्शनिस्ट या फिर टीचर. वक्त के साथसाथ नए आयाम खुले और ये सोच भी बदली. कुछ समाज बदला, कुछ समाज की जरूरतों के हिसाब से नीतियां बदलीं. मैटरनिटी लीव और बेहतर वेतन की मांग धीरेधीरे पूरी होने लगी तो महिलाओं के लिए काम करना थोड़ा आसान हुआ. हालांकि, वर्कप्लेस पर बराबरी की मांग अभी भी जोरशोर से उठाई जाती है. हम इस सफर में आगे बढ़े हैं और नए रास्ते भी खुलने लगे हैं. 

शिक्षा ने इस दिशा में बड़ी भूमिका निभाई है. 1991 में जहां मात्र 39.29 फीसदी महिलाएं साक्षर थीं वहीं 2001 में महिलाओं की साक्षरता बढ़ कर 53.67 फीसदी हो गई. 2011 में हुई जनगणना के मुताबिक अब 65.46 प्रतिशत महिलाएं साक्षर हैं और पुरुषों और महिलाओं की साक्षरता की दर के बीच के अंतर में भी गिरावट आई है.

साक्षर महिलाओं ने अपने आसपास दिखाई देने वाले काम के अवसरों का भरपूर फायदा उठाया और परिवार तथा समाज की बेहतरी में योगदान दिया. पंचायत में महिलाओं को मिलने वाले 33 फीसदी आरक्षण ने न सिर्फ गांवों और पंचायतों में उन के नेतृत्व का मार्ग प्रशस्त किया बल्कि कई पिछड़े इलाकों से महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए उठाए गए कदमों की खबरें भी आईं.

कच्छ में उजास रेडियो पर आ कर आमतौर पर दबीकुचली महिलाओं ने न सिर्फ अपनी समस्याओं के बारे में खुल कर बात की बल्कि ड्रिप इरिगेशन और बीज की बेहतर किस्मों के बारे में भी सवाल पूछे. वहीं, राष्ट्रीय राजनीति में अभी भी महिलाएं बड़ी भूमिका में नहीं आ पाई हैं. 11 फीसदी सांसद और मंत्री पदों पर मौजूद 10 फीसदी महिलाओं के कंधों पर ही सत्ता के केंद्र में जा कर आधी आबादी के प्रतिनिधित्व का दारोमदार है.

अंबानी परिवार की बड़ी बहू की छवि से बाहर निकल कर एक सफल उद्योगपति और बिजनैसवुमैन के रूप में ?खुद को स्थापित करने वाली नीता अंबानी कहती हैं, ‘‘भारतीय महिलाओं को मल्टीटास्किंग में महारत हासिल है. आप भारत के किसी परिवार में चले जाएं, वहां पत्नी, बहू, मां और कई दूसरी भूमिकाओं के अलावा कामकाजी महिला की जिम्मेदारी निभाने वाली औरतें मिल जाएंगी.’’

मैटरनिटी ब्रेक से वापस आने वाली मांओं को फिर से उन के लायक काम दिलाने के लिए बनाई गई कंपनी फ्लैक्सिमौम्स अब कई शहरों में अपना नैटवर्क बना चुकी है. इस एक कंपनी से 1 लाख से ज्यादा महिलाएं जुड़ी हुई हैं जो इस बात का पुख्ता सुबूत है कि महिलाओं को भी दोगुनी जिम्मेदारी उठाने से गुरेज नहीं.

अपने बच्चों को बड़ा करने के लिए 10 साल का ब्रेक लेने के बाद काम पर लौटीं सुरेखा जायसवाल कहती हैं, ‘‘काम तो मैं कालेज के बाद ही करने लगी थी. शादी के बाद भी घरपरिवार ने प्रोत्साहित ही किया. लेकिन बच्चों को वक्त देना चाहती थी, इसलिए ब्रेक लिया. बच्चे बड़े हो गए तो लगा कि न सिर्फ परिवार, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था में भी योगदान दिया जाए और क्यों न हो, मेरे पास काबिलीयत है, प्रतिभा है और अब वक्त भी.’’

काबिलीयत का सही उपयोग

कामकाजी महिलाएं वक्त का इस्तेमाल वाकई सही तरीके से करती हैं और इस के एवज में असंगठित वर्कफोर्स को मिलने वाले काम के रूप में समाज को दिया गया उन का योगदान अनदेखा नहीं किया जा सकता. एक बड़ी ई कौमर्स कंपनी की सीईओ अकसर कहा करती हैं, ‘‘या तो मैं घर से बाहर निकलूं और एक बड़ी कंपनी को और बड़ा बनाऊं, करोड़ों का बिजनैस करूं, अपने साथसाथ अपने 50 कर्मचारियों के बारे में सोचूं, एक कुक, एक मेड और एक ड्राइवर को नौकरी दूं व उन्हें अच्छी तनख्वाह दूं या फिर घर में रहूं, कुक, मेड और ड्राइवर का काम करूं और 12-15 हजार रुपए की बचत कर लूं. समझदारी भरा निवेश किसे कहेंगे?’’ यह दोहराने की अब आवश्यकता नहीं कि वाकई समझदारी भरा निवेश किसे कहा जाएगा.

यह निवेश परिवार की माली स्थिति को भी बेहतर बनाने में काम आया है. महिलाओं की ओर से आने वाली पूरक या अतिरिक्त आय ने शहरों में घर और संपत्ति में निवेश करने के रास्ते खोले, बच्चों को बेहतर स्कूलों में भेजा गया और जरूरतें पूरी होने के बाद शौक को पूरा करने में भी कोताही नहीं बरती गई.

द ग्रेट इंडियन मिडल क्लास के उठान के पीछे महिलाओं की ओर से आने वाली अतिरिक्त आय ने एक बड़ी भूमिका निभाई. प्रकाश मुंबई में एक बड़ी कंपनी में ऊंचे पद पर कार्यरत हैं. एक बेटा है और ऐसी कोई जिम्मेदारी नहीं जो उन की आमदनी से पूरी नहीं हो सकती. बावजूद इस के, प्रकाश अपनी पत्नी रितिका को काम करने के लिए प्रोत्साहित करते रहे.

घर में बैठी रितिका देश को क्या दे रही है, यह उन की पहली दलील थी. रितिका ने कमाना शुरू किया तो दोनों ने मिल कर और बड़ा घर ले लिया, मांबाप के बुढ़ापे के लिए पैसे भिजवाए और परिवार के सदस्यों की मदद की. इतना ही नहीं, अपने पैंशन प्लान और बुढ़ापे के लिए बेहतर तरीके से निवेश किया.

प्रकाश कहते हैं, ‘‘ऐसे देख लो न कि जो रितिका पिछले साल तक कोई टैक्स नहीं अदा कर रही थी, बाहर जाने से भी कतराती थी, मेड नहीं रखना चाहती थी, खर्च नहीं करना चाहती थी, वही रितिका अब डेढ़ लाख रुपए टैक्स दे रही है. हमारे परिवार की खर्च करने की क्षमता बढ़ी है. हम ने 2 और लोगों को काम पर रखा है. आखिर ये सब कहां जा रहा है? कहीं न कहीं उस का कमाया हुआ पैसा देश की उन्नति में काम तो दे ही रहा है.’’  

एक पीढ़ी पहले तक इन्हीं मध्यवर्गीय परिवारों में महिलाओं के लिए काम तय थे. आमतौर पर घर के सारे काम महिलाएं खुद निबटाया करती थीं. कपड़े धोने से ले कर गेहूं की सफाई और कुटाईपिसाई, कपड़े सिलने और स्वेटर बनाने तक के कामों में इस कदर उलझी होती थीं कि उस से परे कुछ सोचतीं भी तो रसोई राजनीति के बारे में सोचतीं. सुविधाएं बढ़ी हैं, परिवार छोटे होने लगे हैं और सुविधाओं के साथसाथ महिलाओं को अब वक्त मिलने लगा है तो जरूरी है कि उन की रचनात्मकता का बेहतर इस्तेमाल हो.

घर की चारदीवारी से बाहर निकल कर कुछ भी रचनात्मक करने से न सिर्फ उन की और परिवार की स्थिति में सुधार होगा बल्कि देश और समाज पर उस का स्पष्ट असर दिखाई देगा. अधिक से अधिक महिलाएं नीतिनिर्माण और नेतृत्व की दिशा में शामिल हो पाएंगी और समाज में बराबरी का उन का सपना मुमकिन हो पाएगा.

खुद को बचाए रखने और बेहतर उपयोग में आने की समझ ने भी कई महिलाओं को न सिर्फ अपने बल्कि अपने देशों के लिए भी उन्नति के मार्ग प्रशस्त किए हैं. कई विकसित देश इस की मिसाल हैं.

उदाहरण के लिए, अमेरिका में महिलाओं की कुल खरीद शक्ति (परचेजिंग पावर) 3.3 ट्रिलियन डौलर यानी 176 खरब रुपए है. निवेश के मामले में भी वहां की महिलाएं पीछे नहीं. तकरीबन आधे स्टौक्स में महिलाएं ही निवेश करती हैं. अमेरिका के कुल

35 प्रतिशत बिजनैस की मालकिन भी महिलाएं ही हैं. उन्होंने 2.7 करोड़ से ज्यादा लोगों को नौकरियां भी दे रखी हैं. अतिशयोक्ति न होगी अगर हम कहें कि अमेरिका को सुपरपावर बनाने में वहां की महिलाओं का बड़ा हाथ है.

शिक्षा और हुनर बड़े हथियार

भारत जैसे देश में सोच में आया यह बदलाव सालों की जद्दोजेहद का नतीजा है. सालों पहले सावित्री बाई फुले और ज्योतिबा फुले, सरला राय और आर एस सुब्बालक्ष्मी ने भारत में महिलाओं की शिक्षा के लिए जो मुहिम चलाई उस की सफलता अब सामने आ रही है. उन की कोशिशों का असर है कि हम उस समाज के नागरिक हैं जहां बेटियों पर भी वक्त और पैसे का निवेश किया जा रहा है. हालांकि महिलाओं के वर्कफोर्स का सक्रिय हिस्सा होने के लिहाज से अभी भी हमें एक लंबा सफर तय करना है.

10-15 साल पहले तक यह चलन आम था कि बेटों को बड़े और महंगे स्कूलों में पढ़ाया जाए और बेटियों को किसी तरह ग्रेजुएशन करा दी जाए. पढ़ाई इतनी ही कराई जाती थी कि उन की भले घरों के लड़कों के साथ शादी हो जाए. अब यह चलन भी बदला है. लड़कों और लड़कों के घर वालों की ओर से पढ़ीलिखी और कामकाजी लड़कियों की मांग होना अब नई बात नहीं.

आईआईटी से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर चुके बेटे के लिए रिश्ता खोजने निकलीं जमशेदपुर की नीलम देवी कहती हैं, ‘‘वह जमाना गया जब आईआईटी के लड़कों के लिए मोटा दहेज ले कर लोग सुंदर सी लड़की ले आते थे. हमें तो पढ़ीलिखी लड़की चाहिए, जो देशविदेश में बेटे के साथ रह सके. बेटे के सपने को साझा करे और जरूरत पड़ने पर उस के काम में हाथ बंटाए. पैसाकौड़ी सबकुछ थोड़े होता है, गुण और विद्या सब से बढ़ कर है.’’

विद्या दी गई तो गुण भी निखरे. 10वीं और 12वीं के नतीजे प्रमाण हैं कि लड़कियों ने साल दर साल अपनी मेहनत और लगन से न सिर्फ लड़कों की बराबरी की बल्कि उन्हें पछाड़ा भी. देशभर में कालेजों और विश्वविद्यालयों के इम्तिहानों में भी लड़कियों ने बेहतर प्रदर्शन किए. और तो और यूपीएससी के नतीजों व स्कूली शिक्षा से ले कर ऐंट्रैंस एग्जाम्स और देश की सर्वाधिक प्रतियोगी परीक्षा में भी सफलता हासिल करने की काबिलीयत उन में है.

सरकारी सेवा हो या प्राइवेट नौकरियां, अपनी लगन और मेहनत से तमाम लिंग भेद के बावजूद महिलाओं ने धीरेधीरे अपने लिए जगह बनाई. भारतीय राजस्व सेवा की अधिकारी रही एफ मेन बताती हैं, ‘‘आमतौर पर महिलाओं को फाइनैंस में निपुण नहीं माना जाता. उन्हें अच्छा ऐडमिनिस्ट्रेटर माना जाता है, अच्छा मैनेजर भी, लेकिन आंकड़े और रुपएपैसों का खेल उन्हें समझ में आएगा, इस पर कई बार सवाल उठाए जाते हैं. लेकिन कई महिला अफसरों ने यहां भी अपनी काबिलीयत साबित की है. और तो और, महिला अफसरों ने कई ऐसे मामलों में कड़े कदम उठाए हैं जो सालों से फाइलों की धूल खा रहे थे. महिला अफसर आमतौर पर सच्ची और ईमानदार होती हैं.

गौरतलब है कि महिलाओं की स्थिति को ले कर अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका ‘न्यूजवीक’ ने 2011 में 165 देशों का सर्वे कराया. महिलाओं के सशक्तीकरण की स्थिति को ले कर भारत पड़ोसी देशों नेपाल, बंगलादेश और श्रीलंका से भी पीछे 141वें स्थान पर था. भारत वैश्विक ताकत बनने की राह पर है लेकिन इतनी तरक्की और समाज में आए इतने बदलावों के बावजूद ऐसा भी नहीं कि हम ने ऐसा माहौल तैयार करने में सफलता हासिल कर ली है जहां महिलाएं पूरी तरह से सशक्त हों.

महिलाओं के सशक्तीकरण की राह उन के आर्थिक स्वावलंबन से खुलती है, लेकिन हम अब भी ऐसे माहौल के निर्माण के लिए संघर्षरत हैं जहां कार्यक्षेत्र में पुरुष और महिलाओं को बराबर की हिस्सेदारी मिलती हो. गांवों में महिलाओं की स्थिति तो शोचनीय है ही. वे घरों और खेतों में काम करना अपनी जिम्मेदारी समझती हैं और कई बार सही मजदूरी की मांग भी नहीं करतीं. वहीं, शहरों में, यहां तक कि बड़े दफ्तरों में महिलाओं के लिए एक हितकर माहौल तैयार हो सका है, ऐसा भी नहीं है.

महिलाओं के काम करने के लिहाज से भारत को दुनिया का चौथा सब से खतरनाक देश बताया गया है. कार्यक्षेत्र में यौन उत्पीड़न और शोषण जैसी समस्याएं भी महिलाओं के लिए अवरोधक बनती हैं. ऊपर से देर तक काम करने वाली महिलाओं की सुरक्षा को ले कर खुद प्रशासन ऊटपटांग सवाल उठाया करता है. इन सारी चुनौतियों के बावजूद महिलाओं ने हार नहीं मानी और घर व बाहर, दोनों मोरचों को बखूबी संभाला है.

इम्तहां अभी और हैं

जिन राज्यों की आर्थिक स्थिति बेहतर है वहां महिलाओं की कार्यक्षेत्र में भागीदारी भी कम है. जनगणना रिपोर्ट के मुताबिक, पंजाब में मात्र 4.7 फीसदी महिलाएं घर के बाहर काम करती हैं जबकि हरियाणा में 3.6 फीसदी. जिस दिल्ली को आमतौर पर महिलाओं के काम करने के लिए बाहर निकलने की सब से असुरक्षित जगह माना जाता है वहां मात्र 4.3 फीसदी महिलाएं काम कर रही हैं. उत्तर प्रदेश में 5.4 फीसदी जबकि बिहार में 16.3 फीसदी और ओडिशा में 26 फीसदी महिलाएं घर के बाहर नौकरी करने या काम करने के लिए जाती हैं. इस में एक तथ्य जो गौर करने लायक है कि दक्षिण के राज्यों में जहां साक्षरता का प्रतिशत ज्यादा है वहां पर राज्यों की आर्थिक स्थिति अच्छी होने के बावजूद महिलाएं घर के बाहर काम या नौकरी के लिए जाती हैं. तमिलनाडु में यह 39 फीसदी है जबकि आंध्र प्रदेश में 30.5 फीसदी और कर्नाटक में 23.7 फीसदी है.

वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी के लिहाज से भारत दुनिया के सब से पिछड़े देशों में से एक है. जूनियर, मिडिल और सीनियर, तीनों स्तरों पर भारत में महिलाओं के लिए बहुत जगह बनाए जाने की गुंजाइश है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में जूनियर से मिडिल लैवल की पोजिशन तक जातेजाते 48.07 फीसदी महिलाएं काम छोड़ देती हैं. जबकि मिडिल लैवल से सीनियर लैवल तक जातेजाते 29 फीसदी महिलाएं काम छोड़ देती हैं. कौर्पोरेट जगत में सिर्फ 6 फीसदी महिलाएं ही बोर्ड में शामिल हैं.

अधिकांश महिलाएं दफ्तर में बढ़ती जिम्मेदारियों के साथ काम का बोझ नहीं संभाल पातीं और नौकरी छोड़ देती हैं या अपने कैरियर को ले कर पुरुष की तरह गंभीर नहीं होना चाहतीं. ऐसे में बदलाव के लिए परिवार और समाज के स्तर पर बदलाव लाने होंगे, जहां कामकाजी महिला को सहयोग के लिए कारगर सपोर्ट सिस्टम तैयार किया जा सके और महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण के रास्ते प्रशस्त किए जा सकें.

उम्मीद फिर भी है कि परिवार, समाज और देश को अपनी अर्थव्यवस्था की बेहतरी में महिलाओं के योगदान की कीमत समझ में आएगी और उस के लिए शायद पैमाने भी मुकर्रर हो जाएं. लेकिन महिलाओं को भी अपनी सोच में बदलाव लाना होगा और यह समझना होगा कि सितारों की जगह सिर्फ उन के आंचल में ही नहीं, आसमान में भी है, जिन्हें छू कर आने की काबिलीयत उन में है.

नेल्सन मंडेला का जाना

नेल्सन मंडेला के देहांत के साथ दुनिया से शांतिपूर्वक तरीके से सत्ता बदलवाने वाला नेता विदा हो गया. दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की नीति के खिलाफ अगस्त 1962 से फरवरी 1990 तक जेल में बंद रहने वाले नेल्सन मंडेला ने दक्षिण अफ्रीका को गोरों के राज से तो निकाला ही, दुनियाभर के दबेकुचलों को एक नया रास्ता भी दिखाया.

नेल्सन मंडेला साधारण से घर में पैदा हुए पर उन्होंने असाधारण यातनाएं सहीं और न झुकते हुए गोरों को दक्षिण अफ्रीका का शासन छोड़ने को मजबूर कर दिया. महात्मा गांधी के अनुयायी नेल्सन मंडेला ने गोरों से तो मुक्ति दिला दी पर ठीक गांधी की तरह अपने देश को सही शासन न दिलवा पाए. वे कुछ साल दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति रहे पर वर्ष 1999 में उन के राजनीति से संन्यास लेने के बाद दक्षिण अफ्रीका आज तक अस्थिर सा है.

एक शिखर व्यक्तित्व जरूरी नहीं है कि देश की पूरी जनता और भावी प्रबंधकों में वही त्याग व वही सिद्धांतवादी नीति की विरासत छोड़ जाए. अहिंसा के पैरोकार महात्मा गांधी को खुद 1947 में विभाजन की हिंसा से रूबरू होना पड़ा. भ्रष्टाचार, बेईमानी, कूटनीति और परोक्ष रंगभेद से भरे दक्षिण अफ्रीका में खुद नेल्सन मंडेला को जीवन के अंतिम वर्ष गुजारने पड़े. हां, दक्षिण अफ्रीका बाकी अफ्रीका के मुकाबले स्थिर है और उसे भयंकर गृहयुद्ध का सामना नहीं करना पड़ा.

व्यक्तिगत जीवन में पत्नियों से विमुखता और 1 बेटे की एड्स से मृत्यु ने नेल्सन मंडेला के आभामंडल पर असर डाला. नेल्सन मंडेला अपनी तरह के अंतिम नेता माने जाएंगे जिन्होंने अपना तकरीबन पूरा जीवन संघर्ष में बिताया. आज दुनियाभर में जो राज कर रहे हैं वे सब राजनीति की नाजायज संतानें कही जा सकती हैं. कोई भी जनता की सेवा करते हुए सर्वोच्च पद पर नहीं पहुंचा. नेल्सन मंडेला के साथ एक विशिष्ट पीढ़ी समाप्त हो गई है.

हिंदी बनाम अंगरेजी

साल 2013 में समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने अंगरेजी की आलोचना कर अंगरेजी समाचारपत्रों और अंगरेजी लेखकों को उकसा दिया है. अंगरेजी भक्तों के लिए मुलायम सिंह के अंगरेजी के खिलाफ बोले गए चंद शब्द ऐसे हैं जैसे भजभज मंडली के लिए राम और कृष्ण की पोल खोलते रामायण व महाभारत से लिए गए अंश. दोनों को भारतीय दंड विधान की 295 ए धारा ऐसे ही मौकों पर याद आती है.

मूलतया दोनों तरह के लोगों का छिपा कारण एक ही है. धर्म और अंगरेजी के सहारे इस देश पर एक वर्ग विशेष बिना ज्यादा प्रतिस्पर्धा के राज करने में सफल हो रहा है. जैसे हर मंदिर के पास मानो यह अधिकार है कि वह आसपास की हजारों एकड़ जमीन पर अपना हक जमा ले, वैसे ही अंगरेजी के ज्ञान का देश की जनता के पैसे, मेहनत, प्रभाव पर एकाधिकार जमाने का मानो पूरा हक है.

अंगरेजी मोटी कमाई का जरिया है तो अंगरेजी जानने वालों के लिए, काम करने वालों के लिए नहीं. अंगरेजी में माहिर लोग दूसरों को बेवकूफ बनाते हैं. वे पंडों, मौलवियों, पादरियों की तरह ठगने में बेहद सफल हैं.

भारतीय संविधान की धारा 343 (1) की खुली अवहेलना कर के सरकार ने अपनी भाषा आज भी अंगरेजी रखी है ताकि आम आदमी सरकार की भाषा समझ न सके. आज भी आप को सरकार से कोई आवेदन करना है तो अंगरेजी जानना जरूरी है. और इस के लिए बिचौलियों की जरूरत पड़ती है जो पंडों की तरह काम करते हैं.

संस्कृत, अरबी या लैटिन में गिटपिट करने वाले धर्म के दुकानदारों की तरह अंगरेजी में गिटपिट करने वाले अधिकारी, व्यापारी, प्रोफेसर, विचारक, लेखक कम परिश्रम कर अरबों कमा रहे हैं. नेता भी अफसरों की सुनते हैं क्योंकि नेताओं का अंगरेजी ज्ञान सीमित है. वे अंगरेजी वालों को खुश करने के लिए अंगरेजी समाचारपत्रों को बड़ेबड़े विज्ञापन देते हैं, अंगरेजी लेखकों को विदेश यात्राओं पर भेजते हैं.

इतना ही नहीं, वे अंगरेजी जानने वालों को कृषि, समाजसुधार, महिला अधिकारों के जैसे विभाग तक सौंपते हैं जहां सारी मूल बातें हिंदी या भारतीय भाषाओं में होती हैं.

अंगरेजी का ज्ञान अंगरेजी वालों को कितना है, यह कोई भी किसी अंगरेजी अखबार की वैबसाइट पर पाठकों की प्रतिक्रियाएं पढ़ कर समझ सकता है जिन में अधकचरी अंगरेजी और गालियों से भरी भाषा ही होती है.

दूसरी, तीसरी, चौथी भाषा का ज्ञान अच्छा है पर मौलिक चिंतन अपनी भाषा में ही हो सकता है. जब मनोरंजन यानी गानों व फिल्मों की भाषा हिंदी (या भारतीय भाषाएं) है तो अंगरेजी स्कूलों को मुफ्त की जमीनें, विश्वविद्यालयों को भारी अनुदान, अंगरेजी मीडिया को विज्ञापन की भारी भीख, नौकरियों में अंगरेजी का महत्त्व क्यों?

मुलायम सिंह यादव में लाख कमियां हों, इस मामले में उन्होंने सही कहा पर अफसोस, हिंदी वालों ने उन के सुर में सुर मिला कर वह बात नहीं दोहराई. शायद इस डर से कि जैसे धर्म की पोल खोलने पर संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘…राम-लीला’ बंद हो सकती है तो उन का दानापानी भी कहीं बंद न हो जाए.

‘आप’ एक ब्रांड

कांगे्रस की मध्य प्रदेश, राजस्थान और दिल्ली में जो बुरी गत बनी है उस से सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या उस का मार्क्सवादी कम्युनिस्टों का सा हाल होने वाला है जिस के नेता तो दिखते हैं पर समर्थक नहीं. कांगे्रस को इन तीनों राज्यों में अभी काफी मत मिले हैं पर चूंकि सीटें नहीं मिली हैं इसलिए कांगे्रसी नेता पार्टी छोड़ कर जा सकते हैं.

राजनेता किसी सेवा और जनता की समस्याएं दूर करने के ध्येय से कांग्रेस में नहीं आते. भारतीय जनता पार्टी तो फिर भी धर्म समर्थकों को धकेल लेती है जो हिंदू संस्कृति के नाम पर काम करने को तैयार रहते हैं, कांगे्रसी नेताओं को तो सिवा पावर व पैसा ही चाहिए होता है. कांगे्रस का पतन देख कर वे कब भाग जाएं, कहा नहीं जा सकता. इस तरह के लोग आमतौर पर समुद्री जहाज के चूहे होते हैं जो डूबते जहाज को छोड़ भाग खड़े होते हैं.

कठिनाई यह है कि भारतीय जनता पार्टी की शानदार जीत के बावजूद उस की असली ताकत बनना अभी भी सवाल खड़ा करता है. हां, अब क्षेत्रीय दलों का रुख बदलेगा क्योंकि उन्हें अब कांगे्रस से कोई आशा नहीं बची है. वे नरेंद्र मोदी को केंद्रीय सरकार बनाने में सहयोग देने में अब पहले से ज्यादा सक्रिय होंगे. अब तक क्षेत्रीय दल धर्म, जाति के कारण डरे रहते थे पर अब वे कांग्रेस का विरोध कर के सत्ता में रहना पसंद करेेंगे, चाहे कोई भी राज करे.

अगर कोई चीज आड़े आएगी तो वह आम आदमी पार्टी है. इस में कांगे्रसियों का हुजूम घुस सकता है और सारे देश में उस के खाली स्थानों को भर सकता है. आज ‘आप’ ब्रांड बहुत मजबूत है और ‘कोकाकोला की बौटल कहीं भी भरी जाए. रहती कोकाकोला ही है’ की तरह आप का लेबल कहीं भी किसी पर चिपका दो, वह सुधरा हुआ भ्रष्टाचार- विरोधी नेता माना जाएगा.

वर्ष 2004 में कांगे्रस की वापसी सोनिया गांधी की न आजमाई हुई छवि के कारण हुई थी. राहुल गांधी को यह लाभ न मिलेगा क्योंकि उन पर असफल, हारे नेता का बिल्ला लग चुका है. जनमानस में जिस तरह उन का मजाक उड़ाया जाता है, वह साबित करता है कि कांगे्रस को बचाने के लिए उन का हाथ काम न आएगा.

पर इस से पहले जरूरी है कि भारतीय जनता पार्टी का उत्साह चुक जाए, उस के आसार नहीं हैं. वर्ष 2004 में जनता अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण अडवाणी का द्वंद्व और 2002 के गुजरात के दंगों में अटल बिहारी वाजपेयी का ढुलमुलपन देख चुकी थी. जनता अब उसे वोट देती है जिस से कुछ उम्मीद हो. कटेफटे नोटों को आमतौर पर फेंक दिया जाता है. ऐसे में कांगे्रस की नोट छापने की प्रैस कोई नया सिक्का जारी करे तो देखा जाएगा.

 

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