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राजनीति का जातीय गणित

विकास और बदलाव के तमाम दावों के बीच देश में चुनावी नतीजे जातीय आंकड़ों पर टिक जाते हैं. चुनाव में जाति का गणित सिर्फ दलित या पिछड़े वर्ग तक सीमित नहीं है बल्कि ऊंची जातियां भी ब्राह्मण, ठाकुर और वैश्य के खांचे में बंटी हैं. वहीं, मुसलिम भी कई जातियों में बंटे हुए हैं. ये तमाम जातियां चुनावी समर में हारजीत का जातीय आधार कैसे तैयार करती हैं, पड़ताल कर रहे हैं शैलेंद्र सिंह.
मोहनलालगंज लोकसभा सीट सुरक्षित सीट है. यहां केवल दलित वर्ग के नेता ही चुनाव लड़ते हैं. यह उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से सटी हुई सीट है. लखनऊ का विस्तार होने से शहरीकरण का असर इस इलाके में भी दिखता है. चुनाव प्रचार के दौरान इस लोकसभा क्षेत्र के नगराम, समेसी, हरौनी, गोसांईगंज जैसे गांव और कसबों को करीब से देखने का मौका मिला. लगातार दलित बिरादरी के सांसद बनने के बाद भी इस लोकसभा क्षेत्र में रहने वाली दलित बिरादरी की हालत काफी खराब और उपेक्षित ही है.  
गांव में सड़कें और पक्के खड़ंजे वाले रास्ते बन जाने से बदलाव दिखता है. लेकिन जब इस बदलाव को महसूस करने की कोशिश की जाती है तो सच सामने आ जाता है. नगराम और गोसांईगंज जाने वाली सड़क पर समेसी गांव पड़ता है. यहां ओबीसी और दलित जातियों के लोग सब से अधिक संख्या में रहते हैं. इन ओबीसी जातियों के लोग आर्थिक दृष्टि से मजबूत स्थिति में नहीं हैं. बहुत सारे परिवार दलित परिवारों जैसी हालत में ही रहते हैं. इस के बावजूद ओबीसी वालों और दलितों के बीच सामाजिक रूप से वही दूरी है जो दलितों और सवर्णों के बीच है. यही कारण है कि यहां की लोकसभा की सीट और विधानसभा की सीटों पर ज्यादातर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवार ही जीतते रहे हैं.
यहां से सपा के टिकट पर 2 बार लोकसभा सीट जीतने वाली रीना चौधरी कहती हैं, ‘‘वोट पूरी तरह से जातीय समीकरणों को देख कर दिए जाते हैं. समाजवादी पार्टी को पिछडे़ वर्ग के वोट मिलते हैं, ऐसे में दलित प्रत्याशी खडे़ होने का उस को लाभ मिलता है. यहां अभी भी छुआछूत की बुरी बीमारी मौजूद है. बात करने पर भले ही यहां लोग इस बात से इनकार करें पर आपस में ये लोग भेदभाव करते हैं. यह भेदभाव केवल दलित और पिछड़ों में ही नहीं है, दलितों की अलगअलग बिरादरियों के बीच भी ऐसी दूरी बनी हुई है.’’ 
मन में भेदभाव कायम
लखनऊ-रायबरेली राजमार्ग से 6 किलो- मीटर दूर समेसी में रहने वाले रैदास बिरादरी के गजेंद्र कहते हैं, ‘‘अभी भी लोगों के मन में भेदभाव कायम है. किसी भी सामाजिक आयोजन में ऐसे भेदभाव को महसूस किया जा सकता है. जो लोग सत्ता के साथ आगे बढ़ गए हैं उन को ऐसे हालात का सामना नहीं करना पड़ता है, पर सामान्य दलित के साथ भेदभाव कायम है. अभी भी अगर हम किसी सवर्ण के यहां जाते हैं तो हमें खानेपीने के लिए अलग बरतन दिए जाते हैं और बरतन हमें खुद ही धोने पड़ते हैं.’’ 
समेसी से 7 किलोमीटर आगे बढ़ने पर नगराम कसबा आता है. यहां मुसलिम बिरादरी की संख्या ज्यादा है. दलित और पिछड़ी बिरादरी के लोग भी काफी संख्या में यहां रहते हैं. दलितों के बीच आपस में छुआछूत क्यों है? इस बारे में पासी बिरादरी के रामकेवल कहते हैं, ‘‘रैदास बिरादरी के लोगों से छुआछूत का व्यवहार होता है. इस की अपनी वजह है. ये लोग मरे जानवर उठाने का काम करते थे. इस के अलावा जिस बिरादरी के लोग मांसाहार हैं उन के साथ भी छुआछूत का व्यवहार होता है. सामान्यतौर पर बाजार में छुआछूत नहीं दिखती पर जब कोई निजी आयोजन होता है तो यह भेदभाव साफतौर पर देखा जाता है.’’ रामकेवल अनाज की खरीदफरोख्त करते हैं. वे आगे कहते हैं, ‘‘जमीनी स्तर पर जो भेदभाव बना हुआ है उस का असर चुनाव में भी साफ दिखता है.’’
नगराम से 12 किलोमीटर दूर गोसांईगंज के रहने वाले रामाधार चौधरी खेती करते हैं. वे कहते हैं, ‘‘शहर और कसबों में रहने वाले सामाजिक समानता की बात करते हैं, पर जब वोट देने का नंबर आता है तो उन की सोच पूरी तरह से जातिवादी हो जाती है. पिछले कुछ सालों से दलित और पिछडे़ भी अगड़ी जातियों की तरह पूजापाठ, व्रत, उपवास करने लगे हैं. उन को लगता था कि हो सकता है कि इस तरह से वे भी अगडे़ हो जाएं पर यह भेदभाव वहां कायम है. दलित के घर का प्रसाद भगवान के भय से कई लोग ले तो लेते हैं पर बाद में उसे किसी जानवर या पक्षी को खिला देते हैं. कानूनी दांवपेंच के  डर से छुआछूत भले ही न होती हो पर निजी जीवन में अभी भी इस का पूरा असर कायम है.’’
सपा नेता रीना चौधरी कहती हैं, ‘‘चुनाव में जीत का आधार पूरी तरह से जातीयता तय करती है. मजेदार बात यह है कि जितना इस को खत्म करने का प्रयास किया जाता है, यह भावना उतनी ही बढ़ती जा रही है. केवल दलित और पिछडे़ ही नहीं ऊंची जातियां भी ठाकुर, ब्राह्मण और वैश्य बिरादरी में बंटी हुई हैं. यही कारण है कि बसपा ने सोशल इंजीनियरिंग की बात की. दलित की अगुआई करने वाली इस पार्टी ने सोशल इंजीनियरिंग के बहाने ऊंची जातियों के वोटबैंक का लाभ उठाने की कोशिश की. धर्म के बाद आज भी सब से पहले लोगों को जाति का खयाल आता है.’’
जातीय विचारधारा
आजादी के कुछ समय बाद ही यह महसूस होने लगा था कि जातिवाद इस देश का बड़ा नुकसान करेगा. इसलिए जाति का विरोध शुरू हो गया. दलित बिरादरी के लिए डा. भीमराव अंबेडकर ने जिस तरह से आंदोलन चलाया उसी तरह से सोशलिस्ट पार्टी ने पिछड़ों की आवाज उठाई. सोशलिस्ट पार्टी के विचारक 
डा. राममनोहर लोहिया ने नारा दिया था ‘सोशलिस्टों ने बांधी गांठ, पिछडे़ पावें सौ में साठ’. यहीं से आगे समाजवादी विचारधारा का जन्म हुआ. 
राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण ने जो मुहिम चलाई वह कुछ दिनों में ही कांग्रेस विरोध की राजनीति में बदल गई. खासतौर पर यह विरोध कांग्रेसी नेता इंदिरा गांधी के खिलाफ रहा. 1975 में इमरजैंसी के दौरान इस गठजोड़ का असर दिखा. इंदिरा गांधी सत्ता से बाहर हो गईं. सामाजिक और जातीय आंदोलन करने वाली सोशलिस्ट पार्टी राजनीतिक बदलाव की हिमायती हो गई. 
जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया ने भले ही राजनीति से दूरीबनाए रखी पर उन के अनुयायी जातीयता खत्म करने के बजाय उस का हिस्सा बन गए. बिहार में लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और अजित सिंह ने जाति के बंधन को तोड़ने का सामाजिक काम नहीं किया. उन को वोटबैंक की राजनीति रास आने लगी. वे टिकट बंटवारे से ले कर मंत्री बनाने और सरकारी नौकरी में ट्रांसफर से ले कर पोस्ंिटग तक में जातीयता का खयाल करने लगे.  
सामाजिक चिंतक हनुमान सिंह ‘सुधाकर’ कहते हैं, ‘‘जाति के विरोध में जो विचारधारा बनाई गई, समय के साथ वह वोटबैंक में बदल गई और यह वोटबैंक नई जातीय विचारधारा बन गई. पिछडे़ ही नहीं, दलितों के साथ भी ऐसा ही हुआ. मायावती के मुख्यमंत्री बनने के बाद दलितों के विकास के लिए कोई काम नहीं हुआ. मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग की बात कर के दलितों को एक नए ब्राह्मणवादी समाज का हिस्सा बना दिया. यहां सामाजिक रूप से न सही पर आर्थिक रूप से वैसा ही भेदभाव होने लगा जैसा पहले होता था.’’
अखिल भारतीय पासी समाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामलखन पासी कहते हैं, ‘‘बसपा ने दलित आंदोलन का लाभ तो लिया पर सत्ता में आने के बाद इस आंदोलन के मुद्दे को आगे नहीं बढ़ाया, जिस की वजह से उत्तर प्रदेश से बाहर बसपा का विस्तार नहीं हो सका. अब बसपा में भी जाति विभाजन होने लगा है. कुछ उपजातियां पार्टी से अलग अपना भविष्य देखने लगी हैं.’’
विकास की बात व जाति का साथ
16वीं लोक सभा चुनाव के पहले हर दल विकास, कुशासन, भ्रष्टाचार, काला धन, सड़क और पानी पर चुनाव लड़ने जैसी बड़ीबड़ी बातें कर रहा था. चुनावी प्रक्रिया शुरू होते ही नेता जातिरूपी बातें करने लगे. नेताओं की इन्हीं बड़ीबड़ी बातों का प्रतिफल है कि आजादी के 67 साल बाद भी जाति की जकड़न समाज को छोड़ने को तैयार नहीं है. नरेंद्र मोदी की पिछड़ी जाति को प्रचारित किया जाता है. देश में वोट देने वाले लोगों को पहली बार पता चलता है कि नरेंद्र मोदी पिछड़ी बिरादरी के हैं.  
जाति का प्रभाव राजनीति की दशा और दिशा दोनों तय करता है, यह हमेशा से होता आया है. उत्तर प्रदेश में मायावती ने जिस सोशल इंजीनियरिंग की बात साल 2007 में की थी, तमिलनाडु में 60 के दशक में गैर ब्राह्मण फार्मूले के रूप में इस का प्रयोग किया गया था. कम्युनिस्टों के प्रभाव वाले राज्यों में भी जाति का प्रभाव दिखता रहा है. हरियाणा में बनी 20 सरकारों में 13 मुख्यमंत्री जाट बिरादरी के बने क्योंकि वहां जाट बिरादरी के लोगों की तादाद ज्यादा है.  
लहर नहीं जातीयता पर भरोसा  
नरेंद्र मोदी दूसरे उम्मीदवारों को यह बता रहे थे कि देश में उन के नाम की लहर है. लेकिन जब वे खुद उत्तर प्रदेश के वाराणसी से लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला करते हैं तो जातीय समीकरण ठीक करने लगते हैं. वाराणसीलोकसभा क्षेत्र में करीब 16 लाख मतदाता हैं. यहां पर ब्राह्मण 2 लाख 50 हजार, मुसलिम 3 लाख, भूमिहार 2 लाख, बनिया 2 लाख, पटेल व कुरमी 2 लाख, दलित 2 लाख व बाकी अन्य जातियां हैं. पटेल, कुरमी और पिछड़ी जातियों के वोट अपने साथ जोड़ने के लिए नरेंद्र मोदी की पहल पर भाजपा को अपना दल की नेता अनुप्रिया पटेल से समझौता करना पड़ा. नरेद्र मोदी को अपनी लहर पर यकीन नहीं था इस कारण उन्होंने अनुप्रिया पटेल की शर्तों पर समझौता किया.  
भाजपा को चिंता थी कि अगर अपना दल से समझौता नहीं हुआ तो नरेंद्र मोदी को वाराणसी मेंजीतना मुश्किल हो जाएगा.  बिहार में जातीय समीकरण सुधारने के लिए भाजपा ने नरेंद्र मोदी का विरोध कर एनडीए छोड़ने वाले लोक जनशक्ति पार्टी के नेता रामविलास पासवान को अपना सहयोगी दल बना लिया. दिल्ली में भी भाजपा का सदा विरोध करने वाले इंडियन जस्टिस पार्टी के उदित राज को साथ लेना पड़ा. 

बिहार का जातीय गणित
बिहार में जातीय गणित काफी उलझा हुआ है. यादव और मुसलिम बिरादरी का एक समूह है जिसे एमवाई समीकरण के नाम से जाना जाता है. दूसरा समूह यादव, मुसलिम और अति पिछड़ी जातियों वाला है. इस के अलावा दलित, मुसलिम जातियों का भी एक समूह है. इन समूहों पर लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान का असर है. पहले पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों के दोनों हिस्सों पर लालू प्रसाद यादव का प्रभाव था. नीतीश कुमार के आने से लालू का गणित गड़बड़ा गया और वे सत्ता से बाहर हो गए. नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री बनने के लिए सुशासन की  बातें तो बहुत कीं पर बाद में वे भी जातीय गणित में ही उलझ कर रह गए. 
बिहार में हर पार्टी दलित और पिछड़ी जातियों के साथ मुसलिमों को भी अपने खेमे में लेना चाहती है. ऐसे में जातीयता के साथ ही साथ वोटों के धार्मिक ध्रुवीकरण का भी पूरा खयाल रखा जाता है. नीतीश कुमार ने अतिपिछड़ी जातियों को गोलबंद करने के लिए पंचायतों में अतिपिछड़ों को 20 फीसदी का आरक्षण दिया. उन्होंने अतिपिछड़ा वर्ग आयोग बना कर 100 से अधिक अतिपिछड़ी जातियों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने की पहल की. नीतीश का अतिपिछड़ा मोह यों ही नहीं है. बिहार में अतिपिछड़ी जातियों का वोटबैंक सब से बड़ा है. मुसलिमों में ऐसे लोगों के लिए पसमांदा समाज और दलितों में ऐसे लोगों के लिए महादलित कैटेगरी को बनाया गया. 
बिहार में वोट हासिल करने के लिए बिरादरी की राजनीति करनी मजबूरी होती है. लोकसभा चुनावों में टिकट बांटने से ले कर वोट पाने के लिए भाषणों तक में बिरादरी के स्वाभिमान और सम्मान का हवाला दिया गया. बिहार के समीकरण देश की राजनीति की दिशा तय करने का काम करेंगे. जो स्थान कभी उत्तर प्रदेश में मुलायम और मायावती का था वह इस लोकसभा चुनाव के बाद बिहार में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव का होने वाला है. केंद्र की राजनीति में इन का कद इसलिए बड़ा है क्योंकि बिहार में जातीयता दूसरों के मुकाबले कहीं ज्यादा मजबूत शक्ल में है.
दूसरे राज्यों में फैली बीमारी
उत्तर प्रदेश और बिहार की इस जातीय बीमारी ने मध्य प्रदेश, हरियाणा और तमिलनाडु तक को अपनी चपेट में ले लिया. दलित चिंतक रामचंद्र कटियार कहते हैं, ‘‘जातीय बीमारी का हाल वैसा ही था कि दर्द की दवा के साथ दर्द और भी बढ़ता गया. जैसेजैसे समाज में शिक्षा का प्रभाव फैला, जातीयता और भी गहरी होती गई. आज की तारीख में पढ़ेलिखे दलित और पिछड़ी बिरादरियों के नेता ज्यादा कर्मकांडी होने लगे हैं. उन को लगता है कि अगडे़ इसलिए सम्मान पाते हैं चूंकि वे पूजापाठ करते हैं. ऐसे में वे भी वही सब करने लगे जो अगड़ी जातियों के नेता करते थे. कई बार तो दलित व पिछडे़ नेता रामायण की उन चौपाइयों को बडे़ ही आदर और गर्व के साथ पढ़ते हैं जिन में खुद उन को ही बुराभला कहा गया होता है.’’
शिक्षा के मामले में अगडे़ राज्यों में गिने जाने वाले तमिलनाडु के जातीय समीकरणों को देखें तो यह बात साफ भी हो जाती है. तमिलनाडु में 4 करोड़
75 लाख मतदाता हैं. वहां लोकसभा की 39 सीटें हैं. वहां सब से ज्यादा 53 फीसदी ओबीसी जातियों के मतदाता हैं. 
20 फीसदी दलित, 12 फीसदी ईसाई, 9 फीसदी मुसलिम और 6 फीसदी ऊंची जातियों के मतदाता हैं. दक्षिण राज्यों के पढ़ेलिखे मतदाता भी जातीय समीकरण देख कर अपने वोट करते हैं. 
29 लोकसभा सीटों वाले मध्य प्रदेश में भी जातीय समीकरण के आधार पर प्रत्याशी तय किए जाते हैं. मंडल कमीशन लागू होने के बाद इस राज्य में भी ऊंची जातियां हाशिए पर चली गई हैं. यहांसब से अधिक 35 फीसदी ओबीसी,21 फीसदी आदिवासी, 20 फीसदीऊंची जातियां, 15 फीसदी दलित और 9 फीसदी मुसलिम आबादी है. 
लोकदल के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का मानना था कि गैरबिरादरी में शादियों के चलन से जातिगत भावना कमजोर होगी. समाज में गैरबिरादरी में शादी का चलन शुरू हो गया. जिस को देख कर यह लगता है कि जैसे जातीयता की भावना कमजोर पड़ रही है. सही माने में देखें तो इस प्रचलन के बाद भी जातीयता खत्म नहीं हो रही है.  इस संबंध में गैरबिरादरी में शादी कर चुकी शबाना खंडेलवाल कहती हैं, ‘‘गैरबिरादरी में शादी एक तरह से व्यक्तिगत फैसला होता है. ऐसे में इस का कोई सामाजिक असर नहीं पड़ता.’’ 
जातीय राजनीति के आधार पर भी वोट देने के बाद जनता को कुछ नहीं मिलता है. उत्तर प्रदेश और बिहार में दलितपिछड़ों की अगुआई करने वाले मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान की राजनीति इस का उदाहरण हैं. इन लोगों ने अपनी बिरादरी के लोगों का भला करने की जगह पर अपने परिवार का भला किया.  
उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्व मंत्री अशोक यादव कहते हैं, ‘‘बिरादरी की राजनीति करने वाले लोगों ने कभी भी बिरादरी का भला नहीं किया. वे बिरादरी को केवल वोटबैंक समझते हैं. बिरादरी का कोई नेता अपने बल पर जब आगे बढ़ता है तो उस को पीछे करने में बिरादरी के नेता हर संभव काम करते हैं.’’ 
भ्रष्टाचार दरकिनार
समाज में जाति का जलवा ऐसा कायम है कि भ्रष्टाचार करने वाले नेता बचाव के लिए इसे हथियार के रूप में प्रयोग करते हैं. मायावती, लालू प्रसाद यादव और बाबू सिंह कुशवाहा आदि ऐसे तमाम नेता हैं जो भ्रष्टाचार के जाल में फंसने के बाद कहते हैं कि जातिगत भेदभाव के चलते उन को परेशान करने के लिए भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए हैं. जाति के लोग इस बात को सही मान भी लेते हैं. बाबू सिंह कुशवाहा बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती के करीबी थे. स्वास्थ्य विभाग में हुए घोटाले का उन पर आरोप लगा. आरोप लगने के बाद मायावती ने बाबू सिंह कुशवाहा को पार्टी से बाहर निकाल दिया. उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के समय बाबू सिंह कुशवाहा भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए. भाजपा को भरोसा था कि बाबू सिंह कुशवाहा के चलते कुशवाहा समुदाय के वोट उस को मिल जाएंगे. लेकिन विरोधके बाद बाबू सिंह कुशवाहा को भाजपा से बाहर जाना पड़ा. इस के बाद वे जेल गए. 
लोकसभा चुनाव के पहले बाबू सिंह कुशवाहा की पत्नी और भाई समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए. बाबू सिंह कुशवाहा जेल में बंद हैं. उन की पत्नी ने सपा के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ा. बाबू सिंह कुशवाहा के समर्थक तर्क देते हैं कि मायावती ने बाबू सिंह कुशवाहा को फंसाया है. ऐसे लोग बाबू सिंह कुशवाहा को बिरादरी का समर्थक व अगुआ मानते हैं. राजनीतिक लेखक डा. रजनीश कहते हैं, ‘‘जातियां अपना नेता ऐसा चाहती हैं जो अगड़ों का हर तरह से मुकाबला कर सके. ऐसे में वे भ्रष्टाचार करने वाले दबंग नेता में ही अपना मसीहा तलाश करने लगती हैं. उन को लगता है कि यही उन के स्वाभिमान की रक्षा कर सकेगा. यही वजह है कि जिन नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं उन के पीछे जातिबिरादरी पूरी मजबूती से खड़ी होती है.’’ 
मायावती, मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव अपने लोगों को यह समझाते हैं कि उन को फंसाने के लिए उन की राजनीति को कमजोर करने के लिए साजिशन उन को फंसाया गया है. जाति का स्वाभिमान बन चुके ऐसे नेता बिरादरी के लिए हर हालत में गर्व का विषय होते हैं.  
धार्मिक सोच से जुड़ी जातीयता  
डा. रजनीश कहते हैं, ‘‘जाति और धर्म के बीच सीधा संबंध है. धर्म की बात करने वाले ग्रंथों में समाज का जातीय विभाजन किया गया था. यही बाद में छुआछूत और भेदभाव का भी आधार बना. आज धर्म बदलने की घटनाओं के पीछे इसी भेदभाव का हाथ होता है. धर्म के आधार पर दलित, पिछड़ों को हिंदू धर्म में माना जाता है. जब बराबरी की बात आती है तो उन को अलग कर दिया जाता है. इसी कारण जातियों का बंटवारा जातीय आधार पर होने लगता है. हिंदुत्व की राजनीति करने वाले लोगों को दलित आदिवासियों की याद तभी आती है जब वे धर्म परिवर्तन करते हैं.
ऐसे में जब तक इन तथ्यों को सही तरह से नहीं देखा जाएगा तब तक यह भेदभाव चलता रहेगा.’’ 
छुआछूत की भावना को मजबूत करने में धार्मिक कर्मकांडों का बहुत महत्त्व है. धार्मिक रूप से हाशिए पर ढकेले गए ऐसे लोगों को लगता है कि जब वे जातिगत रूप से मजबूत होंगे तभी समाज की मुख्यधारा में शामिल रह सकते हैं. ऐसे में वे धार्मिक उत्पीड़न से लड़ने के लिए जातीयता को ही सब से प्रमुख हथियार मानते हैं. मायावती की मजबूती का सब से प्रमुख कारण यही है. दलित चिंतक रामचंद्र कटियार कहते हैं, ‘‘दलित बिरादरी के लोगों को बसपा के सत्ता में आने पर सम्मान मिलने लगा. उन का सामाजिक उत्पीड़न कम हुआ. छुआछूत और भेदभाव की घटनाएं कम हुईं. इसी कारण दलित वर्ग मायावती के हर काम को नजरअंदाज कर उन का समर्थन करता है.’’ 
दरअसल, जिस भी बिरादरी का जितना अधिक शोषण और उत्पीड़न होता है वह उतना ही बड़ा जातिवादी बन कर उभरता है. अपनी रक्षा के लिए वह वर्ग एकजुट होता है जिसे जातिवाद का नाम दिया जाता है. अगर हिंदू धर्म में छुआछूत नहीं होती तो जातीय विभाजन की खाई इतनी गहरी नहीं हो सकती थी. जातिवाद को खत्म करने के लिए धार्मिक कुरीतियों को खत्म करना होगा. और जब जातिवादी भेदभाव खत्म होगा तभी देश का मतदाता जातीयता की जकड़न से मुक्ति पा सकेगा वरना राजनीतिबाज उन का जातिवादी दोहन करते रहेंगे.

एअरहोस्टेस की ड्रैस

 
आमतौर पर विकसित देशों में लड़कियों को अपनी इच्छानुसार कपड़े पहनने या न भी पहनने की इजाजत है पर फिर भी छोटे कपड़ों पर विवाद खड़ा हो जाता है. जापान एअरलाइंस ने अपनी एअरहोस्टेसों के लिए जो नई स्कर्ट डिजाइन कराई है वह घुटनों से काफी ऊपर है. इस पर एअरहोस्टेसों की यूनियन ने आपत्ति जताई है.
लड़कियों के कपड़ों पर तरहतरह की नीतियां बनाना और लड़कों को खुला छोड़ना असल में गलत है. जिन देशों में लड़कियों को ऊपर से नीचे तक ढका रखा जाता है वहां वे सुरक्षित हैं, यह गारंटी कोई नहीं ले सकता. अरब देशों में, पाकिस्तान में या अफगानिस्तान में, क्या औरतें सुरक्षित हैं? वहां तो बलात्कार होने पर सजा औरत को दी जाती है, इसलिए औरतें इस जहर को पी जाती हैं.
अमेरिका और यूरोप में बलात्कार उतने ही होते हैं जितने भारत जैसे देश में, जहां औरतें उन के मुकाबले ज्यादा ढकी रहती हैं. औरतों से छेड़खानी किए जाने की घटनाएं सभी जगह तकरीबन बराबर ही होती हैं. जिन देशों में समाज व्यवस्था, कानून, पुलिसिंग सब ठीक हैं वहां दूसरे अपराधों की तरह औरतों, चाहे वे जैसे कपड़े पहनें, के प्रति भी कम अपराध होते हैं.
अगर एक एअरलाइंस अपने ग्राहकों को लुभाने के लिए स्टंट करती है तो यह उस का हक है. यह स्टंट भी तभी तक चलेगा जब तक दूसरी एअरलाइंस इसे नहीं अपनातीं. अगर सभी की एअरहोस्टेसें मिनी स्कर्ट पहनें तो शायद कोई आंख उठा कर भी न देखे. दरअसल, लड़कियों को नौकरी देने से पहले ही बता दिया जाए कि उन्हें मिनी स्कर्ट पहननी होगी या बुरका पहनना होगा तो फिर उन की मरजी. नौकरी पाने के बाद चूंचूं करना गलत है.

कैसीनो जैसा क्रिकेट

 
भारतीय क्रिकेट लास वेगास के जुएखाने की तरह है और अदालतें व मीडिया जितना इस की तह में खोज रहे हैं उतना पता चलता है कि सब एक से बढ़ कर एक हैं. न्यायमूर्ति मुकुल मुद्गल ने अपनी इंडियन प्रीमियर लीग पर सौंपी अपनी रिपोर्ट में 13 नामों का जिक्र किया है. इन में बोर्ड औफ क्रिकेट कंट्रोल औफ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष एन श्रीनिवासन का नाम भी है. यह रिपोर्ट अभी गुप्त है. सुप्रीम कोर्ट ने इतना कहा है कि श्रीनिवासन समेत अन्य 12 पर गंभीर आरोप हैं पर चूंकि जांच अभी बाकी है इसलिए वह रिपोर्ट को प्रकाशित नहीं कर रहा क्योंकि इस में बड़े नाम हैं.
क्रिकेट राजनीति और नौकरशाही की तरह इस देश की संस्कृति की पोल खोलता है. राजनीति देशसेवा की जगह स्वयंसेवा और नौकरशाही अपने दायित्व से भटक कर मालिकशाही बन गई है. दोनों ने जनता को जम कर लूटा है. और यह लूट जारी रहेगी, भ्रष्टाचारमुक्त देश का चाहे जितना नारा दिया जाए क्योंकि बेईमानी इस देश की संस्कृति का हिस्सा है. हमारे पौराणिक इतिहास की देन देवीदेवता हमारे आज के नेताओं, अफसरों और अब खिलाडि़यों की तरह की सफेद चमक के पीछे काले घृणित काम करते रहे हैं.
जैसे हम देवीदेवताओं को उन के गंभीर दोषों के बावजूद पूजते रहते हैं वैसे ही खिलाडि़यों को पूज रहे हैं, जैसे देवीदेवताओं और नेताओं को नोटों के हार पहनाते हैं, खिलाडि़यों की बनाई चीजें खरीद कर उन्हें अरबखरबपति बना रहे हैं. सर्वोच्च न्यायालय ने 12 नाम इसीलिए जाहिर नहीं किए कि कहीं पूजनीय ‘देवताओं’ की पोल खुलने पर जनता भड़क न उठे.
सट्टेबाजों ने क्रिकेट को खेल से तमाशा और फिर तमाशे से जुआ बनाया. उन्होंने हर मैच, बौल, छक्के, चौके पर बोली लगा कर उसे कैसीनो बना दिया. हर बौल पर लाखों नहीं, करोड़ों की बोली लग सकती है क्योंकि बौलर और बैट्समैन को हिस्सा दे कर उस से अपने अनुसार कराया जा सकता है. यह फिक्सिंग ऐसी है जो सस्ते कैसीनो को भी मात देती प्रतीत होती है. स्टेडियमों को लास वेगास के कैसीनो बनाने में खिलाडि़यों, प्रबंधकों और सट्टेबाजों ने कोई कसर नहीं छोड़ी. आज शिकायत खिलाडि़यों या क्रिकेट प्रेमियों से कम, सरकार से ज्यादा है जो पुरस्कार देदे कर क्रिकेट की महिमा बढ़ाने में लगी रहती है.  

भेदभाव और विकास

भारत में आरक्षण के मामले में ऊंची जातियों के छात्र अकसर आरक्षण की वजह से घटिया, कम योग्य छात्रों को स्थान मिलने पर होहल्ला मचाते रहते हैं. नरेंद्र मोदी की पूरी राजनीति के पीछे ऊंची जातियां बनाम आरक्षित जातियां हैं पर यह छिपा है और यह अच्छा ही है कि इन चुनावों में वर्ग, वर्णभेद युद्ध शुरू नहीं हुआ, इस बार केवल धर्म व रिश्वतखोरी मुद्दा ही सुर्खियों में बने रहे हैं. हमारा मध्यवर्ग सरकारी नौकरियों और पैसे वाली जगहों पर अपना पीढि़यों का हक समझता है. इस बार ऊंची जातियां एकजुट हो कर समाज पर उसी तरह कब्जा करना चाह रही हैं जैसे सदियों से होता रहा है.
मजेदार बात यह है कि हमारी ऊंची जातियों के लोग जब भारत से बाहर जाते हैं और उन के साथ शूद्रों व अछूतों वाला व्यवहार होता है, चाहे रंगभेद के कारण हो या योग्यता के अभाव के कारण, तो वे हल्ला मचाते हैं और बराबरी की दुहाई देते हैं. अभी इंगलैंड में रौयल कालेज औफ जनरल प्रैक्टिशनर्स की सदस्यता के लिए होने वाली परीक्षाओं में अदालतों ने इस तरह की एक शिकायत, जो भारतीय दल के डाक्टरों द्वारा की गई थी, को खारिज कर दिया.
इस परीक्षा में भारतीय मूल के छात्रों के गोरों के मुकाबले चारगुना असफल होने के आसार रहते हैं. भारत से मैडिकल डिगरी लेने और कई साल तक इंगलैंड में अस्पतालों में काम करने के बावजूद इन छात्रों को परीक्षाओं में जब फेल कर दिया जाता है तो वे रंगभेद का रोना रोते हैं, जैसे भारत के पिछड़े व दलित रोते हैं.
असल बात यह है कि नया ज्ञान और नई सोच के लिए जिस मेहनत और बुद्धि की जरूरत होती है वह हर छात्र में हो, जरूरी नहीं. भारत में मैडिकल की शिक्षा पाने के बाद इंगलैंड में नौकरी पाने का अधिकार स्वत: नहीं मिल सकता क्योंकि यूरोपीय कुशलता, सख्त मेहनत, जिम्मेदारी के संस्कार आदि 2-4 साल में हरेक के जीवन का हिस्सा नहीं बन पाते. एक पांव भारत की बैलगाड़ी में रखने वाले, दूसरा पांव रौकेट में रखें तो भी वे बराबर नहीं हो सकते. दरअसल, जो दूसरों से भेदभाव करने के आदी होते हैं वे अपनी कमजोरियों के लिए तुरंत भेदभाव का बहाना ढूंढ़ लेते हैं क्योंकि वे अपराधभाव से ग्रसित होते हैं.
यह नहीं भूलना चाहिए कि दक्ष लोगों से बराबरी करने के लिए या तो कड़ी मेहनत करनी होती है या 2-3 पीढि़यों का अनुभव आदतों में शामिल करना होता है. यदि हम गोरों को कोस रहे हैं और चाहते हैं कि वे बराबरी के सिद्धांतों का पालन करें तो हमें भारत में भी यही करना चाहिए. समाज के विकास के लिए जरूरी है कि हर कोई दक्षता और कुशलता हासिल करने का अवसर पाए और अगड़ों से कंधों को मिला कर चलने का साहस रखे.

चुनावी दौर

चुनावों का दौर 16 मई को गिनती शुरू होने पर खत्म होगा और उस के बाद  कौन कैसे सरकार बनाएगा, यह विवाद शुरू हो जाएगा. अगर भारतीय जनता पार्टी को बहुमत मिल गया तो उस में खींचातानी शुरू हो जाएगी और वह चुनावों जैसी होगी. नरेंद्र मोदी के साथ दिक्कत यह है कि चुनाव उन्होंने लड़ा पर टिकट बांटे राजनाथ सिंह, वसुंधरा राजे सिंधिया, शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह वगैरह ने, क्योंकि जब तक भाजपा ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया था, उन की गुजरात के अलावा कहीं और नहीं चल रही थी. ऐसे में जो जीतेंगे उन को अपने राज्य के नेता की बात माननी होगी.
यदि भाजपा को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो सरकार बनाने का काम कई सप्ताह टलेगा. दोनों हालात में सरकार का विधिवत काम शुरू होतेहोते महीनों बीत जाएंगे.
जिस देश में कर के माध्यम से जनता से वसूला पैसा ज्यादातर सरकारी मशीन पर बरबाद किया जाता हो वहां मशीन की महीनों निकम्मे बैठने का लाइसैंस देना मूर्खता है. चुनाव असल में झटपट होने चाहिए ताकि एक सरकार जाए तो जल्द नई सरकार आ जाए. जब चुनाव प्रचार होता है तब सरकार का कार्य ढीला हो जाता है पर हमारे देश में आचारसंहिता के नाम पर काम महीनों पहले ठप कर दिया जाता है.
राजनीतिक अस्थिरता के साथ चुनाव प्रक्रिया भी अस्थिरता पैदा कर रही है जो गलत है. चुनाव जैसे भी हों, 6-7 दिनों में हो जाने चाहिए. 7 अप्रैल से 12 मई तक का लंबा चुनावी दौर देश की अर्थव्यवस्था के लिए बहुत ही महंगा है. यह तो गरीबों के यहां शादी या मौत की तरह है जहां 30-40 दिन तक काम नहीं करने दिया जाता. एक तो विवाह या मौत का खर्च और ऊपर से रस्मों के चक्कर में कामधाम लंबे दौर तक ठप.
चुनाव आयोग अपना ब्राह्मणीपन छोड़े और जैसे भी हो चुनावों को फटाफट निबटाए. देश को बरबाद करने के लिए नेता और अफसर ही काफी हैं. इस कृत्य में चुनाव आयोग अपना योगदान न दें.

नरेंद्र मोदी, भक्त और भाजपा

वर्ष 2014 के चुनावों के अंतिम दौर में नरेंद्र मोदी पर जो तीखे हमले हुए और जिस तरह के लचर जवाब उन्होंने दिए उस से साफ है कि चुनावों के परिणाम चाहे जो भी हों, जिस तरह के कट्टर, तानाशाही, हिंदुत्व राज की कल्पना नरेंद्र मोदी भक्त कर रहे थे, वह साकार नहीं होगी.
नरेंद्र मोदी के भक्तों में ज्यादातर वे हैं जो विकास के नाम पर देश में एक बार फिर वर्णव्यवस्था वाला शासन थोपना चाहते हैं जिस में ऊंचनीच का फैसला शास्त्रीय ग्रंथों के अनुसार जन्म के समय ही हो जाए और सुखदुख की चाबी पोथी बगल में दबाए किसी तिलकधारी के हाथों में हो. ऐसा हिंदू राज इस देश में न कभी था और न संभव है. रामायण, महाभारत काल में भी केवल जनता ही नहीं राजा भी सुखी न थे क्योंकि ये दोनों महाकाव्य 2 राजघरानों पर आई आफतों का ही वर्णन हैं.
इन दोनों ग्रंथों में वर्णित हिंदू आदर्श पात्र, जिन में से कुछ के आज मंदिर बना उन को पूजा जाता है, अपने पूरे जीवन अस्तित्व के लिए संघर्ष करते रहे और वे अपने राज, संपत्ति, सम्मान की रक्षा भलीभांति न कर पाए, आम जनता की रक्षा भला उन्होंने क्या की होगी, उस की बात छोडि़ए.
यह विडंबना ही है कि जब ये महाकाव्य तब की काल्पनिक स्थिति का खासा सूक्ष्म वर्णन करते हैं और उस युग की जनता की त्रासदी का थोड़ा सा ही वर्णन करते हैं, राजसी पात्रों की तो बात छोडि़ए जो बहुत कर्णप्रिय नहीं हैं, तो इन पर आज विकास का मौडल कैसे बनाया जा सकता है?
नरेंद्र मोदी के साथ अब यह कठिनाई भी साफ दिख रही है कि वे अकेले भी पड़ गए हैं. वे तानाशाह बनना चाहते थे पर इस चक्कर में अमित शाह जैसे दोषी व्यक्ति और वकील रवि शंकर प्रसाद के अलावा केवल कुछ अनजान से चेहरे ही उन के साथ हैं. भाजपा के ज्यादातर वरिष्ठ नेता नरेंद्र मोदी को बचाने में कोई रुचि नहीं ले रहे. राजनाथ सिंह भी शायद मन ही मन नाराज हों क्योंकि लखनऊ में नारे लग रहे हैं कि नरेंद्र मोदी को जिताना है तो राजनाथ सिंह को हराना है.
एक देश का प्रधानमंत्री बनने के लिए अपनी पूरी पार्टी को साथ ले कर चलना तो जरूरी है, साथ ही योग्य व्यक्ति भी साथ होने चाहिए. ममता बनर्जी, जयललिता, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, देवी लाल, ओमप्रकाश चौटाला, बाल ठाकरे यदि अपने सीमित क्षेत्रों से निकल नहीं पाए तो इसीलिए कि उन के पास अपने व्यक्तित्व या खुद के निजी नारे के अलावा कुछ नहीं था जो उन्हें अखिल भारतीय नेता बनाता.
नरेंद्र मोदी ने भारतीय जनता पार्टी का गुजरातीकरण कर दिया है और उन की विजय चाहे जैसी भी हो, यह उन पर भारी पड़ेगी, बहुत भारी.

आपके पत्र

सरित प्रवाह, अप्रैल (प्रथम) 2014
संपादकीय टिप्पणी ‘भारत के हीरे’ में विदेशों में बसे भारतीयों की उपलब्धियों पर अच्छा प्रकाश डाला है. क्या कारण है कि जो भारत में कमाखा नहीं पाते वे विदेशों में ऊंची कुरसी पा जाते हैं? यह व्यंग्य भी अच्छा है कि भारतीय अच्छे पदों पर बैठ कर कोई तीर नहीं मार रहे हैं. यह काम तो वहां चीनीजापानी भी कर रहे हैं. अलबत्ता, गांधी के देश के होने के कारण उन्हें अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा अधिक तरजीह देते हैं.
आप का खंगालने वाला सुझाव भी अच्छा है कि भारत के कंकड़पत्थर दूसरे देशों में हीरे कैसे बन जाते हैं? भारत की मिट्टी में जहर इसलिए भरा है कि यहां लोगों को जातियों में बांट उन का शोषण किया जाता है. कुछ नमूने पेश हैं :
भारतीय मूल के उद्योगपति चेत कन्नौजिया ने अपने आविष्कार द्वारा अमेरिकी टीवी उद्योग की नींद उड़ा दी है. यदि वे भारत में होते तो अछूत बना, विद्याविहीन रखे जाते. ऐसा ही हाल गीता पासी का है जिन्हें ओबामा ने अपना राजदूत बना रखा है, इसीलिए भारत के कंकड़ विदेश में हीरे बन जाते हैं.
माताचरण पासी, देहरादून (उत्तराखंड)
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‘गुजरात के सच की पोल’ शीर्षक से प्रकाशित टिप्पणी में अत्यंत उत्कृष्ट, सामाजिक व सामयिक आप के विचार हैं. आप का यह कहना कि आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल ने अपने 3 दिन के दौरे में गुजरात के झूठे विकास के प्रचार की पोलपट्टी खोल कर नरेंद्र मोदी पर कस कर प्रहार किया है, अक्षरश: सत्य है. नरेंद्र मोदी जो गुजरात विकास का नारा लगा रहे थे, उस की जांच आमतौर पर कोई नहीं कर रहा था पर टीवी कैमरामैनों के साथ चल रहे अरविंद केजरीवाल उन्हीं जगहों पर गए जहां विकास नहीं हुआ और इस तरह उन्होंने गुजरात की दूसरी छवि प्रस्तुत कर दी.
जब अरविंद केजरीवाल उन से मिलने जाने लगे तो नरेंद्र मोदी ने भयाक्रांत हो कर 5 किलोमीटर पहले उन का रास्ता ही रुकवा दिया. एक पूर्व मुख्यमंत्री अपनी ओर से मिलने की पेशकश करे, वह भी उस जने से जिस के दरवाजे हर किसी से मिलने के लिए खुले होने चाहिए और जो मौजूद भी हो, तो उस मुख्यमंत्री को मिलने से इनकार नहीं करना चाहिए.
यह सत्य है कि अरविंद केजरीवाल छापामार राजनीति कर रहे हैं और विरोधियों के मर्मस्थल पर वार कर रहे हैं. लोग उन्हें विदेशी मामलों, रक्षानीति, कश्मीर के प्रश्न, राज्यों के पुनर्गठन के मामलों में उलझाना चाहते हैं, पर वे इन से बच कर अदानी, अंबानी व रौबर्ट वाड्रा के मामले दोहरा रहे हैं जो भारतीय जनता पार्टी और कांगे्रस के कमजोर पहलू हैं. अब बात लोगों के दिलोदिमाग की है कि वे किस को वोट दे कर विजयी बनाते हैं.
कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)
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संपादकीय ‘प्रगति लेकिन कैसी’ में आप ने भारतीय प्रगति का बहुत ही सही आकलन किया है. आज बहुत से किसान अपनेअपने खेत बेच कर शहर का रुख कर रहे हैं. शहर से 30 किलोमीटर दूर मेरी भी कुछ पुश्तैनी खेती है. पिछले साल हमारे पूरे इलाके में सोयाबीन, अरहर व तिल्ली की फसल जून से सितंबर तक की लगातार हुई अतिवृष्टि में पूरी की पूरी ऐसी चौपट हुई कि एक दाना तक नहीं मिला. जैसेतैसे कर के रबी की फसल के मौसम में गेहूं और चना बोए.
बरसात के कारण जमीन में अच्छी नमी के चलते फसल अच्छीखासी लहलहा उठी थी, खासकर गेहूं की फसल तो बहुत अच्छी थी. पिछले मार्च की शुरुआत में मौसम का मिजाज बिगड़ा. ऐसे तेज ओले पड़े कि सारी फसल मटियामेट हो गई.
मेरा स्वयं खरीफ की फसल में 60 हजार रुपए व रबी की फसल में 70 हजार रुपए का नुकसान हो गया.
सोचता हूं कि इन्हीं 1.3 लाख रुपयों से यदि शहर में एक छोटामोटा प्लौट खरीद लेता तो बड़े ही फायदे में रहता. अपनी पूरी पेंशन मैं खेती में लगाता हूं कि धरती की छाती फाड़ कर कुछ सही पैदावार की जाए, पर आज तो मैं अपने बाबा की इस कहावत के सम्मुख नतमस्तक हूं-
कच्ची खेती गाभिन गाय
तब जानो जब मुंह में जाए
मेरे इलाके के 2 किसानों ने इसी साल आत्महत्या कर ली है. सरकार के पटवारी, नुकसान का सर्वे करने में खासी उगाही कर रहे हैं. जो उन के हाथ गीले नहीं कर पाते उन के लिए आत्महत्या ही विकल्प बचता है. दलाल व व्यापारी किसानों की फसल की बदौलत लगातार मालामाल होते जा रहे हैं जबकि दिनरात खूनपसीना बहाने वाला किसान नंगाभूखा है. देश के कर्णधार ही तो किसानों के खेत औनेपौने पर खरीद कर वहां कंक्रीट के जंगल तैयार करने में जुटे हैं. जब उन की इसी में पौबारह हो तो वे सच्ची प्रगति की ओर ध्यान क्यों देंगे?
गंगा प्रसाद मिश्र, नागपुर (महाराष्ट्र)
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ऐसा दौर कभी नहीं देखा
‘आम चुनाव में नदारद सामाजिक मुद्दे’ शीर्षक से अप्रैल (प्रथम) अंक में प्रकाशित लेख में कई मुद्दे स्पष्ट नहीं हो पाए, जैसे आने वाली सरकार वर्षों से लंबित मुकदमों को कब तक निबटाएगी? पूरे देश की पुलिसव्यवस्था कब तक पुराने ऐक्ट के भरोसे चलती रहेगी? कोई भी नेता मुद्दे की बात न कर के सामने वाले की टांग खींचने और अपशब्द बोलने में लगा है और चुनाव आयोग असभ्य भाषा बोलने वालों पर क्या लगाम कस पाया है?
दलबदल का ऐसा दौर कभी नहीं देखा. दलबदलू नेताओं से कारण पूछो तो वे कहते हैं कि हमारे बीच मतभेद हैं, मनभेद नहीं. कांगे्रस महासचिव कहते हैं कि चाय बनाने वाले की इज्जत करो, उल्लू बनाने वाले की नहीं. मगर चुनाव करीब आते ही टैलीविजन पर बड़ेबड़े सरकारी विज्ञापन हमें क्या बना रहे हैं, यह सभी जानते हैं. चुनाव खर्च की सीमा बढ़ाने से भ्रष्टाचार को और बल मिलेगा. जो जितना लगाएगा, उस से कई गुना पाने की कोशिश भी करेगा.
मुकेश जैन ‘पारस,’ बंगाली मार्केट (न.दि.)
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शिवराज दूध के धुले नहीं
अप्रैल (प्रथम) अंक के लेख ‘युवा भविष्य का भक्षक शिक्षा माफिया’ पढ़ कर कहा जा सकता है कि जब कभी भी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और आम चुनाव में भाजपा के पीएम पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी के गुणावगुणों का बखान किया गया तो चौहान को ही ‘दूध का धुला’ यानी नमो से बेहतर बताने का प्रयास किया गया, लेकिन मध्य प्रदेश के इस शिक्षा घोटाले की दास्तां चीखचीख कर बयां कर रही थी कि राजनीति की काली कोठरी में ‘काला’ होने से कोई बच नहीं सकता. मसलन, प्रदेश में इतना बड़ा कोई घोटाला हो और प्रदेश के मुख्यमंत्री को इस का पता न हो, बात कहीं से भी और किसी के भी गले नहीं उतर सकती.
राज्य के ‘व्यापमं शिक्षा घोटाले’ की कालिख चाहे हम राज्य के शिक्षामंत्री (पूर्व) लक्ष्मीकांत शर्मा तथा उन के गुर्गों पर जितनी मरजी पोत दें मगर प्रदेश के मुख्यमंत्री का चेहरा ‘पाकसाफ’ कैसे रह सकता है? इस कलंक कथा की स्याही सीएम के चेहरे पर भी ठीक उसी तरह से पुती नजर आ रही थी जिस तरह सलाखों के पीछे से सहारा के बेसहारा महानायक (खलनायक) सहाराश्री के चेहरे पर नजर आ रही थी. समझ नहीं आता कि आज लोगों के पेट क्यों कुएं बन कर, हिंदमहासागर तक बनते जा रहे हैं, जिन में जितना मरजी सफेदकाला धन या फिर जरूरतमंद जनताजनार्दन से लूटा हुआ धन डाल दो, पेट भरते ही नहीं हैं.
ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (न.दि.)
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स्त्रियों का हो सम्मान
आप जिस माहौल में रहेंगे, वैसे हो जाएंगे. कुछ औरतों की दुनिया घर तक ही सीमित होती है. वे भी शिक्षित हैं. उन्होंने अपने घर के कामों के अनुसार अपने को ढाल रखा है. घर का काम करना ही उन की नियति है. अचानक उन के घर में कोई मेहमान आ जाए तो वह उस घर की महिला को घरेलू लिबास में देखेगा. घर भी अकसर अस्तव्यस्त सा दिखता है. जब कहा जाता है तुम्हें आएगए का खयाल रखना था तो महिला की तरफ से इस का उत्तर होता है ‘पहले से बता देते.’
इस के विपरीत एक कामकाजी औरत को देखें. वह घर के समय घर के कामों में मस्त रहती है. कामकाजी होने पर भी साफसफाई, रसोई आदि में पूरा दखल रखती है. चूंकि वह बाहरी दुनिया से जुड़ी होती है, पुरुषों के बीच में रह कर भी वह हर स्थिति के लिए सचेत रहती है. बाहरी पुरुष, बाहरी परिवेश उस का कुछ नहीं बिगाड़ पाते क्योंकि इस से लड़ने का उस में माद्दा है. वह यही कहना चाहती है- घर की दहलीज न रहा दायरा मेरा, मुकाम अपना बना लूंगी जिधर जाऊंगी. इसलिए स्त्रियों का बाहर निकलना समझदारी भरा प्रयास है.
दिलीप गुप्ता, बरेली (उ.प्र.)
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सराहनीय प्रयास
अप्रैल (प्रथम) अंक में प्रकाशित लेख ‘आम चुनाव में नदारद सामाजिक मुद्दे’ में व्यक्ति व समाज को विकास के लिए अहम सामाजिक मुद्दों को आम जनता को बताने का जो प्रयास किया गया है वह सराहनीय है. वास्तव में देश के नेताओं, चाहे वे किसी भी दल के हों, को एकदूसरे पर व्यक्तिगत आरोपों के बजाय समाज के विकास के मुद्दे उठाने चाहिए. ऐसे मुद्दों पर बात हो तो देश की तसवीर बदल सकती है.
आजादी के बाद से देश में ज्यादातर कांगे्रस पार्टी ने राज किया और पिछले 10 वर्षों से कांगे्रस नीति गठबंधन यूपीए की सरकार चल रही है. गठबंधन की सरकार इस के पहले भारतीय जनता पार्टी और तीसरे मोरचे, जिस की आजकल फिर बात हो रही है, ने भी चलाई है, चाहे वह कम समय के लिए ही सही.
आज भाजपा नीत गठबंधन एनडीए द्वारा व यूपीए सरकार द्वारा क्या गलत कार्य किए गए, आम जनता को बताना चाहिए और अगर भाजपा शासन में आती है तो वह किस प्रकार देश का विकास करेगी, ऐसे मुद्दों की जानकारी देनी चाहिए. उसी प्रकार कांगे्रस यूपीए के दल आम जनता के सामने देश के विकास के मुद्दे रखें. साथ ही, आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल पर हमला करना, चांटा मारना, स्याही फेंकना, काले झंडे दिखाना, उन की गाडि़यों के शीशे तोड़ने वाले लोगों की देश की सभी पार्टियां आलोचना कर ऐसा करने वालों को समझाएं कि वे ऐसा कृत्य न करें.
भाजपा के कार्यकर्ता मोदी के नाम के बजाय पार्टी का प्रचार करें. क्योंकि हमारे देश में अमेरिका की तरह राष्ट्रपति का चुनाव तो होता नहीं. 273 सीट प्राप्त करने वाला दल ही प्रधानमंत्री बनाता है. इसलिए व्यक्तिपूजा पार्टी हित में नहीं है.
जगदीश प्रसाद पालड़ी, जयपुर (राज.)
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सब अपनी आंखें बंद किए बैठे हैं?
अप्रैल (प्रथम) अंक में ‘भारत भूमि युगे युगे’ के अंतर्गत ‘शीला चलीं केरल’ पढ़ कर अच्छा भी लगा और खराब भी. अच्छा इसलिए कि अरविंद केजरीवाल से करारी हार के बाद उन्हें दिल्ली से काफी दूर फेंक दिया गया है और चाहते हुए भी अब वे दिल्ली में गड़बड़ नहीं कर सकेंगी. खराब इसलिए लगा कि करारी हार के बावजूद उन्हें सजा की जगह, बतौर इनाम गवर्नर बना दिया गया है. यह बात किसी से छिपी नहीं है कि उन की हार की वजह कुछ और न हो कर उन के नेतृत्व वाली भ्रष्टाचारी हुकूमत थी. एक समय था जब रिश्वत मेज के नीचे से ली जाती थी परंतु अब तो लोग इतने निडर हो चुके हैं कि सब के सामने रिश्वत दी या ली जा सकती है. जिस को शिकायत करनी है करता रहे, पहले तो पकड़े ही नहीं जाएंगे और यदि पकड़े गए तो सालों बेल पर निकाल देंगे. कोर्ट का फैसला तो जल्दी आएगा नहीं.
इसी तरह आजकल अपने लोगों को ऊंचे पदों पर बैठाना, खासतौर पर उन्हें जिन्होंने देश की कम जबकि अपनी और हाईकमान की ज्यादा सेवा की हो, काफी आसान हो चुका है. पुराने समय में किसी भी गलत फैसले पर तुरंत चर्चा हो जाती थी परंतु आजकल सब की आंखों के सामने इस तरह की हरकतें हो रही हैं, फिर भी सब अपनी आंखें बंद किए बैठे हैं. जैसा मुझे मालूम है, गवर्नर और राष्ट्रपति, हमारे संविधान के हिसाब से वही बन सकते हैं जो देश की राजनीति से ऊपर हों, परंतु मैं तो आएदिन इस का उल्लंघन होता ही देखता हूं. थोड़े दिन पहले प्रणब मुखर्जी, जो वित्त मंत्री थे, उन्हें राष्ट्रपति चुना गया था. लेखक ने ऐसा प्रश्न उठा कर बहुत अच्छा किया.
ओ डी सिंह, बड़ौदा (गुजरात)
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समलैंगिकता कोई नशा नहीं
मैं पिछले कई सालों से सरिता की नियमित पाठिका रही हूं. इस के अधिकतर लेख तथा कहानियां पाठकों को नए सिरे से सोचने पर मजबूर करते हैं. परंतु मार्च (प्रथम) अंक में प्रकाशित लेख ‘समलैंगिकता : अपराधों को निमंत्रण’ मुझे अपरिपक्व मानसिकता से भरा लगा. लेख के परिचय में लिखा गया है ‘समलैंगिक रिश्तों के नशे में डूबे लोग समाज से छिप कर एक अलग दुनिया में जीते हैं.’
शायद लेखक ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि क्यों इन लोगों को समाज के हाशिए से दूर रहना पड़ता है. इस का कारण है समाज और उस की अविकसित सोच. समाज में मौजूद अधिकतर लोगों द्वारा समलैंगिकों के साथ एड्स या कोढ़ पीडि़तों की तरह असंगत व्यवहार किया जाता है. ऐसे में ये लोग अपने लैंगिक अनुकूलन को छिपाए रखने में ही अपनी भलाई समझते हैं.
समलैंगिकता कोई नशा नहीं है. इस के उद्भव के पीछे कई जैनेटिक, हार्मोनल और सामाजिकमानसिक कारण होते हैं. यदि समाज इसे विकृति भी मानता है तो मैं यही कहना चाहूंगी कि कोई भी विकृति सामने आने से नहीं बल्कि उसे छिपाने से और ज्यादा पनपती है. जहां तक लेखक ने आपराधिक मनोवृत्ति की बात की है तो उन के द्वारा दिए गए उदाहरणों को यदि हम इस नजर से देखें कि पीडि़त का संबंध समलैंगिक न हो कर साधारण (प्रकृति, समाज, कानून और लेखक के अनुसार) भी होता तो भी शायद यही परिणाम होते.
यहां बात समलैंगिक या विषमलैंगिक होने की नहीं है, बात है आपराधिक मानसिकता की. हवस के भूखे आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों का कोई निर्धारित लैंगिक अनुकूलन नहीं होता. जरूरत उन की आपराधिक मनोवृत्ति का निदान करने की है न कि उन्हें लैंगिक अनुकूलन के तौर पर विभाजित कर नकार देने की.
प्राची त्रेहन, जयपुर (राजस्थान)
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अपनी भी सोच होनी चाहिए
अप्रैल प्रथम अंक में प्रकाशित लेख ‘आम चुनाव में नदारद सामाजिक मुद्दे’ पढ़ा. स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी हमारे नेता किस प्रकार की राजनीति कर रहे हैं, उस का लेख में अच्छा पर्दाफाश किया गया. यह बिलकुल सही है कि सभी दल वोटबैंक की राजनीति के चलते देश को जाति व धर्म के आधार पर बांट रहे हैं.
जनता को जागरूक होना चाहिए कि जब राजनीतिक दल के लोग वोट मांगने आएं तो वह उन से पूछे कि सड़कें टूटी हैं, चारों ओर गंदगी का अंबार लगा हुआ है, बिजलीपानी की समस्या से लोग जूझ रहे हैं, आखिर इन समस्याओं का निदान कब होगा? अस्पताल की दवाएं क्यों आरएचएम घोटालों में गुम हो जाती हैं? लेकिन जनता कुछ पूछती नहीं, वह जातिधर्म के नाम पर वोट डाल आती है.
दरअसल, गलती जनता की है जो ऐसे सामाजिक मुद्दों पर आवाज नहीं उठाती. इस के लिए जनता को जागरूक होना पड़ेगा, अपनी सोच बदलनी पड़ेगी. साथ ही, अपनी भी कुछ सोच होनी चाहिए तभी देश का विकास होगा.
कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)
 
 

आम चुनाव में खास बहूबेटियां

अब न तो बहुएं घूंघट या परदे में हैं और न ही बेटियों पर पहले सी बंदिशें हैं. महिलाओं को मिल रही इस आजादी को राजनीति के जरिए सहजता से समझा जा सकता है. तमाम बड़े दलों और नेताओं ने बहुओं, पत्नियों और बेटियों पर चुनावी दांव आजमाने में कंजूसी नहीं की है. इस दरियादिली के पीछे छिपी मजबूरी या स्वार्थ है लोकप्रियता भुनाना और अपनी एक सीट बढ़ाना.
चुनाव लड़ रही राजनीतिक परिवारों की महिलाओं ने राजनीति बेहद नजदीक से देखी है. हालांकि उन्हें जगह बनाने के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ा है लेकिन जीतने के लिए जरूर पसीना बहाना पड़ा है. उन पर दोहरा भार और तनाव है. उन्हें मालूम है कि उन की हार सिर्फ उन की ही नहीं, बल्कि रसूखदार पति, पिता और ससुर की भी होगी. लिहाजा, चेहरे पर पेशेवर नेताओं की तरह हावभाव और मुसकराहट लिए वे मैदान में पूरी शिद्दत से हैं. वे कहीं भाभी हैं तो कहीं दीदी तो कहीं मैडम हैं.
चुनाव प्रचार का उन का कार्यक्रम पार्टी के वरिष्ठ कार्यकर्ता तय करते हैं, क्षेत्र के जातिगत और दूसरे समीकरण भी धीमी आवाज में बताते चलते हैं और पार्टी के भीतर व बाहर अपनों व परायों की पहचान भी कराते हैं.
चिट भी अपनी पट भी अपनी
हर एक का अपना एक अलग स्टाइल है, मतदाता से बात करने का अंदाज है. उन्हें एहसास है कि वोटर उन्हें एक अलग खास निगाह से देखता है. परिवार की, पिता, पति या ससुर की प्रतिष्ठा का भार उन्हें जरूरत से ज्यादा नम्र बना रहा है. यह भी उन्हें मालूम है कि हारीं तो व्यक्तिगत तौर पर कुछ नहीं बिगड़ना लेकिन खासा नुकसान घर के मुखिया और पार्टी का होना तय है. और जीतीं तो कद देशभर में बढ़ना तय है क्योंकि उन की सीट सुर्खियों में है, विरोधियों और मीडिया की निगाह उन पर है.
ऐसे में बेहद सधे कदमों से इन उम्मीदवारों को चलना पड़ रहा है. भाषणबाजी से ज्यादा वे व्यक्तिगत संपर्कों में भरोसा करती हैं. ऐसे में छोटी सभाओं को संबोधित करने जैसी कई दुश्वारियों से वे बच भी जाती हैं.
सपा का परिवारवाद
उत्तर प्रदेश की कन्नौज लोकसभा सीट से लड़ रही डिंपल यादव का सादगीभरा सौंदर्य उन की समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव की बहू और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पत्नी होने की पहचान पर अकसर भारी पड़ता दिखता है. 35 वर्षीय डिंपल के चेहरे का आकर्षण और फिटनैस देख सहज नहीं कहा जा सकता कि वे 3 बच्चों की मां हैं. हमेशा साड़ी में लिपटी रहने वाली डिंपल के माथे पर बिंदिया और हाथों में चूडि़यां देख हर कोई कहता है कि बहू हो तो ऐसी.
पर जानने वाले ही जानते हैं कि जब अखिलेश ने उन से लव मैरिज की थी तो मुलायम सिंह अपनी नाराजगी भले ही छिपा गए थे पर नाखुशी पर परदा नहीं डाल पाए थे. अब यही डिंपल ससुर की इतनी चहेती हैं कि यादव परिवार और सपा का प्रतिनिधित्व करने लगी हैं. लखनऊ यूनिवर्सिटी से कौमर्स ग्रेजुएट डिंपल ने कभी सपने में भी राजनीति में जाने की बात नहीं सोची थी लेकिन अखिलेश से दोस्ती प्यार में बदली तो सबकुछ बदल गया और एक मिलिट्री अधिकारी की यह अनुशासित बेटी जल्द ही ससुर की मंशा के मुताबिक सियासी रंगढंग में ढल गई.
मुलायम सिंह सरीखे सख्त और परंपरावादी ससुर का दिल जीत लेने वाली डिंपल एक अच्छी पत्नी भी साबित हुई हैं. अखिलेश को उन का राजनीति में आना पसंद नहीं था पर हालात के चलते उन्होंने ससुर की इच्छा पूरी की तो जल्द ही पति भी मान गए. लेटेस्ट गैजेट्स के इस्तेमाल में माहिर डिंपल पति का फेसबुक अकाउंट देखती हैं और ट्वीट भी करती हैं.
पूरे उत्तर प्रदेश की तरह कन्नौज में भी सपा कार्यकर्ताओं की भरमार है जो अपनी भाभी को जिताने के लिए जीजान लगाए हुए हैं. राजनीति में डिंपल को दोनों तरह के अनुभव हो चुके हैं. 2009 के लोकसभा चुनाव में वे फिरोजाबाद सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार और अभिनेता राजबब्बर के हाथों शिकस्त खा चुकी हैं जो कभी मुलायम सिंह के खास शिष्य हुआ करते थे लेकिन बाद में कांग्रेस में चले गए थे और अभी तक मुलायम सिंह के लिए सिरदर्द बने हुए हैं.
पहली बार की हार के झटके से डिंपल शानदार तरीके से बाहर आईं जब वे 2012 में कन्नौज लोकसभा का उपचुनाव निर्विरोध यानी बगैर लड़े जीतीं. इस तरह डिंपल पहली महिला सांसद बनीं जो निर्विरोध चुनी गईं. यह रिकौर्ड शायद ही कभी कोई तोड़ पाए.
कन्नौज में डिंपल का मुख्य मुकाबला भाजपा के सुब्रत पाठक और बसपा के निर्मल तिवारी से है. यह सीट शुरू से ही समाजवादियों का गढ़ रही है. अखिलेश यादव यहां से 3 बार जीते हैं. 2009 के चुनाव में उन्होंने बसपा के महेंद्र वर्मा को 1 लाख से भी ज्यादा वोटों से हराया था. इस के पहले 2004 और 2000 का उपचुनाव भी वे जीते थे. 1995 में मुलायम सिंह इस सीट से जीते थे. 1967 में प्रख्यात समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया भी कन्नौज का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं. 1984 में शीला दीक्षित यहां आ कर चुनाव लड़ी थीं और कांग्रेस लहर में जीती थीं पर 1989 के चुनाव में वे हार गई थीं.
इस लिहाज से 3 अप्रैल को नामांकन दाखिल करते हुए डिंपल का यह कहना ठीक ही था कि कन्नौज उन के लिए घर जैसी सीट है. सियासी गलियारों में फैली यह चर्चा भी निराधार नहीं है कि कांग्रेस यहां से एक सौदेबाजी के तहत उम्मीदवार खड़ा नहीं कर रही और दबाव अगर पड़ा तो ऐसा उम्मीदवार उतारेगी जो बजाय नुकसान के डिंपल को फायदा ही देगा, एवज में सपा अमेठी और रायबरेली से प्रत्याशी नहीं उतारेगी.
फैमिली ड्रामा लालू का
जो हालत उत्तर प्रदेश में मुलायम परिवार की है लगभग वही बिहार में लालू प्रसाद यादव के कुनबे की है जिन की पत्नी राबड़ी देवी और बेटी मीसा भारती यादव दोनों राजद से मैदान में हैं. राबड़ी सारण से तो मीसा पाटलीपुत्र सीट से चुनावी मैदान में हैं.
मुलायम के मुकाबले लालू यादव परिवार की राह कुछ मुश्किल भरी है. वजह, राबड़ी देवी को उन के ही सगे भाई साधु यादव ने चुनौती दी थी पर 4 अप्रैल को नामांकन वापस ले लिया. साधु कभी बहन और बहनोई के दाएं हाथ थे और उन्हें लालू का सब से भरोसमंद माना जाता था. एक वक्त में पटना में साधु यादव का राज चलता था पर अब हालात उलट हैं.
लालू की बड़ी बेटी मीसा का नाम दिलचस्पी भरा है. आपातकाल के दौरान जब वे जेल में थे तब मेंटिनेंस  औफ इंटरनल सिक्यूरिटी ऐक्ट यानी मीसा के नाम पर ही उन्होंने बेटी का नाम रख दिया था. देखने में बेहद सीधी मीसा मातापिता की ही तरह बेबाक और मुंहफट हैं. वे पेशे से डाक्टर हैं पर प्रैक्टिस नहीं करती हैं. उन्होंने एमजीएम मैडिकल कालेज, जमशेदपुर से एमबीबीएस की डिगरी बहैसियत टौपर हासिल की थी. बीते कई सालों से वे पति व बेटियों सहित राबड़ी देवी के सरकारी बंगले में ही रह रही हैं.
मीसा की शादी पेशे से कंप्यूटर इंजीनियर शैलेष यादव के साथ 1999 में धूमधाम से हुई थी. यह शादी लालू यादव के मुख्यमंत्री रहते हुई थी, लिहाजा सुर्खियों में रही थी. मीडिया तो इस के कवरेज के लिए टूट पड़ा था. पटना के नजदीक विहटा निवासी शैलेष ने लखनऊ से एमबीए किया है. उस से पहले उन्होंने बड़ौदा से इंजीनियरिंग की डिगरी ली थी.  एक प्राइवेट बैंक में नौकरी करने के बाद वे इंफोसिस जैसी नामी कंपनी में नौकरी करने लगे थे. मीसा 2 बेटियों की मां हैं.
मौजूदा चुनाव में कई दुश्मनों और तमाम दिक्कतों से घिरे लालू यादव ने आखिरकार कांग्रेस से गठबंधन कर लिया और जैसे ही मीसा को पाटलीपुत्र से टिकट दिया तो उन के खासमखास राजद के धाकड़ नेता रामकृपाल यादव नाराज हो कर भाजपा में चले गए. रामकृपाल का एतराज यह था कि इस सीट से उन्हें उम्मीदवार बनाया जाना चाहिए था. मीसा ने दिल्ली जा कर अपनी तरफ से रिश्ते के इस चाचा को मनाने के लिए सीट छोड़ने की पेशकश भी की थी पर तब तक रामकृपाल को भाजपा फोड़ चुकी थी.
अब मीसा के सामने चुनौती सीट निकालने की है. कांग्रेस का साथ और पिता का नाम कितनी मदद कर पाएंगे, यह तो नतीजा बताएगा पर मीसा का गुस्सा थमने का नाम नहीं ले रहा. एक खास तरीके से चुनरी ओढ़े रहने वाली मीसा अब चाचा और मामा को सबक सिखाने की बात भी कर रही हैं.
जाहिर है लालू की चिंता मीसा के साथसाथ पार्टी के भविष्य की भी है. वे अपनी बढ़ती उम्र और घटते जादू के चलते पार्टी की बागडोर बेटी के हाथ में दे देना चाहते हैं. इस में शैलेष की भूमिका अहम रहेगी जो हालफिलहाल तटस्थ हैं.
सारण और पाटलीपुत्र दोनों सीटों पर लालू की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है. पत्नी और बेटी उन की प्रतिष्ठा कायम रख पाएंगी या नहीं यह देखना दिलचस्प होगा. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पूरी कोशिश लालू का खेल बिगाड़ने की है तो भाजपा भी पूरे दमखम से लालू का वजूद व हैसियत मिटाने पर तुली हुई हैं. लालू मीसा को बेहद चाहते हैं और उन्हें जिताने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ने वाले लेकिन अब पहले की तरह सबकुछ उन की मुट्ठी में नहीं है.
इसी तरह बिहार के ही सिवान जिले के दबंग सांसद रहे शहाबुद्दीन पिछले कई सालों से जेल में बंद हैं और इस बार सिवान सीट से उन की बीबी हिना शहाब मैदान में हैं. वहीं बाहुबली नेता पप्पू यादव खुद राजद के टिकट से मधेपुरा से चुनाव लड़ रहे हैं और उन की बीबी रंजीता रंजन सुपौल लोकसभा सीट से कांग्रेस के टिकट से चुनावी मैदान में हैं. वैशाली के बाहुबली नेता मुन्ना शुक्ला की बीबी फिलहाल लालगंज विधानसभा सीट से जदयू की विधायक हैं और वे जदयू के टिकट पर वैशाली लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने के मूड में थीं. जब पार्टी ने टिकट नहीं दिया तो वे कमर कस कर निर्दलीय ही चुनावी अखाड़े में कूद पड़ीं.
प्रिया की पकड़
राजनीतिक परिवारों से ताल्लुक रखती महिलाओं का सब से दिलचस्प मुकाबला उत्तरमध्य मुंबई सीट पर है, जहां से अपने जमाने के 2 दिग्गजों कांग्रेस के सुनील दत्त की बेटी प्रिया दत्त और भाजपा के प्रमोद महाजन की बेटी पूनम महाजन आमनेसामने हैं. पिछले चुनाव में भाजपाई महेश जेठमलानी को तकरीबन पौने 2 लाख वोटों से धूल चटा देने वाली प्रिया अब राजनीति में माहिर हो गई हैं और राहुल गांधी के बेहद नजदीकियों में उन का नाम लिया जाने लगा है. 1984 में इस सीट से सुनील दत्त ने भाजपा के धाकड़ नेता राम जेठमलानी को हराया था. उस हार का बदला लेने के लिए अपने बेटे महेश जेठमलानी को टिकट तो राम जेठमलानी दिला लाए पर जिता नहीं पाए.
उत्तरमध्य मुंबई सीट कांग्रेस का उसी तरह गढ़ बन गई है जिस तरह अमेठी, रायबरेली हैं. इस सीट से ताल्लुक रखती दिलचस्प बात यह है कि जबजब सुनील दत्त लड़े तबतब जीते लेकिन 1996 और 1999 में नहीं लड़े तो कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा. इस लिहाज से उत्तर भारतीय वोटों के सहारे प्रिया मजबूत हैं लेकिन उन की दिक्कत कई स्थानीय दिग्गज कांग्रेसियों का प्रचार से मुंह मोड़ लेना है जिन में 2 विधायक कृपाशंकर सिंह और आरिफ नसीम प्रमुख हैं.
सुनील दत्त के साथ प्रिया साए की तरह रहीं और इसी दौरान राजनीति सीखी और जल्द उन्हें समझ आ गया कि सफल होने के लिए जरूरी है कि जनता से सीधे संवाद रखा जाए और समाजसेवा के काम भी किए जाते रहें. प्रतिबद्ध कांग्रेसी सुनील दत्त के खेल एवं युवा मामलों के मंत्री रहते उन्होंने 1,800 किलोमीटर की पदयात्रा भी की थी और पिता का खयाल भी खूब रखा था. हालांकि वे फिल्मों से सीधे नहीं जुड़ी हैं पर उन की लोकप्रियता का आलम यह है कि दबंग अभिनेता सलमान खान ने भाजपा से प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी के सामने

साफसाफ कहा था कि वे प्रिया दत्त को वोट देंगे. अपने जमाने की मशहूर और कामयाब अभिनेत्री नरगिस दत्त की छवि भी प्रिया में दिखती है.
यह भी सुनील दत्त के लिहाज के साथसाथ प्रिया की लोकप्रियता का डर ही था कि नाना पाटेकर जैसे अक्खड़ अभिनेता ने आम आदमी पार्टी का उन के खिलाफ लड़ने का प्रस्ताव अभिनेत्री प्रिटी जिंटा की तरह ठुकरा दिया था. हर कोई मानता है कि प्रिया अपने पिता का नाम और काम बखूबी संभालने में कामयाब रही हैं. 2 साल पहले प्रिया ने वेश्यावृत्ति को कानूनी अधिकार देने की मांग की थी तो बुद्धिजीवी समुदाय में खासी बहस छिड़ गई थी और अधिकांश लोग उन से सहमत थे.
महाजन की विरासत
पूनम महाजन के हक में भी सबकुछ नहीं है. प्रमोद महाजन की मौत के बाद महाजन परिवार टूट गया था. नतीजतन, पूनम ज्यादा नहीं पढ़ पाईं. भाजपा ने प्रमोद की लोकप्रियता को भुनाने के लिए उन्हें 2009 के विधानसभा चुनाव में घाटकोपर सीट से चुनाव लड़ाया लेकिन वे हार गई थीं. इस हार का दाग बहुत गहरा है. उम्मीदवारी के एलान के साथ ही सब से पहले पूनम, उद्धव ठाकरे को ‘प्रणाम’ करने गई थीं. वजह, शिवसेना का भी इस क्षेत्र में खासा असर है, हालांकि भाजपा की तरफ से वोटदिलाऊ नेताओं का यहां टोटा है.
इन दोनों प्रतिद्वंद्वियों में एक विकट की समानता भाइयों का आपराधिक मामलों में लिप्त होना और उन की उद्दंडता भी है. प्रिया के भाई संजय दत्त प्रतिभाशाली अभिनेता हैं पर मुंबई बम कांड के आरोपी होने के चलते इन दिनों जेल में हैं. पूनम के भाई राहुल कभी ड्रग्स के मामले में फंसे थे. आजकल टीवी कार्यक्रमों में भोंडापन और फूहड़ता बिखेरते नजर आ रहे हैं.
अच्छी बात यह है कि दोनों का दांपत्य जीवन खुशहाल और सुखद है. प्रिया के पति ओवेन रेवकान एक मार्केटिंग कंपनी के डायरैक्टर हैं और पूनम के पति आनंद राव मुंबई के जानेमाने उद्योगपति हैं. इन दोनों के ही पति चुनाव प्रचार में आमतौर पर नहीं दिखते सिर्फ पार्टियों में कभीकभार नजर आते हैं.
भाइयों की बेजा हरकतों से परेशान प्रिया और पूनम दोनों को राजनीति में पिता के नाम का फायदा और बड़ा सहारा मिला हुआ है. भाइयों की जगह विरासत संभाल रही ये दोनों इस बार मुश्किल में हैं. मुंबई उत्तरमध्य सीट के मुकाबले को सपा और आम आदमी पार्टी ने दिलचस्प बना दिया है. ‘आप’ के फिरोज पालखीवाला मशहूर वकील नानी पालखीवाला के बेटे हैं. अंदाजा है कि दोनों का ही खेल बराबरी से बिगाड़ेंगे जबकि सपा के फरहान आजमी प्रिया दत्त को थोड़ा नुकसान पहुंचा सकते हैं.
अनुप्रिया की चुनौती
पिता की छोड़ी बादशाहत को उत्तर प्रदेश की मिर्जापुर लोकसभा सीट से 32 वर्षीय अनुप्रिया पटेल संभालती नजर आ रही हैं. दूसरी नेत्रियों के मुकाबले अनु के नाम से मशहूर अनुप्रिया को राजनीति की गहरी समझ है. इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वाराणसी सीट से नरेंद्र मोदी की जीत सुनिश्चित करने के लिए भाजपा को उन की मनुहार करनी पड़ी थी.
अपना दल के संस्थापक सोनेलाल पटेल की इस बेटी से भाजपा हाथ मिलाने को मजबूर हुई और 2 सीटें छोड़ीं जिन में से मिर्जापुर से वे मैदान में हैं. अभी अनुप्रिया वाराणसी की रोहनिया सीट से विधायक हैं. पिछड़ों के आरक्षण की हिमायती इस आकर्षक नेत्री ने उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में गहरी पैठ बना रखी है. यह क्षेत्र पटेल और कुर्मी वोटों की बहुलता के लिए जाना जाता है.
अनुप्रिया ने 12वीं तक की पढ़ाई कानपुर से की थी. इस के बाद दिल्ली के लेडी श्रीराम कालेज से स्नातक होने के बाद उन्होंने नोएडा की एमिटी यूनिवर्सिटी से मनोविज्ञान में एमए किया और एमबीए करने की इच्छा को भी पूरा किया. अपना दल की महासचिव अनुप्रिया जीत के प्रति आश्वस्त हैं. उन के मुकाबले में बसपा से समुदा बिंद और कांग्रेस से ललितेशपति त्रिपाठी हैं.
अनुप्रिया का व्यक्तित्व पूर्वांचल में लोगों को लुभाता है. वे फर्राटे से अंगरेजी भी बोलती हैं और आएदिन आंदोलन, धरने वगैरह भी करती रहती हैं. अपने सिविल इंजीनियर पति आशीष कुमार
का सहयोग उन्हें शुरू से ही मिला हुआ है. पिता सोनेलाल पटेल की मौत और अनुप्रिया की शादी में महज 15 दिन का अंतर था पर आशीष ने अनुप्रिया को टूटने नहीं दिया और राजनीति करने दी.
भतीजा नहीं बेटी
महाराष्ट्र और देशभर की राजनीति के एक और दिग्गज शरद पवार अब 84 साल के हो चुके हैं और इस बार चुनाव नहीं लड़ रहे हैं. उन्होंने अपनी बेटी सुप्रिया सुले को अपनी पार्टी एनसीपी की कमान दे दी है और अपनी सीट बारामती से दोबारा जीतने का जिम्मा भी. कद्दावर मराठा नेता शरद पवार राजीव गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री होते अगर तब के उन के सियासी दुश्मन अर्जुन सिंह और एनडी तिवारी ने टंगड़ी न अड़ाई होती. ये दोनों ही नरसिम्हाराव को प्रधानमंत्री बनाने के लिए लामबंद हो गए थे.
अपनेपराए की पहचान में धोखा खा चुके शरद पवार अब हर कदम फूंक कर रखते हैं. इसीलिए अपनी विरासत उन्होंने भतीजे अजीत पवार के बजाय बेटी सुप्रिया को दी जो राज्यसभा में सांसद रह चुकी हैं.
42 वर्षीय, 2 बच्चों की मां सुप्रिया को देख कोई नहीं कह सकता कि वे एक विशिष्ट महिला हैं. वजह, उन का साधारण गृहिणी की तरह रहना और दिखना है. कभी राजनीति से परहेज करने वाली तेजतर्रार सुप्रिया की शादी नामी उद्योगपति सदानंद सुले से हुई और वे विदेश चली गई थीं. पिता की एक गंभीर बीमारी उन की देश में वापसी की वजह बनी. वे वापस आईं और राजनीति के साथसाथ समाजसेवा में भी दिलचस्पी लेने लगीं.
राजनीतिक परिवारों की दूसरी बहू, बेटियों और पत्नियों की तरह सुप्रिया को भी कभी बहैसियत कार्यकर्ता न कुरसियां बिछानी पड़ीं और न ही फर्श उठाने पड़े. उन्हें सबकुछ परोसा हुआ मिला लेकिन वे इस की उपभोक्ता भर नहीं रहीं. इसलिए अपनी जमीन और पहचान बनाने में भी कामयाब रहीं. जमीनी कार्यकर्ता की अहमियत व उपयोगिता सुप्रिया बेहतर समझने लगी हैं कि जीत महज लोकप्रियता से नहीं, बल्कि कार्यकर्ताओं की मेहनत से मिलती है.
वैभव सुप्रिया ने बचपन से ही देखा है. वे चाहतीं तो एक गृहिणी की तरह भी गुजर कर सकती थीं पर विरासत में मिली राजनीति का मोह वह नहीं छोड़ पाईं और बेटे का फर्ज अदा करते पिता का साम्राज्य संभालने को तैयार हैं. सुप्रिया ने शुरुआत धमाकेदार ढंग से की थी. महिला हितों से जुड़े मुद्दों, भू्रणहत्या और दहेज के मुद्दों को उन्होंने ज्यादा उठाया. दोहरी विदेशी नागरिकता के आरोप और मुकदमे भी झेले, आईपीएल विवाद में भी उन का नाम जुड़ा लेकिन वे जानती हैं कि देश ही नहीं, पूरी दुनिया में राजनीति का एक ही उसूल होता है कि अपनी बचा कर रखो और विरोधी की टांग खींचते रहो.
अगर महाराष्ट्र में कांग्रेसएनसीपी गठबंधन संतोषजनक प्रदर्शन कर पाया तो तय है सुप्रिया सुले भविष्य की एक अहम नेता होंगी. चचेरे भाई अजीत पवार उन का रास्ता छोड़ चुके हैं, जिन्होंने शरद पवार के साथ काफी मेहनत की थी. एक दूसरे नजरिए से देखें तो सुप्रिया ने अजीत का हक ही मारा है पर सियासत के कोई उसूल नहीं होते और इस में सब जायज होता है. यह सुप्रिया की सक्रियता से साबित भी होता है.
आमनेसामने परिवार
एक तरफ जहां ये महिलाएं उत्तराधिकार संभालने के लिए मैदान में हैं तो दूसरी तरफ भारत में एक खूबसूरत चेहरा ऐसा भी है जो पारिवारिक प्रतिष्ठा और राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के चलते राजनीति में आया. पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल की बहू और सुखवीर सिंह बादल की पत्नी 47 वर्षीय हरसिमरन कौर बादल शिरोमणि अकाली दल के टिकट से पंजाब की भटिंडा सीट से मैदान में हैं. 2009 के चुनाव में उन्होंने धुरंधर कांग्रेसी अमरिंदर सिंह के बेटे रणइंदर सिंह को हरा कर सनसनी फैला दी थी.
दरअसल, कभी अमरिंदर ने प्रकाश सिंह बादल पर यह ताना कसा था कि उन में अपने परिवार के किसी सदस्य को चुनाव में उतारने की हिम्मत नहीं है तो जवाब में प्रकाश सिंह बादल ने हिम्मत दिखा दी, जरिया बनीं बहू हरसिमरन.
इस दफा भी हरसिमरन कौर मैदान में हैं. उन के सामने अपने ही देवर मनप्रीत बादल हैं. दूसरी चुनौती आप के उम्मीदवार गायक जस्सी जसपाल से भी मिल रही है. बादल परिवार और प्रकाश सिंह बादल की असल प्रतिष्ठा बहू से है या बेटे से, यह अब मतदाता तय करेंगे लेकिन इस धर्मयुद्ध में फंसी हरसिमरन के चेहरे पर शिकन नहीं है. वे जीत के प्रति आश्वस्त हैं. वे अपने प्रचार में एक बात कह रही हैं कि मनप्रीत कभी किसी का सगा नहीं हो सकता.
सियासी हाशिए पर महिलाएं
घर की महिलाओं के भरोसे कई बड़े नेता हैं पर वे एकदम बेफिक्र नहीं हैं. देश की कोई 50 लोकसभा सीटों से इस बार बेटे, भतीजे, भांजे और साले, दामाद भी चुनाव लड़ रहे हैं. इस लिहाज से राजनीतिक उत्तराधिकारी महिलाओं की संख्या दहाई में न होना बताता है कि सबकुछ ठीकठाक नहीं है. स्त्री जागरूकता, स्वतंत्रता और उत्तराधिकार महज झुनझुने हैं. फलतेफूलते वंशवाद पर अब कोई खास एतराज नहीं जताता. इस का सीधा सा मतलब है कि राजनीति एक व्यवसाय के रूप में स्वीकार ली गई है. हैरानी यह है कि इस में महिलाएं अभी भी कम हैं जिन पर होहल्ला ऐसा मचाया जाता है मानो नेताओं ने सबकुछ उन्हें सौंप दिया हो.
संसद जा कर भी पिता, पति या ससुर के इशारे पर नाचना पड़े तो लगता है राजनीति में भी स्त्री की हैसियत कठपुतली सरीखी है. जवाहरलाल नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी एक उदाहरण भर बन कर रह गई हैं. अब उन की विरासत बहू सोनिया गांधी संभाले हुए हैं पर साफ दिख रहा है कि आखिरकार चलती तो राहुल गांधी की ही है. मौजूदा हालात देख प्रियंका की कांग्रेस में मांग लोकप्रियता की वजह से नहीं थी, न ही महिला होने की वजह से. हकीकत में प्रियंका वाड्रा राहुल से कहीं ज्यादा मेहनती, गंभीर और काबिल हैं पर वे रायबरेली और अमेठी में सिमट कर ही रह जाती हैं तो राजनीति से परे यह एक भारतीय महिला की बेबसी और परतंत्रता ही दिखती है.

इन्हें भी आजमाइए

? खास मौकों पर खास लोगों को मुबारकबाद देने का अर्थ होता है आप ने उन्हें दिल से याद किया. ईमेल, एसएमएस से आप के मन के वह भाव उभर कर नहीं आएंगे जो आप के अपनी लिखावट में भेजे कार्ड, बधाई पत्र आप के प्रियजन के मन को छुएंगे. इसलिए प्रियजन को थोड़ा सा अपना वक्त जरूर दीजिए.
? कपड़े चुनते समय उन के रंग, क्वालिटी एवं फिटिंग पर खासतौर से ध्यान देना चाहिए. कपड़ों की फिटिंग सही और क्वालिटी अच्छी होनी चाहिए. ऐसे कपड़े खरीदें जो आप के शरीर पर ठीक लगें. सही पहनावा आप के आत्मविश्वास में वृद्धि भी करता है.
? जब भी किसी के घर जाएं तो उन के समय और सुविधा का अवश्य ध्यान रखें. भूल से यदि आप उन के सोने या भोजन करने के वक्त पहुंच जाएं तो कोई बहाना बना कर तुरंत  लौट आएं. ऐसे समय में झूठ बोलने में भी अशिष्टता नहीं है.
? रैस्तरां में बच्चों के व्यवहार पर नियंत्रण रखें. उन्हें स्वतंत्र न छोड़ें कि वे दूसरी मेजों के पास जा कर लोगों को डिस्टर्ब करें. हर कोई बच्चे के व्यवधान को पसंद नहीं करता.
? दूसरों के घर भोजन में कोई कमी नजर आए तो कुछ भी बोल कर प्रकट न करें. भोजन की न तो तुलना करें और न ही आलोचना.

इंजीनियरिंग एजुकेशन प्राइवेट कालेजों ने दी सपनों को उड़ान

एक दौर ऐसा भी था जब इंजीनियर बनने की हसरत हर किसी की पूरी नहीं होती थी. लेकिन शिक्षा में आए व्यावसायिक परिवर्तन के अंतर्गत खुले प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेजों ने इंजीनियरिंग क्षेत्र की तसवीर बदल डाली है. देश के हर राज्य में खुल चुके प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेजों में स्टूडैंट्स इंजीनियर तो बन रहे हैं लेकिन इस राह में अड़चनें भी कम नहीं हैं. पड़ताल कर रहे हैं शैलेंद्र सिंह.
अब से 10-12 साल पहले किसी भी युवा के लिए इंजीनियर बनना एक सपने जैसा होता था. देश में इंजीनियरिंग कालेजों की संख्या बहुत कम थी. सरकारी कालेजों में सीटें कम होने से इंजीनियर बनने वाले युवाओं के सामने मैरिट रैंक में आने का संकट होता था. सीटें कम होने से मैरिट की रैंक इतनी ऊंची होती थी कि आम युवाओं के इंजीनियर बनने का सपना अधूरा ही रह जाता था. दक्षिण भारत के कुछ प्रदेशों में प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेज खुलने लगे थे. इन में प्रवेश लेने के लिए पढ़ने वाले को महंगा डोनेशन देना पड़ता था. ऐसे में सामान्य परिवारों के बच्चों का इंजीनियर बनने का सपना अधूरा रह जाता था.
साल 2000 के आसपास से इंजीनियरिंग शिक्षा में प्राइवेट स्कूलों का दखल बढ़ा. उत्तर प्रदेश के अलावा महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान और पंजाब में इंजीनियरिंग और मैनेजमैंट की पढ़ाई कराने के लिए बड़ी संख्या में प्राइवेट स्कूल खुलने लगे. इस के चलते युवाओं को इंजीनियरिंग में कैरियर बनाना सरल होने लगा. अब 4 साल की पढ़ाई की 8 लाख के करीब फीस चुका कर युवाओं को अपने सपने पूरे करने का मौका मिल गया.
उत्तर प्रदेश में इंजीनियरिंग की पढ़ाई को संचालित करने के लिए साल 2000 में उत्तर प्रदेश प्राविधिक विश्वविद्यालय यानी यूपीटीयू की स्थापना हुई. यह एशिया कासब से बड़ा तकनीकी विश्वविद्यालय है. इस के अंतर्गत 400 से अधिक इंजीनियरिंग कालेज और 600 से अधिक मैनेजमैंट कालेज हैं. यहां पढ़ाए जाने वाले कोर्सेज में 2 लाख सीटें हैं.
यूपीटीयू हर साल इन कालेजों में प्रवेश देने के लिए परीक्षा का आयोजन करता है. हर साल ढाई से 3 लाख के बीच छात्र इस परीक्षा का हिस्सा बनते हैं. इस के बाद प्रवेश परीक्षा देने वालों द्वारा हासिल किए गए नंबरों के आधार पर रैंक बनाई जाती है. रैंक के अनुसार छात्रों को इंजीनियरिंग कालेजों में प्रवेश दिया जाता है. अच्छी रैंक लाने वाले ज्यादातर छात्र सरकारी इंजीनियरिंग कालेज में प्रवेश लेना चाहते हैं. इन में कानपुर का एचबीटीआई, लखनऊ का आईईटी और गोरखपुर का मदनमोहन मालवीय कालेज सब से ज्यादा पसंदीदा माने जाते हैं. इस के अलावा कुछ प्राइवेट कालेजों की पहचान भी अच्छे कालेजों के रूप में होती है.
खाली रह जाते हैं बेकार स्कूल 
इंजीनियरिंग कालेजों के निजीकरण ने टैक्निकल और मैनेजमैंट एजुकेशन हासिल करने वाले युवाओं की राह सरल कर दी. जबकि दूसरी ओर कुछ नेताओं, अफसरों और उद्योगपतियों ने  प्राइवेट स्कूलों को अपनी कमाई का जरिया बना लिया. उन्होंने सरकारी सहायता और मनमानी फीस लेने के लिए इंजीनियरिंग कालेज खोलने शुरू कर दिए. स्कूलों में पढ़ाई का स्तर अच्छा नहीं होता. छात्रों के लिए इनोवेटिव प्रोग्राम नहीं चलाए जाते. ऐसी हालत में प्रदेश के छात्रों का मोह ऐसे कालेजों से भंग होने लगा. ऐसे में उत्तर प्रदेश के छात्र अब अपनी पढ़ाई के लिए मध्य प्रदेश, नोएडा और दक्षिण भारत के राज्यों में खुले कालेजों में पढ़ने जाने लगे हैं. उत्तर प्रदेश के कुछ प्राइवेट कालेजों में अच्छी पढ़ाई होती है. इन में आज भी प्रवेश के लिए मारामारी होती है जबकि अच्छी पढ़ाई न कराने वाले कालेज खाली पडे़ होते हैं. ऐसे स्कूल अब अपने कालेजों को बेचने की जुगत में हैं.
ऐसे बेकार स्कूलों के कारण ही इंजीनियरिंग की पढ़ाई पर सवालिया निशान लगने लगे हैं. इस बात को ये प्राइवेट कालेज भी महसूस करने लगे हैं.
यूपीटीयू के वाइस चांसलर प्रोफैसर आर के खंडेलवाल कहते हैं, ‘‘देश में इंजीनियरिंग की मांग बहुत है. जिन छात्रों में अपना कौशल होगा वे अपनी जगह बना लेते हैं. जरूरत इस बात की होती है कि छात्रों के बीच इनोवेटिव एजूकेशन को लोकप्रिय बनाया जाए.’’
प्रोफैसर आर के खंडेलवाल की पहल पर यूपीटीयू के स्कूल इनोवेटिव एजुकेशन देने की योजना तैयार कर रहे हैं. अगस्त 2014 में यूपीटीयू के कालेजों में नए तरह की इनोवेटिव एजुकेशन को ले कर स्कीम तैयार की जा रही है. इस से छात्रों को अपना कैरियर बनाने में मदद मिल सकेगी.
अच्छी गुणवत्ता, बेहतर भविष्य
लखनऊ मौंटेसरी इंटर कालेज के प्रिंसिपल ए बी सिंह कहते हैं, ‘‘इंजीनियरिंग कालेजों को अपने एजुकेशन की गुणवत्ता को बेहतर करने का प्रयास करना चाहिए. अगर ऐसा नहीं हुआ तो न केवल कालेजों को नुकसान होगा बल्कि इंजीनियरिंग पढ़ने वाले छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ भी होगा.
उत्तर प्रदेश के प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेज यूपीटीयू से तय की गई फीस जरूर लेते हैं पर होस्टल और दूसरे मदों के जरिए वे उतनी ही फीस ले लेते हैं जितनी बाहरी प्रदेशों के कालेज लेते हैं. ऐसे में छात्र उत्तर प्रदेश के स्कूलों को छोड़ कर बाहरी स्कूलों में पढ़ाई के लिए जाने लगे हैं.’’
एक अभिभावक महेश मिश्रा कहते हैं, ‘‘प्राइवेट कालेजों में बहुतों के यहां अच्छी बिल्ंिडग दिखती है पर कालेज में छात्रों को पढ़ाने के लिए बेहतर टीचिंग स्टाफ नहीं है. प्रयोगशालाएं नहीं हैं. ऐसे में छात्रों को नया सीखने को नहीं मिलता है.’’
दरअसल, उत्तर प्रदेश के ज्यादातर प्राइवेट कालेजों की हालत बहुत खराब है. वे फीस तो बहुत लेते हैं पर पढ़ाई की क्वालिटी पर ध्यान नहीं देते. ऐसे में कालेजों ने इंजीनियरिंग के अलावा दूसरे विषयों के कोर्स भी शुरू कर दिए हैं. इस के बाद भी ज्यादातर स्कूल ऐडमिशन के लिए छात्रों को तरसते रहते हैं. ऐसे कालेज एडमिशन के समय अपने कालेज का नाम आगे लाने के लिए महंगे प्रचारप्रसार का इस्तेमाल करने लगे हैं. आज के दौर में छात्रों को कालेज की सचाई का पता आसानी से चल जाता है. ऐसे में छात्र खराब स्कूलों की ओर रुख नहीं करना चाहते.
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