हाल ही में मोदी सरकार ने नई दवा नीति की घोषणा की है. दवा बनाने वाली कंपनियों से ले कर बेचने वालों और उपभोक्ताओं तक हर किसी को इस नीति में खामी नजर आ रही है. दवा नीति को दवाओं की कीमतों में वृद्धि के मद्देनजर देखा जा रहा है, क्योंकि थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर कीमत में सालाना संशोधन अनिवार्य हो गया है. हालांकि दावा है कि एक साल में दवा की कीमतों में वृद्धि 10 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी. इस के अलावा जिन दवाओं की बिक्री 1 प्रतिशत से ज्यादा है, ऐसी 348 आवश्यक दवाओं की कीमत की सीमा सरकार निर्धारित करेगी. पिछले 18 सालों में दवाओं की कीमतों में वृद्धि का आंकड़ा देखा जाए तो साफ  हो जाएगा कि इन की कीमतों में बेहताशा वृद्धि हुई है. 1996 से 2006 के बीच का आंकड़ा बताता है कि कीमतों में 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी. लेकिन इस के बाद एक समय ऐसा भी आया जब सिप्ला ने कैंसर के इलाज में इस्तेमाल होने वाली जैनेरिक दवाओं की कीमतें 76 प्रतिशत घटा दीं. इस से मस्तिष्क के कैंसर की दवा टेमोसाइड की 250 मिलिग्राम टैबलेट की कीमत कम हुई. 20 हजार रुपए से अधिक की कीमत वाली यह दवा 5 हजार रुपए में मिलने लगी थी. वहीं फेफड़े के कैंसर की जेफ्टीसिप 250 मिलिग्राम की 30 गोली वाले पैक की कीमत 10 हजार रुपए से घट कर साढ़े 4 हजार रुपए रह गई थी.

मोदी सरकार ने नई दवा नीति की घोषणा कर के बड़ा झटका दिया है. कैंसर से ले कर ब्लडप्रैशर तक की दवाएं महंगी हो गई हैं. कैंसर की जो दवा (ग्लिवेक) साढ़े 8 हजार रुपए में मिलती थी, वह अब लगभग 1 लाख रुपए की हो गई है. इसी तरह कैंसर की एक अन्य दवा की कीमत पहले 500 रुपए थी, वह अब दोगुनी कीमत (1,100 रुपए) की हो गई है. ब्लडप्रैशर की एक दवा की कीमत 147 रुपए से बढ़ कर 1,600 रुपए हो गई है. रैबीज की जो दवा पहले 2,700 रुपए में आती थी, अब लगभग 7 हजार रुपए की हो गई है. जाहिर है मरीज और उस के परिजन की जेब पर मर्ज से कहीं भारी पड़ता है मर्ज का इलाज. अब अगर जैनेरिक दवाओं की बात करें तो कहने की जरूरत नहीं कि ये मरीज और मरीज के परिजन को बहुत बड़ी राहत देती हैं. इस का अंदाजा आगे दिए गए विवरण से मिल जाता है. ये दवाएं अपने वैज्ञानिक फार्मूले के नाम से मिलती हैं, ब्रैंड के नाम से नहीं.

कैंसर के इलाज के लिए दी जाने वाली दवाओं में से एक दवा है नेक्सावर. यह दवा मरीज को आजीवन लेनी पड़ती है. इस दवा का पेटेंट जरमन फार्मास्युटिकल कंपनी बेयर के पास है. इस की 120 गोलियों वाले एक पैक की कीमत 2013 तक 2.84 लाख रुपए थी. जाहिर है पहली बार इस की कीमत जानने के बाद मरीज के परिजनों के होश फाख्ता हो जाएंगे. इस दवा का जैनेरिक नाम सोराफिनिब टौसीलेट है. इस की कीमत लगभग 8 हजार रुपए है. इसी तरह मलेरिया के लिए 3 तरह के इंजैक्शन दिए जाते हैं, जो आर्टिसुनेट सौल्ट से तैयार किए जाते हैं. 3 इंजैक्शनों के एक पैक की कीमत लगभग 400 रुपए है जबकि इस की जैनेरिक दवा की कीमत महज 30 रुपए है. डायबिटीज के लिए बाजार में कई ब्रैंडेड कंपनियों की दवाएं उपलब्ध हैं. सभी ब्रैंडेड कंपनियों की ये दवाएं ग्लाइमपीराइड नामक सौल्ट से बनती हैं. इस मर्ज की 10 ब्रैंडेड गोलियों की एक फाइल की कीमत जहां 125 रुपए है, वहां ग्लाइमपीराइड की कीमत महज 2 रुपए है.

इसी तरह सर्दीजुकाम के लिए भी बाजार में तरहतरह के ब्रैंड की दवाएं मिलती हैं. जुकाम की दवा में आमतौर पर सेट्रीजाइन सौल्ट होता है. ब्रैंडेड दवा की कीमत जहां 35 रुपए फाइल (10 गोलियों का एक पैक) है वहीं जैनेरिक सौल्ट सेट्रीजाइन की कीमत महज ढाई रुपए होती है. हैजे की दवा जिस सौल्ट से तैयार की जाती है उस का नाम है डोमपेरिडौन. इस की ब्रैंडेड दवा के एक फाइल की कीमत 33 से 40 रुपए तक है, वहीं जैनेरिक दवा की कीमत सिर्फ और सिर्फ 1.25 रुपए है. क्रोसीन की जैनेरिक दवा का नाम है पैरासिटामौल, जिस की कीमत क्रोसीन की तुलना में तीनचौथाई कम होती है. साफ  है कि इन सभी मर्ज की ब्रैंडेड दवाओं की कीमतें जैनेरिक दवा की तुलना में कहीं अधिक होती हैं. गौरतलब है कि आमिर खान के ‘सत्यमेव जयते’ कार्यक्रम के जरिए जैनेरिक दवा का अच्छाखासा प्रचार हुआ. यह बात जनजन के मन में घर कर गई कि ब्रैंडेड दवाओं की तुलना में ये कहीं सस्ती होती हैं. तब से आम जनता में जैनेरिक दवाओं की मांग बढ़ती चली जा रही है. आलम यह है कि अब लोग डाक्टरों से प्रिस्क्रिप्शन में जेनरिक दवाओं के नाम लिखने पर जोर दे रहे हैं. कैमिस्ट की दुकान में भी हर रोज औसतन एकाध लोग जैनेरिक दवा की मांग करते हैं. लेकिन दोनों ही स्तर पर लोगों को निराशा ही मिलती है. जहां तक जैनेरिक बनाम ब्रैंडेड दवा पर चर्चा का सवाल है तो यह बदस्तूर जारी है.

ब्रैंडेड बनाम जैनेरिक दवा

इस मुद्दे की विस्तार से चर्चा करने से पहले यह समझ लें कि यह जैनेरिक दवा आखिर है क्या? दरअसल, हरेक दवा का एक रासायनिक संयोजन होता है. इसे फार्माकोपियल कहते हैं, जिस का अर्थ दवा का मूल घटक या ऐक्टिव फार्मास्युटिकल इंग्रीडैंट है. जैनेरिक दवा वह दवा है जो बिना किसी पेटेंट के बनाई जाती है और वितरित भी की जाती है. जैनेरिक दवा के फार्मुलेशन का पेटेंट हो सकता है किंतु उस के सक्रिय घटक या रासायनिक संयोजन का पेटेंट नहीं होता. जबकि ब्रैंडेड दवा का पेटेंट होता है, और जिस के प्रचारप्रसार पर कंपनी लाखों रुपए खर्च करती है. कंपनी को दवा को दुकानों तक पहुंचाने के लिए सेल्समैन और मैडिकल रिप्रैजेंटेटिव की यात्रा पर खर्च करना पड़ता है और डाक्टरों के जरिए इस की बिक्री करवाने के लिए इंसैंटिव आदि देना होता है. कंपनी जैनेरिक दवा की लागत में इन खर्चों को जोड़ देती है. इस कारण ब्रैंडेड दवा की कीमत बढ़ जाती है.

जैनेरिक दवाओं की कीमत पर सरकार का अंकुश होता है. लेकिन किसी ब्रैंड विशेष की दवा का पेटेंट होता है और उस की कीमत निर्माता कंपनी खुद तय करती है. जाहिर है वह महंगी होगी. सीटीजेड, पाईरेस्टेट-100ए मेरिसुलाइड, ओमेसेक-20, ओमिप्राजोल, लिगनोकेन, बूपीवैक्सीन, एसिटिल सालिसाइकिल एसिड डिक्लोफेनेक, इबूप्रोफेन, पैरासिटामौल, क्लोरोक्वीन, एमलोडिपिन, एटीनोलेल, लोसार्टन, मेटफोरमिन, प्रोगेस्टीरोन आदि कुछ जैनेरिक दवाएं हैं. इन से तैयार बहुत सारी दवाएं बाजार में बिकती हैं. भारत में इस समय लगभग दवा के 93 हजार ब्रैंड हैं.

दवा की कीमतों को देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्थिति कितनी गंभीर है. लेकिन सवाल यह है कि डाक्टरों द्वारा दवा का जैनेरिक नाम लिख देने से क्या समस्या का समाधान हो जाएगा? कोलकाता में लंबे समय से जनरल फिजीशियन के रूप में प्राइवेट प्रैक्टिस कर रहे डा. सौमित्र राय का कहना है कि भारत के हर छोटेबड़े शहर और कसबे में डाक्टरों को ले कर लोगों को छिटपुट शिकायतें रहती ही हैं. इस नई मांग के मद्देनजर डाक्टरों की मानवीयता को जैनेरिक और ब्रैंडेड दवाओं से जोड़ कर मापा जा रहा है. डा. राय का कहना है कि जैनेरिक दवा को ले कर जो प्रचार इन दिनों हुआ है, यह उसी का नतीजा है. सामान्यतौर पर प्रिस्क्रिप्शन लिखने में दिक्कतें पेश आ रही हैं. मरीज और मरीज के परिजनों के मन में एक ही बात घर कर गई है कि जैनेरिक दवा सस्ती होती है. इसीलिए डाक्टरों पर दबाव बनाया जा रहा है कि पर्ची में जैनेरिक नाम ही लिखा जाए, न कि किसी ब्रैंडेड का. कुल मिला कर एक भ्रम की स्थिति बन गई है.

डा. राय मरीज और मरीज के परिजनों की इस मांग को गैरवाजिब मानते हैं. उन का कहना है कि दवा खरीदना बाजार से बासमती चावल या खाद्य तेल खरीदने जैसा कतई नहीं है. इसे और खुलासा करते हुए वे कहते हैं कि बासमती चावल या खाद्य तेल खरीदना है तो यह हम और हमारी जेब पर निर्भर करता है कि हम ब्रैंडेड खरीदेंगे या खुला. जाहिर है खुदरा या खुले बासमती चावल की कीमत ब्रैंडेड बासमती की तुलना में कम होगी. अगर खुला चावल यानी गैर ब्रैंडेड चावल बढि़या है तो ठीक है. लेकिन अगर अच्छा नहीं है तो भी कुछ नहीं किया जा सकता. इस के उलट अगर ब्रैंडेड चावल खराब है तो हम क्रेता सुरक्षा अदालत में जा सकते हैं. जबकि खुला चावल खराब निकलता है तो कुछ नहीं किया जा सकता. दवा का भी मामला ठीक वैसा ही है. जैनेरिक दवा की गुणवत्ता अच्छी न होने की सूरत में कुछ नहीं किया जा सकता. वहीं ब्रैंडेड दवा पर नजर रखने के बहुत सारे उपाय हैं.

डा. राय कहते हैं कि दूसरी सब से जरूरी बात यह कि चावल हम अपनी पसंद का खरीदने को आजाद हैं और इस की पूरी जिम्मेदारी भी हम उठाने को तैयार हो सकते हैं. लेकिन दवा के मामले में हमारे पास न यह मौका होता है और न ही यह आजादी कि हम अपने लिए दवा पसंद करें. जाहिर है कि दवा प्रिस्क्राइब करने का काम डाक्टर का है और दवा से जुड़ी तमाम जिम्मेदारी डाक्टर की है. और कैमिस्ट की दुकान से दवा के साथ रसीद लेने पर दवा के अच्छेखराब की जिम्मेदारी कैमिस्ट की हो जाती है. मजेदार बात यह है कि यहीं से तमाम विवादों की भी शुरुआत होती है. चूंकि यह डाक्टर को तय करना होता है कि किसी दवा का वह कौन सा नाम लिखेगा, जाहिर है दवा निर्माता कंपनी के विपणन विभाग द्वारा डाक्टर को प्रभावित करने की पूरी गुंजाइश रह ही जाती है. ऐसे कंपनी विशेष डाक्टर पर प्रिस्क्रिप्शन में अपनी कंपनी की दवा लिखने के लिए दबाव बनाती है.

कमीशन का खेल

एक आम धारणा बन गई है कि डाक्टर कंपनी के दबाव में आ कर किसी कंपनी विशेष की दवा पर्ची में लिखता है. नतीजतन, मरीज पर्ची में लिखी गई कीमती दवा खरीदने को मजबूर होता है. डा. राय कहते हैं कि बहुत सारे मामलों में ऐसा होता भी है कि अपने कमीशन के स्वार्थ और फायदे के लिए या फिर कंपनी द्वारा दिए गए इंसैंटिव के दबाव में डाक्टर उस विशेष कंपनी की दवा पर्ची में लिख भी रहे हैं. दबाव डालने के लिए दवा निर्माता कंपनियां उन्हें कभी कुछ उपहार देने या उन्हें विदेश टूर पर भेजने का हथकंडा तक अपनाती हैं. इस के पीछे कमीशन का खेल भी होता है. दवा की कीमत के अनुपात में कंपनी कमीशन देती है. अधिक कीमत, अधिक कमीशन. यही नहीं, कई दवा निर्माता कंपनियां तो चिकित्सकों के घर का पूरा खर्च तक उठा रही हैं. जाहिर है डाक्टर कम कीमत वाली दवा पर्ची में नहीं लिखते हैं. 

कानून की उड़ती धज्जियां

दवा की कीमत का जहां तक सवाल है, सरकार ने ड्रग प्राइस ऐंड कंट्रोल एक्ट 1940 में बनाया था. लेकिन यह एक्ट पूरी तरह से लागू नहीं है. ब्रैंडेड कंपनियां मनमानी कर रही हैं. जैनेरिक दवाएं उत्पादक से सीधे रिटेलर तक पहुंचती हैं. इन दवाओं के प्रचारप्रसार पर कंपनियों को कुछ खर्च नहीं करना पड़ता. इन पर छपे मूल्य पर स्थानीय कर अतिरिक्त लिखा होता है. एक ही कंपनी की पेटेंट और जैनेरिक दवाओं के मूल्य में काफी अंतर होता है. चूंकि जैनेरिक दवाओं के मूल्य निर्धारण पर सरकारी अंकुश होता है, इसलिए वे सस्ती होती हैं, जबकि पेटेंट दवाओं की कीमत कंपनियां खुद तय करती हैं, इसलिए वे महंगी होती हैं. लेकिन क्या इस चलन को बंद करने का केवल यही एकमात्र रास्ता है कि पर्ची में दवा का जैनेरिक नाम ही लिखा जाए? अपने ही सवाल के जवाब में डा. राय बहुत जोर दे कर कहते हैं, ‘‘नहीं, समस्या का यह कोई समाधान नहीं.’’

दवा के लिए जवाबदेही

डा. राय कहते हैं कि अगर डाक्टर ने दवा का जैनेरिक नाम लिख दिया, तो मरीज या उस का परिजन दवा की दुकान में जा कर क्या खरीदेगा? क्या खरीदा जाए और क्या नहीं-अलिखित रूप से यह तय करने वाला दवा दुकान का कर्मचारी ही हो जाएगा. और तब कंपनियों का ध्यान डाक्टर से हट कर दुकानदारों और उस के कर्मचारियों पर जा टिकेगा. निर्माता कंपनियां जो दबाव डाक्टर पर बनाया करती हैं, वही दबाव दुकानदारों और उस के कर्मचारियों पर बनाने लगेंगी. यह एक बहुत ही भयानक स्थिति होगी. डाक्टर तो फिर भी डाक्टर है. मरीज का एकमात्र भरोसा. उस पर प्रिस्क्रिप्शन में दवा लिख कर हस्ताक्षर करने और अपना रजिस्ट्रेशन नंबर लिखने के बाद डाक्टर की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है. इसी के साथ डाक्टर के सिर पर इंडियन मैडिकल काउंसिल, राज्य स्वास्थ्य विभाग और उपभोक्ता अदालत आदि की तलवारें लटकती रहती हैं. उसे जवाबदेही करनी पड़ती है. जबकि कैमिस्ट और उस के कर्मचारी की किसी बात के लिए जवाबदेही नहीं बनती है. इसीलिए इन पर डाक्टर जैसा भरोसा नहीं किया जा सकता. दुकानदार अपनी पसंदीदा दवा बेच कर निकल जाएंगे, और ग्राहक को पता ही नहीं चलेगा कि उस ने क्या खरीदा. उस पर यह सब जबानी ही होगा.

सरकार करे पहल

जैनेरिक दवाएं अपने रासायनिक नामों से ही बेची जाती हैं. रासायनिक संयोजन के कई फायदे हैं, जैसे इस का नाम भूलने की संभावना भी कम होती है. दवा की कीमत भी कम हो जाती है. डा. सौमित्र राय कहते हैं कि बाजार में बिकने वाली ज्यादातर दवाएं दो या दो से अधिक दवाओं के सम्मिश्रण से बनती हैं. दुनियाभर में इन दवाओं को मान्यता मिली हुई है. ऐसी दवाओं का जैनेरिक नाम लिखना लगभग असंभव है.

वे कहते हैं कि कुछ दवाएं हैं जो आमतौर पर सभी घरों में होती हैं, जैसे जेलूसिल या डाइजीन. निकल कर देख लीजिए कि इस के यौगिक या घटक क्याक्या हैं और कितनी मात्रा में हैं. यह पूरी तालिका किसी भी डाक्टर के लिए लिखना असंभव है. अगर जेलूसिल खाना है तो क्या इस के तमाम यौगिक लिख कर दुकान में जाना व्यावहारिक होगा? थोड़ा और साहस कीजिए और बिकोसूल कैप्सूल के यौगिकों को ध्यान से देखें. इस का जैनेरिक नाम लिखना डाक्टर के लिए कितना मुश्किल होगा! और भी थोड़ा आगे बढ़ कर सोचें. मान लीजिए कोई हाई ब्लडप्रैशर का मरीज है. इस के लिए कम से कम 50 तरह की दवाएं हैं. डाक्टर कौन सा नाम लिखेगा, यह जैनेरिक दवा बनाने वाली कंपनी द्वारा प्रभावित हो सकता है. उस पर जेनरिक दवा भी कोई न कोई कंपनी ही बनाती है. फिर क्या गारंटी है कि वहां भ्रष्टाचार शुरू नहीं होगा? यहां भी कैमिस्ट, स्टौकिस्ट्स और डाक्टरों की मिलीभगत शुरू हो जाएगी. सब जानते हैं कि हमारे यहां दवा का कारोबार डाक्टर, कैमिस्ट और स्टौकिस्ट की मिलीभगत से होता है. इस मिलीभगत को तोड़ने के लिए सरकार को पहल करनी होगी. जैनेरिक दवाओं को लोकप्रिय बनाने का दायित्व सरकार के फार्मास्युटिकल विभाग को उठाना होगा, बाजार में सभी दवाओं का जैनेरिक वर्जन उपलब्ध कराना होगा.

वे आगे कहते हैं कि 2008 में सरकार ने एक योजना ‘औषधिष’ के तहत इस की पहल भी की थी. लेकिन यह पहल बीच में ही ठप हो गई. और फिर पूरी योजना ठंडे बस्ते में चली गई. इस योजना के तहत देश के विभिन्न राज्यों में जैनेरिक दवाओं की दुकानें खोली जानी थीं. लेकिन महज 300 दुकानें खोलने के बाद यह योजना ठंडे बस्ते में चली गई. हो सकता है दवा निर्माता कंपनियों के दवाब में आ कर ऐसा हुआ हो. बहरहाल, इस मुद्दे पर सही माने में विचार तभी किया जा सकेगा जब हम दिल पर हाथ रख कर अपनेआप से यह सवाल पूछेंगे कि बाजार से खुला खाद्य तेल खरीदना क्या हम पसंद करेंगे? इसीलिए बेहतर है कि यह काम डाक्टर के विवेक पर छोड़ दिया जाना चाहिए. सरकार जब तक बाजार में ब्रैंडेड दवा की बिक्री जारी रखेगी, तब तक डाक्टर को दवा का ब्रैंड चुनने की छूट देनी ही होगी. बेहतर है कि सरकार बाजार से ब्रैंड उठा ले और तमाम जैनेरिक दवा बाजार में उपलब्ध हों. मुद्दे का सारांश यह कि अगर जख्म है तो उसे ठीक करना जरूरी है, न कि जख्म का स्थान बदलना. इस से भी बड़ी बात यह कि ब्रैंडेड बनाम जैनेरिक दवा के 2 पाटों के बीच पिस रहे हैं मरीज व उस के परिजन

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