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भीतरबाहर

 
 
पक्षियों सा भरता उड़ान
यह मन का द्वार
खिड़की के उस पार
जब देखता है अनंत आकाश
अभिलाषाएं लेती हैं उफान
जैसे सागर में कोई तूफान
 
पर खिड़की के अंदर
धूमिल सा प्रकाश
भावनाएं तरसती हैं हरपल
पाने को एक अलौकिक प्रकाश
जब देखता है मन
खिड़की के आरपार
 
भीतरबाहर की कशमकश से
मानो पाना चाहता है निजात
लालायित रहता है हर क्षण
छूने को नीला आकाश
यह मन का द्वार
जब देखता है खिड़की के उस पार.
सुशीला श्रीवास्तव

जीने की चाह

 
अपनी शर्तों पर जीने की
एक चाह सब में रहती है
किंतु जिंदगी अनुबंधों के
अनचाहे आश्रय गहती है
 
क्याक्या कहना
क्याक्या सुनना
क्याक्या करना पड़ता है
कितना मरना पड़ता है
 
समझौतों की सुइयां मिलतीं
धन के धागे भी मिल जाते
संबंधों के फटे वस्त्र तो
सिलने को हैं सिल भी जाते
 
सीवन
कौन, कहां, कब उधड़े?
इतना डरना पड़ता है
कितना मरना पड़ता है
 
मेरी कौन बिसात यहां तो
संन्यासी भी सांसत ढोते
लाख अपरिग्रह के दर्पण हों
संग्रह के प्रतिबिंब संजोते
 
कुटिया में कौपीन कमंडल
कुछ तो धरना पड़ता है
जी कर देख लिया जीने में
कितना मरना पड़ता है.
बीना बुदकी
 

भारत को घेरने की अमेरिकी चाल का करारा जवाब

अमेरिकी प्रशासन अकसर यह प्रचार करता रहता है कि भारत की निवेश नीति में खामियों की वजह से बहुराष्ट्रीय कंपनियों को वहां निवेश में भारी संकट का सामना करना पड़ रहा है. उस के इस दुष्प्रचार के बावजूद बड़ीबड़ी अमेरिकी कंपनियां भारत में निवेश को प्राथमिकता दे रही हैं. भारत में निवेश कर के वे हमें उपकृत नहीं कर रहीं. उन कंपनियों का सीधा मकसद लाभ कमाना होता है और उन्हें जहां बाजार दिखेगा, कारोबार में लाभ की संभावना दिखेगी, वे किसी की परवा किए बिना वहां निवेश करेंगी.
इन कंपनियों का कहना है कि वे बिना अनुकूल परिस्थितियों के किसी बाजार में नहीं घुसती हैं. भारत में उन्हें पूरी तरह से अनुकूल माहौल मिलता है.
दरअसल, ओबामा सरकार को सिर्फ वही समझ आता है जो उस की नीतियों के अनुकूल होता है. इसी नीति के तहत अमेरिकी वाणिज्य उद्योग मंडल ने भारत से कहा है कि वह अपने कानून में बदलाव करे और निवेश करने वाली विदेशी कंपनियों को संरक्षण देने की अपनी नीति में सुधार लाए.
अमेरिका की धमकी का जवाब देते हुए वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने हाल ही में उसे स्पष्ट कर दिया है कि यदि अमेरिका को लगता है कि भारत अंतर्राष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन कर रहा है तो वह हमारी शिकायत विश्व व्यापार संगठन यानी डब्लूटीओ में जा कर करे. गिलीड, फोर्ड, आईवीएम जैसी नई बड़ी कंपनियां अमेरिका के रुख के खिलाफ खड़ी हो गई हैं और उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि बाजार के लिए बौद्धिक संपदा का संरक्षण आवश्यक है और भारत में कारोबार करते हुए उन्हें कहीं भी लगता नहीं कि भारतीय बाजार में उन के अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है. इन कंपनियों ने भारत से यह जरूर कहा है कि वह निवेश की प्रक्रिया को कुछ और सरल बनाए. बहरहाल, यह अमेरिकी चाल है जिस का भारत ने सख्ती से जवाब दिया है.

ई-मोड पर कर्मचारी भविष्य निधि

सार्वजनिक क्षेत्र का कर्मचारी भविष्य निधि संगठन यानी ईएफपीओ जमाने के साथ बदल रहा है. संगठन ने तय कर दिया है कि इस साल अगस्त तक वह पूरी तरह से भविष्य निधि से निकासी की प्रक्रिया को सरल बना कर ई-मोड पर ला देगा.
कर्मचारियों को अब तक भविष्यनिधि की अपनी रकम वापस पाने के लिए तरहतरह के दस्तावेजों के झंझट से गुजरना पड़ता था और सभी आवश्यक औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद उसे उस की कमाई का चैक मिल पाता था. एक तरह से उसे सेवानिवृत्ति पर साबित करना पड़ता था कि उस के भविष्य निधि में जो पैसा है वह उसी के वेतन से काटा गया है, इसलिए इस का भुगतान उसे किया जाना चाहिए.
ईएफपीओ के ई-मोड पर आने से औपचारिकताएं कम नहीं होंगी लेकिन कर्मचारी को इस के लिए अब ईएफपीओ के चक्कर नहीं काटने पड़ेंगे. आवश्यक जांचपड़ताल के बाद उस का पैसा सीधे उस के बैंक खाते में पहुंच जाएगा. ईएफपीओ के करीब 93 फीसदी काम ई-भुगतान के जरिए हो रहे हैं लेकिन अगले 3-4 माह में यह कार्यालय पूरी तरह से ई-भुगतान पर निर्भर हो जाएगा. कर्मचारी के भविष्य निधि की रकम का अलग से बैंकड्राफ्ट अथवा चैक बनाने की आवश्यकता नहीं होगी, पैसा सीधे उस के खाते में पहुंच जाएगा.
ईएफपीओ का काम लगातार बढ़ रहा है. पिछले वित्त वर्ष में उस का काम पहले साल की तुलना में 13 फीसदी बढ़ा है और इस में लगातार बढ़ोतरी हो रही है. समाप्त वित्त वर्ष से पहले इस संगठन ने एक करोड़ लोगों के मामले निबटाए थे जबकि 2013-14 में 1 करोड़ 22 लाख लोगों के मामले सुलझाए हैं. उम्मीद की जा रही है कि ई-भुगतान के जरिए कर्मचारियों की निधि का भुगतान करने से न सिर्फ संगठन की कार्यक्षमता बढ़ेगी बल्कि कर्मचारियों को भी इस का सीधा लाभ मिलेगा.

छोटे शहरों का तेजी से रुख करती मौल संस्कृति

 
महानगरों में मौल संस्कृति का प्रचलन शुरू हुआ था तो खुदरा व्यापारियों की आजीविका को ले कर तरहतरह की चिंताएं व्यक्त की गईं. साथ ही यह भी चर्चा रही कि अपने महल्ले के आसपास जरूरत का सामान खरीदने के आदी भारतीय समाज में मौल संस्कृति ज्यादा प्रभावशाली साबित नहीं होगी. शुरुआती दौर में ये दोनों चिंताएं बेबुनियाद साबित हुईं लेकिन इस संस्कृति का असली रंग अब दिखने लगा है. महानगरों में फैला मौल का जाल कमजोर पड़ रहा है और कारोबारी जिस उम्मीद में मौल में घुसे थे उन्हें उतनी सफलता मिलती नजर नहीं आ रही है.
वाणिज्य उद्योग संगठन यानी एसोचेम का कहना है कि मैट्रो शहरों में 300 से 350 मौल ऐसे हैं जिन में 75-80 फीसदी जगह खाली पड़ी है. दरअसल, आम उपभोक्ता की यह धारणा बन गई है कि मौल में सामान अपेक्षाकृत महंगा होता है. उधर, छोटे शहरों के उपभोक्ता वर्ग की धारणा इस के उलट है. उस का मानना है कि मौल संस्कृति ठीक है. वहां अच्छी क्वालिटी और अपेक्षाकृत सस्ती दर पर बेहतर सामान मिलता है. साथ ही, मौल में खरीद से उस की महानगर की जीवनशैली जैसे संभ्रांत होने के एहसास की भी पूर्ति हो जाती है. तेजी से आय में बढ़ोतरी छोटे नगरों के उपभोक्ताओं को ‘ऊंची दुकान’ पर आने को उकसा रही है. उसे लगता है कि ऐसा कर के उस के संभ्रांत होने की पुष्टि हो रही है.
शायद यही वजह है कि मौल छोटे नगरों में तेजी से विकसित हो रहे हैं. मौल निर्माण से जुड़ी एक सलाहकार कंपनी का कहना है कि अगले 5-7 साल में करीब एक हजार मौल विकसित किए जाने हैं. इन में 70 प्रतिशत छोटे नगरों में विकसित होने हैं.
कंपनी का कहना है कि मौल देहरादून, रायपुर, लखनऊ, नागपुर, कोच्चि, विजयवाड़ा और मैसूर जैसे शहरों में करीब 700 बनाए जाने की योजना है. छोटे नगरों में उपभोक्ता के पास पैसा है, जगह है और व्यापारियों के सामने कम प्रतिस्पर्धा है, इसलिए इन नगरों में मौल संस्कृति तेजी से पनप रही है. स्थिति यह है कि दूरदराज के राज्यों के जिला मुख्यालयों में भी, छोटे ही सही, मौल तैयार हो रहे हैं.
 

भारत भूमि युगे युगे

सियासी भाईबहन
चचेरे, ममेरे, फुफेरे और मौसेरे भाईबहनों के साथ बचपन में गुजारा वक्त जिंदगीभर जेहन में महफूज रहता है. जिस में सिर्फ मीठी यादें, शरारतें और झूठमूठ की लड़ाइयां होती हैं. ये यादें मुसकराने की वजह भी होती हैं, इसलिए लोग अकसर कहते यह हैं कि बचपन कितना अच्छा होता है, और लौट कर क्यों नहीं आता. प्रियंका वाड्रा और वरुण गांधी की लड़ाई सियासी है जिस में वरुण शालीनता दिखाते हार कर भी जीत गए हैं. एक सधे नेता की तरह वे नपातुला बोले, धैर्य नहीं खोया और उकसावे में नहीं आए यानी बचपना नहीं दिखाया. रिश्तेदारों के बीच बैर के बीज हमेशा की तरह इस मामले में भी मांबाप के बोए हुए हैं, तो इस में इन वयस्क बच्चों का भला क्या दोष?
 
हवाई जीवन
नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी ने 45 से भी ज्यादा दिन हैलिकौप्टर और हवाई जहाजों में गुजारे, वहीं इन्होंने चायनाश्ता किया, लंचडिनर लिया, रणनीतियां बनाईं, चिंतनमनन किया और जहां भी उतरे, भीड़ के सामने चेहरे पर ओढ़ी मुसकराहट के साथ हाथ हिला कर उस का अभिवादन किया. भाषण दिया और दूसरे शहर की तरफ उड़ लिए. हवा में तो ये खूब रह लिए, अब बारी जमीन की है. यह जमीन किस के हिस्से में आती है यह तो समय ही बताएगा. दुनियाभर के लोग शाम ढले पक्षियों की तरह वापस घर आने को फड़फड़ाते हैं, जिस से नौकरी या कारोबार की थकान बीवीबच्चों, घर वालों के साथ बैठ कर उतार सकें. इन की दुनिया बहुत छोटी पर महत्त्वपूर्ण होेती है, जो नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी को अलगअलग वजहों के चलते नसीब नहीं है जिस की चर्चा प्रचार के दौरान अप्रिय तरीके से हुई भी.
 
कारोबार के गुर
लाखों लोगों को नौकरी देने वाले रिलायंस के मुखिया मुकेश अंबानी की 22 वर्षीय बेटी ईशा अंबानी अमेरिका की नामी कंसल्ंिटग कंपनी मेकेंजी में बतौर कंसल्टैंट नौकरी करेगी, इस खबर को जिस ने भी सुना, हैरानी से यही कहा कि भला मुकेश अंबानी की बेटी को नौकरी की क्या जरूरत. दरअसल, जरूरत अनुभव की, कर्मचारियों से काम निकालने और कारोबारी गुर सीखने की है. जो पिता और अपनी कंपनी से दूर रह कर ही हासिल किए जा सकते हैं. व्यावसायिक दुनिया बेहद क्रूर होती है. और यही क्रूरता सीखने के लिए ईशा मेकेंजी में है. खुद पढ़ाने के काबिल होते हुए भी मांबाप संतान को दुनियादारी सीखने के लिए स्कूल भेजते हैं, यही मुकेश कर रहे हैं. वे चाहते हैं कि उन की बेटी अपने नाम से जानी और पहचानी जाए.
 
पितामह की भूमिका 
क्या सचमुच लालकृष्ण आडवाणी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाए जाने पर सहमत हो गए हैं, इस सवाल का सही जवाब 16 मई के बाद ही मिलेगा. वह भी उस सूरत में जब एनडीए बहुमत में आए. कल तक बातबात में बच्चों की तरह रूठ जाने वाले और मोदी के नाम पर नाकभौं सिकोड़ लेने वाले भाजपा के इस पितृ पुरुष के  दिल में दरअसल है क्या, इस का अंदाजा राजनीति के अच्छेअच्छे जानकार नहीं लगा पा रहे. आम और खास दोनों तरह के लोगों को आडवाणी का मोदीमय चरित्र न तो रास आ रहा है न ही गले उतर रहा है और न ही लोग इस पर भरोसा कर पा रहे हैं. इस से जाहिर है कि आडवाणी को आम जनता हलके  में नहीं लेती और उम्मीद कर रही है कि जरूरत पड़ने पर वे कोई धमाका जरूर करेंगे.
 

नए रिकौर्ड की तरफ शेयर सूचकांक

शेयर बाजार में उतारचढ़ाव के बीच मजबूती का रुख है. अप्रैल में बाजार लगातार 5वें सप्ताह हलके उतारचढ़ाव के बीच तेजी पर बंद हुआ. अप्रैल के दूसरे और तीसरे सप्ताह के दौरान बाजार में अवकाश का माहौल रहा. 7 से 20 अप्रैल के बीच बाजार में सिर्फ 7-8 दिन ही कारोबार हुआ. इस दौरान जम कर मुनाफावसूली हुई और उतारचढ़ाव का दौर भी जारी रहा. बाजार में जो गिरावट दिखी उस की वजह मार्च में महंगाई के 3 माह के उच्चतम स्तर पर पहुंचने, बैंक ऋण दरों में कटौती होने की धूमिल संभावनाओं के साथ ही रुपए पर दबाव की स्थिति रही.
थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर मार्च में 5.70 प्रतिशत रही जो 3 माह में सर्वाधिक थी जबकि फरवरी में यह दर 4.86 फीसदी के साथ 9 माह के न्यूनतम स्तर पर थी. बाजार में गिरावट भी जम कर हुई और 16 अप्रैल को 208 अंक की गिरावट के साथ सूचकांक 3 सप्ताह के निचले स्तर पर जा पहुंचा. रुपया भी उस दिन 3 सप्ताह के न्यूनतम स्तर पर बंद हुआ. इस से बाजार में मुनाफावसूली का दौर तेज हुआ और दिग्गज कंपनियों के शेयरों में गिरावट का रुख रहा.
उधर, कंपनियों के तिमाही परिणाम आने शुरू हुए तो बाजार में फिर रौनक बढ़ने लगी और सूचकांक 23 हजार अंक के स्तर की तरफ बढ़ने लगा. 22 अप्रैल को कारोबार के दौरान सूचकांक नए स्तर पर पहुंचा लेकिन बाद में गिर कर बंद हुआ. अगले कारोबारी सत्र में सूचकांक ने फिर नया स्तर कायम किया और यह 22,877 अंक पर जा पहुंचा. रुपया हालांकि कमजोर पड़ा लेकिन बीएसई और निफ्टी नए स्तर की तरफ छलांग लगाते रहे.

नेताओं के खोखले बोल वादें हैं वादों का क्या

अरसे से चुनाव दर चुनाव जनता को वादों की नियमित खुराक दे रहे नेता आज भी वादों का लौलीपौप दिखा कर चुनाव जीतने की फिराक में हैं. सवाल है कि जनता को वोट देने के लिए जबतब उकसाती रहे मीडिया, फिल्मी कलाकार और सामाजिक संस्थाएं घिसेपिटे वादों की रट लगाए इन सियासतदानों के गिरेबां क्यों नहीं पकड़ते, पड़ताल कर रहे हैं भारत भूषण श्रीवास्तव.
कतरी सराय, गया (बिहार) के मर्दाना ताकत के इश्तिहारों और राजनेताओं के वादों, दावों व आश्वासनों में एक अद्भुत समानता यह है कि दोनों ही की जरूरत आजादी के बाद से ही बनी हुई है, बावजूद इस हकीकत के कि देश से न बीमार व कमजोर लोग खत्म हुए हैं न ही राजनीति में परेशानियों व समस्याओं का हल ढूंढ़ने वालों का टोटा पड़ा है.
लोकसभा चुनाव का नजारा देख लगता यह है कि चुनाव को भी लोगों के मनोरंजन और वक्त काटने का जरिया बना दिया गया है. 1952 के पहले लोकसभा चुनाव की तरह पुरानी बातें दोहराई जा रही हैं और 62 साल पुराने वादे किए जा रहे हैं कि बस, इस दफा वोट हमें दे दो फिर आप की सारी तकलीफें दूर हो जाएंगी, हम सड़कें बनवा देंगे, पानी देंगे, बिजली चौबीसों घंटे मिलेगी, कि सभी को रोजगार मिलेगा, और भ्रष्टाचार तो बस यों चुटकियों में दूर हो जाएगा.
एक बात हजार तरीकों से कैसे की जा सकती है, नेताओं को इस में महारत हासिल है. मंच के सामने इकट्ठा भीड़ बीचबीच व आखिर में थोक में तालियां पीट कर नेता का उत्साह बढ़ा कर चली जाती है. फिर घरों, दफ्तरों और चौराहों पर अपनी राय सार रूप में यह देती है कि ये क्या कर लेंगे, सब एक से हैं, सारी मारामारी कुरसी के लिए है.
इस भीड़ की पीठ पर कई लोग, संस्थाएं, मीडिया, धर्मगुरु और चुनाव आयोग तक लाठी मार रहे हैं कि चलो, वोट डालो, अपनी सरकार चुनो और जागरूकता दिखाओ, तभी उस का भला होगा. इस बार 10-12 फीसदी ज्यादा लोगों ने जागरूकता दिखा भी दी और वोट डाल कर मतदान प्रतिशत बढ़ा दिया. इस भीड़ ने जो चुनावी मौसम में गला फाड़ कर राजनीति पर चर्चा और बहस करती है, दबी आवाज में यह पूछा कि जो वादे आप कर रहे हैं उन्हें पूरे कैसे करेंगे. दबी आवाज में इसलिए कि वोट डालने के लिए उकसाने वालों ने यह नहीं कहा कि राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों और नेताओं के लुभावने भाषणों पर जिरह मत करने लगना. यह कानूनी अनुबंध नहीं है सिर्फ वादा है जिस पर चल कर नेता को संसद और राजनीतिक दल को सत्ता में पहुंचना है.

अपनी डफली अपना राग
भारतीय जनता पार्टी ने काला धन वापस ला कर गरीबी दूर करने की बात प्रमुखता से कही तो लोग चकरा उठे क्योंकि यह गरीबी पनपने की नई वजह बताती बात भी थी. दूसरी अहम बात यह उजागर हुई कि विदेशों में जमा सारा काला धन कांग्रेसियों का है क्योंकि वे सब से ज्यादा वक्त सत्ता में रहे हैं और इस दौरान बजाय देश चलाने के काला पैसा इकट्ठा करते रहे हैं. देश के नामी उद्योगपति भी इस गोरखधंधे में शामिल हैं.
भारतीय मतदाता बड़ा दिलचस्प और तर्कशील भी है. बारबार काले धन का राग अलापा गया तो लोग प्रतिप्रश्न यह करने लगे कि इस बात की क्या गारंटी कि आप भी काला धन जमा नहीं करेंगे और विदेशों से इसे लाएंगे कैसे, क्या स्विस बैंक वाले आप के कह देने से ही थाली में खरबों रुपया सजा कर वापस दे देंगे? गांधी, नेहरू परिवार का दामाद 2-3 लाख रुपए की पूंजी लगा कर 300 करोड़ रुपए का आसामी बन बैठा तो क्या आप का बेटा, दामाद, भाई या भतीजा ऐसा नहीं बनेगा, इस की क्या गारंटी?
इधर कांग्रस ने कालेपीले धन पर ज्यादा तवज्जुह नहीं दी. उस ने समाज पर अपनी शाश्वत मनोवैज्ञानिक पकड़ को भुनाते व रोजगार की बात करते हुए ‘हर हाथ शक्ति हर हाथ तरक्की’ का नारा दिया और उस में भी औरतों पर ज्यादा फोकस किया. वजह, महिलाएं अब तेजी से शिक्षित हो रही हैं, जाहिर है रोजगार के लिए इसलिए उन्हें लालच दिया गया कि पुलिस बल में 25 फीसदी महिलाओं को नौकरियां दी जाएंगी.
लोग बेहतर जानते हैं कि बीते 10 सालों में 25 तो दूर की बात है ढाई फीसदी महिलाओं को भी रोजगार नहीं मिला है और न ही आगे मिलना है.
बुरे दिनों से छुटकारा चाहते लोग 
दरअसल, लोग अच्छे दिन नहीं चाहते बल्कि बुरे दिनों, जो बाबुओं, बाबाओं और इंस्पैक्टरों की देन हैं, से छुटकारा पाना चाहते हैं और आजादी के बाद से भ्रमित हैं कि सालों पहले इंदिरा गांधी के जमाने में जो गरीबी दूर हो जानी चाहिए थी वह बढ़ती क्यों जा रही है? सालों पहले ही कांग्रेसी जुल्मोसितम और तानाशाही यानी इमरजेंसी से तंग आ कर हम ने सत्ता जनता पार्टी को दे दी थी, वह क्यों अपने कहे को पूरा नहीं कर पाई?
पर हर चुनाव में वादे इतने आत्म- विश्वास से किए जाते हैं कि लोगों को अपने अनुभवों पर शक होने लगता है, जो इस चुनाव में भी हुआ. सड़क, बिजली, पानी, खाना, खाद, बीज, कपड़े, शिक्षा, स्वास्थ्य सब सस्ते में देने का वादा इन चलतीफिरती क्लीयरैंस सेल में देखने को मिला तो एक दफा लगा, नहीं, ये झूठ नहीं बोल रहे हैं, इस बार शायद दे ही देंगे.
पीछे मुड़े तो एहसास हुआ कि अब तक वे इन्हीं वादों पर मरतेमिटते रहे हैं. यह ठीक है कि मंगलसूत्र, साडि़यां और लैपटौप तक फ्री मिले लेकिन कुछ हजार लोगों को जिस का ढिंढोरा इस तरह पीटा गया मानो पूरे सवा अरब लोगों को दे दिया हो. राज्य का हो या केंद्र का, केवल जनसंपर्क विभाग ही मुस्तैदी से काम करता है. उस के द्वारा एक फोटो हजारों बार छोटे परदे पर दिखवाया और अखबारों में छपवाया जाता है जिस में वादा पूरा होता लगता है.
हकीकत उलट है. किसी को कुछ नहीं मिलता है, उलटे इन सामानों की खरीदारी पर एक घपला और उत्पन्न हो जाता है. यानी योजनाएं बनती ही भ्रष्टाचार करने के लिए हैं तो फिर नईनई योजनाओं का ऐलान क्यों? लोग समझ जाते हैं कि नए सिरे से नए भ्रष्टाचारों और घपलों की इबारत लिखी जा रही है. वोट चाहे किसी को भी दे दो, यह तो होगा ही क्योंकि सब के झोले में योजनाएं हैं. हैरत की बात यह है कि जिन 25 फीसदी लोगों के टैक्स से सरकार चलती है उस के लिए किसी के पास कुछ नहीं है. जाहिर है सारा झमेला 75 फीसदी जनता के लिए है जो जाने क्यों अब तक गरीब, अशिक्षित, अस्वस्थ और बेरोजगार है.

ब्रैंड से चमके नेता
बीते साल कड़कड़ाती सर्दी में दिल्ली से एक नई रोशनी उठी थी जो अभी भी टिमटिमा रही है. आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल नए नायक बन कर उभरे पर महज 49 दिनों में फुस्स हो गए. लोग बड़े निराश हुए कि जब ईमानदारों का यह हाल है तो बेईमान ही क्या बुरे हैं, कम से कम वे कुरसी पर तो बने रहते हैं.
अरविंद केजरीवाल ने पूरी साफगोई से कहा कि नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी दोनों उद्योगपतियों की थैली में रहते हैं, हम बाहर हैं इसलिए हमें वोट  दो. इधर, मोदी और गांधी मंदमंद मुसकराते रहे. उत्साह, अनुभव से हार गया और लोगों ने आप को बड़ा मौका देने से तौबा कर ली क्योंकि उन्हें 49 दिन की ईमानदार नहीं 5 साल की बेईमान सरकार चाहिए थी. जनता जानती है कि चुनाव खर्च का भारीभरकम पैसा भी उसी के खीसे से जाता है.
भाजपा ने नरेंद्र मोदी को आगे कर दिया जो ठेठ देसी अंदाज में बोलते हैं. नरेंद्र भाई ने एक झटके में जड़ उखाड़ कर मंच से लहरा दी कि देखो, गांधीनेहरू परिवार पनपता रहा है, हम और आप ज्यों के त्यों हैं. चाय बेचने वाले को यानी उन्हें खुद को प्रधानमंत्री बनाओ तो बात बने.
कांग्रेस की तरफ से राहुल गांधी रैडीमेड खानदानी ब्रैंड हैं. वे भी भले मानुष हैं जो सिर्फ देशचिंता में कुंआरे बैठे हैं. दाद देनी होगी उन की हिम्मत की कि अभी भी लोगों से वादों पर वादे किए जा रहे हैं. उन्हें लगता है कि लोग मनरेगा, फूड सिक्योरिटी और भूमि अधिग्रहण बिल के भभके में आ गए हैं.
किसानों की आत्महत्याएं थमने का नाम नहीं ले रहीं, न ही भुखमरी कम हो रही है. रोज हजारों भूखेनंगे लोग पोटली और बरतनभांडे सिर पर उठाए शहरों की तरफ भाग रहे हैं. ये अपनी मरजी से भूमि त्याग रहे हैं क्योंकि पेट रोटी से भरता है.
इन ब्रैंडेड नेताओं से फायदा यह हुआ कि सारी जवाबदेही इन व्यक्तित्वों में सिमट कर रह गई. अब वादे पूरे न हों तो इन्हें ढूंढ़ते रहना. कभी पकड़ में आ जाएं तो गिरेबान पकड़ कर पूछना कि क्या हुआ आप के वादों का और कुरता फट कर हाथ में आ जाए तो फिर सरकार बदल देना.
गड़बड़ यहां है
चुनावी  हल्ले में किसी का ध्यान इस तरफ नहीं जाने दिया जाता कि क्यों कोई कानून ऐसा नहीं है जो इन नेताओं और दलों को अपने वादे पूरे करने को बाध्य करे. पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने केरल के एक मामले में व्यवस्था देते हुए कहा था कि नेता और पार्टियां ऐसे वादे न करें जिन्हें पूरा करना मुमकिन न हो. पर यह बात समस्या की व्याख्या थी, हल नहीं.
छत्तीसगढ़ की बस्तर सीट से ‘आप’ की उम्मीदवार सोनी सोरी ने अपने वादे स्टांपपेपर पर छपवा कर बांटे लेकिन मीडिया ने उन्हें भाव नहीं दिया. होना यही चाहिए कि नेताओं से वादे और दलों के घोषणापत्र स्टांपपेपर पर ही लिए जाने चाहिए और इन की फोटोकौपियों को वैधानिक मान्यता मिलनी चाहिए जिस से सुनने वाले भले ही भूल जाएं पर 5 साल बाद वादा करने वाले न भूलें, न मुकर पाएं.
अफसोस तो इस बात का है, जिस का फायदा तमाम दल और नेता उठाते हैं, कि जनता जल्द भूल जाती है कि उस ने किन शर्तों और मुद्दों पर अपना सांसद चुना था. पर सांसद जीतने के बाद हारफूलमाला पहन कर ट्रेन या हवाई जहाज से दिल्ली कूच कर जाता है और अपने कार्यकर्ताओं को 20 फीसदी कमीशन पर क्षेत्र में कार्य करने को छोड़ जाता है.
हारा हुआ चिल्लाता रहता है कि देखो, जीत कर भाग गया. अब 5 साल बाद ही मुंह दिखाएगा. अब मुझे न चुनने की सजा भुगतो. एक गड्ढा तक नहीं भरने वाला. 2-4 दिन भड़ास निकालने के बाद वह भी गुम हो जाता है और 5 साल न जीते हुए से पूछता, न ही जनता को याद दिलाता कि कितने वादे पूरे हुए. उस की इस अल्पकालिक भुनभुनाहट और खीझ पर लोग ध्यान नहीं देते और कमानेखाने में व्यस्त हो जाते हैं. उन की नजर में दोनों बराबर हैं, एक चला गया और एक रह गया. जो ज्यादा चिल्लाएगा तो अगली बार उसे भेज देंगे. यानी हालत ‘कोई नृप होय हमें का हानि’ जैसी है.
यही यह मानसिकता है जिस के चलते सपनों के इन सौदागरों का कारोबार फलफूल रहा है. इन्हें मालूम है कि लड़़ने के बाद इन के कान उमेठने का हक जनता को नहीं है, इसलिए 5 साल खूब पैसा बनाओ. जनता को तो अब इस पर भी एतराज नहीं रहा, वह सिर्फ इतना कहती है, कुछ तो हम पर और अपने किए वादों को पूरा करने पर भी खर्च करो.
नेताजी और दलों ने करोड़ों, अरबों रुपया फूंका होता है, पहले उसे सूद समेत वे वसूलते हैं फिर दूसरीतीसरी पीढ़ी के लिए तिजोरी भरते हैं. इस के बाद भी जनता का नंबर नहीं आता क्योंकि तब तक 5 साल हो गए होते हैं. लिहाजा, और नएनए वादे किए जाते हैं. सांसद ज्यादा बदनाम हो तो पार्टी उम्मीदवार बदल देती है यानी वह अपनी समस्या हल कर लेती है.
जीत के बजते ढोलनगाड़े लोकतंत्र के उत्सव के नहीं बल्कि जनता के एक बार और बेवकूफ बनने व ठगे जाने की खुशी के होते हैं. यह सोचना बेमानी है कि पार्टियों और उन के नेताओं में कोई बड़ा बैर है. ये लोग दरअसल कतरी सराय, गया के हकीमों की तरह एकजुट हैं कि इलाज के लिए तो आओ, पैसे किसी को भी दो उस में कोई फर्क नहीं पड़ना क्योंकि हम सब आखिरकार एक ही कुनबे के तो हैं.

किन्नरों को तीसरे लिंग का दरजा विभाजन क्यों?

 
किन्नर और मानवाधिकारवादी सुप्रीम कोर्ट द्वारा मिली किन्नरों को तीसरे लैंगिक समूह की मान्यता पर फूले नहीं समा रहे हैं. वे इस मुगालते में हैं कि इस अदालती फरमान से किन्नरों से भेदभाव बंद हो जाएगा और इन की सामाजिक व आर्थिक स्थितियों में क्रांतिकारी परिवर्तन आएंगे. विभिन्न जाति, वर्ग और धड़ों में बंटे भारतीय समाज में क्या इन्हें स्वीकृति मिलेगी, इस पर संशय व्यक्त कर रहे हैं जगदीश पंवार.
 
सुप्रीम कोर्ट के किन्नरों को तीसरे  लैंगिक समूह की मान्यता दे कर उन्हें मूलभूत अधिकार व सुविधाएं देने के आदेश की खूब वाहवाही हो रही है. कोर्ट ने नया कुछ नहीं किया है. भारतीय संविधान में बराबरी के हक की बात दोहराते हुए सरकारों को निर्देशभर दिया है. कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों से कहा है कि समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए इस उपेक्षित समूह को पिछड़ा वर्ग मान कर उस की भलाईर् के लिए विशेष सुविधाएं दिलाई जाएं. इस आदेश से किन्नर और मानवाधिकारवादी खुश हैं.
भारत के किन्नरों के कल्याण के लिए यह आदेश एक बड़ा कदम माना जा रहा है. इस फैसले को सामाजिक रूढि़यों को तोड़ने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है. इसे एक शुरुआत बताया जा रहा है पर सवाल उठता है कि पहले से ही विभिन्न वर्गों, समूहों में बंटे हमारे समाज में कोर्ट की स्वीकृति के बाद भी क्या इस वर्ग को समाज में बराबरी की स्वीकृति मिल पाएगी? कानून समानता का हक दिला पाएगा?
दरअसल, किन्नरों के कल्याण के लिए काम करने वाली संस्था नैशनल लीगल सर्विस, माता नसीब कौर जी वूमैन सोसायटी और किन्नर लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी ने सुप्रीम कोर्ट में किन्नरों की पहचान के साथ उन्हें कानूनी दरजा देने की मांग संबंधी याचिका दाखिल की थी. इसे स्वीकार करते हुए उच्चतम न्यायालय के जस्टिस के एस राधाकृष्णन व ए के सीकरी की पीठ ने 15 अप्रैल को इस समुदाय को बराबरी के अधिकार को जायज बताते हुए उन्हें वे तमाम हक और सुविधाएं मुहैया कराने को कहा जो एक आम नागरिक को प्राप्त हैं. 
कोर्ट ने निर्देश दिए कि किन्नरों की सामाजिक और लिंगानुगत समस्याओं का निराकरण करें. उन्हें चिकित्सा व अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराएं. महिला, पुरुष की तरह इन के लिए अलग टौयलेट बनाए जाएं. शिक्षण संस्थानों में प्रवेश और नौकरियोें में आरक्षण दिया जाए.
कानूनी विभाजन
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान में सभी को बराबरी का दरजा दिया गया है और लिंग के आधार पर भेदभाव की मनाही की गई है. यह मौलिक अधिकार का हनन है. किन्नरों को बराबरी का हक देने के लिए संविधान या कानूनों में किसी तरह के फेरबदल की जरूरत नहीं है क्योंकि भारतीय संविधान में ही सभी नागरिकों के लिए समान अधिकारों का प्रावधान है.  हर किसी को वह सारे अधिकार मिलने चाहिए जो संविधान में बताए गए हैं. संविधान में बराबरी का हक देने वाले अनुच्छेद 14,15,16 और 21 का लिंग से कोई संबंध नहीं है इसलिए यह सिर्फ स्त्रीपुरुष तक सीमित नहीं है. इस में किन्नर भी शामिल हैं.
कोर्ट ने यह भी कहा कि किसी का लिंग उस की आंतरिक भावना से तय होता है कि वह पुरुष महसूस करता है या स्त्री या फिर तीसरे लिंग में आता है. किन्नर को न तो स्त्री माना जा सकता, न पुरुष. वे तीसरे लिंग में आते हैं. किन्नर एक विशेष सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक समूह है इसलिए इन्हें स्त्रीपुरुष से अलग तीसरा लिंग माना जाना चाहिए.
दुनियाभर में मानवाधिकार संगठनों द्वारा किए जा रहे बराबरी के अधिकारों की मांग के सिलसिले में कुछ अन्य देशों में भी किन्नरों को कानून में समानता का हक दिया गया है पर दुनियाभर में उन की सामाजिक स्थिति कमोबेश एक जैसी ही है. किन्नर सदियों से समाज का ही अंग माने गए हैं लेकिन भेदभाव के शिकार रहे, हमेशा हाशिए पर रहे. उन को समाज की मुख्यधारा से दूर रखा  गया. 
 तीसरे लिंग के रूप में मान्यता दिए जाने के बाद उन के सामाजिक और शैक्षणिक विकास के लिए उन्हें वे सभी सुविधाएं देनी होंगी जो स्त्रियों को अलग से दी जा रही हैं. उन्हें अलग टौयलेट, अलग मैट्रो कंपार्टमैंट, अलग बर्थ, बसों में अलग सीटें, नौकरियों में आरक्षण देने को क्या समाज स्वीकार कर पाएगा? शिक्षा, नौकरी के लिए पहले से ही भेदभाव चला आ रहा है. जाति, धर्म, वर्ग के बीच मारामारी मची हुई है. 
किन्नरों का इतिहास पुराना है. जब से सृष्टि बनी है, स्त्री और पुरुष के अलावा एक ऐसा प्राणी भी पैदा होता रहा है जिस का न स्त्री जननांग होता है, न पुरुष अंग. ऐसे जन को किन्नर या हिजड़ा कहते हैं. पुराणों में भी इन का जिक्र है. महाभारत में पांडवों के सहयोगी शिखंडी का जिक्र है. ब्रहन्नला की भी कहानी है, जिस में अर्जुन को नपुंसक बना दिया जाता है. 
किन्नर पहले सेनाओं में भी होते थे. इतिहास में जिक्र है कि राजा लोग उन्हें अपने हरमों में भी कामकाज के लिए रखते थे. ऐसा इसलिए कि वे उन की रानियों के साथ यौन संबंध न बना सकें.
असल में किन्नर ऐसा इंसान होता है जो लैंगिक विकृति के कारण न नर होता है न मादा. जन्मजात किन्नरों की संख्या बहुत कम है. अधिकतर बाद में बनने वाले हैं. इन के अपने देवीदेवता, मंदिर हैं. जानकारों का कहना है कि  नए बनने वाले किन्नरों का यह समुदाय दीक्षासंस्कार करता है जिस के तहत उस का लिंग, अंडकोश और अंडकोश की थैली हटा दी जाती है. समाज में किन्नरों के प्रति दोहरा रवैया अपनाया गया है. एक तरफ लोग खुशी के मौकों पर इन की मौजूदगी को शुभ मानते हैं, दूसरी ओर ये सामान्य इंसान की तरह रोजगार, शिक्षा हासिल नहीं कर सकते. शिक्षा, रोजगार उन को कोई नहीं देना चाहता. अब समाज में समुचित जगह न मिलने की वजह से किन्नरों को नाचगा कर, भीख मांग कर या वेश्यावृत्ति के जरिए अपना गुजारा चलाना पड़ता है. 1994 में उन्हें यह अधिकार दिया गया था कि वे खुद को स्त्री या पुरुष में से कोई एक विकल्प के रूप में अपनी पहचान कर सकते हैं. पासपोर्ट, ड्राइविंग लाइसैंस जैसे दस्तावेजों में वे अब तक स्त्री या पुरुष के रूप में अपनी पहचान जाहिर करते आए हैं. 2005 में भारतीय पासपोर्ट आवेदन फौर्म में स्त्रीपुरुष के अलावा तीसरा विकल्प दिया गया. 
 कोर्ट का हालिया आदेश समाज का एक और कानूनी विभाजन है. यह वैमनस्य को बढ़ाने वाला होगा. पिछले दिनों केंद्र और उस से पहले कुछ राज्यों में जाट समुदाय को पिछड़ा वर्र्ग में शामिल करने के फैसले से दूसरी पिछड़ी जातियों में वैमनस्य बढ़ा. 
दरअसल, हमारे कानून ने समाज में विभिन्न विभाजन रेखाएं बना रखी हैं. इस में समाज को  एकाकार नहीं किया गया. बात समानता की लिखी हुई जरूर है पर बंटवारा किया गया है. अनेकता में एकता बिलकुल नहीं है. यह अनेकता बनाई गई है. प्रकृति के भेदभाव को छोड़ दें तो स्वयं हम ने समाज को बांटा है. ऊंचनीच, छोटाबड़ा, स्त्रीपुरुष और अब स्त्रीपुरुष से अलग एक तीसरा लिंग.
धर्म ने किया विभाजन 
समाज का विभाजन धर्म के स्वार्थी लोगों ने किया. स्त्रीपुरुष के बीच भेदभाव सदियों से चला आ रहा है. अलग स्कूल, अलगअलग कालेज, ट्रेनों, बसों में अलग सीटें, अलग डब्बे, अलग टौयलेट, हर कामों के लिए अलग लाइनें. ये विभाजन क्यों? विभाजन की वजह से ही भेदभाव हो रहा है.
क्या दलितों के आरक्षण के साथ जातीय भेदभाव खत्म हो गया? दलितों को शिक्षा और नौकरी में आरक्षण के पीछे संविधान का मूल उद्देश्य इस वर्ग की सामाजिक, आर्थिक तरक्की के साथसाथ जाति व्यवस्था को खत्म करना था. मगर जाति व्यवस्था 60 साल बाद भी पूरे दमखम के साथ जिंदा है. 
अब होगा यह कि किन्नर को कानूनन एक अलग जाति, मजहब की तरह अलग वर्ग के रूप में मान्यता मिल गई है. समाज पहले से ही स्त्री को ले कर भेदभाव से ग्रस्त है. महिलाएं बराबरी के लिए संघर्ष कर रही हैं. उन्हें समानता का अधिकार देने के लिए कई  कानून बनाए गए लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद स्त्री के साथ भेदभाव कम नहीं हो पा रहा.
स्त्रीपुरुष दोनों एक ही हैं. एकदूसरे के पूरक हैं. इन्हें प्रकृति ने एकदूसरे के लिए पैदा किया. किन्नर भी अलग नहीं हैं लेकिन धर्र्म ने स्त्रीपुरुष के बीच भेद उत्पन्न किया. स्त्री को निकृष्ट तो पुरुष को उस से श्रेष्ठ बताने की कोशिशें कीं. फिर कानूनों व सरकारों ने इन्हें अलग किया. बसों, गाडि़यों में इन के लिए अलग डब्बे, अलग सीटें, पढ़नेलिखने के लिए अलग स्कूल, अलग टौयलेट बनाए गए.
इस विभाजन को समाज ने मान्यता दी पर क्या आम घरों में महिलाओं के लिए अलग कमरे, अलग किचन, अलग टौयलेट हैं? घर, परिवार में स्त्रीपुरुष, लड़केलड़कियां एकसाथ रह सकते हैं. एक बाथरूम, एक टौयलेट शेयर कर सकते हैं तो बाहर अलगअलग क्यों? जब प्रकृति ने उन्हें एकसाथ रहने के लिए बनाया है तो सामाजिक, कानूनी स्तर पर विभाजन क्यों?
हमारी प्रवृत्ति भेदभाव की नहीं है. यह जन्मजात नहीं है. बचपन से हमारी सोच में इसे घोला गया है और यह काम धर्म की खाने वालों ने कराया है. धर्म का इतिहास देखें तो इस की फितरत ही एकदूसरे के बीच असमानता की खाई पैदा करने की रही है.
किन्नरों की सामाजिक, आर्थिक दशा सुधरे, इस पर किसी को आपत्ति नहीं होगी पर विभाजन कई परेशानियां उत्पन्न करेगा. यह भेदभाव धर्मजनित है. धर्म ने स्त्रीपुरुष के बीच विभाजन खड़ा किया. पुरुष को स्त्री से श्रेष्ठ साबित करने के लिए अनेक उपदेश गढे़ गए. समाज के दिमाग में गहरे तक भेदभाव की सोच को बैठाया गया. इसी तरह किन्नरों को अलगथलग रखा गया. समाज जानवरों को एकसमान मानता है पर इंसानों को एक नहीं मानता.  
किन्नर को खुद को स्त्री या पुरुष मानने की आजादी होनी चाहिए. जैसा कि न्यायालय ने स्वयं कहा है कि उसे यह एहसास अंदर से होता है कि वह स्त्री है या पुरुष. फिर तीसरा विभाजन कैसे? क्या अदालत के आदेश में विरोधाभास नहीं है?
इस से पहले अदालत ने समलैंगिकों की शादी और यौन संबंधों को गैरकानूनी करार दिया था. इस तरह के कानून और आदेश व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन करने वाले हैं. ये आजादी पर बंदिश लगाते हैं. हरेक को यह अधिकार होना चाहिए कि वह शादी करे या न करे. जब किसी को शादी न करने का हक है तो उसे यह स्वतंत्रता भी होनी चाहिए कि वह अपना जीवन समलिंगी के साथ बिताए या विपरीतलिंगी के.
व्यक्तिगत मामला
यौन संबंधों और शादी के मामले में जिस तरह जाति, धर्म की बंदिशें धर्म के ठेकेदारों ने खड़ी की हैं वैसी ही समलिंगियों के साथ भी खड़ी ?की हैं. यौन रिश्तों में न जाति, धर्म की दीवार होनी चाहिए न ही लिंग की. एक ही लिंग वाले 2 जने यौन संबंध कैसे बनाते हैं, इस से अदालत और समाज को क्या लेनादेना. यह पंडों, मुल्लाओं जैसा फतवा है. यौन आनंद कोई कैसे लेता है, यह 2 जनों का आपसी निजी मामला होता है. इस के लिए अलगअलग लिंगों का होना बिलकुल जरूरी नहीं है. इस तरह तो क्या हस्तमैथुन को भी अप्राकृतिक मान कर गैरकानूनी घोषित कर देना चाहिए और उन लोगों को ढूंढ़ना चाहिए जो ऐसा करते हैं? कोई कैसे यौन आनंद ले, यह व्यक्तिगत है. इस में धर्म, कानून को बीच में नहीं आना चाहिए. हां, अगर किसी के साथ बिना मरजी के जबरदस्ती यौन रिश्ते बनाए जाएं तो वह ठीक नहीं.   
किन्नर अपने परंपरागत पेशे से बाहर निकल पाएंगे, आसान नहीं होगा. उन के प्रति समाज के नजरिए को बदलना कानूनी अधिकार मिलने से कहीं अधिक मुश्किल है. 
आज समाज में ‘हिजड़ा’ शब्द एक गाली के तौर पर प्रयोग किया जाता है. यानी किसी को अपमानित करना हो तो उसे हिजड़ा कह दो. यह नामर्द का अर्थ देता है.
अदालत के हालिया आदेश के बाद सवाल यह भी उठता है कि समलैंगिकता के बारे में धारा 377 का क्या होगा, जिस में सिर्फ विपरीतलिंगी की शादी को जायज माना गया है. किन्नर क्या आपस में शादी कर पाएंगे, जैसाकि अब तक करते आ रहे हैं? या कोई सामान्य स्त्री या पुरुष इस तीसरे लिंग से वैवाहिक रिश्ता कर पाएगा?
असल में बिना विभाजन के, बिना भेदभाव के स्त्रीपुरुष और किन्नरों के हिलमिल कर रहने की नीति को अमल में लाए जाने पर जोर दिया जाना चाहिए. 
आदर्श समाज वह होगा जहां स्त्रीपुरुष, किन्नर एकमेक हो कर रहें. कोई भेदभाव न हो. तीनों के लिए अलग कुछ न हो. सब कुछ साझा हो. स्कूल, कालेज, घर, नौकरी, बस, ट्रेन, टौयलेट एक ही हों. प्रेम, विवाह, यौन संबंधों में जाति, धर्म की तरह लिंग की भी बंदिशें न हों. ये चीजें विभाजन, भेदभाव को और समाज में वैमनस्य को बढ़ाती हैं, इसलिए इन से बचा जाना चाहिए ताकि एक बेहतर समाज उभर कर निकले जिस में बराबरी ही बराबरी हो, भेदभाव नहीं.
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