कांगे्रस का भाजपा को गरीब किसानों की जमीन छीनने के कानून बनाने पर कोसना उस बिल्ली का शाकाहारी बनना है जो 900 चूहे पहले ही चट कर चुकी हो. 1947 के बाद कांग्रेस सरकारों ने जिस तरह भूमि अधिग्रहण कानून का दुरुपयोग किया वह तानाशाहों को भी मात कर दे. उस पर हल्ला नहीं मचा क्योंकि देश का संपन्न वर्ग लगातार सस्ती जमीन का फायदा उठाता रहा और गरीबों की नंगी छातियों पर पैर रख कर मौज उड़ाई और बदले में मुंह बंद रखा. यह तो सोनिया गांधी की धुन थी कि उन्होंने तमाम विरोधों के बावजूद 2013 का कानून बनवा दिया जिस ने गरीब किसान की जमीन पर सरकारी बुलडोजरी की तानाशाही समाप्त कर दी. जो जमीनें पिछले 70 सालों में सरकारों ने देशभर में छीनी हैं उन पर कुछ ही सड़कें, रेलें, नहरें बनी हैं. ज्यादातर जमीनें फैलते शहरों ने खाई हैं जिन पर शहरी भव्य मकानों में रह रहे हैं या फिर निजी उद्योग चल रहे हैं. सेना ने जो जमीन ली थी वह 1947 से थोड़ा सा पहले ली थी और उस ने उस का केवल विकास किया.

किसी किसान की जमीन निजी इस्तेमाल के लिए छीनी जाए, यह व्यवस्था गलत है. सरकार को अपने काम के लिए जब जमीन चाहिए हो तो वह टैंडर निकाले, जैसे और सामान खरीदने के लिए करती है. किसान की इच्छा हो तो बेचे और यदि उस की मरजी के पैसे मिलें तो ही बेचे. जब सरकार अरबों रुपयों का सामान टैंडर से खरीद सकती है तो जमीन क्यों नहीं. भारतीय जनता पार्टी को 2014 से पहले जो जनसमर्थन मिल रहा था उस के पीछे जमीन के लालचियों का हाथ था, इस से इनकार नहीं किया जा सकता क्योंकि नरेंद्र मोदी की प्राथमिकताओं में जमीन कानून सब से आगे रहा है. भारत न तो स्वच्छ हुआ न भ्रष्टाचार मुक्त पर जमीन मुक्त होने की तलवार जरूर लटक गई. प्रशासनिक सुधार नहीं हुए, निरर्थक दखलंदाजी करने वाले कानून समाप्त नहीं हुए, कानून व्यवस्था नहीं सुधरी पर जमीन कानून की मरम्मत के लिए सरकार रातदिन एक करने में लगी है. कांगे्रस दूध की धुली नहीं है. 2014 की चुनावी हार ने उसे पापों का प्रायश्चित्त करने का मौका दे दिया है. नरेंद्र मोदी के जमीन कानून के रूप में उसे एक हथियार मिल गया है. राहुल गांधी को डूबती पार्टी को बचाने के लिए तिनका तो मिला है, देखें कितने तिनके जोड़ कर वे नाव बनाते हैं.

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