प्रकृति की कृति को आप ने

कभी देखा गौर से?

बहती कलकल करती नदी

गुनगुनाते भौंरे, कुहकती कोयल

कब अलापते हैं

राग किसी मजहब का

वृक्ष पेड़पौधे पर्वत पहाड़

कब पहनते कोई संप्रदाय चिह्न

और कब बंधे जीवजंतु

किसी जातधरम के बंधन में

ये तनिक भी कैद नहीं

किसी पंथ संप्रदाय के बाड़े में

प्रकृति की ही कृति मानव

फिर क्योंकर है कैद

इन सब अमानवीय बंधनों में

कितना जकड़ा है वह

ये कैसा सभ्य सुसंस्कृत

प्रगतिवादी है मानव

काश, आदमी सिर्फ आदमी होता

स्वजनित छल प्रपंचों से दूर

प्रकृति की मूल कृति

निखालिस आदमजात इक जीव.

                – केवलानंद पंत

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