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समस्याओं के अंबार पर मोदी सरकार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शपथ ग्रहण समारोह के दौरान सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथ एक मंच पर आ कर बाहरी मुल्कों से मधुर संबंध बनाने की पहल की है.

भाजपा नेता नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग की सरकार का गठन हो गया. सरकार बनने तक नरेंद्र मोदी की कार्यप्रणाली के बारे में व्यक्त की जा रही तमाम आशंकाएं धूमिल पड़ती नजर आ रही हैं. जीत के बाद मोदी की बातों और व्यवहार से विचारकों का भय का हौआ हटता दिखाई दे रहा है. 16 मई को चुनाव नतीजे आने के बाद से ले कर 26 मई को प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने तक नरेंद्र मोदी ने देश की जनता से जो कुछ कहा, उस से फिलहाल उन के नजरिए में यह कहीं दिखाईर् नहीं दिया कि वे विवादास्पद मुद्दों को आगे बढ़ा रहे हैं.

चुनाव प्रचार के दौरान सांप्रदायिक कहे जाने वाले मोदी अब 125 करोड़ देशवासियों को साथ ले कर चलने की बात कर रहे हैं. ‘सब का साथ, सब का विकास’ का नारा दे रहे हैं. कोई किसी भी संप्रदाय, वर्र्ग का हो, किसी के साथ अन्याय नहीं होने देने का आश्वासन दे रहे हैं. विकास और सुशासन की बात तो वे शुरू से ही करते रहे हैं. पहले छोटा मंत्रिमंडल रख कर ‘मिनिमम गवर्नमैंट, मैक्सिमम गवर्नैंस’ की प्रतिबद्धता जता रहे हैं.

भाजपा को पूर्ण बहुमत की घोषणा के बाद 16 मई को वडोदरा की रैली में नरेंद्र मोदी ने जो बातें कहीं, वे वास्तव में दुनिया के सब से बड़े, मजबूत और परिपक्व लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री बनने जा रहे नेता की ओर से कही जानी चाहिए थीं. ‘सब का साथ, सब का विकास’ नारे के साथ उन्होंने देश के हर धर्म, हर वर्ग को साथ ले कर चलने की अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की.

मोदी की जीत के बाद जो कुछ नजर आ रहा है, वह आश्चर्य से कम नहीं है. यह स्क्रिप्ट तो कुछ और ही है. राष्ट्रपति भवन के खुले प्रांगण के शपथ ग्रहण समारोह में 4 हजार मेहमानों की उपस्थिति में भगवा साया नहीं, हिंदुत्व की उपस्थिति या विचारधारा का एहसास न के बराबर और मंत्रिमंडल में बहुलतावादी भारत की तसवीर किसी भी देशवासी को संतोष देने वाली रही.

प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के लिए क्रीम रंग के फुल बाजू के कुरते और गहरे सुनहरे रंग की जैकेट में नजर आए मोदी जब शाम को सवा 6 बजे शपथ ले रहे थे, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत दिल्ली से 500 किलोमीटर दूर भोपाल में संघ की शाखा में शिरकत की तैयारी कर रहे थे. उन्होंने टैलीविजन पर मोदी मंत्रिमंडल का लाइव शपथ ग्रहण समारोह देखा.

समारोह में विश्व हिंदू परिषद के अशोक सिंघल, प्रवीण तोगडि़या, बजरंग दल के विनय कटियार जैसे धर्मध्वजा उठाए नेता और उन की मंडली नजर

नहीं आई. चुनावों में भाजपा का प्रचार करने वाले योग कारोबारी रामदेव भी गायब थे. हां, मोरारी बापू, श्रीश्री रविशंकर, ऋतंभरा समेत 4-5 साधु जरूर दिखाईर् दे रहे थे. पर इन से ज्यादा साधु तो खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाली कांग्रेस, लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल और दूसरे दलों के कार्यक्रमों में शामिल होते रहे हैं.

पड़ोसी मुल्कों से संबंध

मोदी ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ, अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई, भूटान के प्रधानमंत्री ल्योनशेन शेरिन तोगबे, नेपाल के प्रधानमंत्री सुशील कोइराला, बंगलादेश की स्पीकर शिरीन चौधरी, मौरिशस के प्रधानमंत्री नवीन रामगुलाम, मालदीव के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन और श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे को बुला कर दुनिया में संदेश देने की कोशिश की है कि वे पड़ोसी देशों के साथ अच्छे संबंध कायम रखना चाहते हैं और आपस में मिल कर शांति के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं.

मोदी ने 16 मई के बाद से देश के सामने अपने हर भाषण में बहुलतावादी दृष्टिकोण रखा है. जाति, धर्म, वर्ग यानी हर समुदाय को बराबरी के दरजे की प्रतिबद्धता जाहिर की है. उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि अल्पसंख्यकों के हित बाकी लोगों जितने ही महत्त्वपूर्ण हैं और सरकार की ओर से उन्हें बराबर की तवज्जुह दी जाएगी. सांप्रदायिक कहे जाने वाले मोदी आज 125 करोड़ देशवासियों की बात कर रहे हैं.

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे को बुलाने की आलोचना करने वालों की आपत्ति को मोदी ने दरकिनार कर दिया.

वडोदरा में पहली विजयी रैली में मोदी ने संविधान के तहत देश को चलाने का संकल्प जताते हुए कहा था, ‘‘मेरी जिम्मेदारी देश को चलाने में सभी को साथ ले कर चलने की है. सरकार किसी एक विशेष पार्टी की नहीं होती, पूरे देश के सभी लोगों की होती है. एक सरकार के लिए कोई खास नहीं है और न कोई पराया.’’

चुनाव प्रचार के दौरान चले आरोप- प्रत्यारोप का जिक्र करते हुए मोदी कहते हैं कि वे अपने विरोधियों द्वारा दिखाए गए ‘प्यार’ को शुद्ध प्यार में बदल देंगे. उन्होंने कहा, ‘‘मैं देश की जनता को आश्वस्त करना चाहता हूं कि  हर एक को साथ ले कर चलना हमारा लक्ष्य है. चाहे वह हमारा कितना ही विरोध करे. हम यह सुनिश्चित करने की कोशिश करेंगे कि इस मोरचे पर कोई कसर बाकी न रहे. जीत की ऊंचाई जितनी भी हो, सरकार में सभी को साथ ले कर चलना हमारी जिम्मेदारी है.’’ 

बदलेबदले से जनाब

एक सभा में मोदी ने खुद को मजदूर नंबर वन बताते हुए यह भी कहा कि कोई भी, यहां तक कि उन के प्रतिद्वंद्वी भी, उन के द्वारा की गई मेहनत पर सवाल नहीं उठा सकते. अगले

60 महीनों में आप को एक बेहतर मजदूर मिलेगा. वे कहते हैं, ‘‘आप ने मुझ में भरोसा जताया है, मैं आप में भरोसा जताता हूं, जब मैं एक कदम उठाता हूं तो मैं विश्वास करता हूं कि 125 करोड़ लोग मेरे साथ चलेंगे.’’

इस तरह की बातों से कहीं से भी नहीं लगता कि ये वही मोदी हैं जिन के बारे में तरहतरह की आशंकाएं व्यक्त की जा रही थीं.

अब यह कहना मुश्किल है कि मोदी वक्त के अनुरूप खुद बदल गए या वे जड़ से ही ऐसे लोकतांत्रिक हैं. यह तो मोदी को गहराई से जानने वाले ही बता सकते हैं या फिर धीरेधीरे वक्त बीतने पर सामने आएगा.

अगर मोदी कहते हैं कि उन की सरकार गरीबों, नौजवानों और महिलाओं की सरकार होगी तो जनता की वह आशंका खत्म हो जाती है जिस में कौर्पोरेट अंबानी और अडाणी की सरकार बनने का भय समाया था.

मोदी ने गुजरात विधानसभा से विदा लेते समय कहा था, काम करतेकरते जानेअनजाने में यदि उन से कोई गलती हुई हो, उन के व्यवहार में कोई दोष रहा हो, तो उन्हें माफ कर दें.

12 साल गुजरात में मुख्यमंत्री रहे मोदी ने भाजपा विधायकों को संबोधित करते हुए उन्हें कड़ी मेहनत करने की सलाह दी. अपने काम के बारे में बताते हुए कहा कि वह एक भी फाइल पैंडिंग छोड़ कर नहीं जा रहे और वे चुनाव प्रचार के दौरान भी अधिकारियों को रात को बुलाते थे और काम पूरा करते थे.

भारतीय जनता पार्टी के संसदीय सदस्यों की सभा के लिए संसद भवन की सीढि़यों पर माथा टेकते हुए देश ने पहली बार किसी नेता को देखा और बैठक में आत्मविश्वास जाहिर करते हुए पहली बार सुना गया कि 5 साल बाद मेरा रिपोर्ट कार्ड देख लीजिएगा. उम्मीद करता हूं कि उन की सरकार कांग्रेसी सरकारों से बेहतर तो जरूर करेगी क्योंकि साख का सवाल है. ऐसे में कोई मोदी की मंशा पर कैसे सवाल उठाए?

चुनावी जीत के बाद भाजपा कार्यकर्ताओं में तो जबरदस्त उत्साह देखा गया पर अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के गठन के समय जश्न मनाने में आगे रहने वाले हिंदूवादी संगठन और उन के समर्थक इस बार सड़कों पर खुशी का प्रदर्शन करते नहीं दिखे. जीत के बाद उन की ओर से नई सरकार के समक्ष कोई धार्मिक एजेंडा सामने नहीं आया.

1998 में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी थी तब सब से ज्यादा जोश धार्मिक संगठनों में था. इस के विपरीत आज ऐसा माहौल नहीं है. राम मंदिर निर्माण, अनुच्छेद 370, समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दे न तो पार्टी के चुनाव प्रचार में उठे और न ही भाजपा के समर्थक रहे हिंदू संगठनों की ओर से.

प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के साथ ही नरेंद्र मोदी के लिए देश व जनता के प्रति जिम्मेदारियां शुरू हो गई हैं. मोदी ने ऐसे समय में देश की बागडोर संभाली है जब देश के समक्ष समस्याओं का अंबार लगा है और इस की वजह से पूर्व संप्रग सरकार तथा कुछ क्षेत्रीय सरकारों के प्रति जबरदस्त गुस्से की लहर थी. इसी लहर के परिणामस्वरूप मोदी को भारी बहुमत मिला. यह आक्रोश ही मोदी के लिए बड़ी भारी चुनौती है. मोदी के लिए सत्ता सुख की सेज नहीं है, बल्कि शेर की सवारी है.

देश के आम आदमी की मुख्य समस्याएं महंगाई, भ्रष्टाचार, असुरक्षा, आतंकवाद, अशिक्षा और बेरोजगारी हैं. 

समस्याएं

मोदी सरकार ऐसे समय बनी है जब देश के अधिकांश लोग असंतुष्ट हैं. वे महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और पूर्व सरकार के कामकाज को ले कर चिंतित हैं. लोग चाहते हैं कि अर्थव्यवस्था पटरी पर लौटे. महंगाई से राहत दिलाना मोदी के लिए पहली चुनौती है. 2005 से 2007 के बीच भारत की विकास दर 9 प्रतिशत थी. अब यह बमुश्किल 5 फीसदी है. यह देश के लिए अपर्याप्त है. फुटकर महंगाई की दर 8.6 प्रतिशत है. वित्तीय घाटा बहुत ऊंचाई पर जा पहुंचा है. इसे पटरी पर लाना होगा.

उदारीकरण के बाद पिछले 2 दशकों से देश में भ्रष्टाचार चरम पर पहुंचा है. रिश्वतखोरी के मामले में नौकरशाही निरंकुश हुई तो नेता, मंत्री बड़ेबड़े घोटालों में लिप्त हो गए. देश के संसाधनों की लूट मच गई. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी संप्रग के कई नेता कौमनवैल्थ गेम्स घोटाले, कोयला घोटाले, 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले, खनन घोटाले में शामिल रहे. कुछ मंत्री जेल भी गए. कांग्रेस ही नहीं, जिस पार्टी की सरकार का नेतृत्व मोदी कर रहे हैं उस पार्टी के कई नेताओं पर भी भ्रष्टाचार के मामले हैं. मोदी को साफसुथरी सरकार दे कर जनता को भरोसा दिलाना होगा. मोदी सरकार के सामने कांग्रेस की भ्रष्ट सरकार से अलग दिखने की भी चुनौती है.

भारत में हर वर्ष लाखों नौकरियों की जरूरत है. मोदी ने चुनावों में युवाओं से रोजगार का वादा किया था. रोजगारों का सृजन कैसे किया जाए, मोदी के लिए चुनौती है. जिस अर्थव्यवस्था को मनमोहन सिंह ने पैदा किया और पोषित किया, उस की वजह से क्या नुकसान हुआ, इस का समाधान मोदी को निकालना होगा.

गुजरात में 2002 के दंगों के कारण हिंदू और मुसलिम दोनों ही समुदायों को आशंका है कि मोदी की सरकार हिंदू कट्टरपंथियों के हौसले बढ़ाएगी और उस के कारण धार्मिक ध्रुवीकरण बढ़ेगा. मोदी को लोगों की इस धारणा को पूरी तरह खत्म करना होगा. विकास कार्य और धार्मिकता की विचारधारा साथसाथ नहीं चलाए जा सकते.

देश में वैज्ञानिक सोच विकसित करनी होगी. उन धार्मिक दुकानदारों और ठेकेदारों को नियंत्रण में रखना होगा जो धार्मिक विद्वेष पैदा करते हैं और समाज को बांट कर अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं. देश को अंधविश्वासों से मुक्ति दिलाने वाली नीतियां और कार्यक्रम तैयार करने होंगे. याद रखें कि सोनिया व मनमोहन सरकार ने उस में कभी रुचि नहीं दिखाई थी.

हो सकता है अब धीरेधीरे अयोध्या में राममंदिर निर्माण और शिक्षा में परिवर्तन की मांगें उठने लगें. भाजपा नेता अब तक तो कहते आए थे कि उन के पास पूरा बहुमत नहीं होने से वे राममंदिर निर्माण करवाने में असमर्थ थे लेकिन अब सरकार पर दबाव बढ़ सकता है. यह तब होगा जब मोदी पर दूसरी समस्याओं का दबाव बढ़े.

देश में आंतरिक व बाहरी खतरों से मुकाबले की समस्या खड़ी है. देश पिछले 2 दशक से कई आतंकी वारदातें  झेल चुका है. आतंकी ताकतें कम नहीं हो रही हैं. इस के लिए पड़ोसी देशों

से अच्छे संबंध बनाने होंगे. उन के सहयोग से इन खतरों को कम किया जा सकता है.

समाज सुधार की बाधाएं

समाज सुधार की राह को प्रशस्त करना मोदी के सामने एक चुनौती है. धर्म के नाम पर जनता के साथ लूट, आडंबर, धर्मस्थलों पर दुर्घटनाएं, साधु, संतों की काली करतूतें, यह सब देश, समाज को गर्त में ले जाने वाली सिद्ध हो रही हैं. युवा पीढ़ी को संस्कृति के नाम पर नशाखोरी बरबाद कर रही है.

देश में अधिक समय तक रही कांग्रेस की सरकारें समाज सुधार की राह में रोड़े अटकाने के काम करती रहीं. कांग्रेसी सरकारों ने अंधविश्वासों को बढ़ावा देने से ले कर धार्मिक व्यापार को चमकाने में सहयोग किया. इस से आम जनता को तो नहीं, चंद धर्र्म की खाने वाले और खुद कांग्रेस पार्टी फायदा उठाती रही. इंदिरा गांधी से ले कर राजीव गांधी और अब सोनिया व राहुल गांधी गरीबों की बातें तो करते रहे पर प्रत्यक्ष तौर पर उन्हें कोई फायदा नहीं मिला. मुसलमानों के वोटों का जम कर महज दोहन किया गया.

अभिव्यक्ति की आजादी

परिपक्व और स्वस्थ लोकतंत्र में व्यक्ति व मीडिया माध्यमों के बोलने व लिखने की स्वतंत्रता को बुनियादी हक माना गया है लेकिन धार्मिक राष्ट्रों और कट्टर मजहबी मानसिकता वाले देशों में शासक और उन के समर्थक मजहबी संगठन मीडिया की आवाज को दबाए रखने में यकीन करते हैं. कोई उन की पोल न खोले. वे जनता को जागरूक, शिक्षित नहीं होते देखना चाहते. मोदी को प्रचार माध्यमों की स्वतंत्रता को ऐसे कट्टर धार्मिक तत्त्वों से बचाए रखना होगा.

मोदी के समर्थकों में 95 प्रतिशत वे हैं जो धार्मिक आडंबरों को आवश्यक मानते हैं और दूसरे पक्ष की बात सुनने को तैयार नहीं. ऐसे में मोदी उन का साथ देंगे या उन को रोक सकेंगे, बड़ा सवाल है.

मोदी ने स्वयं में एक राष्ट्रीय नहीं, अंतर्राष्ट्रीय नेता की झलक दिखाई है. सार्क देशों समेत, अमेरिका, चीन जैसी शक्तियां मोदी के स्वागत के लिए उतावली हो रही हैं.

कोई भी देश दकियानूसी, ओछी सोच से चिपके रह कर तरक्की के रास्ते तय नहीं कर सकता. मोदी जानते हैं उन को प्रधानमंत्री का पद उदारता, स्वतंत्रता, सब को साथ ले कर चलने और विकास व सुशासन की उम्मीदों से मिला है. 

मोदी को परखने का समय अभी तो शुरू  हुआ है. उन के बारे में कोई भी अंतिम निर्णय करना जल्दबाजी होगी. फिलहाल तो मोदी की बातें और व्यवहार सब को लुभा रहे हैं.

नए प्रधानमंत्री के लिए चुनौतियां

नरेंद्र मोदी के दरवाजे पर जिस तरह अपेक्षाओं के ढेर लग रहे हैं उन से वे घबरा जाएं तो आश्चर्य नहीं. आज देश में जिसे देखो वह नरेंद्र मोदी द्वारा लाए गए राजनीतिक बदलाव के साथ आर्थिक, प्रशासनिक, औद्योगिक व व्यावहारिक परिवर्तनों की आशा कर रहा है. ये सारी आशाएं केवल नरेंद्र मोदी पर टिकी हैं.

पिछली सरकारों ने आम भारतीय को बुरी तरह ठगा है. देश में गरीबों और जातियों के नाम पर सरकारें बनती रही हैं पर न गरीबों को राहत मिली न जातियों को. ऊंचे वर्गों के लिए जो आर्थिक उन्नति पिछले दशकों में हुई है उस के लिए कोई भी किसी भी पार्टी को श्रेय देने को तैयार नहीं है पर जो भी भूलें हुईं, जो भी कमी रह गई उस के लिए तब की सत्तारूढ़ पार्टियों को तारकोल से रंगा जा रहा है.

पिछले 3 दशकों के दौरान देश में बहुत बदलाव आए हैं. चौड़ी सड़कें बनीं, ऊंचे भवन बने. मैक्डौनल्ड रेस्तरां और पिज्जा हट गलीगली खुल गए. प्याऊ की जगह पानी बोतलों में पिया जाने लगा, बहुमंजिले स्कूल और मैनेजमैंट कालेजों की भरमार हो गई, सड़कों पर जापान, जरमनी की गाडि़यां दौड़ रही हैं पर किसी से कोई प्रशंसा के दो बोल नहीं बोल रहा. जो बोल रहा है, वह शिकायत कर रहा है उस मुफ्तखोर बराती की तरह जो दाल में ज्यादा घी और खीर में ज्यादा क्रीम की शिकायत करता फिर रहा हो. इन शिकायतखोरों ने मिल कर अब नई सरकार को बनाया है.

नरेंद्र मोदी ने अच्छी सरकार और अच्छे दिनों का वादा किया है और इसीलिए अब अखबारों के पन्ने नरेंद्र मोदी के लिए किए जाने वाले कामों की लिस्टों से भर गए हैं. गंभीर बात यह है कि ये सूचियां आम गरीब या गरीब से जरा ज्यादा बेहतर व्यक्ति नहीं बना रहे. ये सूचियां वे लोग बना रहे हैं जो 30 साल से अपना जम कर जीवन सुधार कर रहे थे. इन में बड़े उद्योगपति व व्यापारी या उन के साथ के सफल वकील, डाक्टर, इंजीनियर, प्रोफैशनल, विदेशी भारतीय, विदेशी नियोजक ही शामिल हैं.

कोई भी चैनल देख लें, कोई भी पत्रपत्रिका देख लें, कोई पहचाना चेहरा नरेंद्र मोदी से कुछ मांगता दिखेगा पर सारी मांगें उन के अपने लिए हैं, देश या देश की लगभग भूखी जनता के लिए नहीं. घर में ज्यादा पैसा आए, टैक्स कम हों, जमीनें सस्ती हों, जंगलों को काटने की अनुमति हो, खनिजों को दुहने का अधिकार हो, सड़कें चौड़ी हों जिन पर पैदल चलने वाले न हों आदि व इसी तरह की अन्य मांगें की जा रही हैं.

नए प्रधानमंत्री के लिए चुनौतियां कुछ ज्यादा ही हैं क्योंकि समस्याओं को हल करने में जो खर्च होगा, अर्थव्यवस्था उस लायक ही नहीं है. प्रशासनिक बदलाव बहुत धीरे आते हैं. जब भी बदलाव लाए जाते हैं तो कुछ को हानि होती है और फिर वे बहुत शोर मचाते हैं. नरेंद्र मोदी को उन से निबटना भी होगा.

एक बात नरेंद्र मोदी के पक्ष में है कि उन के पास 5 साल नहीं, 5 से कहीं ज्यादा साल हैं क्योंकि विरोधी दलों और अपने दल में विरोध की आवाजें समाप्तप्राय हैं और वे निर्णय लेने में स्वतंत्र हैं. 3-4 राज्यों को छोड़ कर 2-3 साल में सारी राज्य सरकारें भी भाजपा की होंगी (इस भविष्यवाणी के लिए कोई ओपीनियन पोल नहीं चाहिए) और उन्हें राज्य सरकारों की अड़चनों का भी सामना न करना पड़ेगा. उन्हें तो जनता की समुद्र जैसी अपेक्षाएं पूरी करने की समस्या से जू झना होगा.

आप के पत्र

सरित प्रवाह, मई (प्रथम) 2014

संपादकीय टिप्पणी ‘कानून और न्यूनतम सजा’ में आप के तर्कसंगत विचार पढ़े. बेशक आप के विचार समाज व राष्ट्र की एक असहनीय पीड़ा को उजागर कर रहे थे, मगर लगता है इन तथाकथित कानूनों का असर न तो समाज के अलंबरदारों पर और न ही देश के राजनीतिज्ञों पर पड़ता कहीं से भी दिखाई दिया. न्याय और कानूनों को तो छोड़ ही दीजिए, क्योंकि ये डरावने हथियार तो मात्र देश के उन गरीब, निर्बल, अनपढ़ तथा बेसहारा लोगों के लिए ही बने हैं जिन के पास न तो पैसा है, न एप्रोच और न ही लड़नेमरने का दमखम.

नियम तो यह है कि दहेज लेना व देना दोनों ही अपराध हैं. तो क्या कभी भी, किसी ने भी यह पढ़ा या सुना है कि फलांफलां प्रतिष्ठित व्यक्ति का इन्हीं कानूनों के तहत कभी किसी पुलिस थाने से भी बुलावा आया हो, जो शादी के मौकों पर अपना स्टेटस सिंबल प्रदर्शित करते हुए लाखों ही नहीं, करोड़ों रुपए लुटाने से गुरेज नहीं करते. उन को न्यायालय तक ले जाया जाना तो दूर की कौड़ी है.

जहां तक बात धारा 498 ए की है, तो यह न केवल कानूनविद/न्यायविद ही बल्कि देश के नीतिनिर्धारक तक भी जानते हैं कि इस धारा का न केवल खुला दुरुपयोग हो रहा है, बल्कि इस के माध्यम से निर्दोष परिजनों तक को भी सामाजिक/ न्यायिक स्तर पर प्रताडि़त किया जा रहा है. मेरा आशय यह तनिक भी नहीं है कि ऐसे अपराधियों को बख्श दिया जाए या महिलाओं पर अत्याचार नहीं हो रहे हैं. तर्क यह है कि इस धारा को ईमानदारी व निष्पक्षता से लागू किया जाए ताकि अपराधी बचें नहीं और निर्दोष फंसें नहीं. 

ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (.दि.)

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‘धर्म नहीं वर्ण अहम’ शीर्षक से प्रकाशित व इसी पर केंद्रित भारतीय राजनीति पर आप की टिप्पणी वाकई सराहनीय और विचारणीय है. आप ने बिलकुल सही कहा है कि देश की समस्या धर्म की इतनी नहीं है जितनी धर्मजनित जाति की है. देश की भोलीभाली जनता को अपने स्वार्थों की खातिर बलि का बकरा बनाने वाले तथाकथित देशप्रेमी उसी जनता का पूरे कार्यकाल में जम कर शोषण करते हैं जिस ने उन्हें गद्दी तक पहुंचाया होता है. मूर्खों की और बढ़ोतरी होती रहे, इन दगाबाजों की सरकार का रौब और रुतबा कायम रहे, इस के लिए वे कभी जाति तो कभी धर्म के नाम पर ऊंचनीच का षड्यंत्र रच कर अपना अभियान जारी रखना चाहते हैं. लेकिन देश का आदमी अब जागने लगा है. उस की सम झ में अब आने लगा है कि बात ऐसे बनने वाली नहीं.

छैल बिहारी शर्माइन्द्र’, छाता (.प्र.)

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‘धर्म नहीं वर्ण अहम’ शीर्षक से प्रकाशित संपादकीय टिप्पणी प्रशंसनीय है. 2014 के चुनावी मुद्दों में धर्म और जाति को ले कर आप ने अच्छा विश्लेषण किया है. मुसलिम वोटों की चिंता करीबकरीब सभी पार्टियों को है और शायद यही सभी पार्टियों व नेताओं के आपसी मनमुटाव का कारण भी है. यह मनमुटाव और आपस की गालीगलौज दुश्मनी में तबदील हो चुकी है. नई सरकार के लिए यह एक बड़ी चुनौती भी है.

अब चुनाव के नतीजे आ चुके हैं. एक पार्टी को बहुमत मिलने का क्रैडिट देश की जनता को जाता है. देश के नए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बिना पक्ष व विपक्ष की परवा किए पूरे देश के हित में काम करना होगा. वे अपनी पार्टी के नहीं बल्कि पूरी जनता के प्रधानमंत्री हैं. इस बार चुनाव पुराने तरीकों से कुछ हट कर हुए हैं, इसलिए संसद में माहौल बदल सकता है. सोच बदली है तो परिणाम भी अच्छे ही होने चाहिए.

कुछ मुद्दे, जैसे शिक्षा, सुरक्षा, कश्मीर, कानून, आरक्षण इत्यादि पर संसद में बहस के बाद नई सरकार यदि पौलिसी बनाए तो उसे ख्याति मिल सकती है. उम्मीद करता हूं कि नए प्रधानमंत्री सब को साथ ले कर चलेंगे और हिंदूमुसलिम के भेदभाव को सदैव के लिए मिटा देंगे. विपक्ष भी हर हितकर मुद्दे पर सरकार का साथ देगा, ऐसी आशा है.

नई सरकार यह भी न भूले कि आज आम आदमी को चाय के लिए 10 से 20 रुपए देने पड़ते हैं जबकि संसद में करोड़पति सांसद चाय 1 रुपए में पीते हैं. आम आदमी असुरक्षित होने पर आएदिन अपनी जान गंवाता है जबकि सांसदों के बेटेबहुओं, बेटीदामादों के पीछे भी सुरक्षाकर्मी तैनात रहते हैं.

डी सिंह, बड़ौदा (गुजरात)

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संपादकीय टिप्पणी ‘बैंक और ग्राहक’ लीक से हट कर है. बैंक हमारी सेवा एवं सुरक्षा के लिए बने हैं न कि हमें परेशान करने के लिए. बैंकों का काम धीरेधीरे एकतरफा होता जा रहा है और उपभोक्ताओं की एकएक कर के परेशानियां बढ़ती जा रही हैं. उद्योगों को हजारों करोड़ रुपए के ऋण देने वाले बैंक गृहऋण, शिक्षाऋण, सोने के बदले ऋण आदि का धुआंधार प्रचार कर ग्राहकों को आकर्षित कर लेते हैं पर बाद में उन्हें एकएक कर के लंबे अनुबंधों, नियमों और रिजर्व बैंक के निर्देशों के नाम पर जम कर परेशान करते हैं. बैंक हमारी सहायता एवं सेवा के लिए स्थापित किए गए हैं ताकि हम अपनी बचत और कीमती गहनों को बैंक में रख कर सुरक्षित व निश्ंिचत नींद ले सकें.

बैंकों के नियम सरल एवं पारदर्शी होने चाहिए ताकि जनता अधिक से अधिक बैंकों की तरफ आकर्षित हो. बैंक एक ऐसे सा झेदार बनें जो समाज को स्थिरता देने की जिम्मेदारी भी निभाएं और जनता के आड़े वक्त काम आएं. जिस तरह रेलवे स्टेशनों पर वरिष्ठ नागरिकों के लिए टिकट लेने के लिए अलग काउंटर खुले हैं, उसी तरह बैंकों में भी लंबी लाइन से बचने के लिए वरिष्ठ नागरिकों के लिए एक अलग काउंटर होना चाहिए.

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (.प्र.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘धर्म नहीं वर्ण अहम’, ‘बैंक व ग्राहक’ और ‘थर्ड जैंडर को न्याय’ बेहद सटीक लगीं.

इस लोकसभा के चुनाव में सभी राजनीतिक पार्टियों ने शालीनता की सभी हदें पार कर जबानी जंग से भारत की जनता को यह जताने का प्रयास किया है कि नेताओं को सबकुछ कहने का अधिकार है और आम लोगों का दायित्व है कि वे उन की कही बातों को सुनें. क्या इस देश के कर्णधारों को नैतिकता का जरा भी खयाल नहीं है?

आज इन भ्रष्ट नेताओं ने अपने वोटबैंक की खातिर आम लोगों के बीच जाति, धर्म के नाम पर दीवार खड़ी कर दी है. सवर्ण जाति को तो इन नेताओं ने कुएं में धकेल दिया है. उन के साथ हर क्षेत्र में, चाहे शिक्षा हो या नौकरी या फिर फौर्म भरने की बात हो, बलि का बकरा सवर्ण जाति के ही लोग बन रहे हैं. आखिर ऐसा क्यों?

इस अंक में ‘अनोखी शर्त’ व ‘गृहिणी’ कहानियां मन को भा गईं. जबकि लेखों में ‘धर्म की मार झेलता जड़बुद्धि समाज’ और ‘जीत के लिए धार्मिक स्वांग का सहारा’ वर्तमान हालात पर करारी चपत हैं. ये लेख समाज को जागृत करने की दिशा में सुखद कदम है.

प्रदीप गुप्ता, बिलासपुर (हि.प्र.)

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चरित्र सिद्धांतों से क्या लेनादेना

मई (प्रथम) अंक में प्रकाशित लेख ‘आम चुनाव में खास बहूबेटियां’ पढ़ा. सत्ता को अपनी बपौती सम झ कर हमारे राजनीतिबाजों द्वारा अपने बेटेबेटियों व बहुओं को राजनीति में लाने की परंपरा हाल ही में कुछ बरसों से चल पड़ी है. इन्हें चरित्र एवं सिद्धांतों से क्या लेनादेना. जिस दल का पलड़ा भारी दिखा उसी में शामिल हो गए. वैसे यह परंपरा गांधी व सिंधिया परिवार से शुरू हुई है. आज मध्य प्रदेश में ऐसे दर्जनों नेता हैं जिन के दोनों हाथों में लड्डू हैं और जो देश की भोलीभाली जनता के कथित ‘महाराज’ व ‘राजासाहब’ बने बैठे हैं. इन के परिवारों के सदस्य दोनों बड़ी पार्टियों (कांग्रेस व भाजपा) में घुसे हुए हैं. यानी चित भी मेरी, पट भी मेरी. वंशवाद की इस बेल को फलने व फूलने से पहले ही जागरूक जनता को उखाड़ फेंकना होगा. वरना देश की कमान अयोग्य हाथों में चली जाएगी और फिर देश बरबाद हो जाएगा.

श्याम चौरे, इंदौर (.प्र.)

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शिक्षक आज के

यह बात सही है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षक ज्यादा योग्य होते हैं और वेतन भी ज्यादा पाते हैं. बड़ेबड़े स्कूलों में जो शिक्षक कार्यरत हैं वे सिर्फ इसलिए नौकरी कर रहे हैं कि प्रयत्न करने के बाद भी उन्हें सरकारी स्कूलों में नौकरी नहीं मिल पाई है.

इस के बावजूद हकीकत यह है कि निजी स्कूलों का रिजल्ट बेहतर रहता है. कारण–प्रबंधन शिक्षकों के कार्य पर पैनी नजर रखता है व जरा भी रिजल्ट बिगड़ने पर वेतन वृद्धि में रोक, नौकरी से बाहर करने जैसे कड़े कदम उठा लेता है. जबकि सरकारी शिक्षकों पर इस तरह का कोई दबाव नहीं होता है, फलस्वरूप अधिक योग्य होने के बाद भी वे अपने कर्तव्य का पालन नहीं करते हैं एवं लापरवाह बने रहते हैं, जिस का असर छात्रों पर स्पष्ट दिखाई देता है.

इस में कोई शक नहीं कि आज के समय में शिक्षा एक बड़ा फायदे का व्यवसाय बन गया है. इसलिए इस क्षेत्र में बड़े पूंजीपति और प्रभावशाली राजनीतिज्ञों ने अपना नंबर दो का पैसा लगा रखा है एवं षड्यंत्रपूर्ण सरकारी स्कूलों को अनदेखा कर बर्बाद कर दिया है. ये शिक्षा माफिया जानते हैं कि मातापिता अपने बच्चों के भविष्य के प्रति बहुत जागरूक हो गए हैं, फलस्वरूप अपनी मेहनत की कमाई का एक बड़ा हिस्सा वे बच्चों की पढ़ाई पर खर्च कर सकते हैं, यहां तक कि वे कर्ज भी लेने से परहेज नहीं करेंगे. इसलिए सस्ती शिक्षा देने वाले शासकीय स्कूलों को बदतर कर दो, जिस से मजबूरी में ये प्राइवेट स्कूलों में अपने बच्चों को भर्ती कराएं और इस में ये लोग सफल हो गए हैं.

कुल मिला कर स्थिति यह है कि सरकारी स्कूलों की सुध लेने वाला कोई नहीं है. जबकि हमारे पास साधनोंसंसाधनों की कमी नहीं है.

अगर निर्णय लेने वाले जिम्मेदार लोग अपने निजी स्वार्थ को परे रख दें तो मृत हो चुके इन सरकारी स्कूलों को पुनर्जीवन मिल सकता है तथा बच्चों को उत्कृष्ट व सस्ती शिक्षा दी जा सकती है, जैसी हम दशकों पूर्व दिया करते थे.

सुधीर शर्मा, इंदौर (.प्र.)

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जबानी जंग

देश में हालिया संपन्न आम चुनाव के दौरान ऐसा लग रहा था जैसे चुनाव न हो कर नेताओं में जबानी जंग छिड़ी हो. मुसलिमों को अपना वोटबैंक समझ सैक्युलरिज्म का राग अलापने वाले कई राजनीतिक दल और हिंदुत्व को आदर्श मानने वाली पार्टी व उस के सहयोगी पार्टियों के बीच आरोपप्रत्यारोप के दौर चलते रहे.

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के तेजतर्रार नेता मोहम्मद आजम खान बोले कि कारगिल युद्ध को मुसलिम फौजियों ने ही फतह किया था. तो वहीं, बिहार में भाजपा नेता गिरिराज बोले कि जिनजिन को नरेंद्र मोदी से परहेज है वे पाकिस्तान चले जाएं.

आजमजी से कहना है कि सीमा पर जंग होती है तो देश के सुरक्षाकर्मी लड़ते हैं, वे हिंदू या मुसलिम नहीं होते. वहीं, गिरिराजजी से कहना है कि देश में रह रहे तमाम अपराधियों, आतंकवादियों को तो आप पाकिस्तान नहीं भेज सकते हो तो मात्र मोदी विरोध के नाम पर किसी को पाकिस्तान कैसे भेज सकते हो.

राधेश्याम ताम्रकर, बड़वानी (.प्र.) द्य

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राजनीति में महिलाएं

मई (प्रथम) अंक का अग्रलेख ‘आम चुनाव में खास बहूबेटियां’ पढ़ कर सभी महिला उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि के बारे में जान कर आश्चर्य होता है कि ये सभी बहूबेटियां, बहनें, भाभियां इतनी पढ़ीलिखी और सम झदार हैं, फिर भी अपने अभिभावकों और सरपरस्तों की दिनरात जहर उगलती जबान पर, इन की जबानें इतनी शांत क्यों हैं? कोई नेता अपने विरोधियों पर गालियों की बौछार कर रहा है तो कोई महिलाओं पर अभद्र टिप्पणी करने से बाज नहीं आ रहा है.

ऐसे में क्या इन खास बहूबेटियों का यह फर्ज नहीं बनता कि वे अपने बुजुर्गों को उन की गरिमा के प्रति सचेत करें और उन्हें सम झाएं कि सभाओं में सभ्यता से पेश आएं और नारियों का सम्मान करना सीखें. आखिर देश की संसद के निर्माण में 49 प्रतिशत योगदान महिलाओं का भी है. 

मुकेश जैनपारस’, बंगाली मार्केट (.दि.)

बात ऐसे बनी

मेरे पति चेन्नई में नौकरी करते हैं, इसलिए हम उत्तर प्रदेश से चेन्नई आ गए. एक बार मैं ने घर से बाजार जाने के लिए आटो किया. आटो वाला शायद दूसरे राज्य के लोगों को पसंद नहीं करता था. कहने लगा, क्या तुम्हारे राज्य में नौकरी नहीं मिलती, जो हमारे राज्य में आ जाते हो?

मुझे बहुत गुस्सा आया और मैं ने कहा, ‘‘अगर इतना ही अपने राज्य से लगाव है तो आटो पर बोर्ड क्यों नहीं लगाते ‘सिर्फ तमिल लोगों के लिए.’ दूसरे राज्य के लोगों को बैठा कर क्यों पैसा कमाते हो?’’ मेरी बात सुन कर वह काफी शर्मिंदा हो गया.

निशा मित्तल, चेन्नई (तमिलनाडु)

 

मेरे एक मित्र की पत्नी बहुत लापरवाह थी. मित्र एक प्रैस में काम करते थे. उन की शर्ट या पैंट की जेब में अधिकतर कोई न कोई महत्त्वपूर्ण पेपर छूट जाता था और उन की श्रीमतीजी बिना जेबें चैक किए उन्हें वाशिंग मशीन में धुलने के लिए डाल देती थीं. लिहाजा, उन के जरूरी कागजात लुगदी की शक्ल में धुल कर बाहर निकलते थे. मित्र कई बार झल्लाए, पर कोई फायदा नहीं हुआ. एक दिन उन को एक तरकीब सूझी. उन्होंने अपने पैंट की जेब में 50 रुपए का नोट जानबूझ कर रख दिया और औफिस चले आए. औफिस आ कर उन्होंने अपनी श्रीमतीजी को फोन किया और बोले, ‘‘सुनो, तुम ने कपड़े धो डाले क्या? मेरी जेब में शायद कुछ रुपए रह गए हैं. यदि नहीं धोए हों तो प्लीज देख लेना.’’

मित्र की पत्नी ने फुरती से सारे कपड़ों की जेबें देख डालीं और 50 रुपए पा कर खुश हो गई. मित्र ने एकदो बार और अपनी जेब में 25-25 रुपए छोड़े जोकि उन की धर्मपत्नी को जेबें टटोलते समय मिलते रहे. बस, इस के बाद तो उन की आदत बन गई कि कपड़े धोने से पहले जेबें जरूर टटोलनी हैं. मित्र के जरूरी कागजात भी तब से लुगदी बनने से बच गए.

अनीता सक्सेना, भोपाल (.प्र.)

 

रोज की तरह मैं गाड़ी लौक कर के कुछ सामान खरीदने एक शौप में गई. जब लौटी तो ऐसा लगा कि मेरे पर्स में चाबी नहीं है. जल्द ही मुझे समझ में आ गया कि चाबी डिक्की में छूट गई है. डिक्की चाबी से ही खुलती लेकिन बंद अपने से ही हो जाती थी.

घर दूर था. कुछ समझ में नहीं आ रहा था. इतने में एक सज्जन पास आए और मुझे अपनी गाड़ी में बिठा मैकेनिक के पास ले गए. मैकेनिक ने चाबी निकाल कर मुझे दे दी. तब उन सज्जन ने मुझे सलाह दी कि गाड़ी चलाते समय चौकन्ने रहने की जरूरत रहती है.

मैं उन की सूझबूझ से काफी प्रभावित थी. अब मैं डुप्लीकेट चाबी के बिना गाड़ी नहीं चलाती.

सोनिया, इलाहाबाद (.प्र.)

नरेंद्र मोदी की जीत

वर्ष 2014 से देश के एक नए इतिहास के लिखे जाने की उम्मीद है. इस बार के आम चुनावों में जिस तरह नरेंद्र मोदी व भारतीय जनता पार्टी को जीत मिली है, वह कांगे्रस को भी अपवादों में मिलती थी.

यह स्पष्ट है कि इस जीत के पीछे देश की जनता की धर्म, जाति, क्षेत्र और पूर्व इतिहास भुला कर एक नया शासन चुनने की इच्छा है ताकि पिछले 10 वर्षों से सत्ता पर काबिज भ्रष्ट, ढुलमुल, धीमी सरकार से उसे मुक्ति मिल सके. जो भारी बहुमत भारतीय जनता पार्टी को मिला है उस के पीछे नरेंद्र मोदी की समाज के हर तरह के वर्ग के लोगों को पार्टी से जोड़ने और उन पर पूरा भरोसा कर उन्हें मनमानी सीटें भी देने की नीति से हुआ है. नरेंद्र मोदी ने यह जोखिम लिया कि अगर बहुमत न मिला तो ये छोटे दल आंखें तरेर सकते हैं. उन का आत्मविश्वास सभी राजनीतिक विचारकों की सोच को धराशायी कर गया और तरहतरह के दलों को जोड़ने की नीति के कारण उन्हें कहीं भी पराया नहीं समझा गया.

देश आज ऐसे मोड़ पर है जहां स्थायी सरकार की दरकार है जो कांगे्रस किसी भी हालत में दे नहीं सकती थी. कांगे्रस के नेता आलसी और कमजोर होने लगे थे. उन्हें लगने लगा था कि सत्ता की थाली गांधी परिवार उन्हें सजा कर बारबार देता रहेगा और वे मजे से खाते रहेंगे. चूंकि सोनिया गांधी बीमार हो गईं, मनमोहन सिंह थक गए और राहुल गांधी अपनी दयनीयता को छोड़ नहीं पाए, ऐसे में गांधी परिवार पर भरोसा करना बेमतलब हो गया था.

यह डर था कि यदि जनता ने कांगे्रस को सबक सिखाया तो कहीं छिटपुट दलों की भरमार न हो जाए जो आपस में ज्यादा लड़ें और सरकार कम चलाएं. यह अद्भुत बात रही कि जनता ने दलों की नब्ज पहचान ली और वोट देते समय समझ लिया कि कौन कितने पानी में है और सारे अनुमानों की तरह 2004 व 2009 से कहीं अलग आंकड़ों के साथ उस ने नरेंद्र मोदी को जीत दे दी.

अब नरेंद्र मोदी को साबित करना है कि उन पर लगने वाले आरोप निरर्थक हैं. वे अपने अनुभवों से बहुतकुछ सीख चुके हैं और देश पहले और धर्म व दंभ बाद में, उन की नीति का आदर्श बनेंगे. जो बहुमत उन्हें मिला है वह बहुत जिम्मेदारी वाला है. पहले की कई सरकारें इस तरह के बहुमत को बरबाद करती रही हैं.

जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने ऐसे मिले बहुमत का दुरुपयोग अपनी सत्ता को जमाने में और अपनी तानाशाही चलाने की नीयत से खराब किया और जब भी उन की सरकारें गईं, लोगों ने राहत की सांसें लीं. जनता पार्टी जिसे 1977 में इस तरह का बहुमत मिला था, बहुत ही पिटपिटा कर गई थी.

नरेंद्र मोदी को इतिहास से सीखना होगा ताकि वे देश को ऐसी सरकार दे सकें जो देश को चीन, रूस, ब्राजील, दक्षिणी अफ्रीका के मुकाबले खड़ा कर सके. ‘सरिता’ कहती रही है कि जब ‘हम हिंदू बाहुबल, बुद्धि, संख्या में किसी से कम नहीं तो 2 हजार वर्षों तक गुलाम क्यों रहे.’ आज जनता ने नरेंद्र मोदी को अवसर दिया है कि वे देश को गरीबी, भ्रष्टाचार, सरकारशाही से मुक्ति दिलाएं.

आप के पत्र

केजरीवाल ने मीडिया पर बिकाऊ होने का आरोप लगाया है. ‘आप और मीडिया’ शीर्षक से प्रकाशित संपादकीय में आप ने इसी संदर्भ में विवेचना की है. दरअसल, मीडिया से निष्पक्ष होने की उम्मीद करना आकाशकुसुम की तरह है. मीडिया संचालकों के मौलिक अधिकार की बात से सहमत हुआ भी जाए तो क्या यह कहना बेहद मुश्किल है कि पेड न्यूज और स्वाभाविक दिलचस्पी के बीच कोई सीमा बची है. सबकुछ आपस में गड्डमड्ड हो गया है.

कभी पेड चैनल भी निष्पक्षता का दिखावा कर सकते हैं. कभी एक्सक्लूसिव के चक्कर में अधपकी खबरें भी लपक ली जाती हैं. इलैक्ट्रौनिक मीडिया में न्यूज के साथ व्यूज परोसने की प्रणाली उन्हें आरोपों के दायरे में खड़ा कर देती है.

अधिकांश चैनल एक स्वर में नमो राग गा रहे हैं. सारा मीडिया सिंदूरी दिखता है. हिंदुस्तान के इतिहास में चुनाव प्रचार में इतनी अकूत दौलत का इस्तेमाल आज तक नहीं हुआ. नमो का प्रचार 1,500 लाख करोड़ रुपए का. यह अनुमानित आंकड़ा है. यह व्हाइट मनी तो हो नहीं सकती.

बड़ेबड़े मीडिया हाउस उद्योगपतियों के हैं और उद्योगपति किसी न किसी पार्टी के. ऐसे में आम आदमी पार्टी को तरजीह कौन देगा. जहां समूचा मीडिया दोनों आंखों से खबरें और तीसरी आंख से धन देखता है वहां ‘आप’ को हकीकत का सामना करना पड़ेगा. चैनल, अखबार और वेब मीडिया क्या, पूरा तंत्र ही बाजार के अधीन है, ऐसे में ‘आप’ को थोड़ा धैर्य तो धरना ही पड़ेगा.

इंदिरा किसलय, नागपुर (महा.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘आप और मीडिया’ के अंतर्गत ऐसा प्रतीत होता है कि बड़ी पार्टियों या नेताओं की गलती पर ध्यान नहीं दिया जाता है. मीडिया को अपना व्यवहार एक सा रखना चाहिए.

अरविंद केजरीवाल कुछ समय के लिए मुख्यमंत्री रहे हों किंतु उन्हें जनता ने यह पद दिया था. उन के साथ सौतेला व्यवहार क्यों किया जाता है? सरकार किसी की भी बने, वह ऐसी हो जो अपना कार्यकाल पूरा करे, देशप्रदेश को विकास की ओर ले जाए. जनता को महंगाई से राहत मिले, किसानों को राहत मिले उन्हें हताश हो कर मृत्यु को गले न लगाना पड़े.

कांति पुखार, झांसी (उ.प्र.)

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‘आप और मीडिया’ एक उत्कृष्ट टिप्पणी है. आम आदमी पार्टी हो या कोई भी अन्य पार्टी, मीडिया का काम सत्य को उजागर करना है लेकिन मीडिया और ‘आप’ के बीच विवाद गहरा गया. अरविंद केजरीवाल की घबराहट और बौखलाहट वाजिब है क्योंकि ‘आप’ को एक समर्थक मीडिया की जरूरत है. अन्य पार्टियों की तरह ‘आप’ के पास अनापशनाप की कोई कमाई नहीं है. मीडिया का एकतरफा व्यवहार कुछ नया नहीं है. आमतौर पर अखबार या चैनल अपनीअपनी पसंद के नेताओं को कुछ ज्यादा सहानुभूति से दर्शाते हैं.

अरविंद केजरीवाल को भी यह हक है कि वे मीडिया की आलोचना करें. अगर मीडिया बड़े उद्योगपतियों का है और बड़े उद्योगपति किसी खास पार्टी को समर्थन दे रहे हैं तो उन्हें या किसी को भी शिकायत करने का पूरा अधिकार है.

यह बिलकुल सही बात है कि मीडिया को इस पर तिलमिलाना नहीं चाहिए बल्कि अपनी आलोचना उसी तरह लेनी चाहिए जैसे वह दूसरों की करता है. उसे इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि यदि वह दूसरों की आलोचना करने का अधिकार रखता है तो दूसरे भी उस की बखिया उधेड़ सकते हैं.

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘आप और मीडिया’ में आप का यह कहना कि ‘अरविंद केजरीवाल को भी यह हक है कि वे मीडिया की आलोचना करें’ बेशक दुरुस्त है. मगर क्या किसी पर भी बिना किसी सुबूत के आरोप लगाना, आलोचना माना जाएगा? शायद नहीं. बेवजह थोपे जा रहे या फिर अनापशनाप लगाए जा रहे आरोपों को तो ‘खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे’ समान ही कहा जाएगा.

यहां न तो मैं केजरीवाल पर आरोप  लगा रहा हूं और न ही मीडिया की वकालत कर रहा हूं बल्कि कहना चाह रहा हूं कि जब दिल्ली विधानसभा के चुनावों में यही मीडिया इन्हीं केजरीवाल की तारीफ के पुल बांधने में लगा था तो उन का प्रिय था. अब अगर वही मीडिया उन की कमियां गिनाने/बताने लगा तो अप्रिय हो गया? केजरीवाल तो यहां तक फरमा गए कि सारा मीडिया बिक गया है.

क्या ऐसा संभव हो सकता है? या फिर जब यही मीडिया उन का गुणगान कर रहा था तो क्या केजरीवाल ने उसे खरीद रखा था? याद करें, केजरीवाल ने कहा था कि कल तक मैं ‘नास्तिक’ था, मगर अब मैं ‘आस्तिक’ यानी भगवान भक्त हो गया हूं. फिर वे यह क्यों भूल जाते हैं कि उन्हीं के भगवान ने गीता में उपदेश दिया था : ‘कर्म किए जा, फल की चिंता मत कर ऐ इंसान, जैसा कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान’ तो फिर आलोचना या प्रशंसा की चिंता क्यों?

ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (दिल्ली)

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सरित प्रवाह में संपादकीय ‘सुषमा की नाराजगी’ और ‘आप और मीडिया’ पढ़ कर अच्छा लगा. बात तो काफी गंभीर है. हमारे यहां सब से बड़ी मुसीबत यही है कि हम एकजुट हो कर दुश्मन से कम आपस में ज्यादा झगड़ते हैं. कांगे्रस और भाजपा यह भूल जाती हैं कि चुनाव के बाद दोनों पार्टियों के सांसदों को एकसाथ ही पार्लियामैंट में बैठ कर देश के लिए काम करना है. यह दुश्मनी न तो उन का अपना भला करती है और न ही देश का. ताज्जुब तो यह है कि ‘आप’ ने भी वही घिसापिटा राग अलापना शुरू कर दिया है जबकि वह चाहती तो अपनी सोच को जनता के सामने कुछ नए तरीके से रख सकती थी.

केजरीवाल सच्चे और ईमानदार इंसान हैं और आज की युवा पीढ़ी को रीपे्रजैंट करते हैं. हाल के एक बयान में उन्होंने साफ कर दिया है कि यदि मैं सांसद नहीं बन पाया तो कोई बात नहीं, मेरा अभी तो मकसद मोदी को हराना है.

यही एकदूसरे को हराने, पछाड़ने और नीचा दिखाने की भावना कुछ ऐसी तीव्र हो गई है कि नेतागण यह भी भूल जाते हैं कि सामने वाला दूसरी पार्टी का न हो कर, उन की अपनी पार्टी का ही है. सुषमा स्वराज, मुरली मनोहर जोशी, लालकृष्ण आडवाणी भी अपनी जगह ठीक होते हुए कुछ ऐसी ही लड़ाई लड़ रहे हैं जिस का अंजाम चुनाव के बाद आपसी बैर को बढ़ावा ही देगा.

ओ डी सिंह, बड़ौदा (गुजरात)

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नेताओं को देश की चिंता नहीं

अप्रैल (द्वितीय) अंक में प्रकाशित अग्रलेख ‘आजादी के 67 साल, फिर भी भारत बेहाल’ में देश की वास्तविक दुर्दशा प्रतिबिंबित हुई है. इतनी लंबी अवधि में देश में अगर कुछ भी बदला है तो वह है नेता एवं उन के रिश्तेदारों का रहनसहन. दिनोंदिन कुव्यवस्था, कुशासन एवं भ्रष्टाचार के दलदल में फंसा देश कराह रहा है जबकि चोरचोर मौसेरे भाई, नेतागण अपने स्वार्थसिद्धि के लिए एकदूसरे पर कीचड़ उछालने में लगे हुए हैं.

आजतक शोषित, उत्पीडि़त जनगण को झूठे वादों के कफन में लपेट कर ख्वाबों की मृगतृष्णा में ही भटकाया गया है. दुख की बात यह है कि उन के ही दिए गए वोटों की भीख की बदौलत ये नेतागण एकपति से अरबपति हो गए और भीख का कटोरा देश की जनता को थमा ‘भारत देश महान’ का ध्वजा लहरा रहे हैं.

रेणू श्रीवास्तव, पटना (बिहार)

व्यवस्था का बंटाधार?

अप्रैल (द्वितीय) अंक का अग्रलेख ‘आजादी के 67 साल फिर भी भारत बेहाल’ वास्तविकता के करीब है. देश की व्यवस्था का सही चित्रण लेख में किया गया है. सरकार के सारे विभागों में गंदगी, अव्यवस्था, भ्रष्टाचार व लालफीताशाही का बोलबाला है. सरकारी इमारतें पान की पीक से बदरंग हो गई हैं. विभाग के कर्मचारी कुरसियों से नदारद रहते हैं या फिर सीधेमुंह बात नहीं करते, जनता किस से फरियाद करे.

सड़कों पर ट्रैफिक व्यवस्था का यह आलम है कि वाहनों की बेतरतीब रेलमपेल का सामना कर कोई भी सकुशल घर वापस आ जाए तो बड़ी बात है. जान हथेली पर ले कर सड़कों पर चलना पड़ता है. अतिक्रमण के बीच सड़कें नजर नहीं आतीं.

मंदिरों में भजनकीर्तन का इतना शोर रहता है कि छात्र न पढ़ाई कर सकते हैं और न बीमारों को आराम मिलता है. पंडेपुजारी जनता को गुमराह कर आर्थिक शोषण करते हैं. भंडारों के नाम पर धौंसडपट दे कर व्यापारियों से चंदा वसूल किया जाता है. एक तरफ कुछ लोगों को दो जून की रोटी के लिए दिनभर भागदौड़ कर परिश्रम करना पड़ता है दूसरी ओर कुछ लोग निठल्ले रह कर जनता की कमाई पर ऐशोआराम करते हैं. सचमुच, व्यवस्था का बंटाधार हो चुका है.

श्याम चौरे, इंदौर (म.प्र.)

अंधभक्ति

अप्रैल (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘आशुतोष महाराज : समाधि और संपत्ति पर विवाद’ पढ़ा जो धर्मांध भक्तों बनाम धर्म के अलंबरदारों की आंखों पर बंधी धर्म की पट्टी को उजागर करता है. सच पूछो तो धर्म के ये अंधे भक्त उन भैंसों समान ही हैं जिन के आगे बीन बजाने का कोई फायदा नहीं होता. शायद, इसीलिए तो चाहे डाक्टरों ने तथाकथित समाधिरत आशुतोष महाराज को ‘क्लीनिकली डैड’ घोषित कर दिया हो या फिर उन के मृत शरीर को ‘फ्रीज’ कर के रखा गया हो, उन आंख के अंधों और कान के बहरे सनकी भक्तों को अभी भी वे समाधिरत ही नजर आ रहे हैं. ऐसी स्थिति को क्या कहा/समझा जाए? रही बात उन की अकूत संपत्ति के विवाद की, तो समझ नहीं आता कि क्यों संबंधित राज्य या केंद्र सरकार ऐसी संपत्तियों पर रिसीवर बैठा देती है?

आखिर वह एकत्रित की गई या फिर भक्तों से चढ़ावे के रूप में लूटी गई दौलत है. आखिरकार वह है तो जनता जनार्दन की ही. तो क्यों नहीं उसे सरकारी कोष में समाहित कर गरीबजरूरतमंद लोगों की सेवा में ही लगा दिया जाता? पंडेपुजारियों या महाराज के तथाकथित चेलेचपाटियों को धनदौलत से आखिर लेनादेना भी क्या? क्योंकि असली साधु, संत, महात्माओं को भला धनदौलत से क्या लेनादेना, तो फिर क्यों ऐसे महाराजों की संपत्ति पर किसी को भी विवाद खड़ा कर अनावश्यक खूनखराबा करने की छूट दी जाए और अगर समाधि से महाराज वापस लौटने ही वाले हैं तो फिर ‘यह मेरा, यह इस का’ विवाद उठ ही क्यों रहा है?

टी सी डी गाडेगावलिया, करोल बाग (न.दि.)द्य

दलबदल या दिलबदल

अप्रैल (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘दलबदल का खेल, नेताओं की ‘राज’ लीला’ पढ़ा. आज राजनीति में आने का मकसद सिर्फ सत्तासुख भोगना और हमेशा पावर में बने रहना है. इसीलिए चारों ओर मौकापरस्ती है. जिस पार्टी की लहर चल रही है उस में शामिल होने के लिए नेता अधिक उतावले होेते हैं. सिद्धांत ताक पर रख कर जोड़तोड़ की राजनीति में लगे हैं. जिसे भी टिकट नहीं मिलता वही पार्टी छोड़ उस पार्टी में शामिल हो जाता है जिस की बुराइयां करने में कभी उस ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी. पार्टी को भी उन लोगों से कोई परहेज नहीं होता, फिर चाहे वह उद्योगपति हो या अपराधवृत्ति में लिप्त ही क्यों न हो. उसे तो बस किसी तरह सत्ता में आना है.

यह सिलसिला यहीं भी नहीं थमता. सत्ता में आने के बाद मनमाफिक पद की लालसा बनी रहती है. और न मिलने पर खींचतान शुरू हो जाती है. न संसद चलती है न जनहित में काम होता है.

देश अब काफी जागरूक हो चुका है. दलबदल करने वालों को जनता अच्छा सबक सिखा सकती है. परंतु हमारे यहां सिस्टम में कई खामियां हैं. एक बार प्रत्याशी को चुनने के बाद उसे वापस नहीं भेजा जा सकता. चाहे वह काम करे या न करे. हमें उस पर जवाबदेही फिक्स करनी होगी. जिस क्षेत्र का वह प्रतिनिधित्व कर रहा है उस का दौरा निश्चित अंतराल में करे. जनता का काम कितना किया है, उस का लेखाजोखा प्रस्तुत करे. अगर वह काम नहीं करता है तो उसे हटाने का अधिकार भी जनता को होना चाहिए. चुनाव सुधार के लिए बनने वाले कानूनों में इस बात को भी जगह दी जानी चाहिए. केवल 5 साल में एक बार किसी को भी चुन कर जनता का रहनुमा बना देने से जनता का हित नहीं होगा.       

प्रकाश दर्पे, इंदौर (म.प्र.)

 

आरुषि पर फिल्म

बौलीवुड में हमेशा से ही विवादास्पद विषयों को फिल्म की शक्ल में भुनाने का चलन रहा है. इसी कड़ी में निर्मातानिर्देशक विशाल भारद्वाज का नाम भी जुड़ता दिख रहा है. खबर है कि वे आरुषि तलवार और हेमराज हत्याकांड पर फिल्म का निर्माण करने वाले हैं. हालांकि वह बतौर निर्देशक इस फिल्म में मेघना गुलजार को मौका देंगे. फिल्म में पुलिस अधिकारी की भूमिका में इरफान खान और आरुषि की मां की भूमिका में शेफाली शाह नजर आ सकती हैं.

तलवार दंपती को इस मामले पर फिल्म बनाने को ले कर आपत्ति है. ऐसे में विशाल के लिए फिल्म बनाना आसान नहीं होगा.

परदे पर गुजरात माफिया

पिछले दिनों गुजरात माफिया पर आधारित फिल्म ‘लतीफ द किंग औफ क्राइम’ रिलीज होने वाली थी लेकिन किन्हीं कारणों से इस की रिलीज जून महीने तक के लिए खिसका दी गई है. चूंकि फिल्म गुजरात माफिया के बारे में है, जिस में शराब का धंधा और फर्जी एनकाउंटर जैसे मामलों को उठाया गया है. ऐसे में कुछ लोगों ने निर्माता से पूछना शुरू कर दिया कि क्या किसी सियासी दबाव के चलते रिलीज टाली गई है?

फिल्म निर्माता कृष्णा कहते हैं कि फिल्म के रिलीज को टालने के निर्णय के पीछे कोई सियासी दबाव नहीं है. हमें जो गुजरात के बारे में लगा, वही फिल्म में दिखाने जा रहे हैं.

 

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