सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में महापुरुषों पर व्यंग्य करने पर आपत्ति जता कर विचारों की स्वतंत्रता के अधिकार को उस समय और संकुचित कर डाला जब दुनियाभर में स्वतंत्रताओं पर भारी दबाव डाला जा रहा है. आज विचारों की स्वतंत्रता एक आम निहत्थे, सीधे, साधनविहीन नागरिक का अधिकार नहीं है. यह तो केवल राजनीतिक दलों, धर्मों, सरकारों, दबंगों के चंगुल में है. पेरिस में एक कार्टून पत्रिका का मामला हो या इंटरनैट पर बाल ठाकरे के देहांत पर मुंबई बंद करने का मौका हो, जो संगठित है चाहे धर्म हो, दल हो या सरकार हो, वे विचारों की स्वतंत्रता को कुचलना संवैधानिक अधिकार से ऊपर मानते हैं. आंध्र प्रदेश के विद्रोही कवि गदर की एक कविता में महात्मा गांधी के मुंह से बुलवाए कुछ शब्दों पर सुप्रीम कोर्ट ने आपत्ति करते हुए साफ कर दिया है कि अदालतें इस अधिकार को प्रशंसा का अधिकार मानती हैं. यह तर्क कि इस अधिकार के अंतर्गत आप आलोचना कर सकते हैं, अपने भिन्न विचार प्रकट कर सकते हैं पर फिर भी सीमा नहीं लांघ सकते, अपनेआप में सरकार, पुलिस और संगठित धर्मों के हाथ में ऐसा हंटर देना है जिस से विचारों की स्वतंत्रता का इस्तेमाल करने वाले को सूली पर चढ़ाया जा सकता है.

जिस समाज में गतिशीलता होती है वही आगे बढ़ता है. नदी जो हर तरह की गंदगी को बहा ले जाए वही समाज के लिए उपयोगी, वह जोहड़ नहीं जहां समाज की गंद जमा हो जाए चाहे वह मंदिरमसजिद के प्रांगण में बना हो. विचारों की स्वतंत्रता ने राजशाही और तानाशाही के मुकाबले नए विचार दिए और लोकतंत्र को अपना रास्ता दिखाया. अगर सर्वोच्च न्यायालय के तर्क की तरह उस समय कहा जाता कि राजा या तानाशाह के विचारों से विभिन्नता तो व्यक्त की जा सकती है पर विचारों की स्वतंत्रता के नाम पर मजाक नहीं उड़ाया जा सकता तो शेक्सपीयर तक के कितने नाटक प्रतिबंधित हो जाते. सरकारें, तानाशाह, धर्म की दुकानें चलाने वाले हमेशा कहते रहते हैं कि वे अपने विचार थोपते नहीं हैं पर वहीं वे यह भी कहते रहते हैं कि उन पर विश्वास रखें तभी समाज स्थिर रहेगा. अगर मजाक नहीं उड़ाया जा सकता तो विचार व्यक्त करना औपचारिकता मात्र है. मजाक और कार्टून दूसरे की गलतियों का जिस तरह परदाफाश करते हैं वह 1 हजार पृष्ठों की किताब नहीं कर सकती.हमारे देश में तानाशाही फिर अपनी जमीन बना रही है. कौर्पोरेट घरानों से ले कर धर्मों के पुजारियों तक सब इस फेर में रहते हैं कि किसी तरह की आलोचना से बचा जाए. हमारे देश में कार्टून अब हलके हो गए हैं, व्यंग्य की विधा कमजोर हो गई है, लिखने वालों की कलम कांपने लगी है. जब तक संगठित समूह पीछे न हो, हरेक की हालत दिल्ली विश्वविद्यालय के सैंट स्टीफन कालेज के छात्र देवांश मेहता की तरह है जिस ने अपने कालेज के पिं्रसिपल वालसन थिंपू पर लिखा तो उसे सस्पैंड कर दिया गया. बजाय नागरिकों को सांत्वना देने के अदालतें, बड़ी आसानी से लेखकों, पत्रकारों को संयम बरतने की सलाह दे डालती हैं जिस का छिपा अर्थ होता है, शक्तिशाली की बात मान जाओ वरना कानूनी पंजे फौलादी हैं.

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