हमारे सहयोगी शुक्लाजी अपनी बेटी के लिए सुयोग्य वर की तलाश में थे. एक अन्य सहयोगी मिश्राजी अपने बेटे के लिए सुंदर, सुशील वधू ढूंढ़ रहे थे. चर्चा चली तो किसी ने सुझाव दिया कि आप दोनों आपस में संबंध हेतु विचार क्यों नहीं करते? बात दोनों को जंच गई. संयोग से आयु, पढ़ाई, कद, रंग, रूप आदि सभी मेल खा रहे थे. तय हुआ कि लड़कालड़की एकदूसरे को देख लें और पसंद कर लें तो बात आगे बढ़े. तय कार्यक्रम के अनुसार, मिश्राजी अपने बेटे तथा पत्नी के साथ दोपहर के भोजन पर शुक्लाजी के यहां पहुंचे. औपचारिक नमस्कार आदि के आदानप्रदान के तुरंत बाद शुक्लाजी की पत्नी और बेटी भीतर चली गईं. कुछ देर बाद शुक्लाजी को भी भीतर बुला लिया गया.

काफी देर बाद तमतमाए हुए से शुक्लाजी अकेले बाहर आए. स्वयं को बमुश्किल संयत करते हुए उन्होंने मिश्रा परिवार को किसी होटल में खाने हेतु चलने के लिए अनुरोध किया जिसे मिश्राजी ने शिष्टतापूर्वक मना कर दिया तथा पत्नी और बेटे सहित घर लौट आए. बहुत बाद में बात खुली कि शुक्लाजी की पुत्री ने मिश्राजी की गंजी खोपड़ी को देखते ही कह दिया कि कल को इन का बेटा भी ऐसा ही हो गया तो...मुझे नहीं करनी ऐसे आदमी से शादी. इस पर उस की मां का कहना था कि जब हमें इन से रिश्ता ही नहीं करना तो खाना भी क्यों खिलाएं.

ओमप्रकाश बजाज, जबलपुर (म.प्र.)

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मेरी एक सहेली है. उस के जेठजी ग्वालियर में रहते हैं. उन्हें भोपाल शहर बहुत पसंद है. इसलिए कुछ माह पहले एक बिल्डर का मकान बनाने का विज्ञापन देख कर वे सपरिवार भोपाल आए और एक प्लौट बुक कर दिया. बुकिंग राशि 50 हजार रुपए देने पर बिल्डर ने उन्हें स्टांप पेपर पर हस्ताक्षर दे कर कहा कि अगली बार पहली किस्त देने जब आप आओगे तो प्लौट की रजिस्ट्री आप को मिल जाएगी. उन्होंने विश्वास के साथ 50 हजार रुपए बिल्डर को दे दिए. 2 माह बाद उन्होंने भोपाल आ कर देखा तो न तो बिल्डर का औफिस मिला न जमीन पर कोई डेवलपमैंट हुआ था. बहुत कोशिश के बाद उन्हें समझ में आया कि बिल्डर फ्रौड था और उस के औफिस का पता भी गलत था. उस ने उन के जैसे कई और लोगों से बुकिंग राशि ले रखी थी जिसे ले कर वह फरार हो गया था.

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