नाकामियों के अंधेरों का

हसास नहीं होता

अगर आंखों में हो सितारा

मंजिलों के नूर का

कुछ वक्त की रुसवाई थी

कुछ खुद से ही फासले थे

वरना साहिल था आंखों में

मेरे भी जनून का

वो ख्वाबों का तसव्वुर

वो सपनों की सरजमीं

माना कि उन दिनों

मैं खुद से दूर था

चलो बना भी लिया आशियां

और गुंचे भी खिल गए

गर बस गई खिजां यहां

तो ये किस का कुसूर था.

       – उर्मिला जैन ‘प्रिया’

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