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फीफा वर्ल्ड कप और भारत

फीफा वर्ल्ड कप में भले ही भारत की भागीदारी न हो लेकिन लोगों में फुटबाल की दीवानगी ऐसी है कि मानो यह खेल भारत में ही हो रहा हो. भारत को वर्ष 1950 में ब्राजील की मेजबानी में वर्ल्ड कप खेलने का मौका तो मिला था लेकिन उस ने वह मौका गंवा दिया, क्योंकि उस दौरान भारतीय टीम के खिलाड़ी नंगे पांव खेलते थे जो अंतर्राष्ट्रीय फुटबाल नियमों के खिलाफ था. उस के बाद भारत के फुटबाल संघ ने सभी खिलाडि़यों के लिए जूता पहनना अनिवार्य कर दिया. तब से भारतीय खिलाडि़यों ने इस की आदत डाल ली और अपने खेल स्तर को बेहतर करने के लिए जीतोड़ मेहनत की. 4 वर्ष मेहनत करने के बाद फुटबाल महासंघ को लगने लगा कि अब हम विश्व कप के लिए तैयार हैं. वर्ष 1954 में भारत ने फीफा यानी फैडरेशन इंटरनैशनल डी फुटबाल ऐसोसिएशन के पास आवेदन भेजा कि हमें क्वालिफाइंग राउंड में खेलने की अनुमति दी जाए लेकिन फीफा ने भारत के आवेदन को अस्वीकार कर दिया. भारतीय खिलाडि़यों का सपना चूरचूर हो गया. उस के बाद भारतीय खिलाड़ी घरेलू मैदान पर ही खेलते रहे. 1986 के बाद भारत को कई बार वर्ल्ड कप के क्वालिफाइंग राउंड में खेलने के मौके तो मिले लेकिन एक बार भी वह अपना दमखम नहीं दिखा पाया. लेकिन लगातार 3 बार नेहरू कप जीतने के बाद भारतीय खिलाडि़यों की उम्मीद जगी और 2011 में एशिया कप खेलने का मौका मिला. तब भी यह टीम कुछ खास नहीं कर पाई.

हिमाचल प्रदेश व इलाहाबाद विश्वविद्यालय फुटबाल टीम के कोच इंद्रनील घोष कहते हैं कि भारतीय टीम के फीफा वर्ल्ड कप में नहीं पहुंच पाने के एक नहीं, कई कारण हैं. पिछले कुछ वर्षों से हम लगातार आगे तो बढ़ रहे हैं लेकिन हम से भी अधिक रफ्तार से विश्व स्तर के फुटबाल खिलाड़ी बढ़ रहे हैं. हमें थोड़ा वक्त अभी और लगेगा और भविष्य में हम विश्व कप में भाग ले सकेंगे.

हमारे यहां इन्फ्रास्ट्रक्चर, ग्राउंड फैसिलिटी, इक्युपमैंट, क्वालिफाइड कोचों की कमी है. हम लोग बड़े टूर्नामैंट बहुत कम खेलते हैं. साल में मात्र 3-4 मैच, वह भी फ्रैंडली मैच खेल पाते हैं जबकि विदेश में ऐसा नहीं है. वे ज्यादा से ज्यादा टूर्नामैंट खेलते हैं जिस से खिलाडि़यों का प्रदर्शन बेहतर होता जाता है.

इंद्रनील आगे कहते हैं कि मौसम और खानपान भी इस खेल को काफी प्रभावित करते हैं. हमारे खिलाड़ी दालचावल व सब्जी खाते हैं जबकि विदेशों में खिलाडि़यों के डाइट चार्ट बने हुए हैं.

जहां तक मौसम की बात है तो विदेशों का मौसम खुशनुमा होता है जिस से खिलाड़ी जल्दी थकते नहीं हैं और देर तक मैदान में जमे रहते हैं जबकि भारत में ऐसा नहीं है. यहां गरमियों में मैदान में खिलाड़ी जल्दी थक जाते हैं.

वर्ष 2017 में भारत अंडर 17 विश्व कप की मेजबानी करेगा और उस से पहले आईएसएल फुटबाल और फिर सैफ टूर्नामैंट से इस खेल के प्रति लोगों की दिलचस्पी बढ़ेगी और साथ ही खिलाडि़यों को प्रोत्साहन मिलेगा. इस के अलावा स्कूल व स्टेट लैवल पर बहुत कम मैच होते हैं. हमें जमीनी स्तर को भी मजबूत करने की जरूरत है.

बहरहाल, फीफा वर्ल्ड कप के रंग में पूरा विश्व डूबा हुआ है. भारत भले ही इस खेल का हिस्सा नहीं है लेकिन उम्मीद तो की ही जा सकती है कि अगले फीफा वर्ल्ड कप में हमारी भी टीम मैदान में दिखेगी, तब हम और ज्यादा इस के रंग में डूबे नजर आएंगे.

पाठकों की समस्याएं

मैं 22 वर्षीय युवक हूं और बीसीए की पढ़ाई कर रहा हूं. मेरे दोस्तों के समूह में 6 लड़कियां हैं, मैं अकेला लड़का हूं. हम सब की दोस्ती पिछले डेढ़ साल से है. मैं अपने समूह की एक लड़की से बेहद प्यार करता हूं लेकिन मैं ने अभी तक उस से अपने प्यार का इजहार नहीं किया है. मैं डरता हूं कि कहीं उस के सामने अपने प्यार का इजहार करने से वह बुरा तो नहीं मान जाएगी और मुझ से अपनी दोस्ती तोड़ लेगी, जो मैं हरगिज नहीं चाहता. मेरा दिल तो अपने प्यार का इजहार करना चाहता है पर दिमाग ऐसा करने से रोकता है. मैं उलझन में हूं कि दिल की सुनूं या दिमाग की? सलाह दीजिए.

अपनी भावनाओं का या अपने प्यार का इजहार करना कदापि गलत नहीं है. आप अपने दोस्त से अपने प्यार का इजहार खुल कर कीजिए. अगर आप की दोस्ती सच्ची है तो वह बुरा नहीं मानेगी. इसलिए अपने मन से दोस्ती खोने का डर निकाल दीजिए. अगर वह आप से प्यार नहीं करती होगी तो अपनी भावनाएं आप के सामने प्रकट कर देगी, आप से नाराज नहीं होगी. इस से आप दिल व दिमाग की लड़ाई से मुक्त हो जाएंगे. बिना बात किए बात नहीं बनेगी.

मैं 25 वर्षीय युवती हूं. मेरी समस्या यह है कि मेरा किसी भी काम में मन नहीं लगता. मन में अजीबअजीब से खयाल आते हैं. किसी से बात करने, कहीं जानेआने का भी मन नहीं करता. ऐसा लगता है कि मैं पागल सी हो गई हूं. जिंदगी बेकार लगने लगी है. मैं क्या करूं जिस से जिंदगी के प्रति मेरा लगाव हो और मुझे खुशी मिले?

आप की बातों से लगता है कि या तो आप के साथ कुछ गलत घटित हुआ है या आप बिलकुल खाली रहती हैं, किसी काम में व्यस्त नहीं हैं. अगर कुछ गलत हुआ है तो सबकुछ भुला कर आगे बढि़ए और जिंदगी की नई शुरुआत कीजिए. सकारात्मक सोच बढ़ाने वाली पुस्तकें पढि़ए. ऐसे लोगों से प्रेरणा लीजिए जिन्होंने बड़ीबड़ी कठिनाइयों के बाद भी जिंदगी से हार नहीं मानी और आगे बढ़ कर सफलता प्राप्त की. अपने को अधिक से अधिक व्यस्त रखें, खाली हरगिज न बैठें. खाली बैठने से मन में नकारात्मक विचार जन्म लेते हैं. जिस काम में मन लगे, करें. लोगों से मिलेंजुलें. गीतसंगीत सुनें. ऐसा करने से आप का जिंदगी के प्रति नजरिया अवश्य बदलेगा और आप को खुशी मिलेगी.

मैं 35 वर्षीय विवाहिता हूं. पति सरकारी नौकरी में हैं. हमारा 3 वर्षीय बेटा है. मेरी समस्या यह है कि पति का किसी अन्य महिला से रिश्ता है, पर मैं यह नहीं जान पा रही हूं कि किस से? बहुत परेशान हूं. क्या करूं?

क्या आप यह बात दावे के साथ कह सकती हैं कि आप के पति का किसी अन्य महिला के साथ संबंध है या यह सिर्फ आप का वहम है. कहीं आप सुनीसुनाई बातों पर तो विश्वास नहीं कर रहीं? पहले अपने शक को विश्वास में बदलने के लिए पुख्ता सुबूत जुटाइए, फिर पति से बात कीजिए. बिना सुबूत के अपनी वैवाहिक जिंदगी में वहम का जहर मत घोलिए. साथ ही, अपने भीतर भी झांक कर देखिए कि कहीं आप में ही तो कोई कमी नहीं, जिस के कारण आप उन पर शक कर रही हैं.

मैं 40 वर्षीय महिला हूं. मेरे 3 बच्चे हैं. मेरे पति की पहली पत्नी ससुराल में रहती हैं. उन के 5 बच्चे हैं. पति मेरे साथ ही रहते हैं. हम किराए पर अलग घर में रहते हैं, हमें ससुराल से कोई मदद नहीं मिलती. पति आजकल काफी बीमार रहते हैं. इस स्थिति में क्या हमें ससुराल वालों से कुछ मदद मिलनी चाहिए?

पहली पत्नी के होते हुए दूसरा विवाह करना गैरकानूनी है. जब आप को पता था कि आप के पति शादीशुदा हैं तो उन से विवाह कर के आप ने खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है. पहली पत्नी से तलाक लिए बिना आप के पति दूसरा विवाह कर के आप के साथ अलग रह रहे हैं, यह आप लोगों की सब से बड़ी गलती है. ऐसे में आप को ससुराल से मदद मिलने का सवाल ही नहीं उठता. उन की पहली पत्नी, जो ससुराल में अपने बच्चों के साथ रह रही है, को ही ससुराल से मदद मिलने का हक बनता है, आप का नहीं.

मैं 23 वर्षीया युवती हूं. 1 माह पहले मेरी सगाई हुई है. मेरे होने वाले पति वैसे तो दिल के बहुत अच्छे हैं पर उन्हें गुस्सा बहुत जल्दी आ जाता है. मैं उन्हें जितना समझने की कोशिश करती हूं उतनी कन्फ्यूज हो जाती हूं. वे हमेशा यही कहते हैं कि मैं उन्हें समझूं पर वे खुद मुझे नहीं समझते और हमेशा मुझ में ही कमियां ढूंढ़ते रहते हैं. सलाह दें, मैं क्या करूं?

हर व्यक्ति एकदूसरे से अलग होता है. अगर आप का मंगेतर दिल का अच्छा है तो आप केवल उस के इस गुण को महत्त्व दीजिए. अभी आप का रिश्ता नयानया है इसलिए आप शायद कुछ ज्यादा ही सोच रही हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि आप की कुछ बातें उसे गुस्सा दिलाती हैं. उन बातों पर ध्यान दीजिए जिन पर उसे गुस्सा आता है, उन्हें न दोहराएं. यह समय एकदूसरे को समझने, जानने का है, इसे व्यर्थ की बातों में बरबाद न करें.

मैं 24 वर्षीय युवक हूं. मेरी समस्या यह है कि मेरी गर्लफ्रैंड मुझ पर विश्वास नहीं करती है. हम दोनों के बीच शारीरिक संबंध भी हैं लेकिन फिर भी वह मुझ पर हमेशा शक करती है. जबकि मैं उस से कुछ भी नहीं छिपाता. मैं बहुत परेशान हूं.

लगता है आप की गर्लफ्रैंड को शक करने की बीमारी है और शक का कोई इलाज नहीं है. आप अपनी गर्लफ्रैंड से खुल कर बात करें कि आखिर वह चाहती क्या है. उसे समझाने की कोशिश करें, उसे विश्वास दिलाने की कोशिश करें. अगर फिर भी बात न बने तो इस रिश्ते को खत्म कर देने में ही भलाई है. 

लोगों पर भारी पशुओं की आवारगी

मंगलवार, 20 मई, 2014 की सुबह. उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद जिले के घंटाघर कोतवाली इलाके में जटवाड़ा के 67 वर्षीय बुजुर्ग इकबाल मलिक नमाज पढ़ने जा रहे थे. उन के घर से कुछ दूर एक पगलाए सांड़ ने उन्हें पहले तो टक्कर मारी, फिर अपने सींग उन के पेट में घुसा कर बुरी तरह घायल कर दिया.

इकबाल मलिक को अस्पताल ले जाया गया, लेकिन इस बीच उन की मौत हो गई. उधर, वह सांड़ इतना बेकाबू हो गया था कि उस ने एक आटोरिकशा पर हमला कर दिया. लेकिन आटोरिकशा ड्राइवर की होशियारी से वह सांड़ उस में सवार लोगों को ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा पाया.

छोटे कसबों से ले कर मैट्रो शहरों तक में आवारा पशुओं के ऐसे कातिलाना कहर की खबरें अकसर अखबारों की सुर्खियां बनती रहती हैं, फिर भी उन पर लगाम नहीं कसी जा रही. अगर कानून कुछ सख्ती दिखाता भी है तो कुछ दिनों तक तो आवारा पशुओं को पकड़ने की मुहिम चलती है लेकिन फिर मामला ठंडा पड़ जाता है.

आवारा पशुओं के चंगुल से दिल्ली को छुड़ाने के लिए साल 2005 में दिल्ली हाईकोर्ट ने आदेश दिया था कि आवारा पशु पकड़ो और 2 हजार रुपए पाओ. तब कोर्ट ने यह भी कहा था कि राजधानी की सड़कों पर आवारा पशुओं को पकड़ने में नगरनिगम पूरी तरह नाकाम रहा?है.

आज 9 साल बाद भी देश की राजधानी को आवारा पशुओं से छुटकारा नहीं मिल पाया है. यहां का आयानगर गांव इस बात की जीतीजागती मिसाल है. वहां के सर्वोदय स्कूल के पास बनाया गया डीटीसी बस टर्मिनल का शैल्टर आवारा गायभैंसों की आरामगाह बना दिखाई देता है. वे वहां बड़े मजे से जुगाली करती रहती हैं, जबकि मुसाफिरों को धूप में खड़े हो कर बस का इंतजार करना पड़ता?है.

कई बार ऐसे हालात बन जाते हैं कि सड़कों पर आवारा पशुओं का भारी जमावड़ा लग जाता है. नतीजतन, वाहन चालकों को खासी दिक्कत हो जाती है. कभी ट्रैफिक की समस्या से दोचार होना पड़ता है तो कभी सड़क दुर्घटना भी हो जाती है.

लापरवा प्रशासन

सवाल उठता है कि सरकारी प्रशासन शहरों को आवारा पशुओं से नजात दिलाने में नाकाम क्यों रहता है? क्या वह इसे काम ही नहीं मानता है?

हरियाणा के अंबाला शहर का उदाहरण देखते हैं. साल 2013 में वहां के नगरनिगम के तब के कमिश्नर शेखर विद्यार्थी ने अंबाला शहर और अंबाला छावनी में आवारा पशुओं की रोकथाम के लिए नगरनिगम के अफसरों को कड़े कदम उठाने के आदेश दिए थे.

आदेश में कमिश्नर शेखर विद्यार्थी ने कहा था कि आवारा पशुओं के मालिकों से भारी जुर्माना ले कर ही उन के पशुओं को छोड़ा जाए. अगर कोई मालिक अपना पशु छुड़ाने के लिए नहीं आता है तो उस की नीलामी कर दी जाए. लेकिन अफसोस कि कुछ दिनों के बाद कमिश्नर शेखर विद्यार्थी का वहां से तबादला हो गया और नगरनिगम के अफसरों ने इस सिलसिले में कोई कार्यवाही नहीं की.

उधर, नगरनिगम वाले ऐसे आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए कहते?हैं कि जब वे आवारा पशुओं को पकड़ने की मुहिम चलाते?हैं तो जनता ही उन के बीच रोड़ा बन जाती है.

जुलाई 2013 की बात है. आगरा, उत्तर प्रदेश में नगरनिगम की टीम को आवारा पशुओं को पकड़ना भारी पड़ गया. वहां प्रतापपुरा चौराहे पर टीम ने शहर में आवारा भटकती कुछ गायों को अपनी गाड़ी में लाद लिया. जब टीम के लोग उन्हें ले कर जा रहे थे तो कुछ स्थानीय बाश्ंिदों ने उन का रास्ता रोक दिया. इसी दौरान उन गायों के मालिक भी वहां आ धमके और वे नगरनिगम के मुलाजिमों के साथ हाथापाई करने लगे.

दरअसल, आवारा पशुओं का यह मुद्दा देखने में छोटा लगता है लेकिन है बड़ा गंभीर. कभीकभार तो एक राज्य के लोग अपने नकारा पशुओं को दूसरे राज्य की सीमा में भेज देते हैं. यही आवारा पशु शहरों में बड़े हादसों के सबब भी बन जाते हैं.

गायभैंस या सांड़ ही क्यों, आवारा कुत्ते भी लोगों की नाक में कम दम नहीं करते. बच्चे तो उन के डर से घर से बाहर तक नहीं निकल पाते. अब तो कुछ शहरों में बंदरों का खौफ भी देखा जा सकता?है. अस्पतालों में बंदरों के काटने के बहुत से मामले सामने आने लगे हैं.

हर ओर से सरकारी इमारतों से घिरे नई दिल्ली के पटेल चौक इलाके में पिछले कई सालों से दुकान चलाने वाले नफीस ने बताया, ‘‘यहां काम करने वाले लोग बंदरों से परेशान हैं. बंदर उन के खाने का सामान छीन लेते हैं. कभीकभार तो उन्हें काट भी लेते हैं.

सरकार ने बंदर भगाने के लिए ठेके दे कर लंगूर भी बुलाए थे, लेकिन बंदर यहां से जाने का नाम नहीं लेते हैं.

पोंगापंथ का भी हाथ

इस समस्या की जड़ में हिंदू धर्म में फैले पोंगापंथ का भी बड़ा हाथ है. धर्म के तहत हर पशु को किसी न किसी भगवान का अवतार मान कर पूजा जाता है. वैसे तो लोग गाय को ‘माता’ कहते हैं लेकिन जब वह दूध देने लायक नहीं रहती तो उसे जहरीले प्लास्टिक खाने के लिए आवारा छोड़ देते हैं.

कुछ लोग कुत्तों और बंदरों को भोजन दे कर मोक्ष कमाने का लालच मन में पाले रहते हैं लेकिन जब वे कुत्ते और बंदर भोजन न मिलने पर काटने को दौड़ते?हैं तो कोई ‘ऊपर वाला’ लोगों की मदद के लिए नहीं आता है.

सच तो यह है कि देश को खूबसूरत बनाने में आवारा पशुओं से जुड़ी समस्याएं बड़ी बाधक बनती हैं, जिन पर समय रहते काबू पाने में ही भलाई है.

ये पति

मेरे पति का स्कूटर काफी पुराना हो चुका है. मैं ने कई बार उन से कहा कि इसे बेच दो पर वे उस को बेचना नहीं चाहते. हां, कार नई ले ली है.

एक बार बाजार में स्कूटर खड़ा कर ये एक दुकान में सामान खरीदने लगे. जब  बाहर आए तो देखा कि 2 आदमी इन का स्कूटर ले कर जा रहे हैं. यह आराम से देखते रहे और मुसकराते रहे.

वे थोड़ी दूर गए कि स्कूटर रुक गया. खीज में स्कूटर को गिरा कर वे भाग गए. घर आ कर पतिदेव ने हंसते हुए कहा, ‘‘मैं ने सोचा कि अच्छा है वे ले जाएं और तुम्हारी बात पूरी हो जाए पर क्या किया जाए, स्कूटर भी जाना नहीं चाहता क्योंकि स्कूटर को भी प्रेम है हम से.

सिम्मी सिंह कनेर, वसंत कुंज (न.दि.)

मेरी दोस्त के पति कभी भी उस की बनाई किसी भी चीज की तारीफ नहीं करते थे. जब भी वह पूछती कि कैसा बना है खाना? उन का एक ही जवाब होता, ‘‘अच्छा तो है.’’ उसे बहुत दुख होता था. एक दिन उस ने जानबूझ कर उन के टिफिन में जो दाल रखी उस में नमक कम डाला. औफिस से लौटते ही पतिदेव बोले, ‘‘सुनो, आज तुम ने दाल में नमक कम डाला था.’’ कविता चुप रही.

फिर एक दिन उस ने उन की सब्जी में मिर्चें ज्यादा डाल दीं. उस दिन भी औफिस से आते ही उन्होंने कविता से शिकायत की. कविता फौरन पलट कर बोली, ‘‘जब मैं अच्छा खाना बना कर रखती हूं तो तुम कभी तारीफ नहीं करते, इसलिए अब खाने में कमी यदि रह भी गई है तो उस की बुराई करने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है.’’ पतिदेव एक पल को तो हैरान रह गए लेकिन फौरन उन को अपनी गलती समझ में आ गई. उस के बाद से वे हमेशा उस की बनाई हुई हर अच्छी चीज की तारीफ जरूर करने लगे.

अनीता सक्सेना, भोपाल (म.प्र.)

पारंपरिक परिवेश में जन्मी मैं हर वर्ष करवाचौथ का व्रत रखती थी. शादी के 12 वर्ष बाद लगातार एसिडिटी की वजह से मैं भूखी नहीं रह पाती थी. तभी करवाचौथ आया. मैं असमंजस में थी कि क्या करूं. तभी पतिदेव बोले, ‘‘मुझे पता है, तुम मेरा दिल से सम्मान करती हो और हर तरह से मेरा व मेरी सेहत का खयाल रखती हो, फिर तुम भूखी रह कर, तबीयत बिगाड़ कर यह सब कैसे कर पाओगी. मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम ने व्रत रखा है कि नहीं. हां, शाम को तैयार जरूर होना, मुझे अच्छा लगता है.’’ आज करीब 30 साल बाद भी हर वर्ष करवाचौथ पर शाम को तैयार होते समय सम्मान से मैं उन्हें नमन जरूर करती हूं.

किरण दत्ता, कोलकाता (प.बं.)

समझ आने लगा है

अब मैं चालीस की हो गई हूं

मुझे कुछकुछ समझ आने लगा है

आए दिन देख पति व बेटे की तकरार

जेनरेशन गैप समझ आने लगा है

कमरदर्द और नजर का धुंधलका

सास की नसीहतें भाने लगी हैं

अब नहीं होती तनातनी किसी से

एकता का महत्त्व समझ आने लगा है

जवां बेटा सुनता नहीं अब मेरी

दुनियादारी समझाने लगा है

कभी चिड़चिड़ाती, कभी खुद से बतियाती

स्ंिवग मूड अपना असर दिखाने लगा है

अब मैं चालीस की हो गई हूं

मुझे कुछकुछ समझ आने लगा है.

जरूरी है समझदारी

75 वर्षीय देवेंद्र कुमार आज दानेदाने को मुहताज हैं. जिन बेटों पर उन्होंने अपना सर्वस्व लुटा दिया वे आज उन्हें दो वक्त की रोटी देने में भी आनाकानी करते हैं. अब वे उस दिन को कोसकोस कर रोते हैं जिस दिन उन्होंने अपनी पूरी संपत्ति बेटों के नाम कर दी थी. उन्होंने समझदारी से काम लिया होता तो आज उन की यह दशा न होती. आप के साथ भी कहीं ऐसा न हो, इसलिए जरूरी है जरा सी समझदारी: जीतेजी कभी भी अपनी संपत्ति का नियंत्रण दूसरों को न सौंपें. बहूबेटों या भाइयों को भी नहीं. पावर औफ अटौर्नी देने से पहले चार बार सोच लें. संबंधों को बदलते समय नहीं लगता. बेहतर होगा कि अपने चहेते के नाम वसीयत लिख दें, जिस से आप की मृत्यु के बाद ही स्वामित्व में परिवर्तन हो. इसे बदलने का मौका भी आप को जीवनपर्यंत मिलेगा.

भारतीय घरों में अकसर रुपएपैसे या जमीनजायदाद व दूसरी धनसंपत्ति के मामले पुरुष ही संभालते हैं और उन्हीं को पूरी जानकारी भी रहती है. घर की महिलाएं इन मामलों से अनजान रहती हैं. समझदारी इस में है कि पति अपनी पत्नी को भी पूरी जानकारी दे कर रखे और ‘डील’ करने की न सही, रिकौर्ड रखने की आदत जरूर डाले.

सही जगह पर करें निवेश

गोपाल ने अपनी जीवनभर की पूंजी एक कोऔपरेटिव बैंक में जमा करवा दी. जिस का दिवाला निकलते ही गोपाल हार्ट अटैक का शिकार हो गया. ‘बैंक’ शब्द आप के धन की सुरक्षा की गारंटी नहीं देता. कोऔपरेटिव बैंक तो अकसर फेल होते ही रहते हैं, सभी प्राइवेट बैंकों की साख भी एक सी नहीं होती. बेहतर होगा पब्लिक सैक्टर बैंकों पर भरोसा करें. अपने क्रैडिट कार्ड स्टेटमैंट और बैंक अकाउंट्स पर पूरी नजर रखें.

सोने के आभूषण खरीदें तो हौलमार्क अवश्य देखें. वरना सोने में मिले खोट की वजह से काफी नुकसान हो जाता है.

कई कंपनियां या वित्तीय संस्थाएं काफी ऊंची ब्याजदर पर फिक्स डिपौजिट के लिए रकम स्वीकार करती हैं. इन से सावधान रहें. इन की साख कमजोर होने की वजह से लोग इन्हें रकम देने से कतराते हैं, इसीलिए इन की ब्याज दर ज्यादा होती है. पोस्टऔफिस जमा या सरकारी बौंड ज्यादा सुरक्षित होते हैं.

आईपीओ में शेयर के लिए आवेदन हमेशा फायदे का सौदा नहीं होता. आजकल ज्यादातर शेयर अलौट की गई कीमत से कम पर ही बाजार में उपलब्ध हो जाते हैं.

टैक्स की छूट खर्च की किन मदों में मिलती है, इस की पूरी जानकारी रखें, जैसे सीनियर सिटीजंस, अपाहिजों को, बीमारी के इलाज, चैरिटी ट्रस्ट में डोनेशन आदि में टैक्स डिडक्शन मिलता है. जिन डैबिट कार्ड्स के प्रयोग के लिए पिन नंबर की जरूरत नहीं पड़ती उन्हें शौपिंग के लिए इस्तेमाल करना सुरक्षित नहीं.

ध्यान रखें ‘जीरो इंटरेस्ट’ नाम की कोई चीज वास्तविक नहीं होती. जरा सोचें, कोई व्यक्ति बिना ब्याज या फायदे के आप को क्यों फाइनैंस करेगा. शून्य ब्याज पर खरीदे उपभोक्ता सामान या अन्य चीजें एमआरपी पर यानी बिना डिस्काउंट के लेनी पड़ती हैं, इस के अलावा इन में प्रोसैसिंग फीस, सर्विस टैक्स व अन्य चार्ज भी लग जाते हैं. आप को छिपे रूप में 20-24 प्रतिशत तक ब्याज देना पड़ सकता है.

इस तरह, समझदारी के साथ जीवन जीने की योजना बनाएंगे तो आप को उम्र के आखिरी पड़ाव में भी आर्थिक दिक्कतें नहीं आएंगी और परिवार के सदस्य आप की सेवा में लगे रहेेंगे

मस्तीभरी जिंदगी जिएं

वृद्धों की पार्टी और वह भी मस्ती पार्टी, यह भला कैसे संभव है? पार्टी तो सिर्फ बच्चों व युवाओं की होती है जिस में मौजमस्ती, धूमधड़ाका, लाउड म्यूजिक, नाचगाना, गेम्स आदि होते हैं. जिस तरह युवा व बच्चे मौजमस्ती करते हैं ठीक उसी तरह बुजुर्ग भी पार्टी कर एंजौय कर सकते हैं.

पार्टी का नाम आते ही क्यों बुजुर्ग मौजमस्ती करने और जिंदगी को फुलऔन जीने को अपना हक नहीं मानते? बुजुर्ग खुद पार्टी के नाम से दूर भागते हैं. उन का कहना होता है कि अब उन का शरीर साथ नहीं देता, अब उन की उम्र कहां है इन सब पार्टीवार्टी के लिए.

‘पार्टी करना तो युवाओं व बच्चों को शोभा देता है,’ उन की इस सोच के चलते कई परिवारों में युवा अपने बुजुर्गों को अपनी पार्टी में शामिल नहीं करते. लेकिन यह सोच बदलनी चाहिए. युवाओं व बच्चों की तरह बुजुर्ग भी खुशहाल व मस्तीभरी जिंदगी जिएं. पार्टी का उम्र से कुछ लेनादेना नहीं. बुजुर्गों को भी दैनिक जीवन की बोरियत से बचने के लिए बदलाव चाहिए, हंसीखुशी मस्ती के पल चाहिए जो उन के जीवन जीने की इच्छा को और बलवती कर सकें.

समय की मांग है कि युवा व बुजुर्ग मिल कर पार्टी करें. दादापोता बडी कल्चर का हिस्सा बन कर मस्ती करें. बुजुर्ग जब अपने से कम उम्र के युवाओं व बच्चों के साथ रहते हैं, उन के साथ अपना समय बिताते हैं तो वे खुद को यंग फील करते हैं, अपने बचपन व युवावस्था की बातों को याद करते हैं. उन में जोश का संचार पैदा होता है जो उन की सेहत के लिए अच्छा होता है.

माइंड होता है रिफ्रैश

60 वर्षीय नीरा कुमार, जो स्वतंत्र लेखिका होने के साथ कुकरी ऐक्सपर्ट भी हैं, कहती हैं, ‘‘पिछली क्रिसमस को मैं ने अपने जानकार युवा लेखकों के लिए अपने घर पर एक पार्टी अरेंज की थी जिस में सब की पसंद का खाना बनवाया, गेम्स खेले. सब को बहुत मजा आया. जब युवा मेरे बने खाने की तारीफ करते हैं तो मुझे अच्छा लगता है. मैं उन्हें कुकरी टिप्स देती हूं और वे मुझे आज की लेटैस्ट तकनीकों की जानकारी देते हैं. इन पार्टीज का उद्देश्य रुटीन लाइफ में रोमांच भरना होता है. इसी बहाने 2 पीढि़यां एकदूसरे को समझ पाती हैं व विचारों का आदानप्रदान होता है.’’

फिल्मी पार्टी

‘क्लब 60’ संजय त्रिपाठी निर्देशित फिल्म है जिस में 5 लोगों का गैंग है. गैंग के सदस्यों की जिंदगी 60 की उम्र में ही शुरू होती दिखाई गई है. फिल्म में रघुवीर यादव युवाओं की तरह बालों को कलर किए, कलरफुल टीशर्ट में, फ्रैंचकट बीयर्ड, गुच्ची के ग्लेयर्स और आईपौड के साथ दिखाई देते हैं यानी वे फैशन के मामले में युवाओं को भी पीछे छोड़ देते हैं. ठीक इसी तरह ‘बागबान’ फिल्म में अमिताभ बच्चन वैलेंटाइन डे पर ‘चली चली फिर चली चली’ गीत पर युवा दोस्तों के साथ थिरकते दिखाई देते हैं.

जीवन में उत्साह व उमंग

दक्षिणी दिल्ली में मुनीरका स्थित वरिष्ठ नागरिकों की एक मंडली है. इस संस्था के अध्यक्ष जे आर गुप्ता ने बताया कि उन की इस सीनियर सिटीजन काउंसिल में 500 से अधिक सदस्य हैं जिन में 60 वर्ष से ले कर 98 वर्ष तक के बुजुर्ग शामिल हैं. ये संस्था हर त्योहार के मौके पर पार्टी का आयोजन करती है, फिर चाहे न्यू ईयर हो या होली, दीवाली. पार्टी में खूब मौजमस्ती, चुटकुले, कविताएं, शेरोशायरी व खेलों का आयोजन किया जाता है.

19 साल पहले स्थापित यह संस्था किटी पार्टी, पिकनिक के अलावा समयसमय पर शहर से बाहर घूमनेफिरने का आयोजन भी करती है. जे आर गुप्ता कहते हैं कि ऐसी पार्टियां जीवन के एकाकीपन को दूर कर के जीवन में उत्साह व उमंग के नए रंग भरती हैं.

पार्टी में जमाए रंग

अगर आप भी ऐसी किसी पार्टी की शान बनना चाहते हैं तो खुद को हमेशा ऐक्टिव रखें. प्रोफैशनल जिंदगी से भले ही रिटायर हो जाएं पर व्यक्तिगत जिंदगी में नईनई चीजें जानने व सीखने से कभी अवकाश न लें. कला, साहित्य, संगीत, कुकिंग, पेंटिंग जिस भी विषय में आप की रुचि हो उस में नया सीखते रहें और नई पीढ़ी को सिखाते रहें. अमेरिका में 60 वर्ष के बुजुर्ग युवाओं की तरह फुटबाल खेलते हैं, पब में जाते हैं. शारीरिक रूप से सक्रिय होने के साथसाथ वे खुद को मानसिक रूप से भी ऐक्टिव रखते हैं. वे अपनी जिंदगी को पूरी तरह एंजौय करते हैं. पार्टी में रंग जमाने के लिए आप बोर्ड गेम्स खेलें, युवाओं के साथ दिमागी खेल शतरंज खेलें. उन स्थलों पर जाएं जहां आप अपने व्यस्त प्रोफैशनल शैड्यूल में नहीं जा पाए, युवाओं को अपने साथ ले जाएं, इस से आप को मदद तो मिलेगी ही आप के भीतर नए विचारों का आगमन भी होगा. युवाओं के साथ रह कर आधुनिक गैजेट्स की नईनई तकनीकी जानकारी लीजिए. ऐसा करने से आप स्वस्थ रहने के साथसाथ तकनीकी रूप से भी अपडेट रहेंगे.

मस्तीभरी पार्टी के फायदे

ओल्डऐज में अकसर लोग बढ़ती उम्र की दुहाई दे कर खुद को सीमित दायरे में बांध जीवन की सक्रियता से नाता तोड़ लेते हैं. लेकिन ये मस्तीभरी पार्टियां मन में जोश व उमंग भरती रहती हैं. वहीं, हर दिन को एक खास इवैंट बनाने से जिंदगी में खुशियों की बहार आती है. ऐसे में ओल्डऐज की अवस्था को जीवन का अंतिम व स्ट्रैसभरा पड़ाव समझ कर मायूस क्यों रहा जाए, क्यों न इस में मस्ती के रंग भरे जाएं.

इन पार्टियों के बहाने आप को सजनेसंवरने का मौका मिलता है, आप को घर के वार्डरोब में रखे मनपसंद परिधानों को पहनने का मौका मिलता है. ये पार्टियां बोरिंग जिंदगी में दुखदर्द को भुला कर अपनों के साथ ठहाके लगाने का पुरानी यादों को याद करने का, अवसर देती हैं.

तो फिर तैयार हैं न आप पार्टी के लिए. अपनी पार्टी में आप युवाओं को भी शामिल कीजिए. उन की पसंद का भोजन चाहें तो और्डर करें. अपने लिए शुगरफ्री, औयलफ्री भोजन बनवाएं. मजेदार गेम्स खेलें, संगीत सुनें. हंसीमजाक करें. कुछ दूसरों की सुनें कुछ अपनी कहें और बना दीजिए अपनी पार्टी को बुजुर्गों की रौकिंग पार्टी.

बुजुर्ग मातापिता के तलाकशुदा बच्चे

62 साल के विनोद कुमार और उन की 58 साल की पत्नी रजनी दिल्ली के पौश इलाके में एक आलीशान फ्लैट में रहते हैं. यह फ्लैट कुछ साल पहले उन की एकलौती इंजीनियर बेटी सीमा ने अपने मातापिता के लिए खरीदा था. सीमा शादी के बाद आस्ट्रेलिया चली गई. वहां नौकरी करने लगी. 2 साल में एक बार वह अपने मातापिता से मिलने दिल्ली आती. पिछले साल सीमा की बातों से लगा कि वह अपनी शादीशुदा जिंदगी से खुश नहीं है.

उस ने बातोंबातों में अपनी मां रजनी से कहा कि उस का पति रितेश बहुत शराब पीने लगा है, किसी एक नौकरी में टिक कर काम नहीं करता. यही नहीं, पिछले कुछ दिनों से वह गालीगलौज करने लगा है. रितेश और उस का रोज झगड़ा होता है.

रजनी ने अपनी बेटी को समझाया कि किस पतिपत्नी के बीच झगड़ा नहीं होता. कुछ दिनों में सब ठीक हो जाएगा. लेकिन 6 महीने पहले जब सीमा ने अपनी मां से फोन पर कहा कि वह रितेश से तलाक लेने जा रही है तो उन का माथा ठनका. तलाक लेने के बाद सीमा आस्ट्रेलिया में ही रह कर अपनी बेटी को बड़ा करना चाहती थी.

रजनी बताती हैं कि उन के परिवार में आज तक किसी ने तलाक नहीं लिया है. जब सीमा ने उन से कहा कि वह तलाक लेना चाहती है तो उन्हें जबरदस्त झटका लगा. उन्होंने उसे समझाने की कोशिश की कि हमारे समाज में तलाक लेना अच्छा नहीं माना जाता. उस की बेटी की सही परवरिश बिना पिता के मुश्किल हो जाएगी.

सीमा ने अपनी मां को समझाया कि आस्ट्रेलिया में तलाक बहुत बड़ी बात नहीं है और हर 10 शादीशुदा दंपती में से 5 या तो तलाकशुदा मातापिता के बच्चे होते हैं या खुद तलाक की प्रक्रिया से गुजरते हैं.

सीमा का तर्क था कि उस ने रितेश के साथ निभाने की बहुत कोशिश की लेकिन उस के साथ रह कर वह एक सामान्य जिंदगी नहीं जी सकती. इस से अच्छा है, वह अलग रहे. ठीक है उस की बेटी को पापा की कमी खलेगी, पर कुछ दिनों तक. उस के बाद वह इस तथ्य को हजारों दूसरे आस्ट्रेलियाई बच्चों की तरह स्वीकार लेगी कि उस के पापा नहीं हैं.

समाज का डर

रजनी ने अब तक अपने परिवार वालों को यह बात नहीं बताई. उन का मानना है कि उन के देवर की बेटी की शादी होने तक उन्हें सीमा के तलाक की बात छिपानी होगी. हो सकता है कि यह जानने के बाद शादी रुक जाए. उन्होंने सीमा से भी कहा कि वह अपनी बहन की शादी में दिल्ली न आए, कोई बहाना बना दे. रजनी बताती हैं कि वे जिस तरह के परिवार से हैं वहां शादी बहुत पवित्र रिश्ता माना जाता है. उन की दूर के रिश्ते की बहन को भी अपनी शादीशुदा जिंदगी में काफी दिक्कतें थीं, पर किसी ने उसे तलाक लेने नहीं दिया. हम औरतों को हमेशा यही सिखाया जाता है कि वे ससुराल में समझौता कर के रहें, पर आजकल की लड़कियों की बात अलग है. वे पढ़ीलिखी हैं और कमाती हैं. वे एक हद से ज्यादा ऐडजस्ट नहीं करना चाहतीं.

यह पूछने पर कि उन की दूर की रिश्ते की बहन ने किस तरह समझौता किया, तो रजनी दबे शब्दों में बताती हैं कि 2-3 साल बाद बहन ने आत्महत्या कर ली थी और उन के पति ने तुरंत दूसरी शादी कर ली, ताकि उन के बच्चे पल जाएं.

रजनी मानती हैं कि उन की बहन के साथ गलत हुआ, अगर वे समय पर अपनी ससुराल से निकल आतीं तो उन्हें आत्महत्या नहीं करनी पड़ती. इस के बावजूद रजनी यही कहती हैं कि तलाक शब्द हमारे परिवार में वर्जित है और हमें अफसोस है कि हमारी बेटी ने तलाक लिया. अब जब वह दिल्ली हम से मिलने आएगी तो हम समाज को क्या मुंह दिखाएंगे?

रजनी और विनोद कुमार की तरह देश में आज 12 प्रतिशत ऐसे बुजुर्ग हैं जिन्हें जीतेजी अपने बच्चों का तलाक देखना पड़ रहा है. इस पीढ़ी ने बड़े उत्साह से अपने बच्चों की शादियां कीं. कभी बच्चों की पसंद पर मोहर लगाई तो कभी उन के लिए अपनी पसंद का जीवनसाथी ढूंढ़ा.

यह सच है कि आज की तारीख में तलाक के नाम पर मध्यवर्गीय परिवार के अधिकांश बड़ेबूढ़े कानों पर उंगली नहीं रखते. 2 दशक पहले तक भी अगर किसी परिवार में किसी  को तलाक प्रक्रिया से गुजरना पड़ता तो उन्हें समाज और परिवार के दूसरे सदस्यों की तीखी नजरों और प्रहारों से भी गुजरना पड़ता था.

मातापिता की रजामंदी

अब कम से कम शिक्षित परिवारों में अगर लड़का या लड़की किसी कारण से शादी निभा नहीं पाते तो कई बार मातापिता खुद आगे आ कर कहते हैं कि रिश्ता निभ नहीं रहा तो तलाक ले लो, हालांकि आज भी अधिकांश परिवारों में तलाक सब से अंतिम विकल्प होता है. परिवार के सदस्य आखिरी हद तक कोशिश करते हैं कि तलाक होने के बजाय पतिपत्नी के बीच सामंजस्य बिठाया जाए, उन की समस्या दूर की जाए या उन्हें साथ रहने का एक मौका और दिया जाए.

तलाक के कारण कुछ भी हो सकते हैं. आजकल ऐडजस्टमैंट के चलते कई पतिपत्नी एकदूसरे का साथ निभा नहीं पा रहे. रोज के झगड़े और मनमुटाव के चलते वे सामान्य जिंदगी जी नहीं पाते. पति या पत्नी की महत्त्वाकांक्षाएं भी रिश्तों को सामान्य बनाने में आड़े आती हैं.

कामकाजी पतिपत्नी को लगता है कि वे इतना क्यों झुकें? बात अलगाव तक, फिर तलाक तक पहुंच जाती है. युवा दंपती अलग हो जाते हैं, बिना यह सोचे कि उन के मातापिता या भाईबहनों पर उन के तलाक का क्या असर होगा? यह सच है कि तलाक के बाद कई दिनों तक पतिपत्नी सदमे में रहते हैं. शादी का रिश्ता तोड़ना उन्हें अंदर से भी तोड़ जाता है. उन्हें संभालने वाले कई होते हैं, पर जो लोग (मातापिता) सब से ज्यादा टूटते हैं, उन के दिल को तसल्ली देने वाला कोई नहीं रहता.

बच्चों के तलाक का मातापिता पर गहरा असर पड़ता है. जैसे रजनी और विनोद कुमार इतने समय के बाद आज भी सामान्य नहीं हुए हैं और बेटी सीमा के जिक्र से उन दोनों बुजुर्गों की आंखों से पानी बह निकलता है. रजनी का मन तो यह मानने को तैयार ही नहीं कि तलाक के बाद सीमा पहले से कहीं ज्यादा सुकून के साथ जी सकती है. वे अब भी अपना पुरातनपंथी राग अलापती रहती हैं कि पति के बिना कैसे सुखी रह सकती है पत्नी?

क्या वे अपनी बेटी की दूसरी शादी की सोच रही हैं? इस बात पर वे चुप्पी लगा जाती हैं. सीमा के पिता विनोद कुमार जरूर कहते हैं, ‘‘सीमा की मरजी है. हम तो इतनी दूर रहते हैं, क्या सोचें  उस के लिए? तलाक उस ने लिया, अब जो करना है, वही करेगी.’’

मुंबई की रहने वाली सुलेखा अपने बेटे के तलाक से इतना हिल गईं कि अपने पति के साथ एक वृद्धाश्रम में रहने चली गईं. सुलेखा अपने परिवार वालों के बीच अपने बेटे की शादी के टूटने की वजह से शर्मिंदगी सी महसूस करती थीं. सुलेखा ने अपनी सहेली निशा की बेटी की शादी में जाने से इनकार कर दिया. सुलेखा ने निशा को चिट्ठी लिख कर अपने दिल का दर्द बताया कि वे अपने ससुराल वालों और मायके वालों से आंख मिलाते डर रही हैं. सब के सवालों का जवाब देने में वे असमर्थ हैं, इसलिए किसी भी शादी या त्योहार में लोगों से मिलने से कतराती हैं.

शोक किस बात का

सुलेखा की मानसिक स्थिति का जायजा लेती हुई अनुभवी  मनोचिकित्सक डा. आराधना बघेल कहती हैं कि सुलेखा जैसी बुजुर्ग महिला का सामाजिक ऐक्सपोजर बहुत कम रहा है. वे शुरू से अपने परिवार और अपने लोगों के बीच ही रहीं. अगर आप आसपास की दुनिया पर नजर डालें तो फिर बच्चों के तलाक पर आप इतना दुरूह कदम नहीं उठाएंगे. मातापिता को भी आज की तारीख में यह समझना चाहिए कि उन के बच्चों की खुशी ही उन की खुशी है. जिस तरह बच्चों की जबरदस्ती शादी करना गलत है उसी तरह उन के तलाक पर शोक मनाना भी सही नहीं है.

देहरादून की वर्षा इस मामले में पूरी तरह अपनी बेटी के साथ हैं. उन की बेटी की 7 साल पहले अरेंज्ड मैरिज हुई. शादी के शुरू के 2 साल ठीक रहे. फिर दिक्कतें शुरू हो गईं. सास और ननद की जरूरत से ज्यादा दखलंदाजी, पति के दूसरी औरतों के साथ संबंध कुछ ऐसे मुद्दे थे जिन्होंने उन की बेटी को तलाक लेने पर मजबूर किया. दिक्कत आई उन के 4 साल के बच्चे की कस्टडी को ले कर. पति की कोशिश थी कि बेटे की कस्टडी उसे मिले.

वर्षा कहती हैं कि उन की बेटी जब अपने बेटे के साथ घर लौट कर आई, उन्होंने उस का पूरा साथ दिया. उन्होंने पुराना घर बेच कर दूसरी जगह नया फ्लैट ले लिया ताकि पासपड़ोस वालों की खोजी नजरों से बचा जा सके. हालांकि उन्हें यह कहते हुए शर्म या हिचक नहीं कि उन की बेटी अलग हो गई है. वह अगर इन परिस्थितियों में वहां बनी रहती तो उन्हें दुख होता. उन की बेटी नौकरी करती है, वे अपने नाती को संभालती हैं. पिछले साल कोर्ट ने नाती की कस्टडी उन की बेटी को दे दी है. हालांकि उस का पिता हफ्ते में एक दिन उस से मिल सकता है, पर उस ने दूसरी शादी कर ली है और अब उसे अपने बेटे से मिलने की फुरसत ही नहीं है. वे तीनों खुश रहते हैं. अगर उन की बेटी दूसरी शादी करना चाहेगी तो वे इस के लिए भी उसे प्रोत्साहित करेंगी. आखिर वे उस की मां हैं और हर तरह से उस की खुशी चाहती हैं.

दरअसल, विवाह पर आज भी कोई प्रश्न नहीं उठाता, बस प्रश्न उठाते हैं इस से जुड़े विचारों पर. विवाह के बदलते रूप की तरह यह भी जरूरी है कि पुरानी सोच को नया चोला पहनाया जाए तो शायद बुजुर्गों को अपने बच्चों पर शर्मिंदगी नहीं उठानी पड़े.

अकेलापन समाधान है चाहे अधूरा ही

कुछ अरसे पहले एक फिल्म ‘बागबान’ आई थी, जिस में फिल्म का हीरो बैंक का मैनेजर होता है तथा जिस के 4 लड़के पढ़लिख कर अपनीअपनी गृहस्थी में मस्त रहते हैं. मैनेजर रिटायर होने पर खुश होता है कि अब वह आराम से बाकी जिंदगी अपने बच्चों के साथ गुजारेगा. लेकिन हालात कुछ ऐसे होते हैं कि चारों लड़के 6-6 महीने के लिए एक लड़का मां को तथा दूसरा 6 महीने अपने बाप को रखने का फैसला करते हैं.

हीरो, हीरोइन के अलगअलग रहने से दोनों का बुरा हाल हो जाता है तथा तंग आ कर हीरो, जो अबतक एक महान लेखक बन चुका होता है, हीरोइन को ले कर अलग रहने लगता है.

बूढ़े हीरोहीरोइन का बुढ़ापे का समाधान तो हो जाता है लेकिन जब इन दोनों में से एक नहीं रहेगा तो दूसरे का क्या होगा? मजबूरन बचे हुए साथी को अपने किसी न किसी बेटे के पास रहना पड़ेगा. उस की बची हुई जिंदगी कैसे बीतेगी, अंदाजा लगाया जा सकता है.

इसी के मद्देनजर कई लोगों से मुलाकात हुई जिन में से कुछ या तो अपनी पत्नी खो चुके थे या फिर कोई पति खो चुकी थी. उन में से हर एक की अपनीअपनी कहानी थी. जीवनसाथी के जाने के बाद हर कोई जीवन से विरक्त नजर आया, किसी को अपने बेटेबहुओं से शिकायत थी, तो कोई अपने को अपने ही घर में पराया महसूस करता था, तो कोई अपनी जिंदगी से इतना परेशान था कि उसे दुनिया को अलविदा कहने की जल्दी थी.

इन मुलाकातों में 1-2 लोग ऐसे भी थे जो जिंदादिल थे. पहली मुलाकात जिन साहब से हुई वे विधुर थे. उन की पत्नी को गुजरे हुए कुछ ही महीने हुए थे. पूछने पर उन्होंने बताया कि पत्नी के गुजरने के बाद वे बहुत उदास और खोएखोए से रहने लगे. औलाद होते हुए भी वे अपने को काफी अकेला महसूस करते थे. काफी सोचविचार के बाद उन्होंने एक दिन अखबार में इश्तिहार दे दिया कि वे 60 साल के विधुर हैं तथा तकरीबन इसी उम्र की विधवा के साथ अपना शेष जीवन बिताना चाहते हैं. उत्तर में उन्हें 2 पत्र प्राप्त हुए जिन में एक को उन्होंने अपना साथी चुन लिया. लेकिन वे दोनों विवाह नहीं करना चाहते थे. दोनों ने तय किया कि क्योंकि दोनों इकट्ठे रहेंगे तो कभी भी कुछ ऊंचनीच भी हो सकती है, जिस के लिए वे बाकायदा शादी न कर के गंधर्व विवाह कर लेते हैं जिस की न कोई कानूनी मान्यता होगी और न ही दोनों, कोई ऐसी बात होने पर, अपनेआप को कोस पाएंगे. वे दोनों दुनिया की अंटशंट बातों से बचने के लिए कसौली (हिमाचल) नाम के एक पहाड़ी स्थल पर साथसाथ रहने लगे. दोनों रिटायर्ड थे तथा पैंशन पाते थे, जिस से उन्हें रुपएपैसे की दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ता था.

कसौली में ही उन साहब से मुलाकात हुई थी. मैं ने उन से कहा कि आप ने अपने (दोनों के) एकाकी जीवन का बहुत अच्छा हल निकाला है, लेकिन क्या आप के बच्चे आप की इस बात को मान गए? उत्तर में बोले, हमारे दोनों के बच्चे इस बात को सुन कर सकपकाए जरूर, परंतु जब हम दोनों के समझाने पर कि यह केवल बाकी बची जिंदगी के अकेलेपन को दूर करने का एक बहाना है, और हम दोनों बाकायदा शादी नहीं कर रहे, तो दोनों परिवार मान गए. गरमी की छुट्टियों में अकसर कभी मेरे बच्चे तथा कभी इन के बच्चे 8-10 दिन को आ जाते हैं और हंसीखुशी रह कर चले जाते हैं.

उन का मानना था कि जब तक हम दोनों का साथ है तब तक तो कम से कम सकारात्मक सोच के साथ जीवन जिएं और मजे में जिएं. बाकी हम कोई अपने बच्चों से लड़ कर तो अलग रह नहीं रहे हैं. जो बच जाएगा वह अपनी शेष जिंदगी अपने बच्चों के साथ गुजारेगा.

दूसरी मुलाकात मनाली में हुई, जहां मुझे अपने दफ्तर के कुछ काम से जाना पड़ा था. काम खत्म हो जाने पर घूमतेघूमते मुझे प्यास लगी. मैं ने देखा कि एक बुजुर्ग अपने बरामदे में बैठे अखबार पढ़ रहे हैं. अंदर जाने के लिए मैं ने बाहर का गेट खटखटाया तो वे साहब बोले, ‘‘कहिए?’’ मैं ने कहा, ‘‘एक गिलास पानी मिल सकता है?’’ ‘‘जरूरजरूर.’’ वे साहब बोले और उन्होंने अंदर आने को कहा. बैठेबैठे ही आवाज लगाई, ‘‘अलका बेटे, अपनी मम्मी से कहो, 2 गिलास पानी दे जाएं.’’ जो स्त्री पानी लाई, वह मध्यम उम्र की थी.

वह पानी देने के बाद चली गई. उस स्त्री के जाने के बाद बातचीत का सिलसिला चल रहा था. इस बीच मैं ने उन साहब से पूछा, ‘‘सर, अगर आप बुरा न मानें तो मैं एक बात पूछूं?’’ ‘‘पूछिए.’’ ‘‘अभी आप ने छोटी लड़की को अलका कह कर बुलाया, क्या वह आप की पोती है या दोहती?’’ मुसकराते हुए उन्होंने कहा, ‘‘न तो यह मेरी पोती है और न ही दोहती. दरअसल, तकरीबन 3 साल पहले मेरी पत्नी का देहांत हो गया और कुछ समय बाद ही मैं रिटायर हो गया. मेरा बेटा अपनी पत्नी तथा बच्चों के साथ जरमनी में रहता है.

‘‘पत्नी के देहांत के बाद मैं अपने इकलौते बेटे के साथ कुछ समय जरमनी में रहा. मेरा मन वहां बिलकुल नहीं लगा. तकरीबन 6 महीने के बाद मैं भारत में वापस दिल्ली आ गया. लेकिन दिल्ली भी मुझे रास नहीं आई क्योंकि उन की याद दिल्ली के हर हिस्से में कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में बसी हुई थी. तब मैं यहां मनाली आ गया.

‘‘यहां मेरी मुलाकात एक जरूरतमंद महिला से हुई जो काफी उदास थी. पूछने पर वह बोली, ‘सर, मकानमालिक कमरा खाली करने को कह रहा है, कहता है या तो कमरा खाली कर दे या किराया बढ़ाए. सर, आप को तो पता ही है कि मैं स्कूल में एक आया हूं, 5 हजार रुपए मिलते हैं, 1 हजार रुपए का कमरा ले रखा है तथा बाकी पैसों से जैसेतैसे अपना और बच्ची का गुजारा कर रही हूं.’

‘‘‘ठीक है,’ मैं ने कहा, ‘देखता हूं, तुम्हारे लिए अगर मैं कुछ कर सकता हूं, तुम कल स्कूल के बाद शाम को तकरीबन इसी समय मुझ से मेरे घर पर मिलना.’

‘‘अगले दिन कई जानपहचान वालों से बात की पर कोई इतने कम पैसों में घर देने को राजी नहीं हुआ. मैं चिंतित हो गया कि अब इस बेचारी की कैसे मदद करूं. तभी खयाल आया कि मेरे घर के पीछे एक कमरा है जिस में फालतू के कुछ सामान पड़े हुए हैं. अगर उसे खाली करवा कर साफसफाई कर दी जाए तो शायद कुछ बात बन सकती है. दूसरे दिन मैं ने उस से कहा, ‘देखो, अगर तुम्हें कोई एतराज न हो तो मेरे घर का पीछे वाला कमरा तकरीबन खाली है, अगर चाहो तो वहां रह सकती हो.’

‘‘‘ठीक है, सर, मैं कल ही सामान ले आऊंगी. लेकिन सर, मैं 1 हजार रुपए से अधिक किराया नहीं दे सकूंगी.

‘‘‘नहीं, किराया मैं एक पैसा भी नहीं लूंगा. तुम जब तक चाहो, यहां रहो, और न ही तुम अपना खाना अलग से बनाओगी. घर की रसोई में ही तुम भी अपना खाना बनाओगी, और न ही तुम अपना राशनपानी अलग से लाओगी.’

‘‘‘सर, ऐसे कैसे हो सकता है, किराया भी नहीं लेंगे, खाना खाने का सामान भी नहीं लाने देंगे. तो सर, ठीक है, आप की बात मैं मान लेती हूं लेकिन आप को भी मेरी एक बात माननी पड़ेगी. आप झाड़ूपोंछे वाली को हटा देंगे तथा आप का चायनाश्ता और खाना भी मैं ही बना दूंगी और आप को मेरी सारी तन्ख्वाह हर महीने लेनी पड़ेगी. क्योंकि जब सबकुछ मुझे और मेरी बेटी को आप के यहां से मिल जाएगा तो मैं रुपएपैसे का क्या करूंगी.’

‘‘‘सवाल ही नहीं उठता. इस का मतलब तो तुम मेरी नौकरानी हो गईं. नौकर रखना होता तो मैं कभी का रख चुका होता. नाश्ता, खाना बनाना और बागबानी करना ही तो मेरा समय काटने का साधन है. चलो ठीक है, ताकि तुम्हारे स्वाभिमान को ठेस न पहुंचे, तुम मुझे अपनी तन्ख्वाह से हर महीने 2 हजार रुपए दे दिया करो, बाकी रुपए तुम अपने तथा अपनी बेटी पर खर्च करना.’ फिर उस के द्वारा दिए गए रुपए मैं चुपचाप उस की बेटी के नाम डाकखाने में जमा करवा दिया करता.’’

बातोंबातों में पता चला कि उस औरत का नाम चारू है तथा वह बंगाल में 24 परगना की रहने वाली है. शादी एक मिलिटरी जवान से हुई थी, परंतु लड़ाई के दौरान उस का आदमी मारा गया. अलका, जो उस की लड़की है, उन दिनों उस के पेट में थी. पति की मृत्यु के बाद चारू को सरकार से पैसे मिले, तब तक तो तकरीबन उस के ससुराल वालों ने उसे ठीकठाक रखा, लेकिन अलका के होने के बाद उन का व्यवहार बिलकुल बदल गया, क्योंकि वे लड़के की उम्मीद रखे हुए थे.

इन्हीं दिनों इस के आदमी का कोई जानपहचान वाला, जोकि इस का दूर का रिश्तेदार भी था, इस की दुखभरी जिंदगी देख कर उसे यहां मनाली में ले आया तथा अपने अफसरों से कह कर एक तिब्बती स्कूल में नौकरी लगवा दी.

बहरहाल, समाज में बहुत सारे ऐसे लोग भी हैं जिन्हें उस औरत का वहां रहना खलता होगा, तरहतरह की बातें करते होंगे लेकिन बिना परवा किए उन्होंने अपनी बेटी की तरह उन्हें रखा और उस की मदद की. या यों कहिए कि उन्होंने अपने एकाकी जीवन का पूरा समाधान निकाल लिया.

यही समाधान दूसरे लोग भी अपना लें (जिन के हालात इजाजत देते हों) तो न केवल उन का एकाकी जीवन का पूरा समाधान हो जाएगा बल्कि किसी बेसहारा औरत की जिंदगी भी कुछ हद तक तो संवर ही जाएगी. पति या पत्नी की मौत के बाद इंसान को बाकी बचे हुए पल गुजारने में बहुत मुश्किल होती है और जिंदगी दूभर हो जाती है. हालात से समझौते के अलावा इस समस्या का कोई पूरा समाधान नहीं है.

बुजुर्गों से दूर होते अपने

बच्चों को बुजुर्गों से दूर करने पर बुजुर्गों के जीवन में उदासी छा जाती है, वहीं बच्चों की मानसिकता पर भी असर पड़ता है.

मोहित, अंशिका का नाम पुकारते हुए कानपुर के कृष्णचंद अपनी आखिरी सांसें गिन रहे थे. मोहित और अंशिका कृष्णचंद के इकलौते बेटे रोहन के बच्चों के नाम हैं. मोहित के 5वें जन्मदिन के वक्त सास और बहू के बीच थोड़ी गहमागहमी हो गई थी, जिसे वजह बना कर 2 दिनों बाद रोहन और उस की पत्नी अलग रहने लगे. कृष्णचंद और उन की पत्नी सविता का अपने पोतेपोती से बेहद लगाव था. घर छोड़ने के बाद रोहन और उस की पत्नी कभीकभार घर आते. उस पर भी मोहित और अंशिका को साथ न लाते. बारबार मिलने की इच्छा जताने के बावजूद कृष्णचंद और सविता अपने पोतेपोतियों का मुंह न देख सके.

बच्चों के विरह ने कृष्णचंद की जिजीविषा को ही समाप्त कर दिया और आखिरकार वे दुनिया से चल बसे. उन की पत्नी सविता रक्तसंबंधों के विघटन की पीड़ा न सह सकीं. कुछ महीनों बाद अकेलेपन और नैराश्य के जीवन से उन्हें भी मुक्ति मिल गई. दादादादी के स्नेह से हमेशा की दूरी की खबर ने मोहित और अंकिता के मन को झिंझोड़ कर रख दिया.

आज की नई पीढ़ी की सोच ने घर के बड़ेबूढ़ों के सम्मान और महत्ता को खत्म कर दिया है. इस में कोई दोराय नहीं कि बुजुर्ग परिवार की रीढ़ होते हैं.

ज्यादातर मातापिता की सोच होती है कि बुजुर्गों के लाड़प्यार से बच्चे बिगड़ सकते हैं. वे यह नहीं सोच पाते कि बुजुर्गों के सान्निध्य में रह कर बच्चों को अपनापन महसूस होता है. प्रसिद्ध फैमिली काउंसलर व मनोवैज्ञानिक संजोय मुखर्जी का कहना है, ‘‘बुजुर्गों के स्नेह और साथ का बच्चों पर बेहद सकारात्मक प्रभाव पड़ता है. उन के विकास को एक नई गति मिलती है.’’

उधर, बुजुर्गों की सेवा और देखभाल करने से हमें अपने कर्तव्यों को निभाने का अवसर मिलता है साथ ही, हम समाज में तारीफ के पात्र भी बनते हैं. इस के अलावा बच्चों की नजरों में हमारे लिए और भी स्नेह और सम्मान पनपता है.

संयुक्त परिवार में रहते समय कोई झगड़ा हो या बुजुर्गों की किसी बात पर असहमति हो, तो उन से शांतिपूर्वक बात करनी चाहिए ताकि उन के सम्मान को ठेस न पहुंचे.

यदि आप को ऐसा लग रहा हो कि बच्चों के प्रति उन के अधिक लाड़प्यार से उन पर कोई गलत असर पड़ सकता है तो मधुर भाषा का प्रयोग करते हुए बुजुर्गों को समझाएं. इस से उन की गरिमा पर कोई आंच नहीं आएगी और बात सुलझ जाएगी. चंद मधुर शब्द रिश्तों को और भी मजबूत बना देते हैं.

मधुर प्रयासों के बावजूद बात न बने तो समय रहते अलग होने में ही भलाई है. पर यह अलगाव मात्र शरीरों का होना चाहिए, भावनाओं का नहीं.

बच्चों को समयसमय पर दादीदादा, नानीनाना से मिलवाने ले जाएं, उन के भीतर बुजुर्गों के प्रति किसी भी प्रकार की कड़वाहट को पनपने न दें.

अनमोल हैं रिश्ते

आजकल घरों में अधिकतर मातापिता दोनों ही नौकरीपेशा होते हैं. ऐसे में कुछ मातापिता अपने बच्चों को पालनाघर में छोड़ आते हैं तो कुछ नौकरों के भरोसे. इस वजह से बच्चों पर नौकरों द्वारा बच्चों को प्रताडि़त करने व उन के उत्पीड़न किए जाने के मामले अकसर सामने आते रहते हैं. इस से बचने और साथ ही बच्चों की अच्छी परवरिश के बारे में सोच कर बुजुर्गों को साथ रखना चाहिए. वे आप की गैरहाजिरी में न केवल बच्चों का ध्यान रखेंगे बल्कि आप के काम में भी हाथ बटाएंगे.

कुछ ऐसे भी परिवार हैं जहां सभी साथ तो रहते हैं पर मातापिता बच्चों को बुजुर्गों से दूर रखते हैं. ऐसे दुर्व्यवहार से बुजुर्गों के मन पर गहरा आघात पहुंचता है. अपनों के प्रेम का अभाव उन के दुखों और बीमारी का कारण बनते हैं. साथ रहने से दादादादी अपने छोटेछोटे पोतेपोतियों के लिए भागदौड़ करते हैं तो भविष्य में वही बच्चे उन की सेवा करने से पीछे नहीं हटते.

नतीजतन, दोनों के बीच भावनात्मक जुड़ाव बनता है. इस से बुजुर्गों की सक्रियता भी बनी रहती है. यही सक्रियता उन के स्वस्थ जीवन का आधार बनती है.

परिवार को मिलती नई पहचान

घर के बड़ेबूढ़े कई दशकों का अनुभव रखते हैं. उन के साथ परिवार का इतिहास जुड़ा होता है. अकसर दादीनानी किस्सेकहानियों में अपने घर का इतिहास, बड़ों की सफलता व वीरता की कहानियां सुनाती हैं. इस से आज की नई पीढ़ी को अपने पूर्वजों, रीतिरिवाजों के बारे में जानकारी मिलती है.

पूर्वजों की वीरता व उपलब्धियों की बातें सुन कर बच्चों में उन के प्रति आदर व सम्मान जागता है. उन के भीतर एकजुट रहने की भावना प्रबल होती है. परिवार की नई पीढ़ी पूर्वजों के संस्कारों में अपने विचारों से कुछ नयापन भी लाती है. परिवार में नए नियम व आधुनिक संस्कृति जन्म लेती है. जिन की जड़ें पूर्वजों के इतिहास में समाई होती हैं, ऐसे परिवार को समाज में एक अलग नजरिए से देखा जाता है और परिवार की अपनी अलग पहचान बनती है.

अहम यह है कि बुजुर्गों को अपने से दूर करते समय हम यह क्यों भूल जाते हैं कि समय का चक्र घूम कर हमारी ओर भी आएगा. एक दिन हम भी वृद्ध होंगे और तब हमें अपने बच्चों की जरूरत होगी. और अगर हम अपने बुजुर्गों की इज्जत नहीं करेंगे, उन का खयाल नहीं रखेंगे तो भविष्य में जब हम बुजुर्ग हो जाएंगे तो हमारी संतानें हमारी इज्जत नहीं करेंगी, न हमारा खयाल रखेंगी. कुल मिला कर बुजुर्गों से किसी की भी दूरी नहीं होनी चाहिए.

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