बच्चों को बुजुर्गों से दूर करने पर बुजुर्गों के जीवन में उदासी छा जाती है, वहीं बच्चों की मानसिकता पर भी असर पड़ता है.

मोहित, अंशिका का नाम पुकारते हुए कानपुर के कृष्णचंद अपनी आखिरी सांसें गिन रहे थे. मोहित और अंशिका कृष्णचंद के इकलौते बेटे रोहन के बच्चों के नाम हैं. मोहित के 5वें जन्मदिन के वक्त सास और बहू के बीच थोड़ी गहमागहमी हो गई थी, जिसे वजह बना कर 2 दिनों बाद रोहन और उस की पत्नी अलग रहने लगे. कृष्णचंद और उन की पत्नी सविता का अपने पोतेपोती से बेहद लगाव था. घर छोड़ने के बाद रोहन और उस की पत्नी कभीकभार घर आते. उस पर भी मोहित और अंशिका को साथ न लाते. बारबार मिलने की इच्छा जताने के बावजूद कृष्णचंद और सविता अपने पोतेपोतियों का मुंह न देख सके.

बच्चों के विरह ने कृष्णचंद की जिजीविषा को ही समाप्त कर दिया और आखिरकार वे दुनिया से चल बसे. उन की पत्नी सविता रक्तसंबंधों के विघटन की पीड़ा न सह सकीं. कुछ महीनों बाद अकेलेपन और नैराश्य के जीवन से उन्हें भी मुक्ति मिल गई. दादादादी के स्नेह से हमेशा की दूरी की खबर ने मोहित और अंकिता के मन को झिंझोड़ कर रख दिया.

आज की नई पीढ़ी की सोच ने घर के बड़ेबूढ़ों के सम्मान और महत्ता को खत्म कर दिया है. इस में कोई दोराय नहीं कि बुजुर्ग परिवार की रीढ़ होते हैं.

ज्यादातर मातापिता की सोच होती है कि बुजुर्गों के लाड़प्यार से बच्चे बिगड़ सकते हैं. वे यह नहीं सोच पाते कि बुजुर्गों के सान्निध्य में रह कर बच्चों को अपनापन महसूस होता है. प्रसिद्ध फैमिली काउंसलर व मनोवैज्ञानिक संजोय मुखर्जी का कहना है, ‘‘बुजुर्गों के स्नेह और साथ का बच्चों पर बेहद सकारात्मक प्रभाव पड़ता है. उन के विकास को एक नई गति मिलती है.’’

उधर, बुजुर्गों की सेवा और देखभाल करने से हमें अपने कर्तव्यों को निभाने का अवसर मिलता है साथ ही, हम समाज में तारीफ के पात्र भी बनते हैं. इस के अलावा बच्चों की नजरों में हमारे लिए और भी स्नेह और सम्मान पनपता है.

संयुक्त परिवार में रहते समय कोई झगड़ा हो या बुजुर्गों की किसी बात पर असहमति हो, तो उन से शांतिपूर्वक बात करनी चाहिए ताकि उन के सम्मान को ठेस न पहुंचे.

यदि आप को ऐसा लग रहा हो कि बच्चों के प्रति उन के अधिक लाड़प्यार से उन पर कोई गलत असर पड़ सकता है तो मधुर भाषा का प्रयोग करते हुए बुजुर्गों को समझाएं. इस से उन की गरिमा पर कोई आंच नहीं आएगी और बात सुलझ जाएगी. चंद मधुर शब्द रिश्तों को और भी मजबूत बना देते हैं.

मधुर प्रयासों के बावजूद बात न बने तो समय रहते अलग होने में ही भलाई है. पर यह अलगाव मात्र शरीरों का होना चाहिए, भावनाओं का नहीं.

बच्चों को समयसमय पर दादीदादा, नानीनाना से मिलवाने ले जाएं, उन के भीतर बुजुर्गों के प्रति किसी भी प्रकार की कड़वाहट को पनपने न दें.

अनमोल हैं रिश्ते

आजकल घरों में अधिकतर मातापिता दोनों ही नौकरीपेशा होते हैं. ऐसे में कुछ मातापिता अपने बच्चों को पालनाघर में छोड़ आते हैं तो कुछ नौकरों के भरोसे. इस वजह से बच्चों पर नौकरों द्वारा बच्चों को प्रताडि़त करने व उन के उत्पीड़न किए जाने के मामले अकसर सामने आते रहते हैं. इस से बचने और साथ ही बच्चों की अच्छी परवरिश के बारे में सोच कर बुजुर्गों को साथ रखना चाहिए. वे आप की गैरहाजिरी में न केवल बच्चों का ध्यान रखेंगे बल्कि आप के काम में भी हाथ बटाएंगे.

कुछ ऐसे भी परिवार हैं जहां सभी साथ तो रहते हैं पर मातापिता बच्चों को बुजुर्गों से दूर रखते हैं. ऐसे दुर्व्यवहार से बुजुर्गों के मन पर गहरा आघात पहुंचता है. अपनों के प्रेम का अभाव उन के दुखों और बीमारी का कारण बनते हैं. साथ रहने से दादादादी अपने छोटेछोटे पोतेपोतियों के लिए भागदौड़ करते हैं तो भविष्य में वही बच्चे उन की सेवा करने से पीछे नहीं हटते.

नतीजतन, दोनों के बीच भावनात्मक जुड़ाव बनता है. इस से बुजुर्गों की सक्रियता भी बनी रहती है. यही सक्रियता उन के स्वस्थ जीवन का आधार बनती है.

परिवार को मिलती नई पहचान

घर के बड़ेबूढ़े कई दशकों का अनुभव रखते हैं. उन के साथ परिवार का इतिहास जुड़ा होता है. अकसर दादीनानी किस्सेकहानियों में अपने घर का इतिहास, बड़ों की सफलता व वीरता की कहानियां सुनाती हैं. इस से आज की नई पीढ़ी को अपने पूर्वजों, रीतिरिवाजों के बारे में जानकारी मिलती है.

पूर्वजों की वीरता व उपलब्धियों की बातें सुन कर बच्चों में उन के प्रति आदर व सम्मान जागता है. उन के भीतर एकजुट रहने की भावना प्रबल होती है. परिवार की नई पीढ़ी पूर्वजों के संस्कारों में अपने विचारों से कुछ नयापन भी लाती है. परिवार में नए नियम व आधुनिक संस्कृति जन्म लेती है. जिन की जड़ें पूर्वजों के इतिहास में समाई होती हैं, ऐसे परिवार को समाज में एक अलग नजरिए से देखा जाता है और परिवार की अपनी अलग पहचान बनती है.

अहम यह है कि बुजुर्गों को अपने से दूर करते समय हम यह क्यों भूल जाते हैं कि समय का चक्र घूम कर हमारी ओर भी आएगा. एक दिन हम भी वृद्ध होंगे और तब हमें अपने बच्चों की जरूरत होगी. और अगर हम अपने बुजुर्गों की इज्जत नहीं करेंगे, उन का खयाल नहीं रखेंगे तो भविष्य में जब हम बुजुर्ग हो जाएंगे तो हमारी संतानें हमारी इज्जत नहीं करेंगी, न हमारा खयाल रखेंगी. कुल मिला कर बुजुर्गों से किसी की भी दूरी नहीं होनी चाहिए.

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