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हिसाब तो दो

बिका जमीर कितने में

हिसाब क्यों नहीं देते

सवाल पूछने वाले

जवाब क्यों नहीं देते

किसी ने घर जलाया था

उसी से जा के ये पूछा

जला के घर हमारा

आब क्यों नहीं देते

सभी यहां बराबर हैं

सभी से प्यार करना तुम

सबक लिखा हुआ जिस में

किताब क्यों नहीं देते

छिपा नहीं छिपाने से

हुस्न कभी भी दुनिया से

हंसी सभी हटा अपनी

हिजाब क्यों नहीं देते

यही तो मांगते सब हैं

हमें भी कुछ उजाला दो

नहीं कहा किसी ने

आफताब क्यों नहीं देते

अभी तो प्यार का मौसम है

और रुत है सुहानी

कभी किसी हसीना को

गुलाब क्यों नहीं देते.

– डा. लोक सेतिया ‘तन्हा’

बात ऐसे बनी

मैं प्राचार्य पद की लिखित परीक्षा में सफलता हासिल कर साक्षात्कार की तिथि की उद्घोषणा का इंतजार कर ही रहा था कि मुझे अचानक किसी अत्यावश्यक कार्य हेतु पैतृक गांव जाना पड़ा. वहां से आने के बाद मुझे पता चला कि एक दिन बाद ही मेरा साक्षात्कार दिल्ली में है. मुझे किसी भी हाल में दिल्ली पहुंचना था. मैं ने आननफानन फ्लाइट टिकट बुक कराने से ले कर जितनी भी औपचारिकताएं साक्षात्कार में शामिल होने के लिए दी गई थीं, चंद घंटों में पूरी कर लीं. मेरी फ्लाइट का समय दोपहर 3 बजे था. मैं करीब 2 घंटे पहले ही एअरपोर्ट के लिए निकल गया. मैं बहुत खुश था कि चलो, इस बार अपना अभीष्ट पद मुझे मिल जाएगा.

पर यह क्या, कुछ लोगों ने अचानक मेरी गाड़ी को रोकने का निर्देश दिया. मैं समझ गया कि आगे कोई दुर्घटना घटी है और मुआवजे के लिए घंटों जाम लग सकता है. कुछ समय के लिए तो मैं किंकर्त्तव्यविमूढ़ बैठा रहा पर अचानक मैं ने कुछ सोचा और अपने खास मित्र डाक्टर अमित को फोन कर अपनी समस्या बयां की.

दोस्त ने तुरंत गाड़ी वापस घर भेजने को कहा और मुझे पैदल तेज रफ्तार से अपने क्लिनिक आने को कहा. मैं ने वही किया. इस के बाद मुझे मेरे मित्र ने जब कहा कि यार उठो, फ्लाइट तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है. इतना सुनना था कि मैं ऐंबुलैंस से कूद पड़ा और जा कर फ्लाइट में सवार हो गया. आज मैं प्राचार्य पद पर स्थापित हूं, लेकिन उस दिन को भूलता नहीं.

संजीव सिन्हा, रांची (झारखंड)

*

मैं दीनदयाल नगर में अपने एक मित्र के घर से शाम के समय वापस आ रहा था. मेन रोड पर एक सज्जन अपनी 58 वर्षीया मैडम (पत्नी) को स्कूटर पर पीछे बैठा कर चले जा रहे थे. पीछे से 2 बाइक सवार आए और उन में से पीछे बैठे व्यक्ति ने मैडम के गले से सोने की मोटी चेन झटक ली. मैडम कुछ समझ पातीं और चिल्लातीं तब तक बाइक सवार काफी आगे निकल चुके थे.

पीछे से एक अन्य बाइक सवार ने बाइक तेज कर चेन झटकने वाले बाइक सवार तक पहुंच कर उसे धक्का दे कर नीचे गिरा दिया. जब तक दोनों संभलते, उस ने गाड़ी सड़क किनारे खड़ी कर दी और चेन झटकने वाले को पकड़ कर धुनाई शुरू कर दी. उस ने चेन अपने साथी के हवाले कर दी थी. साथी भागने लगा, लेकिन स्थानीय लोगों ने उसे घेर कर पकड़ लिया. उस से चेन लौटाने को कहा. झेंपते हुए उस ने चेन वापस दे दी. मैडम अपनी 58 हजार रुपए वाली चेन पा कर खुश हो गईं.

गंगाप्रसाद मिश्र, नागपुर (महा.)

पद्मश्री का पंगा

एक आरटीआई कार्यकर्ता ने मार्च में केंद्रीय गृह मंत्रालय से शिकायत की थी कि मुंबई के एक रेस्तरां में हुए झगड़े के बाबत अदालत ने सैफ पर आरोप तय किए हैं, लिहाजा उन से पद्मश्री सम्मान छीन लेना चाहिए. लेकिन करीना कपूर के मुताबिक सरकार से सूचना मिली है कि सैफ से यह सम्मान नहीं छीना जाएगा. बहरहाल, सम्मान भले ही न छीना जाए लेकिन सैफ की छीछालेदर काफी हो गई.

जीत जरूरी, अंगरेजी नहीं

इन दिनों पूरे देश में हिंदी बनाम अंगरेजी पर बहस चल रही है. एक तबका मान रहा है कि अंगरेजी बोलने वाले हर लिहाज से हर काम में बेहतर होते हैं जबकि दूसरा तबका कहता है कि हिंदीभाषी भी किसी से कम नहीं होते. यहां दूसरे तबके की बात करें तो ग्लास्गो कौमनवैल्थ में स्वर्ण पदक हासिल करने वाले इस की बेहतर मिसाल हैं जो पहले तबके की बात को सिरे से झुठला रहे हैं.

48 किलो भार वर्ग में स्वर्ण पदक जीतने वाली महिला पहलवान विनेश फोगट का कहना है कि भले ही वे मीडिया द्वारा अंगरेजी में पूछे गए प्रश्नों के जवाब नहीं दे पाईं. लेकिन उन्हें इस बात का कोई मलाल नहीं है क्योंकि देश के लिए स्वर्ण पदक जीतने पर उन्हें गर्व है और लोगों ने उन्हें पूरा सम्मान दिया है.

इसी तरह स्वर्ण पदक विजेता पहलवान अमित कुमार का मानना है कि हम भले ही कम पढ़ेलिखे हैं लेकिन पढ़ेलिखे और पैसे वाले लोग भी हम से मिलने के लिए उत्साहित रहते हैं. अंगरेजी जानना अच्छी बात है लेकिन हम भी किसी से कम नहीं हैं और हमें आगे बहुतकुछ करना है.

ग्लास्गो में भारत ने 64 पदक हासिल किए, जिन में स्वर्ण 15, रजत 30 व 19 कांस्य पदक शामिल हैं, जाहिर है प्रतिभा किसी विशेष भाषा या क्षेत्र की मुहताज नहीं होती. कुछ कर जाने का जनून ही काफी है. ऐसे में हमें अपने विजेता खिलाडि़यों पर गर्व करना चाहिए जो कई अंगरेजीदां को पछाड़ कर देश के लिए मैडल ले कर आए हैं. इन खिलाडि़यों से सबक लेने की जरूरत है जो दिखावे  की भाषा व संस्कृति के बजाय अपनी मेहनत, खेल और नतीजों पर खरे उतरे हैं.

देर आए दुरुस्त आए

दुनिया में जब हौकी में जरमनी का दबदबा था तब भारत ने ओलिंपिक में स्वर्ण पदक जीता था. भारत को 3 बार स्वर्ण पदक दिलाने में हौकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद की अहम भूमिका रही थी. उस दौर में सब की जबां पर ध्यानचंद का नाम था. अब एक बार फिर ध्यानचंद का नाम सब की जबां पर है. केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजुजु ने बताया कि इस वर्ष भारतरत्न के लिए हौकी खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद के नाम की सिफारिश की गई है.

लंबे समय से यह मांग उठ रही है कि हौकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद को देश के शीर्ष नागरिक सम्मान भारतरत्न से नवाजा जाना चाहिए. इस बात को ले कर कई बार लंबी बहस भी हो चुकी है. वर्ष 2011 में सांसदों ने मेजर ध्यानचंद के नाम को खेलरत्न के लिए प्रस्तावित भी किया था लेकिन सरकार ने तब इस की मंजूरी नहीं दी थी. तब हौकी प्रेमियों को काफी निराशा भी हुई थी. फिर वर्ष 2013 में इस पर बहस हुई कि यह रत्न किसे मिले. फिर ऐसा लगने लगा कि भारतरत्न इस बार ध्यानचंद को ही मिलेगा. लेकिन यूपीए सरकार ने मास्टरब्लास्टर सचिन तेंदुलकर की क्रिकेट से विदाई के दौरान यह ऐलान कर दिया कि इस वर्ष भारतरत्न से सचिन रमेश तेंदुलकर को नवाजा जाएगा.

जब यह ऐलान हुआ था तो खेल प्रेमियों को एक तरह से खुशी भी थी और दुख यह था कि सचिन से पहले मेजर ध्यानचंद को यह रत्न मिलना चाहिए.

केंद्रीय राज्यमंत्री के बयान के बाद मेजर ध्यानचंद के बेटे अशोक ध्यानचंद ने कहा कि यह न सिर्फ मेरे परिवार के लिए बल्कि हौकी के लिए भी गर्व की बात है. हालांकि वे थोड़ा दुखी भी हैं कि जिस समय उन्हें यह पुरस्कार मिलना चाहिए था, नहीं मिला.

मेजर ध्यानचंद हौकी के ऐसे खिलाड़ी थे जिन के बारे में कहा जाता है कि बर्लिन में ओलिंपिक के दौरान उन की हौकी स्टिक यह कह कर कई बार बदली गई कि उन की स्टिक में कहीं चुंबक तो नहीं लगा हुआ है. वर्ष 1928 में एम्सटर्डम, वर्ष 1932 में लास एंजिलस, वर्ष 1936 में बर्लिन ओलिंपिक में भारत को हौकी में स्वर्ण पदक हासिल हुए थे जिन में मेजर ध्यानचंद का अतुलनीय योगदान था.

सरकार और खेल प्रशासन ने राष्ट्रीय खेल हौकी की दुर्गति पर कभी ध्यान नहीं दिया और हौकी के साथ हमेशा से भेदभाव की नीति अपनाई. आज हौकी की क्या हालत है, यह सब को पता है. राजनीतिबाजों को इस से ऊपर उठ कर कम से कम ध्यानचंद जैसे महानतम खिलाड़ी को यह सम्मान प्रदान करना ही चाहिए जिस के वे हकदार हैं.

उन्मुक्त रिश्ते की अद्भुत मिसाल

अपने जमाने की मशहूर अदाकारा शर्मिला टैगोर और उन की अभिनेत्री बेटी सोहा अली खान दोनों का बौलीवुड में अपना मुकाम है. मांबेटी की यह जोड़ी काफी हद तक साथसाथ रहती है. हाल ही में सिने नगरी मुंबई में एक कंपनी की मुहिम में यह जोड़ी एकसाथ दिखी. मुहिम का उद्देश्य था लड़कियों की शिक्षा पूरी करवाना. शर्मिला व सोहा दोनों इस मुहिम की ऐंबैसेडर बनी हैं. उसी दौरान उन दोनों से बातचीत की. पेश हैं अंश :

आप दोनों की नजर में जीवन में अम्मा का क्या महत्त्व है?

सोहा : शिक्षा से जुड़े हर विषय पर मुझे केवल अम्मा का ही नहीं, पिता का भी बहुत सहयोग मिला है. यही वजह है कि मैं ने अच्छी शिक्षा पाई. मुझे कभी भी मेरे भाई सैफ से अलग नहीं समझा गया. हम तीनों भाईबहन के लिए शिक्षा सब से ऊपर रही है. मेरी अम्मा एक शिक्षित परिवार से हैं. वे हमेशा शिक्षा के मूल्य को जानती हैं. सभी अपनी अम्मा से ही जीवन के सारे मूल्यों को सीखते हैं. जब अम्मा शूटिंग पर जाती थीं तो भी किसी समस्या के समाधान के लिए मैं हमेशा उन्हें फोन करती थी.

शर्मिला : हम 3 बहनें थीं. हमारा कोई भाई नहीं था. मेरे पिता हमेशा कहा करते थे कि मुझे लड़के की जरूरत ही नहीं है. मैं अपनी लड़कियों के साथ खुश हूं. शादी के बाद मुझे नौर्थ इंडिया में जा कर लगा कि पुरुष अधिक महत्त्व रखते हैं. बंगाल में हमें कभी ऐसा अनुभव नहीं हुआ था. अम्मा से ही बच्चे अधिक जुड़े होते हैं क्योंकि अम्मा परिवार से जुड़ी होती है. अम्मा ही आप की परवरिश पर पूरा ध्यान रखती है. पुरुष घर खरीदने, कमाने आदि पर अधिक ध्यान देते हैं. मैं भी अपनी अम्मा से अधिक क्लोज थी.

शर्मिलाजी, आप अपनी बेटी सोहा को कितनी आजादी देती हैं?

अम्मा जैसा प्यार और अपनापन कोई और नहीं दे सकता. पर अम्मा को भी कभी ना कहना पड़ता है. एक बार सोहा जब पार्टी में जाना चाहती थी तो मैं ने उसे वहां जाने से मना किया. इस पर वह बारबार कारण पूछती रही. मैं ने समझाया कि वहां बच्चे तुम्हारी उम्र से बड़े हैं. उन की और तुम्हारी बातें अलग होंगी. इस पर वह रोने लगी और अपने कमरे में चली गई. ‘उसे दुख हुआ है,’ ऐसा सोच कर मैं उस के कमरे में गई तो देखा वह पूरी तरह से खुश थी. मुझे लगा कि मेरा ना कहना सही था. बच्चों को आजादी देनी चाहिए पर जब तक समझ नहीं आती, अम्मा को बच्चे का ध्यान रखना ही पड़ता है. वह अभिनय की ओर मुड़ी तो मैं ने सहयोग दिया. अब उसे सही और गलत का अंतर पता है.

शर्मिलाजी, टीनएजर्स बच्चियां अधिकतर विद्रोह करती हैं, क्या सोहा ने कभी ऐसा किया? अगर ऐसा हो तो अम्मा को उसे कैसे लेना चाहिए?

बच्चे को सही आदतें सिखाने के लिए अम्मा को थोड़ा दृढ़ होने की आवश्यकता होती है. एक समय बच्चों के साथ ऐसा आता है जब वे अपनी इमेज अलग बनाना चाहते हैं. सोहा को न तो कभी मैं ने एक थप्पड़ मारा, न अधिक डांटा. थोड़ी सी ऊंची आवाज उस के लिए काफी होती थी. वह रोने लगती थी. बच्चों को सम्मान दें, उस के किसी सुझाव को समझने की कोशिश करें. जहां ना कहने की आवश्यकता हो, अवश्य कहें. वे एडल्ट नहीं हैं. उन की सोच अभी मैच्योर नहीं हुई है. अगर किसी बात के लिए उन्हें सजा दें तो तुरंत उन्हें प्यार न दें. उन्हें समझने का वक्त अवश्य दें.

शर्मिलाजी, वर्किंग महिला हो कर भी आप ने अपने बच्चों की परवरिश कैसे की?

जब बच्चे पैदा हुए तो थोड़ा कम काम कर रही थी. लेकिन जब सैफ 6-7 साल का था तो मुझे बाहर कई शिफ्टों में काम करना पड़ रहा था. उस समय न तो मेरी अम्मा यहां थीं, न ही मेरी सास. उस समय मेरी बिल्ंडग में रहने वाले मेरे सब से अच्छे दोस्त थे जिन्होंने मुझे सहयोग दिया. कामकाजी अम्मा के लिए बच्चों की देखभाल करना आसान नहीं होता.

शर्मिलाजी, क्या बच्चों को आप अपने साथ शूटिंग पर ले जाती थीं?

सैफ कई बार जाता था. स्कूल शुरू होने से पहले ऐसा संभव हो पाता था. शूटिंग के सैट पर मैं ले नहीं जाती थी, इस से मेरे काम में बाधा आती थी. ‘दूरियां’ फिल्म की शूटिंग के दौरान सोहा भी मेरे साथ थी.

सोहा, आप किसी भी काम को करते वक्त, चाहे फिल्म की शूटिंग या कोई और काम, अम्मा की कितनी राय लेती हैं?

मैं अम्मा की काफी मदद लेती हूं. मैं ने जब नया घर लिया तो उस की सजावट के लिए मैं ने हमेशा अम्मा के निर्देशों का पालन किया. ‘रंग दे बसंती’ फिल्म के वक्त दिल्ली में जब मैं एक डेथ सीन की शूटिंग कर रही थी तो उसे परफौर्म करना बहुत मुश्किल लग रहा था. अम्मा से चर्चा की तो उन्होंने बताया कि अचानक कोई शौकिंग न्यूज मिलती है तो आप क्या करते हैं. बस, उसी भाव को लाना है. अभी मैं मुंबई और अम्मा दिल्ली में रहती हैं पर फोन और स्काइप पर हमेशा साथ रहते हैं.

सोहा, आप ने अपनी पहली कमाई से अम्मा को क्या भेंट दी?

मेरी पहली फिल्म बंगला भाषा में थी, इतने कम पैसे मिले थे कि मेरे लौंड्री के बिल उस से अधिक के थे. लेकिन जब मैं लंदन गई तो वहां से मैं अम्मा के लिए दवाओं का एक बौक्स लाई जो उन्हें बहुत पसंद है. मैं, जहां भी नया कुछ देखती हूं, खरीद कर उन्हें जरूर देती हूं.

पाठकों की समस्याएं

मेरी उम्र 30 वर्ष है. मेरा विवाह हुए 1 वर्ष हो चुका है. समस्या यह है कि सहवास के दौरान मेरी योनि में सूखापन रहता है जिस की वजह से मैं सैक्स संबंधों को एंजौय नहीं कर पाती हूं, परेशानी अलग होती है. क्या उस दौरान मैं औयल का प्रयोग कर सकती हूं? क्या योनि के सूखेपन के चलते ही मुझे गर्भधारण में समस्या आ रही है?

योनि के सूखेपन के कई कारण हो सकते हैं जिन में सहवास से पहले फोरप्ले का अभाव व आप का इस्ट्रोजन लैवल भी हो सकता है. इस्ट्रोजन फीमेल हार्मोन होता है जो वैजाइनल ल्यूजिकेन को संतुलित रखता है. वैजाइनल रूखेपन के कारण खुजली व दर्दभरा सहवास हो सकता है. अगर योनि का रूखापन आप की सैक्स लाइफ व पार्टनर के साथ रिश्ते को प्रभावित कर रहा है तो किसी गाइनोकोलौजिस्ट से मिलें. जहां तक योनि के रूखेपन के कारण गर्भधारण न करने की बात है तो उस का गर्भधारण से कोई लेनादेना नहीं है. हां, इस की वजह से सहवास में समस्या आती है, जो अप्रत्यक्ष रूप से गर्भधारण न कर पाने का कारण हो सकता है.

मैं विवाहित महिला हूं. 5 वर्ष पहले हमारी लवमैरिज हुई थी. हमारा 4 साल का बेटा है. पहले मेरी मां हमारे विवाह के लिए तैयार नहीं थीं क्योंकि मेरे पति का रिश्ता एक जगह से टूट चुका था, दूसरे, मेरी मां को लगता था कि मेरे पति अच्छे व्यक्ति नहीं हैं. लेकिन अब जब हमारा विवाह हो गया है तो मां ने इन्हें अपना लिया है. लेकिन मेरी सास ने मेरे पति के मन में बहुत सी गलत बातें भर दी हैं जिन की वजह से मेरे पति मेरे परिवार वालों को दिल से नहीं अपना रहे. मेरे समझाने पर भी ये मानने को तैयार नहीं हैं. मेरे परिवार वाले इन के प्रति सारे फर्ज निभाते हैं. ये पिछले 6 महीने से मेरे मायके भी नहीं गए हैं. मेरे घर वालों को इन का यह व्यवहार दुखी करता है लेकिन इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता. अब मैं ने इन से मेरे घर जाने या मेरे परिवार वालों से बात करने के लिए कहना भी छोड़ दिया है. पिछले 1 महीने से मैं इन से ज्यादा बात भी नहीं करती, सिर्फ काम की बात करती हूं. पर इन पर इस का भी कोई फर्क नहीं पड़ रहा है. मैं क्या करूं कि सबकुछ सामान्य हो जाए?

आप के पति शायद अपने मन में आप की मां की पुरानी सोच को बिठाए हैं, ऊपर से रहीसही कसर आप की सास ने पूरी कर दी है. उन के मन में आप के परिवार वालों के प्रति गलत बात बैठा कर. दरअसल, ये रिश्ते बहुत नाजुक होते हैं. जरा सी गलतफहमी इन में दूरियां पैदा कर देती है. आप पति से बात करना हरगिज न छोड़ें, इस से आप के प्रति भी उन के मन में नकारात्मक भाव जन्म लेंगे. जहां तक आप के मायके वालों के साथ उन की दूरी की समस्या है वह धीरेधीरे अपनेआप ही दूर होगी. आप इस बात को मुद्दा न बनाएं. वह आप को वहां जाने से मना नहीं करते, इसी से पता चलता है कि वे थोड़ा नाराज हैं, समय के साथ वह नाराजगी भी दूर हो जाएगी. आप धैर्य से काम लें.

मैं एक लड़के से बहुत प्यार करती हूं. वह भी मुझ से प्यार करता है. लेकिन कुछ दिनों से किन्हीं गलतफहमियों के चलते वह मुझ से बात नहीं कर रहा है. उस को लगता है कि मेरा किसी और के साथ अफेयर चल रहा है. एक बार उस ने मेरे मोबाइल में कुछ गलत मैसेज पढ़ लिए थे जो गलती से आ गए थे. उस का कहना है कि अब हमारे बीच में कुछ भी नहीं है. मैं क्या करूं? उसे कैसे समझाऊं?

अगर आप अपनी जगह सही हैं तो उसे एक बार समझाने की कोशिश करें. उस से कहें कि कई बार ऐसा गलती से भी हो जाता है. उसे विश्वास दिलाने की कोशिश करें लेकिन फिर भी वह न माने तो उस तरफ से अपना ध्यान हटा लें क्योंकि जिसे आप पर अभी से विश्वास नहीं है वह आगे चल कर भी आप के लिए समस्याएं खड़ी करेगा.

मैं 37 वर्षीय कामकाजी महिला हूं व सरकारी विभाग में कार्यरत हूं. इस समय मेरा वेतन 40 हजार रुपए प्रतिमाह है. समस्या पति को ले कर है. वे बहुत अहं व गुस्से वाले हैं. विवाह को 13 वर्ष हो चुके हैं. मैं ने अपने प्यार से उन्हें बदलने की बहुत कोशिश की लेकिन उन्हें जब भी गुस्सा आता है वे खुद पर काबू नहीं रख पाते और मुझ पर हाथ भी उठा देते हैं, गालीगलौज करने लगते हैं जिस के चलते मेरा 6 वर्षीय बेटा भी गालियां देना सीख गया है. मैं शुरू से अपना सारा वेतन उन्हें देती आई हूं. कुछ समय से मैं ने अपने पर्सनल खर्चे के लिए पैसे मांगने शुरू किए हैं. इस बार मैं ने 5 हजार रुपए की जगह 7 हजार रुपए मांगे. उन्होंने दे तो दिए पर गुस्से में रहे. वे मुझ से एकएक पैसे का हिसाब मांगते हैं. घर का सारा काम करने व अपना वेतन देने के बावजूद मुझे वह सम्मान नहीं मिलता जिस की मैं आशा करती हूं. कई बार मुझे लगता है अकेले रहना ही इस समस्या का समाधान है. मैं अपनी मरजी से पैसे भी नहीं खर्च कर सकती. मैं बहुत परेशान हूं, क्या करूं?

आप की सारी बातों से लगता है कि आप के पति के मन में हीन भावना है. आप के अच्छे वेतन और नौकरी से शायद वे ईर्ष्या करते हैं इसलिए वे आप के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं, आप पर अधिकार जमाते हैं और हावी होने की कोशिश करते हैं ताकि आप आत्मनिर्भर होते हुए भी उन पर निर्भर रहें व उन के अधीन रहें. आप उन से बिना डरे खुल कर बात करें. उन्हें अपना वेतन न देने और अलग रहने की धमकी दें. उन्हें समझाएं कि रिश्ते आपसी समझबूझ से चलते हैं न कि धौंस और जबरदस्ती से. आप का निडर होना ही आप की समस्या का हल होगा. आप जितना डरेंगी, वे उतना आप पर हावी होंगे.

महायोग : धारावाहिक उपन्यास भाग-1

दिया के कमरे में पहुंच कर एक बार तो नील भी स्तब्ध रह गया था. क्या हौलनुमा कमरा था दिया का. और कौन सी चीज ऐसी थी वहां जो दिया की जरूरत और टेस्ट व हौबी का प्रदर्शन न कर रही हो. खूबसूरत वार्डरोब्स से ले कर पर्सनल कंप्यूटर, शानदार म्यूजिक, एलसीडी, खूबसूरती से तैयार की गई ड्रैसिंगटेबल, नक्काशीदार पलंग और उसी से मैच किए गए जालीदार डबल रेशमी परदे. एक कोने में लटकता खूबसूरत लैंपशेड और उसी के नीचे सुंदर सा झूला जिस के पीछे किताबों का रैक. उस की स्टडीटेबल पर सजा हुआ कीमती खूबसूरत लैंप. एक कालेज की लड़की के लिए इतना वैभव, इतनी सुखसुविधाएं देख नील की आंखें फटी की फटी रह गईं.

कमरे से ही लगा हुआ बाथरूम भी था. उस के दरवाजे के सुंदर नक्काशीदार हैंडल्स देख कर अनुमान लगाया जा सकता था कि अंदर घर कैसा होगा. लंबाई कमरे के बराबर दिखाई ही दे रही थी. उसे मन ही मन अपना गुजरा जमाना याद आ गया, कैसे काम कर के पढ़ाई के लिए पैसे इकट्ठे किए थे उस ने.

नील की स्तब्धता को तोड़ते हुए दिया ने सहज होते हुए नील को इशारा किया, ‘‘बैठिए.’’‘‘जी, धन्यवाद,’’ नील की आंखें कमरे के भीतर चारों ओर घूम रही थीं. ‘‘आप का कमरा तो बहुत ही खूबसूरत है. क्या आप की चौइस से बनाया गया है? ’’सामने दीवार पर लगी बड़ी सी दिया की नृत्यमुद्रा की तसवीर को घूरते हुए नील ने पूछा.

‘‘जी, पापा इस मामले में बहुत ध्यान रखते हैं. जब हम सब छोटे थे तो पापा ने हमारे कमरों की सजावट करवाई थी. यहां पर रेनबो बना था. यहां एक कोने में सूरज का, दूसरे कोने में चांद का आभास होता था. फर्नीचर भी दूसरा था. अब तो बस एक टैडी रखा है मैं ने, बाकी सब खिलौने उस अलमारी में बंद कर दिए हैं. तब तो मेरा कमरा खिलौनों से भरा रहता था. जब से मैं कालेज में आई हूं, मेरे कमरे का सबकुछ बदल गया है,’’ इतनी सारी बातें दिया एक ही सांस में बोल गई.

दिया की सब से बड़ी कमजोरी थी उस का कमरा. जब भी कोई उस के कमरे की प्रशंसा करता वह फूल कर कुप्पा हो जाती और अपने सारे कलैक्शंस दिखाना शुरू कर देती.

‘‘क्या सब के कमरे इतने बड़ेबड़े हैं?’’ नील ने उसे सहज होते हुए देख कर पूछा.

‘‘हां, सब के अपनी पसंद के अनुसार हैं. और पापाममा का कमरा तो…’’ दिया सहज होती जा रही थी. नील को अच्छा लगा.

‘‘इतने बड़े शहर में इतना बड़ा घर?’’ नील ने सशंकित दृष्टि से पूछा.

‘‘मेरे दादाजी उत्तर प्रदेश के बड़े रईसों में से थे. जब जमीन आदि सरकार के पास चली गई तब उन्होंने अपनी बची हुई जमीनें बेच कर अहमदाबाद में एक फार्महाउस खरीद लिया था. उस समय यहां जमीनें बहुत सस्ती थीं. दादाजी सरकारी नौकरी में थे, तब तो उन्हें यहां बंगला मिला हुआ था. रिटायर होने के बाद उन्होंने मसूरी की बाकी बचीखुची जमीनें भी बेच दीं और यहां यह कोठी तैयार कर ली. जब दादाजी ने जमीन ली थी तब इस जगह पर खेत थे. धीरेधीरे आसपास की जमीनें बिकीं.

‘‘यहां बंगले और फ्लैट्स बनने लगे, तब दादाजी ने भी एक आर्किटैक्ट की देखरेख में यह कोठी बनवा ली थी. उन की इच्छा थी कि जिस बड़े से घर में मसूरी में उन का बचपन बीता उसी प्रकार के बड़े घर में उन का परिवार रहे. इस तरह हमारे पास इतना बड़ा घर हुआ…’’

कुछ रुक कर दिया बोली, ‘‘पापा बताते हैं, दादाजी कहा करते थे कि वे हमारे लिए सबकुछ तैयार कर जाएंगे. बस, पापा को इसे मैंटेन करना होगा. पापा भी दादाजी  की तरह शौकीन इंसान हैं. बस, फिर क्या, हम सब की मौज हो गई.’’

‘‘हां, तुम्हारे सिटिंगरूम की पेंटिंग्स और इतने बड़ेबड़े शो पीसेज देख कर तुम्हारे पापा की चौइस पता चलती है, इट्स वंडरफुल,’’ नील ने उसे यह कह कर और भी खुश कर दिया, ‘‘स्वदीप तुम से बड़े हैं न?’’ धीरेधीरे नील ने उस से आत्मीयता स्थापित करने का प्रयास किया.

‘‘दोनों ही बड़े हैं-स्वदीप भैया और दीप भैया. स्वदीप भैया ने तो इतनी छोटी उम्र में ही कितनी तरक्की कर ली है. माई ब्रदर्स आर वंडरफुल.’’

फिर अचानक उस की जबान को ब्रेक लग गए. उसे याद आ गया कि वह तो शादी ही नहीं करना चाहती. तो फिर क्यों इस युवक से इतनी पटरपटर बातें किए जा रही है.

‘तुम कैसे जाती हो कालेज?’’ नील ने उस की मनोदशा समझते हुए उसे बातों में उलझाने का प्रयास किया.

‘‘मैं तो अपने टूव्हीलर से जाती हूं. यहां आसपास मेरी फ्रैंड्स हैं. हम साथ ही निकलते हैं.’’

‘‘और तुम्हारी मम्मी?’’

‘‘ममा को ड्राइवर ले जाता है. पापा, ममा साथ ही निकलते हैं. ममा को छोड़ कर पापा औफिस चले जाते हैं. बाद में ड्राइवर ममा को छोड़ जाता है.’’

इसी बीच नौकर कौफी और कुछ स्नैक्स दे गया था.

‘‘थैंक्यू, बीरम काका,’’ दिया ने नौकर से कहा फिर नील से बोली, ‘‘आई लव हौट कौफी, और आप?’’ कह कर वह कौफी सिप करने लगी. नील ने भी कौफी पीनी शुरू कर दी.

दिया इतनी देर में नील से काफी खुल चुकी थी. सुंदर तो था ही नील, सुदर्शन व्यक्तित्व का मालिक भी था, बातें करने में बड़ा सुलझा सा. उस ने दिया पर प्रभाव डाल ही दिया.

‘‘तुम शादी क्यों नहीं करना चाहतीं?’’ नील ने अब स्पष्ट रूप से दिया से पूछ लिया.

‘‘ऐसा तो नहीं. बस, इट्स टू अरली. मैं मां की तरह अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती हूं. मैं एक जर्नलिस्ट बनना चाहती हूं,’’ दिया को फिर से अपने कैरियर की याद हो आई.

इतने ऐशोआराम में पलने वाली लड़की फिर भी इतनी व्यावहारिक. उस ने बहुत कम ऐसी लड़कियां देखी थीं. या तो लड़कियों को मजबूरी में कोई काम करना पड़ता था या फिर केवल अपने आनंद के लिए वे काम करती थीं. नील का भारत आनाजाना लगा रहता है. लगभग 10 वर्ष पहले ही तो उस के पिता विदेश में सैटल हुए थे.

‘‘आप क्या वहां फ्लैट में रहते हैं?’’ अचानक नील की सोच में यह प्रश्न मानो ऊपर से टपक पड़ा.

‘‘नहीं, फ्लैट में तो नहीं. लंदन में फ्लैट कल्चर अभी तो नहीं है. खूब जगह है वहां, पर इतने बड़ेबड़े घर तो पुराने रईसों के ही होते हैं, वे सब तो अपनी सोच से भी बाहर हैं.’’

धीरेधीरे दोनों सामान्य होते जा रहे थे. जब लगभग डेढ़ घंटे तक ये लोग नीचे नहीं आए तब स्वदीप दिया के कमरे में आया. देखा, दोनों बातें करने में तल्लीन थे. दिया ने अपना मनपसंद संगीत लगा रखा था और वह अपने बचपन के चित्रों का अलबम नील को दिखा रही थी. अचानक नील ने पूछा, ‘‘ये तुम हो. और ये दोनों?’’

‘‘आप पहचानिए,’’ दिया ने नील की ओर आंखें पटपटाईं.

‘‘बताऊं, तुम्हारी कजिंस होंगी.’’

‘‘नहीं ये स्वदीप भैया और दीप भैया हैं. हम एक बर्थडे पार्टी में फैंसी ड्रैस में थे,’’ कह कर दिया खिलखिला कर हंस पड़ी.

कैसी चुलबुली लड़की है, सोचते हुए नील भी उस के साथ खिलखिला दिया. स्वदीप भी मुसकराए बिना न रह सका.

‘‘क्या दिया, अभी तक बचपना नहीं गया है. तुम भी न,’’ स्वदीप ने दिया से शिकायत के लहजे में कहा.

‘‘भैया, यह खजाना तो सब को दिखाना ही पड़ता है.’’

एक बार फिर सब हंस पड़े. इतनी देर में कमरे में काफी सामान फैल गया था मानो. दिया ने अपने खिलौनों से ले कर, तसवीरें, कौइन कलैक्शंस, डौल्स, सीडी…न जाने क्याक्या कमरे में फैला दिए थे. उस के पास पेंटिंग्स का भी बहुत सुंदर कलैक्शन था. अपने कमरे की पेंटिंग्स को वह समयसमय पर बदलवाती रहती थी.

‘‘आंटी आप को नीचे बुला रही थीं,’’ स्वदीप ने कहा तो नील ने तुरंत अपनी हाथ की घड़ी पर दृष्टि डाली.

‘‘इतना टाइम हो गया, पता ही नहीं चला. चलिए,’’ वह कमरे से बाहर आ गया.

‘‘आओ दिया,’’ स्वदीप ने कहा तो दिया भी भाई के पीछेपीछे चल दी.

7दोनों को सहज देख कर दादी की बांछें खिल गई थीं.

नील व उस की मां को होटल वापस जाना था. तय हुआ कि अगले दिन नील व दिया लौंगड्राइव पर चले जाएं. दिया ने कुछ नहीं कहा परंतु अगले दिन वह समय पर तैयार थी.

उस दिन शाम को उस ने कामिनी से कहा, ‘‘वैसे, नील इंट्रैस्ंिटग तो है.’’

कामिनी हौले से मुसकरा दी.

‘‘तो तुम ने फैसला कर लिया है?’’ मां ने पूछा.

‘‘दादी के सामने किसी की चली है जो मेरी चलेगी?’’ दिया कुछ रुक कर बोली, ‘‘वैसे यह तय है कि मैं पढ़ूंगी.’’

नील ने कहा, ‘‘तुम्हारे पढ़ने में कोई बाधा नहीं आएगी.’’

तीसरे दिन नील व दिया की सगाई हो गई और हफ्तेभर में शादी का समय भी तय हो गया.

जीवन कभी हास है तो कभी परिहास, कभी गूंज है तो कभी अनुगूंज, कभी गीत है तो कभी प्रीत, कभी विकृति है तो कभी स्वीकृति. गर्ज यह है कि जीवन को किसी दायरे में बांध कर नहीं रखा जा सकता. शायद जीवन का कोई एक दायरा हो ही नहीं सकता. जीवन एक तूफानी समुद्र की भांति उमड़ कर अपनी लहरों में मनुष्य की भावनाओं को समेट लेता है तो कभी उन्हें विभिन्न दिशाओं में उछाल कर फेंक देता है.

क्या किसी व्यक्ति को वस्तु समझना उचित है? जाने दें, यही होता आया है सदा से. युग कोई भी क्यों न रहा हो, व्यक्ति की सोच लगभग एक सी बनी रही है. अपनी सही सोच का इस्तेमाल न कर के व्यक्ति समाज के चंद ऐसे लोगों से प्रभावित हो बैठता है जो उस के चारों ओर एक जाल बुनते रहते हैं. एक ऐसा जाल, जो व्यक्ति की संवेदनाओं व भावनाओं को सुरसा की भांति हड़पने को हर पल तत्पर रहता है.

विवाह व दूसरी सामाजिक परंपराओं के नाम पर बहुधा बेटियां होम कर दी जाती हैं उस यज्ञ में, जिस के चारों ओर सात फेरों के चक्कर चलते रहते हैं. कहीं मर्यादा के नाम पर तो कहीं कन्यादान के नाम पर उन्हें तड़पने के लिए वनवास दे दिया जाता है.

विवाह यानी प्रेमपूर्ण जिम्मेदारी और पे्रेम यानी समर्पण. यही प्रेमपूर्ण समर्पण, एक शाश्वत सत्य जो दिव्यता की अनुभूति है, सौंदर्य की अनुगूंज है और है जीने की शक्ति एवं उत्साह. यह समर्पण न तो मुहताज है सात फेरों का और न ही किसी बाहरी गवाही का. गवाही केवल मन की ही पर्याप्त होती है और मन से तन के समर्पण तक की यात्रा पूर्ण होने पर प्रेममय अनुभूति की गूंज ही दिव्यता व सौंदर्य का दर्शन है.

विवाह करा कर आखिर दिया ने क्या पाया था? और क्या पाया था दादी ने छोटी उम्र में दिया की संवेदनाओं को पेंसिल की भांति छील कर? दिया को महायोग के कुंड में होम कर के, कन्यादान दे कर अपनी ऐंठ में शायद उन्होंने वृद्धि कर ली थी, परंतु दिया?

2 वर्ष पूर्व की ही तो बात है जब उस के जीवन में काले बादल मंडराने प्रारंभ हुए थे. दिया के दादा गुजरात के अहमदाबाद में आ कर बस गए थे. मूलरूप से यह परिवार उत्तर प्रदेश का था परंतु दादाजी उच्च सरकारी अधिकारी के रूप में अहमदाबाद आए तो यहां की सरलता, शांति व संपन्नता ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि उन्होंने यहीं पर अपना स्थायी निवास बना लिया. उन्होंने व्यापार शुरू किया और उस में उन्हें भरपूर सफलता मिलनी शुरू हो गई. यहीं उन का परिवार बना, यहीं बच्चों का विकास हुआ और इसी धरती पर उन्होंने प्राण त्यागे. दिया के दादा थोड़ेबहुत उदार थे और बच्चों की बातें सुन लेते थे पर दादी तो अपनी ही चलातीं. दादा की मृत्यु के बाद उन्होंने घर की डोर संभाल ली थी.

उच्च ब्राह्मण कुल का यह परिवार बहुत संस्कारी था और कर्मकांड की छाप से बुरी तरह प्रभावित. घर में पंडितों व सद्गुरुओं का आनाजाना लगा ही रहता. कोई भी कार्य बिना पत्री बांचे किया ही न जाता. शुभ लग्न, शुभ मुहूर्त, शुभ समय. दियाकभीकभी सोचती थी कि हर बात में पत्री बांच कर आगे बढ़ने की परंपरा को आखिर कब तक निभाएंगे उस के परिवार के लोग? लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज…

उस की आर्यसमाजी संस्कारों में पलीबढ़ी मां ही कहां कुछ बदलाव कर सकी थीं अपने ससुराल के लोगों की सोच में? कहने को तो मां शिक्षण में थीं. डिगरी कालेज की प्राध्यापिका थीं. वे सुसंस्कृत, सहनशील व ठहरी हुई महिला थीं. असह्य पीड़ा के बावजूद विरोध के नाम पर दिया ने उन्हें सदा सिर झुकाते ही देखा था. उस के मन में सदा प्रश्नचिह्नों का अंबार सा लगा रहता जिन के उत्तर चाहती थी वह. परंतु न कोई उस के पास उत्तर देने वाला होता और न ही उस की बात का कोई समर्थन करने वाला. 2 भाइयों की इकलौती बहन दिया वैसे तो बड़े लाड़प्यार से बड़ी हुई थी परंतु दोनों बड़े भाई भी न जाने क्यों उस पर अंकुश ताने रहते थे. मां से कोई बात करने की चेष्टा करती तो मां दादी पर डाल कर स्वयं मानो भारमुक्त हो जातीं.

80 वर्ष से ऊपर की थीं दादी. सुंदर, लंबीचौड़ी देह, अच्छी कदकाठी. उस पर कांतिमय रोबदार मुख. पहले तो दिया की शिक्षा के बारे में ही उन्होंने भांजी मारनी शुरू कर दी थी. उन की स्वयं की बहू स्वयं शिक्षिका थी, फिर ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि वे अपनी पौत्री का कन्यादान कर के ही इस दुनिया से रवानगी चाहती थीं.

‘पर मां, अभी तो दिया पढ़ रही है, उस की पढ़ाई तो पूरी हो जाने दीजिए,’ जब मां ने दिया की तरफदारी करने का प्रयास किया तब उस के पिता अपनी मां की ही हिमायत करने लगे थे, ‘पढ़ तो लेगी ही कम्मो, यह. पढ़ने को कहां मना कर रहे हैं. पर मां का कहना भी ठीक है, हमारे कुल में वैसे ही कहां लड़कियां हैं? तुम तो जानती हो, पिताजी के भी बेटी नहीं थी. सो, वे बेटी के कन्यादान की ख्वाहिश मन में लिए तरसते हुए ही चले गए. उन की इच्छा थी कि वे अपनी पोती का कन्यादान कर सकें पर ऐसा न हो सका. अब मां हैं तो…’

कम्मो यानी कामिनी यानी दिया की मां चुपचाप उठ कर अपने कमरे में बंद हो गई थीं. उन की 19 वर्ष की बेटी पत्रकारिता करने का स्वप्न अपनी पलकों में संजो कर बैठी थी और उस की सास व पति के पास जो उन के कुलपुरोहित आ कर बैठे थे उन की गणना कह रही थी कि 19वें-20वेें वर्ष में उस कन्या का विवाह हो जाना चाहिए वरना 35-37 वर्ष तक उस के शुभविवाह का कोई मुहूर्त नहीं है. और यदि उस उम्र में विवाह होगा भी, तो पतिपत्नी के बीच टकराव होगा और लड़की वापस पिता के घर आ जाएगी.

मां कितने भी संदेहों, अंधविश्वासों या परंपराओं के जंजाल से दूर क्यों न हो, मां मां ही होती है और अपनी बेटी के भविष्य के लिए तो वह उसी पल चैतन्य व चिंतित हो जाती है जब बेटी जन्म लेती है. क्या करे वह अपनी सास व पति का? दिया का समय अभी अपने भविष्य के बारे में सोचने व उसे संवारने का था, न कि शादीविवाह का.

कामिन पंडेपुजारियों के जाल में फंसने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हो पाती थी. इस घर में वह कभी भी इन रूढि़यों से लड़ नहीं पाई. उस का विवेक बारबार झंझोड़ता था, आखिर अपनी बेटी के प्रति उस का भी कोई कर्तव्य था. परंतु न जानेक्यों वह कभी भी अपनी सास व पति के समक्ष मुंह नहीं खोल पाई. जो मांजी कहतीं, वह करने के लिए तत्पर रहती.

उसे भली प्रकार याद है जब वह शुरूशुरू में इस घर में ब्याह कर आई थी तब उसे कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था. उस के अपने मायके में न तो कोई व्रतउपवास होते थे न ही पंडितों की आवाजाही. इसलिए जब ससुराल में उस से पूछा जाता कि वह फलां व्रतउपवास की कथा के बारे में जानती है तो उस का सिर ‘न’ में हिल जाता. फिर उसे सुननी पड़ती सास की पचास बातें. मायके में बस एक ही बात सिखाई गई थी, ‘बेटी, बेटा 1 कुल की इज्जत होता है जबकि बेटी को 2 कुलों का मानसम्मान व इज्जत रखनी होती है. वहां अपनी विद्रोही जबान खोलने की जरूरत नहीं है.’ और उस ने मानो अपनी साड़ी के पल्लू में नहीं बल्कि मन के पल्लू मेें ही गांठ लगा ली थी कि मातापिता के ऊपर कोई भी लांछन नहीं आने देगी.

वह दिन और आज का दिन, वह किसी भी चीज का, परंपरा का विरोध करने में स्वयं को सक्षम ही नहीं पाती मानो मायके से उस की जबान तालू से चिपक कर ही आई हो. कभी थोड़ाबहुत प्रयास भी किया है तो पति बीच में आ कर खड़े हो जाते.

विवाह से पहले ही कामिनी को लग रहा था कि उस का विवाह बिलकुल अलग विचारों के परिवार में करवा कर उस के पिता शायद ठीक नहीं कर रहे हैं. परंतु पिता का कहना था कि इतने सुसमृद्ध परिवार से उन की बेटी का हाथ मांगा जा रहा है तो मना कैसे कर दें? यद्यपि वह जानती थी कि तार्किक विचारों से प्रभावित उस के पिता को उस के पति के परंपरागत रीतिरिवाजों को पूरा करने में अपने मन व विचारों को उठा कर ताक पर रख देना पड़ा था.

कितनी रोई थी वह जब उस का विवाह तय हुआ था. जहां उस की सखीसहेलियां उस की समृद्ध ससुराल से ईर्ष्या कर रही थीं, वहीं वह घटाटोप अंधेरे से घिरी थी. वह कल्पना कर रही थी कि उसे क्याक्या एडजस्टमैंट करने होंगे. जब उस के ससुर व सास उसे देखने आए तब भी अपने साथ एक चोटीधारी पंडितजी को ले कर ही पधारे थे. साथ में था जंत्रीतंत्री का बड़ा सा पोटला. पिता मिलान के लिए कामिनी की जन्मपत्री भी देना नहीं चाहते थे परंतु अजीब था यह परिवार. सास जम ही तो गई थीं कि उन्हें जन्मपत्री दी ही जाए.

‘आप के पास है नहीं क्या जन्मपत्री?’ उन्होंने कामिनी के पिता से पूछा था.

‘देखिए बहनजी, हम जन्मपत्री आदि में विश्वास नहीं करते,’ उन्होंने उत्तर दिया था.

‘तो कोई बात नहीं. अगर नहीं है तो हम बनवा लेंगे, क्यों पंडितजी?’ उन्होंने पंडितजी की ओर गरदन घुमाई थी.

‘जी, बिलकुल,’ पंडितजी ने अपनी मोटी सी गरदन को हां में हिलाते हुए अपने जजमान के स्वर में अपना स्वर मिला दिया था.

बारंबार उसे यह बात झकझोरती कि आखिर जब इतना उच्च परिवार है, लड़का इतना सुंदर है तब उस के पीछे ही क्यों पड़े हैं ये लोग? आखिर वह ही क्यों, बहुत सी सुंदर लड़कियां होती हैं, तो वही क्यों?

बाद में पता चला कि उस की सास को कहीं से पता चला था कि कामिनी के रूप में लक्ष्मी उस के घर में आएगी और फिर सोने पे सुहागा पंडितजी की हिमालय सी दृढ़ पुष्टि. और होना था, इसलिए कामिनी का विवाह यशेंदु से हो गया था.

ससुराल में प्रवेश करने के लिए उस युवा पंडितजी से मुहूर्त निकलवाया गया था और उन के आदेशानुसार ही उस ने सब कृत्य संपन्न किए थे.

सास की दृष्टि को आदेश मान कर जब उस ने पंडितजी के चरणकमलों की वंदना की तब उन्होंने सब के समक्ष दोनों हाथों से उठा कर उसे अपने हृदय से लगा लिया था. जब वह सकपकाई तो वे उस के सिर पर हाथ फेरने लगे थे. जो धीरेधीरे पीठ की ओर खिसक गया था. कमाल था कि किसी ने उन की इस धृष्टता पर कुछ कहनेसुनने के स्थान पर उसे ही और धन्यता का एहसास कराने की चेष्टा की थी कि पंडितजी ने उसे कैसेकैसे शुभाशीषों से अलंकृत किया था. वह मन मसोस कर, चुप ही रह गई थी.

परंतु जब उस ने प्रत्येक अवसर पर अपने सासससुर को पंडितजी से पत्री बंचवाते देखा तो सोचा कि आखिर कैसे रह पाएगी वह इस वातावरण में? परंतु वह रह रही थी और बड़ी अच्छी प्रकार एक बहू व पत्नी के कर्तव्यों का पालन कर रही थी.  एक बात उस ने गांठ बांध ली थी कि यदि उसे अपना विवाह सहेजना है तो मुंह पर टेप लगाना ही बेहतर है. उस ने ऐसा ही किया भी.

हां, पंडितजी के उस दिन के व्यवहार के बाद वह अपनेआप को उन से बचा कर रखने लगी थी.

उस घर में नियमित पूजाअर्चना चलती जो प्रतिदिन पंडितजी ही करते. वह सब सामग्री पहले से ही तैयार कर के, सजा कर मंदिर वाले कमरे में रख आती और प्रयास यही करती कि पंडितजी जब एकाकी हों तब उस कमरे में न जाए.

यद्यपि पहले दिन के बाद पंडितजी ने कभी न तो कुछ कहा ही था और न ही किंचित प्रयास ही किया था उस से अधिक वार्त्तालाप करने का परंतु उन की दृष्टि…नहीं, वह आशीर्वादयुक्त पवित्र दृष्टि तो नहीं थी. बहुत भली प्रकार वह उस दृष्टि को पहचान सकती थी. इसी वातावरण को सहतेढोते हुए अब तो उस की अपनी पहचान भी धुंधली हो चुकी थी. अब उस की पहचान है श्रीमती कामिनी यशेंदु शर्मा, जो एक बहू है, पत्नी है और हां, सब से महत्त्वपूर्ण बात, वह एक मां है. 3 बच्चों की मां. आज जब उस के समक्ष उस की बेटी का प्रश्न आ कर खड़ा हो गया है तब भी उसे अपना मुंह बंद ही रखना होगा?

पुरोहितजी दिया की जन्मकुंडली ले कर उस की सास और पति से चर्चा कर रहे थे और वह भीतर ही भीतर असहज होती जा रही थी.

– क्रमश:

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