इन दिनों पूरे देश में हिंदी बनाम अंगरेजी पर बहस चल रही है. एक तबका मान रहा है कि अंगरेजी बोलने वाले हर लिहाज से हर काम में बेहतर होते हैं जबकि दूसरा तबका कहता है कि हिंदीभाषी भी किसी से कम नहीं होते. यहां दूसरे तबके की बात करें तो ग्लास्गो कौमनवैल्थ में स्वर्ण पदक हासिल करने वाले इस की बेहतर मिसाल हैं जो पहले तबके की बात को सिरे से झुठला रहे हैं.

48 किलो भार वर्ग में स्वर्ण पदक जीतने वाली महिला पहलवान विनेश फोगट का कहना है कि भले ही वे मीडिया द्वारा अंगरेजी में पूछे गए प्रश्नों के जवाब नहीं दे पाईं. लेकिन उन्हें इस बात का कोई मलाल नहीं है क्योंकि देश के लिए स्वर्ण पदक जीतने पर उन्हें गर्व है और लोगों ने उन्हें पूरा सम्मान दिया है.

इसी तरह स्वर्ण पदक विजेता पहलवान अमित कुमार का मानना है कि हम भले ही कम पढ़ेलिखे हैं लेकिन पढ़ेलिखे और पैसे वाले लोग भी हम से मिलने के लिए उत्साहित रहते हैं. अंगरेजी जानना अच्छी बात है लेकिन हम भी किसी से कम नहीं हैं और हमें आगे बहुतकुछ करना है.

ग्लास्गो में भारत ने 64 पदक हासिल किए, जिन में स्वर्ण 15, रजत 30 व 19 कांस्य पदक शामिल हैं, जाहिर है प्रतिभा किसी विशेष भाषा या क्षेत्र की मुहताज नहीं होती. कुछ कर जाने का जनून ही काफी है. ऐसे में हमें अपने विजेता खिलाडि़यों पर गर्व करना चाहिए जो कई अंगरेजीदां को पछाड़ कर देश के लिए मैडल ले कर आए हैं. इन खिलाडि़यों से सबक लेने की जरूरत है जो दिखावे  की भाषा व संस्कृति के बजाय अपनी मेहनत, खेल और नतीजों पर खरे उतरे हैं.

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