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यूथ नया तलाशता है : करीना

सफल स्टारपुत्रियों में करीना कपूर एकमात्र ऐसी अदाकारा हैं जिन्होंने अपने नाम के साथ ‘देसी’, ‘बोल्ड’ या ‘सैक्सी’ किसी भी तरह का कोई ‘टैग’ नहीं लगाया. जबकि वे बौलीवुड में 15 वर्षों से कार्यरत हैं. सैफ अली खान के साथ शादी के बाद भी उन के कैरियर पर कोई असर नहीं पड़ा. वे आज भी अपनी शर्तों पर फिल्में कर रही हैं. उन्होंने हर खान के साथ 2-2 फिल्में की हैं और अब वे सलमान खान के साथ तीसरी फिल्म ‘बजरंगी भाईजान’ करने जा रही हैं.

पेश हैं करीना से लंबी बातचीत के प्रमुख अंश:

15 साल के अपने अभिनय कैरियर में आप ने बिकिनी पहनी, किसिंग व सैंसुअल सीन किए, फिर भी आप के ऊपर कोई टैग नहीं लगा. जबकि आज की नई अभिनेत्रियां 1-2 फिल्में करने के साथ ही ‘बोल्ड ऐक्ट्रैस’ या ‘सैक्सी ऐक्ट्रैस’ या ‘सैंसुअल ऐक्ट्रैस’ का टैग लगवा लेती हैं. इसे आप किस तरह से देखती हैं?

पहली बात तो मैं ने अब तक सिनेमा के परदे पर जो कुछ किया है वह कहानी व चरित्र की मांग को ध्यान में रख कर किया है. दूसरी बात, मैं ने हमेशा अलगअलग तरह के किरदार निभाने की कोशिश की. मैं ने अपने कैरियर में एक ही टाइप के किरदार नहीं निभाए. इसलिए एक कलाकार के तौर पर मेरी अपनी पहचान है. दूसरी अभिनेत्रियां शायद बारबार एक ही तरह के किरदार निभाती हैं. इसलिए उन के ऊपर टैग लग जाते हैं.

क्या कहानी लिखने वाले लेखकों की कमी है?

लेखकों की कमी नहीं है. वे दरअसल भेड़चाल के शिकार हैं. तकरीबन सभी एक ही अंदाज की कहानियां लिख रहे हैं. एक चीज चल जाती है, तो फिर लोग उसी तरह की चीजें लिखते रहते हैं.

लेखन को ले कर जो आप की शिकायत है, उस में बदलाव लाने के लिए आप अपने होम प्रोडक्शन की तरफ से क्या कर रही हैं?

प्रोडक्शन में मेरी कोई खास दिलचस्पी नहीं है. इस वजह से प्रोडक्शन विभाग से मेरी खास बातचीत नहीं होती. लेकिन सैफ जिस तरह की सोच वाले कलाकार हैं, वे अपने प्रोडक्शन हाउस में उसी तरह की फिल्में बना रहे हैं. उन्होंने ऐसी फिल्में बनाई हैं जिन पर यकीन किया जा सके, फिर चाहे ‘गो गोआ गौन’ हो या ‘एजेंट विनोद’.

किसी भी कलाकार के लिए किसी चरित्र को निभाने में लुक कितना मददगार होता है?

लुक बहुत महत्त्व रखता है. फिल्म में  हमारा लुक तो कहानी व चरित्र के अनुसार ही होता है. मैं ने फिल्म ‘टशन’ में स्क्रिप्ट और किरदार दोनों की मांग के अनुरूप ‘साइज जीरो’ को अपनाया था.

लोगों का मानना है कि ‘साइज जीरो’ बहुत नुकसानदायक होता है?

मैं ऐसा कुछ नहीं मानती. मेरा मानना है कि ‘टशन’ फिल्म में साइज जीरो की जरूरत थी. उस वक्त साइज जीरो को पाने के लिए मैं ने योगा किया था. खानपान को ले कर बहुत सख्ती बरती थी. लेकिन अब यदि मुझे फिर से ‘साइज जीरो’ के लिए कहा जाए तो अब मुझ में वह करने की ताकत नहीं है. मैं कपूर खानदान की लड़की हूं. दिनभर खाने की शौकीन हूं. कपूर खानदान की लड़की को हरीभरी दिखना भी चाहिए. इसलिए हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में भी हरीभरी लड़कियां ही अच्छी लगती हैं.

इन दिनों बौलीवुड में सभी एक ही चर्चा करते हैं कि सिनेमा में बदलाव आ गया है. किस तरह का बदलाव आप देखती हैं?

सिनेमा बदल गया है, यह बात इंटरव्यू में पढ़ने और लिखने में ही अच्छी लगती है. आज भी ‘दबंग’ या ‘सिंघम’ जैसी कमर्शियल व बड़े कलाकारों की ही फिल्में चलती हैं. मैं यह मानती हूं कि अलग तरह की फिल्मों की स्वीकार्यता की शुरुआत हुई है. आज का यूथ कुछ नया तलाशता रहता है.

लेकिन इन दिनों हौलीवुड की ही तरह ‘मेरी कौम’ या ‘मर्दानी’ जैसी नारीप्रधान ऐक्शन फिल्में बनी हैं?

मैं ऐक्शन फिल्म नहीं कर सकती. मैं रानी मुखर्जी और प्रियंका चोपड़ा की तारीफ करूंगी कि उन्होंने ऐक्शन फिल्म करने का साहस दिखाया है. ये बहुत अलग तरह की फिल्में हैं. मैं नहीं कर सकती. मैं करूंगी तो फनी नजर आऊंगी. मेरे लिए डांस ही ठीक है.

बौलीवुड से जुड़े लोग ‘वुमेन एंपावरमैंट’ की भी बातें बहुत करते हैं? आप को लगता है कि फिल्मकार या कलाकार ‘वुमेन एंपावरमैंट’ को ले कर कुछ सोचते हैं?

हम सभी सिर्फ बौक्स औफिस के बारे में सोचते हैं, यह एक कड़वा सच है. मेरा तो एक ही मानना है कि फिल्म की कहानी में दम हो तो वह फिल्म चलती है, फिर चाहे वह ‘दबंग’ हो, ‘डर्टी पिक्चर्स’ हो या ‘कहानी’ हो. यदि आप फिल्म ‘कहानी’ के बौक्स औफिस कलैक्शन पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि पहले दिन इस का कलैक्शन कुछ भी नहीं था. लेकिन फिल्म की कहानी अच्छी होने की वजह से धीरेधीरे बौक्स औफिस कलैक्शन बढ़ता चला गया. मगर जब सलमान खान या अजय देवगन की

फिल्म लगती है तो लोग टूट पड़ते हैं. मेरे कहने का अर्थ यह है कि ‘क्राउडपुलर’ तो सलमान खान, शाहरुख खान व अजय देवगन की फिल्में ही होती हैं.

तो क्या पूरी फिल्म इंडस्ट्री चंद ‘क्राउडपुलर’ कलाकारों के भरोसे चल रही है?

मैं कुछ हद तक इसे सही मानती हूं, इसलिए मुझे भी कमर्शियल फिल्में करना अच्छा लगता है. कमर्शियल फिल्मों से ही फैन और जनता जुड़ती है.

हाल ही में सलमान खान ने दावा किया है कि ‘चैरिटी’ में उन्हें कोई भी कलाकार मात नहीं दे सकता?

सलमान भाई ने जो कुछ कहा है, सही कहा है. सलमान खान के फैन बहुत बड़े हैं, पर उस से भी बड़ा उन का दिल है. बौलीवुड में सलमान खान ही एकमात्र ऐसे कलाकार हैं जिन का क्रेज है.

लगता है इसी वजह से आप ने ज्यादातर फिल्में खान कलाकारों के साथ ही की हैं?

मैं ने खान बंधुओं के साथ एक नहीं बल्कि 2-2 फिल्में की होंगी.  आखिर 15 साल हो गए काम करते हुए. सलमान खान के साथ तीसरी फिल्म ‘बजरंगी भाईजान’ करने जा रही हूं. मैं आमिर खान की तो बहुत बड़ी फैन हूं.  मैं उन के साथ तीसरी फिल्म करने के लिए लालायित हूं.

आप को अभी तक राष्ट्रीय पुरस्कार नहीं मिला है?

सैफ ने भी कभी भी पुरस्कार पाने की लालसा से कोई फिल्म नहीं की. जब उन्हें फोन आया कि उन्हें ‘हम तुम’ के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है, तो उन्हें खुद आश्चर्य हुआ था. मेरे निर्देशक मुझे बारबार अपनी फिल्मों में दोहराते हैं, यही मेरे लिए सब से बड़ा अवार्ड है.

हैदराबाद में ‘सिंघम रिटर्न्स’ की शूटिंग के दौरान जब आप से बात हुई थी तब आप ने कहा था कि फिल्म ‘शुद्धि’ नहीं बनेगी. मगर…?

अब ‘शुद्धि’ के लिए उन्हें सलमान खान मिल गए हैं. पर मैं यह फिल्म नहीं कर रही हूं. मुझे लगता है कि यह फिल्म रितिक रोशन के साथ ही ठीक थी. जब रितिक रोशन ने किसी वजह से इस फिल्म से खुद को अलग कर लिया तो मैं ने भी खुद को इस फिल्म से अलग कर लिया.

इन दिनों फेसबुक और ट्विटर पर लगभग हर कलाकार मौजूद है, पर आप नहीं हैं?

मैं फेसबुक और ट्विटर दोनों जगह नहीं हूं क्योंकि मेरा मानना है कि इन से जुड़ने का मतलब है ‘फुलटाइम कमिटमैंट’ जबकि मेरे पास इतना वक्त नहीं है.  मेरे लिए परिवार, कैरियर व काम की प्राथमिकता है.

विद्या बालन के अनुसार ट्विटर व फेसबुक की वजह से रिश्ते बिगड़ रहे हैं?

यह सच है. आज की तारीख में जो माहौल है उस में हर किसी के बीच ‘मिस अंडरस्टैंडिंग’ हो रही है. पर मुझे यह बात समझ में नहीं आती कि यदि 2 इंसानों के बीच किसी बात को ले कर ‘मिस अंडरस्टैंडिंग’ हुई है तो उसे पूरे देश को बताने की क्या जरूरत है? अपने निजी जीवन की बातों को आप ट्विटर पर क्यों लिखते हो? मैं थोड़ी सी पुराने खयालों की हूं. मुझे नहीं लगता कि ट्विटर पर अपनी फिल्म को प्रमोट करने से कोई फायदा होता है.

तो क्या ट्विटर या फेसबुक पर जो कुछ कलाकार कर रहे हैं उस से उन का फायदा नहीं हो रहा है?

मैं ने सुना है कि अब तो हालात यह हो गए हैं कि जहां कलाकार के फैन उन की तारीफों के पुल बांधते हैं वहीं कुछ ऐसे लोग हैं जो उन्हें ट्विटर पर गालियां देते हैं जो कलाकार ट्विटर पर इस ढंग की बातें पढ़ या सुन रहे हैं, यह उन की ताकत है, क्योंकि उन के अंदर ये सब सुनने की ताकत है. पर मेरे अंदर ये सब सुनने की ताकत नहीं है.

आप ने विशाल भारद्वाज से ले कर राजू हिरानी और रोहित शेट्टी तक तमाम निर्देशकों के साथ काम किया है. आप किस निर्देशक की फैन हैं?

मैं राजू हिरानी, रोहित शेट्टी व जोया अख्तर की बहुत बड़ी फैन हूं. जोया अख्तर अलगअलग तरह की खूबसूरत फिल्में बनाती हैं. राजू हिरानी और रोहित शेट्टी ऐसे निर्देशक हैं जो अलगअलग विषयों पर फिल्में बनाते हैं.

फिर भी आप ने जोया अख्तर की फिल्म ‘दिल धड़कने दो’ छोड़ दी?

मेरी नईनई शादी हुई थी. मैं शादी के बाद लगातार 3 माह के लिए विदेश जाना नहीं चाहती थी.

आप स्क्रिप्ट के आधार पर फिल्में करती हैं. इस के बावजूद आप की कुछ फिल्में सफल नहीं रहीं?

अब मेरी सोच यह होती है कि पूरी फिल्म एक्साइटिंग हो. मैं ने हाल ही में कबीर की वजह से सलमान खान के साथ फिल्म ‘बजरंगी भाईजान’ साइन की है. यह ऐक्शन नहीं, बल्कि ‘ह्यूमन’ कथा वाली फिल्म है.

आप ने कुछ फिल्में करने से मना कर दिया. पर जब वह फिल्म  सुपरहिट हुई, ऐेसे में आप को कुछ मलाल?

मैं ने अपनी जिंदगी या कैरियर में जो कुछ किया, उस को ले कर मुझे कभी कोई अफसोस न है और न होगा.

भारत को सुपरपावर बनाने का सपना

केंद्र सरकार देश के हर नागरिक को छत देने के साथ ही हर गांव के प्रत्येक घर को रोशन भी करना चाहती है. अक्षय ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल ने सौर ऊर्जा पर आयोजित एक सम्मेलन में कहा कि देश के 6 लाख गांवों की 40 फीसदी आबादी अंधेरे में है. सरकार इस अंधेरे को सौर ऊर्जा के माध्यम से दूर करना चाहती है.

गोयल ने यह भी कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सौर ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में भारत को दुनिया का सिरमौर बनाने का सपना पाले हुए हैं और इस सपने को वे अपने 5 साल के कार्यकाल में पूरा करना चाहते हैं. इस पर काम तेजी से आगे बढ़े, इसलिए अक्तूबर के आखिर में इस विषय पर देश में वैश्विक सम्मेलन आयोजित किया जाएगा.

बिजली मंत्री इसे ऊर्जा का निर्मल स्रोत बताते हैं लेकिन सवाल यह है कि यदि यह काम इतना आसान है तो देश की बिजली जरूरत को पूरा करने के लिए सरकार ने परमाणु ऊर्जा जैसी घातक राह क्यों पकड़ी? विशेषज्ञ आज सरकार को सौर ऊर्जा में दुनिया का सिरमौर बनने का सपना दिखा रहे हैं लेकिन कल तक ये विशेषज्ञ किस वजह से चुप थे? इन विशेषज्ञों को पहले यह बात क्यों नहीं सूझी. यह बड़ा सवाल है. लेकिन यदि सरकार को लगता है कि सचमुच सौर ऊर्जा उत्पादन में भारत दुनिया का सुपरपावर बन सकता है तो उसे देश के बिजली संकट को दूर करने के लिए आक्रामक योजना बनानी चाहिए और ऊर्जा परमाणु संयंत्र और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली बिजली परियोजनाएं बंद होनी चाहिए.

भारत भूमि युगे युगे

वरुण से किनारा

भाजपा के नए अध्यक्ष अमित शाह ने अपनी टीम में वरुण गांधी को न ले कर एक तरह से साफ कर दिया है कि वे अपने से बड़े कद का नेता संगठन में नहीं चाहते. टीम में शामिल अधिकांश चेहरे नए और दूसरी पंक्ति के हैं.

वरुण गांधी से परहेज की और भी वजहें हैं जिन में खास है कि वे कट्टर नहीं हैं. अब इस तरह की बातें तो होती रहेंगी कि मेनका गांधी अपने बेटे को उत्तर प्रदेश का सीएम प्रोजैक्ट कर रही थीं और वरुण अपने कजिन्स यानी राहुल व प्रियंका के साथ होटल में खाना खाने गए थे इसलिए उन की अनदेखी की गई लेकिन हकीकत उन को ले कर अमित शाह की घबराहट थी.

इरोम की मुहिम

सरकार आत्महत्या की कोशिश करने वाली धारा 309 को हटाने की बात कर ही रही थी कि उधर मणिपुर की एक अदालत ने मानव अधिकार कार्यकर्ता इरोम चानू शर्मिला को इसी आरोप से बरी कर दिया. यह मामला 14 साल अदालत में चला यानी 42 वर्षीय शर्मिला ने उम्र का एक हसीन हिस्सा नजरबंद रहते गुजार दिया. इस की भरपाई कौन करेगा, इस पर सब खामोश हैं और रहेंगे.

‘आयरन लेडी औफ मणिपुर’ के खिताब से नवाजी गई इरोम झक्की या सनकी नहीं हैं. वे एक सार्थक मुद्दे की बात पर भूखहड़ताल पर बैठी थीं कि पूर्वोत्तर राज्यों से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून हटाया जाए जिस के चलते इन राज्यों में सरकारी बंदूकधारी मनमानी किया करते हैं. इरोम की लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है.

जीतन की फजीहत

बड़े आदमी का बेटा होना भी अपनेआप में कमतर गुनाह वाली बात नहीं होती. पिता का सम्मान और प्रतिष्ठा को मिट्टी में मिलाने के लिए प्यार नाम की अनिवार्य रस्म भी छिप कर निभानी पड़ती है. इस में पकड़े जाओ तो कैसी फजीहत होती है, प्रवीण मांझी पिता जीतनराम मांझी, मुख्यमंत्री बिहार, इस की ताजा मिसाल हैं.

प्रवीण होटल के कमरे में छिप कर अपनी गर्लफ्रैंड से प्यार कर रहा था, इस उम्र में लोग यही करते हैं. पैसे न हों तो जोड़े जंगल, खेत या पहाड़ों के पीछे चले जाते हैं, उन्हें रोक पाने में कभी कोई कामयाब न हुआ न ही होगा. इस अनिवार्य आवश्यकता की व्याख्या जदयू के मुखिया शरद यादव ने कुछ यों कर डाली कि यह भी एक तरह की भूख है. बात सच है पर सीएम के बेटे को दूसरे से बेहतर मालूम होना चाहिए कि जितना मजा प्रेमियों को प्यार करने में आता है, उस से कहीं ज्यादा मजा प्रेमियों को पकड़ने वालों को आता है.

अपनेअपने हिंदुत्व

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का यह बयान कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है, कतई नया नहीं है. फर्क इतना भर आया है कि भाजपा के सत्ता में रहते और नरेंद्र मोदी के पीएम होते अब भागवत पर पहले से ज्यादा ध्यान दिया जाने लगा है, जो इन दिनों दार्शनिकों सरीखी धार्मिक व आध्यात्मिक बातें कर रहे हैं.

इन में से एक दिलचस्प और हास्यास्पद बात यह कि हिंदुओं को बराबरी पर लाना है यानी जातिगत भेदभाव खत्म करना है. हिंदुत्व का असली मतलब समझने वालों को ज्ञान प्राप्त हो गया कि अब छुआछूत और जातिपांति पर ध्यान नहीं देना है. जाति की खाने वाले हिंदूवादी पाला बदलने में कितने माहिर होते हैं, यह इस नई कवायद से साफ झलकता है. इसे यथार्थ पर लाने के लिए बेहतर होगा कि जल्द ही संघ का प्रमुख किसी दलित को बनाया जाए जिस से कथनी और करनी में फर्क स्पष्ट हो.

मर्दानी रानी

शादी के बाद लंबे अरसे तक परदे से गायब रहीं अभिनेत्री रानी मुखर्जी ने फिल्म ‘मर्दानी’ से जोरदार वापसी की है. इस फिल्म की आलोचकों ने भी जम कर तारीफ की है. इसी बीच रानी की ‘मर्दानी’ को टैक्सफ्री करने की घोषणा मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपने ट्विटर अकाउंट के जरिए की है. इतना ही नहीं, फिल्म को देखने के बाद वे इस की तारीफ करते नहीं थक रहे. उन के मुताबिक मर्दानी सामाजिक बुराई को उजागर करने वाली फिल्म है. फिल्म में बालिकाओं और महिलाओं की तस्करी की समस्या को बेहतर तरीके से उठाया गया है. वैसे फिल्म उत्तर प्रदेश में भी टैक्सफ्री हो गई है.

धर्म की मार

धर्म का प्रचारप्रसार करने वाले किसी आदमी से बात करें या कोई धार्मिक किताब पढ़ें तो समझ में यही आता है कि कमजोर, बूढ़ों, बच्चों और औरतों की मदद करना इंसान का सब से बड़ा धर्म है. कई लोग इसे भारत की महान संस्कृति से भी जोड़ते हैं. इस की तारीफ करते दिनरात थकते भी नहीं हैं. असल में जब मौका आता है तो भारतीय धर्म और संस्कृति का झंडा बुलंद करने वाले यही लोग कमजोर लोगों, बच्चों और औरतों को अपने पैरों के नीचे कीड़ेमकोड़ों की तरह कुचलते हुए निकल जाते हैं. मंदिरों में हुए अब तक के सभी हादसों को देखें तो पता चलता है कि ज्यादातर लोग भीड़ के पैरों तले कुचल कर ही मरते हैं. 

25 अगस्त को उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित चित्रकूट और सतना जिले के बीच कामदगिरि परिक्रमा के दौरान हुए हादसे में 10 लोग भीड़ के पैरों तले कुचल कर मर गए और 25 लोग घायल हो गए. मरने वालों में महिलाएं और बूढ़े ही शामिल हैं. फतेहपुर जिले की रहने वाली 22 साल की आशा देवी अपने चचेरे भाई राजू के साथ कामदगिरि की परिक्रमा करने गई थी. चित्रकूट में उस दिन बहुत भीड़ थी.

एक तो मौनी अमावस्या दूसरे, दिन सोमवार होने के कारण 10 से 12 लाख लोग कामदगिरि में आ जुटे थे. इन में ज्यादातर लोग दलित और पिछड़ी जातियों के थे. ये लोग धार्मिक स्थलों पर लगने वाले मेलों के मोह में फंस कर मंदिरों में दर्शन और परिक्रमा के लिए आते हैं. 

आशा देवी के 2 बच्चे हैं. वह चाहती थी कि उस के पति को अच्छी सी नौकरी मिल जाए. आशा देवी ने सुना था कि कामदगिरि की परिक्रमा कर के कामतानाथ मंदिर में दर्शन करने से मनोकामना पूरी होती है. वह बड़ी मुश्किल से ट्रेन और बस के रास्ते चित्रकूट आई थी. उस ने अपने छोटे बच्चों को चचेरे भाई राजू के पास छोड़ दिया और खुद कामदगिरि परिक्रमा करने के लिए निकल गई. सब से पहले उस ने रामघाट जा कर मंदाकिनी नदी में स्नान किया. वहां बहुत भीड़ थी. जैसेतैसे बचतेबचाते वह वहां से बाहर निकली. इस के बाद वह पैदल ही कामदगिरि परिक्रमा के लिए चल पड़ी. आशा देवी की यात्रा पूरी ही होने वाली थी कि इसी बीच पीछे परिक्रमा कर रही भीड़ में भगदड़ मच गई. 

आशा देवी भीड़ से बचने के लिए मंदिर के एक चबूतरे पर खड़ी हो गई. उस के पीछे आ रहे लोगों को लगा कि वे भी चबूतरे पर खडे़ हो कर बच सकते हैं. ऐसे में वे भी चबूतरे पर चढ़ने लगे. चबूतरा छोटा था. भीड़ ज्यादा थी, ऐसी भगदड़ में किसी का खुद को बचाने के चक्कर में आशा देवी को धक्का लगा और वह चबूतरे से नीचे गिरी और भीड़ के नीचे कुचल गई.

आशा देवी का चचेरा भाई राजू रोते हुए कहता है, ‘‘वह अपने परिवार के सुखी जीवन की आस ले कर परिक्रमा करने आई थी. अब उस के दुधमुंहे बच्चों की देखभाल कौन करेगा?’’ परिक्रमा कर अपने परिवार को खुशहाल बनाने चली आशा देवी खुद मौत का शिकार हो गई. भीड़ के नीचे कुचल कर मरने वालों में आशा देवी अकेली औरत नहीं थी. 

मुआवजे का मरहम

मरने वालों में पन्ना जिले की 28 साल की हक्कीबाई, सतना की रहने वाली 40 साल की सविता, 70 साल की कानपुर की रहने वाली सखदेई, फतेहपुर के 64 साल के शिवदास, झांसी के रहने वाले 75 साल के बाबूलाल और 60 साल के चंद्रपाल शामिल हैं. ये लोग उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश दोनों ही जगहों से आए थे, ऐसे में दोनों ही प्रदेशों की सरकारों ने जनता के दर्द को कम करने के लिए मुआवजे का मरहम लगाने का काम किया.

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने मरने वालों को 2-2 लाख और घायलों को 50-50 हजार रुपए के मुआवजे की घोषणा की.  10 लोगों की मौत और 25 लोगों के घायल होने के बाद उत्तर प्रदेश के चित्रकूट और मध्य प्रदेश के सतना जिले के प्रशासन ने मंदिर के परिक्रमा मार्ग को सुधारने की घोषणा की है.

मध्य प्रदेश की शिवराज सिंह चौहान सरकार मंदिर और पूजापाठ में सहूलियत के लिए कईकदम उठा रही है. ऐसे में वह कामदगिरि परिक्रमा मार्ग में सुधार कर जनता का मन जीतने की कोशिश करेगी. कामदगिरि परिक्रमा मार्ग 5 किलोमीटर लंबा है.

हादसे की वजह बना हवनकुंड

25 अगस्त को सोमवती अमावस्या के दिन सुबह 4 बजे से ही चित्रकूट के रामघाट पर स्नान करने वालों की भीड़ बढ़ने लगी थी. रामघाट से स्नान करने के बाद लोग कामदगिरि परिक्रमा कर के कामतानाथ मंदिर में दर्शन कर अपनी परिक्रमा पूरी करते हैं. उस दिन भी ऐसा ही हो रहा था. कुछ श्रद्धालु पैदल परिक्रमा कर रहे थे तो कुछ ज्यादा कठिनाई से परिक्रमा को संपन्न करने के लिए पेट के बल लेटलेट कर दंडवत परिक्रमा कर रहे थे. सोमवती अमावस्या होने के कारण श्रद्धालुओं की भीड़ ज्यादा थी. परिक्रमा मार्ग संकरा है. कई जगहों पर छोटेछोटे मंदिर बने हैं. वहां रुकरुक कर पूजा करने से भीड़ और बढ़ जाती है. कई जगहों पर हवनपूजन भी होता रहता है. 

परिक्रमा मार्ग पर ही हवन होने से परिक्रमा करने वालों को परेशानी हो रही थी. चढ़ावे के कारण पूजापाठ कराने वाले पुजारी कहीं भी हवन कराने से नहीं चूकते हैं. उस समय सुबह के करीब 6 बजे थे. एक श्रद्धालु दंडवत परिक्रमा यानी पेट के बल लेटलेट कर अपनी परिक्रमा पूरी कर रहा था. मुखारबिंद मंदिर के पास दंडवत परिक्रमा करने वाले को नीचे आने से बचाने के चक्कर में दूसरे श्रद्धालु का पैर हवनकुंड की आग पर पड़ गया.  वह दर्द से चीख पड़ा जिस से लोगों में भगदड़ मच गई. अफवाह फैल गई कि ऊपर से गुजर रहा बिजली का तार टूट कर गिर गया है. उस से बचने के लिए वहां भगदड़ मच गई. इस से पहले 1984 में चित्रकूट में ऐसा ही हादसा हो चुका है. उस समय परिक्रमा मार्ग कच्चा बना हुआ था. भीड़ में मची भगदड़ के नीचे दब कर 12 लोग मर गए थे. उन में अधिकतर श्रद्धालु प्यास के कारण मरे थे. इस से यह साफ पता चलता है कि परिक्रमा मार्ग को सुधारने से हादसों को रोका नहीं जा सकता है.

मोदी सरकार के 100 दिन

नरेंद्र मोदी की सरकार को बने 4 महीने हो रहे हैं यानी 100 दिन पूरे हो चुके हैं और देश की हालत वैसी ही है जैसी बुरी तरह भ्रष्ट, निकम्मी, निष्क्रिय कांगे्रस सरकार के जमाने में थी. देश के किसी हिस्से में सुखचैन की नई रोशनी की कोई किरण नजर नहीं आ रही. उलटे, जिन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें नहीं हैं वहां विवाद खड़े हो रहे हैं और वहां के मुख्यमंत्रियों का कहना है कि विवाद, चुनाव जीतने के लिए केंद्र में सत्तारूढ़ दल करा रहा है. बहुत आशाओं के साथ बने प्रधानमंत्री के साथ ऐसा ही होता है. जैसे, 1947 में आशाएं जगी थीं कि अब सबकुछ अच्छा होगा पर गोरे साहबों के जाने के अलावा सबकुछ वैसा ही रहा या खराब हुआ. जनता बुरी तरह ठगी रह गई पर बोल नहीं पाई क्योंकि जो सरकार बनी थी, वह उस की ही इच्छा पर बनी थी. यही अब मौजूदा नई सरकार के साथ है.

आज जनता में पहले जैसा धैर्य नहीं रहा. समय पहले सप्ताहों और महीनों में गिना जाता था, अब नैनो सैकंडों और सैकंडों में गिना जाता है. 4 महीने अब 4 साल लगते हैं. इन 4 महीनों में मोदी सरकार या तो प्रवचन देती प्रतीत होती रही है या ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ की आस बंधाती रही.

सरकार ने न कानूनों को बदला, न सरकारी कामकाज तेज किया. नरेंद्र मोदी ने लालकिले पर चढ़ कर कह तो दिया कि आप 12 घंटे काम करो वे 13 घंटे काम करेंगे पर वे उन सरकारी अफसरों का क्या करेंगे जिन का काम आम आदमी को काम करने से रोकना है. सरकार ने आम आदमी को राहत देने के वे काम भी नहीं किए जो केंद्र सरकार के दायरे में आते हैं. आयकरों, उत्पादन करों या सेवा करों में न ही छूट दी गई न उन का सरलीकरण किया गया. सरकार हर नागरिक को बेईमान मान कर चल रही है और हर अफसर को शराफत व सेवा का पुतला. दरअसल, जनसेवक कहने मात्र से कोई सेवक नहीं हो जाता. हर चीज के लिए मात्र नोटिस जारी करना ही काफी नहीं होता.

किसी भी दिन का अखबार देखिए. खबरों में सिर्फ सरकारी नियंत्रण की बात होगी, विवाद की होगी, सरकारी जिद की होगी. 22 अगस्त का अखबार देखें तो एक खबर गुजरात के इशरत जहां मामले में सुप्रीम कोर्ट में सरकार के 2 विभागों की शिकायत की है. एक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभा में झारखंड के मुख्यमंत्री की भाजपा समर्थकों द्वारा हूटिंग की है. दिल्ली की खबरों में एक शराबी ड्राइवर के 3 को कुचलने की है. एक, दिल्ली के भाजपा नियंत्रण वाले नगर निकाय द्वारा दिल्ली के टाउन हाल की दुर्घटना की है. एक, दिल्ली में बढ़ती बिजली कटौती की है.

दिल्ली में सरकार और अदालत की वजह से ई-रिकशा बंद हैं, जिस के चलते लाखों नागरिक परेशान हैं. एक खबर, यमुना की खुदाई के भयंकर परिणामों की चेतावनी की है जिस पर भाजपा सरकार अड़ी है. राष्ट्रीय समाचारों में एक गांवों के स्कूलों में शौचालयों की समस्या की है, चीन से बढ़ते खतरे के बारे में मिसाइल की खबर है पर वह सुखद नहीं क्योंकि चीनी अजगर का फैलता आकार चिंतनीय है. हां, भाजपा के लिए अच्छी खबर है कि लोकसभा की 16 में से 9 कमेटियों के अध्यक्ष भाजपा सांसद हैं.

रेप कांडों के कारण कम होते विदेशी पर्यटकों की संख्या पर चिंता है जो 16 मई के बाद भी नहीं बढ़ी है. कुल मिला कर पूरे दिन में एक भी काम ऐसा नहीं हुआ है जिस पर खुशी हो कि सरकार 16 घंटे काम कर रही है. इन सब के लिए मोदी सरकार को दोष देना ठीक न होगा. न काम करना, खराब करना, रिश्वत लेना, टेढ़े कानून बनाना आदि ये सब नरेंद्र मोदी की देन नहीं हैं. ये सब हमारी अपनी संस्कृति की देन हैं. हम हवनों, पूजापाठों, इबादतों, मोमबत्तियों से सब सुख पाना चाहते हैं. 1947 से ही सरकारें कहती रही हैं कि सरकार में आस्था रखो, कल्याण होगा. यह चीज 2014 में ज्यादा जोर से आजमाई जा रही है.

देश की सरकार को जनता की क्षमता पर, उस की शराफत पर, उस की कर्मठता पर विश्वास है, ऐसा नहीं लगता. नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त के भाषण में जनता को कई उपदेश दिए हैं पर सरकार के दायित्वों की बात नहीं की. यह चिंता का विषय है कि भारी बहुमत होने के बावजूद सरकार, जनता में नई स्फूर्ति और नया जोश नहीं भर पा रही और तभी सभी अखबारों की सुर्खियां नेगेटिव की नेगेटिव ही हैं.

विवादों में आमिर

आमिर खान की जब भी कोई फिल्म रिलीज होती है, उस में विवाद होता ही होता है. पहले ‘रंग दे बसंती’, ‘फना’, ‘मंगल पांडे’ जैसी विवादास्पद फिल्मों के बाद अब उन की नई फिल्म ‘पीके’ के पोस्टर को ले कर विवाद छिड़ गया है. दरअसल, इस फिल्म के पोस्टर में आमिर खान न्यूड पोज में रेडियो ले कर रेलवे ट्रैक पर खड़े हैं. कुछ लोगों को पोस्टर में आमिर का लुक निहायत ही अश्लील लगा, लिहाजा इसे अश्लीलता फैलाने वाला पोस्टर बताते हुए उन के खिलाफ कोर्ट में याचिकाएं दायर की हैं.

गाने का बुखार

फिल्मों में, खासकर हिंदी फिल्मों में प्लेबैक सिंगर्स का पुराना इतिहास है. परदे पर अभिनेता और अभिनेत्रियों के होंठ चलते हैं और उन के पीछे की मीठी आवाज प्लेबैक सिंगर्स की होती है. लेकिन अब दौर बदल चुका है. पिछले कुछ अरसे से नायकनायिका खुद अपनी आवाज में गाने लगे हैं. सलमान खान ने फिल्म ‘किक’ में कई गाने गाए तो वहीं अक्षय कुमार भी कई फिल्मों के लिए गा चुके हैं. इस कड़ी में ताजा नाम जुड़ा है श्रुति हसन का. वे सोनाक्षी सिन्हा के लिए फिल्म ‘तेवर’ में प्लेबैक सिंगिंग करेंगी.

उपचुनाव नतीजों से बढ़ी भाजपा की चिंता

4 राज्यों के 18 विधानसभा क्षेत्रों में हुए उपचुनावों में भारतीय जनता पार्टी और मोदी का जादू टूटता दिखाई दिया. पिछले दिनों हुए आम चुनावों में नरेंद्र मोदी की आंधी में तमाम विपक्षी दल बह गए थे. ऐसे में इन उपचुनावों पर सब की नजरें लगी थीं. खासतौर से बिहार में, जहां सत्तारूढ़ जनता दल (यूनाइटेड) समेत राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस का सफाया हो गया था. इन उपचुनावों को भाजपा की लोकप्रियता की परीक्षा के तौर पर देखा जा रहा था. बिहार, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और पंजाब में 18 सीटों पर हुए उपचुनावों में भाजपा को लगे झटके से मोदी और भाजपा के तिलिस्म पर सवाल उठ खड़े हुए हैं. इन में बिहार की 10, मध्य प्रदेश की 3, कर्नाटक की 3 और पंजाब की 2 सीटें थीं. इस से पहले उत्तराखंड में 3 सीटों पर भाजपा चुनाव हार चुकी है.

आम चुनाव में भाजपा व नरेंद्र मोदी की आंधी से घबराए लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार ने इन उपचुनावों से पहले 20 सालों की पुरानी दुश्मनी भुला कर महागठबंधन के नाम से एक नई मोरचाबंदी की थी. इस में कांग्रेस भी शामिल है. इस गठबंधन ने भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ा था.

लालूनीतीश की मोरचाबंदी का फायदा हुआ और राज्य की 10 सीटों में से इन के गठबंधन को 6 सीटें मिल गईं. इन्होंने कुछ सीटें भाजपा से छीनी हैं. इसी तरह भाजपा के गढ़ मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने उसे नुकसान पहुंचाया तो पंजाब और कर्नाटक में भी मोदी की लोकप्रियता का फायदा भाजपा को नहीं मिल पाया. ये नतीजे बताते हैं कि मोदी की वह लहर अब कायम नहीं रही. भाजपा की आंधी को रोकने के लिए लालू यादव ने उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव और बहुजन समाज पार्टी नेता मायावती को भी एकजुट होने की सलाह दी है. इस जीत से उत्साहित हो जदयू नेता शरद यादव पुराने मंडल के तरकश से तीर निकालने का आह्वान कर रहे हैं.

महागठबंधन का खेल

यहां 2 प्रमुख सवाल हैं. एक, जिस तरह से भाजपा अपना चुनावी एजेंडा जनता तक पहुंचाने में पूरी तरह सफल रही, क्या उसी तरह शासन करने का उस के पास कोई सफल फार्मूला है? दूसरा, दलितों, पिछड़ों, गरीबों, वंचितों के नाम पर सामाजिक न्याय, मंडल मसीहाई और धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करने वाले लालू, नीतीश के पास जाति का सवाल उठाने के अलावा शासक के लिए क्या कोई ठोस, कारगर एजेंडा है? पहले बात करते हैं लालूनीतीश की. धुर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी लालू और नीतीश 11 अगस्त को 20 साल बाद एक मंच पर आए तो उन के समर्थकों व देश की जनता को यकीन नहीं हुआ कि इस तरह का गठबंधन कामयाब हो पाएगा.

क्या जंग लगे सामाजिक न्याय और मंडल जैसे पुराने औजार से भाजपा के नए नेतृत्व और तौरतरीकों से मुकाबला किया जा सकेगा? क्या पुराने तौरतरीकों, नारों और दांवपेंचों से यह मुमकिन हो पाएगा?

लालू, नीतीश, मुलायम सिंह, एम करुणानिधि जैसे पिछड़े वर्गों के नेताओं के भीतर भाजपा के विरोध में एकजुट होने की छटपटाहट तो है लेकिन पिछले मंडल के दौर की सियासी राजनीति में इन नेताओं ने क्या किया, किसी से छिपा नहीं है. लालू, मुलायम और करुणानिधि तीनों पिछड़ों, दलितों को भुला कर केवल परिवार कल्याण में जुटे दिखे. तीनों नेताओं के परिवारीजनों की लंबी फेहरिस्त है जो राजनीति में आ कर सत्ता की मलाई जीमने में मशगूल हो गए.

लालू ने 1990 में जब बिहार की सत्ता संभाली तो नीतीश कुमार के साथ अच्छी दोस्ती थी. लालूनीतीश 1993 में अलग हो गए. नीतीश कुमार ने जनता दल छोड़ कर जौर्ज फर्नांडीस के साथ मिल कर समता पार्टी बना ली. इस के बाद लालू और नीतीश के बीच राजनीतिक कड़वाहट पैदा हो गई. कुछ ही समय बाद लालू के सामाजिक न्याय का रास्ता परिवारवाद की ओर मुड़ गया और नीतीश व शरद यादव का मंडल भगवा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के कमंडल में समाहित हो गया.

1995 में लालू के खिलाफ पहले चुनाव में नीतीश की पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा और नीतीश के राजनीतिक भविष्य पर भी सवाल उठने लगे थे पर बाद में लालू की मजबूत पकड़ को चुनौती देने के लिए समता पार्र्टी ने भाजपा के साथ गठबंधन कर लिया. नीतीश ने चुनावों में लालू के भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया और लोगों को लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. उस वक्त लालू का चारा घोटाला नीतीश कुमार के लिए कारगर मुद्दा साबित हुआ और 2005 में भाजपा के सहयोग से वे बिहार की सत्ता पर काबिज हो गए.

लेकिन नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के सवाल को ले कर नीतीश को भाजपा भी रास नहीं आई और लोकसभा चुनाव से पहले 2013 में वे भाजपा से अलग हो गए. नीतीश ने खुल कर कहा था कि एनडीए में प्रधानमंत्री पद के लिए वे सब से काबिल हैं. नीतीश के विरोध के बावजूद भाजपा जब मोदी को ले कर पीछे नहीं हटी तो नीतीश ने भाजपा से नाता तोड़ लिया. 2014 में नीतीश की पार्टी की लोकसभा चुनाव में जबरदस्त हार हुई और बदलते राजनीतिक हालात में उन्होंने मुख्यमंत्री पद छोड़ दिया.

इधर, बारबार जेल जाने के कारण लालू की राजनीतिक जमीन भी दरकने लगी थी. लालू यादव को लगने लगा था कि कहीं भगवा लहर में कहीं बिखर न जाएं अब ढाई दशक बाद फिर मंडलकमंडल की राजनीति नई करवट ले रही है. लालूनीतीश जैसे मंडलवादी नेता मिले जरूर हैं पर बिहार और बाकी देश के मतदाताओं को बता नहीं पाए कि उन के लिए वे ऐसा क्या करेंगे जो पहले से अलग होगा.

क्या करेगी सपा

उत्तर प्रदेश में मुल्ला मुलायम सिंह के बेटे अखिलेश यादव की समाजवादी सरकार के खिलाफ गुस्सा इसलिए बढ़ रहा है क्योंकि वे सत्ता में तो जाति की साइकिल पर चढ़ कर आ गए पर अपने मतदाताओं को समझा नहीं पा रहे हैं कि उन का उद्देश्य

क्या है और जनता की समस्याओं का समाधान कैसे करेंगे.  यह अन्य राज्यों में भी कमोबेश हो रहा है. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने कम्युनिस्टों का सर्वहारा वर्ग अपने पाले में कर लिया तो तमिलनाडु में जयललिता पिछड़े द्रविड़ों को अपनी पार्टी अन्नाद्रमुक में लाने में कामयाब रहीं.

दलित, पिछड़ों के नेताओं के आपसी अहंकार, एकदूसरे का विरोध और सत्ता के स्वार्थ आड़े आते रहे हैं. मायावती मुलायम सिंह से इसलिए खफा हैं क्योंकि 1995 में लखनऊ गैस्ट हाउस में उन के साथ सपा के लोगों ने बुरा बरताव किया था. इस वारदात के बाद भाजपा के खिलाफ कभी मजबूत गठबंधन नहीं बन पाया. 1993 में जब मायावती और मुलायम की गठबंधन सरकार बनी थी तब लगा था कि दलित और पिछड़ों के मिलने से ऊंची जाति के दलों के हाथ से सत्ता सालों के लिए निकल गई पर भाजपा ने ऐसा पासा फेंका कि भाजपा से दूर रहने वाली, उसे मनुवादी, सांप्रदायिक बताने वाली, तिलक, तराजू, तलवार को जूते मारने का नारा देने वाली मायावती उसी पार्टी के साथ मिल कर सत्ता सुख भोगने लगीं.

लालू, नीतीश और अन्य अवसरवादियों के सामने दिक्कत यह है कि अब 80-90 के दशक की तरह उन के सामने विपक्षी ब्राह्मण अटल बिहारी वाजपेयी का नेतृत्व नहीं, पिछड़े वर्ग का, खुद को गरीब, चाय बेचने वाला प्रचारित करने वाला नेता है. देश की जनता भैंस चराने वाले बनाम चाय बेचने वाले में से किसे अपना अधिक हितैषी मानेगी?

काफी नहीं गठबंधन

ऐसे में लालूनीतीश गठबंधन को केवल खोखले और बासी पड़ चुके नारों से आज भाजपा से निबटना मुश्किल होगा. मंडल अब कमंडल की काट नहीं रहा. भाजपा ने कमंडल के साथ मंडल को मिला लिया है पर क्या लालूनीतीश ने ऐसा किया है? बासी फार्मूले को ले कर लालू, नीतीश की जोड़ी आगे बढ़ पाएगी इस में संदेह है. बहरहाल, यह जीत लालूनीतीश की भी नहीं है, यह तो इन दोनों के बीच बिखरे हुए मतदाताओं के वोट एक जगह पड़ने से हुई.

मंडल राजनीति के पिछले दौर में सामाजिक न्याय हाशिए पर चला गया. वह दौर फ्रांसीसी क्रांति और बाद में उपनिवेशवाद के खिलाफ चले संघर्ष जैसा था जिस में समाज के कमजोर तबकों के अधिकारों की बातें जोरदार ढंग से उठाई गई थीं. लेकिन देश के दलितों, पिछड़ों, वंचितों, गरीबों के लिए सामाजिक न्याय की बातें महज ढकोसला साबित हुईं.

नेता सामाजिक न्याय को और आगे तक ले जाते. वे ऐसी व्यवस्था कराते कि सब से कमजोर तबके को सब से ज्यादा फायदा मिलता. समान स्वतंत्रता के अधिकार दिलवाते. सामाजिक और आर्थिक बराबरी का प्रयास करते. सामाजिक न्याय के नए आयाम जोड़ते पर वे ये सब नहीं कर पाए. सामाजिक न्याय भारतीय संविधान में तो है. आजादी के आंदोलन में भी सभी तबकों के लिए सामाजिक न्याय के मुद्दे पर गंभीर बहसें चलती थीं. इसी का नतीजा था कि वंचित वर्गों के लिए संसद व नौकरियों में आरक्षण व संरक्षण देने जैसे प्रावधानों पर सहमति बनी.

इस के बाद 60-70 के दशक में राम मनोहर लोहिया ने इस बात पर जोर दिया था कि दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों व स्त्रियों को एकजुट हो कर सत्ता व नौकरियों में ऊंची जातियों के वर्चस्व को चुनौती देनी चाहिए. इसी पृष्ठभूमि के साथ 80 के दशक के बाद सामाजिक न्याय भारतीय राजनीति का प्रमुख नारा बनता गया. इस के कारण अभी तक सत्ता से दूर रहे समूहों, नेताओं को सत्ता की राजनीति के केंद्र में आने का मौका मिला लेकिन इन नेताओं का वह वर्ग उस फायदे से दूर रहा जो उसे मिलना चाहिए था.

क्यों हारी भाजपा

मोदी और भाजपा का नया नेतृत्व अमित शाह अपने हिंदुत्व के बुनियादी विचारों के साथसाथ नए तरीके की सोशल इंजीनियरिंग के जरिए दलितों, पिछड़ों के एक हिस्से में भी जगह बना रहा है. भाजपा ने पूंजी और तकनीक के जरिए पार्टी का आधुनिकीकरण भी कर लिया है.  पर सवाल है कि 3 महीने पहले देश में लोकप्रियता के शिखर पर खड़ी भाजपा इन उपचुनावों में कमाल क्यों नहीं दिखा पाई?

दरअसल, भाजपा के पास चुनावी एजेंडा तो है पर शासन का कोई ठोस कामयाब फार्मूला नहीं है जिस से कि वह जनता की समस्याओं का निराकरण कर सके. भाजपा का चुनावी एजेंडा सबको छूता है. धर्म के व्रत, त्योहारों, विवाहशादियों और मृत्यु आदि जीवन के हर पक्ष में उस का खासा दखल है और धर्म पर भाजपा अपना पेटेंट मानती है. देश की जनता भी भाजपा को धर्म की ठेकेदार समझती है.

भाजपा और संघ के छोटेमोटे नेता आएदिन धार्मिक आयोजन कराते रहते हैं. जागरण, कीर्तन, भंडारा तो हैं ही, अमरनाथ यात्रा, कांवड़ यात्राओं के लिए भी लोगों को भेजने में आगे रहते हैं. उन के लिए जगहजगह शिविर लगाते हैं. इन के अलावा देशभर में रामलीलाओं के आयोजकों में ज्यादातर संघ और भाजपा से जुड़े नेता ही होते हैं. गोसेवा कार्यक्रम, स्वदेशी जैसे कार्यक्रम भी हैं जिन का प्रचारप्रसार वे करते रहते हैं.

इस तरह, भाजपा का अपने हिंदू वोटरों के लिए एक ठोस कार्यक्रम है, जिस के जरिए हिंदू जनता में उस ने अपनी एक गहरी पैठ बना रखी है. इसे कायम रखने में पंडेपुजारी, साधुसंत, मंदिर, तीर्थस्थलों के विकास तथा मोक्ष व स्वर्ग के पैरोकार निरंतर जुटे रहते हैं. जनता भी इस के चलते भाजपा से अपना सीधा जुड़ाव महसूस करती है. पार्टी के छोटे नेता और उस से जुड़े धार्मिक संगठन भी निरंतर एहसास कराते रहते हैं कि यही एक दल है जो उस के लिए मुफीद साबित हो सकता है. 

धर्म की राजनीति

भाजपा समाज के हर तबके से जुड़ी रही है और वह अपने इस एजेंडे को हर घर, हर जन तक पहुंचाने में कामयाब रही है. पार्टी की ऊंची जातियों–ब्राह्मणों, बनियों, क्षत्रियों में पहुंच पहले से ही थी. उसे दरकार थी शूद्रों यानी ऊंचे पिछड़ों और ऊंचे दलितों की, इन्हें भी लुभाने में वह अब सफल रही.

ये पिछड़े और दलित वे हैं जो मोक्ष के मुहताज हैं, स्वर्ग से सरोकार रखते हैं.  वे हिंदू धर्म की जयजयकार करने लगे हैं. धर्र्म के ठेकेदारों के सिखाने पर मुसलमानों की मुखालफत करते हैं. राम मंदिर निर्माण के लिए नारे लगाते हैं, गलीमहल्लों में नए मंदिरों का निर्माण कराते हैं, तीर्थों में आतेजाते हैं. कुछ ऊंची नौकरियों, छोटेमोटे कारखानों, कंपनियों के मालिक बन गए हैं और जिन के बच्चे मैनेजमैंट, इंजीनियरिंग, डाक्टरी की पढ़ाई कर रहे हैं.

भाजपा ने किया यह कि पार्टी संगठन में ही अलग विभाग बना दिए और इन्हीं वर्ग के नेताओं को इन का प्रमुख बना दिया. उन्हें अपने वर्ग के वोटरों को जोड़ कर रखने का काम सौंप दिया गया. हाल के चुनावों में भाजपा ने दलितों, पिछड़ों में सेंध लगाई. दलित, पिछड़े बहुल उत्तर प्रदेश के जातिवादी नेता मायावती, मुलायम सिंह से उन्हीं के वोटरों को छीनने में वह कामयाब रही पर इन जातियों की समस्याओं के समाधान का रास्ता शासनतंत्र में नजर नहीं आया.

भाजपा का यह चुनावी एजेंडा देश को संदेश देने में तो सफल है पर जब सरकार चलानी हो तो चुनावी एजेंडे का यह रास्ता बेकार है. उस के पास शासन का ऐसा सफल फार्मूला नहीं है जो जनता की समस्याओं का समाधान कर सके, जिन से उसे रोजमर्रा के कामों से उलझना पड़ता है. शासन का अपना तंत्र है जो बेहद जटिल है. भाजपा को उस की समझ नहीं है और न ही वह समझना चाहती है.

नमो आंधी थमी

मोदी बुलेट टे्रेन चलाने की बात कहते हैं पर उस से कितने लोगों को फायदा होगा और किन को होगा? जाहिर है उन निचलों, दलितों, पिछड़ों, गरीबों, किसानों को कतई नहीं होगा. वे लालकिले की प्राचीर से बड़ी लोकलुभावन लच्छेदार लफ्फाजी तो करते हैं पर अपने शासन, प्रशासन के बारे में कुछ नहीं कहते कि वे जनता की समस्याएं दूर कैसे करेंगे. भाषण में मोदी ने न महंगाई पर कुछ कहा और न ही भ्रष्टाचार पर. सरकारी दफ्तरों से लालफीताशाही और निकम्मापन कैसे दूर कर पाएंगे, जनता के कामों में आसानी कब होगी, बेमतलब के नियमकायदों से कैसे मुक्ति दिला पाएंगे?

भाजपा का हर छोटा नेता बिना आगापीछा सोचे अपना फायदा चाहता है. वह मंदिरों में जाता है, घंटी बजाता है तो अपने फायदे के लिए. मोदी की जयजयकार करता है तो अपने लाभ के लिए, अब उसे शासन चाहिए तो अपने फायदे के लिए. मध्यवर्ग के भाजपाईर् नेता छोटे लोगों को मंदिरों में धकेल सकते हैं पर उन की समस्याएं हल नहीं कर सकते. पार्टी के नेताओं को पद न मिले तो वह नाराज हो जाता है.

सरकार ने आते ही महंगाई पर नियंत्रण के लिए इधरउधर हाथपैर मारने शुरू किए. मंडी समितियों को कुछ निर्देश दिए गए. किसानों से कहा गया कि वे अपना उत्पाद मंडियों के बाहर खुले बाजार में बेच सकते हैं लेकिन कोई असर नहीं पड़ा. क्योंकि मंडी के जटिल कानूनों की मोदी सरकार को न समझ है, न वह समझना चाहती है. इसी तरह कमोडिटी बाजार की उलझन को वह सुलझाने का प्रयास करती, जो महंगाई बढ़ने की एक प्रमुख वजह मानी जाती है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त को ‘मेक इन इंडिया’ का नारा तो दिया जो लोगों को लुभावना लगा पर शासन तंत्र के भटकाव से बचाने का सरल, सीधा रास्ता नहीं बताया.

शासन में फेल

आम जनता से दिल्ली में ई-रिकशा का सस्ता और सुविधाजनक साधन छिनवाने के बाद भाजपा सरकार न उस जनता के लिए कोई कारगर हल निकाल पाई और न ही उन गरीब रिकशाचालकों के लिए, जिन के सामने अब रोजीरोटी के लाले पड़े हैं. ये रिकशाचालक और उन के परिवार अब दिल्ली में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस की ओर देख रहे हैं.

मोदी सरकार सिविल सेवा के छात्रों की सीसैट समस्या का संतोषजनक हल भी नहीं निकाल पाई. यह समस्या नौकरशाही द्वारा खड़ी की गई थी. आधेअधूरे समाधान के नाम पर छात्रों को उसी में उलझा कर रख दिया गया. भाजपा में अपना धार्मिक पाठ्यक्रम लागू करने और इतिहास अनुसंधान परिषद में पुराने को बदल कर अपने तरह से नया इतिहास लिखवाने की योग्यता तो है पर शासनप्रशासन के जरिए व्यावहारिक समस्याएं सुलझाने की नहीं.

हाल तक सिरआंखों पर बिठाने वाली भाजपा से अब इसलिए लोगों का मोहभंग होता दिखने लगा है क्योंकि उस की तुलना में कांग्रेस के पास शासन में काम कराने के तौरतरीके अधिक कारगर हैं. उस के पास प्रशासन से काम निकलवाने का तरीका है. अब तक जो लोग हरहर मोदी, घरघर मोदी कह रहे थे, अब अपनी समस्याओं का हल निकलते न देख कर लालूनीतीश और कांग्रेस की तरफ देख रहे हैं.

ऐसे में लालूनीतीश को अपना एजेंडा सामने रखना होगा और मोदी को चुनावी प्रचार के एजेंडे से नहीं, शासन का सफल एजेंडा अमल में लाना होगा.

अच्छे दिन आए लालूनीतीश के

बिहार में 10 विधानसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव के नतीजों ने बता दिया कि पिछले 3 महीने में ही वोटर का मिजाज बदल गया है. अप्रैल महीने में हुए आम चुनाव में बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से 31 पर कब्जा जमा कर आसमान में उड़ रही भाजपा औंधे मुंह आ गिरी है. भाजपा की हार की वजह लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की ताकत से ज्यादा खुद भाजपा की कमजोरी और भीतरघात ही रही. उपचुनाव में भाजपा को 2 सीटों का नुकसान हुआ तो जदयू और कांगे्रस को 1-1 सीट का फायदा मिल गया. राजद को अपनी 1 सीट गंवानी पड़ी.

उपचुनाव के नतीजे से साफ है कि नमो लहर को बिहार के भाजपाई कायम नहीं रख पाए. भाजपा के सुशील मोदी, प्रेम कुमार, अश्विनी चौबे समेत कई नेता अति आत्मविश्वास के सागर में गोते लगाते हुए अगले साल होने वाले बिहार विधानसभा के चुनाव के बाद मुख्यमंत्री बनने की होड़ में लगे रह गए. आम चुनाव के बाद लोगों से कटेकटे और बुझेबुझे से रहने वाले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी पुरानी रौ में आ गए हैं. महागठबंधन को मिली जीत के बाद उन्होंने कहा कि बिहार की जनता ने भाजपा को आईना दिखा दिया है और उन्माद की राजनीति को दरकिनार कर सद्भाव की राजनीति में भरोसा जताया है. वहीं, भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी कहते हैं कि नीतीश कुमार जीत कर भी हार गए हैं. भाजपा के साथ थे तो वे ‘बड़े भाई’ की भूमिका में थे, पर लालू के साथ मिलने से उन्हें ‘छोटे भाई’ का दरजा मिला है.

भाजपा को 2 सीटों का घाटा उठाने के सवाल पर सुशील मोदी कहते हैं कि यह तो नौकआउट मैच था, फाइनल मैच अगले साल होगा. महागठबंधन की जीत ने एक साथ कई लक्ष्यों पर निशाना साधा है. बिहार की सियासत में हाशिए पर पहुंचा दिए गए लालू और नीतीश को नए सिरे से खड़े होने की ताकत और वजह मिल गई है. छपरा, मोहीउद्दीननगर, राजनगर, परबत्ता, जाले और भागलपुर सीट जीत कर महागठबंधन ने संसदीय चुनाव में भाजपा को मिली जीत की छाया और माया से निकलने में कामयाबी हासिल कर ली है.

अब महागठबंधन पूरे उत्साह के साथ एकजुट हो कर बिहार विधानसभा चुनाव की तैयारियों में लग जाएगा और जनता को बता सकेगा कि वही सूबे में सामाजिक न्याय व तरक्की का राज कायम कर सकता है. लालू के ‘मंडल’ के जरिए ‘कमंडल’ को मात देने के नारे में वोटर ने काफी हद तक यकीन किया है और भाजपा के जंगलराज के हौआ को पूरी तरह से तो नहीं पर काफी हद तक जवाब भी दिया है. राजद और जदयू के मिलने से दोनों दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं में जो विरोध की आवाजें उठ रही थीं, वे फिलहाल शत्रुघ्न सिन्हा के अंदाज में ‘खामोश’ हो जाएंगी.

बहरहाल, उपचुनाव के नतीजे भाजपा को चिंतन और मंथन करने की नसीहत देते हैं. नरेंद्र मोदी की हवा को भाजपाइयों की अपनों की ही टांगखिंचाई ने मंद कर दिया है. नमो की आंधी पर सवार हो कर बिहार फतह करने का भाजपाइयों का सपना फिलहाल तो टूटता दिख रहा है.

माधवन की वापसी

दक्षिण भारतीय फिल्मों से बौलीवुड का रुख करना कई बार फायदे का सौदा होता है और कई बार घाटे का. अभिनेता आर माधवन के लिए साउथ से बौलीवुड में आना शुरुआत में तो सार्थक रहा लेकिन बाद में उन्हें काम मिलना कम हो गया. पिछले 2 सालों में उन की कोई भी फिल्म रिलीज नहीं हुई. उन के प्रशंसकों के लिए अब अच्छी खबर है. जल्द ही माधवन एक ऐसी फिल्म में नजर आएंगे जो हिंदी व तमिल दोनों भाषाओं में बन रही है. तमिल में फिल्म का नाम ‘सुत्रू अंतिम राउंड’ और हिंदी में ‘साला खड़ूस’ है.

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