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पालतू का रखें खयाल

दीवाली के दौरान आप का कुत्ता डरा, सहमा, कांपता और भूंकता रह सकता है लेकिन त्योहार की मौजमस्ती के बीच अकसर लोग कुत्तों की परेशानियों को दरकिनार कर देते हैं. हालांकि, यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि कुत्तों और बिल्लियों की सुनने की ताकत ज्यादा होती है, इसलिए हम जिस आवाज को तेज समझते हैं वह उन के लिए और ज्यादा तेज तथा कई बार असहनीय होती है. इस के अलावा, कुत्ते तेज आवाज से होने वाले कंपन के प्रति भी संवेदनशील होते हैं. सो, दीवाली के मौके पर कुत्ते,

बिल्ली जैसे पालतू जानवरों का अतिरिक्त खयाल रखा जाना जरूरी है.

क्या करें

सुनिश्चित करें कि आप का कुत्ता छुटपन में ही सभी से घुलमिल जाए. उसे भिन्न किस्म की आवाजें सुनने दें और अलग अनुभवों से गुजरने दें. हालांकि, कुछ कुत्ते आतिशबाजी से फिर भी डरेंगे. इसलिए यह सुनिश्चित करना उन के मालिकों की जिम्मेदारी है कि वे अपने कुत्ते को इस तरह ट्रेंड करें कि आतिशबाजी के दौरान भी वह अपनेआप को सुरक्षित महसूस करे.

डा. कलाहल्ली उमेश कहते हैं कि दीवाली में आतिशबाजी के शोरशराबे से पालतू जानवर थोड़े सहम जाते हैं. जिस तरह से हम अपने बच्चों को आतिशबाजी या किसी अन्य बदलावों के बारे में बताते हैं, ठीक उसी तरह अपने पालतू जानवरों को भी इन बदलावों के अनुकूल होने में सहायता करने की जरूरत है ताकि वे डरमुक्त हो सकें.

ऐसे करें ट्रेंड

अपने कुत्ते को आतिशबाजी शुरू होने से 1 दिन पहले बाहर घुमाने के लिए ले जाएं. अगर आतिशबाजी चल रही हो तो अपने कुत्ते को घर में रखें. ऐसे समय में कभी भी उसे घुमाने के लिए न ले जाएं और न बाहर रखें. पटाखों के शोर व प्रकाश के प्रभाव से बचने के लिए खिड़कियां और दरवाजे बंद कर परदे लगा दें. ध्यान रहे, अगर इस के बावजूद कमरे में धुआं भर गया हो तो खिड़कीदरवाजे खोल दें. पटाखों की आवाज कम करने के लिए टैलीविजन या रेडियो की आवाज थोड़ी तेज भी कर सकते हैं. साथ ही, कुत्ते का ध्यान भी बंटाए रखें.

अगर आप का कुत्ता डरने जैसा व्यवहार कर रहा हो तो उसे दुलारिए नहीं, क्योंकि इस से उस का यह व्यवहार मजबूत हो सकता है. उस से सामान्य व्यवहार कीजिए, जैसे डरने की कोई बात ही न हो. उसे एक उपयुक्त सुरक्षित जगह दीजिए जहां वह छिप सके और जब वह इस जगह पर जाए तो उसे परेशान नहीं करना चाहिए. आप चाहें तो उस के कान में रुई डालने की आदत भी डाल सकते हैं.

इस के अलावा कुछ लोग अपने पालतू जानवर को शोर के पास जाने के लिए मजबूर करते हैं. शोर डरावना होता है. ऐसा नहीं करना चाहिए. इस से आखिरकार आप अपने कुत्ते को और ज्यादा डरा देंगे. ऐसी स्थिति से बचने के लिए कुत्ता आक्रामक भी हो सकता है.

दीवाली के बाद

दीवाली गुजर जाए तो आतिशबाजी के प्रति अपने कुत्ते की संवेदनशीलता कम करने के बारे में सोचना शुरू कर दें. इस से आप को यह फायदा होगा कि अगली बार वह पटाखों से नहीं डरेगा. आप आतिशबाजी की सीडी या टेप खरीद सकते हैं. शुरू में चलाते समय आवाज काफी कम रखें. यह आप दीवाली से पूर्व भी कर सकते हैं ताकि आप का कुत्ता धीरेधीरे शोरशराबा सुनने का आदी हो जाए.

  1.   आवाज वाली इस सीडी को चलाने के दौरान उसे पेडिग्री खाने जैसी कोई आनंददायक चीज दीजिए या फिर उस के साथ खेलिए. इसे हर दिन, कई बार, कुछ देर के लिए दोहराइए. जब तक आप का कुत्ता कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया न दिखाए, आप धीरेधीरे आवाज बढ़ा सकते हैं. कुछ समय के बाद आप का कुत्ता आवाज को डरावना मानना बंद कर देगा और इसे खानेखेलने जैसे आनंददायक अनुभवों से जोड़ने लगेगा.
  2.    कुछ बेहद गंभीर मामलों में आप के कुत्ते के डाक्टर उसे कुछ दवा देने के लिए कह सकते हैं ताकि आप के कुत्ते का आतिशबाजी से डर खत्म किया जा सके.
  3.     याद रखिए, दवाओं का उपचार सिर्फ डाक्टर की सलाह पर किया जाना चाहिए. हालांकि, यह सिर्फ अस्थायी समाधान है और समस्या को दूर नहीं करेगा. आतिशबाजी के प्रति अपने कुत्ते की संवेदनशीलता को कम करने के लिए विशेषज्ञ की सलाह लेना महत्त्वपूर्ण है.

हरीमिर्च खट्टीमीठी

सामग्री : 10-12 मोटी हरीमिर्चें, 10-12 रसगुल्ले, 1/2 कप ताजा कसा नारियल, 1 बड़ा चम्मच चाट मसाला, थोड़ा सा हरा धनिया, 1 छोटा चम्मच जीरा पाउडर, 1 छोटा चम्मच अमचूर, तलने के लिए तेल, नमक स्वादानुसार.

घोल बनाने के लिए : 1 कप बेसन, 3-4 पीस काजू बर्फी, 1 बड़ा चम्मच तंदूरी मसाला, 1 बड़ा चम्मच चाट मसाला, 1 छोटा चम्मच अमचूर, 1 छोटा चम्मच लालमिर्च कुटी, नमक स्वादानुसार.

विधि : घोल बनाने की सारी सामग्री को एकसाथ मिला कर अच्छी तरह मिक्स करें तथा पानी की सहायता से पकौड़े बनाने जैसा घोल तैयार कर लें. मिर्चों के बीच में चीरा लगाएं. मिर्च की डंडी को न काटें. रसगुल्लों को 2-3 बार अच्छी तरह से घोटेंनिचोड़ें और फिर धो लें. पानी अच्छी तरह निचोड़ कर रसगुल्लों को चूरा कर लें. तेल को छोड़ कर शेष सामग्री इस में मिलाएं तथा इस मिश्रण को मिर्चों में भर लें. तेल गरम करें. एकएक मिर्च को सावधानी से उठाएं, बेसन के घोल में डुबोएं तथा सेव में लपेट कर सुनहरा होने तक तल लें. हरी चटनी के साथ सर्व करें.

थीम पार्टियां : पुरानी यादों को दें नए रंग

एक छोटा सा घर, 4 जोड़ी कपड़े, 2 जोड़ी जूतेचप्पल. न सोफा, न डायनिंग टेबल, न किंगसाइज बैड, न ड्रैसिंग टेबल. रसोई, मौड्युलर तो छोडि़ए, गैस तक नहीं होती थी उस जमाने में. सिगड़ी पर खाना बनता था और पीतल के 5-10 बरतनों से रसोई सजती थी. तब दीवाली आते ही इस का शोर अंदर से उठता था जैसे फूल से परागकण फूट पड़ते हैं. दीवाली आने की खुशी तभी से महसूस होने लगती थी जब घर की सफाई की जाती थी. बस, 1-2 दिन में ही सफाई का काम निबट जाता था.

उस वक्त घर में इतना सामान ही नहीं होता था कि सफाई में ज्यादा दिन लगें. सफाई के बाद कचरे में बच्चों की पुरानी किताबकौपियां, मुड़ातुड़ा तार, एकआधे खेलखिलौने ही निकलते थे. पुराने कपड़ों को भी दीवाली की सफाई के साथ निकाल दिया जाता था. इन सभी को बच्चे बहुत ही शौक से घर निकाला दे देते थे. तभी मेरी कड़कड़ाती आवाज आती. यह सामान फेंक क्यों दिया है? उन सारे सामान का मैं औडिट करता और फिर से कूड़े में फेंका गया सभी सामान वापस घर में जगह पा जाता. बच्चे भुनभुनाते कि पिताजी को कूड़ा समेटने का शौक है. लेकिन जिस सामान को बच्चे कूड़ा समझ कर फेंक देते थे उसे मैं यादों की पोटली में बांध लिया करता था ताकि भविष्य में नई पीढ़ी को पुरानी स्मृतियों का तोहफा दे सकूं.

अपनी बात पूरी होने के साथ ही कानपुर के सत्यप्रकाश गुप्ता अपने घर की ओर इशारा करते हैं. उन के घर जा कर यह समझ पाना मुश्किल हो जाता है कि उन की स्मृतियां हैं या वास्तविकता. जो भी कहिए, इस दीवाली सत्यप्रकाशजी ने अपने बेटे और बहू के लिए पार्टी की यही थीम चुनी है. उन की तरह न जाने कितने मातापिता हैं जो यादों के पुराने पिटारे से निकले सामान को थीम का जामा पहना अपने बच्चों की दीवाली खास बनाएंगे. आइए, जानें कुछ ऐसी थीम जो यादों को ताजा कर देंगी.

दीवाली के खेलखिलौने

मिट्टी के बरतन, दीए और गुजरिया. इन सभी का अपना पारंपरिक महत्त्व है लेकिन बच्चों की नजर में इन खिलौनों की बड़ी अहमियत है. वर्तमान युग में बढ़ती आधुनिकता ने इस अहमियत को कम जरूर कर दिया है लेकिन आज भी जब पुराने समय के इन खिलौनों पर नजर पड़ती है तो बचपन की अठखेलियां याद आ जाती हैं. आप ने यदि इन खिलौनों को सहेज कर रखा है तो इस दीवाली आप इन्हें पार्टी थीम बना सकते हैं.

खिलौनों को घर के सैंटर पाइंट या हर कोने पर डिसप्ले करें. लेकिन काम सिर्फ डिसप्ले करने से नहीं बनेगा. हर खिलौने के साथ ही उस से जुड़ी स्मृतियों को शब्दों में लपेट कर खिलौने के आसपास रख दें. जब आप के बच्चों की नजर उस पर पड़ेगी तो उन की आंखों पर चढ़ी अतीत की धुंधली परत साफ हो जाएगी और उस खिलौने से जुड़ी पुरानी बातें याद कर उन के चेहरे पर जो प्रसन्नता दिखेगी वह आप की दीवाली में और भी उमंग भर देगी. खिलौने के तौर पर जरूरी नहीं कि आप सिर्फ मिट्टी के बरतन और दीयों को ही डिसप्ले करें, आप अपने बच्चों के किसी भी बचपन के खिलौने को इस थीम पार्टी में डिसप्ले कर सकते हैं. हो सकता है कि उन खिलौनों की स्थिति इतनी सुधरी हुई न हो कि उन्हें डिसप्ले किया जाए लेकिन ऐसा न सोचें. आप स्मृति के तौर पर यह भी लिख सकते हैं कि खिलौने की जो दशा है वह हुई कैसे. आप के बच्चे इस थीम पार्र्टी को ऐंजौय करने के साथ ही भूलीबिसरी यादों को भी ताजा कर सकेंगे.

नए फ्रेम में यादें पुरानी

तसवीरें तो हर घर में थोक के भाव होती हैं लेकिन यादगार तसवीरें उन में से चुनिंदा ही होती हैं. ऐसी यादगार तसवीरों को बंद एलबम से बाहर निकालें और नए फ्रेम में मढ़वा के पार्टी थीम बनाएं. इस बेहद दिलचस्प थीम के लिए आप उन तसवीरों का चुनाव करें जो आप के बच्चों के 2 पीढ़ी पहले की हों. ऐसा इसलिए क्योंकि खुद की तसवीरें तो आप के बच्चों ने कई बार देखी होंगी, इसलिए इस दीवाली उन्हें घर के पूर्वजों से मुखातिब होने का मौका दें. खासतौर पर अपनी बहू और दामाद को परिवार के उन सदस्यों से परिचित कराएं जिन्हें न तो उन्होंने कभी देखा और न उन के बारे में सुना. वैसे खाली तसवीर दिखाने से बात नहीं बनेगी. आप तसवीरों के साथ तसवीर में मौजूद प्रत्येक सदस्य की कोई खास बात भी उन्हें जरूर बताएं ताकि वे उन के व्यक्तित्व से भी परिचित हो सकें.

जाहिर है, तसवीरें पुरानी होंगी तो उन की बनावट में कुछ खामी तो आ ही गई होगी. इस के लिए आप चुनी हुई पुरानी तसवीरों को किसी फोटो एडिटर के पास ले जा कर फोटोशौप की मदद से सुधरवा सकते हैं, साथ ही यदि तसवीरें ब्लैक ऐंड व्हाइट हैं तो उन्हें रंगीन करवा सकते हैं या कोई भी स्पैशल इफैक्ट डलवा कर उन की हालत को दुरुस्त करवा सकते हैं. यह सब करवाने में आप का ज्यादा खर्र्चा नहीं आएगा. तसवीरें तैयार हो जाने पर उन्हें सुंदर से फ्रेम में मढ़वा कर घर की दीवारों पर सजा दें.

यादगार कपड़े और गहने

हर मातापिता अपनी संतान के कपड़ों को यादगारस्वरूप एक गठरी में सहेज कर जरूर रखते हैं. आप ने भी जरूर कुछ ऐसे ही कपड़ों को पोटली में बांध कर रखा होगा. अब इस पोटली को खोलने का समय आ गया है. इस दीवाली अपने बच्चों को उन्हीं के पुराने कपड़ों का डिसप्ले कर उन्हें पुरानी यादों में ले जाएं. खासतौर पर उन के बचपन के पसंदीदा कपड़ों का डिसप्ले कर उन्हें उस कपड़े से जुड़ी कोई दिलचस्प कहानी याद दिलवाएं.

इतना ही नहीं, आप अपने पुराने कपड़ों को ड्राईक्लीन या उन का मेकओवर करा कर दीवाली वाले दिन पहनें. आप को पुराने परिधानों में देख कर आप के बच्चों की पुरानी यादें ताजा हो जाएंगी. खासतौर पर महिलाएं पुरानी साडि़यों को संदूक से निकाल कर पहनें, इस के साथ ही यदि आप के पास पुराने जमाने के जेवर हों तो उन्हें भी पहनें. हो सके तो अपनी बहू या बेटी को अपनी कोई पुरानी साड़ी का मेकओवर करा कर दीवाली पर भेंट करें. पुराने कपड़ों को डिसप्ले करने का भी एक खास तरीका है. इस के लिए आप टैडीबियर खरीद लें और उन्हें ये कपड़े पहना कर घर में सजा दें. आप के बच्चे जब अपने बचपन के कपड़ों का इस तरह डिसप्ले देखेंगे तो जिंदगीभर के लिए यह थीम पार्टी उन के मन में बस जाएगी.

रंगोली में भरें उमंग के रंग

पुराने समय में घर को सजाने में सब से महत्त्वपूर्ण योगदान होता था रंगोली का. दीवाली की सुबह ही महिलाएं घर के आंगन और द्वार को रंगोली से सजा देती थीं. आधुनिकता ने जैसेजैसे पैर पसारे, रंगोली की जगह स्टिकर्स ने ले ली. भले ही अब लोग समय की कमी की वजह से रंगोली की जगह रंगोली स्टिकर्स लगा लेते हों लेकिन रंगोली का क्रेज नई पीढ़ी में भी देखने को मिलता है. तो क्यों न आप अपने बच्चों के इस क्रेज को पूरा करने में उन की मदद करें और घरआंगन को रंगोली से सजाएं.

मिठास पुराने पकवानों की

दीवाली आते ही मिठाइयों की दुकानें तरहतरह के पकवानों से सज जाती हैं. समाज में रेडीमेड मिठाई खरीदने का ही फैशन है. पहले ऐसा नहीं होता था. दीवाली के सारे पकवान घर पर ही तैयार किए जाते थे. दीवाली के हफ्तेभर पहले से ही घर की महिलाएं पकवान बनाने में जुट जाती थीं. गुझिया, नमकीन और चाशनी में पगी मिठाइयों का ही दौर था. घर की रसोई से आने वाली पकवानों की खुशबू दीवाली की उमंग को दोगुना कर देती थी. बच्चों की जीभ खूब लपलपाती. वे काम के बहाने रसोई में आते और मां की नजर जरा सी हटती कि मुट्ठी में जो भी आता, ले कर भाग जाते. मां बस, चिल्लाती रह जातीं. तो क्यों न इस दीवाली आप अपने बच्चों को उसी दौर में ले जाएं और सारे पकवान घर पर ही तैयार कर उन्हें पुराना स्वाद याद करवाएं.

खुशियां मनाएं मिलबांट कर

शादी के बाद प्रिया पति के साथ पहली बार दूसरे शहर आई थी. उस के पति का ‘दृष्टि रेजीडैंसी’ में खूबसूरत फ्लैट था. अपने शहर में प्रिया का बड़ा सा परिवार था. त्योहार के दिन सभी एकजुट हो, मिलबांट कर खुशियां मनाते थे. यहां उसे अकेलापन महसूस हो रहा था. जैसेजैसे दीवाली करीब आ रही थी. प्रिया की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे? पति प्रकाश से बात करने पर पता चला कि उस के ज्यादातर दोस्त बाहर के रहने वाले हैं. वे लोग पहले से ही घर जाने का टिकट करा चुके हैं.

कुछ लोग हैं जो उस के फ्लैट से दूर रहते थे. प्रिया ने अपने कौंप्लैक्स में रहने वाले कुछ परिवारों से कम दिनों में अच्छी जानपहचान कर ली थी. उस ने उन सब के साथ मिल कर बात की तो पता चला कि कौंप्लैक्स में कुछ परिवार दीवाली मनाते हैं. वे भी अपने फ्लैट के अंदर ही दीवाली मना लेते हैं. बहुत हुआ तो किसी दोस्त को कुछ उपहार दे कर त्योहार मना लेते हैं. अब प्रिया ने तय कर लिया कि इस बार दीवाली को नए तरह से मनाना है. दृष्टि रेजीडैंसी बहुत ही खूबसूरत जगह पर थी. उस के पास में हराभरा पार्क था. प्रिया ने पार्क की देखभाल करने वाले से कह कर पार्क को साफ करा दिया.

इस के बाद उस ने एक खूबसूरत सा दीवाली कार्ड डिजाइन किया. इस के कुछ प्रिंट लिए और अपने कौंप्लैक्स में रहने वालों के लिए चाय, नमकीन और मिठाई का प्रबंध भी कर लिया था. उस ने दृष्टि रेजीडैंसी के सभी 50 फ्लैट के लोगों को बुलाया था. प्रिया को यकीन था कि ज्यादातर लोग आएंगे. शाम को पति प्रकाश के आने पर उस ने अपना पूरा प्लान उन को बताया. पहले तो प्रकाश को यकीन ही नहीं हुआ, लेकिन सारी तैयारियां देख कर उस का मन खुशी से भर गया. प्रकाश ने प्रिया का हाथ बंटाते हुए खुशियों को बढ़ाने के लिए दीवाली के प्रदूषणमुक्त पटाखे और गीतसंगीत के लिए डीजे का भी इंतजाम कर लिया.

शाम 8 बजे प्रिया और प्रकाश पार्क में सजधज कर पहुंच गए. थोड़ी देर के बाद एकएक कर लोग वहां पहुंचने लगे. ऐसे में दीवाली का एक नया रूप सामने आ गया. देर रात तक पार्टी चलती रही, नाचगाना, मस्ती सब कुछ खास था. बाद में लोगों ने अपने हिसाब से पटाखे और फुलझडि़यां भी चलाईं. सभी लोगों ने इस शानदार आयोजन के लिए प्रिया को दिल से धन्यवाद दिया. प्रिया ने जो शुरुआत की वह हर साल होने लगी. अब इस आयोजन में सभी परिवार मिलजुल कर काम करने लगे. पार्टी में होने वाले खर्च को भी आपस में बांट लिया गया. बहुत लोग जुटे तो पार्टी का अलग ही मजा आने लगा. दीवाली रात का त्योहार है. ऐसे में रोशनी और पटाखों का अपना अलग मजा होता है. मिठाई और नमकीन के साथ ऐसे त्योहार का मजा और भी ज्यादा बढ़ जाता है.

खर्च घटाएं और मजा बढ़ाएं

मिलजुल कर त्योहार मनाने से त्योहार में होने वाला खर्च घटता और मजा बढ़ता है. अपने घरपरिवार से दूर रह कर भी घर जैसे मजे लिए जा सकते हैं. आज के समय में ज्यादातर लोग अपने शहर और घर से दूर कमाई के लिए दूसरे शहरों में रहते हैं. अपने घर जाने के लिए उन को छुट्टी लेनी होती है. कई बार छुट्टियों में घर जाने के लिए रेल, बस और हवाई जहाज के महंगे टिकट लेने पड़ते हैं. मुसीबत उठा कर अपने घर जाना कई बार परेशानी का सबब बन जाता है. ऐसे में त्योहारों के संयुक्तरूप से होने वाले आयोजन अच्छे होते हैं. मिलजुल कर इन का आयोजन करने से सभी लोगों की हर तरह से भागीदारी रहती है. इस से कोई किसी को अपने पर बोझ नहीं समझता है. कम खर्च में अच्छा आयोजन हो जाता है. परिवार के साथ रहने से पति दोस्तों के साथ शराब पीने और जुआ जैसे कृत्य से परहेज करता है.

मिलेगा हर रिश्ता

संयुक्त आयोजन में हर रिश्ता मिलता है. जिस के मातापिता साथ नहीं रहते वे दूसरों के परिवार में रहने वाले मातापिता का साथ पाते हैं. किसी को भाभीभाई, अंकलआंटी, देवरानीजेठानी, बेटाबेटी और बहन जैसे हर रिश्ते अलगअलग परिवारों से मिल जाते हैं. आपस में जो दोस्ती पहले से होती है वह और प्रगाढ़ हो जाती है. त्योहारों के समय रिश्तों के आपस में जुड़ने से केवल खुशियां ही नहीं बांटी जा सकतीं, जरूरत पड़ने पर दुखदर्द भी बांटे जा सकते हैं. धर्म, रूढि़वादिता और कुरीतियां हमें बांटने का काम करते हैं. त्योहारों का लाभ उठा कर इस दूरी को कम किया जा सकता है.

आज एकल परिवारों का दौर है. ऐसे में बच्चों को बहुत सारे रिश्तों और उन की गंभीरता का अंदाजा नहीं होता है. अगर ऐसे आयोजन होते रहेंगे तो एकल परिवार में रहते हुए भी किसी हद तक संयुक्त परिवारों का मजा लिया जा सकता है.

मजेदार होंगे पार्टी गेम्स

संयुक्त आयोजन को मजेदार बनाने के लिए पार्टी गेम्स को भी उस में शामिल कर सकते हैं. ये हर उम्र को ध्यान में रख कर तैयार किए जाने चाहिए. इस से आयोजन में रोचकता बनी रहेगी. लोगों का समय पास होगा. गीतसंगीत का हलकाफुलका आयोजन भी करना चाहिए. इस में पार्टी में शामिल हुए लोगों की हिस्सेदारी होनी चाहिए. हर किसी में कुछ अलग काम करने की प्रतिभा होती है. सब को प्रतिभा के अनुरूप काम देना चाहिए. बच्चों को ऐसे आयोजनों में नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. उन को भी उन की प्रतिभा के अनुसार कुछ काम देना चाहिए. संयुक्त आयोजन होने से दीवाली में पटाखों से होने वाले प्रदूषण को कम किया जा सकता है.

संयुक्त आयोजन होने से त्योहार का मजा दोगुना हो जाता है. सभी धर्मों के बीच रहने वाले लोग भी इस का हिस्सा बन जाते हैं. इस से अलगअलग जगहों की संस्कृति और खानपान का मजा भी लिया जा सकता है. आज जिस तरह से आपस में दूरियां बढ़ रही हैं उसे कम करने का एक बड़ा माध्यम है कि त्योहारों की खुशियां मिलजुल कर मनाएं. केवल रेजीडैंशियल कौंप्लैक्स में ही नहीं, कसबों, महल्लों, शहरों और गांवों में भी दीवाली उत्सव के संयुक्त आयोजन होने चाहिए. इस से समाज में एक नए प्यार और सौहार्द का माहौल बनेगा.

भारत भूमि युगे युगे

उद्धव का दम

अपने सियासी कैरियर के शुरुआती दौर में लड़खड़ाने के बाद शिवसेना प्रमुख बने उद्धव ठाकरे अब पूरे दमखम से ताल ठोकते हुए मैदान में हैं. महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव में उन्हें साबित करना है कि वे बाल ठाकरे से कम नहीं. चौतरफा परेशानियों से जूझ रहे उद्धव ने पहली कामयाबी महायुति के मुद्दे पर पाई तो दूसरी उस से भी ज्यादा अहम थी, अपने चचेरे भाई राज ठाकरे को 5वेंछठे नंबर पर पहुंचाने की. उद्धव महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बनने की अपनी दबी ख्वाहिश भी उजागर कर चुके हैं. इस से शिवसैनिकों में जोश है तो कांग्रेस व एनसीपी चिंतित हैं. वजह, उद्धव का धीरेधीरे बड़ा ब्रैंड बनते जाना है, जिन्हें चुनौती देने के लिए मैदानी नेता किसी दूसरे दल के पास नहीं.

विधवा समस्या

अपने संसदीय क्षेत्र मथुरा गईं सांसद अभिनेत्री हेमा मालिनी विधवाओं की बदहाली देख इतनी व्यथित हो उठीं कि उन्हें खदेड़ने की ही मांग कर डाली. वृंदावन से विधवाओं को हटाने की बात भर कहने से विधवा समस्या हल होने का आसान तरीका कोई और हो भी नहीं सकता. जाने क्यों हेमा मालिनी का ध्यान विधवा जीवन की दुश्वारियों पर नहीं गया और न ही इस तरफ गया कि ये हजारों विधवाएं परिवार और समाज से तिरस्कृत हैं और वृंदावन इन की मंडी बेवजह नहीं है, उन से हजारों पंडों और संस्थाओं के पेट भरते हैं. सफेद लिबास, सूनी मांग और चेहरे की बेबसी देख दक्षिणा और दान बटोरे जाते हैं. यह सच जब उन्हें शुभचिंतकों ने बताया तो उन्होंने माफी भी मांग ली लेकिन वे यह नहीं कह पाईं कि जरूरत भगाने की नहीं, विधवा जीवन की परेशानियों को दूर करने की है.

अब सियासी सैलाब

बाढ़ त्रासदी व सदमे से जम्मूकश्मीर उबर रहा है जो विधानसभा चुनाव में ‘लव जिहाद’ आतंकवाद के बाद एक बड़ा मुद्दा होगा. वहां के बाढ़ पीडि़तों पर हर कोई एहसान रखेगा कि देखो, हम ने तुम्हारे लिए यह और वह किया था इसलिए हमें चुनो. भाजपा इस राज्य के सूखे से नजात पा चुकी है और उम्मीद लगाए बैठी है कि वह खासी यानी सरकार बनाने लायक सीटें बटोर लेगी. उमर अब्दुल्ला दिक्कत में हैं. वजह, वोटों का धु्रवीकरण है. जम्मू से वे नाउम्मीद हो रहे हैं पर यह भी जानते हैं कि अकेले कश्मीर के भरोसे बैठे रहना जोखिम वाला काम है. उधर, भाजपाइयों ने इस सूबे में आंखें गड़ा रखी हैं. कांग्रेस की ताकत पहले सी नहीं रही है. अगर कांग्रेसी वोट भाजपा के खाते में चले गए तो नैशनल कौन्फ्रैंस का नुकसान होगा. फौरीतौर पर उमर को कोई ट्रंप कार्ड खेलना जरूरी हो चला है ताकि कश्मीरियों का झुकाव उन की पार्टी की तरफ बना रहे.

शीला के सपने

राजनीति की यह एक खूबी है कि इस में नाकामयाब लोग कभी हताश नहीं होते. केरल के राज्यपाल के पद से इस्तीफा दे कर वापस दिल्ली आ गईं शीला दीक्षित का बहीखाता बता रहा है कि ‘आप की विदाई नजदीक है और अगर मेहनत की जाए तो उस का अस्थायी वोटबैंक कांग्रेस के खाते में खींचा जा सकता है. लिहाजा, शीला दीक्षित दिल्ली में सक्रिय होने लगी हैं. विधानसभा उपचुनाव नतीजों ने उन्हें और हिम्मत बंधाई है. भाजपाई खेमे की खींचातानी में भी वे अपना फायदा देख रही हैं.

दीवाली में खेलें पर जुआ नहीं

दीवाली की रस्म और शगुन के नाम पर जुआ मध्यमवर्गीय लोगों का ऐसा ऐब है जिस में हर साल लाखों लोग खूनपसीने की गाढ़ी कमाई और बचत का लाखों रुपया दांव पर लगा कर सालभर हाथ मलते, पछताते रहते हैं. दीवाली पर जुए में जीतने को सालभर के लिए अच्छा होने के नाम पर लोग ज्यादा जुआ खेलते हैं. दीवाली पर जुआ खेलने के शौकीनों में यह बदलाव जरूर आया है कि जुए के अड्डे घर न हो कर अब ज्यादातर शहर के बाहर की तरफ के फार्महाउस, महंगे होटलों में बुक कराए गए कमरे और ऐसे दोस्तों के घर होने लगे हैं जिन की पत्नियों या परिवारजनों को जुए से एतराज न हो.

भोपाल के कारोबारी इलाके एमपी नगर में तो छात्रावासों में जम कर जुआ चलता है. दीवाली के दिनों में साफसफाई के नाम पर छात्रों से छात्रावास 3 दिन के लिए खाली करवा लिए जाते हैं और साफसफाई और रंगाईपुताई के साथसाथ ताश के पत्तों से ‘तीन पत्ती’ का खेल दिनरात चलता रहता है. खिलाड़ी आतेजाते रहते हैं, हारने वाला पैसों के इंतजाम के लिए तो जीतने वाला पैसे घर में रखने को चला जाता है.

ऐसे जुटती है महफिल

जुआ खेलने का माहौल यानी योजना दीवाली के 8-10 दिन पहले से बनना शुरू हो जाती है. जो यारदोस्त आने में दिलचस्पी नहीं दिखाते या आनाकानी करते हैं उन्हें यह ताना दिया जाता है, ‘साल में एक दिन तो घर वालों और बीवी से डरना छोड़ो, दीवाली रोजरोज नहीं आती. और खुद कमाते हो, 4-6 हजार रुपए हार भी गए तो कौन से कंगाल हो जाओगे.’ पीने और खाने के सारे इंतजाम दीवाली पूजन के नाम पर हो जाते हैं. इसे धार्मिक फंडा कह कर दीवाली का गैट टू गैदर कहा जाता है. कहा यह भी जाता है कि असली लक्ष्मी देवी तो यहां मिलेंगी, वह भी मुफ्त में. घर में तो कोरी पूजापाठ होती है.

8-10 सालों से हर दीवाली एमपी नगर के एक होस्टल मालिक दोस्त के यहां जुआ खेलने जाने वाले पेशे से सरकारी इंजीनियर देवेश की पत्नी सुनयना का कहना है, ‘‘लाख रोकने पर भी ये नहीं रुकते. इन की हालत, गिड़गिड़ाना और दीगर हरकतें, जिन में खुशामद भी शामिल है, देख हंसी आती है और गुस्सा भी कि कैसे इन्हें रोका जाए.’’

बकौल सुनयना, ‘‘दोनों बेटे भी समझ जाते हैं कि दीवाली की रात आतिशबाजी में पापा का साथ नहीं मिलेगा. लेकिन परेशानी की बात तो यह है कि दीवाली की रात जुआ खेलना बच्चों के लिए कोई हर्ज की बात नहीं होती. अब तो वे भी इंतजार कर रहे हैं कि कब जुआ पार्टियों का बुलावा आए.

कमाते हैं गंवाने को

भोपाल के एक कपड़ा कारोबारी सनत जैन (बदला नाम) का कहना है, ‘‘हर साल मैं कान पकड़ता हूं कि अगली दीवाली कुछ भी हो जाए, जुआ नहीं खेलूंगा लेकिन यारदोस्तों का आग्रह टाल नहीं पाता. मन में कहीं न कहीं खेलने की इच्छा और जीतने का लालच भी होता है.’’ सनत 2 साल पहले जुए की फड़ पर एक दांव में 4 लाख रुपए हारे थे. इस के बाद दूसरे साल, पिछले साल का घाटा पूरा करने के लिए फड़ पर गए तो महज 60 हजार रुपए जीते.

‘‘4 लाख की हार के बाद मैं कई दिन डिप्रैशन में रहा. कारोबार में लगाता तो 4 के 40 लाख कर लेता,’’ दूसरे साल आतेआते पिछले सबक को भूल गया और जब 60 हजार रुपए जीता तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा. यानी बात रकम की न हो कर जीतहार की मानसिकता की थी.’’

एक जुआ और सैकड़ों नुकसान

जुए का फायदा तो कोई नहीं, नुकसान दर्जनों हैं जिन्हें ये मौसमी जुआरी जानबूझ कर नजरअंदाज करते हैं.

ज्यादती अपनों से : दीवाली का रोशन त्योहार अपनों के साथ मनाने का मजा ही अलग है जब आप बगैर किसी तनाव और दबाव के उन लोगों के साथ होते हैं जिन के लिए आप और जो आप के लिए हैं. उस वक्त दोस्तों और परिचितों, जो दरअसल जुआरी होते हैं, के साथ चले जाना वह भी फड़ में, अपनों से ज्यादती करना नहीं तो क्या है.

सेहत से खिलवाड़ : घंटों दांवचालों में उलझे रह कर स्वास्थ्य बिगाड़ना बेवकूफी है. जुआ तनाव वाला खेल है क्योंकि आप का पैसा दांव पर लगा रहता है. हर चाल आप का ब्लडप्रैशर बढ़ातीगिराती है. स्ट्रैस होता है जिस से डायबिटीज के मरीजों को खासी दिक्कत उठानी पड़ती है. घंटों जागना बीमारियों को बुलावा देना है. लगातार बैठे रहने से एसिडिटी और कब्ज की परेशानी आम बात है. हारे तो डिप्रैशन व ग्लानि तय है, जीते तो किसी बीमारी में फायदा नहीं होता उलटे जीत का पैसा उलटेसीधे कामों में ही खर्च हो जाता है क्योंकि वह मेहनत का नहीं होता. कमा कर लाने और जीत कर लाने में काफी फर्क होता है.

ठगी : सालभर संभल कर चलने वाले आप जुए में अकसर ठगी का शिकार होते हैं. हर फड़ पर चुनिंदा 2-3 लोग ही जीतते हैं क्योंकि वे जुए के माहिर खिलाड़ी और पत्ते लगाने वाले होते हैं, खासतौर से फ्लैश में, इसीलिए इसे कला माना और कहा गया है. आप कुछ अच्छा होने की उम्मीद में खेलते हैं और वे पैसा कमाने में चालाकी का सहारा लेते आप की जेब का पैसा खींचते हैं. जुए को बेईमानी, झूठ और धोखे का दूसरा नाम यों ही नहीं कहा जाता.

अंधविश्वास : पेशेवर सटोरियों की तरह हर चाल पर आप भगवान का नाम और टोटकों का सहारा लेते नजर आते हैं जो मन और आत्मविश्वास को कमजोर करने वाली बातें हैं. इस से व्यक्तित्व का आकर्षक और आत्मविश्वासी पहलू दबता है. हे भगवान, इस दफा जीत जाऊं तो यह करूंगा, वह करूंगा जैसी बातें सोचते रहना बुद्धि व विवेक को भ्रष्ट ही करना है.

दांव पर प्रतिष्ठा : आप को यह एहसास हर पल रहता है कि आप एक गैरकानूनी काम में लिप्त हैं जिस मेें अगर पकड़े गए तो इज्जत का कचरा होना तय है. बदनामी होगी, घर वाले शर्मिंदा होंगे. इस से साफ है कि आप अपनी प्रतिष्ठा के प्रति गंभीर नहीं हैं, वह भी एक ऐसे काम के लिए जिस से कुछ मिलना नहीं.

गलत काम के लिए तर्क : दीवाली पर जुआ खेलने के लिए आप खुद के बचाव में जो दलीलें देते हैं वे कितनी खोखली हैं, यह आप भी बेहतर जानते हैं पर खुद को सही ठहराने के लिए उन का सहारा ले कर एक गलत प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं.

दूसरे ऐब : जुए की फड़ पर 80 फीसदी लोग लगातार धूम्रपान करते हैं जबकि 50 फीसदी शराब भी पीते हैं यानी तिहरा नुकसान होता है. जिन ऐबों से सालभर खुद को आप बचा कर रखते हैं, एक झटके में उन की गिरफ्त में आ कर कौन साबुद्धिमानी का काम करते हैं?

शान नहीं शर्म : अकसर जुआ खेलने वाले दीवाली के जुए  को शान और शगुन की बात करते सालभर पैसा आनेजाने का पैमाना मानते हैं. इस के पीछे कोई तर्क नहीं है. यह शान की नहीं, शर्म की बात है. महाभारत का जुआ मिसाल है कि कैसे युधिष्ठिर ने राजपाट, भाइयों और पत्नी तक को दांव पर लगा कर गंवा दिया था.

महिलाएं भी पीछे नहीं

दीवाली के जुए को ले कर जमाना बहुत बदल रहा है. वह दौर खात्मे की तरफ है जिस में पत्नी अपने पति को फड़ में जाने से रोकने को उस के सामने गिड़गिड़ाती थी. अब उल्टा होने लगा है. पत्नियां पतियों के साथ जाने लगी हैं और पतियों के दोस्तों की पत्नियों के साथ अलग समानांतर फड़ लगाने लगी हैं. यानी जमाना फैमिली गैंबलिंग का है.

नए कपल्स में दीवाली पर जुआ खेलने के बढ़ते रुझान पर चिंता जताती एक वरिष्ठ ब्यूटीशियन का कहना है कि ये कपल्स प्रतिभावान और पैसे वाले हैं पर गंभीर और उत्तरदायित्व उठाने वाले नहीं हैं. चूंकि ये ज्यादा कमाते हैं इसलिए 50 हजार या 1 लाख रुपए तक का जुआ इन के लिए वक्त काटने का जरिया है. ऐसे नए कपल्स बचत में पिछड़ जाते हैं और कैरियर में भी मात खाते हैं. दिक्कत यह है कि एकल परिवारों के दौर और चलन में इन्हें रोकने वाला कोई नहीं होता यानी टूटती और बदलती पारिवारिक व्यवस्था भी जुए की लत को बढ़ावा देने की जिम्मेदार है. ऐसी पार्टियां अकसर बड़े बंगलों, फ्लैट्स में दीवाली पर रातभर चलती हैं जिन में पतिपत्नी दोनों जुआ खेलते हैं. यह दरअसल अभिजात्य व उच्चवर्ग की नकल करने की नादानी और कुंठा है.

हाई सोसायटी में महिलाओं का जुआ खेलना आम है पर यह संक्रमण तेजी से मध्यवर्ग में फैलना चिंता की बात है. साल में एकाध दिन खासतौर से दीवाली पर जुआ खेलना हर्ज की बात नहीं होती, यह सोच इस वर्ग को आर्थिक व मानसिक तौर पर खोखला कर रही है. 2 साल पहले मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर के एक मकान में संभ्रांत परिवार की 8 महिलाएं जुआ खेलते रंगेहाथों पकड़ी गई थीं, जो खासतौर से इंदौर से टैक्सी कर के आती थीं. इस से सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि जुए की लत कितनी खतरनाक होती जा रही है. पत्नियों को जुआ खिलाने और सिखाने के सब से बड़े गुनाहगार उन के पति हैं जो खुद की लत पूरी करने के लिए ऐसा करते हैं.

जुए का शब्दकोश

ताश के 52 पत्तों से सैकड़ों तरह से जुआ खेला जाता है लेकिन इन में सब से ज्यादा लोकप्रिय और चलन वाला खेल फ्लैश यानी ‘तीन पत्ती’ का है. इस के बाद ‘मांग’ या ‘खींच पत्ती’ ज्यादा खेला जाता है जिस में खिलाड़ी के पास उस का मनचाहा कार्ड आ जाए तो सारा पैसा उस का हो जाता है वरना जितनी रकम वह दांव पर लगाता है वह किसी दूसरे खिलाड़ी की हो जाती है.

तीसरे नंबर पर ‘रमी’ है, जिसे आजकल इंटरनैट पर औनलाइन लाखों लोग खेलते हैं. उस का इश्तिहार भी फेसबुक जैसी सोशल साइट्स पर यह कहते लोग कर रहे हैं कि देखो, मैं ने एक झटके में इतने हजार या इतने लाख रुपए जीते. यह जुए का प्रचार नहीं तो क्या है. ‘किटी’ चौथे नंबर पर खेला जाने वाला जुआ है जिसे महिलाएं भी किटी पार्टी में खेलती हैं. फ्लैश पूरी तरह कथित भाग्य वाला खेल होता है, इसलिए ज्यादा चलता है. रमी और किटी में थोड़ा दिमाग लगाना पड़ता है, इसलिए वे कम लोकप्रिय हैं.

किसी फड़ पर जाएं तो वहां चाल के दौरान पिनड्रौप साइलैंस रहती है. सारे खिलाड़ी सांस रोके देखते रहते हैं कि कौन बाजी मारेगा, किस के पास बड़ी पत्ती है और कौन ब्लफ मार रहा है, कौन शो कराएगा. शो कराना अकसर नए खिलाडि़यों को हेठी की बात लगती है, इसलिए वे हारते भी खूब हैं. पेशेवर और आदतन खिलाड़ी बेहद सधे ढंग से जुआ खेलते हैं. वे पहले शिकारों को वैसे ही 2-4 चाल जानबूझ कर जिताते हैं जैसे पिता अपने बच्चों को जिताता है. इस से नए या शौकिया खिलाड़ी के जोखिम उठाने की हिम्मत बढ़ती है और वह ज्यादा पैसा दांव पर लगाने लगता है. जुए के इस मनोविज्ञान के जानकार पुराने खिलाड़ी खूब फायदा उठाते हैं.

एक ख्यात उपन्यासकार ने अपने उपन्यास में एक जगह जुए की फड़ का दिलचस्प और सटीक वर्णन किया है. उस में बताया गया है कि कैसे खिलाड़ी पूरे आत्मविश्वास से ब्लफ मारते हैं, सूद पर पैसा देने वाले यानी फाइनैंसर भी फड़ पर मौजूद रहते हैं और कैसेकैसे इस में बेईमानियां होती हैं. पत्ते लगा कर खेलने वाले अकसर ब्लाइंड ज्यादा खेलते हैं और कवर या काउंटर करते हैं जिस में पत्ते देखने वाले को 3 गुना ज्यादा रकम देनी पड़ती है. उसे हैरानी तब होती है जब काउंटर करने वाले के पास उस से बड़े पत्ते निकलते हैं.

नतीजतन, नए खिलाड़ी लंबी रकम हार जाते हैं और पत्तों व समय को कोसते रहते हैं जबकि हकीकत कुछ और होती है.

जुए का उद्भव हैं धर्मग्रंथ

धार्मिक रचनाकार और टीकाकार कितने चालाक थे इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने जुए को इफरात से महिमामंडित करते इसे सीधे भाग्य से जोड़ दिया. महाभारत का अहम किरदार युधिष्ठिर, जिस ने जुए की लत में राजपाट, पत्नी और भाइयों तक को दांव पर लगा दिया, उसे धर्मराज का खिताब क्यों दिया गया, तय है इसलिए कि कहीं सचमुच लोग जुए को ऐब न मानने लगें. धर्म की बुनियाद भाग्यवाद है, इसलिए हारजीत को इस से जोड़ दिया गया. वैसे भी कोई धर्म खुल कर यह नहीं कहता कि जुआ खेलना पाप है. आज की भाषा में देखें तो जुए को चांस की बात बताया गया है. दुर्योधन का भाग्य अच्छा था, सितारे उस के साथ थे या उस का मामा शकुनि जैसा बेईमान व्यक्ति था इसलिए वह जीता. इन दोनों में से सच क्या है, यह आज तक कोई तय नहीं कर पाया. उल्टे समाज की दिशा तय करने वाला बुद्धिजीवी वर्ग इस बात पर लोगों को उलझाने के लिए बहस करता रहता है कि क्या युधिष्ठिर को यह हक था कि वह खुद को हारने के बाद पत्नी और भाइयों को दांव पर लगाता? लोग भी चटखारे लेले कर इस धार्मिक बहस में अपनी राय देते खुद को विद्वान की जमात में शुमार समझ खुश हो लेते हैं.

हिंदुओं के आदि भगवान शंकर भी अपनी पत्नी पार्वती के साथ जुआ खेलते थे. यह प्रसंग शिवपार्वती पर बने कई धारावाहिकों में कई चैनलों पर दिखाया गया है. सार यह है कि जुए की मूल भावना भी धर्मग्रंथ है पर कोई धर्मगुरु अपने प्रवचनों में इस से दूर रहने की बात नहीं कहता, उल्टे बातबात पर जिंदगी को भाग्यप्रधान बताया जाता है जिस से जुए की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन ही मिलता है.

जुए को प्रचलित करने में कौटिल्य का भी बड़ा हाथ रहा जिस का अर्थशास्त्र और दूसरा साहित्य ब्राह्मण महिमा से भरा पड़ा है. कौटिल्य ने साफ कहा है कि जुआ खेलने वालों से शासक को शुल्क लेना चाहिए जिस से राजस्व बढ़े यानी लाइसैंस देने की खुली वकालत की गई है. उस ने तो यहां तक कहा है कि कैसीनो की तर्ज पर जुआ सामग्री भी शासन द्वारा नियुक्त अधिकारी यानी द्यूताध्यक्ष जुआरियों को उपलब्ध कराए.

मध्य काल तक पांसे चलन में आ गए थे और जुए को द्यूतक्रीड़ा कहा जाने लगा था. वैदिक काल में जुए को अक्षक्रीड़ा और अक्षद्यूत कहा जाता था. और माहिर जुआरी को अक्षकितब कहा जाता था. उस समय में जुआरी को कितब संबोधन दिया गया था. इस से साबित यही होता है कि जुए का उद्भव धर्म ही है. ऋग्वेद की एक ऋचा (10.34.13) में भी जुए का स्पष्ट उल्लेख है. आज ब्लाइंड, शो, काउंटर और पैक जुए के प्रचलित शब्द हैं स्मृति ग्रंथों में तो जुआ खेलने के नियम व निर्देश भी उल्लिखित हैं.

बात सिर्फ हिंदू धर्मग्रंथों की नहीं है, बाइबिल और  बौद्ध ग्रंथों में भी जुए का उल्लेख यानी प्रोत्साहन है. ये सभी एकमत हो कर जुए का सांकेतिक विरोध तो करते हैं लेकिन इसे भाग्य की बात भी बताते हैं जो धर्म की दुकानदारी का एक बड़ा जरिया रहा है.

शेयर बाजार का जुआ

शेयर बाजार में जुआ खेलने से तात्पर्य है कि जो पैसा आप लगा रहे हैं उस की वापसी की गारंटी नहीं है. वह पैसा डूब सकता है या फिर आप को रातोंरात मालामाल भी बना सकता है. ताश के पत्तों से जुआ खेलने पर भी यही होता है. क्रिकेट में सट्टा लगाने पर भी यही होता है. इन में से जहां भी पैसा लगाया जाता है वह जोखिम भरा है और ज्यादा कमाने के लालच में जुआरी यह जोखिम बारबार उठाता है. पहले सरकार लौटरी का कारोबार करती थी, उस में बड़ा फायदा था. शराब की दुकान चला कर जैसा अनापशनाप राजस्व सरकार हासिल करती है, लौटरियों के जरिए भी उस की अंधाधुंध कमाई हो रही थी. इस जोखिम ने कई लोगों की जान ली तो सरकार पर दबाव आया और उस ने इस ‘जुआघर’ को बंद कर दिया. सरकार की यह दुकान बंद हुई यानी लौटरी प्रतिबंधित हो गई और अब ऐसा करना अपराध बन गया.

शेयर बाजार में पैसा लगाना भी एक तरह का जुआ है और इस जुए को खेल कर बरबाद हुए कई लोगों ने आत्महत्या कर ली और कई लोग बरबादी का जीवन जी रहे हैं. हर्षद मेहता जैसे कांड के कारण कई लोग रातोंरात कुबेर भी बन गए. स्वयं सरकार इस जुए के बल पर खासा राजस्व अर्जित कर रही है. चूंकि यह काम सरकार द्वारा प्रायोजित है इसलिए यह जुआ नहीं है लेकिन कोई निजी स्तर पर अथवा संगठित हो कर इस तरह का जुआघर चलाता है तो उस के लिए जेल आशियाना बन जाता है.

इस का मतलब यह हुआ कि सरकार अपने फायदे के लिए अवैध मुद्दों को वैध बनाती है. यह एक तरह की तानाशाही है और लोकतंत्र में इस तरह की तानाशाही अनुचित है. संसद में ही देखिए, अपने वेतनभत्ते व दूसरे फायदों के लिए सभी दलों के सांसद एकजुट हो कर उसे तत्काल कानूनी जामा पहना देते हैं लेकिन भ्रष्टाचार रोकने के लिए लोकपाल कानून बनाने पर जद्दोजहद होती है, महिला आरक्षण विधेयक वर्षों से लंबित पड़ा है, उसे पारित करने के लिए वे एकजुट नहीं होते हैं.

दीवाली पर्व पर देशभर में जुआ खेलने के अपराध में कई लोग पकड़े जाते हैं. कुछ लोगों की मान्यता है कि लक्ष्मीपूजन के इस दिन जुआ खेलने से पूरे साल धनवर्षा होती है. सरकार भी कहीं न कहीं इसी मान्यता की शिकार है. दीवाली के दिन जब पूरे मुल्क में अवकाश होता है तो बौम्बे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई उस दिन रुलाता है. शेयर बाजार का कारोबार महज 2 घंटे ही चलता है, लेकिन कारोबार होता है. 2 घंटे के इस कारोबार को ‘मुहूर्त कारोबार’ कहा जाता है. बीएसई अगर अन्य दिनों यानी स्वतंत्रतादिवस अथवा गणतंत्रदिवस, ईद या रामनवमी पर भी इस तरह का मुहूर्त कारोबार करे तो कह सकते हैं कि वह लक्ष्मीपूजा पर जुआ खेलने की परंपरा को नहीं मानता है लेकिन यह मुहूर्त सिर्फ दीवाली पर ही होता है.

मुहूर्त का मतलब है दिनरात का 30वां भाग जिसे शास्त्रों में शुभकाल कहा जाता है. इस घड़ी में काम करने को शुभ माना जाता है. यह घड़ी दीवाली पर आती है. इस का सीधा मतलब है कि सरकारी स्तर पर भी जुआ खेला जाता है और सरकार की अनुमति से चल रहे इस तरह के जुआघर कानून की परिधि के दायरे में नहीं हैं.

मृणाल कुलकर्णी से बातचीत

15 वर्ष की उम्र से अभिनय के क्षेत्र में कदम रखने वाली अभिनेत्री मृणाल कुलकर्णी ने हिंदी और मराठी धारावाहिकों व फिल्मों में काम कर अपनी अलग पहचान बनाई है. स्वभाव से नम्र, हंसमुख और मृदुभाषी मृणाल ने मराठी फिल्म ‘रमा माधव’ में पहली बार निर्देशन कर काफी प्रशंसा बटोरी है. वे हिंदी फिल्म का भी निर्देशन करना चाहती हैं. उन्हें हर वह फिल्म अच्छी लगती है जिसे करने में उन्हें अलग अनुभव हो. उन से मिल कर बात करना दिलचस्प था, पेश हैं खास अंश :

दीवाली आप कैसे मनाती हैं?

महाराष्ट्र में दीवाली 5 दिनों की होती है. मराठी संस्कृति में दीवाली जोरशोर से मनाई जाती है. मैं हर दिन को अपने परिवार के साथ मनाना चाहती हूं. बचपन में जब मैं पुणे में थी तो दीवाली की रौनक 1 महीने पहले से दिखाई पड़ती थी. मेरी मां घर की साजसज्जा के अलावा मिठाइयां भी बनाती थीं. नए कपड़े पहनना, उस की तैयारियां करना सबकुछ बड़ा ही अलग हुआ करता था, अब मुंबई में काम करते हुए दीवाली कम मना पाती हूं. कई बार शूटिंग के लिए बाहर जाना पड़ता है पर इस बार मुझे थोड़ा समय मिलेगा क्योंकि फिल्म ‘रमा माधव’ के बाद थोड़े दिनों का बे्रक लिया है और अपने परिवारजनों के साथ दीवाली मनाना चाहती हूं.

दीवाली में सब से अच्छा क्या लगता है?

आपसी मेलमिलाप. पहली बात तो यह है कि आजकल हम काम में इतने व्यस्त रहते हैं कि एकदूसरे को मेल, मैसेज या वाट्सऐप पर याद करते हैं. इसी बहाने हम समय निकाल कर एकदूसरे की खुशियों में शामिल होते हैं. जब हम काम करते हैं, परिवार के लिए वक्त नहीं होता. दीवाली में हमें जाना जरूरी होता है. इस के अलावा दीवाली के पटाखे बहुत अच्छे लगते हैं.

कितना पहले से तैयारियां करती हैं?

मुंबई में अधिक तैयारियां नहीं करती, पुणे में मेरे घर पर महीनों पहले से दीवाली की सजावट, सफाई, रंगरोगन शुरू हो जाता था. मैं हमेशा अपने घर की सजावट के लिए खूब सारे फूल, डैकोरेटिव पीस आदि इस्तेमाल करती हूं जिस से घर आम दिनों से अलग दिखे. ये सारी वस्तुएं मैं समयसमय पर खरीदती रहती हूं. इस के अलावा दोस्तों और परिवारजनों को बुलाती हूं.

दीवाली की कौन सी बात आप को पसंद नहीं?

दीवाली में पौल्यूशन बढ़ता है जिस से कई लोगों  की सांस की बीमारी बढ़ जाती है. यह मुझे अच्छा नहीं लगता. त्योहारों को खुशी से मनाना चाहिए. मैं इन 5 दिनों की दीवाली में अपनी खुशी को खोजती रहती हूं.

किस तरह के परिधान पहनती हैं?

मुझे साड़ी सब से अधिक पसंद है इसलिए दीवाली के सभी दिन मैं सिल्क की अलगअलग साडि़यां पहनती हूं. महाराष्ट्र की पैठनी सिल्क मुझे बहुत पसंद है.

दीवाली के बाद की थकान को कैसे दूर करती हैं?

थकान नहीं होती बल्कि आगे काम करने की इच्छा बढ़ती है. आजकल फोन के द्वारा सबकुछ मंगवाया जा सकता है. परिवारजन और दोस्त जब मिलते हैं तो खुशी बढ़ती है.

औस्कर जाएगी लायर्स डाइस

हिंदी फिल्म ‘लायर्स डाइस’ को इस बार भारत की ओर से औस्कर में भेजा जा रहा है. इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ विदेशी फिल्म की कैटेगिरी के तहत भेजा जाएगा. गौरतलब है कि नवाजुद्दीन सिद्दीकी और गीतांजलि थापा अभिनीत इस फिल्म को भले ही कमर्शियल सफलता न मिली हो लेकिन अवार्ड कई मिले. मसलन सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार गीताजंलि को मिला था.

यह फिल्म मलयालम अभिनेत्री गीतू मोहनदास ने निर्देशित की है. कहानी एक महिला आदिवासी की है जो अपने पति की तलाश में भटकती है. ‘लायर्स डाइस’ को फिल्म फैडरेशन औफ इंडिया (एफएफआई) द्वारा नियुक्त 12 सदस्यीय निर्णायक मंडल ने 30 फिल्मोें में से चुना है. वैसे भारत की ओर से औस्कर के लिए फिल्म तो हर बार भेजी जाती है लेकिन हाथ केवल निराशा ही लगती है.

स्मार्ट सिटी की परिकल्पना

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 100 शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने की परिकल्पना ने देश की बड़ी आबादी के भीतर हलचल तो पैदा की ही है, साथ ही वालमार्ट जैसी बहुराष्ट्रीय खुदरा कंपनियों में भी खासा आकर्षण उत्पन्न कर दिया है. इन कंपनियों ने अपने अनुमान के आधार पर स्मार्ट सिटी की संभावित जगहों पर निवेश का जुआ खेलने की रणनीति पर भी काम शुरू कर दिया है. स्मार्ट सिटी में सबकुछ स्मार्ट होने की परिकल्पना समाहित है. इन शहरों का जीवनस्तर अन्य शहरों की तुलना में ऊंचा होगा. वहां नागरिक समस्याएं नहीं होंगी और जो भी दिक्कत उत्पन्न होगी, चंद घंटों के भीतर उन का समाधान सुनिश्चित होगा.

केंद्र सरकार राज्यों के सहयोग और जनभागीदारी के सहारे मोदी के इस सपने को साकार करना चाहती है. इस के लिए विभिन्न स्तर पर काम चल रहा है. शहरों के चयन को ले कर अनुमान लगाए जा रहे हैं और इसी परिकल्पना में कई कसबों और शहरों में जमीन की कीमत अचानक घटबढ़ रही है. सांसद, मंत्री अपने क्षेत्र में स्मार्ट शहर स्थापित करने के लिए लामबंदी कर रहे हैं.

शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू ने इस बारे में आयोजित एक राष्ट्रीय सम्मेलन में यह बात स्वीकार भी की है. कोई जनप्रतिनिधि अपने क्षेत्र में किसी शहर या कसबे को स्मार्ट बनाने की बात करता है तो वहां जमीन के दाम रातोंरात बढ़ रहे हैं. यहां तक कि कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ा कर कुछ शहरों के स्मार्ट सिटी बनने का अनुमान लगाते हुए वहां निवेश करने की योजना बना ली है. किस शहर, कसबे या गांव का ढांचागत विकास कर के उसे स्मार्ट सिटी के रूप में विकसित किया जाएगा, यह भविष्य की कोख में है लेकिन इसे ले कर जो ख्वाब है वह करोड़ों लोगों की धड़कनें बढ़ा रहा है और रहस्य बन कर अच्छेअच्छों को छल रहा है.

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