दीवाली की रस्म और शगुन के नाम पर जुआ मध्यमवर्गीय लोगों का ऐसा ऐब है जिस में हर साल लाखों लोग खूनपसीने की गाढ़ी कमाई और बचत का लाखों रुपया दांव पर लगा कर सालभर हाथ मलते, पछताते रहते हैं. दीवाली पर जुए में जीतने को सालभर के लिए अच्छा होने के नाम पर लोग ज्यादा जुआ खेलते हैं. दीवाली पर जुआ खेलने के शौकीनों में यह बदलाव जरूर आया है कि जुए के अड्डे घर न हो कर अब ज्यादातर शहर के बाहर की तरफ के फार्महाउस, महंगे होटलों में बुक कराए गए कमरे और ऐसे दोस्तों के घर होने लगे हैं जिन की पत्नियों या परिवारजनों को जुए से एतराज न हो.

भोपाल के कारोबारी इलाके एमपी नगर में तो छात्रावासों में जम कर जुआ चलता है. दीवाली के दिनों में साफसफाई के नाम पर छात्रों से छात्रावास 3 दिन के लिए खाली करवा लिए जाते हैं और साफसफाई और रंगाईपुताई के साथसाथ ताश के पत्तों से ‘तीन पत्ती’ का खेल दिनरात चलता रहता है. खिलाड़ी आतेजाते रहते हैं, हारने वाला पैसों के इंतजाम के लिए तो जीतने वाला पैसे घर में रखने को चला जाता है.

ऐसे जुटती है महफिल

जुआ खेलने का माहौल यानी योजना दीवाली के 8-10 दिन पहले से बनना शुरू हो जाती है. जो यारदोस्त आने में दिलचस्पी नहीं दिखाते या आनाकानी करते हैं उन्हें यह ताना दिया जाता है, ‘साल में एक दिन तो घर वालों और बीवी से डरना छोड़ो, दीवाली रोजरोज नहीं आती. और खुद कमाते हो, 4-6 हजार रुपए हार भी गए तो कौन से कंगाल हो जाओगे.’ पीने और खाने के सारे इंतजाम दीवाली पूजन के नाम पर हो जाते हैं. इसे धार्मिक फंडा कह कर दीवाली का गैट टू गैदर कहा जाता है. कहा यह भी जाता है कि असली लक्ष्मी देवी तो यहां मिलेंगी, वह भी मुफ्त में. घर में तो कोरी पूजापाठ होती है.

8-10 सालों से हर दीवाली एमपी नगर के एक होस्टल मालिक दोस्त के यहां जुआ खेलने जाने वाले पेशे से सरकारी इंजीनियर देवेश की पत्नी सुनयना का कहना है, ‘‘लाख रोकने पर भी ये नहीं रुकते. इन की हालत, गिड़गिड़ाना और दीगर हरकतें, जिन में खुशामद भी शामिल है, देख हंसी आती है और गुस्सा भी कि कैसे इन्हें रोका जाए.’’

बकौल सुनयना, ‘‘दोनों बेटे भी समझ जाते हैं कि दीवाली की रात आतिशबाजी में पापा का साथ नहीं मिलेगा. लेकिन परेशानी की बात तो यह है कि दीवाली की रात जुआ खेलना बच्चों के लिए कोई हर्ज की बात नहीं होती. अब तो वे भी इंतजार कर रहे हैं कि कब जुआ पार्टियों का बुलावा आए.

कमाते हैं गंवाने को

भोपाल के एक कपड़ा कारोबारी सनत जैन (बदला नाम) का कहना है, ‘‘हर साल मैं कान पकड़ता हूं कि अगली दीवाली कुछ भी हो जाए, जुआ नहीं खेलूंगा लेकिन यारदोस्तों का आग्रह टाल नहीं पाता. मन में कहीं न कहीं खेलने की इच्छा और जीतने का लालच भी होता है.’’ सनत 2 साल पहले जुए की फड़ पर एक दांव में 4 लाख रुपए हारे थे. इस के बाद दूसरे साल, पिछले साल का घाटा पूरा करने के लिए फड़ पर गए तो महज 60 हजार रुपए जीते.

‘‘4 लाख की हार के बाद मैं कई दिन डिप्रैशन में रहा. कारोबार में लगाता तो 4 के 40 लाख कर लेता,’’ दूसरे साल आतेआते पिछले सबक को भूल गया और जब 60 हजार रुपए जीता तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा. यानी बात रकम की न हो कर जीतहार की मानसिकता की थी.’’

एक जुआ और सैकड़ों नुकसान

जुए का फायदा तो कोई नहीं, नुकसान दर्जनों हैं जिन्हें ये मौसमी जुआरी जानबूझ कर नजरअंदाज करते हैं.

ज्यादती अपनों से : दीवाली का रोशन त्योहार अपनों के साथ मनाने का मजा ही अलग है जब आप बगैर किसी तनाव और दबाव के उन लोगों के साथ होते हैं जिन के लिए आप और जो आप के लिए हैं. उस वक्त दोस्तों और परिचितों, जो दरअसल जुआरी होते हैं, के साथ चले जाना वह भी फड़ में, अपनों से ज्यादती करना नहीं तो क्या है.

सेहत से खिलवाड़ : घंटों दांवचालों में उलझे रह कर स्वास्थ्य बिगाड़ना बेवकूफी है. जुआ तनाव वाला खेल है क्योंकि आप का पैसा दांव पर लगा रहता है. हर चाल आप का ब्लडप्रैशर बढ़ातीगिराती है. स्ट्रैस होता है जिस से डायबिटीज के मरीजों को खासी दिक्कत उठानी पड़ती है. घंटों जागना बीमारियों को बुलावा देना है. लगातार बैठे रहने से एसिडिटी और कब्ज की परेशानी आम बात है. हारे तो डिप्रैशन व ग्लानि तय है, जीते तो किसी बीमारी में फायदा नहीं होता उलटे जीत का पैसा उलटेसीधे कामों में ही खर्च हो जाता है क्योंकि वह मेहनत का नहीं होता. कमा कर लाने और जीत कर लाने में काफी फर्क होता है.

ठगी : सालभर संभल कर चलने वाले आप जुए में अकसर ठगी का शिकार होते हैं. हर फड़ पर चुनिंदा 2-3 लोग ही जीतते हैं क्योंकि वे जुए के माहिर खिलाड़ी और पत्ते लगाने वाले होते हैं, खासतौर से फ्लैश में, इसीलिए इसे कला माना और कहा गया है. आप कुछ अच्छा होने की उम्मीद में खेलते हैं और वे पैसा कमाने में चालाकी का सहारा लेते आप की जेब का पैसा खींचते हैं. जुए को बेईमानी, झूठ और धोखे का दूसरा नाम यों ही नहीं कहा जाता.

अंधविश्वास : पेशेवर सटोरियों की तरह हर चाल पर आप भगवान का नाम और टोटकों का सहारा लेते नजर आते हैं जो मन और आत्मविश्वास को कमजोर करने वाली बातें हैं. इस से व्यक्तित्व का आकर्षक और आत्मविश्वासी पहलू दबता है. हे भगवान, इस दफा जीत जाऊं तो यह करूंगा, वह करूंगा जैसी बातें सोचते रहना बुद्धि व विवेक को भ्रष्ट ही करना है.

दांव पर प्रतिष्ठा : आप को यह एहसास हर पल रहता है कि आप एक गैरकानूनी काम में लिप्त हैं जिस मेें अगर पकड़े गए तो इज्जत का कचरा होना तय है. बदनामी होगी, घर वाले शर्मिंदा होंगे. इस से साफ है कि आप अपनी प्रतिष्ठा के प्रति गंभीर नहीं हैं, वह भी एक ऐसे काम के लिए जिस से कुछ मिलना नहीं.

गलत काम के लिए तर्क : दीवाली पर जुआ खेलने के लिए आप खुद के बचाव में जो दलीलें देते हैं वे कितनी खोखली हैं, यह आप भी बेहतर जानते हैं पर खुद को सही ठहराने के लिए उन का सहारा ले कर एक गलत प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं.

दूसरे ऐब : जुए की फड़ पर 80 फीसदी लोग लगातार धूम्रपान करते हैं जबकि 50 फीसदी शराब भी पीते हैं यानी तिहरा नुकसान होता है. जिन ऐबों से सालभर खुद को आप बचा कर रखते हैं, एक झटके में उन की गिरफ्त में आ कर कौन साबुद्धिमानी का काम करते हैं?

शान नहीं शर्म : अकसर जुआ खेलने वाले दीवाली के जुए  को शान और शगुन की बात करते सालभर पैसा आनेजाने का पैमाना मानते हैं. इस के पीछे कोई तर्क नहीं है. यह शान की नहीं, शर्म की बात है. महाभारत का जुआ मिसाल है कि कैसे युधिष्ठिर ने राजपाट, भाइयों और पत्नी तक को दांव पर लगा कर गंवा दिया था.

महिलाएं भी पीछे नहीं

दीवाली के जुए को ले कर जमाना बहुत बदल रहा है. वह दौर खात्मे की तरफ है जिस में पत्नी अपने पति को फड़ में जाने से रोकने को उस के सामने गिड़गिड़ाती थी. अब उल्टा होने लगा है. पत्नियां पतियों के साथ जाने लगी हैं और पतियों के दोस्तों की पत्नियों के साथ अलग समानांतर फड़ लगाने लगी हैं. यानी जमाना फैमिली गैंबलिंग का है.

नए कपल्स में दीवाली पर जुआ खेलने के बढ़ते रुझान पर चिंता जताती एक वरिष्ठ ब्यूटीशियन का कहना है कि ये कपल्स प्रतिभावान और पैसे वाले हैं पर गंभीर और उत्तरदायित्व उठाने वाले नहीं हैं. चूंकि ये ज्यादा कमाते हैं इसलिए 50 हजार या 1 लाख रुपए तक का जुआ इन के लिए वक्त काटने का जरिया है. ऐसे नए कपल्स बचत में पिछड़ जाते हैं और कैरियर में भी मात खाते हैं. दिक्कत यह है कि एकल परिवारों के दौर और चलन में इन्हें रोकने वाला कोई नहीं होता यानी टूटती और बदलती पारिवारिक व्यवस्था भी जुए की लत को बढ़ावा देने की जिम्मेदार है. ऐसी पार्टियां अकसर बड़े बंगलों, फ्लैट्स में दीवाली पर रातभर चलती हैं जिन में पतिपत्नी दोनों जुआ खेलते हैं. यह दरअसल अभिजात्य व उच्चवर्ग की नकल करने की नादानी और कुंठा है.

हाई सोसायटी में महिलाओं का जुआ खेलना आम है पर यह संक्रमण तेजी से मध्यवर्ग में फैलना चिंता की बात है. साल में एकाध दिन खासतौर से दीवाली पर जुआ खेलना हर्ज की बात नहीं होती, यह सोच इस वर्ग को आर्थिक व मानसिक तौर पर खोखला कर रही है. 2 साल पहले मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर के एक मकान में संभ्रांत परिवार की 8 महिलाएं जुआ खेलते रंगेहाथों पकड़ी गई थीं, जो खासतौर से इंदौर से टैक्सी कर के आती थीं. इस से सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि जुए की लत कितनी खतरनाक होती जा रही है. पत्नियों को जुआ खिलाने और सिखाने के सब से बड़े गुनाहगार उन के पति हैं जो खुद की लत पूरी करने के लिए ऐसा करते हैं.

जुए का शब्दकोश

ताश के 52 पत्तों से सैकड़ों तरह से जुआ खेला जाता है लेकिन इन में सब से ज्यादा लोकप्रिय और चलन वाला खेल फ्लैश यानी ‘तीन पत्ती’ का है. इस के बाद ‘मांग’ या ‘खींच पत्ती’ ज्यादा खेला जाता है जिस में खिलाड़ी के पास उस का मनचाहा कार्ड आ जाए तो सारा पैसा उस का हो जाता है वरना जितनी रकम वह दांव पर लगाता है वह किसी दूसरे खिलाड़ी की हो जाती है.

तीसरे नंबर पर ‘रमी’ है, जिसे आजकल इंटरनैट पर औनलाइन लाखों लोग खेलते हैं. उस का इश्तिहार भी फेसबुक जैसी सोशल साइट्स पर यह कहते लोग कर रहे हैं कि देखो, मैं ने एक झटके में इतने हजार या इतने लाख रुपए जीते. यह जुए का प्रचार नहीं तो क्या है. ‘किटी’ चौथे नंबर पर खेला जाने वाला जुआ है जिसे महिलाएं भी किटी पार्टी में खेलती हैं. फ्लैश पूरी तरह कथित भाग्य वाला खेल होता है, इसलिए ज्यादा चलता है. रमी और किटी में थोड़ा दिमाग लगाना पड़ता है, इसलिए वे कम लोकप्रिय हैं.

किसी फड़ पर जाएं तो वहां चाल के दौरान पिनड्रौप साइलैंस रहती है. सारे खिलाड़ी सांस रोके देखते रहते हैं कि कौन बाजी मारेगा, किस के पास बड़ी पत्ती है और कौन ब्लफ मार रहा है, कौन शो कराएगा. शो कराना अकसर नए खिलाडि़यों को हेठी की बात लगती है, इसलिए वे हारते भी खूब हैं. पेशेवर और आदतन खिलाड़ी बेहद सधे ढंग से जुआ खेलते हैं. वे पहले शिकारों को वैसे ही 2-4 चाल जानबूझ कर जिताते हैं जैसे पिता अपने बच्चों को जिताता है. इस से नए या शौकिया खिलाड़ी के जोखिम उठाने की हिम्मत बढ़ती है और वह ज्यादा पैसा दांव पर लगाने लगता है. जुए के इस मनोविज्ञान के जानकार पुराने खिलाड़ी खूब फायदा उठाते हैं.

एक ख्यात उपन्यासकार ने अपने उपन्यास में एक जगह जुए की फड़ का दिलचस्प और सटीक वर्णन किया है. उस में बताया गया है कि कैसे खिलाड़ी पूरे आत्मविश्वास से ब्लफ मारते हैं, सूद पर पैसा देने वाले यानी फाइनैंसर भी फड़ पर मौजूद रहते हैं और कैसेकैसे इस में बेईमानियां होती हैं. पत्ते लगा कर खेलने वाले अकसर ब्लाइंड ज्यादा खेलते हैं और कवर या काउंटर करते हैं जिस में पत्ते देखने वाले को 3 गुना ज्यादा रकम देनी पड़ती है. उसे हैरानी तब होती है जब काउंटर करने वाले के पास उस से बड़े पत्ते निकलते हैं.

नतीजतन, नए खिलाड़ी लंबी रकम हार जाते हैं और पत्तों व समय को कोसते रहते हैं जबकि हकीकत कुछ और होती है.

जुए का उद्भव हैं धर्मग्रंथ

धार्मिक रचनाकार और टीकाकार कितने चालाक थे इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने जुए को इफरात से महिमामंडित करते इसे सीधे भाग्य से जोड़ दिया. महाभारत का अहम किरदार युधिष्ठिर, जिस ने जुए की लत में राजपाट, पत्नी और भाइयों तक को दांव पर लगा दिया, उसे धर्मराज का खिताब क्यों दिया गया, तय है इसलिए कि कहीं सचमुच लोग जुए को ऐब न मानने लगें. धर्म की बुनियाद भाग्यवाद है, इसलिए हारजीत को इस से जोड़ दिया गया. वैसे भी कोई धर्म खुल कर यह नहीं कहता कि जुआ खेलना पाप है. आज की भाषा में देखें तो जुए को चांस की बात बताया गया है. दुर्योधन का भाग्य अच्छा था, सितारे उस के साथ थे या उस का मामा शकुनि जैसा बेईमान व्यक्ति था इसलिए वह जीता. इन दोनों में से सच क्या है, यह आज तक कोई तय नहीं कर पाया. उल्टे समाज की दिशा तय करने वाला बुद्धिजीवी वर्ग इस बात पर लोगों को उलझाने के लिए बहस करता रहता है कि क्या युधिष्ठिर को यह हक था कि वह खुद को हारने के बाद पत्नी और भाइयों को दांव पर लगाता? लोग भी चटखारे लेले कर इस धार्मिक बहस में अपनी राय देते खुद को विद्वान की जमात में शुमार समझ खुश हो लेते हैं.

हिंदुओं के आदि भगवान शंकर भी अपनी पत्नी पार्वती के साथ जुआ खेलते थे. यह प्रसंग शिवपार्वती पर बने कई धारावाहिकों में कई चैनलों पर दिखाया गया है. सार यह है कि जुए की मूल भावना भी धर्मग्रंथ है पर कोई धर्मगुरु अपने प्रवचनों में इस से दूर रहने की बात नहीं कहता, उल्टे बातबात पर जिंदगी को भाग्यप्रधान बताया जाता है जिस से जुए की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन ही मिलता है.

जुए को प्रचलित करने में कौटिल्य का भी बड़ा हाथ रहा जिस का अर्थशास्त्र और दूसरा साहित्य ब्राह्मण महिमा से भरा पड़ा है. कौटिल्य ने साफ कहा है कि जुआ खेलने वालों से शासक को शुल्क लेना चाहिए जिस से राजस्व बढ़े यानी लाइसैंस देने की खुली वकालत की गई है. उस ने तो यहां तक कहा है कि कैसीनो की तर्ज पर जुआ सामग्री भी शासन द्वारा नियुक्त अधिकारी यानी द्यूताध्यक्ष जुआरियों को उपलब्ध कराए.

मध्य काल तक पांसे चलन में आ गए थे और जुए को द्यूतक्रीड़ा कहा जाने लगा था. वैदिक काल में जुए को अक्षक्रीड़ा और अक्षद्यूत कहा जाता था. और माहिर जुआरी को अक्षकितब कहा जाता था. उस समय में जुआरी को कितब संबोधन दिया गया था. इस से साबित यही होता है कि जुए का उद्भव धर्म ही है. ऋग्वेद की एक ऋचा (10.34.13) में भी जुए का स्पष्ट उल्लेख है. आज ब्लाइंड, शो, काउंटर और पैक जुए के प्रचलित शब्द हैं स्मृति ग्रंथों में तो जुआ खेलने के नियम व निर्देश भी उल्लिखित हैं.

बात सिर्फ हिंदू धर्मग्रंथों की नहीं है, बाइबिल और  बौद्ध ग्रंथों में भी जुए का उल्लेख यानी प्रोत्साहन है. ये सभी एकमत हो कर जुए का सांकेतिक विरोध तो करते हैं लेकिन इसे भाग्य की बात भी बताते हैं जो धर्म की दुकानदारी का एक बड़ा जरिया रहा है.

शेयर बाजार का जुआ

शेयर बाजार में जुआ खेलने से तात्पर्य है कि जो पैसा आप लगा रहे हैं उस की वापसी की गारंटी नहीं है. वह पैसा डूब सकता है या फिर आप को रातोंरात मालामाल भी बना सकता है. ताश के पत्तों से जुआ खेलने पर भी यही होता है. क्रिकेट में सट्टा लगाने पर भी यही होता है. इन में से जहां भी पैसा लगाया जाता है वह जोखिम भरा है और ज्यादा कमाने के लालच में जुआरी यह जोखिम बारबार उठाता है. पहले सरकार लौटरी का कारोबार करती थी, उस में बड़ा फायदा था. शराब की दुकान चला कर जैसा अनापशनाप राजस्व सरकार हासिल करती है, लौटरियों के जरिए भी उस की अंधाधुंध कमाई हो रही थी. इस जोखिम ने कई लोगों की जान ली तो सरकार पर दबाव आया और उस ने इस ‘जुआघर’ को बंद कर दिया. सरकार की यह दुकान बंद हुई यानी लौटरी प्रतिबंधित हो गई और अब ऐसा करना अपराध बन गया.

शेयर बाजार में पैसा लगाना भी एक तरह का जुआ है और इस जुए को खेल कर बरबाद हुए कई लोगों ने आत्महत्या कर ली और कई लोग बरबादी का जीवन जी रहे हैं. हर्षद मेहता जैसे कांड के कारण कई लोग रातोंरात कुबेर भी बन गए. स्वयं सरकार इस जुए के बल पर खासा राजस्व अर्जित कर रही है. चूंकि यह काम सरकार द्वारा प्रायोजित है इसलिए यह जुआ नहीं है लेकिन कोई निजी स्तर पर अथवा संगठित हो कर इस तरह का जुआघर चलाता है तो उस के लिए जेल आशियाना बन जाता है.

इस का मतलब यह हुआ कि सरकार अपने फायदे के लिए अवैध मुद्दों को वैध बनाती है. यह एक तरह की तानाशाही है और लोकतंत्र में इस तरह की तानाशाही अनुचित है. संसद में ही देखिए, अपने वेतनभत्ते व दूसरे फायदों के लिए सभी दलों के सांसद एकजुट हो कर उसे तत्काल कानूनी जामा पहना देते हैं लेकिन भ्रष्टाचार रोकने के लिए लोकपाल कानून बनाने पर जद्दोजहद होती है, महिला आरक्षण विधेयक वर्षों से लंबित पड़ा है, उसे पारित करने के लिए वे एकजुट नहीं होते हैं.

दीवाली पर्व पर देशभर में जुआ खेलने के अपराध में कई लोग पकड़े जाते हैं. कुछ लोगों की मान्यता है कि लक्ष्मीपूजन के इस दिन जुआ खेलने से पूरे साल धनवर्षा होती है. सरकार भी कहीं न कहीं इसी मान्यता की शिकार है. दीवाली के दिन जब पूरे मुल्क में अवकाश होता है तो बौम्बे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई उस दिन रुलाता है. शेयर बाजार का कारोबार महज 2 घंटे ही चलता है, लेकिन कारोबार होता है. 2 घंटे के इस कारोबार को ‘मुहूर्त कारोबार’ कहा जाता है. बीएसई अगर अन्य दिनों यानी स्वतंत्रतादिवस अथवा गणतंत्रदिवस, ईद या रामनवमी पर भी इस तरह का मुहूर्त कारोबार करे तो कह सकते हैं कि वह लक्ष्मीपूजा पर जुआ खेलने की परंपरा को नहीं मानता है लेकिन यह मुहूर्त सिर्फ दीवाली पर ही होता है.

मुहूर्त का मतलब है दिनरात का 30वां भाग जिसे शास्त्रों में शुभकाल कहा जाता है. इस घड़ी में काम करने को शुभ माना जाता है. यह घड़ी दीवाली पर आती है. इस का सीधा मतलब है कि सरकारी स्तर पर भी जुआ खेला जाता है और सरकार की अनुमति से चल रहे इस तरह के जुआघर कानून की परिधि के दायरे में नहीं हैं.

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