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फाइंडिंग फैनी

यह अच्छी बात है कि आजकल एक्सपैरिमैंटल फिल्में बनने लगी हैं. ‘फाइंडिंग फैनी’ का सब्जैक्ट आम फिल्मों से हट कर है. यह एक क्लासी फिल्म है. दर्शक इसे देख कर खूब ऐंजौय करेंगे. फाइंडिंग फैनी एक हलकीफुलकी दिलचस्प फिल्म है जो आज की भागमभाग वाली जिंदगी से परेशान लोगों को सुकून देती प्रतीत होती है. फिल्म जिंदगी जीने का तरीका बताती है. फिल्म में सिर्फ 5 किरदार हैं, पांचों गोआ के एक गांव में रहते हैं, पांचों में आपस में प्यार है. पांचों एकदूसरे के सुखदुख को समझते हैं. रोजलीना (डिंपल कापडि़या) विधवा है (यह बाद में पता चलता है कि उस का पति भाग गया था और वह विधवाओं वाला जीवन जी रही थी) तो भी उसे कोई गम नहीं. उस की नईनवेली बहू एंजेलीना (दीपिका पादुकोण) भी शादी वाले दिन ही विधवा हो गई थी. उस के अंदर भी उमंग है, प्यार है, खिलखिलाहट है. फ्रेडी (नसीरुद्दीन शाह) 45 सालों से अपने प्यार की बाट जोह रहा है, मगर फिर भी जिंदादिल है. निर्देशक होमी अदजानिया ने इन पांचों कलाकारों की जिंदगी को अलगअलग नजरिए से दिखा कर सभी को अपनीअपनी बात कहने का मौका दिया है. यह फिल्म सिर्फ फैनी को ही ढूंढ़ने की नहीं है बल्कि एकदूसरे को ढूंढ़ने, उन्हें समझने की है.

होमी ने खुद ही इस फिल्म की कहानी भी लिखी है. उस ने इस फिल्म में इन पांचों कलाकारों को ले कर एक रोड जर्नी दिखाई है. इस जर्नी को ये पांचों कलाकार खूब ऐंजौय करते हैं. इन कलाकारों को ऐंजौय करता देख दर्शकों के चेहरों पर स्वत: ही मुसकान बिखर जाती है.

फिल्म की कहानी गोआ के एक गांव से शुरू होती है. उस गांव में एक पोस्टमास्टर फ्रेडी (नसीरुद्दीन शाह), रोजलीना, एंजेलीना, सावियो (अर्जुन कपूर) और एक सनकी पेंटर पेड्रो (पंकज कपूर) रहते हैं. फ्रेडी को डाक से एक लैटर मिलता है जो उस ने अपनी प्रेमिका फैनी को 45 साल पहले भेजा था और उस में शादी का प्रस्ताव रखा था. वह लैटर 45 सालों के बाद उस के पास बिना डिलिवर हुए वापस लौट आता है. फ्रेडी उदास हो जाता है. यह बात जब ऐंजी (दीपिका पादुकोण) को पता चलती है तो वह फ्रेडी की मदद करने का फैसला करती है. ऐंजी शादी वाले दिन ही विधवा हो गई थी. वह फ्रेजी को ले कर अपने बचपन के दोस्त सावियो के साथसाथ गांव के ही एक सनकी पेंटर पेड्रो और अपनी सास रोजलीना को ले कर फैनी को ढूंढ़ने निकल पड़ती है. यह सफर हलकेफुलके  क्षणों में आगे बढ़ता है. सफर के पहले पड़ाव में उन्हें फैनी नहीं मिलती.

फिर भी अनजान रास्तों पर वे आगे चल पड़ते हैं. रास्ते में ऐंजी सावियो के करीब आती है और दोनों में शारीरिक संबंध बन जाते हैं. उधर, पेड्रो रोजलीना पर लाइन मारता है, मगर रोजलीना को फ्रेडी पसंद है. इस सफर का अंत होने से पहले उन्हें फैनी मिलती भी है तो डैड बौडी की शक्ल में, जिसे दफनाने उस की बेटी ले जा रही थी. तब उसे पता चलता है कि फैनी ने तो जीवन में कभी उसे याद ही नहीं किया. गांव लौट कर ऐंजी सावियो से शादी कर लेती है और रोजलीना फ्रेडी से.

असली फिल्म शुरू होने से पहले इन पांचों किरदारों को कार्टूनों की शक्ल दे कर दिखाया गया है, जिसे देख कर दर्शकों के चेहरों पर हंसी आती है. यानी आभास हो जाता है कि शुरुआत अच्छी है तो अंत भी अच्छा ही होगा. निर्देशक होमी अदजानिया ने इस कहानी को सीधेसीधे कह डाला है, कहीं कोई घुमावफिराव नहीं. निर्देशक ने बताया है कि जीवन समाप्त हो जाता है परंतु प्यार कभी खत्म नहीं होता. मध्यांतर से पहले कहानी की रफ्तार कुछ धीमी है तो मध्यांतर के बाद यह चौथे गियर में चल पड़ती है. फिल्म खत्म होने के बाद ऐसा लगता है कि फिल्म अभी और आगे बढ़ती. यह तो बहुत जल्द खत्म हो गई.

निर्देशक ने फिल्म में सिनेमाई ड्रामा भरने की कोशिश कहीं भी नहीं की है. पंकज कपूर का अभिनय काबिलेतारीफ है. नसीरुद्दीन शाह और डिंपल कापडि़या ने भी आकर्षित किया है. दीपिका पादुकोण का तो जवाब ही नहीं. वह क्यूट और बबली लगी है. किसी भी ऐंगल से वह विधवा नहीं लगती. अर्जुन कपूर भी जमा है. फिल्म का गीतसंगीत अच्छा है. टाइटिल सौंग ‘प्यार वाले दिन… ओ फैनी रे…’ अच्छा बन पड़ा है. छायांकन बहुत बढि़या है.

आशा की बायोग्राफी

लगभग 6 दशक से भी ज्यादा समय हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में बतौर गायिका रह चुकी आशा भोंसले इन दिनों आत्मकथा लिखने में व्यस्त हैं. अपने लंबे कैरियर के उतारचढ़ाव, पंचम दा के साथ रिश्तों से ले कर तमाम अनुभवों पर आधारित उन की यह आत्मकथा वैसे तो हिंदी में लिखी जा रही है लेकिन वे चाहती हैं कि इसे अंगरेजी में भी प्रकाशित किया जाए. बीते एक साल से बायोग्राफी लिखने में व्यस्त आशा के मुताबिक, यह किताब उन के गायकी के सफर, जीवन के संघर्षों और दर्द की सच्ची दास्तान होगी. गौरतलब है कि हाल ही में दिलीप कुमार और नसीरुद्दीन शाह की भी आत्मकथा बाजार में आई हैं. बहरहाल, संगीत प्रेमियों को आशा भोंसले के इस तोहफे का बेसब्री से इंतजार है.

दारोगा से धोखा

मामला बड़ा दिलचस्प है. अभिनेत्री कविता कौशिक, जिन्हें टीवी सीरियल के शौकीन दर्शक दारोगा चंद्रमुखी चौटाला के रूप में जानते हैं, के साथ बड़ा धोखा हुआ. दरअसल, उन के डैबिट कार्ड का क्लोन बना कर उस से करीब 1 लाख रुपए की किसी अज्ञात शख्स ने खरीदारी कर डाली. कविता विदेश में अपने दोस्तों के साथ छुट्टियां मनाने गई थीं और उधर ही उन के साथ यह हादसा हो गया. हालांकि धोखाधड़ी की बात पता चलते ही उन्होंने बैंक को खबर कर दी और पुलिस में शिकायत भी. लेकिन सुनने वाले इस बात के चटखारे ले रहे हैं कि दारोगा से धोखा हो गया.

प्रियंका का खुलासा

बीते दिनों अभिनेत्री दीपिका पादुकोण ने अपने ‘क्लीवेज वीडियो’ को ले कर एक बड़े अखबार के खिलाफ ट्विटर पर मुहिम छेड़ रखी थी. इस मुहिम में उन का साथ कई बड़े सितारों ने दिया. अब ट्विटर पर प्रियंका चोपड़ा ने भी एक सनसनीखेज खबर का खुलासा किया है.

दरअसल, प्रियंका ने अपनी जिंदगी का एक राज खोलते हुए बताया कि एक फिल्म के निर्माता ने उन से एक गाने की शूटिंग के दौरान अंडरवियर दिखाने के लिए कहा था, लेकिन उन्होंने न सिर्फ मना कर दिया, बल्कि फिल्म भी छोड़ दी. बहरहाल, मामला कास्टिंग काउच का है. सोचने वाली बात यह है कि इस कास्टिंग काउच से बचा कौन है?

बीते दिनों अभिनेत्री दीपिका पादुकोण ने अपने ‘क्लीवेज वीडियो’ को ले कर एक बड़े अखबार के खिलाफ ट्विटर पर मुहिम छेड़ रखी थी. इस मुहिम में उन का साथ कई बड़े सितारों ने दिया. अब ट्विटर पर प्रियंका चोपड़ा ने भी एक सनसनीखेज खबर का खुलासा किया है. दरअसल, प्रियंका ने अपनी जिंदगी का एक राज खोलते हुए बताया कि एक फिल्म के निर्माता ने उन से एक गाने की शूटिंग के दौरान अंडरवियर दिखाने के लिए कहा था, लेकिन उन्होंने न सिर्फ मना कर दिया, बल्कि फिल्म भी छोड़ दी. बहरहाल, मामला कास्टिंग काउच का है. सोचने वाली बात यह है कि इस कास्टिंग काउच से बचा कौन है?

ऐसा भी होता है

मेरे पति को कुछ सामान खरीदना था. औफिस से वापस आते समय वे एक दुकान में गए. सामान खरीद कर बाहर आए तो एक लड़का उन से टकरा कर गिर गया. उन को लगा कि उन की वजह से वह गिरा. उस को उन्होंने बड़े प्रेम से उठाया और वह धन्यवाद देता हुआ चला गया. इतने में कुछ और चीज याद आई तो उसे लेने वे दुकान में गए और वह ले कर पैसे देने के लिए जेब से बटुआ निकालने लगे तो उन को बटुआ मिला ही नहीं. उन्होंने दुकानदार से कहा कि आप को पैसे दे कर जेब में रखा था बटुआ, मिल नहीं रहा, कहीं गिरा भी नहीं दिखाई पड़ रहा. दुकान वाला बोला, ‘‘जो आप से टकरा गया था उस ने तो नहीं पार कर दिया?’’ यह कह कर दुकानदार हंसने लगा. वे बोले, ‘‘मेरा तो नुकसान हो गया और तुम्हें हंसी आ रही है.’’

सिम्मी सिंह कनेर, वसंतकुंज (न.दि.)

*

मेरे विद्यालय में एक दिन 2 छात्र इंटरवल के दौरान किसी बात पर बहस कर रहे थे. बहस करतेकरते वे गालीगलौज पर उतर आए. उन में हाथापाई भी होने लगी. बच्चों ने आ कर बताया कि कक्षा में 2 बच्चे आपस में लड़ रहे हैं. खाना छोड़ कर मैं व दूसरे अध्यापक भी मेरे साथ तुरंत वहां गए. उन्हें शांत कराया गया. उन में से एक बारबार यही कह रहा था कि स्कूल के बाहर निकलो तो मैं तुम्हारा सिर फोड़ दूंगा. दूसरा छात्र भी कुछ इसी तरह के शब्दों का प्रयोग कर रहा था.

मैं ने उन दोनों छात्रों को बुलाया और कहा, ‘तुम दोनों एकदूसरे का सिर फोड़ना चाहते हो?’ दोनों ने कोई जवाब नहीं दिया, शांत रहे.

मैं ने कहा, ‘देखो, यदि तुम ऐसा करोगे तो दोनों को बहुत चोट आएगी, खून निकलेगा, तुम्हारे मांबाप को तुम्हें अस्पताल ले जाना पड़ेगा. तुम्हारी पढ़ाई का नुकसान होगा. यदि तुम लोग इस की जगह पर अपनाअपना सिर स्वयं दीवार पर टकरा कर फोड़ लो तो शायद कुछ कम चोट आएगी.’

मेरे यह कहते ही कक्षा के सारे बच्चे हंसने लगे और वे दोनों छात्र जा कर अपनीअपनी जगह पर बैठ गए.

उपमा मिश्रा, गोंडा (उ.प्र.)

*

मैंअपनी सहेलियों के साथ कभी पिक्चर देखने, कभी बाजार या फिर किसी सहेली के घर चली जाया करती. मेरी यह आदत न बच्चों को पसंद थी और न मेरे पति को. एक रोज मैं फिल्म देख कर लौट रही थी. बस स्टौप पर जैसे ही बस रुकी हम उतरने लगे. चढ़ने वाली लाइन में मेरे पति खड़े थे.

नीरू श्रीवास्तव, मथुरा (उ.प्र.)

उम्मीद का दीया

बहुत कुछ किया है
बहुत कुछ करना अभी बाकी है
चांद तक तो पहुंची हूं
उस के ऊपर जाना अभी बाकी है
फौज में भी कदम रखा है
दुश्मन को हराना अभी बाकी है
देश का शासन भी हाथों में लिया है
दुनिया चलाना अभी बाकी है
समुद्र के मोती तो छू कर देखे हैं
आसमान से तारों को लाना अभी बाकी है
हुनर तो बहुत है इन हाथों में
उसे खुल कर बाहर लाना अभी बाकी है
स्त्री हूं मैं नारी हूं मैं
लक्ष्मीबाई बन कर दिखाना अभी बाकी है
अंधेरों को उजाला बख्शा है
उम्मीद का दीया जलाना अभी बाकी है.

– पायल श्रीवास्तव

 

महायोग : चौथी किस्त

अब तक की कथा :

‘महायोग’ से श्रापित दिया कहने भर को सुहागिन का ठप्पा चिपका कर घूम रही थी. योग और पत्री के पागलपन ने प्राची के परिवार को भी अपनी लपेट में ले लिया था. जब दादी को पता चला कि नील ने अभी तक काम पर जाना शुरू नहीं किया है तो उन के पैरों तले जमीन खिसकने लगी. अच्छे दिनों की प्रतीक्षा में दादी और पंडितजी की मिलीभगत ने दिया व नील को दूर रखा है, जान कर यशेंदु बौखला उठे.

अब आगे…

यश के सामने उस की लाड़ली बिटिया का सुकोमल मगर उतरा हुआ मुख बारबार आ कर उपस्थित हो जाता. मानो वह बिना मुख खोले ही उस से पूछ रही हो, ‘पापा, आखिर क्या सोच कर आप ने इतनी जल्दी मुझे इस जंजाल में फंसा दिया?’ अपनी फूल सी बच्ची के भविष्य के बारे में सोच कर यश से रहा नहीं गया, नील की मां को फोन कर के शिकायत भरे लहजे में कहा, ‘‘आप ने नील की चोट के बारे में नहीं बताया?’’

कामिनी को मां का सुबहशाम आरती गा लेना, पंडितजी को बुला कर पूजाअर्चना की क्रियाएं करना, कुछ भजन और पूजा करवा कर आमंत्रित लोगों की वाहवाही लूट लेना विचलित करता था दादी कभी भी नील की मां को फोन लगा देती थीं. कामिनी के वहां से जाते ही उन्होंने दिया की सास को लंदन फोन लगा दिया.

‘‘पता चला है कि नील के पैर में चोट लग गई है? कैसे? कब? कल ही तो मेरी आप से बात हुई थी. आप ने तो कुछ नहीं बताया था इस बारे में?’’ वे लगातार बिना ब्रेक के बोले जा रही थी.

‘‘अरे रे, आप इतनी परेशान क्यों हो रही हैं, माताजी? नील के पैर में थोड़ी सी मोच आ गई है, सो उस ने अभी औफिस जौइन नहीं किया. हम ने सोचा अगर आप को पता चलेगा तो आप परेशान हो जाएंगी. सो, बेकार ही…’’ दिया की सास भी कम खिलाड़ी नहीं थीं. न जाने घाटघाट का पानी पी कर कितनी उस्ताद बन गई थीं, पटाने में तो वह माहिर थीं ही.

‘‘अरे, मैं परेशान कैसे न होऊं? नील ने खुद दिया को बताया, दिया ने कामिनी को. कामिनी मेरे पास आई थी. अब मुझे ही कुछ पता नहीं है तो मैं क्या उसे बताऊं? मेरी और आप की बात हो जाती है पर लगता है मुझे पूरी बात पता नहीं चल पाती. उधर, यह चोट की खबर. आखिर पता तो चले, बात क्या है? मैं ही किसी को कुछ जवाब देने की हालत में नहीं हूं. आप ठीकठीक बताइए, क्या बात है? हम ने तो सोचा था कि नील के पास छुट्टी नहीं है. सो, उस समय हम ने ज्यादा कुछ सोचा भी नहीं और अब…नहीं, आप ठीक से बताइए सबकुछ खोल कर और हां, दिया के जो भी पेपरवेपर हों वे सब कब तक पहुंच रहे हैं? मैं ने ब्याह जरूर जल्दी कर दिया है पर मैं अपनी पोती को ऐसी हालत में नहीं देख सकती,’’ एक ही सांस में दिया की दादी उस की सास से बोलती जा रही थीं.

‘‘आप परेशान मत होइए, माताजी. नील का पैर थोड़ा सा मुड़ गया था. उस पर प्लास्टर लगा है. डाक्टर का कहना है कि एकाध हफ्ते में उतर जाएगा. फिर जो भी फौरमैलिटीज होंगी, वह कर लेगा. मैं अपने पंडितजी से पूछ कर दिया को बुलाने के टाइम के बारे में बता दूंगी.’’

उन्होंने दिया की दादी की दुखती रग पर मानो मलहम चुपड़ दिया परंतु दादी को कहां इस से तृप्ति होने वाली थी. शाम को ही पंडितजी को बुला भेजा.

‘‘पंडितजी, जन्मपत्री ठीकठाक देखी न दिया की?’’ पंडित के आते ही दादी बरस पड़ीं.

‘‘क्या हुआ, माताजी?’’ पंडितजी ने बड़े भोलेपन से दादी से पूछा, ‘‘सबकुछ ठीकठाक है न?’’

‘‘सबकुछ ठीकठाक होता तो आप को क्यों बुलाती? अब ठीक से बताइए, जन्मपत्री ठीक है न दिया की?’’

‘‘हां जी, बिलकुल. क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘क्या हुआ? हुआ यह कि आप तो कह रहे थे कि शादी के बाद 10-15 दिन दिया अपने पति से दूर रहे तो अच्छा रहेगा. उस की ससुराल जाने की तिथि भी अभी तक आप ने नहीं निकाली. सब ठीक तो है या फिर आप के पतरेवतरे बस खेल ही हैं?’’ दादी पर तो क्रोध बुरी तरह से सवार था.

‘‘कैसी बातें कर रही हैं, माताजी? कितने बरसों से हमारे पिताजी आप के परिवार की सेवा कर रहे हैं. फिर भी आप को विश्वास नहीं है हम पर?’’ पंडितजी बड़े नाटकीय अंदाज में दादीजी को भावनाओं की लपेट में लेने का प्रयास करने लगे.

‘‘पिताजी सेवा कर रहे थे, तभी तो आप पर विश्वास कर के मैं इस घर के सब कामकाज आप से करवाती हूं. आप से पत्री बंचवाए बिना मैं एक भी कदम उठाती हूं क्या? समझ में नहीं आ रहा है क्या चक्कर है. वहां, लंदन में उन के पंडितजी क्या कहते हैं, देखो,’’ दादी बिलकुल बुझ सी रही थीं. असमंजस में कुछ भी समझ नहीं पा रही थीं कि इस स्थिति से कैसे निबटें.

‘‘वैसे चिंता की कोई बात नहीं दिखाई देती,’’ पंडितजी ने दिया की पत्री इधर से उधर घुमाते हुए कहा.

‘‘वे ग्रह ठीक हो गए जब दिया को नील से अलग रहना था?’’

‘‘हां जी, बिलकुल. वे तो कुछ दिनों के ही ग्रह थे. अब तो सब ठीक है,’’ पंडितजी ने बड़े विश्वासपूर्वक दिया का भविष्य बांच दिया.

‘‘यह क्या मां…दिया के ब्याह के बाद ग्रह खराब थे?’’ पता नहीं कहां से यश और कामिनी सिटिंगरूम के दरवाजे पर आ कर खड़े हो गए थे.

‘‘अरे, वे तो कुछ ही दिन थे, बस. इसीलिए पंडितजी से सलाह कर के दिया को केरल जाने से रोक लिया था,’’ दादी ने हिचकिचा कर बेटे को उत्तर दिया.

‘‘इतनी बड़ी बात आप ने कैसे छिपा ली, मां?’’ यश का मूड खराब होने लगा. कामिनी आंखों में आंसू लिए चुपचाप पति के पास ही खड़ी थी.

‘‘मां, आप ने पंडित से सलाह करना ठीक समझा पर घर वालों से सलाह करने की कोई जरूरत नहीं समझी?’’ यश को अब मां पर चिढ़ सी लगने लगी.

कामिनी ने उसे कितना समझाने की कोशिश की थी परंतु उस पर मां का प्रभाव इतना अधिक था कि उस ने कभी अपनी पत्नी की बातों पर ध्यान देने की जरूरत ही नहीं समझी. वैसे भी घटना घट जाने के बाद उस की लकीर पीटने से कोई लाभ नहीं होता है. पहले मां, पिता की आखिरी इच्छा का गाना गाती रहती थीं, अब उन्होंने अपनी इच्छा का गाना शुरू कर दिया था. यश ने मां की बात स्वीकार की भी परंतु अब वह स्वयं असहज होने लगा था. कामिनी से भी आंख मिलाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था वह. आखिर मां ने उस से यह बात क्यों छिपाई होगी? देखा जाए तो मां की दृष्टि में इतनी बड़ी बात थी नहीं यह. परंतु उस की फूल सी बच्ची का भविष्य उसी बात पर टिका था. बिना कुछ और कहेसुने वह वहां से चला आया. पीछेपीछे कामिनी भी आ गई.

कमरे में आ कर वह धम्म से पलंग पर बैठ गया. उस के मस्तिष्क ने मानो काम करना बंद कर दिया था. उस की लाड़ली बिटिया का सुकोमल मगर उतरा हुआ मुख उस के सामने बारबार आ कर उपस्थित हो जाता. मानो वह बिना मुख खोले ही उस से पूछ रही हो, ‘पापा, आखिर क्या सोच कर आप ने इतनी जल्दी मुझे इस जंजाल में फंसा दिया?’

कामिनी यश की मनोदशा समझ रही थी परंतु उस समय कुछ भी बोलने का औचित्य नहीं था, सो चुप ही रही. यश का स्वभाव था यह. वे अपने और मांपिता के सामने किसी की नहीं सुनते थे. लेकिन जब अपनी गलती का एहसास करते तो स्वयं बेचैन हो जाते और अपनेआप को सजा देने लगते. कामिनी अजीब सी स्थिति में हो जाती है. ऐसे समय में न वह यश से यह कह पाती है कि उन्होंने उन की बात नहीं मानी, यह उसी का परिणाम है. और न ही वह यश की दुखती रग पर मलहम लगा पाती है. ऐसी स्थिति में शिष्ट व सभ्य, सुसंस्कृत कामिनी अपनी ही मनोदशा में झूलती रहती है. यश रातभर करवटें बदलते रहे. कामिनी भी स्वाभाविक रूप से बेचैन थी. आखिर कामिनी से नहीं रहा गया.

‘‘इतना बेचैन क्यों हो रहे हो यश? सब ठीक हो जाएगा,’’ कामिनी ने यश के बालों को सहलाते हुए धीरे से कहा.

‘‘यह छोटी बात नहीं है, कामिनी. कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है. यह मेरी बिटिया के भविष्य का प्रश्न है,’’ और अचानक यश ने पास में रखे फोन को उठा कर नंबर मिलाना शुरू कर दिया.

कामिनी ने घड़ी देखी. सुबह के 5 बजे थे यानी लंदन में रात के 12 बजे होंगे.

उधर से उनींदी आवाज  आई, ‘‘हैलो, कौन?’’

‘‘मैं, यश, इंडिया से,’’ यश ने स्पीकर औन कर दिया था. शायद कामिनी को भी संवाद सुनाना चाहते थे.

‘‘अरे, नमस्कार यशजी, इस समय कैसे? सब ठीक तो है?’’ नील की मां की उनींदी आवाज फोन पर थी.

कामिनी ने बड़ी आजिजी से यश को इशारा किया कि वे बिना बात, बात को न बिगाड़ें. आखिर उन की बेटी का सवाल है. यश को शायद कामिनी की बात कुछ जंच गई. थोड़े धीमे लहजे

में बोले, ‘‘आप ने नील की चोट के बारे में नहीं बताया?’’ यश के लहजे में शिकायत थी.

‘‘मैं ने और नील ने सोचा था यशजी कि आप चोट की बात सुन कर बेकार परेशान हो जाएंगे इसलिए…’’

यश चिढ़ गया. ‘मानो बड़ी हमदर्दी है इन्हें हमारी परेशानी से’, बहुत धीमी आवाज में उस के मुंह से निकल गया.

‘‘आप जानती हैं कि कितनी परेशान रहती है हमारी बेटी. उधर, नील भी कईकई दिनों तक फोन नहीं करते और न ही कुछ प्रोग्राम के बारे में बताते हैं?’’

‘‘क्या करें यशजी, परिस्थिति ही ऐसी थी कि जल्दी आना पड़ा.’’

‘‘क्या परिस्थिति? उस पंडित के कहने से आप ने नील और दिया को 2 दिन भी साथ रहने नहीं दिया और जानती हैं इस से हमारी बेटी पर कितना खराब असर पड़ रहा है?’’

‘‘ऐसी तो कोई बड़ी बात नहीं हो गई. हम ने तो यह ही सोचा कि आप लोग परेशान हो जाएंगे. वैसे भी न तो दिया तैयार थी इस शादी के लिए और न ही कामिनी बहनजी,’’ नील की मां की समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या कहें. फिर कुछ रुक कर बोलीं, ‘‘हमारे नील की भी तो शादी हुई है. वह भी तो अपनी पत्नी को मिस कर रहा होगा.’’

‘‘ममा, किस से बात कर रही हैं, इस समय?’’ नील शायद नींद से जागा था.

‘‘तुम्हारे ससुर हैं, इंडिया से.’’

‘‘अरे, इस समय,’’ नील ने शायद घड़ी देखी होगी.

‘‘नमस्ते, डैडी. क्या बात है, इस समय फोन किया? सब ठीक है न?’’

यश नमस्ते का उत्तर दिए बिना ही असली बात पर जा पहुंचे, ‘‘आप को चोट लग गई, नील? किसी ने बताया भी नहीं. मैं टिकट का इंतजाम कर के जल्दी से जल्दी आने की कोशिश करता हूं.’’

‘‘अरे नहीं, डैडी. वह लगी थी चोट, अब तो ठीक भी हो गई. अब कल या परसों से तो मैं औफिस जाना शुरू कर दूंगा,’’ नील हड़बड़ाहट में बोला.

‘‘एक बार मिल लूंगा तो तसल्ली हो जाएगी. इधर, दिया भी बहुत उदास रहती है. उस के पेपर्स कब तक तैयार हो रहे हैं?’’

‘‘बस, अब औफिस जाने लगूंगा तो जल्दी ही तैयार करवा कर भेज देता हूं. और हां, आप बेकार में यहां आने की तकलीफ न करें.’’

नील की भाषा इतनी साफ व मधुर थी कि यश उस से पहली बार में ही प्रभावित हो गए थे. अच्छा लगा था उन्हें परदेस में रह कर अपनी भाषा व संस्कारों की तहजीब बनाए रखना.

‘‘तकलीफ की क्या बात है? मैं तो वैसे भी काम के सिलसिले में बाहर जाता ही रहता हूं. वीजा की कोई तकलीफ नहीं है मुझे. मेरे पास लंदन का 10 साल का वीजा है.’’

‘‘नहीं, आप तब आइएगा न, जब दिया यहां पर होगी. अभी बिलकुल तकलीफ न करें. मैं बिलकुल ठीक हूं. मम्मी को बोलूंगा जल्दी ही पंडितजी से दिया को लाने की तारीख निकलवा लेंगी.’’

यश ने फोन रख दिया. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें. आखिर, वे बेटी के पिता हैं. न तो अब उगलते बनता है और न निगलते. फिर भी उन्हें भरोसा था कि कहीं न कहीं समझनेसमझाने में ही भूल हुई होगी. हां, यह बात जरूर कचोट रही थी कि मां ने इतनी बड़ी बात उन से छिपाई. आज उन्हें महसूस हुआ कि उन के घर पर पंडित का कितना प्रभाव है. यश भी कोई कम विश्वास नहीं रखते थे इन मान्यताओं में परंतु जब मां ने छिपाया तब वे सहन नहीं कर सके. कामिनी के सामने मां के विरुद्ध कुछ बोल नहीं सकते थे. सो, मन ही मन कुढ़ते रहे.

मन में संदेहों के बीज बोए जा चुके थे. उन के अंकुर फूट कर यश के मन में चुभ रहे थे. यश स्थिर नहीं रह पा रहे थे. एक बेचैनी सी हर समय उन्हें कुरेदती रहती. कहीं भीतर से लग रहा था कुछ बहुत बड़ी गड़बड़ है.

कामिनी तो विवाह से पूर्व ही असहज ही थी. उस का कुछ वश नहीं था इसलिए वह सदा से ही सब कुछ वक्त पर छोड़ कर चुप रहती थी. परंतु वह मां थी. लाड़ से पली हुई बेटी की मां, जिस ने अपनी बिटिया के सुनहरे भविष्य के लिए न जाने कितने जिंदा स्वप्न अपनी आंखों में समेटे थे.

यश की बेचैनी भी कहां छिपी थी उस से? परंतु दोनों में से कोई भी अपने मन की बात एकदूसरे से खुल कर नहीं कह पा रहा था. मां से तो अब कुछ बोलने का फायदा ही नहीं था. हां, वे भी अब बेचैन तो थीं परंतु ताउम्र इस घर पर राज किया था उन्होंने. एक तरह की ऐंठ से सदा भरी रहीं. आसानी से अपनी बात को छोटा कैसे कर सकती थीं?

कामिनी ने मन में कई बार सोचा, ‘इस उम्र में भी मां इतनी अधिक क्यों चिपकी हुई हैं इस भौतिक, दिखावटी दुनिया से. अब यदि इस उम्र में भी वे इन सब से छूट नहीं पाएंगी तो कब स्वयं को मुक्त कर पाएंगी इन सांसारिक झंझटों से? सुबहशाम आरती गा लेना, पंडितजी को बुला कर पूजाअर्चना की क्रियाएं करना, कुछ भजन और पूजा करवा कर आमंत्रित लोगों की वाहवाही लूट लेना…’ ये सब बातें उसे विचलित करती रहती थीं. अंतर्मुखी होने के कारण जीवनभर वह अपने विचारों से ही जूझती रही. जानती थी कि इस सब में यश भी उस से भागीदारी नहीं कर पाएंगे. उस ने तो स्वयं को समय पर छोड़ दिया था. उस के हाथ में कुछ है ही नहीं. तब व्यर्थ का युद्ध कर के स्वयं को थकाने से लाभ क्या?

 समय के व्यतीत होने के साथ ही दिया कुछ अधिक ही चिड़चिड़ी सी होती जा रही थी. परिवार के वातावरण में बदलाव आने लगा. कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर क्या कारण होंगे जो नील या उस की मां का कुछ स्पष्ट उत्तर प्राप्त नहीं हो रहा था.

दिया कालेज जाने में भी आनाकानी करने लगी थी. यश जब अपनी फूल सी बिटिया को मुरझाते हुए देखते तो उन का कलेजा मुंह को आ जाता. उधर, मां ने फिर पंडितजी को बुला भेजा था और 3 दिन से न जाने उन्हें किस अनुष्ठान पर बैठा दिया था. 2 नौकर उन की सेवा में हर पल 1 टांग से मंदिर के बाहर खड़े रहते. पंडितजी ने महीनेभर का अनुष्ठान बता दिया था और मां थीं कि उन के समक्ष कोई आज तक मुंह खोलने का साहस नहीं कर पाया था तो आज तो घर की बेटी के सुख का बहाना था उन के पास.

बहाने, बहाने और बस बहाने. कामिनी का मन चीत्कार करने लगा. क्या होगा इस पूजापाठ से? अगर घंटियां बजाने से समय बदल जाता तो बात ही क्या थी? मां तो जिंदगीभर पंडितों के साथ मिल कर घंटियां ही बजाती रही थीं फिर क्यों यह अरुचिकर घटना घटी? उस का मन वितृष्णा से भर उठा. मां चाहतीं कि दिया भी इस पूजा

में सम्मिलित हो. उसे बुलाया जाता परंतु वह स्पष्ट रूप से न कह देती. कामिनी को भी बुलाया जाता फिर वह और पंडितजी मिल कर उसे सुंदर शब्दों में संस्कारहीनता की दुहाई देने लगते. वह सदा चुप रही थी, अब भी चुप रहती. हां, उस में एक बदलाव यह आया था कि अब वह कोई न कोई बहाना बना कर पूजा में सम्मिलित होने से इनकार करने लगी थी. वह अधिक से अधिक दिया के पास रहने लगी थी. नील के फोन आते परंतु कुछ स्पष्टता न होने के कारण दिया ‘हां’, ‘हूं’ कर के फोन पटक देती.

यश ने कई बार नील की मां से बात कर ली थी परंतु वही उत्तर ‘हां, बस जल्दी ही हो जाएगा.’ यश ने सोच लिया कि वे स्वयं दिया को ले कर लंदन जाएंगे. इसी सोच के तहत यश ने दिया के वीजा के लिए पूछताछ प्रारंभ कर दी थी. दिया के ससुराल जाने में समय लग सकता है, इस बात से किसी को कोई परेशानी नहीं थी. सब इस के लिए मानसिक रूप से तैयार ही थे परंतु चिंता इस बात की थी कि विवाह के बाद से तो नील और उस की मां का व्यवहार ही बदला हुआ सा प्रतीत हो रहा था.

इसी ऊहापोह में गाड़ी पार्क कर के यश वीजा औफिस जाने के लिए सड़क पार कर रहे थे कि अचानक ट्रक की चपेट में आ गए. ट्रक वाला भलामानुष था उस ने ट्रक रोक कर इकट्ठी हुई भीड़ में से कुछ लोगों की सहायता से यश को उन की कार में डाला और गाड़ी अस्पताल की ओर भगा दी.

डाक्टर यश के परिवार से परिचित थे. उन की सहायता से यश के मोबाइल से नंबर तलाश कर कैसे न कैसे दुर्घटना की खबर यश के घर वालों तक पहुंचा दी गई. यश बेहोश हो गए थे. डाक्टर ने पुलिस को खबर करने की फौर्मेलिटी भी पूरी कर दी. ट्रक ड्राइवर वहीं खड़ा रहा. उस ने अपने सेठ को भी दुर्घटना की जानकारी दे दी थी. कुछ ही देर में वहां सब लोग जमा हो गए. डाक्टर अपने काम में लग गए थे. थोड़ी देर में ड्राइवर का सेठ भी वहां पहुंच गया.

-क्रमश:

तेरे आने से

दिल की मधुकरी
मधुर गुंजार करेगी
हृदय की धड़कन
धकधक धड़केगी
तेरे आने से
चमन की बहारें
मस्त महकेंगी|
रोशनी की रंगीन
फुहारें पड़ेंगी

तेरे आने से
वसंत के मंदमंद
झंकोरे चलेंगे
संगीत के रेशमी
तार बजेंगे

तेरे आने से
हर्ष के सतरंगी|
इंद्रधनुष चमकेंगे
यादों के चांद
सितारे चमकेंगे

तेरे आने से
वाणी के कोमल
फूलझरेंगे
दो हृदयों के
व्याकुल दिल मिलेंगे      

तेरे आने से
नेह के दीप
जगमग जलेंगे
नैनों के मोती
हृदयहार बनेंगे
तेरे आने से.

सुरेंद्र कुमार ‘सूरज’

तरबूजीमीठा उत्तपम

सामग्री : 2 गोल आकार में कटे तरबूज के टुकड़े, 1 बड़ा चम्मच मूंगफलीदाना, 1/2 कटोरी कसी गाजर, 1 हरीमिर्च, 1 छोटा चम्मच औलिव औयल, थोड़ा सा हरा धनिया, 1 छोटा चम्मच चाट मसाला, 1/2 छोटा चम्मच लालमिर्च पाउडर,1/2 छोटा चम्मच अमचूर, नमक स्वादानुसार.

उत्तपम के लिए सामग्री : 1/2 कटोरी सूजी, 1 कटोरी (मसली हुई) मिलीजुली मिठाई, 1 बड़ा चम्मच बारीक कटे मेवे, आवश्यकतानुसार घी.

विधि : उत्तपम की सारी सामग्री मिला कर छाछ या पानी के साथ गाढ़ा घोल बना लें. गरम तवे पर घी लगा कर घोल से उत्तपम सुनहरे होने तक सेंक लें. तरबूज के टुकड़ों पर औलिव औयल लगा कर चाट मसाला तथा धनिया बुरक दें. मूंगफलीदानों को तल कर दरदरा कूट लें. इस में गाजर तथा सभी मसाले मिला दें. हरीमिर्च व हरा धनिया काट कर मिलाएं. एक सर्विंग डिश में उत्तपम रखें, उस पर मूंगफली वाली सलाद रखें, उस के ऊपर तरबूज के टुकड़े रखें और फिर मूंगफली से सजा कर परोसें.

मिलन के त्योहारों को धर्म से न बांटे

त्योहारों का प्रचलन जब भी हुआ हो, यह निश्चित तौर पर आपसी प्रेम, भाईचारा, मिलन, सौहार्द और एकता के लिए हुआ था. पर्वों को इसीलिए मानवीय मिलन का प्रतीक माना गया है. उत्सवों के पीछे की भावना मानवीय गरिमा को समृद्धि प्रदान करना है. सामाजिक बंधनों और पारिवारिक दायित्वों में बंधा व्यक्ति अपना जीवन व्यस्तताओं में बिता रहा है. वह इतना व्यस्त रहता है कि उसे परिवार के लिए खुशियां मनाने का वक्त ही नहीं मिलता.

इन सब से कुछ राहत पाने के लिए तथा कुछ समय हर्षोल्लास के साथ बिना किसी तनाव के व्यतीत करने के लिए ही मुख्यतया पर्वउत्सव मनाने का चलन हुआ, इसलिए समयसमय पर वर्ष के शुरू से ले कर अंत तक त्योहार के रूप में खुशियां मनाई जाती हैं.

उत्सवों के कारण हम अपने प्रियजनों, दोस्तों, शुभचिंतकों व रिश्तेदारों से मिल, कुछ समय के लिए सभी चीजों को भूल कर अपनेपन में शामिल होते हैं. सुखदुख साझा कर के प्रेम व स्नेह से आनंदित, उत्साहित होते हैं. और एक बार फिर से नई चेतना, नई शारीरिकमानसिक ऊर्जा का अनुभव कर के कामधंधे में व्यस्त हो जाते हैं.

दीवाली भी मिलन और एकता का संदेश देने वाला सब से बड़ा उत्सव है. यह सामूहिक पर्र्व है.  दीवाली ऐसा त्योहार है जो व्यक्तिगत तौर पर नहीं, सामूहिक तौर पर मनाया जाता है. एकदूसरे के साथ खुशियां मनाई जाती हैं. एक दूसरे को बधाई, शुभकामनाएं और उपहार दिए जाते हैं. इस से आपसी प्रेम, सद्भाव बढ़ता है. आनंद, उल्लास और उमंग का अनुभव होता है.

व्रत और उत्सव में फर्क है. व्रत में सामूहिकता का भाव नहीं होता. व्रत व्यक्तिगत होता है, स्वयं के लिए. व्रत व्यक्ति अपने लिए रखता है.  व्रत में निजी कल्याण की भावना रहती है जबकि उत्सव में मिलजुल कर खुशी मनाने के भाव. शिवरात्रि, गणेश चतुर्थी, नवरात्र, दुर्गापूजा, कृष्ण जन्माष्टमी, छठ पूजा, गोवर्धन पूजा आदि ये सब व्रत और व्रतों की श्रेणी में हैं. ये  सब पूरी तरह से धर्म से जुड़े हुए हैं जो किसी न किसी देवीदेवता से संबद्घ हैं. इन में पूजापाठ, हवनयज्ञ, दानदक्षिणा का विधान रचा गया है.

यह सच है कि हर दौर में त्योहार हमें अवसर देते हैं कि हम अपने जीवन को सुधार कर, खुशियों से सराबोर हो सकें. कुछ समय सादगी के साथ अपनों के साथ बिता सकें ताकि हमें शारीरिक व मानसिक आनंद मिल सके. मनुष्य के भले के लिए ही त्योहार की सार्थकता है और यही सच्ची पूजा भी है. उत्सव जीवन में नए उत्साह का संचार करते हैं. यह उत्साह मनुष्य के मन में सदैव कायम रहता है. जीवन में गति आती है. लोग जीवन में सकारात्मक रवैया रखते हैं. त्योहारों की यही खुशबू हमें जीवनभर खुशी प्रदान करती रहती है.

लेकिन दीवाली जैसे त्योहारों में धर्म और उस के पाखंड घुस आए हैं जबकि इन की कोई जरूरत ही नहीं है. इस में लक्ष्मी यानी धन के आगमन के लिए पूजापाठ, हवनयज्ञ और मंत्रसिद्धि जैसे प्रपंच गढ़ दिए गए हैं. मंदिरों में जाना, पूजन का मुहूर्त, विधिविधान अनिवार्य कर दिया गया है. इसलिए हर गृहस्थ को सब से पहले पंडेपुजारियों के पास यह सब जानने के लिए जाना पड़ता है. उन्हें चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है.

दीवाली पर परिवार के साथ स्वादिष्ठ मिठाइयों, पटाखों, फुलझडि़यों और रोशनी के आनंद के साथसाथ रिश्तेदारों, मित्रों से अपने संबंधों को नई ऊर्जा प्रदान करें. स्वार्थी लोगों ने दीवाली, होली में भी धर्म को इस कदर घुसा दिया है कि इन के मूल स्वरूप ही अब पाखंड, दिखावे, वैर, नफरत में परिवर्तित हो गए हैं.

पिछले कुछ समय से हमारे सामाजिकमजहबी बंधन के धागे काफी ढीले दिखाई देने लगे हैं. दंगों ने सामूहिक एकता को तोड़ने का काम किया है. आज उत्सव कटुता के पर्याय बन रहे हैं. त्योहारों की रौनक पर भाईचारे में आई कमी का कुप्रभाव पड़ा है. स्वार्थपरकता ने यह सब छीन लिया है. त्योहारों को संकीर्ण धार्मिक मान्यताओं के दायरे में समेट कर संपूर्ण समाज की एकता में मजहब, जाति, वर्ग के बैरिकेड खड़े कर दिए गए. लिहाजा, एक ही धर्म के सभी लोग जरूरी नहीं, उस उत्सव को मनाएं.

धर्म व पाखंड के चलते रक्षाबंधन को ब्राह्मणों, विजयादशमी को क्षत्रियों, दीवाली को वैश्यों का पर्व करार सा दे दिया गया है, तो होली को शूद्रों का. ऐसे में शूद्र, दलित दीवाली मनाने में हिचकिचाते हैं. दीवाली मनाने के पीछे जितनी धार्मिक कथाएं हैं, उन से शूद्रों और दलितों का कोई सरोकार नहीं बताया गया. उलटा उन्हें दुत्कारा गया है.

अशांति की जड़ है धर्म       

अगर किसी का इन गढ़ी हुई मान्यताओं में यकीन नहीं है या वह उन से नफरत करता है तो निश्चित ही तकरार, टकराव होगा. दीवाली को लंका पर विजय के बाद राम के अयोध्या आगमन की खुशी का प्रतीक माना जाता है पर कुछ लोग रावण के प्रशंसक भी हैं जो राम को आदर्श, मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं मानते. राम के शंबूक वध की वजह से पढ़ेलिखे दलित उन के इस कृत्य के विरोधी हैं. राम द्वारा अपनी पत्नी सीता की अग्निपरीक्षा और गर्भवती अवस्था में घर से निष्कासन की वजह से उन्हें स्त्री विरोधी भी माना जाता है.

इसी तरह हर त्योहार को ले कर कोईर् न कोई धार्मिक मान्यता गढ़ दी गई. त्योहारों को धर्म और उस की मान्यताओं से जोड़ने से नुकसान यह है कि समाज के सभी वर्गों के लोग अब एकसाथ उन से जुड़ा महसूस नहीं कर पाते. कहने को धर्म को कितना ही प्रेम का प्रतीक संदेशवाहक बताया जाए पर धर्म हकीकत में सामाजिक भेदभाव, वैर, नफरत, अशांति की जड़ है. सच है कि त्योहारों में मिठास घुली होती है पर अपनों तक ही. मजहबी बंटवारे से यह मिठास खट्टेपन में तबदील हो रही है. अकसर त्योहारों पर निकलने वाले जुलूस, झांकियों के वक्त एकदूसरे का विरोध, गुस्सा देखा जा सकता है. कभीकभी तो खूनखराबा तक हो जाता है.

हर धर्म के त्योहार अलगअलग हैं. एक धर्र्म को मानने वाले लोग दूसरे के त्योहार को नहीं मानते. धर्मों की बात तो और, एक धर्र्म में ही इतना विभाजन है कि एक धर्म वाले सभी उत्सव एकसाथ नहीं मनाते. हिंदुओं के त्योहार ईर्साई, सिख, मुसलमान ही नहीं, स्वयं नीचे करार दिए गए हिंदू ही मनाने में परहेज करते हैं. मुसलमानों में शिया अलग, सुन्नी अलग, ईसाइयों में कैथोलिक और प्रोटैस्टेंटों की अलगअलग ढफली हैं. हर धर्म में ऊंचनीच है. श्रेष्ठता और छोटेबड़े की भावना है. फिर कहां है सांझी एकता? कहां है मिलन? क्या त्योहार आज भी मानवीय गुणों को स्थापित करने में, प्रेम, शांति एवं सद्भावना को बढ़ाते दिखाईर् पड़ते हैं?

त्योहारों में धर्म की घुसपैठ सामाजिक मिलन, एकता, समरसता की खाई को पाटने के बजाय और चौड़ी कर रही है. एकता, समन्वय और परस्पर जुड़ने का संदेश देने वाले त्योहारों के बीच मनुष्यों को बांट दिया गया है.

धर्म के धंधेबाजों का औजार 

धार्मिक वर्ग विभाजन की वजह से उत्सव अब सामाजिक मिलन के वास्तविक पर्व साबित नहीं हो पा रहे हैं. त्योहारों के वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक महत्त्व को भूल कर धार्मिक, सांस्कृतिक पहलू को सर्वोपरि मान लिया गया है. त्योहार अब धर्म के कारोबारियों के औजार बन गए हैं. नतीजा यह हो रहा है कि विद्वेष, भेदभाव की जड़वत मान्यताओं को त्योहारों के जरिए और मजबूत किया जा रहा है. एक परिवार हजारों, लाखों रुपए दिखावे, होड़ में फूंक देता है. ऐसे में त्योहारों की सार्थकता पर प्रश्नचिह्न लगने लगे हैं.

केवल समृद्धि, धन के आगमन की उम्मीदों के तौर पर मनाए जाने वाले दीवाली पर्व का महत्त्व धन से ही नहीं है, इस का रिश्ता सारे समाज की एकता, प्रेम, सामंजस्य, मिलन के भाव से है. हमें सोचना होगा कि क्यों सामाजिक, पारिवारिक विघटन हो रहा है. धर्मों में विद्वेष फैल रहा है? त्योहार सौहार्द के विकास में कहां सहयोग कर रहे हैं?

ऐसे में सवाल पूछा जाना चाहिए कि सामाजिक जीवन में धर्मों की क्या उपयोगिता रह गई है? धर्र्म के होते ‘अधर्म’ जैसे काम क्यों हो रहे हैं? त्योहारों के वक्त आतंकी खतरे बढ़ जाते हैं. सरकारों को सुरक्षा व्यवस्था करनी पड़ती है. रामलीलाओं में पुलिस और स्वयंसेवकों का कड़ा पहरा रहता है. वे हर संदिग्ध गतिविधियों पर नजर रखते हैं. अब तो रामलीलाओं की सुरक्षा का जिम्मा द्रोण द्वारा तय किया जाने लगा है. फिर भी आतंकी बम फोड़ जाते हैं और निर्दोष लोग मारे जाते है.

नए सिरे से विचार करना होगा कि परस्पर मेलमिलाप के त्योहार हमारी ऐसी सामाजिक सोच को बढ़ावा दे रहे हैं या नहीं? दीवाली को अंधकार को समाप्त करने वाला त्योहार कहा गया है. कई तरह के अंधकारों में धार्मिक भेदभाव, असहिष्णुता, वैमनस्यता और भाईचारे, सौहार्द के अभाव का अंधेरा अधिक खतरनाक है. जब घरपरिवार, समाज में सद्भाव, प्रेम, मेलमिलाप न रहेगा तो कैसा उत्सव, कैसी खुशी? समाज में फैल रहे धर्मरूपी अंधकार को काटना दीवाली पर्व का उद्देश्य होना चाहिए. तभी इस त्योहार की सही माने में सार्थकता है.

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