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पूंजी बाजार

शेयर बाजार में गहरी डुबकी, ऊंची छलांग का खेल

दिसंबर के दूसरे पखवाडे़ के पहले सप्ताह के दौरान शेयर बाजार में अत्यधिक उतारचढ़ाव का माहौल रहा. बौम्बे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई का सूचकांक जितनी गहरी डुबकी लगा रहा था उसी स्तर की ऊंचाई तक छलांग भी लगा रहा था.दिसंबर 17 को बाजार 538 अंक लुढ़का तो अगले दिन 417 अंक की ऊंची छलांग लगा गया. इस की वजह निवेशकों का भरोसा प्रभावित करने वाले आर्थिक कारक हैं लेकिन जिस ऊंचाई से बाजार गिरा और फिर जिस ऊंचाई पर चढ़ कर खड़ा हुआ उस से विशेषज्ञ भी असमंजस की स्थिति में हैं. वे यह अनुमान नहीं लगा पा रहे कि बाजार के आने वाले दिन किस तरह के रहेंगे. रुपया एक साल के निचले स्तर तक पहुंच चुका है हालांकि जिंस बाजार में कच्चे तेल के दाम 5 साल में सब से कम स्तर तक पहुंच चुके हैं और तेल उत्पादक देशों के संगठन ओपेक के तेल उत्पादन कम नहीं करने के फैसले से महंगाई की दर के और भी घटने के आसार होने के बावजूद बाजार में अस्थिरता का माहौल बना हुआ है.

बाजार में गिरावट का सिलसिला पखवाड़े की शुरुआत से ही है और कई बार सूचकांक 28 हजार के मनोवैज्ञानिक स्तर से नीचे आया है. दिसंबर मध्य तक सूचकांक में ज्यादातर गिरावट का रुख ही रहा है और सूचकांक लगातार कई सत्रों में गिरावट पर बंद हुआ है. बाजार में गिरावट के रुख की वजहों में डौलर के मुकाबले रूस की मुद्रा रूबल के दाम बढ़ने और नवंबर में व्यापार घाटे के 18 माह में सब से अधिक रहना शामिल है. वहीं, सूचकांक 17 दिसंबर को 16 माह में एक दिन की सर्वाधिक गिरावट के साथ बंद हुआ लेकिन निवेशकों का विश्वास ज्यादा देर तक नहीं डगमगाया और अगले ही सत्र में सूचकांक फिर लंबी छलांग लगा गया.

बीपीएम उद्योग का रुख छोटे शहरों की ओर

बिजनैस प्रोसैसिंग मैनेजमैंट यानी बीपीएम का जमाना है. बदले हुए औद्योगिक परिवेश में बीपीएम कंपनियां करोड़ोंअरबों का कारोबार कर रही हैं. यह उद्योग अब तक महानगरों तक सीमित है और इन का 90 प्रतिशत राजस्व दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, पुणे, हैदराबाद या बेंगलुरु जैसे महानगरों तक सीमित है. इन शहरों में बीपीएम कंपनियों का सालाना कारोबार करीब सवा लाख करोड़ रुपए का है. समय बदल रहा है और बीपीएम उद्योग ने समय के साथ बदलने का मन बना लिया है.बीपीएम उद्योग जानता है कि छोटे और मझोले शहरों का व्यावसायिक माहौल बदल रहा है. वहां प्रतिभाशाली और अपेक्षाकृत कम दाम पर मानव संसाधन मिल रहा है, मजदूरी कम और प्रतिभाएं ज्यादा हैं साथ ही, कम किराये पर ज्यादा जगह ले कर ज्यादा कारोबार किया जा सकता है. इसलिए अहमदाबाद, भुवनेश्वर, जयपुर, विशाखापत्तनम, कोयंबटूर, कोच्चि, इंदौर जैसे शहरों में कई कंपनियों ने अपने केंद्र खोल दिए हैं और ये सब केंद्र इन कंपनियों को ज्यादा मुनाफा दे रहे हैं.

इन कंपनियों में मानवसंसाधन की प्रतिभाएं छोटे और मझोले शहरों से आ कर काम कर रही हैं. बीपीएम कंपनियों में काम करने वाले 50 फीसदी कर्मचारी इन्हीं शहरों से हैं. उन में काम के प्रति समर्पण और अच्छा परिणाम देने की क्षमता को देख कर ही इन कंपनियों ने दूसरे और तीसरे शहरों का रुख करने की योजना बनाई है. यह योजना तेजी से जमीनी हकीकत में बदल रही है और अब एक के बाद दूसरी कंपनी महानगरों के छोटे शहरों की तरफ बढ़ रही है. यह सुखद स्थिति है. इस तरह महानगरों पर जनसंख्या का भार कम होना शुरू हो जाएगा. छोटे शहरों और कसबों से महानगरों की तरफ होने वाला पलायन रुक जाएगा और देश के सभी हिस्सों का समान रूप से विकास शुरू हो जाएगा. निश्चित रूप से यह तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था भारत के लिए अच्छे संकेत है.

कालाधन परोसने वाले देशों में भारत का चौथा स्थान

कालेधन की वापसी पर राजनीतिक रंग चढ़ रहा है. कालाधन सत्ता की मलाई चाटने का अच्छा जरिया बन गया है, इसलिए यह राजनीति के केंद्र में आ गया है. विदेशों में कालाधन जमा करने वाले दुनिया के 4 प्रमुख देशों में भारत शामिल है. यह ठीक है कि चीन और रूस के बाद तीसरे स्थान पर खड़ा भारत इस बीच मैक्सिको के बीच में आने के कारण चौथे स्थान पर पहुंच गया है लेकिन यह आंकड़ा चौंकाने वाला है कि 2012 में विकासशील और उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों से जितना कालाधन विदेशों में जमा हुआ, उस का 10 फीसदी धन भारत का था. यह सिलसिला लंबे समय से चल रहा है.

वाशिंगटन स्थित ग्लोबल फाइनैंशियल इंटिग्रिटी ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि 2003 से 2012 के बीच हर साल 94.76 अरब डौलर अवैध रूप से विदेश भेजे गए. इस तरह से एक अनुमान के अनुसार विदेशी बैंकों में भारत के 28 लाख करोड़ रुपए हैं. उच्चतम न्यायालय के आदेश पर सरकार ने कालाधन का पता लगाने के लिए विशेष जांच दल यानी एसआईटी का गठन किया है. एसआईटी अपने काम में आगे बढ़ रहा है और उस ने अब तक 4,479 करोड़ रुपए का पता लगाया है. उस ने कहा है कि यह पैसा जिनेवा में एचएसबीसी बैंक की शाखा में जमा है.

अब सरकार के समक्ष इस पैसे को वापस लाने की चुनौती है, जो बहुत कठिन है. बहरहाल यह बात चिंतनीय है क्योंकि हमारे करोड़ों लोगों के पास रहने के लिए छत नहीं है, लाखों लोग खाली पेट फुटपाथ पर सो रहे हैं. करोड़ों बच्चे गरीबी की वजह से स्कूल नहीं जा पाते हैं और लाखों लोग गरीबी से तंग आ कर आत्महत्या करते हैं. ऐसी स्थिति में यदि विदेश में कालाधन जमा करने वाले देशों में हमारे देश के लोग लिप्त हैं तो यह दुखद, अन्यायपूर्ण और अमानवीय स्थिति है.

उपभोक्ता अदालत में शिकायत

उपभोक्ता अदालत को ले कर सरकारी विज्ञापन ऐसी तसवीर पेश करते हैं कि कंपनियों ने धोखा किया नहीं कि उपभोक्ता अदालत उन्हें सबक सिखा देगी. विज्ञापनों से उपभोक्ता का भला हो या न हो लेकिन उस का मनोबल जरूर बढ़ता है. हर क्षेत्र को उपभोक्ता अदालत के दायरे में लाने का उपक्रम हो रहा है. दूरसंचार विभाग ने मोबाइल सेवा और मोबाइल फोन उपलब्ध कराने वाली कंपनियों को उपभोक्ता कानून के दायरे में लाने की तैयारी शुरू कर दी है.

दूरसंचार नियामक यानी ट्राई हालांकि इस तरह की शिकायतें सुनता रहा है लेकिन वह बहुत प्रभावी साबित नहीं हुआ है और न ही उस के पास बहुत अधिक अधिकार हैं. वह निजी मामलों का समाधान करने में सक्षम नहीं है. यह ठीक है कि उपभोक्ता अदालत के पास बहुत अधिकार हैं लेकिन उपभोक्ता अदालत की प्रक्रिया उतनी सरल नहीं है जितनी उसे प्रचारित किया जाता है. इस अदालत के लिए शिकायत करने पर वकील की जरूरत होती है जबकि आम आदमी वकील और कोर्टकचहरी से बचता है. लेखक का अनुभव भी उपभोक्ताअदालत को ले कर ठीक नहीं है. मेरे 2008 के एक मामले में कर्जन रोड, दिल्ली स्थित उपभोक्ता अदालत का फैसला अब तक नहीं आया है.

वैबसाइट देख कर पाठक केस संख्या – सी 616/2008 देखें और निर्णय लें कि जिस अदालत से हर साल मात्र 8 हजार रुपए की लड़ाई नहीं जीती या हारी जा सकती या उस पर फैसला नहीं आता है तो ऐसी अदालतों की उपयोगिता पर सवाल स्वाभाविक हैं. बहरहाल, इस तरह का मामला अपवाद हो सकता है, ज्यादातर मामलों में उपभोक्ताओं को लाभ होता है. एक उदाहरण को ले कर किसी व्यवस्था को सही अथवा गलत नहीं ठहराया जा सकता लेकिन इसे उदाहरण के रूप में पेश जरूर किया जा सकता है. उम्मीद है कि दूरसंचार उपकरणों के उपभोक्ता अदालत के दायरे में आने से उपभोक्ताओं को लाभ मिलेगा.

भारत भूमि युगे युगे

आडवाणी के बोल

वृद्धावस्था में आदमी लाख चाहे, व्यावहारिक बातें नहीं कर पाता. इसीलिए लोग उन के लिए बुढ़ापा और सठियाना जैसे विशेषणों का प्रयोग करते हैं. भाजपा के पितृपुरुष लालकृष्ण आडवाणी अरसे बाद कुछ बोले और जो बोले उस का सार यह था कि धर्मग्रंथों-रामायण व महाभारत में ज्ञान, जीवन सार और आध्यात्म की बातें हैं, लोगों को इन्हें जरूर पढ़ना चाहिए.इत्तेफाक से उसी वक्त सस्ती धार्मिक पुस्तकें छापने वाली सब से बड़ी दुकान गोरखपुर की गीता प्रैस में प्रबंधन और कर्मचारियों के बीच विवाद के चलते ताले पड़े. लिहाजा, सुनने वालों ने आह सी भरी कि अब कैसे पढें, वैसे भी धर्म का सार गलीचौराहों पर मुफ्त में मिल ही जाता है. इसलिए किसी ने आडवाणी की सलाह पर ध्यान नहीं दिया.

रिटर्न गिफ्ट

बच्चों के जन्मदिन समारोह में बच्चों को व शादियों में बरातियों को रिटर्न गिफ्ट क्यों दें की समस्या हल करना आसान नहीं है. फिर यह तो अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के दौरे की बात है जिस का रोमांच देशभर में महसूस किया जा रहा है कि वे कहां ठहरेंगे, क्या खाएंगे और वे कौन हस्तियां होंगी जिन्हें उन से मिलने का मौका मिलेगा.दिसंबर के तीसरे हफ्ते में राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया दिल्ली के रामलीला मैदान में लगी प्रदर्शनी देखने आईं तो वहां उन्हें गांधीजी की एक प्रतिमा इतनी पसंद आई कि उसे तुरंत पैक करवा कर उन्होंने पीएम हाउस इस आग्रह के साथ भेज दिया कि ओबामा को रिटर्न गिफ्ट देने के लिए यह मूर्ति बेहतर रहेगी. मोदी-ओबामा के रिश्ते बेहतर हों न हों पर वसुंधरा-मोदी के रिश्ते इस पहल से सुधर सकते हैं. उधर, मुमकिन है ओबामा भी मार्टिन लूथर किंग की प्रतिमा उपहार में ला रहे हों.

मफलर मैन

मफलर बड़े काम की चीज है. सर्दियों में यह हवा से बचने के लिए कान ढंकने के काम आता है, लेनदारों से मुंह छिपाया जा सकता है, बहती नाक भी पोंछी जा सकती है व गरमियों में पसीना और बारिश में भीगे बालों को भी मफलर से पोंछा जा सकता है पर शर्त यह है कि इसे बारहों महीने गले में लटका रखो. लेकिन आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल तो मफलर से पैसा कमा रहे हैं. वे जगहजगह एक नए अवतार में जा रहे हैं जिसे उन के अनुयायियों ने मफलर मैन नाम दिया है. हालांकि पहले की तरह केजरीवाल को हाथोंहाथ नहीं लिया जा रहा फिर भी कामचलाऊ पैसा लोग उन्हें दे ही रहे हैं. अरविंद केजरीवाल यानी मफलर मैन के संग लंच या डिनर जिन्हें लेना होता है वे बोली लगाते हैं और जेब ढीली होने के बाद उसे टटोलते हैं कि मफलर खरीदने लायक पैसा बचा या नहीं.

हरहर गंगे

लोगों को यकीन नहीं होता कि उमा भारती सरीखी नेता इतनी खामोशी व गुमनामी की जिंदगी जीने को भी राजी हो सकती हैं. मानो उन के होने के कोई माने न हों. केंद्रीय जल संसाधन और गंगा पुनरुद्धार जैसे चलताऊ मंत्रालय से वक्त काट रही उमा अपना ज्यादातर वक्त दिल्ली के बजाय गंगा किनारे गुजारती हैं. शांति की तलाश में उमा कड़़कड़ाती ठंड में 14 दिसंबर, 2014 को इलाहाबाद पहुंचीं तो संतों ने उन्हें घेर लिया. मुद्दा था, गंगा का गंदा पानी. इस पर उमा खामोश रहीं तो संत समुदाय बिफर पड़ा कि सरकार सिर्फ कागजी घोड़े दौड़ा रही है. इन संतों को शायद उमा यही बताना चाह रही थीं कि असल सरकार वे नहीं, कोई और है.

छलावा है ज्योतिष

राजस्थान के भीलवाड़ा के ज्योतिषी पंडित नाथूलाल व्यास जिंदगीभर की कमाई खर्च कर भी उतनी शोहरत हासिल नहीं कर सकते थे जितनी एकदिन में मुफ्त में केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने उन के घर जा कर दिला दी. इस रात न्यूज चैनल्स हल्ला मचाते रहे कि स्मृति ईरानी के बारे में इसी ज्योतिषी ने मंत्री बनने की भविष्यवाणी की थी और अब उन के राष्ट्रपति बनने की भविष्यवाणी की है. दूसरे दिन के तमाम अखबार इसी समाचार से रंगे रहे. कुछ लोगों, खासतौर से विपक्षी दल कांग्रेस, ने स्मृति ईरानी पर अंधविश्वास फैलाने का आरोप मढ़ा तो एवज में एक न्यूज चैनल ने कुछ पुराने फोटो दिखा कर यह साबित करने की कोशिश की कि अकेली स्मृति का दोष ही नहीं, ज्योतिषियों, पंडों और तांत्रिकों के पास तो कांग्रेस सहित तमाम दलों के नेता जाते रहे हैं.

2 दिन कोशिश कुल जमा यह थी कि सारा फोकस राजनेताओं पर ही रहे और एक हद तक ऐसा हुआ भी. दरअसल, यह कोशिश एक तरह की साजिश थी कि आम लोगों का ध्यान ज्योतिष पर बिछे जाल की तरफ न जाए क्योंकि ज्योतिषी अब मीडिया को करोड़ोंअरबों रुपए के इश्तिहार देते हैं. ऐसे में भला कौन हिम्मत करता, यह कहता कि ज्योतिष एक छलावा है, ठगी है.

स्मृति ईरानी ने वाकई नया या अजीब कुछ नहीं किया, उन्होंने वही किया है जो देश के अधिकांश लोग कर रहे हैं. इन में पढ़ेलिखे, बुद्धिजीवी और तर्कशास्त्रियों तक से ले कर अनपढ़देहाती भी शामिल हैं. अपने बौद्धिक और आर्थिक स्तर के हिसाब से सभी ने ज्योतिषी चुन रखे हैं. भविष्य तो तोते भी बता रहे हैं और कंप्यूटर भी. नाथूलाल व्यास पुराने जमाने के ज्योतिषी हैं, धोतीकुर्ता वाले. नए जमाने के हाईटैक ज्योतिषी सूटबूट पहनते हैं, अंगरेजी में भविष्य बताते हैं. उन की फीस लाखों में होती है. वे तेजी से फलतेफूलते इस कारोबार के बडे़ ब्रैंड हैं. लेकिन 11 रुपए की फीस वाले ज्योतिषियों का जमाना भी अभी लदा नहीं है.

शिक्षित लोगों की मूर्खताएं और दिमागी दिवालियापन जिनजिन कामों से प्रदर्शित होता है, ज्योतिष उन में सब से अहम है. यह इतना बड़ा हो चला है कि देश की 95 फीसदी आबादी इस की गिरफ्त में है. जो 5 फीसदी आबादी बचती है उस में से 4 फीसदी ही अपने दम और आत्मविश्वास पर जीती नजर आती है. शेष एक फीसदी वे लोग हैं जो ज्योतिष के कारोबार से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष जुड़े हुए हैं.

गहरी साजिश

हर वह सेवा या उत्पाद जिस का प्रचार इश्तिहारों के जरिए करना पड़े, कारोबार होता है. आजकल ज्योतिषी अरबों रुपया अपने धंधे के प्रचारप्रसार पर फूंक रहे हैं. इस से साफ है कि वे एवज में खरबों रुपए कमा भी रहे हैं. न्यूज चैनल्स पर ज्योतिषी स्क्रीन पर बैठे लोगों को ग्रहनक्षत्रों की चाल और गणना की बिना पर परेशानियों को दूर करने के उपाय बता रहे हैंकोई भी अखबार उठा लें ज्योतिष उस में जरूर मिलेगा. दैनिक राशिफल से ले कर वार्षिक भविष्यफल तक बताया जाता है. कहीं लोग विश्वास करने से इनकार न करने लगें, इस के लिए कुछ अखबार तो 2-3 तरह के भविष्य और राशिफल छाप रहे हैं. एक फलित ज्योतिष तो दूसरा अंक और तीसरा टेरो कार्ड वाला यानी कोई न कोई तो आप की परेशानियों के नजदीक होगा ही. ये भविष्यफल सट्टे के नंबर के सरीखे होते हैं. इन में से जो आप को माफिक बैठे, उसे मान लो.

इतने बड़े पैमाने पर ज्योतिष का प्रचारप्रसार कभी नहीं हुआ था. सीधी सी बात यह है कि ठगी के इस धंधे में अब प्रतिस्पर्धा भी बढ़ रही है. कल तक पंडे और ब्राह्मण ही भविष्य और भाग्य बांचते थे, अब हर कोई यह काम कर पैसा कमा रहा है. दिलचस्पी की बात यह है कि ज्योतिष के धंधे में अब महिलाएं भी तेजी से आ रही हैं. इन्हें घर में बैठी रहने वाली महिला ग्राहकों को रिझाने में सहूलियत रहती है. वैसे भी, किसी कारोबार या ठगी पर अब पुरुषों का ही एकाधिकार नहीं रह गया है.नए जमाने के ये हाईटैक ज्योतिषी ऐरेगैरे नहीं हैं. ये पूरे आत्मविश्वास से बताते हैं कि आप की परेशानी का हल क्या है. मसलन, एक चैनल पर युवा ज्योतिषी टेबल पर लैपटौप ले कर बैठता है. कार्यक्रम शुरू होता है तो एंकर ज्योतिषी की ब्रह्मा तक पहुंच का बखान कर एकएक कर फोन सुनती है. एक फोन करने वाली जिसे कौलर कहा जाता है, पूछती है कि पंडितजी, मेरे बेटे का जन्म 14 अगस्त, 1992 की रात 11.40 बजे हुआ है. उस का कैरियर क्या होगा? उसे किस तरह की नौकरी मिलेगी?

पंडितजी की-बोर्ड के बटन खटखटा कर कुछ ही सैकंडों में कुंडली नाम के सौफ्टवेयर की कृपा से जन्मकुंडली बना कर धीरगंभीर आवाज में बताते हैं कि आप के बेटे को नौकरी किसी सौफ्टवेयर कंपनी में मिलेगी. उस का बुध थोड़ा कमजोर है, बेटे को पन्ना नग पहनाएं और गणेश का पूजन करें. फोन करने वाली मां यह सुन कर धन्य हो जाती है कि बेटे की नौकरी पक्की हो गई. वह दूसरे दिन 4 रत्ती का पन्ना ला कर बेटे की उंगली में ठूंस देती है और खुद गणेशपूजा में जुट जाती है. दूसरे कौलर बेटी की शादी को ले कर परेशान हैं. फोन करते हैं, पंडितजी तुरंत जन्मपत्री देखते हैं और बताते हैं कि आप की बिटिया को आंशिक मंगल है, लिहाजा, शादी में मामूली अड़चन आएगी. लेकिन ये उपाय करें और निश्ंिचत रहें. शादी अप्रैल 2016 तक हो जाएगी. फोन करने वाला पिता गद्गद हो जाता है कि जरा सी अड़चन है फिर 2 साल बाद शादी हो ही जाएगी, इसलिए बताए गए उपाय करने में हर्ज क्या है.

इस तरह की ढेरों शाश्वत चिंताएं और परेशानियां टैलीविजन वाले पंडित को बताई जाती हैं. वह फुरती से ग्राहकों को निबटाता जाता है. उस का यह विज्ञापनीय कार्यक्रम सालछह महीने चलता है, फिर हैरानपरेशान लोग उस ज्योतिषी के स्क्रीन पर बताए गए फोन नंबरों पर संपर्क करते हैं और हजारों रुपए फीस के दे कर अपनी कथित समस्या का कथित हल निकलवाते हैं. अगर निर्मल बाबा छाप टोटकों से ग्राहक संतुष्ट नहीं होता तो ये तांत्रिक क्रियाओं के नाम पर भी पैसे ऐंठने में चूकते नहीं.ये हल वही हैं जो सालों पहले हुआ करते थे पर अब नए तरीके और नए अंदाज में पेश किए जा रहे हैं. लोगों की अंधविश्वासी और शौर्टकट ढूंढ़ने की मानसिकता पर धड़ल्ले से रोज करोड़ों का व्यापार होता है जिस में कौलर ठगा जा रहा है, फलफूल रहे हैं तो यजमान से फीस लेने वाले ज्योतिषी और उन से विज्ञापनीय कार्यक्रम का शुल्क लेने वाले चैनल्स जिन्हें समाज से या लोगों के भले से कोई सरोकार नहीं.

अखबार और पत्रिकाएं भी इस में पीछे नहीं हैं. हर अखबार में वर्गीकृत से ले कर बडे़बड़े विज्ञापन ज्योतिषियों के छप रहे हैं जिन में सैकंडों में आप की समस्या के समाधान की गारंटी ली जा रही है.ये सब क्या है? लोग जरा भी बुद्धिमानी और तर्क से सोचें तो पाएंगे, निरा खोखलापन है जिस का दूसरा पहलू बड़ा दिलचस्प है कि लोग धर्म और भगवान को नहीं मानते हैं. जो यह कहता है कि ब्रह्मा गर्भ में ही भाग्य रच देता है, उस का लिखा अटल है. आजकल के भगवान तो ये ज्योतिषी हैं जो ब्रह्मा का लिखा भी पलट देने का दावा करते हैं क्योंकि ये बेहतर जानते हैं कि ब्रह्मा कहीं है ही नहीं तो लिखेगा क्या, इसलिए भरपूर फायदा उस के न लिखे जाने का उठाया जाए.

शिविर लगाने का नया फंडा

धंधा बनाए रखने और बढ़ाने के लिए अब ये ज्योतिषी तरहतरह के नामों से संगठन बना कर शिविर लगाते हैं और ग्राहकों को पटाते हैं. अकेले भोपाल में हर दूसरे महीने कोई दर्जनभर ज्योतिषी इकट्ठा हो कर शहर के अलगअलग इलाकों में निशुल्क परामर्श शिविरों में व्याख्यान देने लगे हैं.ज्योतिष शिविरों में हर तरह के लोग आते हैं. एक शिविर में यह प्रतिनिधि गया और पूरे दिन नजारा देखा तो समझ आया कि किसी का दांपत्य कलह भरा है, किसी की पत्नी या पति कहीं अफेयर में फंस गया है तो कोई बेटी के गलत लड़के से प्रेमप्रसंग को ले कर तनाव में है. बेटे के जौब के बारे में जानने के लिए भी लोगों की भीड़ उमड़ती है. कोई असाध्य बीमारी से छुटकारा पाने के लिए शिविर में आया है तो कोई दफ्तर में बौस या सहकर्मी से तंग है. ऐसी ढेरों समस्याओं पर ज्योतिषियों ने निशुल्क परामर्श दिया लेकिन पुख्ता व गारंटीशुदा समाधान के लिए विजिटिंग कार्ड दे कर अपने दफ्तर में आने को कहा.

यह शिविर कहने को ही निशुल्क होते हैं, मकसद ग्राहकों की भीड़ इकट्ठा कर, बाद में उन्हें निचोड़ने का होता है और इस में वे कामयाब भी होते हैं. ये सभी ज्योतिषी पढ़ेलिखे और अधिकांश सरकारी पद पर सम्मानजनक नौकरी कर रहे थे और कुछ रिटायरमैंट के कगार पर थे जो आने वाले वक्त में मुफ्त की मलाई जीमने का इंतजाम कर रहे थे. इन का व्यक्तित्व और वाक्पटुता देख लोग प्रभावित थे पर यह नहीं सोच पा रहे थे कि यह शुद्ध ठगी है. लैपटौप और कंप्यूटर का दुरुपयोग करते ये ज्योतिषी किसी और का भले ही भविष्य न संवार पाएं, अपना भविष्य जरूर संवार चुके थे. 8-10 टेबलों पर बैठे इन ज्योतिषियों में कोई आपसी बैर नहीं था. इन की हालत अदालत के बाहर बैठे मुंशियों और दस्तावेज लेखकों जैसी थी कि जो जिस के पास आ गया वह उस का स्थायी ग्राहक हो कर रह गया.

क्या है सच

परेशानियां हैं, इस में कोई शक नहीं. और वे रहेंगी भी. लेकिन पढ़ेलिखे लोग ज्यादा आत्मविश्वास की कमी के शिकार हैं. उन के दिलोदिमाग में यह बात गहरे से बैठी है कि कोई सुप्रीम पावर है जो उन्हें और दुनिया को संचालित करती है. वही इन ज्योतिषियों के जरिए उन की समस्याएं हल करेगा, इसलिए हमें कोई कोशिश नहीं करनी है. जबकि हकीकत यह है कि लोग खुद कोशिश करते हैं और उसी के दम पर कामयाब होते हैं. लेकिन हैरानी यह है कि वे श्रेय ज्योतिषी के सुझाए उपायों को देते हैं. जाहिर है ये लोग ही अकर्मण्य और जीवन की वास्तविकताओं से भागने वाले हैं. वे बगैर मेहनत किए पैसा चाहते हैं और असल बात जिम्मेदारियों से कतराते हैं.ये ज्योतिषी बड़े मनोवैज्ञानिक ढंग से ग्राहक को घेरते हैं और साबित करने की कोशिश करते हैं कि ज्योतिष एक विज्ञान है, सूर्य समेत तमाम ग्रहनक्षत्र जिंदगी को प्रभावित करते हैं. बुरे दिनों या हालात से छुटकारा पाना मुश्किल काम नहीं है, जरूरत ग्रहनक्षत्रों को अपने अनुकूल करने की है जो कुछ हजार रुपयों में हो जाते हैं.

तगड़ी मुरगी हो तो ज्योतिषी एक एलबम निकालते हैं जिस में नामीगिरामी नेता, फिल्मकार, व्यापारी, उद्योगपति, प्रोफैसर, डाक्टर, पत्रकार और दूसरे लोग इन के साथ होते हैं. इस का वाजिब असर पड़ता है और लोग यही सोचते हैं कि कुछ न कुछ तो सच इस में होगा जो अपने क्षेत्र के कामयाब लोग इन के पास आते हैं.स्मृति ईरानी इस की ताजा और चर्चित उदाहरण हैं. उन का अमेठी संसदीय क्षेत्र में राहुल गांधी से चुनाव हार जाने के बाद भी मंत्री बन जाना अप्रत्याशित बात थी जिस का श्रेय उन के राजनीतिक गुरु और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को न जा कर नाथूलाल व्यास को गया, जिस के पास अब ग्राहकों की भीड़ बढ़ना तय है. ज्योतिषियों के संगठन और विज्ञापन अंधविश्वास को बहुत ज्यादा फैला रहे हैं. ये शक्तिवर्धक दवाइयों की तरह हैं कि एक बार आजमा कर देखने में हर्ज क्या है. ये वैसे इश्तिहार हैं जिन्हें देख लोगों को खुदबखुद ही कमजोरी का एहसास होने लगता है.

हर्ज यह है कि इस से समाज पिछड़ रहा है. लोगों की मेहनत और कोशिशों का श्रेय ठगों के खाते में जा रहा है. नई पीढ़ी को भी अंधविश्वासी बनाया जा रहा है ताकि वह बाकी जिंदगी ज्योतिष पर पैसा लुटाती रहे. जिन लोगों के काम हो जाते हैं वे स्मृति ईरानी की तरह अपने ज्योतिषी का प्रचार करने में जुट जाते हैं और जिन के नहीं होते वे कथित किस्मत को कोसते किसी बड़े ज्योतिषी की गिरफ्त में जा फंसते हैं. जो हस्तरेखाएं देखे, जन्मकुंडली बांचे या अंक ज्योतिष का सहारा ले, वह ग्राहक को निचोड़ने में रहम नहीं करता.

कोई कानून ऐसा नहीं है जो इन कुकुरमुत्ते से उगते इश्तिहारी ज्योतिषियों की गिरहबान पकड़े. अगर है भी तो लोग उस का सहारा लेने की हिम्मत नहीं जुटा पाते. किसी डाक्टर की लापरवाही से मरीज मर जाए या खतरे में पड़ जाए तो उस की पिटाई कर दी जाती है, और अदालत का दरवाजा खटखटाया भी जाता है. डाक्टर चूंकि जानकार होता है इसलिए उसे चुनौती दलीलों के जरिए दी जा सकती है ज्योतिषी को नहीं क्योंकि उस की कोई जिम्मेदारी अपने कथित ज्ञान और विद्या के बाबत नहीं बनती और न ही ज्योतिष के कारोबार का कोई सबूत या वजूद होता है.

क्यों पढ़ें बच्चे जरमन या संस्कृत

केंद्रीय विद्यालय के छात्रों को तीसरी भाषा के तौर पर जरमन पढ़ाने को ले कर हाल ही में केंद्रीय विद्यालय, केंद्र सरकार, सुप्रीम कोर्ट और तमाम शिक्षाविद माथापच्ची करते नजर आए. इस से कम से कम एक बात सामने आई कि इस से सब से ज्यादा प्रभावित होने वाले बच्चों के लिए जरमन हो या उस की जगह केंद्र की ओर से थोपी गई संस्कृत, दोनों एक अतिरिक्त बोझ की तरह ही हैं. आज के समय में जब बच्चों के बस्तों का बोझ बढ़ता जा रहा है और यह लगातार कहा जा रहा है कि हम उन्हें व्यावहारिक शिक्षा नहीं दे पा रहे हैं, ऐसे में सुप्रीम कोर्ट को भी कहना पड़ा कि संस्कृत भले ही मिड टर्म से केंद्रीय विद्यालयों में लागू कर दी जाए पर उस के मार्क्स नहीं जोड़े जाएंगे.

इस से एक और बात साफ हुई कि हम आज भी मार्क्स और ग्रेड्स के पीछे भाग रहे हैं, बगैर इस की परवा किए कि इस का बच्चों पर क्या असर पड़ रहा है. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से भले ही बच्चों को आंशिक राहत मिली हो लेकिन उन के भविष्य के साथ आगे खिलवाड़ हो सकता है.

साजिशन आई जरमन भाषा

जरमन भाषा को पढ़ाने या न पढ़ाने को ले कर राजनीतिक दलों, शिक्षाविदों, अध्यापकों और भाषा के जानकारों के बीच मतभेद हैं. जरमन भाषा के एक जानकार और समर्थक अमृत मेहता हैं. वे 44 साल से इस भाषा के साहित्य का अनुवाद हिंदी व पंजाबी में कर रहे हैं. अमृत ने दिल्ली प्रैस को बताया कि जरमन भाषा को केंद्रीय विद्यालयों में लागू कराना एक साजिश है. वे बताते हैं कि इस के लिए 2009 से ही तैयारियां शुरू हो गई थीं. अमृत का कहना है, ‘‘तब उन्हें लगा था कि सरकारी स्कूलों में इस भाषा को पढ़ाने का फैसला केंद्र सरकार का है, इसलिए उन्होंने इस का खुल कर विरोध नहीं किया था. लेकिन यह फैसला जरमन भाषा को भारत में पालपोस रहे संस्थानों, अधिकारियों और केंद्रीय विद्यालय प्रबंधन ने परदे के पीछे लिया था.

जरमन भाषाविद अमृत मेहता के ईमेल के जरिए प्राप्त तर्कों को यहां पेश किया जा रहा है :

स्कूल में पढ़ाई जाने वाली जरमन लैंग्वेज छात्रों के लिए कितनी सही है?

अमृत के मुताबिक जरमन भाषा अपनेआप में इतनी कठिन है कि अभी भी भारत में उस का अनुवाद करने वाले लोग गिनेचुने ही हैं. इसलिए अगर स्कूलों में यह भाषा बच्चों ने थोड़ीबहुत सीख भी ली तो वे सिर्फ हायहैलो से ज्यादा कुछ खास नहीं सीख सकेंगे. अमृत अपने छोटे बेटे का उदाहरण देते हैं कि उस ने स्कूल में तीसरी भाषा के तौर पर फ्रैंच भाषा ली थी और आज वह ‘कोमा ताले वू?’ (कैसे हो?) से ज्यादा कुछ नहीं बोल पाता है. उन के बड़े बेटे ने गोएथे संस्थान से 2 सैमेस्टर में जरमन सीखी थी, वह इस में फर्स्ट भी आया था लेकिन आज उसे गुडमौर्निंग या गुडइवनिंग से ज्यादा कुछ भी याद नहीं है.

जरमन लैंग्वेज के समर्थक होने के बावजूद अमृत बताना चाह रहे हैं कि बच्चा जरमन सीखने के बावजूद हायहैलो, गुडमौर्निंग, गुडइवनिंग जैसे शुरुआती बोलचाल के छोटे वाक्य ही सीख सकता है. जब बोलना ही इतना मुश्किल है तो जरमन लिखना और उसे पढ़ना तो और भी मुश्किल है. पर यह बात क्या सिर्फ जरमन पर ही लागू होती है? संस्कृत बोलने वाले खुद भारत में गिनेचुने लोग ही हैं.

संस्कृत बातचीत की नहीं, पढ़ने की भाषा है लेकिन इस भाषा में नया लिखा जाना लगभग बंद हो चुका है. तो फिर संस्कृत पढ़ने से बच्चों को क्या फायदा? फिर सिर्फ जरमन ही क्यों? संस्कृत भी तो बच्चों का बोझ बढ़ा रही है.

क्या गरीब बच्चों के लिए जरमन भाषा की शिक्षा उपलब्ध कराई जा रही है?

अमृत बताते हैं कि कहा जा रहा है कि केवल केंद्रीय विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चे ज्यादातर गरीब होते हैं. इन बच्चों को जरमन सिखाने के पीछे तर्क दिया जा रहा है कि अमीर बच्चे तो जरमन सीख लेते हैं लेकिन केंद्रीय विद्यालयों में पढ़ने वाले गरीब बच्चों को इसे सीखने का मौका नहीं मिल पाता. लेकिन एक रिपोर्ट के मुताबिक, सांसद इन विद्यालयों में प्रतिवर्ष 15 सीटों का कोटा अपने बच्चों के लिए आरक्षित करवाना चाहते हैं. इसी से मालूम पड़ता है कि इन केंद्रीय विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चे कितने गरीब हैं.वहीं, हकीकत यह है कि केंद्रीय विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चे सही तरह से हिंदी भी नहीं जानते. इसलिए उन के लिए संस्कृत भी जरमन जैसी ही कठिन भाषा होगी. यह हम बता ही चुके हैं कि अगर वे जरमन सीख भी गए तो हायहैलो से ज्यादा उस का इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे, वैसे ही संस्कत में भी वे हायहैलो ही कर पाएंगे.

क्या गोएथे संस्थान ने सोचसमझ कर लिया है यह फैसला?

अमृत बताते हैं कि केवल स्कूलों में जरमन को तीसरी भाषा के तौर पर लागू करवाने में गोएथे संस्थान की अहम भूमिका है. उस पर इस भाषा के प्रचारप्रसार का दारोमदार है लेकिन यह संस्थान पिछले कई सालों से जरमन भाषा के साहित्य के भारतीय भाषाओं में घटिया अनुवाद थोप रहा है. विष्णु खरे इस के आधिकारिक अनुवादक रहे हैं, जो खुद मानते हैं कि उन का जरमन ज्ञान अल्प है. अमृत का कहना है कि संस्थान खुद अच्छे अनुवादकों को सामने नहीं आने देता है. अगर संस्थान जरमन भाषा के प्रचारप्रसार को ले कर वाकई गंभीर होता तो वह पहले उस भाषा के बेहतरीन कामों को स्थानीय, भारतीय भाषाओं में अनूदित कर यहां के लोगों की जरमन भाषा के प्रति उत्सुकता बढ़ाता. लेकिन उस ने तो अनुवाद में गंभीरता ही नहीं दिखाई.

संस्कृत का समर्थन करने वाले कौन हैं और इस की क्या उपयोगिता है?

जरमन और संस्कृत भाषा बच्चों को पढ़ाने के तर्क और उन के विरोधी तर्क जान कर आप समझ ही गए होंगे कि आने वाले समय में बच्चों के लिए इन भाषाओं की कितनी जरूरत है. दरअसल, संस्कृत को स्कूलों में लागू करवाने का तर्क देने वाले चाहते हैं कि इस भाषा की महत्ता बनी रहे ताकि धर्म के जरिए रोजगार तलाशने की उन की कोशिश सफल रहे और उन की खुद की सत्ता भी बनी रहे. आज संस्कृत पढ़ने वाले सिर्फ पुरोहित, पुजारी आदि का काम कर सकते हैं. दूसरे किसी देश में इस भाषा को किसी भी रोजगार के क्षेत्र में महत्त्व नहीं मिलता. इसलिए जरमन के बजाय संस्कृत सीख कर भी बच्चों का भला नहीं हो सकता है.

अमृत के विचारों पर टिप्पणी

जिस तरह से केंद्रीय विद्यालयों में जरमन पढ़ कर भारतीय छात्र जरमनी, आस्ट्रिया या स्विट्जरलैंड में नौकरी करने के लायक नहीं बन पाते, उसी तरह से संस्कृत से भी उन्हें रोजगार या किसी दूसरी तरह का कोई फायदा नहीं मिलेगा. आज जब बोलचाल के बाद लिखने की हिंदी भी बदल चुकी है और उस में अंगरेजी, उर्दू, फारसी व अरबी के कई शब्द शामिल हो चुके हैं तो सालों से बिना बदली संस्कृत को सीखना और व्यवहार में लाना कितना मुश्किल होगा. वैसे भी कहा जाता है कि भाषा एक नदी की तरह होती है, जिस में बदलाव जरूरी होते हैं, वरना भाषा खुद खत्म हो जाती है.

अमृत का यह तर्क भी जायज है कि शौकिया तौर पर जरमन सिखाए जाने देने का भारत सरकार का निर्णय उचित है लेकिन जरमनी को भी चाहिए कि वह वहां सांध्यकालीन क्लासेज में हिंदी पढ़ाए जाने की व्यवस्था करे.

हां, छात्रों को जरमन या कोई समृद्ध भारतीय भाषा का विकल्प देना सही है. जरमनी को भी ऐसी पहल करनी चाहिए. लेकिन इस से जरमनी के छात्रों का कितना भला होगा? जब भारत में हिंदी बोलने वालों को ही रोजगार नहीं मिल रहा है तो यहां जरमन मिश्रित हिंदी बोलने वालों का क्या भविष्य होगा?

18वीं सदी के काम का नोबेल 21वीं सदी में

दुनियाभर में बाल मजदूरी के खिलाफ अलख जगाने वाले भारत के कैलाश सत्यार्थी और लड़कियों की तालीम के लिए संघर्ष करने वाली पाकिस्तान की मलाला यूसुफजई को संयुक्त रूप से शांति का नोबेल पुरस्कार दिए जाने के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में खुशी का माहौल है. नोबेल पुरस्कार के बावजूद क्षेत्र में न तो शांति का वातावरण है, न ही शिक्षा की राह की अड़चनों में कमी आने की संभावना दिखाई दे रही है. शांति का नोबेल मिलने के बाद इस क्षेत्र में मजहबी हिंसा, मारकाट और आतंकवाद का खौफ घटा नहीं है यानी अशांति कायम है.

15 दिसंबर को नार्वे की राजधानी ओस्लो में जब नोबेल सम्मान समारोह चल रहा था, उस वक्त भारत और पाकिस्तान की सीमाओं पर गोलीबारी हो रही थी. लोग मारे जा रहे थे. आतंक से समूचा क्षेत्र भयभीत था. अवार्ड मिलने के महज एक हफ्ते के भीतर ही सिडनी और पेशावर की 2 बड़ी आतंकी घटनाओं ने दुनिया को दहला दिया था. ये हमले उन्हीं 2 बड़े क्षेत्रों पर अधिक हो रहे हैं जिस के लिए कैलाश सत्यार्थी और मलाला को सम्मान से नवाजा गया था. यानी शिक्षा और बच्चों  पर. इन जघन्य घटनाओं ने घरघर में दहशत, दुख और क्षोभ भर दिया.

नोबेल पुरस्कार के इतिहास में यह पहला मौका है जब भारत और पाकिस्तान को संयुक्त रूप से यह सम्मान दिया गया है. खास बात यह कि एक हिंदू और दूसरा मुसलिम, एक स्त्री और दूसरा पुरुष, एक हिंदुस्तानी तो दूसरा पाकिस्तानी को मिला है. पुरस्कार को ले कर समूचे क्षेत्र में जश्न मनाया गया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा भी सत्यार्र्थी और मलाला को बधाई दी गई. ग्लोबल मार्च अगेंस्ट चाइल्ड लेबर के चेयरमैन कैलाश सत्यार्थी ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ के जरिए बाल अधिकारों के लिए पिछले 35 सालों से लगातार संघर्ष करते रहे हैं. उन्होंने 83 हजार बाल मजदूरों को मुक्ति दिलाई है.

ओस्लो के सिटी हौल में कैलाश सत्यार्थी ने कहा, ‘‘मैं यहां गुमनामी की आवाज, बेगुनाह चीख और अदृश्य चेहरे का प्रतिनिधित्व करता हूं. मैं यहां अपने बच्चों की आवाज और सपनों को साझा करने आया हूं.’’ पाकिस्तान की मलाला ने तालिबान के हमले के बावजूद पाकिस्तान सरीखे देश में लड़कियों की शिक्षा के लिए अपने अभियान को जारी रखने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताते हुए साहस दिखाया. वे 15 साल की थीं जब बालिका शिक्षा अभियान की अगुआई कर रही थीं. इस से बौखलाए तालिबान के एक आतंकवादी ने उन्हें सिर में गोली मार दी थी.

नोबेल सम्मान के अवसर पर मलाला ने कहा, ‘‘मैं इसे ले कर खुश हूं कि हम खड़े हो सकते हैं और दुनिया को दिखा सकते हैं कि भारत और पाकिस्तान अमन में एकजुट हो सकते हैं तथा बाल अधिकारों के लिए काम कर सकते हैं. मेरे और देश के लिए इस पुरस्कार को जीतना गौरव की बात है. यह पुरस्कार उन सब बच्चों के लिए है जो अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाते हैं.’’ अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक दुनियाभर में 16.8 करोड़ बाल श्रमिक हैं. माना जाता है कि भारत में बाल श्रमिकों का आंकड़ा 6 करोड़ के आसपास है तो उधर पाकिस्तान में भी 6 करोड़ से अधिक बालिकाएं शिक्षा के अधिकार से वंचित हैं. दोनों के नामों की घोषणा नोबेल शांति पुरस्कार समिति ने 10 अक्तूबर को की थी.

सत्यार्थी का संघर्ष

सत्यार्थी की वैबसाइट मुताबिक, बाल श्रमिकों को छुड़ाने के दौरान उन पर कई बार जानलेवा हमले हुए. 17 मार्च, 2011 को दिल्ली की एक कपड़ा फैक्टरी पर छापे के दौरान उन पर हमला किया गया. इस से पहले 2004 में ग्रेट रोमन सर्कस से बाल कलाकारों को छुड़ाने के दौरान उन पर हमला हुआ था. नोबेल से पहले उन के कार्यों के कारण उन्हें विभिन्न राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया. उन्हें 1994 में जरमनी का ‘द एयकनर राइट्स अवार्ड’, 2007 में  ‘मेडल औफ इटेलिया सीनेट’  और 2009 में अमेरिका के ‘द डिफैंडर्स औफ डैमोके्रसी’ अवार्ड मिल चुके हैं. 60 वर्षीय कैलाश सत्यार्थी ने 1980 में बचपन बचाओ आंदोलन की स्थापना की थी. वे विश्वभर में 144 देशों के हजारों बच्चों के अधिकार की रक्षा के लिए काम कर चुके हैं. उन के कार्यों के कारण ही 1999 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा बालश्रम की निकृष्टतम श्रेणियों पर संधि सं. 182 को स्वीकार किया गया जो अब दुनियाभर की सरकारों के लिए इस क्षेत्र में प्रमुख मार्गनिर्देशक है.

मलाला की मुहिम

पाकिस्तान के  खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के स्वात जिले के मिंगोरा कसबे में खुशाल पब्लिक स्कूल की 8वीं की जमात की छात्रा थीं मलाला. मलाला के पिता जियाउद्दीन शिक्षण संस्थान से जुड़े हैं और कवि भी हैं. मलाला के 2 छोटे भाई और मां हैं. वे शुरू से ही लड़कियों के लिए तालीम के खिलाफ कट्टरपंथियों के फतवों से परेशान रहती थीं. उन्हें खुद अपनी पढ़ाईलिखाई का हर्जाना भुगतना पड़ा था. औरतों की पढ़ाईलिखाई, टैलीविजन देखने, गीतसंगीत सुनने, नाचनेगाने और बाजारों में खरीदारी के लिए जाने पर पाबंदियां लगा दी गई थीं. इलाके में लड़कियों के दर्जनों स्कूलों को तोड़फोड़ दिया गया और सैकड़ों स्कूल बंद करा दिए गए. इन में मिंगोरा के तमाम स्कूलों समेत मलाला का स्कूल भी था.

लड़कियों के प्रति तालिबान की इस तानाशाही से मलाला बहुत दुखी हुईं. उन्होंने इस के खिलाफ लड़ना तय किया. उन के पिता उन के साथ खड़े हो गए और मलाला अंधेरे के खिलाफ चिराग ले कर निकल पड़ीं. लड़कियों की शिक्षा के लिए वे जान की बाजी लगा कर जुट गईं और लोगों को भी जगाना शुरू कर दिया. मलाला ने तहरीक-ए-तालिबान की तानाशाही हुकूमत के बारे में बीबीसी उर्दू पर एक छद्म ‘गुल मकई’ नाम से ब्लौग में अपना दर्द जाहिर करना शुरू किया. वे इलाके की लड़कियों से आतंकवादियों के खतरे के बावजूद तालीम जारी रखने का आह्वान करने लगीं. शिक्षा की  इस मुहिम के नतीजे में मलाला को डिस्ट्रिक्ट चाइल्ड एसैंबली, स्वात का चैयरपर्सन बनाया गया था. यह एसैंबली यूनिसेफ के सहयोग से खपल कोर फाउंडेशन ने बनाई थी. यह बच्चों की शिक्षा के अधिकार पर आवाज उठाती है. मलाला ने इंस्टिट्यूट फौर वार ऐंड पीस रिपोर्टिंग के ‘ओपन माइंड’ कार्यक्रम में भी भाग लेना शुरू कर दिया था. यह संस्था पाकिस्तान में पत्रकारिता और प्रशिक्षण पर विचारविमर्श करती है. इस कार्य से अनेक लड़के और लड़कियां प्रेरित होने लगे थे. 2012 में मलाला ने गरीब लड़कियों को स्कूल भेजने के लिए मलाला एजुकेशन फाउंडेशन की शुरुआत की थी. इस तरह के काम के लिए उन्हें 2011 में पाकिस्तान का पहला युवा शांति पुरस्कार मिला था. संयुक्त राष्ट्र की ओर से डेशमंड टूटू ने शांति पुरस्कार के लिए उन का नाम नामांकित किया था.   

मलाला की शिक्षा की इस मुहिम की लोकल अखबारों, टैलीविजन चैनलों में खबरें आने लगीं. तालिबान को मलाला की यह मुहिम रास नहीं आ रही थी और वे खासे खफा रहने लगे तथा मलाला को अपनी हिटलिस्ट में सब से ऊपर ले लिया.

मलाला का साहस

9 अक्तूबर, 2012 को मलाला जब  स्कूल से निकल कर अपनी सहपाठी छात्राओं के साथ स्कूल बस में बैठ कर रवाना हुईं तभी 3 नकाबपोश उस बस में घुस आए और पूछा कि मलाला कौन है? मलाला ने खड़े हो कर कहा, ‘मैं हूं मलाला’. तभी एक नकाबपोश ने उसे 2 गोलियां मार दीं. एक गोली सिर में लगी और दूसरी गरदन में. मलाला वहीं गिर पड़ीं. मलाला पर हमले की यह खबर टैलीविजन चैनलों के जरिए दुनियाभर में पहुंच गई. मलाला के लिए विश्वभर से बेहतर इलाज की पेशकश आने लगी. संयुक्त अरब अमीरात के शाही परिवार ने मलाला के इलाज के लिए स्पैशल एअर एंबुलेंस भेजने की पेशकश तो की थी पर ब्रिटेन ने अपने यहां खासतौर से बुलैट इंजुरी के लिए बने अस्पताल में विमान से बुला लिया था. कुछ महीनों बाद मलाला पूरी तरह ठीक हो गईं और फिर से अपनी मुहिम में जुट गईं.

दमन के खिलाफ सम्मान     

नोबेल समिति ने कहा कि यह पुरस्कार बच्चों के लिए शिक्षा और बच्चों व युवाओं के दमन के खिलाफ किए गए उन के संघर्ष के लिए दिया गया है. नोबेल समिति के प्रमुख थोर्बजोर्न जगलांद ने पुरस्कार प्रदान करने से पहले अपने संबोधन में कहा था कि सत्यार्र्थी और मलाला निश्चित तौर पर वही लोग हैं जिन्हें  अलफ्रैड नोबेल ने अपनी वसीयत में शांति का मसीहा कहा था. उन्होंने कहा, एक लड़की और एक बुजुर्ग व्यक्ति, एक पाकिस्तानी और दूसरा भारतीय, एक मुसलिम और दूसरा हिंदू, दोनों उस गहरी एकजुटता के प्रतीक हैं जिस की दुनिया को जरूरत है यानी देशों के बीच आपसी भाईचारा.   

नोबेल समिति की विज्ञप्ति में कहा गया कि वह इसे हिंदुओं और मुसलिमों, भारतीय व पाकिस्तानियों के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण मोड़ मानती है जहां वे शिक्षा और चरमपंथ के खिलाफ एकजुट हो कर लड़ सकते हैं.                                     यह सही है कि सत्यार्थी और मलाला ने अपनेअपने क्षेत्र में खतरों की परवा किए बिना साहस के साथ काम किया है. लेकिन भारत और पाकिस्तान को जिस क्षेत्र में नोबेल मिला है वह 18वीं सदी का है. भारत तो पहले से ही विश्वगुरु कहलाता है. सर्वोच्च इनाम विश्वगुरु को अब मिला है. क्या इस का संदेश यह नहीं कि शिक्षा और बच्चों की आजादी के मामले में यह क्षेत्र बहुत पिछड़ा हुआ है और अब जा कर शिक्षा और बच्चों की आजादी को ले कर कुछ किया जाने लगा है. वरना तो यहां अशिक्षा और गुलामी का माहौल था.

सम्मान पहले क्यों नहीं

मतलब साफ है कि बच्चों के बुनियादी अधिकार यानी शिक्षा और स्वतंत्रता के मामले में भारतीय उपमहाद्वीप दुनिया से डेढ़ सौ साल पीछे है. इस का अर्र्थ यह भी है कि यह उपमहाद्वीप पश्चिमी देशों से बहुत पीछे है. क्या चीन को आज इस पुरस्कार की जरूरत है? शांति का नोबेल भारत को 100 साल पहले क्यों नहीं मिल जाना चाहिए था. अकसर कहा जाता है कि 1947 के बाद भारत आजाद हुआ, पर 1947 से पहले आम जनता को पढ़ने से कौन रोक रहा था? तब भी लोग विदेशों तक पढ़ने जाते थे. मजे की बात यह है कि भारत को भौतिक, चिकित्सा, साहित्य, अर्थशास्त्र के नोबेल बहुत पहले ही मिल गए.

स्पष्ट है कि लड़कियों की शिक्षा, बालश्रम जैसे अहम विषयों को ले कर हमारी सामाजिक सोच विज्ञान के आविष्कारों की रफ्तार के आगे बहुत पीछे है. भले ही हमारे पैर चांद और मंगल तक पहुंच रहे हों. यह उस तरह का है जैसे चर्च अपनी धारणा को वैज्ञानिक गैलीलियो के यथार्थ को नका कर झूठ को सच के तौर पर फैलाता रहा और बाद में उस वैज्ञानिक को मौत के घाट उतार दिया था. भारतीय भूभाग सदियों से शिक्षा और आजादी से वंचित अंगरेजों द्वारा नहीं, अपनों द्वारा ही रखा गया. इस की सब से बड़ी वजह धर्म की व्यवस्था रही है.

पाकिस्तान में मलाला ने बालिका शिक्षा की एक मामूली चिंगारी सुलगाई थी कि मजहबी कट्टरपंथियों को वे बौद्धिक गिरोह की सरगना लगने लगीं. पाकिस्तान में शिक्षा अभी धर्र्म के धंधेबाजों के शिकंजे में है. वहां के स्कूलों पर तालिबानी सोच हावी है. इसी सोच वाले धर्म के खोखलेपन को उजागर करने वालों को बौद्धिक गिरोह कहते हैं. मलाला ने यह सवाल ठीक उठाया कि हम उन देशों को मजबूत कैसे कह सकते हैं जो युद्ध करने के लिए तैयार हैं पर शांति लाने में कमजोर हैं क्योंकि दुनिया में हथियार देना आसान है पर किताबें बांटना मुश्किल है. मलाला की बात ठीक है. क्यों टैंक बनाना आसान है पर पढ़ाई के लिए स्कूलों का निर्माण मुश्किल है. हम चांद पर पहुंच चुके हैं और जल्दी ही मंगल पर कदम रख देंगे लेकिन 21वीं सदी में हमें यह भी संकल्प लेना होगा कि सब को शिक्षा के अधिकार का सपना साकार हो.

धर्म के धंधेबाज हावी

धर्म ने शिक्षा का अधिकार हरेक को दिया ही नहीं. व्यक्ति की आजादी धर्म के धंधेबाजों के हाथों में रही. पढ़नालिखना, कामधंधा, बोलना, चलना और सोचना सबकुछ धर्म के दायरे में बांध दिया गया. पश्चिमी देशों ने इस तरह की बेडि़यां बहुत पहले ही उतार फेंकीं और पहनने से इनकार कर दिया. वे स्वतंत्र तौर पर सोचने लगे, बोलने गे पर भारतवर्ष धार्मिक गुलामी से मुक्त नहीं हो पाया. आश्चर्य है कि विश्व, विज्ञान के आधुनिकतम युग में जा पंहुचा है, शिक्षा में विश्व कहां से कहां पहुंच गया है पर वह  सभ्य नहीं बन सका है. अभी भी वह मानवता, शांति की तलाश में है. इस तलाश में आधी से अधिक दुनिया और अधिक संघर्ष व युद्धों में डूबती जा रही है. एक धर्म दूसरे से कम, अपने में ही युद्धरत है. एक धर्म के लोग अलगअलग पंथों में बंटे परस्पर लड़ रहे हैं. देश आपस में कलहरत है. जातियां असभ्य, जंगली कबीलों की तरह मरकट रही हैं.

विश्व के सामने आज बड़ी चुनौतियां हैं. सब से बड़ा संकट तो यह है कि धर्म के नाम पर भय और असहिष्णुता मानवता के दरवाजे पर खूनी खंजर, तबाही मचाने वाले बम के साथ आ खड़ी हुई है. यही शिक्षा और आजादी की सब से बड़ी दुश्मन है. भारत व पाकिस्तान दोनों देशों में अशिक्षा और बाल मजदूरी का कारण गरीबी है और गरीबी की मुख्य वजह मजहब, जाति व्यवस्था है. इस व्यवस्था ने पढ़नेलिखने नहीं दिया और न पढ़नेलिखने के कारण ही बच्चों को मजदूरी पर जाना पड़ता है. गरीब मांबाप बच्चों को स्कूल भेजने के बजाय काम पर भेजते हैं. लिहाजा, अशिक्षा के कारण गरीब हमेशा गरीब ही रह जाते हैं.

ऐसे में नोबेल की इच्छा के मुताबिक विश्व के देशों में शांति का लक्ष्य प्राप्त किया जाना बहुत मुश्किल है. यह लक्ष्य विश्व से धर्मों के खात्मे से ही पाया जा सकता है. धर्म ही युद्धों का सब से बड़ा कारण है. मानव कल्याण, आजादी और तरक्की के तमाम रास्ते अटके पड़े हैं.

ग्लोबल आतंकवाद लहूलुहान मानवता

सिडनी के लिंट कैफे में हुए आतंकी हमले के 1 दिन बाद पाकिस्तान के पेशावर में कैंट इलाके के नजदीक वार्सक रोड स्थित आर्मी पब्लिक स्कूल पर हुए आतंकी हमले में 145 लोगों की मौत हो गई. इन में 132 बच्चे हैं. सभी 6 आतंकी मारे जा चुके. स्कूल में स्टाफ सहित कुल 1,100 लोग थे.

असम में बोडो उग्रवादियों ने 40 लोगों की हत्या की. सोनितपुर और कोकराझार जिलों में 5 जगह हमले किए गए.

वाघा सीमा के पास पाकिस्तान के भीतर हुए धमाके की तालिबान और तालिबान से जुड़े चरमपंथी संगठन जुनदुल्लाह ने जिम्मेदारी ली है. इस में 50 से ज्यादा लोग मारे गए. यह वारदात वाघा बौर्डर पर रोजाना की फ्लैग परेड के तुरंत बाद घटी.

नाइजीरिया में कट्टरपंथी संगठन बोको हरम ने 200 लड़कियों को अगवा कर लिया है. बोको हरम देश से मौजूदा सरकार का तख्तापलट करना चाहता है और उसे एक इसलामिक देश में तबदील करना चाहता है.

आईएसआईएस सिर्फ तेल से ही धन की उगाही नहीं कर रहा बल्कि उस के पास इस के और भी कई स्रोत हैं. इराक में आईएसआईएस अपने मृत लड़ाकों के अंगों को बेच कर भी बड़ा मुनाफा कमा रहा है. यही वजह है कि वह इराक और सीरिया के अलावा बाकी देशों में आसानी से युद्ध लड़ रहा है. आईएसआईएस के पास इतना बड़ा शस्त्रागार है कि वह लगातार 2 साल तक युद्ध जारी रख सकता है. 2 बिलियन डौलर (1,240 करोड़ रुपए से ज्यादा) के सालाना रेवेन्यू के साथ आईएसआईएस दुनिया का सब से धनी आतंकी संगठन है.

16 दिसंबर, 2014 की सुबह तो बहुत दर्दनाक थी ही, उस के अलावा भी हर सुबह आने वाला अखबार आतंकवादी हिंसा के बारे में कोई बुरी खबर ले कर आता है. शायद ही कोई दिन ऐसा गुजरता है जिस दिन दुनिया के किसी न किसी हिस्से में किसी न किसी आतंकी वारदात में लोगों की बलि न चढ़ती हो.आतंकवाद आज युद्ध का एक नया रूप हो गया है जो किसी सीमा को नहीं मानता और जिस का कोई स्पष्ट चेहरा भी नहीं होता. यह आतंकवाद आधुनिक तकनीक के साथ जुड़ कर दुनिया में कहर बरपा रहा है.

आतंकवाद की मार

कुछ आतंकवादी किसी भीड़भाड़ वाली जगह पर आत्मघाती हमला करते हैं और सैकड़ों लोग मारे जाते हैं.बुरी बात यह है कि मर्ज बढ़ता गया ज्योंज्यों दवा की–कुछ ऐसा ही हुआ है आतंकवाद के साथ. भारत जैसे देश तो लंबे समय से आतंकवाद को झेलते रहे हैं लेकिन विकसित देशों ने कभी सुध नहीं ली. 11 सितंबर, 2001 को न्यूयार्क में हुए आतंकी हमले के बाद पश्चिमी देश आतंकवाद के खतरे के प्रति सचेत हुए. अमेरिका और यूरोपीय देशों ने आतंक के खिलाफ जंग का ऐलान किया, इराक और अफगानिस्तान पर सैनिक आक्रमण किए, पाकिस्तान और कुछ अन्य देशों पर ड्रोन से बमबारी हुई, 4.3 ट्रिलियन डौलर फूंक दिए. लेकिन आतंकवाद खत्म होने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है. यहां तक कि इस ने वैश्विक रूप से लिया है.

कुछ देशों के अस्तित्व और शांति व्यवस्था के लिए आतंकवाद सब से बड़ा खतरा बन गया है. उस का शिकार बनने वाले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है. विश्व के प्रतिष्ठित थिंकटैंक इंस्टिट्यूट औफ इकोनौमिक्स ऐंड पीस ने अपनी 2014 की रिपोर्ट में कहा है कि वर्ष 2000 के बाद आतंकवाद से हुई मौतों में 5 गुना वृद्धि हुई है. वर्ष 2000 में 3,361 मौतें हुई थीं जबकि 2013 में यह आंकड़ा बढ़ कर 17,958 हो गया. यह इस बात का संकेत है कि मर्ज पर दवा काम नहीं कर रही, घाव नासूर बनता जा रहा है. रिपोर्ट के मुताबिक, आतंकवाद चाहे दुनियाभर के मुल्कों में फैला हुआ है. पर एक तल्ख हकीकत यह है कि 2013 में 80 फीसदी आतंकवादी घटनाएं केवल 5 देशों — इराक, सीरिया, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और नाइजीरिया में हुई हैं.दूसरी तरफ 55 देश ऐसे हैं जहां आतंकवाद से एक या दो मौतें हुई हैं.

2013 में हुई मौतों में से 66 प्रतिशत केवल 4 आतंकवादी संगठनों — आईएसआईएस, बोको हरम, तालिबान और अलकायदा के कारण हुईं. ये सभी संगठन वहाबी इसलाम के कट्टर समर्थक हैं. लेकिन इसलामी आतंकवादी संगठन केवल यही 4 नहीं हैं. इसलामी आतंकवादी संगठनों की तो बाढ़ आई हुई है.

इसलामी आतंकवाद

दुनियाभर में 100 के आसपास आतंकवादी संगठन हो सकते हैं. यदि उन की वारदातों को भी जोड़ लिया जाए तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि लगभग 80 से 85 प्रतिशत वारदातें इसलामी संगठनों की तरफ से हो रही हैं. इस तरह दुनिया में इसलामी आतंकवाद सब से ज्यादा ताकतवर बन कर उभरा है. यों तो दुनिया में कुछ ईसाई और यहूदी आतंकी संगठन भी हैं, लेकिन उन का प्रभाव और ताकत बहुत कम है, इसलिए उन की चर्चा ज्यादा नहीं होती. आतंकवाद केवल तेजी से बढ़ा ही नहीं है बल्कि उस में गुणात्मक परिवर्तन भी आया है. वर्ष 2000 से पहले मुख्यरूप से माओवाद जैसा राजनीतिक तथा एथनिक से प्रेरित आतंकवाद था लेकिन अलकायदा द्वारा न्यूयार्क पर किए 11 सितंबर के हमले के बाद से धर्म से प्रेरित आतंकवाद में नाटकीय तरीके से वृद्धि हुई. यह परिवर्तन इसलामी आतंकवाद के बहुत उभरने से हुआ है.

रिपोर्ट में आतंकवाद सूचकांक तैयार करने की भी कोशिश की गई है. इस के मुताबिक, विश्व में आतंकवाद से सब से ज्यादा प्रताडि़त पहले 10 देश हैं : इराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नाइजीरिया, सीरिया, भारत, सोमालिया, यमन, फिलीपीन और थाईलैंड. उन में से सीरिया को छोड़ कर सभी पिछले 15 वर्षों से आतंकवादी हमलों का शिकार होते रहे हैं. इन में से पहले 5 देशों में वर्ष 2013 में  आतंकवाद से हुई कुल मौतों में से 80 प्रतिशत मौतें हुई हैं. सब से ज्यादा यानी 35 प्रतिशत मौतें हुई हैं इराक में. पिछले 10 वर्षों में से 9 वर्षों में सब से ज्यादा मौतें भी वहीं हुई हैं. केवल अपवाद रहा 2012 जब अफगानिस्तान में इराक से 300 से ज्यादा मौतें हुईं. आतंकवाद से हुई मौतों में सब से ज्यादा इजाफा सीरिया में हुआ है. 1998 से 2010 तक सीरिया में आतंकवाद से कुल 27 मौतें हुई थीं लेकिन 2013 में 1 हजार मौतें हुईं. वर्ष 2013 के सब से दुर्दांत 4 आतंकवादी संगठनों अलकायदा, आईएसआईएस, तालिबान और बोको हरम में सब से खतरनाक संगठन तालिबान रहा है जो पिछले 25 वर्षों से सक्रिय है और पिछले एक दशक में 25 हजार लोगों की हत्या कर चुका है.

क्रूरता का पर्याय तालिबान

तालिबान एक सुन्नी इसलामिक कट्टरतावादी आंदोलन है जो अफगानिस्तान को पाषाणयुग में पहुंचाने के लिए जिम्मेदार माना जाता है. इन दिनों इसे पिछड़ेपन और कू्ररता का पर्याय माना जाता है. लोग भले ही उस की आलोचना करें लेकिन उस के नेताओं का कहना है कि वह इसलाम को उस के मूलरूप में या पहली पीढ़ी के इसलाम को स्थापित करना चाहता है. इस के बाद अलकायदा का नंबर है जो सब से चर्चित और वैश्विक आतंकवादी संगठन है. विश्व के कई इसलामी संगठन उस के साथ जुड़े हुए हैं. बाकी 2 संगठन बोको हरम और आईएसआईएस नए हैं, जो 2009 से सक्रिय हुए हैं.

आईएसआईएस का दबदबा

आईएसआईएस इन दिनों सारी दुनिया में पहला ऐसा आतंकवादी संगठन है जो अपने लिए अलग राष्ट्र स्थापित करने में कामयाब रहा है. इस कारण दुनिया के इसलामी आतंकवादी संगठनों में उस का दबदबा बढ़ता जा रहा है और वह अलकायदा से होड़ करने लगा है.इन के अलावा भी कई इसलामी आतंकवादी संगठन सक्रिय हैं. आतंकवाद के शिकार देशों में 7वें नंबर पर सोमालिया का है जहां अल शबाब नामक आतंकी संगठन आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दे रहा है. उस ने 2013 में 405 हत्याओं को अंजाम दिया. यह संगठन केन्या में भी सक्रिय है. 8वें नंबर पर आता है यमन. यहां शिया आतंकी नेता हौथी के समर्थक आतंकवादी सक्रिय थे, अब उन्होंने तख्ता पलट कर सत्ता पर कब्जा कर लिया है. इस के बाद फिलीपीन और थाईलैंड का नंबर आता है.जो 10 देश आतंकवाद से सब से ज्यादा प्रताडि़त हैं उन में से 6 देश इसलामिक हैं और जो 4 गैरइसलामिक देश हैं वे नाइजीरिया, भारत, फिलीपीन और थाईलैंड हैं. इन में से नाइजीरिया, भारत और फिलीपीन में इसलामी आतंकवाद काफी ताकतवर है.

नाइजीरिया में तो बोको हरम जैसा खूंखार इसलामी आतंकवादी संगठन सक्रिय है जो अब तक हजारों लोगों की हत्या कर चुका है. इसलामी आतंकवाद में शिया, सुन्नी और वहाबी सुन्नी हर तरह का आतंकवाद है. इराक में तो एक सूफी आतंकवादी संगठन है जिस का नाम नक्शबंदी आर्मी है. इसे सद्दाम हुसैन के समर्थकों ने बनाया है. पाकिस्तान और इराक में शिया और सुन्नी दोनों ही प्रकार के आतंकी संगठन हैं.आतंकवाद से सब से ज्यादा प्रभावित देशों में भारत छठे नंबर पर है. भारत में 2012 और 2013 के बीच आतंकवाद में 70 प्रतिशत की वृद्धि हुई. इस से मरने वालों की संख्या 238 से बढ़ कर 404 हो गई. लेकिन भारत में हुए ज्यादातर आतंकी हमले ज्यादा मारक नहीं थे. यहां हुए

70 प्रतिशत हमलों में किसी की जान नहीं गई. जिन 43 संगठनों ने हमले किए उन में 3 तरह के समूह रहे : वामपंथी, अलगाववादी और इसलामी. भारत में वामपंथी उग्रवाद सब से बड़ी चुनौती बन कर उभरा है क्योंकि आधी हत्याएं यानी 192 वामपंथी आतंकवादियों के 3 संगठनों द्वारा की गईं. उन्होंने ज्यादातर बिहार, छत्तीसगढ़ और झारखंड में हमले किए. 3 इसलामी संगठन 15 प्रतिशत मौतों के लिए जिम्मेदार रहे. इन में से ज्यादातर हमले कश्मीर या हैदराबाद में हुए. उत्तरपूर्वी राज्यों के अलगाववादी संगठन 15 प्रतिशत मौतों का कारण बने. आतंकवाद को ले कर पाकिस्तान का रवैया दोहरा है. आतंकवाद से बुरी तरह प्रभावित होने के बावजूद वह एक तरफ तालिबान के सफाए का अभियान चलाए हुए है तो दूसरी तरफ हाफिज सईद के आतंकवादी संगठन को भारत के खिलाफ इस्तेमाल भी कर रहा है. वैसे पाकिस्तान मिसाल है इस बात की कि आतंकवाद के शेर की सवारी करने का क्या हश्र होता है. वैसे उल्लेखनीय बात यह है कुवैत, कतर और संयुक्त अरब अमीरात जैसे इसलामी देश भी हैं जहां आतंकवाद नहीं है, जो शांति के साथ गुजरबसर कर रहे हैं.

इसलामी आतंकवाद का वर्चस्व

आतंकवाद के जानकारों का मत है कि इस सदी में धर्म पर आधारित आतंकवाद के तेजी से उभरने की सब से बड़ी वजह यह है कि इसलामी आतंकवाद एशिया और अफ्रीका में बेहद ताकतवर बन कर उभरा है. 80 प्रतिशत से ज्यादा आतंकवाद इसलामी संगठनों के कारण है. इसलिए कई राजनीतिक चिंतक यह कहते हैं कि इसलाम के सिद्धांत आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले हैं. इसलाम और आतंकवाद का चोलीदामन का साथ है. हालांकि इसलाम के किसी ग्रंथ में आतंकवाद का समर्थन नहीं किया गया है मगर काफिरों से संघर्ष करने की बात 100 से ज्यादा जगह कही गई है जो आतंकवाद को प्रेरित करती है. इस के अलावा इसलाम का वर्चस्व कायम कर दारुल इसलाम बनाने की बात कही गई है. बहुत से राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यही सोच इसलामी आतंकवाद का कारण बनती है.

वे मदरसे भी आतंकवादियों की जन्मस्थली बनते हैं जहां असहिष्णुता की शिक्षा देने वाले धार्मिक ग्रंथ ही पढ़ाए जाते हैं. इसलाम का वर्चस्व कायम करने की बात करने वाले विश्व के सब से ताकतवर इसलामी आतंकवाद की दारुण त्रासदी यह है कि आतंकवादी वारदात करने वाले भी मुसलिम होते हैं और उस के सब से ज्यादा शिकार भी मुसलिम ही होते हैं. इस से इन दिनों काफिर कम और मुसलमान ही ज्यादा मर रहे हैं. विकसित देशों में तो आतंकवाद के शिकार होने वालों में से 5 प्रतिशत ही हैं. तालिबान द्वारा अफगानिस्तान और पाकिस्तान में जो आतंकवादी वारदातें की जाती हैं उन में ज्यादातर मुसलिम ही मरते हैं. इराक में अलकायदा सुन्नी आतंकवाद का पर्याय बन गया है और उस ने शियों का ही बड़े पैमाने पर कत्लेआम किया. इराक में तो शिया और सुन्नी आतंकवादी संगठन एकदूसरे को अपनी आतंकवादी वारदातों का निशाना बनाते रहे हैं. इराक, लेबनान और पाकिस्तान जैसे देशों में तो शिया आतंकवादी संगठन भी हैं. ये सुन्नी मुसलमानों को निशाना बनाने की कोशिश करते हैं. लेकिन इस में मरता तो मुसलमान ही है. इस के अलावा ज्यादातर इसलामी आतंकी संगठन उन मुसलिमों को भी निशाना बनाते हैं जिन के बारे में उन का खयाल है कि वे इसलाम के रास्ते पर नहीं चल रहे. इसलिए तालिबान और बोको हरम का निशाना वे मुसलिम बन रहे हैं जिन्हें वे पथभ्रष्ट मुसलिम मानते हैं.

नाइजीरिया का इसलामी आतंकवादी संगठन बोको हरम देश से मौजूदा सरकार का तख्तापलट करना चाहता है और उसे एक पूरी तरह इसलामिक देश में तबदील करना चाहता है. कहा जाता है कि बोको हरम के समर्थक कुरान की शब्दावली से प्रभावित हैं, ‘जो अल्लाह की कही गई बातों पर अमल नहीं करता है वह पापी है.’ बोको हरम इसलाम के उस संस्करण को प्रचलित करता है जिस में मुसलमानों को पश्चिमी समाज से संबंध रखने वाली किसी भी राजनीतिक या सामाजिक गतिविधि में भाग लेने से वर्जित किया जाता है. इस में चुनाव के दौरान मतदान में शामिल होना, टीशर्ट, पैंट पहनना और धर्मनिरपेक्ष शिक्षा लेना शामिल हैं. अपनी सनसनीखेज आतंकवादी गतिविधियों के कारण आजकल यह संगठन चर्चा में है. कुछ समय पहले उस ने 200 लड़कियों का अपहरण कर लिया था जिन्हें आज तक रिहा नहीं किया है.

आतंक के चेहरे

बोको हरम : इस संगठन का ज्यादातर प्रभाव नाइजीरिया में है. तकरीबन 9 हजार आतंकी इस संगठन से जुड़े हैं. यह संगठन वर्ष 2009 से वर्ष 2012 के बीच तकरीबन 3,500 से भी अधिक नाइजीरियाई नागरिकों को मौत के घाट उतार चुका है.

आईएसआईएस : यह आतंकी संगठन पूरी दुनिया को तबाह करना चाहता है और भारत भी इस के निशाने पर है. इस के पास तकरीबन 31,500 लड़ाके हैं. वर्ष 2013 में इस ने 350 आतंकी हमले किए जिस में 1,400 से भी ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं. इस का मुखिया अल बगदादी है.

तालिबान : वर्ष 2010 में इस के पास तकरीबन 60 हजार सदस्य थे लेकिन वर्ष 2013 में इस ने एक नहीं तकरीबन 649 जगहों में आतंकी हमले किए जिस में तकरीबन 234 लोग मारे गए.

अलकायदा : एक अनुमान के मुताबिक तकरीबन 19 हजार तक इस के सदस्य हो सकते हैं. वर्ष 2013 में इस ने कई जगह आतंकी हमले किए जिन में 166 लोग मारे गए.

दुनिया भर में आतंक

पिछले कुछ वर्षों में दुनिया में इसलाम के नाम पर गठित किए जा रहे आतंकवादी संगठनों की बाढ़ आई हुई है. लगभग 100 के आसपास ऐसे आतंकी संगठन हो गए हैं. पिछले दिनों संयुक्त अरब अमीरात ने 83 आतंकी संगठनों की सूची जारी की थी. इस के अलावा अमेरिका ने भी इसलामी आतंकी संगठनों की सूची जारी की है :

अबू सय्याफ (फिलीपीन), अल गामा अल इसलामिया (मिस्र), अल अकसा मार्टायर्स ब्रिगेड (गाजा), अल शबाब (सोमालिया), अलकायदा अंसार अल इसलाम (इराक), आर्म्ड इसलामिक ग्रुप (अल्जीरिया), बोको हरम (नाइजीरिया), काकासम अमीरात (रूस), ईस्ट तुर्कमेनिस्तान इसलामिक मूवमैंट (चीन), इजिप्ट इसलामिक जिहाद (मिस्र), ग्रेट ईस्टर्न इसलामिक रेडर्स फ्रंट (तुर्की), हमास (गाजापट्टी), हिजबुल्लाह (लेबनान), इसलामिक मूवमैंट औफ सैंट्रल एशिया व इसलामिक मूवमैंट औफ उजबेकिस्तान (उजबेकिस्तान), इसलामिक स्टेट औफ इराक ऐंड द लेवांट व जमाते अंसार अल सुन्ना (इराक) जेमाह इसलामिया (इंडोनेशिया), मोरो इसलामिक फ्रंट (फिलीपीन), मोरक्को इसलामिक कोम्बोटैंट ग्रुप, पैसेस्टाइनियन इसलामिक जिहाद (गाजापट्टी), तौहीद और जिहाद.

पाकिस्तान में आतंकी संगठन

इसलाम के नाम पर आतंकी संगठन कितनी तादाद में हैं, इस का अंदाजा पाकिस्तान की सुन्नी आतंकवादी संगठनों की इस सूची से लगाया जा सकता है. लश्कर ए झांगवी, तहरीक ए तालिबान, अहले सुन्नत वल जमात, जुनदुल्लाह, अलकायदा, सिपह ए सहाबा, लश्कर ए फारूखी, लश्कर ए उमर, तहरीक ए नचफ ए शरीयते मोहम्मद, लश्कर ए तोयबा, हिजबुल मुजाहिदीन, हरकत उल अंसार, इसलामी जमीयत तोलबा, अलबद्र, जमाते इसलामी, जमात उल मुजाहिदीन, मुत्तहिदा दीनी महाज, हरकत उल जेहाद अल इसलाम, तहरीक ए जिहाद, जैशे मोहम्मद मुजाहिदीन. दुनियाभर में आतंकी संगठनों की तादाद होगी, इस का अंदाजा आप लगा सकते हैं. इसलामी आतंकी संगठन इसलामी देशों में भी हैं और गैरइसलामी देशों में भी, उन्हें हर देश में इसलाम खतरे में नजर आता है.

कैसे हो खात्मा

इंस्टिट्यूट औफ इकोनौमिक्स ऐंड पीस की रपट के कुछ निष्कर्ष काफी चौंकाने वाले हैं कि पिछले 45 वर्षों में कई आतंकवादी संगठन खत्म हो गए. उन में से केवल 10 प्रतिशत ही विजयी हुए जिन्होंने सत्ता हासिल की और अपनी आतंकवादी इकाइयों को विसर्जित कर दिया. केवल 7 प्रतिशत संगठन ही ऐसे रहे जिन्हें सीधे सैनिक कार्यवाही से खत्म किया जा सका. रपट का निष्कर्ष है कि आप गरीबी खत्म कर के और शिक्षा को बढ़ावा दे कर आतंकवाद को खत्म नहीं कर सकते. इन का आतंकवाद से लेनादेना ही नहीं है. आप को उन राजनीतिक, धार्मिक और एथेनिक शिकायतों का समाधान करना होगा जो आतंकवाद के लिए विचारणीय हैं.

भारत में कब और कहां कहर बरपा

13 मई, 2008 : जयपुर में 6 बम ब्लास्ट हुए जिस में 63 लोगों की मौत हो गई और 216 लोग घायल हुए. इंडियन मुजाहिदीन ने ली थी इस की जिम्मेदारी.

26 जुलाई, 2008 : अहमदाबाद में बम ब्लास्ट. इस ब्लास्ट में 56 लोग मारे गए जबकि 200 से ज्यादा लोग घायल हो गए थे. इस हमले की जिम्मेदारी भी इंडियन मुजाहिदीन ने ली थी.

13 सितंबर, 2008 : राजधानी दिल्ली में सीरियल बम ब्लास्ट हुए. इस हमले में 30 लोग मारे गए थे और 100 लोग घायल हुए थे. इस की जिम्मेदारी भी इंडियन मुजाहिदीन ने ली थी.

30 अक्तूबर, 2008 : गुवाहाटी में बम ब्लास्ट हुए. यहां 70 लोग मारे गए और 470 से ज्यादा घायल हो गए. इस सीरियल बम ब्लास्ट में आतंकी संगठन उल्फा का हाथ बताया जाता है.

13 जुलाई, 2011 : मुंबई में सीरियल ब्लास्ट. 26 लोगों की मौत और 130 लोग घायल. इस की जिम्मेदारी इंडियन मुजाहिदीन ने ली थी.

पिता हों होशियार

अंगरेजी चैनल देखने वालों को जैकी चेन का नाम मालूम होगा जिस की ऐक्शन फिल्मों की भरमार है और जो स्टंट सीन बड़ी सहजता व स्वाभाविकता से करता है. जैकी चेन का कैरियर हौंगकौंग में फूलाफला. अब वह मेन लैंड चीन का एक जानापहचाना नाम है और इसीलिए वह वहां नशा विरोधी अभियान का ब्रैंड एंबैसेडर है. चीनी सरकार अफीम के धब्बे को मिटाने के लिए नशे के बारे में बहुत संवेदनशील है. वहां नशे के खिलाफ कानून सख्त ही नहीं, उन पर सख्ती से अमल भी किया जाता है.

इसलिए जब जैकी चेन का बेटा जैसी बीजिंग में अपने घर में नशेड़ी दोस्तों के साथ पकड़ा गया तो खबर बननी ही थी. पुलिस ने उस पर आरोप लगाया है कि नशीली दवा रखने के साथ उस ने दूसरों को नशा करने की जगह मुहैया कराई. ये दोनों ही गंभीर अपराध हैं. इस मामले को वहां के अखबारों ने खूब उछाला. जैकी चेन ने दुख प्रकट किया कि उस का बेटा उसी के अभियान के खिलाफ काम कर रहा है. उसे उम्मीद है कि जैसी जल्दी ही सुधर जाएगा.

ऐसा बहुत मामलों में होता है कि बड़े बाप का बेटा अपने बाप को चिढ़ाने, तंग करने या दूसरों द्वारा सिखाए जाने पर ऐसे काम करना शुरू कर देता है जो पिता के लिए शर्मनाक होते हैं. हमारे यहां महात्मा गांधी के बेटे हीरालाल को इसी सूची में माना जा सकता है जिस ने नशा ही नहीं किया, कर्ज लिया, धोखाधड़ी की, धर्म बदला, आवारा औरतों के साथ पकड़ा गया. जबकि आजादी से पहले उस के बाप का नाम सुनते ही बड़े से बड़ा अफसर, यहां तक कि गोरा अफसर भी मुंह बंद कर लेता और पकड़ ढीली कर देता था.

बेटों का बापों से विद्रोह आम बात है क्योंकि बडे़ बाप का बेटा अपने सामान्य पिता को बचपन से ही खो देता है. उसे दिखता है कि पिता अपने कामकाज में इतना व्यस्त है कि वह न उस की ओर ध्यान देता है, न उस की मां की ओर. ऐसे में वह अपने दुखों की दीवार तो ऊंची करता ही जाता है, मां के प्रति व्यवहार के कारण, उस पर सीमेंट भी लगाता जाता है.बड़े बापों को अपने बच्चों का खयाल करना होगा कि वे राह से न भटकें. समय की कमी का रोना न रोएं. परिवार के सदस्यों को प्यारदुलारफटकार सब दें. उन्हें गुस्सा न होने दें. 4-5 वर्ष की उम्र की यादें भी वर्षों नम रहती हैं और बारबार झलकती रहती हैं. जैकी चेन से सभी को हमदर्दी होगी पर यह एक पाठ है जो हर पिता को पढ़ना चाहिए.

राजनीति में धर्म का घालमेल

सभी दलों ने समयसमय पर गरीबी हटाने, समाजवाद लाने, मंडल आयोग को लागू करने, दलितों के नेता अंबेडकर को अपनाने के टोटके अपनाए, अब वे एकएक कर के अपनी दुकानों में  अंधविश्वासों के पुतले बेचने की तैयारी कर रहे हैं. कांगे्रस ने कवायद शुरू कर दी है कि क्या उसे हिंदूविरोधी माना जा रहा है. फिलहाल करुणानिधि को छोड़ कर सभी पार्टियों के नेता नियमित तौर पर सार्वजनिक रूप से धर्म को बेचने वालों को शाबाशी देते नजर आ रहे हैं. यह हमेशा होता रहा है, हर देश में होता रहा है. राजनीतिक दल अब जनता को अपनी मरजी से तय दिशा पर ले जाने के स्थान पर जनता की सहीगलत मांगों पर अपनी नीतियां बताने लगे हैं. भारतीय जनता पार्टी की कट्टर सोच ने उसे भारी जीत दिलाई, इस के चलते हर पार्टी अब अपना स्वरूप बदलने में लग गई है.

धर्मों का पूरे विश्व में डंका फिर से जोर से बजने लगा है. इस का बड़ा कारण है, आमिर खान की फिल्म ‘पीके’  के अनुसार, धर्म के दुकानदारों, मैनेजरों और असल में धोखेबाज दलालों द्वारा आधुनिक प्रचारतंत्र को अपनाना. आजकल इंटरनैट से धर्म का धुआंधार प्रचार हो रहा है. ईद हो या क्रिसमस, दीवाली हो या होली, धर्म के धरातल बनाने एसएमएस, मेल, फोटो धड़ाधड़ मोबाइलों पर पहुंचने लगते हैं. धर्म का इतना प्रचार हो रहा है कि लोगों में एड्स या प्रदूषण का डर कम, ईश्वर के नाराज होने का ज्यादा है.

आज लोगों की मानसिकता बदलना राजनीतिक दलों के बस का नहीं रह गया. दल सत्तालोलुप हो गए हैं. समाज सुधारों से उन का वास्ता न के बराबर है. वे अहंकारी, निर्दयी, पुरातनपंथी और धोखेबाज महंतों, मुल्लाओं, पादरियों को अपनी चलाने की छूट ही नहीं देते, उन्हें संरक्षण देते हैं, जमीनें देते हैं, हर तरह से जनता को बरगलाने व लूटने का अवसर भी देते हैं. एक तरह से धर्म के दलालों ने परोक्ष रूप से हर दल पर कब्जा कर रखा है. कांगे्रस, ऐसे में, हिंदूवादी रास्ते पर लौटना शुरू कर दे तो बड़ी बात नहीं. यह नहीं भूलना चाहिए कि 1947 के कांगे्रसी आज के भाजपाइयों से ज्यादा धर्मभीरु थे. 1947 से ही कांगे्रसी नेताओं ने मंदिरों का निर्माण शुरू करा दिया था. हिंदू विवाह कानून भी एक सुबूत है कि उस में परंपराओं को कानूनी मान्यता कांग्रेस ने दिलवाई थी. अब जब भाजपा जीत पर जीत हासिल कर रही है तो समझो कि तिरुपतियों, दरगाहशरीफों, गुरुद्वारों की बन आई. कांगे्रस भी अब धर्म की गोटियां फिट करने में पीछे नहीं रहेगी.

भाजपाई जीत और राजनीतिक दल

भारतीय जनता पार्टी की लगातार जीतों ने कांगे्रस और दूसरी पार्टियों के लिए सवाल खड़े कर दिए हैं कि क्या वे अब अनावश्यक हो गई हैं? क्या भारतीय जनता पार्टी का हिंदूवादी फार्मूला देश की आम जनता को भाने लगा है? क्या नीची पिछड़ी जातियों और गरीबों को अब न्याय की चाहत नहीं रह गई है? कांगे्रस और उस के बाद दूसरी पार्टियां अगर राज कर रही थीं तो इसलिए नहीं कि उन के राज में सुखचैन था. सुखचैन का राजनीतिक दंगल यानी चुनाव में जीत से बहुत कम लेनादेना है. अच्छा शासन चलाने के लिए जो कठोर कदम उठाने पड़ते हैं वे आमतौर पर औरों को तो नहीं, मगर कम से कम सहयोगियों और मातहतों को जरूर नहीं भाते और अच्छे काम करने वाले नेता असफल हो जाते हैं.

चुनावों में जीत के लिए बातें बनाना जरूरी है, लोगों की भावनाएं भड़काना जरूरी है और सब से बड़ी बात, चुनाव जीतने के लिए मशीनरी बनाना जरूरी है. कांगे्रस ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जो मशीनरी गांवगांव में बनाई थी उस ने बहुत फल दिया. गांवों के पढ़ेलिखे, उच्चवर्गीय, मध्यवर्ग ने कांगे्रस का पल्लू पकड़ा कि उन्हें अंगरेजी राजाओं से मुक्ति मिलेगी और बाद में अफसरशाही व कांग्रेस ने उन के इस सपने को पूरा किया. नतीजतन, कांगे्रस गिरगिर कर भी उठ कर उड़ानें भरती रही. पर कांगे्रस पिछड़ी जातियों के सक्षम होने का अंदाजा नहीं लगा पाई और पिछड़ों को जब लगा कि मध्यवर्ग कांगे्रस की मुट्ठी में है, जबकि निचलों के पास कांगे्रस के अलावा कोई चारा नहीं, तो उन्होंने अपने दल बना लिए. जनता परिवार इसी की देन है जो नई उभर रही जातियों को अपने पल्लू में बांध पाया.

आज स्थिति बदल गई है. नई पीढ़ी के लिए 1947 के पहले की बात केवल पाठ्यपुस्तकों तक रह गई है. उसे नए मुद्दे चाहिए. उच्च और मध्यवर्ग को न पिछड़ों से हमदर्दी है, न निम्न से. अब इस उच्च और मध्यवर्ग में भारी संख्या में पिछड़ी जातियों के नए किसानों, दुकानदारों, कारखाना मालिकों के बेटेबेटियां शामिल हो गए हैं जो जाति के कहर के शिकार नहीं रहे और जाति के नाम पर संघर्ष करने की उन्हें जरूरत भी नहीं. इस वर्ग को अपना ठौर चाहिए था जो भारतीय जनता पार्टी ने आधुनिक संचार माध्यमों, इंटरनैट, सोशल मीडिया, ट्विटर, फेसबुक से दिया. ऊंचे लोगों की पार्टी कांगे्रस, पिछड़ों के कम पढ़ेलिखे जनता दलों और निचलों की पार्टियों को न तो नई सामाजिक व्यवस्था का एहसास है और न ही उन्होंने इसे समझने की कोशिश की है.

आज की पीढ़ी ने जाति और धर्म को गले भी लगा रखा है सिर पर भी बैठा रखा है क्योंकि वह उसे कवच लगता है. उसे सामाजिक मुद्दों की नहीं, अपने मुद्दों की चिंता है. भारतीय जनता पार्टी ने युवाओं के मुद्दे सीधे तो नहीं लिए पर युवाओं को धर्म की ओर हांकने में सफलता पाई है और वही, नया मुद्दा बन गया है. यह न भूलें कि पश्चिमी एशिया में युवा धर्म के नाम पर खुलेआम, गर्व से हथियार उठा रहे हैं. और तालिबानियों में शिक्षितों, विशेषज्ञों व सफल व्यापारियों, प्रबंधकों की कमी नहीं है. वहां घरों से विमुख हो रहे युवाओं को जिस तरह नौकरियों की जगह धर्म का जोखिम वाला जिहाद पसंद आ रहा है, उसी तरह यहां, धार्मिक यात्राएं, कांवडि़ए बनना, हल्ला बोल गुट बनाना आदि चुनौतीभरा लगता है.

कांगे्रस और निचलों व पिछड़ी जातियों के पुराने दल अब उबाऊ, लकीर के फकीर ही नजर आ रहे हैं. उन का होना न होना बेमतलब सा होता जा रहा है.

मोदी की चुनावी फतह

जम्मूकश्मीर व झारखंड के चुनावों के नतीजे अपेक्षा अनुसार ही निकले. झारखंड में भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आ गई जबकि जम्मूकश्मीर में दूसरी बड़ी पार्टी बन कर उभरी है. कांगे्रस को दोनों राज्यों में पिछले लोकसभा चुनावों की तरह बुरी तरह मुंह की खानी पड़ी है. भारतीय जनता पार्टी के नेता नरेंद्र मोदी ने इन चुनावों में एक बार फिर अपने बल पर पार्टी को जीत दिला कर दिखा दिया है कि वे अब पार्टी के दूसरे नेताओं के रहमोकरम पर नहीं हैं, अपने बल पर राष्ट्रीय नेता हैं. कश्मीर जहां समझा जाता था कि भारतीय जनता पार्टी के पैर कभी नहीं जमेंगे, वहां भी दूसरे नंबर पर पहुंच कर भाजपा ने वास्तव में 1950 से 1990 तक की कांगे्रस का स्थान पा लिया है.

नरेंद्र मोदी ने एक साल में वह स्थान बना लिया जो आमतौर पर नेताओं को वर्षों में मिलता है. यह उन की कर्मठता व आत्मविश्वास का नतीजा है. झारखंड और जम्मूकश्मीर दोनों राज्य अलग मिजाज के हैं. एक राज्य में आदिवासियों की बहुलता है तो दूसरे में मुसलिमों की और केंद्रीय पार्टियां आमतौर पर वहां दबी सी रहती हैं. भारतीय जनता पार्टी ने इन दोनों राज्यों में अखिल भारतीय मुद्दों को उठाया और जीत हासिल की. क्षेत्रीय, जातीय या धार्मिक मामले अगर पूरी तरह खत्म नहीं हुए हैं तो छिप जरूर गए हैं.भारतीय जनता पार्टी ने एक तरह से देश में जाति, भाषा और काफी हद तक धर्म की पड़ी सलवटों पर प्रैस फेर दी है और पूरा देश वैसा ही एक आवाज में बोलने लगा है जैसा धुआंधार सरकारीकरण के बाद ‘गरीबी हटाओ’ नारे के साथ इंदिरा गांधी के समय बोला था. फर्क यह है कि अब भगवाकरण के बाद ‘विकास करो’ की बात की जा रही है.

देश बड़ी पार्टी की जम कर बेईमानी व निकम्मेपन और छोटी पार्टियों की आपसी कलह व उन की बेमतलब की नारेबाजी से तंग आ चुका है. आज का युवा विकास का सपना देखना चाहता है और कल के विभाजन उस के लिए महत्त्व के नहीं हैं. वह इतिहास में नहीं, भविष्य में जीने की कोशिश कर रहा है और फिलहाल नरेंद्र मोदी ही उसे यह सपना दिखा रहे हैं. नरेंद्र मोदी को राज्यों के अगले चुनावों में भी ऐसी ही सफलता मिलेगी, यह लगभग पक्का है. पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु भाजपा की लहर से बच पाएंगे, इस में भी संदेह है. बिहार और उत्तर प्रदेश ने तो लोकसभा चुनावों में अपना निर्णय सुना ही दिया था.

अब भाजपा इस बहुमत की जिम्मेदारी कैसे निभाती है, उस के लिए एक कठिन चुनौती है. आमतौर पर पार्टियां इस तरह के एकछत्र राज को आसानी से पचा नहीं पातीं. यदि नेता नहीं तो उन के पीछे चलने वाली फौज और उन के कमांडरों की अकड़ व दिशाहीनता ध्येय को कमजोर कर डालती है. जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के साथ यही हुआ जिन्होंने मिले बहुमत को देश के लिए घातक बना डाला था.

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