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ऐसा भी होता है

हमारे पड़ोस में एक पंडित और पंडिताइन रहते थे. उन के लड़के के जन्म के समय मेरी मां उन के साथ अस्पताल गईं व सारी रात वहीं रुकीं भी. उन्होंने कई बार उन की मदद की. जब एक बार मेरी मां को माइग्रेन से सिरदर्द हो रहा था तो पंडितजी ने फोन कर डाक्टर बुलवा लिया. हम में अच्छी दोस्ती रही परंतु कुछ वर्षों बाद किसी बात पर दोनों परिवारों में लड़ाई हो गई और जब मेरे भाई ने उन को मेरी मां की मदद की बात याद दिलाई तो उन्होंने तपाक से कहा, ‘‘हम ने भी एक बार डाक्टर बुला कर एहसान का बदला चुका दिया.’’ ऐसी बात सुन कर हम अवाक् रह गए.

सुधा विजय, मदनगीर (न.दि.)

*

हमारे पड़ोस में एक लड़की बड़ी ही पढ़ाकू सी दिखती थी. जब भी देखो, किताब ले कर पढ़ती ही दिखाई देती. लेकिन इंटरमीडिएट की परीक्षा में उस के नंबर बहुत अच्छे नहीं आए. मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतना पढ़नेलिखने वाली लड़की के इतने कम नंबर कैसे आए. किसी तरह उस ने बीए किया तथा साथ में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी भी करती रहती. मां कहतीं, ‘‘देखिए बहनजी, मेरी बेटी दिनभर पढ़ती रहती है परंतु अध्यापक लोग इस को नंबर ही नहीं देते. मैं तो इस से घर का काम भी नहीं कराती हूं.’’ मैं भी सोचती, कहीं तो कुछ बात अवश्य है. एक दिन वह अपनी सहेली से बाहर लौन में फोन पर बात कर रही थी. मैं भी बाहर बैठी थी परंतु उस ने मुझे नहीं देखा था. वह फोन पर कह रही थी, मेरा पढ़ाई में मन नहीं लगता है पर यदि मैं ऐसा अपनी मां व पापाजी से कहूंगी तो मां मुझ से घर का काम करने को कहेंगी. सो, मैं काम करने के डर से हर समय किताब खोल कर बैठी रहती हूं.

उपमा मिश्रा, गोंडा (उ.प्र.)

*

मैं बस से घर आ रही थी. भीड़ के कारण मैं खड़ी हुई थी कि अचानक मुझे महसूस हुआ कि कुछ गिरा है. बैठने पर मैं ने अपने कान के टौप्स चैक किए. सब ठीक था. बस से उतरने के बाद मैं सब्जी ले रही थी कि अचानक साड़ी के पल्लू में कुछ चमकता हुआ नजर आया. एक सोने का पेंच था. मैं ने सोचा बस में किसी का गिर गया होगा. मैं ने पेंच को बस के टिकट में लपेट कर पर्स में रख लिया. घर आई तो बेटे को यह बात बता ही रही थी कि अचानक मेरा टौप्स मेरी गोद में गिरा. मैं ने टौप्स में उस पेंच को फिट किया तो पता चला वह मेरा ही था. मेरा बेटा हंसने लगा और कहने लगा, ऐसा भी होता है.

सरोज गर्ग, मुंबई (महा.)

एहसासी यादें

सांसों में समाई

सरगम की गुंजन

मदहोश थे हमतुम

प्यार की सुरभि

महकी थी तब

जिंदगी गुलशन में…

तुम्हारी गलबहियां

कोमल एहसास

शहदीले होंठों पर चुंबन

वे एहसासी यादें

सहेज कर रखे हूं

आज तन्हा जीवन में…

मीत मेरे

दूर हो जब से तुम

उतरा लगता है चांद का मुखड़ा

मुरझाई रहती है चांदनी

घर के छज्जे में…

    – राकेश माहेश्वरी ‘काल्पनिक’

महायोग (9वीं किस्त)

अब तक की कथा :

नील को अपने पास देख कर दिया हतप्रभ रह गई. ऐसे भी होते हैं लोग. इतने बेशर्म. नील दिया से ऐसे व्यवहार कर रहा था मानो कुछ हुआ ही न हो. बातों ही बातों में नील ने बताया कि वह पहले भी प्रोजैक्ट के सिलसिले में मुंबई आया था. नील पूरे रास्ते दिया की चापलूसी करता रहा और वह उस की बेशरमाई के बारे में सोचती रही. आखिर वह बुत बनी हुई लंदन पहुंच गई. नील की मां ने आरती कर के उस का व बेटे का स्वागत किया और उसे नीचे का एक कमरा दे दिया गया. क्या दिया के संबंध नील से बन सके? घर से फोन आने पर वह बात क्यों नहीं कर सकी?

अब आगे…

ससुराल पहुंच कर दिया को लग रहा था जैसे वह किसी सुनसान जंगल में पहुंच गई है जहां दूरदूर तक पसरा सन्नाटा उसे ठेंगा दिखा रहा था. उसे समझ नहीं आ रहा था वह यहां किस से करेगी अपने मन की बात? नील इतनी सहजता से बात कर रहा था कि दिया उस के चरित्र को समझने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी. क्या अधिकार इतनी जल्दी छिन जाते हैं या छीन लिए जाते हैं. दिया का मन इस गुत्थी में उलझने के लिए तैयार नहीं था. रिसीवर क्रैडिल पर रख कर दिया सोफे पर बैठ गई. तभी नील का स्वर सुनाई दिया, ‘‘तुम फ्रेश हो जाओ, फिर कुछ खापी लेते हैं. तुम तैयार हो जाओ, इतनी देर में मैं सूप और सैंडविच तैयार कर लेता हूं.’’

दिया चुपचाप देखती रही. कहां क्या करना है उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था. उस से ऐसा बरताव हो रहा था मानो वह न जाने कब से वहीं रहती आई हो. चुपचाप उठ कर वह उस कोठरीनुमा कमरे में गई. वह कमरा जिस में नील ने उस का सामान सरका दिया था. ‘उस के यहां नौकरों के कमरे भी कितने खुले हुए हैं,’ उस ने सोचा और खिड़की से बाहर देखने लगी. आकाश में चिडि़या तक नहीं दिखाई दे रही थी. मरघट का सा सन्नाटा. वह भीतर ही भीतर कांप गई.

‘‘चलो, तुम्हें बाथरूम दिखा देता हूं,’’ कह कर नील सीढि़यों पर चढ़ गया.दिया भी पीछेपीछे ऊपर जा पहुंची और उस ने एक गैलरी के दोनों ओर बने 2 कमरोें पर दृष्टि डाली.

‘‘ये मौम का कमरा है,’’ फिर दूसरी ओर इशारा कर के नील बोला, ‘‘दिस इज माय रूम.’’

फिर बाईं ओर के दरवाजे की ओर इशारा कर के नील बोला,  ‘‘यह एक और बैडरूम है और यह बाथरूम…’’

दिया तो मानो मूकबधिर की भांति सबकुछ सुन रही थी और समझने की चेष्टा कर रही थी कि उसे नीचे के बैडरूम में क्यों उतारा गया. इसी ऊहापोह में दरवाजा खोल कर वह बाथरूम में जा पहुंची. बाथरूम खासा बड़ा था. गरम पानी से नहाने के बाद उस ने स्वयं को थोड़ा सा चुस्त महसूस किया. घर की खिड़कियां लगभग एक सी लंबीचौड़ी थीं. बाहर पेड़ों पर एक भी पत्ता नहीं दिखाई दे रहा था. मानो किसी ने पत्ते रहित पेड़ों की पेंटिंग कर के वातावरण में दृश्य उपस्थित कर दिया हो. पेड़ों की उस तसवीर से उस के मन में और भी सूनापन भर उठा.

‘‘दिया,’’ नीचे से नील की आवाज थी. अपने वातावरण से उबर कर वह जल्दी ही सीढि़यों से नीचे उतर गई.

‘‘बड़ी देर लग गई?’’ नील ने पूछा जिस का दिया ने कुछ उत्तर नहीं दिया.

‘‘आओ दिया, मम्मा तुम्हारा वेट कर रही हैं,’’ नील किचन की ओर बढ़ा. वहीं एक डाइनिंग टेबल थी और मां टेबल पर बैठी नाश्ता सामने रखे प्रतीक्षा कर रही थीं.

किचन काफी बड़ा था और जरूरत की सभी चीजें उस में सलीके से फिट थीं. नील ने सैंडविच बना लिए थे, जूस के पैकेट्स निकाल कर मेज पर रख लिए थे. इन के साथ ही और भी बहुतकुछ जैसे भारतीय मिठाइयां और समोसे, जिन्हें नील माइक्रोवेव में गरम कर लाया था.

‘‘यहां एक सरदारनी बहुत बढि़या समोसे बनाती है. मौम मंगवा कर रख लेती हैं. जब जी चाहा, गरम कर के खा लिए,’’ नील बोलता जा रहा था.

नील की मां ने प्लेटें लगा ली थीं.

‘‘लो दिया, ऐसे तो भूखी रह जाओगी. यहां तो सैल्फ सर्विस करनी होती है.’’

दिया ने चुपचाप प्लेट ले ली. नील ने उस के गिलास में जूस भर दिया था.सब लोग चुपचाप नाश्ता करने लगे थे.

‘‘मम्मीपापा, दादी, भाई लोग, सब अच्छे हैं न?’’ एक ही सांस में नील की मां ने दिया से पूछ डाला. दिया ने हां में सिर हिला दिया. वह इन लोगों को समझने की चेष्टा कर रही थी. खूंटे से बंधी हुई गाय सिर हिलाने के अतिरिक्त और कर भी क्या सकती थी?

‘‘तुम्हें तो यह घर बहुत छोटा लग रहा होगा? यहां तो सब काम भी अपनेआप करना पड़ता है. मैं तो टांगों के दर्द से कुछ खास नहीं कर पाती. नील को ही मेरी मदद करनी पड़ती है. अब तुम आ गई हो तो…तुम तो जानती हो, नील को बाहर काफी आनाजाना पड़ता है.’’ सास अपनी जबान कैंची की तरह चलाए जा रही थीं. सैंडविच उठा कर मुंह तक ले जाता हुआ दिया का हाथ बीच में ही रुक गया. उसे याद आया कि जब उस की सास उन के घर आई थीं तब उन्होंने बताया था कि नील काफी बाहर जाता है परंतु उस के साथ ही यह भी याद आया कि उन्होंने कहा था कि दिया नील के साथ खूब घूमेगी. उस का दिमाग तो पहले से ही भटक रहा था, अब वह पूरी तरह समझ गई थी कि वह यहां क्यों लाई गई है. इतनी सर्दी में भी उसे पसीना आने लगा. उस ने सैंडविच वापस प्लेट में रख कर अपने माथे पर हाथ फेरा.

‘‘अरे, खाओ न, दिया. तुम ने फ्लाइट में भी कुछ नहीं खाया है. ऐसे तो तुम्हें चक्कर आने लगेंगे.’’

आने क्या लेगेंगे, चक्कर तो आ रहे थे दिया को. उसे फिर उल्टी सी आने लगी और खूब तेजी से सिर घूमने लगा, आंखों के आगे अंधेरा सा छाने लगा और वह दोनों हाथों में अपना माथा थाम कर डाइनिंग टेबल पर बैठ गई.

‘‘दिया क्या बात है? आर यू औलराइट?’’ नील अपनी कुरसी से उठ कर उस के पास आ गया था और कंधों से पकड़ कर उस का मुंह ऊपर उठाने की चेष्टा करने लगा.

‘‘बैठ जाओ नील, ठीक हो जाएगी. अभी तक कभी इतनी लंबी फ्लाइट में सफर नहीं किया होगा न, शायद सिर घूम रहा है. है न दिया बेटा?’’

दिया तो उत्तर देने की स्थिति में ही नहीं थी.

‘‘लो, दिया, थोड़ा जूस पी लो, यू विल फील बैटर.’’

नील ने दिया का मुंह ऊपर कर के उस के होंठों से गिलास लगा दिया था. दिया ने कुछ घूंट भरे और अपना मुंह गिलास से हटा लिया. उस के शरीर में मानो जान ही नहीं थी और न ही दिमाग में सोचने की शक्ति. नील इतनी सहजता से बातें कर रहा था कि दिया उस के चरित्र को समझने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी. दोनों मांबेटे एक से बढ़ कर एक बेशर्म. उस के मन ने सोचा कि वह ऐसे तो इस घर में घुट कर रह जाएगी. उस के घर के हालात भी इस समय ऐसे थे कि वह मांपापा को कुछ भी बताना नहीं चाहती थी. अगर वह कुछ खाएगीपीएगी नहीं तो अपना युद्ध कैसे लड़ सकेगी? उस ने स्वयं को संभाला और सैंडविच उठा कर धीरेधीरे कुतरने लगी. नाश्ता हो चुका था. नील ने प्लेटें समेट कर, उन की जूठन एक प्लेट में रखी और उसे किचन से बाहर लौबी में रखे हुए डस्टबिन में फेंक आया और दिया से आराम करने के लिए कहा. दिया टूटे हुए कदमों से कमरे की ओर बढ़ने लगी तो नील व उस की मां पीछेपीछे कमरे में घुस आए. फिर वही घिचपिच सी. दिया को याद आया कि उसे उपहार निकाल कर अपनी सास और पति को देने हैं. उस ने अटैची से उपहारों का डब्बा निकाल कर सासू मां के हाथों में पकड़ा दिया.

डब्बा हाथों में लेते हुए सासूजी बोलीं,  ‘‘अरे इतनी जल्दी क्या थी, दिया. अब तो घर में ही हो, फिर दे देतीं,’’ कहतेकहते डब्बा खोल डाला और खोलते ही मानो बाछें खिल गईं. उन के हाथों में कीमती हीरों का सैट जगमगा रहा था. दिया ने उड़ती दृष्टि से मांबेटों के चेहरों के उतारचढ़ाव पर दृष्टिपात किया और उस का थमा हुआ खून फिर से खौलने लगा. वह स्वयं को संभालती हुई अटैची बंद करने लगी.

‘‘अरे, यह अलमारी बिलकुल खाली है. इस में लगाओ न कपड़े. बाद में नील अटैची को अलमारी के ऊपर चढ़ा देगा.’’

अब उस का विश्वास दृढ़ होने लगा कि उस को यही कमरा मिलेगा. लेकिन क्यों? इस क्यों का उत्तर उस के पास था नहीं और अभी उस में इतना साहस नहीं था कि वह अपनी जबान खोल कर इन लोगों से कुछ पूछ सके.

क्या वह अपनी मां की प्रतिलिपि बन कर जीवनभर जीएगी? परंतु मां का घर के बाहर तो अपना अस्तित्व था, एक ही कमरे में दोनों पतिपत्नी की साझेदारी थी. मां अपने बच्चों से भी अपने दुख बांट सकती थी. दिया किस से करेगी अपने बारे में बात? तभी उसे याद आया कि नील के उपहार तो अटैची में ही रह गए. उस ने झट से उपहार निकाल कर नील को दे दिए. नील के लिए हीरे के कफलिंग्स और प्लेटिनम की चेन में हीरे का जगमगाता पैंडल था. जिसे देख कर मांबेटों के मुख पर मानो विजयी भाव फैल गए. डब्बों को मां के हाथ में पकड़ाते हुए नील ने सपाट स्वर में दिया से कहा, ‘‘अगर अभी थकी हुई हो तो कपड़े बाद में अलमारी में लगा लेना. अभी अटैची नीचे रख देता हूं,’’ और बिना किसी उत्तर की प्रतीक्षा के उस ने दिया की अटैची उठा कर पलंग के नीचे की ओर सरका दी थी.

‘‘चलो दिया, तुम आराम कर लो बेटा. कितना उतरा हुआ मुंह लग रहा है. नील, तुम भी आराम कर लो.’’

बिना इधरउधर देखे और दिया के चेहरे को बिना पढ़े ही नवविवाहिता पत्नी को छोड़ कर नील दुधमुंहे बछड़े की भांति मां के पीछे चल दिया. दिया किंकर्तव्यविमूढ़ सी खड़ी रह गई और वे दोनों फटाफट सीढि़यां चढ़ गए थे. दिया भय के मारे कंपकंपाने लगी थी. उस ने अपने सिर को दोनों हाथों में थाम लिया. उस की आंखों में से अश्रुधारा एक बार फिर ऐसी प्रवाहित होने लगी मानो कमरे में बाढ़ ही ले आएगी. इसी स्थिति में न जाने कब उस की आंखें बंद हो गईं.

‘‘उठो, दिया, देखो कितने बज गए,’’ यदि उस ने यह न सुना होता तो शायद वह उसी प्रकार बिस्तर में लिपटी हुई गुड़मुड़ी सी बन कर पड़ी रहती.

आवाज सुनते ही वह चौंकी, आंखें खोल कर इधरउधर देखा. सासूमां उसे जगाने के लिए आवाज लगा रही थीं. दिया का बदन टूट रहा था. बिस्तर से उठने का उस का जरा सा भी मन नहीं था परंतु उसे यह कटु सत्य याद आया कि वह अपने पिता के घर में नहीं बल्कि अपनी ससुराल में है और यहां उसे अपने मन से चलने का कोई अधिकार नहीं है. ‘क्या अधिकार इतनी जल्दी छिन जाते हैं या छीन लिए जाते हैं?’ उस का मन इस गुत्थी में उलझने के लिए तैयार नहीं था. मूकदर्शक सी उस ने बदन से रजाई उतार कर पैरों को पलंग से नीचे लटकाया और स्लीपर पहन लिए. अचानक उस की दृष्टि दीवारघड़ी पर पड़ी. शाम के 5 बज गए थे. दाहिनी ओर मुंह घुमाया तो खिड़की के बाहर रात घिर आई थी. शाम के 5 बजे इतना अंधेरा? उस ने पूछना चाहा पर मुख से बाहर आते हुए प्रश्न को भीतर ढकेल दिया था.

‘‘भूख नहीं लगी? कुछ खाओगी नहीं?’’ सास मानो चाशनी में शब्दों को घोल कर बोल रही थीं.

‘‘नहीं,’’ उस ने संक्षिप्त उत्तर दिया और पलंग पर ही बैठी रही. उसे ठंड लग रही थी और वह फिर से रजाई में दुबक जाना चाहती थी. दीवार से सटी हुई एक कुरसी पड़ी थी. सास उसी पर बैठ गईं. उन्होंने दिया का माथा और गला छुआ तो झट से हाथ हटा लिया.

‘‘तुम्हें बुखार हो गया है. नील, जरा फर्स्ट-ऐड बौक्स और एक गिलास पानी तो लाओ.’’ कुछ देर में नील दवाई, थर्मामीटर एक गिलास में पानी ले कर उपस्थित हो गया. सास ने उसे गोली दी तो बिना किसी नानुकर के दिया ने गोली ले कर गले के नीचे उतार ली थी. वह किसी से भी कुछ बात नहीं करना चाहती थी.

‘‘दिया को बुखार हो गया है. इसे रैस्ट की जरूरत है. चलो बेटा, बिस्तर में लेट जाओ और रात में एक और गोली ले लेना. सुबह तक फिट हो जाओगी.’’ वे कुरसी से उठ गईं और दवाई का पत्ता उस के पलंग पर रख दिया.

‘‘दिया, टेक केयर प्लीज. दिस इज न्यू एटमौसफियर फौर यू,’’ कहते हुए नील मां के पीछेपीछे खिंचता हुआ सा दिया की ओर देखे बिना कमरे से बाहर निकल गया.

– क्रमश:

जीवन की मुसकान

बात उस समय की है जब मेरे पिताजी को लकवा मार गया और उसी हालत में उन की पैर की हड्डी टूट गई. चूंकि मैं शहर में नया आया था, इसलिए किसी से जानपहचान ठीक से नहीं हुई थी. बहुत मशक्कत के बाद उन का औपरेशन संभव हो पाया. इसी दौरान डाक्टर के पैनल में सभी से हमारी मित्रता हो गई. इसी बीच एक डाक्टर ने सलाह दी कि बाबूजी की हड्डी को रिप्लेस करने के लिए रौड लगाई जाएगी और रौड लेने के लिए विशेष दुकान का पता दिया. चूंकि हम बहुत घबराए हुए थे, डाक्टर जैसे कह रहे थे, करते जा रहे थे. रौड लेने दुकान पर गए तो कीमत सुन होश उड़ गए. रौड लगाने की राय देने वाले डाक्टर को खूब कोसा.खैर, बाबूजी का सफलतापूर्वक औपरेशन हो गया. 10-12 दिनों के बाद बाबूजी डिस्चार्ज हो कर घर आ गए. लेकिन अचानक 3 दिन बाद रात 2 बजे पिताजी की तबीयत बिगड़ गई. कुछ सूझ नहीं रहा था, मां को उन्हीं डाक्टर का खयाल आया.

मेरे दिमाग में उस डाक्टर की छवि विपरीत थी लेकिन डूबते को तिनके का सहारा. मैं ने डाक्टर से फोन पर संपर्क किया. आश्चर्य की बात उन डाक्टर ने रात 2 बजे मुझ से बात की और तुरंत अपनी कार ले कर हमारे घर आ पहुंचे और बाबूजी को अस्पताल ले गए. अस्पताल में पूरी औपचारिकता तथा कई सारे टैस्ट करवाने में न केवल हमारी मदद की बल्कि एक परिवार के सदस्य की भांति सुबह तक हमारे साथ रहे और हमें मानसिक सहारा देते रहे.उस दिन उन के प्रति बहुत ही श्रद्धा भाव आ गया. सचमुच दुनिया में अभी भी मानवता जीवित है.

रजनीश कुमार यादव, जयपुर (राज.)

*

मैं अपने बेटे शुभम के साथ खरीदारी करने के लिए सिविल लाइंस गई. वहां पर मैं ने कई दुकानों से घर से संबंधित सामान खरीदा. एक दुकान से मैं ने बैडशीट खरीदी. मुझे अपने 2 सूट सिलने देने थे. याद न रहने के कारण मैं अपने दोनों सूट बैडशीट वाले की दुकान पर भूल आई. मुझे बिलकुल भी याद नहीं रहा. 15-20 दिन बाद मेरी बेटी नौएडा से आई तो वह मुझ से पूछ बैठी, ‘‘मम्मी, जो सूट मैं आप के लिए लाई थी वह तो आप ने सिलने के लिए दे दिए होंगे?’’

मैं ने कहा, ‘‘अरे, वह तो मैं सिलने देने गई थी. मैं शायद किसी दुकान पर भूल आई हूं.’’ हम उसी दिन शाम को सिविल लाइंस गए. एकदो दुकानों पर पूछा, फिर बैडशीट वाले की दुकान पर गए तो दुकान वाले ने तुरंत हमारे दोनों सूट हमें पकड़ा दिए.

मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था. मैं ने और मेरे दोनों बच्चों ने उन्हें धन्यवाद दिया.

ललिता गर्ग, रुड़की (उत्तराखंड)

मैं और तुम

मैं शब्द तुम निशब्द

मैं शोर तुम मौन

मैं तत्त्व तुम सत्व

मैं अल्हड़ तुम परिपक्व

 

मैं यमुना तुम कदंब

मैं झलक तुम बिंब

मैं दूरी तुम लगाव

मैं गति तुम ठहराव

 

मैं सूक्ष्म तुम विशाल

मैं दशा तुम हाल

मैं निद्रा तुम स्वप्न

मैं स्थिर तुम कंपन

 

मैं हृदय तुम धड़कन

मैं मस्तिष्क तुम चिंतन

मैं वन तुम हिरण

मैं सूरज तुम किरण

 

मैं सागर तुम लहर

मैं धूप तुम पहरमैं

गहराई तुम शिखर

मैं चुप्पी तुम मुखर

 

मैं अवनि तुम अर्श

मैं समीर तुम स्पर्श

मैं दर्प तुम दर्पण

मैं श्रद्धा तुम तर्पण

मैं अलग तुम विलग

फिर भी मैं तुम सी, मेरे से तुम.

– ब्रजबाला

पाठकों की समस्याएं

मैं तलाकशुदा व्यक्ति हूं. मेरा 35 वर्षीय बेटा है जो मेरे साथ ही रहता है. उस का विवाह 5 वर्ष पूर्व एक 40 वर्षीय लड़की से हुआ था. समस्या यह है कि अब तक उन के कोई संतान नहीं हुई है. मुझे ऐसा लगता है कि उन के बीच शारीरिक संबंध पूर्णरूप से नहीं बने हैं. लड़की के मायके का माहौल भी क्लेशपूर्ण है, कहीं यह भी तो एक वजह नहीं है. दिल्ली स्थित किसी मनोचिकित्सक व यौन चिकित्सक का पता बताएं या अन्य कोई उपाय?

यह आप किस आधार पर कह सकते हैं कि उन के बीच शारीरिक संबंध नहीं बने हैं? दरअसल, आप के बेटे की पत्नी की आयु 40 वर्ष है और इस आयु में गर्भधारण कर पाना थोड़ा कठिन होता है, हार्मोनल समस्याएं जन्म लेने लगती हैं. जहां तक लड़की के मायके के माहौल का क्लेशपूर्ण होने का सवाल है, आप अपने बहूबेटे से खुल कर बात करें. क्या पता, वे परिवार आगे न बढ़ाने के बारे में स्वयं ही जिम्मेदार हों और वे परिवार न बढ़ाना चाहते हों. लेकिन अगर वे चाहते हैं और कोई शारीरिक समस्या पेश आ रही है तो किसी प्रतिष्ठित गाइनोकोलौजिस्ट से संपर्क करें और पूर्ण शारीरिक परीक्षण कराएं. टैस्ट के बाद ही गर्भधारण न कर पाने के कारणों और उस के उपचार का पता चल सकेगा.

मैं 25 वर्षीय युवक हूं. मेरी समस्या यह है कि मुझे हस्तमैथुन करने की आदत है. मैं यह जानना चाहता हूं कि क्या इस से मेरे स्वास्थ्य पर कोई गलत प्रभाव पड़ेगा? कृपया मेरी शंका का समाधान कीजिए.

आप व्यर्थ ही परेशान हो रहे हैं. एक अध्ययन के अनुसार, 95 प्रतिशत पुरुष व 89 प्रतिशत महिलाएं हस्तमैथुन करती हैं. यह किसी भी युवती या युवक की पहली सैक्सुअल क्रिया होती है और यह एक सामान्य प्रक्रिया है. यौनचिकित्सक हस्तमैथुन को हार्मोनल परिवर्तन के परिणामस्वरूप बने प्रैशर को रिलीज करने का माध्यम मानते हैं. यह आप की सैक्सुअल डिजायर का परिणाम है. यह कोई रोग नहीं बल्कि आदत है जिस से कामेच्छा शांत होती है और इस से स्वास्थ्य पर कोई गलत प्रभाव नहीं पड़ता. हालांकि अति हर चीज की बुरी होती है.

मैं विवाहित पुरुष हूं और एक अविवाहित महिला से प्यार करता हूं. वह भी मुझ से बहुत प्यार करती है. वह कहती है कि वह मेरे बिना जिंदा नहीं रह पाएगी. मुझे समझ नहीं आ रहा, मैं क्या करूं?

क्या आप की पत्नी आप के इस प्यार के बारे में जानती हैं? अवश्य ही वह नहीं जानती होंगी. ऐसे प्रेमसंबंध थोड़े समय के लिए भले ही रोमांचक, आकर्षक व संतुष्टि देने वाले लगें लेकिन इन का भविष्य अच्छा नहीं होता और अंत सदैव दुखदायी होता है. मौजूदा वैवाहिक संबंधों में दरार आती है. इसलिए आप तुरंत उस महिला से संबंध तोड़ लें, इसी में आप की व उस की भलाई है.

मेरी आयु 20 वर्ष है. मेरी शादी होने वाली है. मेरी समस्या यह है कि मैं जब भी अपने पति के साथ सैक्स संबंधों के बारे में सोचती हूं या टीवी पर सैक्स संबंधी दृश्य देखती हूं तो मेरे गुप्तांग से पानी निकलने लगता है. क्या यह कोई समस्या है या नैचुरल है? समस्या का समाधान कीजिए.

यह कोई समस्या नहीं है. यह पूर्णतया नैचुरल प्रक्रिया है. इसे वैजाइनल डिस्चार्ज कहा जाता है. ऐसा सैक्स की इच्छा के खयाल की उत्तेजना के कारण होता है. यह वैजाइना को लुब्रिकेट करता है और सैक्स के लिए तैयार करता है. यह मासिक धर्म के चक्र पर निर्भर करता है और ओव्यूलेशन से पहले अधिक होता है. बस, ध्यान रहे कि इस डिस्चार्ज में किसी तरह की दुर्गंध, दर्द या जलन न हो वरना यह किसी बैक्टीरियल या यीस्ट इन्फैक्शन का कारण भी हो सकता है.

मैं 20 वर्षीय युवती हूं. मेरे मातापिता इस दुनिया में नहीं हैं. मैं अपने भाईभाभी के साथ रहती हूं. मेरी समस्या यह है कि मेरी भाभी मुझे और भैया को ले कर गलत आरोप लगाती हैं. ऐसा वे पिछले 2 महीने से कर रही हैं. मैं बहुत परेशान हूं, क्या करूं?

सब से पहले आप यह जानने की कोशिश कीजिए कि ऐसा खयाल उन के मन में क्यों आया. क्या वे शक्की स्वभाव की हैं या उन्हें कोई गलत बात सिखा रहा है. आप इस बारे में अपने भाई से खुल कर बात करें कि आखिर भाभी को आप से क्या परेशानी है जो वे ऐसा घिनौना आरोप लगा रही हैं. आप सही हैं तो अपने को सही साबित करें और अच्छी पढ़ाईलिखाई कर के आत्मनिर्भर बनें और फिर विवाह कर के अपनी गृहस्थी बसाएं.          

मैं 22 वर्षीय अविवाहित एमए का छात्र हूं. 21 वर्षीय नवविवाहिता से शारीरिक संबंध हो गए जो आज भी बरकरार हैं. उस के छोटेछोटे 3 बच्चे हैं. इधर, मेरा ऐक्सिडैंट हो गया, मैं अस्पताल में मौत से जूझ रहा था तब वह केवल एक बार आई और कहने लगी कि घरवाले आने नहीं देते. इस बीच उस के पति की किसी ने हत्या कर दी. आप से यह जानना चाहता हूं कि क्या मैं उस से शादी कर लूं? क्या इसे समाज मान्यता देगा, क्योंकि उस की शादी अन्यत्र हो गई तो मैं न स्वयं को माफ कर पाऊंगा, न उस को. क्या हमारा वैवाहिक जीवन सुखी रहेगा? मैं उस के बच्चों को भी अपनाने को तैयार हूं, क्या करूं?

आप का यह विवाह कानूनी व सामाजिक दोनों ही रूप से मान्य है. शादी कर के आप एक अच्छा उदाहरण ही पेश करेंगे. सोच यह भी लीजिए कि तीनों बच्चों की जिम्मेदारी आप की है. रहा सवाल आप का जीवन सुखमय रहेगा या नहीं, यह सब आप दोनों पर निर्भर करता है. जिंदगी के हर पहलू का सोचविचार कर ही फैसला करें.

विज्ञान कोना

विज्ञान की दुनिया अनूठी है. रोचक शोधों और तरक्की के हर आयाम को छूती साइंस हर पल कुछ नया खोज रही है. आइए जानते हैं कुछ दिलचस्प वैज्ञानिक शोधों से जुड़ी बातें :

खरबों गंध की पहचान

आमतौर पर माना जाता है कि मनुष्यों में गंध पहचानने की क्षमता बहुत कमजोर होती है. मगर हाल ही में किए गए प्रयोगों से पता चला है कि मनुष्य लगभग 3 खरब अलगअलग गंधों के बीच भेद कर पाते हैं.हमारी नाक में कई ग्राही होते हैं. जब हम सांस लेते हैं तो हवा में मौजूद गंध वाले अणु इन ग्राहियों से जुड़ जाते हैं. जैसे ही गंधयुक्त अणु ग्राही से जुड़ता है, दिमाग को एक संदेश पहुंचता है. अधिकांश गंध एक से अधिक रासायनिक अणुओं के मेल से बनती हैं, यह समझना अपनेआप में एक पहेली रही है कि मस्तिष्क इतने सारे संदेशों में से गंध को कैसे पहचान पाता है.

मनुष्यों में गंध पहचानने की क्षमता का आकलन करने के लिए रौकफेलर विश्वविद्यालय की लेसली वोशाल और उन के साथियों ने 128 ऐसे रासायनिक पदार्थ लिए जिन के विभिन्न सम्मिश्रण अलगअलग गंध पैदा करते हैं. वोशाल के दल ने इन रसायनों के कई अलगअलग मिश्रण बनाए, किसी मिश्रण में 10 तो किसी में 20 रसायनों को मिलाया गया था.

अब कुछ वौलंटियर्स को भरती किया गया. ये वौटियर्स पेशेवर शराब या कौफी या चाय को चखने वाले लोग नहीं थे बल्कि साधारण लोग थे. हरेक वौलंटियर को एक बार में 3-3 मिश्रण सूंघने को दिए गए. इन में से 2 मिश्रण हूबहू एकजैसे ही थे जबकि तीसरा अलग था. वौलंटियर्स को यह पहचानना था कि कौन सा मिश्रण अलग गंध वाला है. यह प्रयोग कई मिश्रणों के साथ किया गया. औसतन जब 2 मिश्रणों के रसायनों में 50 प्रतिशत का अंतर था तो वौलंटियर्स उन के बीच भेद कर पाए. जब वोशाल के दल ने यह गणना की कि 128 रसायनों के कितने अलगअलग मिश्रण बन सकते हैं और उस संख्या पर अपने प्रयोग के आंकड़ों को लगाया तो निष्कर्ष निकला कि औसतन हर वौलंटियर 3 खरब गंध मिश्रणों के बीच भेद कर पाएंगे.वैसे इस मामले में काफी विविधता भी है. जैसे उक्त प्रयोग में सब से खराब प्रदर्शन करने वाले व्यक्ति के आंकड़े दर्शाते हैं कि वह 8 करोड़ अलगअलग गंधों के बीच भेद कर पाएगा जबकि सब से बढि़या सूंघने वाले के मामले में यह संख्या हजार खरब तक हो सकती है. वैसे, हमारे पर्यावरण में इतनी खुशबुएं होती ही नहीं हैं कि हमें अपनी इस पूरी क्षमता का उपयोग करने का मौका मिले या जरूरत पड़े.

अल्जाइमर से बचाता है तनाव

यदि आप याददाश्त खोने से बचना चाहते हैं तो अपनी कोशिकाओं को तनाव में रखिए. हाल में प्रकाशित एक शोधपत्र में बताया गया है कि बढ़ा हुआ कोशिकीय तनाव दिमाग की कोशिकाओं को एक ऐसा प्रोटीन बनाने को प्रोत्साहित करता है जो अल्जाइमर व दूसरे किस्म के स्मृति भ्रंश से बचाव करता है. दुनियाभर में 65 वर्ष से अधिक आयु के करीब 4-5 करोड़ लोग अल्जाइमर से पीडि़त हैं. इस रोग का संबंध दिमाग में कुछ प्रोटींस (एमिलौयड बीटा और टाऊ) के जमा होने के साथ देखा गया है. मगर यह स्पष्ट नहीं है कि याददाश्त  किस वजह से जाती है.

ताजा अध्ययन में हारवर्ड मैडिकल स्कूल के बू्रस यान्कनर ने एक नए प्रोटीन पर ध्यान दिया है. यह तो पहले से पता था कि यह प्रोटीन अन्य जीन्स को बंद व चालू करने का काम करता है और भू्रण में दिमाग के विकास का नियंत्रण करता है मगर ऐसा माना जाता था कि यह प्रोटीन वयस्कों में नहीं पाया जाता. इस खोज से हैरत में पड़ कर उन्होंने इंसानों और चूहों के मस्तिष्क में से कुछ कोशिकाएं प्राप्त कीं और यह समझने की कोशिश की कि मस्तिष्क की कोशिकाओं में रेस्ट की मात्रा किन कारणों से बदलती है और इस का क्या असर होता है. यान्कनर को पता चला कि किसी भी किस्म का तनाव, जैसे प्रतिरक्षा तंत्र की सक्रियता या प्रोटीन का संग्रह दिमाग में रेस्ट की मात्रा को बढ़ाता है. उम्र बढ़ने के साथ इस तरह के तनाव बढ़ते हैं. जो और भी आश्चर्यजनक बात पता चली वह यह थी कि रेस्ट की मात्रा बढ़ने पर यह प्रोटीन उन जीन्स को बंद करने लगता है जो कोशिकाओं की स्वाभाविक मृत्यु के लिए जिम्मेदार होते हैं. यानी रेस्ट की मात्रा बढ़ जाए तो दिमाग की कोशिकाओं की मृत्यु पर रोक लगती है.

गौरतलब है कि जहां शरीर की बाकी कोशिकाएं मरने से पहले नई कोशिकाएं बन सकती हैं, वहीं दिमाग की कोशिकाओं में ऐसी क्षमता नहीं होती. कहने का मतलब है कि आप जिन तंत्रिका कोशिकाओं के साथ पैदा होते हैं, उन्हीं के साथ मरते हैं. बीच में जितनी तंत्रिका कोशिकाएं मर गईं, सो मर गईं. इस का मतलब यह निकलता है कि रेस्ट प्रोटीन दिमाग की कोशिकाओं को मरने से बचा कर दिमाग को देर तक दुरुस्त रखने में मदद करता है.            

 

गंगा आरती : प्रदूषण और गंदगी खतरे में जीवनधारा

बनारस से सांसद बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने बनारस के विकास के लिए भले ही कुछ नहीं सोचा हो मगर यहां सांध्य बेला में होने वाली गंगा आरती में शामिल हो कर उन्होंने इसे देश भर में विख्यात अवश्य कर दिया है. आज आलम यह है कि शहर तो शहर, गांव व देहात के लोग भी गंगा आरती देखने बनारस चले आ रहे हैं. विश्वनाथ मंदिर से ज्यादा मांग गंगा आरती की हो गई है. दूरदर्शन ने गंगा आरती का जिस तरह से सजीव प्रसारण किया उस से तो यही लगता है कि गंगा से ज्यादा यह आरती लोगों के लिए अहमियत रखती है.बनारस सदियों से धर्म के अंध अनुयायियों के लिए पहली पसंद रहा है. चाहे दक्षिण भारतीय हो या फिर महाराष्ट्र, बिहार, बंगाल, सभी जगह के लोग मुक्ति के लिए बनारस आते रहे हैं. जिस तरह से गंगा आरती को हाईलाइट किया जा रहा है उस से बनारस के घाटों का महत्त्व मुंबई की चौपाटी की तरह हो गया है. जिस को देखो, यही कहता है, ‘‘सुना है कि बनारस की गंगा आरती बड़ी अच्छी होती है.’’ज्यादातर लोगों के लिए गंगा आरती तफरी के अलावा कुछ नहीं. सत्य यह है कि गंगा आरती देखने के साथ वे गंगा को मैली कर रहे हैं.

रात के वक्त जब गंगा के सारे ऐब छिप जाते हैं तब लाइट और साउंड के माध्यम से गंगा की आरती उतारने का प्रदर्शन किया जाता है. उसे देखने के लिए देशविदेश के लोग जमा होते हैं. इस के लिए लोग काफी किराया दे कर नाव करते हैं. आरती के समय गंगा में एक तरह से ट्रैफिक जाम हो जाता है. यह दुर्लभ नजारा तब दिखता है जब गंगा में ट्रैफिक जाम होता है. एक तरफ शीतला घाट पर गंगा की आरती उतारी जाती है तो उसी के बगल में राजेंद्र प्रसाद घाट के नीचे सीवर का पानी बहता हुआ गंगा में मिलता है.गंगा के पौराणिक महत्त्व के घाटों के निकट यदि कोई बैठ जाए तो यह पता लगते देर नहीं लगती कि गंगा कितनी बदबूदार है. मंदिरों में चढ़ाई गई फूलमाला या यों कहें कि सारा कचरा गंगा में बहा दिया जाता है. 100 साल पहले जब गंगा निश्चय ही साफसुथरी थी तब तो हम इतनी भव्यता के साथ गंगा की आरती नहीं उतारते थे, अब जब अचानक गंगा में पैसा दिखा तो उस की आरती उतारी जाने लगी.

इस के पीछे अब सोचीसमझी धर्म की दुकानदारी है. बिना ग्लैमर के आज कुछ नहीं बिकता. बनारस में सैकड़ों शिव के मंदिर हैं मगर भीड़ काशी विश्वनाथ के मंदिर में जुटती है, क्यों? वजह साफ है, वह सोने से ढका है-ठीक वैसे ही जैसे कोई नई बहुरिया नख से शिख तक गहनों से लदी ससुराल में कदम रखती है. तब उस की कैसी खातिर होती है.आज गंगा आरती के पीछे यही मानसिकता है. इसे भी लाभदायक बनाया जाए, सो वास्तविकता से लोगों का ध्यान खींचने के लिए गंगा की आरती को भव्यता देना शुरू कर दिया गया. इसी बहाने लोग बनारस आएंगे तो साथ में मनीबैग भी रहेगा. मनीबैग रहेगा तो धर्म के नाम पर कमाने के लिए तो हजार बहाने हैं ही.सरकार कहती कि पहले गंगा को गंदा करना छोड़ो, हम से जो मदद चाहते हो हम देने के लिए तैयार हैं. इस के बाद ब गंगा साफसुथरी हो जाती, तब प्रधानमंत्री को आना चाहिए था.

धर्म से जुड़ी राजनीति

बनारस की गंगा के प्रदूषण के लिए सरकारी तंत्र जिम्मेदार है, जो सीवर को गंगा में ही बहाता है. उस के अलावा वहां की जनता और बाहरी लोग जिम्मेदार हैं जो धर्म के नाम पर काशी आ कर गंगा को प्रदूषित करते हैं. उन घाटों की स्थिति तो और भी खराब है जहां लोग गंगा आरती देखने के साथ गंगा को मुंबई की चौपाटी समझ कर गोलगप्पे, चाट, भेलपुरी खा कर पेपर प्लेट, जूठन आदि घाटों के आसपास फेंक कर चले जाते हैं. बाद में यही कचरा किसी न किसी बहाने गंगा में जाता है और उसे प्रदूषित करता है.आरती के समय जो दीये जला कर गंगा में छोड़े जाते हैं वे भी गंगा के प्रदूषण को बढ़ाते हैं. अनपढ़गंवार लोग हों तो कुछ हद तक माना भी जा सकता है मगर वहां तो पढ़ेलिखे लोग भी खुलेआम गंगा के साथ नाइंसाफी करते हैं.मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाटों पर प्रतिवर्ष 32 हजार से ज्यादा लाशें जलाई जाती हैं व उन की राख गंगा में प्रवाहित कर दी जाती है. हालांकि सरकार ने विद्युत शवदाह गृह बनवाया है लेकिन धार्मिक आस्था के चलते लकड़ी से लाश को जलाने को प्राथमिकता दी जाती है. मृत पशुओं को गंगा में ही बहाया जाता है. अप्राकृतिक मौत के शिकार व्यक्तियों को भी गंगा में बिना जलाए बहा दिया जाता है. और तो और, देश के नामीगिरामी लोगों की लाशों की राख को भी विमानों द्वारा काशी ला कर गंगा में बहाया जाता है.गंगा के प्रदूषण के लिए सब से बड़ा कारक है धार्मिक आस्था. कोई भी धार्मिक या सामाजिक आयोजन बिना गंगा के अधूरा रहता है. लोग शादी के बाद अपनी नईनवेली दुलहन को गंगा पुजाने के लिए घाट पर ले आते हैं. आरपार की माला चढ़ाते हैं. दोनों के सुखमय भविष्य के लिए धार्मिक अनुष्ठान कराए जाते हैं. अंधआस्था के चलते मंदिरों में टनों चढ़ाए गए मालाफूलों को गंगा में ही प्रवाहित किया जाता है.

घाटों की यह हालत है कि वहां 5 मिनट भी बैठ पाना संभव नहीं है. सड़े मालाफूलों से बदबू फैलती रहती है. दुर्गापूजा हो या कालीपूजा या फिर जातिगत पूजा के चलते बनाई गई मूर्तियां, सब गंगा में ही बहाई जाती हैं. तीज में महिलाएं जिस शिवपार्वती की कच्ची मूर्ति बना कर पूजा करती हैं, उसे भी गंगा में ही बहाने की परंपरा है.धर्म और राजनीति दोनों अलगअलग हैं. मोदी ने विकास के नाम पर वोट मांगे. मगर जिस तरह से जीतने के बाद वे काशी विश्वनाथ मंदिर दर्शन और गंगा आरती देखने आए उस से यही संदेश जाता है कि कहीं न कहीं वे धर्म को राजनीति से जोड़ कर चलते रहना चाहते हैं. धर्म के राजनीतिकरण के दुष्प्रभाव किसी से छिपे नहीं हैं.

गंगा एक नदी है, जैसे यमुना, गोमती या ब्रह्मपुत्र. लोग इसे किस रूप में लेते हैं, यह उन की निजी सोच है. इसे एक नदी के रूप में लेना चाहिए. नदी स्वच्छ रहेगी तो उस पर निर्भर रहने वाली आबादी स्वस्थ रहेगी. इसी धारणा को ले कर चलना होगा. हर नदी साफसुथरी रखनी होगी. मान भी लिया जाए कि गंगा एक पवित्र नदी है तब तो लोगों की और भी जिम्मेदारी बनती है कि उसे साफ नहीं रख सकते तो कम से कम गंदा तो न करें. मगर हकीकत है कि जो लोग गंगा से पाप धोने की लालसा रखते हैं वही गंगा में गंदगी छोड़ कर आते हैं. धोबी कपड़ा धोता है तो दूसरे लोग साबुन लगा कर नहातेधोते हैं. पशुओं को नहलायाधुलाया जाता है सो अलग.

नाकाफी प्रयास

चुनाव प्रचार के दौरान कहा गया था कि गंगा को साबरमती जैसा साफ और निर्मल कर दिया जाएगा. बाकायदा साबरमती तब, जब वह देखने लायक नहीं थी और अब देखने लायक हुई तो उस का फोटो विज्ञापनों के जरिए जनता को दिखाया गया. साबरमती का 3-4 किलोमीटर का हिस्सा ही साफ है, बाकी तो पहले जैसा ही है. अब ज्यादातर लोगों ने साबरमती देखी तो नहीं. हां, गंगा के प्रति गैर जिम्मेदार जनता सुन कर खुश हुई है कि उन्हें कुछ नहीं करना होगा. वे जैसे गंगा को पहले की तरह से मैली करते आ रहे हैं, करेंगे. साफसफाई का जो काम करना होगा वे मोदी करेंगे. जो समाज अपने घर की गंदगी दूसरों के घर के सामने फेंकने में गौरवान्वित महसूस करता हो वह क्या भीड़ का हिस्सा बन कर गंगा के प्रति या देश की स्वच्छता के प्रति ईमानदार हो जाएगा. इस में निश्चय ही संदेह है.

गंगा सफाई के लिए अभी तक जितने भी सरकारी प्रयास हुए वे नाकाफी रहे. केंद्र सरकार ने 27 वर्षों में गंगा को प्रदूषण से मुक्त कराने के लिए 2 महत्त्वपूर्ण कदम उठाए. पहला, गंगा ऐक्शन प्लान जिस का आरंभ 14 जून, 1986 में तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजीव गांधी ने राजेंद्र प्रसाद घाट पर शिलान्यास कर के किया. खूब तामझाम हुआ. हवनकीर्तन हुए. इस का प्रचार भी खूब किया गया. मगर हुआ कुछ खास नहीं. बनारस शहर के 22 सीवरों व नालों का मलजल गंगा में मिल रहा है. वरुणा नदी और असि नदी के बीच में बसे होने के कारण इस शहर का नाम वाराणसी पड़ा है. असि नदी तो नाला में बदल गई है, वहीं वरुणा नदी में मिलने वाले सीवरों को गंगा में प्रवाहित किया जाता है. दूसरा, नैशनल गंगा रिवर बेसिन अथौरिटी का गठन 5 वर्ष पूर्व किया गया था. इस के भी कोई खास नतीजे देखने को नहीं मिल रहे हैं. गंगा की गंदगी में कोई बदलाव नहीं आया है. सरकार अभी सिर्फ लोकलुभावने भाषणों में ही उलझी हुई है.

यथार्थवादी सोच जरूरी

आज हम वैज्ञानिक युग में जी रहे हैं, इसलिए जरूरत इस बात की है कि हम गंगा हो या कोई दूसरी नदी, उस के प्रति यथार्थवादी सोच रखें. गंगा आरती करने से गंगा साफसुथरी नहीं हो जाएगी. जितना तामझाम गंगा आरती के लिए रोजाना होता है उस से अच्छा होता जो लोग इस से जुड़े हैं वे सभी दर्शनार्थियों से कहें कि गंगा का लुफ्त उठाने आए हो तो आधा घंटा गंगा की साफसफाई के लिए दो, वरना कोई हक नहीं है गंगा के घाटों पर सैरसपाटा करने का.यह कोई मनोरंजन का स्थल नहीं. अगर पंडेपुजारी और जनता ही गंगा को गंदा करने से बाज आएं तो गंगा काफी हद तक साफ हो जाएगी. रही बात सीवर व कैमिकल्स की, जो फैक्टरियों के द्वारा गंगा में बहाए जाते हैं, उस के लिए सरकारी मशीनरियां सख्त हो जाएं तो गंगा निर्मल हो सकती है. पर कितने गरीब मजदूरों की नौकरियां जाएंगी इस का भी अंदाजा लगा लें. अगर कारखाने बंद करते हैं तो क्या मंदिर भी बंद नहीं होने चाहिए? पर जो समाज मजदूरों की नहीं पुजारियों की सुनता है, उस का क्या किया जाए

नागरिकता को तरसते छिटमहलवासी

भारतबंगलादेश के बीच सीमा विवाद का अब अंत होने जा रहा है. संसदीय समिति द्वारा हरी झंडी दिखा दिए जाने के बाद छिटमहल विनिमय के मद्देनजर संसद में संविधान संशोधन बिल पेश कर दिया गया है. वहीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी छिटमहल विनिमय को ले कर अपनी आपत्ति वापस ले ली है. इस मामले में अब हर तरह का गतिरोध खत्म हो गया है. इस की भनक मिलते ही भारतबंगलादेश के छिटमहल के बाशिंदों को उम्मीद की एक किरण नजर आई है. इसीलिए जिस दिन ममता बनर्जी ने कूचबिहार से सटे काजलदिघि के पाटग्राम नामक गांव में इस की घोषणा की, उस दिन को बंगलादेश में अवस्थित भारतीय छिटमहल और भारत में अवस्थित बंगलादेशी छिटमहल इलाके के लोगों ने उत्सव की तरह मनाया.

छिटमहल भारत बंगलादेश की सीमा पर एक ऐसा भूखंड है जहां आबादी है, पर उस का अपना कोई देश नहीं. दरअसल, इन्हें न तो बंगलादेश की नागरिकता मिली हुई है, न ही भारत की. इस लिहाज से यहां बसे नागरिकों का अपना कोई देश नहीं है. नागरिकता के परिचय के बगैर यह पूरी आबादी बहुत ही जरूरी नागरिक सुविधाओं से भी 68 सालों से वंचित है. भारतबंगलादेश के बीच यह सीमा विवाद दुनिया के सब से जटिलतम सीमा विवाद के रूप में जाना जाता है.

क्या है मामला

कूचबिहार के राजा और रंगपुर के फौजदार मन बहलाने के लिए अकसर पाशा खेला करते थे. उन दिनों राजारजवाड़ों के इस खेल में अपनेअपने अधीन गांवों को दांव पर लगाने का चलन था. रंगपुर और कूचबिहार के राजा भी यह किया करते थे. इस के चलते कूचबिहार के राजा की प्रजा कभी रंगपुर फौजदार की प्रजा बन जाती थी और कभी रंगपुर के फौजदार की प्रजा कूचबिहार के राजा की प्रजा हो जाया करती थी. पासों के खेल के दांव के साथ प्रजा की हैसियत अकसर बदल जाया करती थी.भले ही अचानक रातोंरात उन की नागरिकता बदल जाती हो पर वे कूचबिहार या रंगपुर में किसी  एक राजा की प्रजा कहलाते थे लेकिन आजाद भारत और बंगलादेश के आसपास के इस भूखंड की जनता आज किसी भी क्षेत्र के अधीन नहीं है, यानी यहां बसने वाली जनता को किसी भी देश की नागरिकता हासिल नहीं है. इस पूरे इलाके में डाक्टर या अस्पताल या स्कूलकालेज नहीं हैं. यहां तक कि कोई पुलिस स्टेशन भी नहीं है. ऐसे में राशन से ले कर अन्य नागरिक सुविधाएं भी मुहैया नहीं हैं.

बंटवारे ने छीनी नागरिकता

बंटवारे ने इन का परिचय, इन की नागरिकता छीन ली है. आजादी से पहले देश के बंटवारे की तैयारी के दौरान ब्रिटिश ‘ला लौर्ड’ साइरिल जौन रैडक्लिफ को भारत और पाकिस्तान के भूखंडों को पहचानने का जिम्मा दिया गया. चूंकि पश्चिम बंगाल की सीमा से सटे मुसलिम बहुल इलाके का भी बंटवारा होना था, बंटवारा हुआ भी.पश्चिम बंगाल की सीमा पर पूर्वी पाकिस्तान भी बना. लेकिन एक गड़बड़ी हो गई. दरअसल, रैडक्लिफ जब भारत-पाकिस्तान की सीमा का मानचित्र बनाने बैठे तो गलती से वे भारत के अंग राज्य पश्चिम बंगाल में शामिल कूचबिहार और पूर्वी पाकिस्तान में शामिल रंगपुर की सीमा तय करने से चूक गए और आननफानन 9 अगस्त, 1947 को उन्होंने बंटवारे का मानचित्र ब्रिटिश प्रशासन को सौंप दिया.

मजेदार बात यह कि ब्रिटिश प्रशासन को भी इस की खबर नहीं हुई और 14 अगस्त को जिस दिन पाकिस्तान आजाद हो गया, मानचित्र के आधार पर भारत और पाकिस्तान की सीमा की औपचारिक घोषणा हो गई. मानचित्र में पूर्वी पाकिस्तान दिखा. रंगपुर और कूचबिहार के इस पूरे भूखंड में बसे लोग देशविहीन हो कर रह गए. कुल मिला कर देखा जाए तो रैडक्लिफ की गलती का खमियाजा इस भूखंड में बसे लोग पिछले 68 साल से भुगत रहे हैं. इस देशविहीन आबादी के पूरे इलाके को बाद में ‘छिटमहल’ नाम से एक नया परिचय तो मिला पर वहां के रहने वालों को नागरिकता नहीं मिल पाई.

गौरतलब है कि भारतबंगलादेश सीमा में लगभग 162 गांव ऐसे हैं जो छिटमहल कहलाते हैं. छिटमहल के 162 गांवों में से 111 भारत के हैं और बाकी 51 बंगलादेश के हैं. भारत के 111 छिटमहल की लगभग 17,160 एकड़ जमीन भौगोलिक रूप से बंगलादेश में है. वहीं बंगलादेश के 51 छिटमहल की लगभग 7,110 एकड़ जमीन भारतीय भूखंड में है. भौगोलिक रूप से इन 162 छिटमहल की सीमा निर्धारित नहीं है. यही बात तमाम फसाद की जड़ है. सार्वभौम भारतबंगलादेश की करोड़ों की जनसंख्या की तुलना में महज 56 हजार की जनसंख्या वाले इन गांवों के लोगों की किसी ने सुध नहीं ली. तमाम सुखसुविधाओं से वंचित हो कर किसी तरह जीवन गुजारने को ये मजबूर हैं. यहां की पूरी आबादी कूटनीति और राजनीति की चक्की में 68 साल से पिसती चली आ रही है.

विवाद सुलझाने की कोशिश

वर्ष 1958 में भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री फिरोज खान नून ने सीमा विवाद से निबटने की कोशिश की थी. उस समय पहली बार मानचित्र को बदलने को ले कर समस्या पेश आई थी. इस के लिए संविधान में संशोधन जरूरी था. 1960 में संशोधित संविधान पेश भी हुआ था. लेकिन तब एक के बाद एक मामले दायर होने के कारण बात नहीं बन पाई. इस के बाद 1971 में मुक्ति युद्ध के अंत में पूर्वी पाकिस्तान के आजाद हो कर बंगलादेश बन जाने के बाद 1974 में  इंदिरा गांधी और बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान ने भी एक समझौता किया था. पर वह भी कई कारणों से धरा का धरा रह गया. वर्ष 2011 में मनमोहन सिंह सरकार ने बंगलादेश सरकार के साथ एक समझौता किया था जो स्थल सीमा समझौता के नाम से जाना जाता है. आज भाजपा की नेतृत्व वाली मोदी सरकार भले ही इस मामले में पहल का श्रेय लेने को आतुर है लेकिन यूपीए सरकार के समय में विपक्ष में बैठी इसी भाजपा ने स्थल सीमा समझौता पर एतराज जताया था.

राजनीति के जानकार और वरिष्ठ पत्रकार पार्थ चटर्जी का कहना है कि सकार में आने के बाद भाजपा को यह बात अच्छी तरह समझ में आ गई है कि बंगलादेश में स्थित वह भूखंड केवल नाम के वास्ते भारतीय भूखंड है. दरअसल, उस भूखंड पर देश की सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है. तब प्रधानमंत्री बनने के तुरंत बाद नरेंद्र मोदी ने बंगलादेश दौरे से पहले इस विवाद को सुलझाने की दिशा में पहली कोशिश की. लेकिन ऐन वक्त पर ममता बनर्जी की आपत्ति के मद्देनजर मामला ठंडा पड़ गया. लेकिन विवाद को सुलझाने के लिए कांगे्रस के समय में बनाई गई स्थायी समिति की रिपोर्ट के आधार पर एक बार फिर से सीमा विवाद निबटने के लिए हाल ही में संसदीय समिति ने संसद में संविधान संशोधन बिल पेश करने की मंजूरी दे दी. संसद में संविधान संशोधन बिल पेश भी हो गया. अब मोदी सरकार देश के राष्ट्रीय हित की दुहाई दे कर संविधान के 119वें संशोधन के लिए कांगे्रस के साथ की उम्मीद में है.

बंगाल की स्थिति

भारतबंगलादेश सीमा विवाद सुलझाने को ले कर वाम शासन के समय से वाममोरचे का घटक दल फौरवर्ड ब्लौक लंबे समय से आंदोलन चला रहा है. लेकिन बंगाल के शासन में रहते हुए फौरवर्ड ब्लौक को जल्द ही समझ में आ गया कि राजनीतिक मंच के जरिए इस विवाद को सुलझाना संभव नहीं है. तब पार्टी ने भारतबंगलादेश छिटमहल विनिमय समन्वय समिति का गठन किया. दूसरी तरफ विवाद सुलझाने के लिए पार्टी के सांसद और विधायकों ने केंद्र सरकार पर दबाव डालना शुरू किया. पर बात तब भी नहीं बनी.बंगाल में सत्ता परिवर्तन के बाद छिटमहल विनिमय की स्थिति में बदलाव आने की एक उम्मीद थी. पर इस पर भी पानी तब फिर गया जब ममता बनर्जी ने विनिमय के दौरान ‘एक इंच जमीन’ छोड़ने से मना कर दिया. इतना ही नहीं, ममता बनर्जी ने सीमा विवाद सुलझाने के लिए नरेंद्र मोदी और सुषमा स्वराज के साथ बंगलादेश जाने से भी मना कर दिया, हालांकि इस के लिए विभिन्न हलकों में ममता की कड़ी आलोचना हुई. बाद में लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान ममता के सुर नरम हुए.

अब ममता बनर्जी ने भी छिटमहल विनिमय पर अपनी सहमति केंद्र सरकार को दे दी है. लेकिन इस शर्त पर कि छिटमहल का जो हिस्सा पश्चिम बंगाल में जुड़ने जा रहा है, वहां का प्रशासनिक ढांचा तैयार करने और बाशिंदों के पुनर्वास से ले कर क्षेत्र के विकास के मद्देनजर जितनी बड़ी रकम की जरूरत पड़ेगी, उस का पूरा दायित्व केंद्र को उठाना पड़ेगा. यूपीए-2 सरकार की ओर से स्थल सीमा समझौते के लिए जो मसौदा तैयार हुआ था, उसी में मनमोहन सिंह की नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने साफ कर दिया था कि छिटमहल के बाशिंदों के पुनर्वास की जिम्मेदारी केंद्र की होगी, लेकिन पुनर्वास परियोजना के कार्यान्वयन का पूरा दायित्व राज्य सरकार का होगा. इस के लिए यूपीए सरकार ने 308 करोड़ रुपए का एक फंड भी तैयार किया था.छिटमहल विनिमय की शुरुआती प्रक्रिया के तहत इस पूरे क्षेत्र में एक सर्वेक्षण भी हो का था. मई 2007 में भारतबंगलादेश के एक संयुक्त प्रतिनिधि मंडल ने छिटमहल इलाके का दौरा किया था और वहां के बाशिंदों से बात कर के उन का पक्ष जानना चाहा था. उन से पूछा गया था कि क्या वे अपना घरद्वार छोड़ कर जाने को तैयार हैं? ज्यादातर लोगों ने हाथ जोड़ कर प्रतिनिधि मंडल से गुजारिश की थी, ‘साहब, हमें सिर्फ एक देश दे दो, और कुछ नहीं चाहिए.’इस के बाद इलाके का सर्वेक्षण भी किया गया. भारतबंगलाद?ेश के 162 छिटमल में लगभग 56 हजार की आबादी है. सर्वेक्षण में इन से यह जानने की कोशिश की गई कि कितने लोग

अपने ठिकाने बदलने को तैयार हैं. भारतबंगलादेश छिटमहल विनिमय समिति के नेता दीप्तिमान सेनगुप्ता बताते हैं कि बंगलादेश में स्थित भारतीय छिटमहल के 149 परिवारों में से 734 लोग अपना पता बदलने और भारत की नागरिकता प्राप्त करने के पक्ष में हैं.इन के पुनर्वास के लिए भारत में स्थित बंगलादेशी छिटमहल के बाशिंदों ने पर्याप्त जमीन कूचबिहार प्रशासन को दे दी है. जरूरत पड़ने पर वे और भी जमीन देने को तैयार हैं.छिटमहल विनिमय प्रक्रिया के दौरान वहां के बाशिंदे किसी तरह की राजनीतिक पचड़े में नहीं पड़ना चाहते. गौरतलब है कि भारतबंगलादेश छिटमहल विनिमय समिति की अगुआई में लंबे समय से गैरराजनीतिक आंदोलन चल रहा है.

राजनीति से तौबा

अब जब मामला निबटने को है तो इलाके में राजनीतिक हलचल बढ़ गई है. तृणमूल कांगे्रस और भाजपा की ओर से इस का श्रेय लेने और वोटबैंक पुख्ता करने की होड़ मच गई है. 4 दिसंबर को ममता बनर्जी छिटमहल में एक जनसभा कर चुकी हैं. इस के बाद प्रदेश भाजपा ने भी 11 दिसंबर को यहां जनसभा की. लेकिन छिटमहल बाशिंदों ने भाजपा की जनसभा का बहिष्कार किया. समिति ने पहले ही साफ कर दिया था कि यहां के बाशिंदे किसी तरह की भी राजनीति में शामिल नहीं होंगे.समिति के नेता दीप्तिमान सेनगुप्ता का कहना है कि छिटमहल विनिमय का काम अभी शुरू ही हुआ है, असली प्रक्रिया शुरू होने में अभी समय लगेगा. लेकिन इस बीच इस मामले का निबटारा होने का श्रेय लेने के लिए राजनीतिक पार्टियां टूट पड़ी हैं.बहरहाल, लगभग 68 सालों से अधर में लटका भारतबंगलादेश सीमा विवाद सुलझने की दिशा में है. इस का श्रेय नरेंद्र मोदी लें या ममता बनर्जी, बड़ी बात यह है कि नागरिकता की पहचान और न्यूनतम सुखसुविधा के बगैर सालोंसाल नारकीय जीवन जीने को मजबूर 56 हजार लोगों को अब नागरिकता मिल जाएगी. इसी के साथ दुनिया के सब से जटिलतम सीमा विवाद का अंत भी हो जाएगा.          

बिहार : न शौचालय बने न मैला ढोना बंद हुआ

घरघर में शौचालय बनवाने की मुहिम बिहार में कछुए की चाल की तरह रेंग रही है. शौचालयों को बनाने के लिए केंद्र से मिले करोड़ों रुपए की रकम खर्च ही नहीं की जा रही है. नतीजतन सिर पर मैला ढोने जैसे शर्मनाक व अमानवीय काम पर लगाम नहीं लग पा रहा है. इसे मिटाने में लगी सरकार और स्वयंसेवी संगठनों की मुहिम कारगर साबित नहीं हो रही है और सूबे में करीब 10 हजार लोग अब भी सिर पर मैला ढो कर पेट की आग बुझाने को मजबूर हैं. इस कुरीति को जड़ से खत्म करने के लिए सरकार ने कई बार समय सीमा तय की पर अब तक कामयाबी नहीं मिल सकी है. इसे 2010 तक ही खत्म करने का लक्ष्य रखा गया था पर उस के बाद तारीख दर तारीख ही पड़ती रही है.

लक्ष्य से भटकी सरकार

शौचालय बनाने की मुहिम को तेज करने के लिए साल 2013-14 में केंद्र ने बिहार को 246 करोड़ 75 लाख रुपया मुहैया कराया था जिस में से महज 18 करोड़ 32 लाख रुपया ही अब तक खर्च हो पाया है. ऐसे में स्वच्छता मुहिम बिहार में पानी मांगने को मजबूर है. नेता शहरों में सड़कों पर दिखावे की झाड़ू लगा कर यह समझ रहे हैं कि इस से समूचे देश में स्वच्छता आ जाएगी पर गांवों में शौचालय बनवाने को ले कर न सरकार के पास समय है न ही विपक्ष इसे ले कर कोई बड़ा आंदोलन ही खड़ा करने के मूड में नजर आता है. गौरतलब है कि राज्य में केवल 21.78 फीसदी घरों में ही शौचालय हैं. अगर यही रफ्तार रही तो साल 2019 तक घरघर में शौचालय बनने के लक्ष्य को बिहार में झटका लगना तय है.

इधर, सिर पर मैला ढोने को जघन्य अपराध की श्रेणी में रखा गया है. समूचे देश में इस कुप्रथा को जड़ से मिटाया जा चुका है पर बिहार में यह अभी भी सरकारी दावों, वादों और योजनाओं को मुंह चिढ़ा रही है. इसे खत्म करने के लिए हर साल नई तारीख तय कर सरकार के झंडाबरदार चादर तान कर सो जाते हैं. साल 2008 तक, सूबे में सिर पर मैला ढोने वालों की संख्या 15 हजार 352 थी. काफी जद्दोजहद के बाद 5,288 लोगों को इस गंदे काम से निजात दिलाई जा सकी. बाकी लोग अब भी इस कुप्रथा के जंजाल में फंसे हुए हैं.

गौरतलब है कि मैला ढोने वालों के साथ अछूतोंकी तरह बरताव किया जाता है और समाज का यह सब से गंदा काम माना जाता है. समाजसेवी आलोक कुमार कहते हैं कि समाज की साफसफाई में अहम योगदान देने के बाद भी मैला ढोने वालों के साथ अछूतों सा व्यवहार करना ठीक नहीं है. कोई भी शौक से इस काम को नहीं अपनाता.सरकार कमाऊ शौचालयों को बंद करने की योजनाओं पर करोड़ोंअरबों रुपया फूंक चुकी है. इस के बावजूद ऐसे शौचालय बदस्तूर जारी हैं. शायद, कमाऊ शौचालय रखने वालों पर कानूनी कार्यवाही करने से ही इस कुप्रथा को खत्म किया जा सकता है.

बैंकों की बेरुखी

अनुसूचित जाति-जनजाति कल्याण विभाग के अफसर दबी जबान में कुबूल करते हैं कि सिर पर मैला ढोने की कुरीति को खत्म करने की योजनाओं का फायदा असली लोगों तक पहुंच पाया है. स्कीम फौर रिहैबिलिटेशन औफ मैनुअल स्कैवेंजर्स के तहत सरकार द्वारा दी जाने वाली मदद लेने के लिए उन्हें सरकारी महकमों और बैंक अफसरों के यहां चक्कर लगाने पड़ते हैं. ऐसा तब है जब मदद में दी जाने वाली रकम की गारंटी सरकार खुद दे रही है. बैंकों ने इस योजना में कोई दिलचस्पी ही नहीं दिखाई है. राम प्रकाश बताता है कि बैंकों में उस की सुनवाई वाला कोई नहीं है.

बैंकों की बेरुखी का मामला हमेशा ही अनुसूचित जाति-जनजाति कल्याण विभाग की बैठक में जोरशोर से उठाया जाता रहा है. पिछले 4 साल पहले ही, महकमे ने 6,589 को मदद की रकम देने की सिफारिश बैंकों से की थी पर 813 लोगों को ही मदद मिल सकी. बैंकों का यही रवैया रहा तो अगले 10 सालों में भी सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा को खत्म नहीं किया जा सकेगा और सरकार हर साल इसे खत्म करने के नए दावे और तारीखें तय करती रह जाएगी.सूबे के उपमुख्यमंत्री रहे सुशील कुमार मोदी बैंकों के रवैये से नाराज हो कर कहते हैं कि बैंकों में जमा धन सालाना 21 प्रतिशत बढ़ रहा है पर कर्ज देने की गति 28 प्रतिशत से घट कर 9 प्रतिशत रह गई है. बैंकों की जो शाखाएं सरकारी योजनाओं के तहत दी जाने वाली मदद और कर्ज देने में आनाकानी करती हैं, वहां सरकार को पैसे रखना बंद कर देना चाहिए.

इस काम में लगे लोगों को 30 हजार रुपए की मदद दी जाती है ताकि वे अपना कोई छोटा रोजगार शुरू कर सकें. औरतों को दी जाने वाली 30 हजार रुपए की मदद में 17 हजार 500 रुपए कर्ज होता है और 12 हजार 500 रुपए अनुदान के रूप में मिलते हैं. कर्ज की रकम पर मात्र 4 प्रतिशत ब्याज लगाया जाता है और36 महीने में इसे चुकाना होता है. मर्दों के लिए भी कर्ज और अनुदान की रकम की व्यवस्था है और उसे चुकाने का समय औरतों जितना ही है पर मर्दों को 5 प्रतिशत ब्याज चुकाना होगा.

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