भारतीय जनता पार्टी की लगातार जीतों ने कांगे्रस और दूसरी पार्टियों के लिए सवाल खड़े कर दिए हैं कि क्या वे अब अनावश्यक हो गई हैं? क्या भारतीय जनता पार्टी का हिंदूवादी फार्मूला देश की आम जनता को भाने लगा है? क्या नीची पिछड़ी जातियों और गरीबों को अब न्याय की चाहत नहीं रह गई है? कांगे्रस और उस के बाद दूसरी पार्टियां अगर राज कर रही थीं तो इसलिए नहीं कि उन के राज में सुखचैन था. सुखचैन का राजनीतिक दंगल यानी चुनाव में जीत से बहुत कम लेनादेना है. अच्छा शासन चलाने के लिए जो कठोर कदम उठाने पड़ते हैं वे आमतौर पर औरों को तो नहीं, मगर कम से कम सहयोगियों और मातहतों को जरूर नहीं भाते और अच्छे काम करने वाले नेता असफल हो जाते हैं.

चुनावों में जीत के लिए बातें बनाना जरूरी है, लोगों की भावनाएं भड़काना जरूरी है और सब से बड़ी बात, चुनाव जीतने के लिए मशीनरी बनाना जरूरी है. कांगे्रस ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जो मशीनरी गांवगांव में बनाई थी उस ने बहुत फल दिया. गांवों के पढ़ेलिखे, उच्चवर्गीय, मध्यवर्ग ने कांगे्रस का पल्लू पकड़ा कि उन्हें अंगरेजी राजाओं से मुक्ति मिलेगी और बाद में अफसरशाही व कांग्रेस ने उन के इस सपने को पूरा किया. नतीजतन, कांगे्रस गिरगिर कर भी उठ कर उड़ानें भरती रही. पर कांगे्रस पिछड़ी जातियों के सक्षम होने का अंदाजा नहीं लगा पाई और पिछड़ों को जब लगा कि मध्यवर्ग कांगे्रस की मुट्ठी में है, जबकि निचलों के पास कांगे्रस के अलावा कोई चारा नहीं, तो उन्होंने अपने दल बना लिए. जनता परिवार इसी की देन है जो नई उभर रही जातियों को अपने पल्लू में बांध पाया.

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