भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को ले कर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार की संसद के अंदर और बाहर जबरदस्त घेराबंदी हो रही है. मौजूदा सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून को पलट दिया जिसे दिसंबर 2013 में संसद में पारित कराया गया था. इसे ले कर विपक्षी दल संसद में सरकार पर हमला कर रहे हैं तो सड़कों पर किसानों, आदिवासियों, मजदूरों का गुस्सा उबल रहा है. देशभर के करीब एक दर्जन किसानों और दूसरे जन संगठनों ने दिल्ली के जंतरमंतर पर विरोध जता कर सरकार के सामने चुनौती खड़ी कर दी है.

आक्रोश में किसान

इस अध्यादेश के विरोध में 20 फरवरी को हरियाणा के पलवल से शुरू हुई जन संगठनों की यात्रा जंतरमंतर पर पहुंची, 2 दिन का धरना दे कर अध्यादेश को किसान विरोधी करार दिया गया और इसे वापस लेने की मांग की गई. अन्ना हजारे की अगुआई वाले इस आंदोलन से एनडीए सरकार खासी बेचैन है. इस के बावजूद वह भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को संसद में पास कराने की कोशिश में है. जंतरमंतर पर उमड़ी हजारों की भीड़ के गुस्से से साफ लग रहा था कि ‘सब का साथ, सब का विकास’ जैसे नारे के साथ जो भाजपा सत्ता में आई थी, 9 महीने होतेहोते उस के खिलाफ लोगों का गुस्सा दिखने लगा है.

सामाजिक संगठनों का बड़ा विरोध उस प्रावधान को पलटने को ले कर है जिस में कहा गया था कि आवश्यक सार्वजनिक कार्य को छोड़ कर किसी भी जगह की जमीन का अधिग्रहण करना पड़ा तो वहां की 80 प्रतिशत भूमि मालिकों  की सहमति से लेनी होगी और सार्वजनिक सहयोग वाली परियोजनाओं में 70 फीसदी भूमि के लिए ही मालिकों की सहमति जरूरी होगी.

कंपनियों की मनमानी

इस प्रावधान को हटाने पर सवाल उठाए जा रहे हैं. कहा गया है कि इस के होने से किसानों की जमीन सुरक्षित रहती और जमीन लेने के मामलों में कंपनियों की मनमानी नहीं चलती. जंतरमंतर पर आए हरियाणा के रेवाड़ी जिले के किसान नेता अतर सिंह सांगवान कहते हैं कि यहां किसानों से सरकार ने अधिकृत कर के 22 लाख रुपए प्रति एकड़ जमीन कंपनियों को दी. अब वे पट्टे पर उसी को डेढ़ करोड़ रुपए में दे रही है. इसलिए यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि इस प्रावधान के हटने से यह काम बेलगाम हो कर किया जाने लगेगा. इस के अलावा 2013 के कानून में जनहित, सामाजिक व आर्थिक असर को समझने की बात थी जिसे संशोधन के जरिए बेहद कमजोर कर दिया गया. कानून में यह भी प्रावधान था कि अगर अधिग्रहीत भूमि का इस्तेमाल 5 साल की समयसीमा में नहीं होता है तो 5 साल बाद इसे वापस करना होगा लेकिन इस अध्यादेश में 5 साल की मयसीमा को हटा दिया गया है. यही नहीं, जमीन से जुड़े लाभार्थियों की संख्या भी सीमित कर दी गई है.

असमंजस और विरोध

बढ़ते विरोध को देखते हुए सरकार शुरू में असमंजस में दिखी. फिर कहा गया कि किसानों का हित सर्वोपरि रखा जाएगा. लेकिन अब सरकार ने लोकसभा सत्र में बजट के साथसाथ संशोधन का विधेयक पेश कर यह साफ कर दिया कि वह इस मुद्दे पर कदम पीछे नहीं खींचेगी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पार्टी के सांसदों को इस विधेयक के पक्ष में मजबूती से खड़ा होने को कहा है. जबकि सरकार के सहयोगी दल शिवसेना, अकाली दल अध्यादेश के पक्ष में नहीं हैं. शिवसेना तो खुल कर विरोध कर रही है. सरकार द्वारा कौर्पाेरेट को किसानों की जमीन देने के लिए अध्यादेश का सहारा लिया गया. इस के लिए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अध्यादेशों के जरिए कानून बनाने की प्रवृत्ति पर सरकार को चेताया भी था पर सरकार का कहना है कि वह आर्थिक सुधारों को जारी रखना चाहती है.

दरअसल, दिसंबर 2013 में संप्रग सरकार ने ब्रिटिश काल के 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून को बदल कर ‘भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन विधेयक-2011’ संसद में पारित कराया था. हालांकि कांग्रेस नेतृत्व वाली संप्रग सरकार भी किसानों, मजदूरों, आदिवासियों के हितों को ताक पर रख कर कानून बनाना चाहती थी पर कानून के प्रारूप को ले कर जन संगठनों ने आंदोलन चलाया. किसान संगठनों से ले कर गैर सरकारी संगठनों ने धरने, प्रदर्शन किए और सत्याग्रह यात्रा निकाली.

यह उस समय हुआ जब भ्रष्टाचार के खिलाफ संप्रग सरकार जनाक्रोश का सामना कर रही थी और लोकसभा चुनाव सामने थे. एकता परिषद के नेतृत्व में हजारों किसानों, आदिवासियों की जनयात्रा जब दिल्ली कूच के लिए ग्वालियर से आगे पहुंची तो तब के केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश इस जनयात्रा में जा पहुंचे और आंदोलनकारियों को उन की मांगें कानून में समाहित करने का आश्वासन दिया. स्वयं जयराम रमेश और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने किसानों, आदिवासियों, मछुआरों के लिए समुचित मुआवजे के साथसाथ रोजगार की व्यवस्था का प्रावधान भी जोड़ा. इस के साथ ही कानून में भूमिहीनों के लिए जमीन देना भी आवश्यक किया गया. इस में न केवल जनहित विकास परियोजनाओं, उद्योग जगत और शहरियों, ग्रामीणों, किसानों, आदिवासियों, मजदूरों, भूमिहीनों का पूरा खयाल रखा गया था बल्कि बिल में भूमालिकों की जमीन को संरक्षित रखने और पर्याप्त मुआवजे व रोजगार के प्रावधान भी किए गए थे.

जल्दबाजी क्यों

कांग्रेस सरकार के कानून में भूमिहीन परिवारों के लिए जमीन मुहैया कराना और अधिग्रहण की चपेट में आए किसानों, मकानमालिकों को पर्याप्त मुआवजा, आजीविका व पुनर्वास को सुनिश्चित करना शामिल था. यह कानून हर तबके के लिए अच्छा माना गया. यह बात अलग है कि इस से कांग्रेस को बिलकुल भी चुनावी फायदा नहीं हुआ. नरेंद्र मोदी सरकार को ऐसी क्या जल्दी थी कि एक साल पुराने विधेयक को सदन में चर्चा कराए बगैर आननफानन में अध्यादेश के जरिए वैधानिक रूप दे दिया गया? इस पर भाजपा सरकार का तर्क है कि जब स्मार्ट शहर बनाए जाएंगे तो ऐसे संशोधनों की आवश्यकता है. हालांकि अध्यादेश में भी पुनर्वास के लिए मुआवजा देने का प्रावधान रखा गया है पर सच यह है कि बढ़ा हुआ मुआवजा वैकल्पिक आजीविका नहीं दे सकता. हाल के दिनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी महाराष्ट्र दौरे के दौरान रांकापा नेता शरद पवार से मिले और बाद में पवार दिल्ली आ कर मोदी से मिले. दोनों नेताओं ने एकदूसरे की खूब प्रशंसा की. अनुमान लगाया जा रहा है कि शरद पवार से मोदी कौर्पोरेट को साधने के लिए कोई मंत्र लेना चाह रहे हैं. शरद पवार 2003 से कानून के विरोधी रहे थे.

कांग्रेस सरकार द्वारा भूमि अर्जन बिल पेश करने से पहले केंद्रीय कृषि मंत्री के तौर पर शरद पवार भी कौर्पाेरेटों की पैरवी वाली भाषा बोल रहे थे. उन्होंने कहा था कि भूमि अर्जन बिल से बांध और अन्य परियोजनाओं के लिए बगैर रजामंदी वाले किसानों से भूमि अधिग्रहण करना मुश्किल हो जाएगा. साफ था कि वे किसानों से जबरन भूमि हड़पने के पक्ष में थे. लिहाजा, अब मोदी सरकार ने भूमि  अधिग्रहण अध्यादेश में 70 प्रतिशत भूमि के लिए मालिकों की रजामंदी का प्रावधान हटा दिया.

कौर्पोरेटों की तरफदारी

भाजपा कांग्रेस द्वारा लाए गए कानून से भी खुश नहीं थी और वह कौर्पोरेट की तरफदारी कर रही थी. कांग्रेस सरकार के कानून के प्रावधानों को ले कर कई औद्योगिक घरानों ने आशंका व्यक्त की थी कि इन के कारण भूमि की कीमत बढ़ जाएगी और कीमतें बढ़ने से उद्योगों की ढांचागत लागत 3 से 5 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी. भवन निर्माण परियोजनाओं में लागत वृद्धि 25 प्रतिशत तक होगी. देश के औद्योगिक और व्यापारिक संगठन आलोचना कर रहे हैं कि इस कारण उत्पादन व निर्माण उद्योग चरमरा जाएंगे. सामाजिक आकलन के प्रावधान के कारण परियोजनाएं समय पर शुरू नहीं हो पाएंगी. पब्लिकप्राइवेट पार्टनरशिप परियोजनाएं प्रभावित होंगी. खनन उद्योग बाधित होगा. औद्योगिक क्षेत्र की इन्हीं आशंकाओं के चलते मोदी सरकार ने कई संशोधन किए हैं. असल में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा यह अध्यादेश इसलिए लाया गया है ताकि वह औद्योगिक क्षेत्रों, स्मार्ट सिटी, स्पैशल इकोनौमिक जोन, निजी फाइवस्टार अस्पताल, शिक्षण संस्थान, सड़कें, रेलवे, उद्योग स्थापित करने के नाम पर उद्योगपतियों, कौर्पोरेट कंपनियों, रियल एस्टेट कारोबारियों, बिल्डरों को फायदा पहुंचा सके. मुनाफा कमाने के लिए जमीनें किसानों से छीन कर उन्हें दी जा सकें. भाजपा सरकार के अध्यादेश में कौर्पोरेट क्षेत्र की अधिक तरफदारी है. इस में गांवों के भूस्वामियो की जमीनें जबरन छीन लेने के प्रावधान हैं. यह न भूलें कि गांवों के किसान आमतौर पर पिछड़े व दलित वर्गों के ही हैं.

कहा जा रहा है कि अकेले दिल्लीमुंबई कौरिडोर के लिए ही 3,99,000 वर्ग हैक्टेयर क्षेत्रफल की कृषि योग्य जमीन किसानों के हाथों से निकल कर कंपनियों के हाथों में चली जाएगी. मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद, अहमदाबाद, रायपुर, रांची बेंगलुरु जैसे शहरों के विस्तार का काम अंबानी, अडाणी, टाटा, मित्तल जैसे चंद लोगों के हाथों में चला जाएगा. आने वाले 10 सालों में किसानों, झुग्गीझोंपड़ी वालों की जमीनें छिन जाएंगी. बड़े शहरों में कच्ची बस्तियों को पक्के मकान देने के नाम पर हटाए जाने की तिकड़में चल रही हैं.

कांग्रेस सरकार जब भूमि अधिग्रहण कानून ले कर आई थी तब कौर्पोरेट जगत इस से नाराज था. फैडरेशन औफ इंडियन चैंबर्स औफ कौमर्स ऐंड इंडस्ट्री (फिक्की) तथा कन्फडरेशन औफ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) ने कानून को उद्योगों के लिए सही नहीं बताया, कहा गया था कि बिल के प्रावधान इंडस्ट्री के लिए अच्छे नहीं हैं. फिक्की की अध्यक्ष नैनालाल किदवई ने तब कहा था कि कांग्रेस सरकार का बिल बड़ी उत्पादन परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण की खातिर सही नहीं है. पोस्को, आर्सेलर मित्तल जैसी परियोजनाओं को जमीन मिलने में बाधा का सामना करना पड़ा है.

देश का नया जमींदार

कौर्पोरेट जगत चाहता था कि उसे जमीन बिना किसी बाधा के तुरतफुरत मिले. नैनालाल किदवई ने मुआवजे और पुनर्वास के प्रावधान पर भी एतराज जताया था. लेकिन अब भाजपा के अध्यादेश से कौर्पोरेट जगत तालियां बजा रहा है. शहरी, ग्रामीण भूमालिक, गरीब, आदिवासी, किसान, दलित, पिछड़ों को अपना हितैषी दिखाने के लिए कांग्रेस सरकार ने आम चुनाव से पहले अपने दामन पर लगे महंगाई, भ्रष्टाचार जैसे तमाम दाग धो देने का तब प्रयास किया था. सरकारें अब तक किसानों, आदिवासियों, झुग्गीवासियों से जमीनें ले कर कौर्पोरेट जगत को मुहैया कराने में खूब रुचि दिखाती आई हैं. हां, देश की तरक्की के लिए जमीनों की जरूरत होती है और जमीन अधिग्रहीत की जानी चाहिए लेकिन इस प्रक्रिया में उन लोगों की उपेक्षा की जाती रही जिन की रोजीरोटी जमीन के बल पर ही चल रही थी. हाल के दशकों में हजारों एकड़ संरक्षित और अनुसूचित भूमि कांग्रेस सरकारों द्वारा ही बलपूर्वक खनन व औद्योगिकीकरण के नाम पर हस्तांतरित कर दी गई. बड़े पैमाने पर कृषि और वन भूमि उद्योग, खनन और विकास परियोजनाओं या ढांचागत सुविधा के लिए दे दी गई. झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में कौर्पोरेट कंपनियों को किसानों की कृषि भूमि, आदिवासियों के जंगल, शहरी लोगों की शहरों से सटी जमीनें अन्यायपूर्ण कानून के सहारे छीनी गईं. पिछले

2 दशकों में लगभग 8 लाख एकड़ भूमि खनन और 2 लाख 50 हजार एकड़ जमीन स्थानीय लोगों की आजीविका की परवा किए बिना औद्योगिक मकसद से हस्तांतरित कर दी गई. परिणामस्वरूप, कुछ समय पहले पश्चिम बंगाल में टाटा, ओडिशा में पोस्को व आर्सेलर मित्तल, गुजरात में अडाणी व रिलायंस, छत्तीसगढ़  व झारखंड में जिंदल ग्रुप, उत्तर प्रदेश में अंबानी के विरोध में हिंसक घटनाएं हुईं. देश में आज करीब 5 करोड़ लोगों के पास आवास नहीं हैं. सरकारों ने किसानों, आदिवासियों, झुग्गीझोंपड़ी वालों की जमीनें अधिग्रहण कर निजी कंपनियों को बेचीं. ऐसे लोग सरकार की इन नीतियों का खमियाजा भुगत रहे हैं. आजादी के बाद से ही भूमि सुधार की प्रक्रिया चलती रही है. पहले जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हुआ और हर पंचवर्षीय योजना में भूमि सुधार के लिए नीतिनियमों को शामिल किया गया. जमीन बंटवारे को ले कर जो गैरबराबरी थी, उसे खत्म करने के प्रयास किए गए. सभी राज्य सरकारों से कहा गया कि कृषि भूमि सीलिंग ऐक्ट और अधिकतम भू अधिग्रहण सीमा को ले कर कानून बनाए जाएं और भूमिहीनों व सीमांत किसानों को सरप्लस जमीन बांटी जाए.

तकरीबन सभी राज्यों में 1961 तक कृषि सीलिंग कानून पारित कर दिए गए थे. जागीरदारी प्रथा उन्मूलन के पूरी तरह नाकाम रहने के परिणामस्वरूप योजना आयोग ने 1955 में सभी राज्यों को अधिग्रहण व भूमिहीनों और अन्य सीमांत किसानों को भूमि आवंटन करने के लिए कृषि भूमि जोत सीलिंग करने की सलाह दी थी लेकिन कानून निर्माण में पूरी तरह छिद्र छोड़ दिए गए जो बड़े भूस्वामियों के पक्ष में ही रहे.

नए कानून में झोल

नरेंद्र मोदी सरकार के नए कानून में घूसखोरी के रास्ते बंद होते दिखाई नहीं देते. पुरानी अंधकार भरी जागीरदारी नए रूप में नजर आ रही है. धन्ना सेठ अब देश का नया जमींदार बन रहा है और सरकार उस से लगान वसूल करने वाली सामंतशाह. कुछ लोगों को सारे संसाधनों का मालिक बनाया जा रहा है, बाकी को फटेहाल छोड़ दिया जा रहा है. इस कानून से असमानता, भेदभाव, अमीरीगरीबी की दीवार और बढ़ेगी. ठीक भी है जमीन के मालिकाना अधिकार को ले कर सदियों से चली आ रही सोच से धर्म के मार्ग पर चलने वाली भाजपा सरकार अलग कैसे चल सकती है. ‘सबै भूमि गोपाल की’ यह वाक्य बहुत प्रसिद्घ है. इस का अर्थ यह नहीं है कि सारी भूमि ईश्वर की है, बल्कि इस का सीधा सा अर्थ है सारी भूमि ईश्वर के एजेंट ब्राह्मणों की है. ब्राह्मण चाहे जहां रह सकता था, चाहे जिस की भूमि कब्जा सकता था, चाहे जिसे बेदखल कर सकता था, किसी को भी श्राप देने का वरदान उसे प्राप्त है. धर्मग्रंथों में लिखी इन बातों का मर्म यही है कि सारी पृथ्वी ब्राह्मण के अधीन है. लेकिन अब सरकार नए ब्राह्मण कौर्पोरेट क्षेत्र को यह हक दे रही है. सबै भूमि कौर्पोरेट गोपाल की

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