केंद्र सरकार का 2015-16 का बजट विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने वाला और आर्थिक विकास के ज्यादा अनुकूल नजर आता है जिस से भविष्य में निवेश बढ़ेगा और रोजगार के अवसर पैदा होंगे. वित्त मंत्री अरुण जेटली ने फुरसत के साथ और चुनावी राजनीति के दबाव के बिना देश के आर्थिक आधार को मजबूत बनाने वाला बजट तैयार किया है. इस का लाभ लंबी अवधि में देखने को मिलेगा लेकिन फिलहाल यह जनसामान्य की भावनाओं के विपरीत है. जनसाधारण को तात्कालिक लाभ ज्यादा लुभाते हैं और इस का बजट में जरा भी ध्यान नहीं रखा गया है. यों कह सकते हैं कि यह बजट आम आदमी के लिए निराशा ले कर आया है. सामान्य व्यक्ति बजट से एक ही उम्मीद करता है कि सरकार का बजट लंबी अवधि के लिए अच्छे दिनों की भूमिका जरूर तैयार करे लेकिन इस कवायद में तात्कालिक रूप से उस के घर का बजट नहीं चरमराए. बजट में यह उस की उम्मीद की धुरी होता है.
जेटली का बजट आम जन की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है. बजट सर्वाधिक सेवाकर के रूप में आम आदमी की जेब हलकी करने वाला है. जनसामान्य के लिए इस में खुश करने वाली स्थिति बिलकुल नहीं है. वजह, सिर्फ उस के उपयोग की सामान्य वस्तुओं की कीमत बढ़ा कर उस पर बोझ डाला गया है. बजट में सेवाकर 12.36 फीसदी से बढ़ा कर 14 फीसदी किया गया है. सेवाकर के नाम से हाशिए पर खड़े आदमी की जेब से पैसा निकाल कर विकास की बुनियाद में लगाना है.
मतलब कि यदि आम आदमी टीवी देखता है, रेल का सफर करता है, बस से यात्रा करता है, अपनों को फोन करता है और कभीकभार मध्यवर्ग का आदमी छोटेमोटे रेस्तरां में जा कर खाना खाता है तो उस को इस की कीमत के साथ ही, इस सेवा का इस्तेमाल करने का जुर्म पहले की तुलना में ज्यादा झेलना पड़ेगा. यह अनावश्यक बोझ है. इस से आम आदमी की झुंझलाहट बढ़ी है, साथ ही छोटेमोटे व्यापारियों के लिए काम करने का भी संकट बढ़ गया है. उन का कारोबार चौपट होने की कगार पर पहुंच गया है. आखिर विकास की राह को आम आदमी की जेब पर डाका डाल कर आसान बनाने की कोशिश कैसे न्यायसंगत हो सकती है. इस व्यवस्था से गरीब पर बोझ बढ़ा है. इस से यही लगता है कि मोदी सरकार ने गरीब को दिखाए गए अच्छे दिनों के सपने को चकनाचूर कर दिया है. सपना टूटने की वजह जनसामान्य की सीमित महत्त्वाकांक्षा है. उसे लंबी अवधि में सुख तो चाहिए लेकिन पहले उस के समक्ष उस सुख को पाने के लिए जिंदा रहने का संकट है. जिंदा रहने के लिए उसे दो वक्त का भरपेट भोजन चाहिए और जब बजट उस के पेट से जुड़ी वस्तुओं की कीमत उस के दायरे से बाहर ले जाता हो तो खुशहाल आर्थिक आधार वाले बजट का उस के लिए कोई मतलब नहीं रह जाता है.
सामाजिक सरोकार
जेटली ने नया आर्थिक अध्याय लिखने का प्रयास किया है. आर्थिक प्रगति में साथ देने वाले संस्थानों को मजबूती प्रदान करने के लिए आर्थिक आधार पर खुशहाल भारत के निर्माण की पटकथा लिखी है. तत्कालीन वित्त मंत्री डा. मनमोहन सिंह के 1992 के बजट में आर्थिक सुधारों के लिए उठाए गए कदमों की याद दिलाई है, जब पहली बार सार्वजनिक क्षेत्रों की 20 फीसदी हिस्सेदारी बेचने की घोषणा की गई, बाजार नियामक संस्था सेबी कागठन किया गया और इस के 2 साल बाद पहली बार सेवाकर की व्यवस्था शुरू की गई. उसी तरह, यह बजट अच्छे दिनों की शुरुआत के लिए आर्थिक सुधारों की रफ्तार बढ़ाने की अच्छी पहल है लेकिन इस दौड़ में सामाजिक सरोकारों की फिक्र बिलकुल नहीं की गई है. वित्त मंत्री ने बेफिक्र हो कर आर्थिक मजबूती की दूरगामी दृष्टि रखी है.
ऐसा लगता है कि बजट सिर्फ भविष्य को ध्यान में रख कर बनाया गया है. वर्तमान सरोकारों की उपेक्षा की गई है. वित्त मंत्री के समक्ष बजट बनाते समय किसी के नाराज होने या निराश होने का कोई डर न था. लक्ष्य था, सिर्फ आर्थिक हालात को पटरी पर लाना और आर्थिक विकास की दर साढ़े 8 प्रतिशत पहुंचाना.
कहां हुई चूक
इस समय देश की जनता को तेज रफ्तार आर्थिक सुधारों से ज्यादा महंगाई की मार से राहत पाने की जरूरत है लेकिन सरकार है कि दिन में आर्थिक सुधारों की बुनियाद वाला बजट पेश करती है और शाम को डीजल व पैट्रोल के दाम बढ़ा देती है. यह बजटीय संतुलन आम आदमी को कैसे पसंद आएगा.बजट में आजादी की 75वीं वर्षगांठ यानी 2022 को लक्ष्य कर के नीतियां निर्धारित की गई हैं. बिजली उत्पादन, गंगा सफाई अभियान, गरीबों के लिए आवास जैसी कई योजनाओं का लक्ष्य 2022 तक रखा गया है. शहरों में हर व्यक्ति को आवास सुविधा देने का लक्ष्य तय किया गया है लेकिन इस उपलब्धि को हासिल करने के वास्ते रियल एस्टेट के लिए कुछ खास कदम नहीं उठाए गए हैं. रियल एस्टेट देश में रेलवे के बाद सर्वाधिक नौकरियां उपलब्ध कराने वाला क्षेत्र है. इस क्षेत्र में ढांचागत सुधार की बात तो की गई है लेकिन ठोस आर्थिक पंच दिए बिना यह क्षेत्र तरक्की नहीं कर सकता है.
इसी तरह से बिजली क्षेत्र में सुधार के लिए 5 नई अल्ट्रा मेगा पावर परियोजनाओं की घोषणा हुई जिन से 20 हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जाएगा. इस परियोजना पर 1 लाख करोड़ रुपए तक खर्च होने का अनुमान है. यह सब पैसा निजी क्षेत्र से आएगा, इसलिए पारदर्शी नीलामी प्रक्रिया के तहत इन परियोजनाओं को निजी संगठनों को सौंपा जाएगा. इस में ‘प्लग ऐंड प्ले’ मतलब कि योजना से जुड़े विवाद पहले ही सुलझा लिए जाएंगे और आवंटित होते ही उन पर सीधा निर्माण कार्य शुरू किया जाएगा. सरकार इसी तरह का सिद्धांत सड़क, रेल, हवाई अड्डों आदि के निर्माण के लिए भी अपना रही है. इस से परियोजना पर आवंटन के तत्काल बाद काम शुरू हो जाएगा और बेवजह की देरी से लागत में आने वाली बेवजह की तेजी से बचा जा सकेगा. तात्पर्य यह है कि सरकार विकास परियोजनाओं का ठेका देने से पहले परियोजना से जुड़ी सभी मंजूरियों व अन्य जरूरी सुविधाओं का इंतजाम कर लेगी.
राह में अड़चनें
बजट में कई संस्थानों को बंद करने के कदम उठाए गए हैं. एफएमसी यानी वायदा बाजार आयोग का विलय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) के साथ कर दिया गया है. एफएमसी का गठन जींस बाजार के कारोबार पर निगरानी रखने के लिए 1953 में किया गया था लेकिन जींस बाजार में सट्टेबाजी पर अंकुश लगाना कठिन हो गया था, इसलिए शेयर बाजार की गतिविधियों पर एफएमसी का विलय किया गया है. इसी तरह से बैंकों को और अधिक स्वायत्तता देने का प्रावधान किया गया है. वित्त मंत्री का कहना है कि उन का लक्ष्य वित्तीय घाटे को कम करना है और अगले 4 वर्ष में वे वित्तीय घाटा 4.3 प्रतिशत से घटा कर 3 प्रतिशत से कम पर ला देंगे. इसी तरह उन का दावा देश की विकास दर को अगले वित्त वर्ष में 8.5 फीसदी तक पहुंचाने का है. इस के लिए वे बुनियादी ढांचागत विकास को बढ़ावा देने पर जोर दे रहे हैं.
अमीरों का बजट
वित्त मंत्री का कहना है कि एक ही जगह सारी सुविधाएं दे कर व्यवसायी को कारोबार शुरू करने की सुविधा प्रदान की जा रही है और उस के लिए एक वैब पौर्टल तैयार किया गया है जिस के जरिए कोई भी कारोबारी कारोबार शुरू करने से संबंधित 14 मंजूरियां एक ही जगह हासिल कर सकता है. वित्त मंत्री को कौर्पोरेट कर की दर घटाने की घोषणा के कारण सब से अधिक आलोचना का शिकार होना पड़ रहा है. इस की वजह से कोई उसे अव्यावहारिक बजट बता रहा है तो किसी का कहना है कि बजट में कौर्पोरेटरों व धन्ना सेठों को खुश करने का प्रयास किया गया है. सरकार का कहना है कि विकास की अपेक्षित रफ्तार बनाने और धन्ना सेठों को निवेश के लिए आकर्षित करने की वजह से यह व्यवस्था की गई है. कौर्पोरेट कर को 4 साल में 30 फीसदी से घटा कर 25 फीसदी पर लाया जाएगा. चालू वित्त वर्ष में कौर्पोरेट कर से सरकार को 4 लाख 26 हजार करोड़ रुपए मिले हैं और अगले वर्ष तक उस के 4 लाख 70 हजार करोड़ रुपए होने का अनुमान है.
अमीरों का संपत्ति कर भी खत्म कर दिया गया है और 1 करोड़ रुपए से अधि की आय पर 2 प्रतिशत अतिरिक्त कर लगाने की व्यवस्था की गई है. उस कर से सरकार को 1 हजार करोड़ रुपए की आय होती है और इस की वसूली में नाकों चने चबाने पड़ते हैं. वहीं, 2 प्रतिशत अतिरिक्त कर से सरकार को 9 हजार करोड़ रुपए की आय का अनुमान लगाया गया है. इसी तरह से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में न्यूनतम कर की वैकल्पिक व्यवस्था खत्म कर दी गई है. इस व्यवस्था के तहत शून्य कर देने वाली कंपनियों को अच्छा मुनाफा हो रहा था लेकिन सरकार को उस से कुछ नहीं मिल रहा था. अब इन विदेशी कंपनियों को पारदर्शी तरीके से अंशधारकों को मिलने वाले लाभांश पर कर का आकलन कर के टैक्स देना पडे़गा.
किसानों की अनदेखी
किसानों के लिए उपज लागत का उचित मूल्य दिलाने के लिए राष्ट्रीय कृषि बाजार विकसित करने के साथ ही परंपरागत जैविक खेती और मृदा उपज बढ़ाने के लिए कदम उठाए गए हैं. हालांकि इस क्षेत्र का आवंटन पिछले साल के मुकाबले सिर्फ 50 हजार करोड़ रुपए ही बढ़ाया गया है लेकिन सपने बखूबी दिखाए गए हैं. कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि उस का फायदा बीज, कीटनाशक दवा तथा कृषि से जुड़े उपकरण बनाने वाली कंपनियों को ज्यादा होगा. किसानों के लिए यदि आर्थिक पैकेज की व्यवस्था की गई होती तो उस का सीधा लाभ उन्हें जरूर मिलता. हां, हर खेत को पानी पहुंचाने की जोरदार व्यवस्था जरूर की गई है. बजट में अल्पसंख्यकों की छवि सुधारने का प्रयास जरूर किया गया है और इस वर्ग के लिए भाजपा सरकार ने अल्पसंख्यक समुदाय के युवाओं को हुनर देने के लिए ‘नई मंजिल’ नाम से एक नई व एकीकृत योजना शुरू करने की घोषणा की है.
क्या है भविष्य
विशेषज्ञ बजट को विकास के साथ सधी हुई सियासत का खेल बता रहे हैं लेकिन सब का एक ही मत है कि बजट के जरिए देश के आर्थिक ढांचे को मजबूत बनाने की पहल हुई है. डा. मनमोहन सिंह ने भी उसे उम्मीद के इर्दगिर्द बताया है लेकिन आर्थिक विश्लेषक यह कहने से नहीं चूक रहे हैं कि इस तरह का बजट सरकार आने वाले वर्षों में नहीं दे पाएगी. सत्ता हासिल करने के पहले संपूर्ण बजट में उस ने आलोचनाओं की परवा किए बिना हिम्मत के साथ आर्थिक सुधारों का बजट पेश कर दिया है लेकिन आने वाले समय में उस पर चुनावी दबाव रहेंगे.वित्त मंत्री ने आयकर से छेड़छाड़ नहीं की है और लोगों का धैर्य बांधे रखा है लेकिन इस के पीछे भी उन्होंने ठोस सोच का सहारा लिया है और जब उन्हें विश्वास हो गया कि ढांचागत सुधार के प्रयास से 2015-16 में आयकर राजस्व 15 फीसदी बढ़ रहा है तब ही उन्होंने आयकर को यथावत बनाए रखा है. इस का मतलब इस के अलावा निवेशक भी बजट से उत्साहित हैं.