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विदेशी डिगरी का भ्रामक मोह

लगातार महंगी होती शिक्षा की समस्याओं के बीच एक विरोधाभासी तथ्य यह भी देखने को मिलता है कि हमारे देश में कई अभिभावक अपने बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए उन विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए भेजते हैं जहां पढ़ाई भारत के मुकाबले 8 से 10 गुना तक महंगी है. यह तब है जब देश में मेक इन इंडिया जैसे महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रम की घोषणा हो चुकी है और हर चीज में स्वदेशी विकल्प को प्राथमिकता देने की बात कही जा रही है. इस विरोधाभासी तथ्य का खुलासा हाल में आर्थिक विश्लेषण संस्था एसोचैम ने अपने एक सर्वेक्षण के आधार पर किया है.  

टाटा इंस्टिट्यूट औफ सोशल साइंसेज के साथ मिल कर किए गए सर्वेक्षण के आधार पर एसोचैम ने ‘रीअलाइनिंग स्किलिंग टुवर्ड्स मेक इन इंडिया’ नामक एक रिपोर्ट तैयार की है. रिपोर्ट में बताया गया है कि भारतीय अभिभावक हर साल अपने बच्चों को शिक्षा के लिए विदेश भेजने पर 6 से 7 अरब डौलर की भारीभरकम रकम खर्च करते हैं. ऐसा करने वालों में सिर्फ अमीर, नेता व अभिनेता ही आगे नहीं हैं बल्कि मिडिल क्लास के लोग भी बैंक से कर्ज ले कर अपने बच्चों को ऊंची डिगरियों के लिए विदेश भेज रहे हैं. देश के भीतर ही शिक्षा के देसी और सस्ते विकल्प होने के बावजूद वे ऐसा क्यों करते हैं, यह तो शोध का विषय है लेकिन इस के साथ ही यह जानना भी जरूरी है कि आखिर विदेशी शिक्षा में ऐसा कौन सा आकर्षण है जो भारत व चीन समेत कई और मुल्कों के छात्रों को अपनी ओर खींचती है और लोगबाग इस के लिए लाखों का कर्ज लेने में भी नहीं हिचकते.  

विदेशी शिक्षा महंगी है और उस के मुकाबले देसी शिक्षा बेहद सस्ती, यह बात पिछले साल एक अंतर्राष्ट्रीय बैंक एचएसबीसी द्वारा कराए गए सर्वेक्षण ‘द वैल्यू औफ एजुकेशन : स्ंिप्रगबोर्ड फौर सक्सैस’ से साबित हुई थी. इस सर्वेक्षण में पता चला था कि अंडरग्रेजुएट कोर्स के लिए भारत में बाहर से पढ़ने आए छात्र की यूनिवर्सिटी फीस और रहनेखाने का सालाना औसत खर्च 5,643 डौलर है जिस में से महज 581 डौलर फीस के रूप में चुकाए जाते हैं. इस के विपरीत, आस्ट्रेलिया में यह खर्च 42,093 डौलर, सिंगापुर में 39,229 डौलर, अमेरिका में 36,565 डौलर और ब्रिटेन में 35,045 डौलर सालाना होता है. 15 देशों में 4,500 अभिभावकों पर किए गए सर्वेक्षण में यह बात भी निकल कर सामने आई थी कि भारत में भले ही सब से सस्ती उच्च शिक्षा मिल रही हो, लेकिन 62 प्रतिशत भारतीय पेरैंट्स अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने के उद्देश्य से आस्ट्रेलिया, सिंगापुर और अमेरिका भेजने को अहमियत देते हैं. वे ऐसा क्यों करते हैं, इस का एक जवाब ब्रिटिश कंपनी क्यूएस यानी क्वैक्यूरैली साइमंड्स लिमिटेड द्वारा प्रकाशित की गई वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग से मिल जाता है जिस में पहले 200 विश्वविद्यालयों में से एक भी भारतीय नहीं है. इस लिस्ट में आईआईटी मुंबई का स्थान 222वां था जबकि आईआईटी दिल्ली 235वें नंबर पर आया. प्रतिष्ठित दिल्ली विश्वविद्यालय को अध्ययनअध्यापन के मामले में 420-430वें स्थान के बीच में रखा गया. इस सूची में पहले 10 स्थानों पर अमेरिकी और ब्रिटिश विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थानों का कब्जा बताया गया था, जिस में अमेरिका का मैसाच्युसेट्स इंस्टिट्यूट औफ टैक्नोलौजी लगातार दूसरे साल पहले स्थान पर रहा था. हालांकि यह रैंकिंग जारी करने वाली कंपनी क्यूएस के रिसर्च प्रमुख बेन सौटर मानते हैं कि भारतीय विश्वविद्यालयों का स्तर उठाने के प्रयास हो रहे हैं, लेकिन फिलहाल वे नाकाफी हैं.  

देश में फिलहाल करीब 400 विश्वविद्यालय और लगभग 20 हजार उच्च शिक्षा संस्थान हैं. सैकड़ों विश्वविद्यालयों और हजारों कालेजों की उपस्थिति के बावजूद यह तथ्य हैरान करने वाला है कि इन में से कोई भी यूनिवर्सिटी उस स्तर की शिक्षा नहीं दे पा रही है जिस से कि उसे दुनिया के अव्वल 100 विश्वविद्यालयों में शामिल किया जा सके.

उल्लेखनीय है कि विदेशी यूनिवर्सिटी की उच्च क्वालिटी वाली शिक्षा पाने के लिए हर साल भारत से डेढ़ से पौने 2 लाख छात्र विदेश जाते हैं. बेहद कमजोर हो चुके रुपए के मद्देनजर यह और भी जरूरी लगने लगा है कि या तो छात्रों को देसी यूनिवर्सिटी ही कायदे की शिक्षा देने का इंतजाम करे, या देश में ही विदेशी विश्वविद्यालयों के कैंपस खुलें जिन के जरिए विदेशी डिगरी पाने का सपना थोड़ा सस्ते में पूरा हो सके. जब देश में ही विदेशी कैंपस मौजूद रहेंगे तो इस से विदेशी शिक्षा पर किए जाने वाले खर्च में कटौती से ले कर वे सारे फायदे हो सकेंगे जिन के लिए विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत लाने की वकालत होती रही है.

हाल के वर्षों में खासतौर से आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों के साथ पेश आए नस्लीय हादसों के मद्देनजर भी यह एक बड़ी राहत होगी क्योंकि तब विदेशी डिगरी के लिए बाहर जाने की जरूरत खत्म हो जाएगी. इस से उच्च शिक्षा के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा बढ़ने की भी संभावना है. शिक्षा से ले कर इन्फ्रास्ट्रक्चर आदि के मामलों में उन से होड़ लेने की कोशिश करें. अगर ऐसा हो सका तो निश्चय ही इस से देश में उच्च शिक्षा का माहौल काफी सुधरेगा.  

वहीं विदेशी विश्वविद्यालयों का रुख करने और उन्हें अपने देश में अपना कैंपस खोलने को आमंत्रित करने से पहले यह देखना भी जरूरी है कि आखिर विदेशी शिक्षा में ऐसा क्या है, जो दुनियाभर के छात्र अमेरिका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया की ओर खिंचे चले जाते हैं और जिस के बल पर वहां एक शानदार एजुकेशन इंडस्ट्री बन गई है. इस का एक उदाहरण अमेरिकी शिक्षा व्यवस्था से लिया जा सकता है.

अमेरिका में कानून और चिकित्सा दो ऐसे पेशे हैं जिन में भरपूर कमाई की संभावना होती है. वहां कानून की मुकम्मल पढ़ाई में 7 से 8 साल लग जाते हैं और मैडिकल की पढ़ाई कर डाक्टर बनने के लिए 11 साल लगते हैं. इस में भारतीय मुद्रा के हिसाब से एक से डेढ़ करोड़ रुपए का खर्च होता है. इन दोनों पाठ्यक्रमों के लिए येल, हार्वर्ड और स्टैनफोर्ड की गणना सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में होती है. लेकिन इतनी महंगी शिक्षा के बावजूद वहां ऐसा नहीं है कि अभिभावक अपने बेटे या बेटी को मैडिकल या एमआईटी से ग्रेजुएशन कराने के लिए अपना घरबार अथवा कारोबार दांव पर लगा दें यानी उन्हें रेहन पर रख कर बैंकों से कर्ज लें. दरअसल, शिक्षा के लिए वहां छात्रों को ही आसानी से कम ब्याज दरों पर कर्ज मिल जाता है. वे अपनी शिक्षा पर हुए कर्ज को नौकरी मिलने के बाद चुकाते हैं. मैडिकल और कानून की डिगरियों के अलावा वहां ऐसी अनगिनत डिगरियां और पाठ्यक्रम हैं जिन के जरिए एक अच्छा रोजगार पाया जा सकता है.  

लेकिन वहां बात सिर्फ उच्च शिक्षा की, क्वालिटी की नहीं होती है. अमेरिका में बच्चों की स्कूली शिक्षा की नींव को भी काफी मजबूत बनाया जाता है. प्राइमरी से ले कर हाईस्कूल तक की शिक्षा मुफ्त होती है. इन काउंटी यानी सरकारी स्कूलों के साथसाथ वहां भी प्राइवेट स्कूल हैं जो अपेक्षाकृत महंगे होते हैं. लेकिन यह जरूरी नहीं है कि काउंटी यानी सरकारी स्कूलों से निकला बच्चा प्राइवेट स्कूल के बच्चे से किसी मामले में उन्नीस साबित हो. इस के आगे वहां कालेज स्तर की जो शिक्षा है वह भारतीय उच्च शिक्षा से इस मामले में अलग है कि वहां उच्च शिक्षा पाठ्यक्रम का मूल उद्देश्य पूरी तरह व्यावसायिक होता है. वहां औनलाइन गाइडैंस के लिए भी अनेक कंपनियां हैं जो किसी पाठ्यक्रम के महत्त्व और रोजगार की स्थिति का आकलन करती हैं.

अमेरिका, सिंगापुर और आस्ट्रेलिया में उच्च शिक्षा एक उद्योग का रूप ले चुकी है. चीन और भारत से करीब 4-5 लाख युवा हर साल वहां उच्च शिक्षा के लिए पहुंचते हैं. दूसरे देशों से भी बड़ी तादाद में स्टूडैंट्स वहां हर साल जाते हैं. इस से अकेले अमेरिका को ही सालाना 25-30 अरब डौलर की कमाई हो जाती है. इस के उलट, भारत में सरकारी मदद के भरोसे चल रहे आईआईटी अथवा आईआईएम या मैडिकल कालेज ढांचागत सुविधाओं में अपेक्षित सुधार करने के बजाय न्यूनतम सुविधाओं और सामान्य वेतनमान पर न्यूनतम फैकल्टी से काम चलाने में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं.

अमेरिकी शिक्षा के उदाहरण को ही एक मानक के तौर से लिया जाए, तो साफ हो जाता है कि इस तरह की शिक्षा की भारत में कितनी अधिक जरूरत है. यह भी साफ है कि ग्लोबल इकोनौमी में एक बड़े मुकाम की तरफ बढ़ रहा देश उच्च शिक्षा के मामले में खिड़कीदरवाजे बंद कर के नहीं बैठ सकता. आईटी, मैडिकल और इंजीनियरिंग के क्षेत्र की ग्लोबल चुनौतियों के हिसाब से अपने छात्रों को तैयार करने में विदेशी संस्थानों के देश में स्थित कैंपस काफी मददगार हो सकते हैं. लेकिन इन के लिए ऐसे कायदेकानून जरूर बनाने होंगे जिन से विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत में कायम किए जाने वाले कैंपसों के कामकाज की लगातार निगरानी हो सके और वे हमारे छात्रों का आर्थिक शोषण न कर सकें.  द्य

मसला विदेशी रैंकिंग का

देसी विश्वविद्यालयों की विदेशी शैक्षणिक रैंकिंग एजेंसियों द्वारा जारी की जाने वाली रैंकिंग से यह अंदाजा मिलता है कि अलगअलग मानकों पर शिक्षा के मामले में हम विदेशी संस्थानों से काफी पीछे हैं. लेकिन यह तसवीर इतनी निराशाजनक नहीं है कि लोग अपने बच्चों को कर्ज ले कर विदेशों में भेजें. यदि बात तकनीकी शिक्षा की हो, तो आजादी के बाद इस में उल्लेखनीय तरक्की हुई है. फिलहाल देश में विश्वस्तरीय इंडियन इंस्टिट्यूट औफ टेक्नोलौजी यानी आईआईटी के 17 संस्थान और इंडियन इंस्टिट्यूट औफ मैनेजमैंट यानी आईआईएम के 13 संस्थान हैं. इसी तरह पिछले 25 वर्षों में उच्च शिक्षण संस्थानों में दाखिले में 250 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. देश के इंजीनियरिंग कालेजों में दाखिलों की संख्या अमेरिका और चीन दोनों के कुल दाखिलों से भी ज्यादा है. इस बारे में तकनीकी शिक्षा की नियामक संस्था औल इंडिया काउंसिल फौर टैक्निकल एजुकेशन यानी एआईसीटीई का आंकड़ा यह है कि 2006 में भारत में 1,268 इंजीनियरिंग कालेज थे, जिन की संख्या बढ़ कर वर्ष 2012 तक 3,346 पहुंच गई.

समस्या असल में दूसरी है. वह यह है कि आज भी देश के इंजीनियरिंग कालेजों से निकलने वाले सभी स्नातकों को रोजगार नहीं मिल पाता है. इस के अलावा जब बात ग्लोबल नौकरियों की आती है तो शिक्षा प्रणाली में बरती जा रही लापरवाही और खामियों के चलते हमारे ज्यादातर छात्र वैश्विक पैमाने पर खरे नहीं उतरते हैं. स्थिति तो यह है कि देश में ही प्रोफैशनल डिगरी रखने वालों में से 40 फीसदी से ज्यादा को किसी नौकरी के लायक नहीं माना जाता. इस तरह स्थिति पढ़लिख कर बेरोजगार वाली बनती है और इसीलिए देश में शिक्षित बेरोजगारों की संख्या लाखोंकरोड़ों में जा पहुंची है. यही वह बिंदु है जहां पर ठहर कर विदेशी विश्वविद्यालयों के मानकों के बारे में विचार करना चाहिए.

यहां उल्लेखनीय यह है कि जब यही भारतीय छात्र विदेश में डिगरी ले कर नौकरी पाने निकलते हैं तो उन के रोजगार की दर काफी ज्यादा होती है. वहां उन के कौशल का लोहा माना जाता है. दुनियाभर के आईटी संस्थानों में भारतीय प्रतिभा तो चमक ही रही है, साथ में अमेरिका जैसे देश के कुल डाक्टरों में से 40 फीसदी से ज्यादा भारतीय हैं.

यह भी गौरतलब है कि हमारे देश में कालेजों और विश्वविद्यालयों की रैंकिंग की कोई देसी व्यवस्था नहीं है. ज्यादातर विश्वविद्यालय स्वायत्त रूप से अपनी प्रतिष्ठा बनाते हैं और इस के लिए विदेशी रैंकिंग को मानक बता कर अपना प्रचारप्रसार करते हैं.

हम फिसड्डी क्यों?

देश में उच्च शिक्षा का स्तर इतना डांवांडोल क्यों है, इस की कई मिसालें समयसमय पर मिलती रही हैं. नकल से परीक्षा पास करने और पेपरलीक की घटनाओं ने इस पर सवालिया निशान लगाए ही हैं, साथ में परीक्षा प्रणाली की खामियां भी उजागर की हैं. ऊंची डिगरियां देने वाले शिक्षण संस्थानों में छात्रों की योग्यता के मूल्यांकन की व्यवस्था में भीषण गड़बड़ी का एक उदाहरण इसी साल फरवरी में उत्तर प्रदेश टैक्निकल यूनिवर्सिटी यानी यूजीटीयू के बीटेक के 5वें सैमेस्टर की परीक्षा के संबंध में मिला था.

जब तकनीकी शिक्षा के मामले में देश में इतनी लापरवाही है तो अन्य धाराओं की पढ़ाई में हो रहे गोलमाल के बारे में कुछ कहनासोचना व्यर्थ ही लगता है. शिक्षा को ले कर उपेक्षा और लापरवाही का यह अकेला मामला नहीं है और न ही यह सिर्फ उत्तर प्रदेश तक सीमित है. बिहार में नकल के हादसे और मध्य प्रदेश में हुए व्यापमं जैसे घोटाले, जिस में राज्यपाल से ले कर मुख्यमंत्री तक आरोपों की जद में हों और जिस में फंसे राज्यपाल के पुत्र की संदिग्ध मृत्यु हो चुकी है, इन्हें देख कर कोई भी देश के शिक्षा तंत्र में हुई आपराधिक घुसपैठों का अंदाजा लगा सकता है.

पूंजी बाजार

शेयर बाजार की रौनक फीकी पड़ी

बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई की रौनक देश की आर्थिक स्थिति के बेहतर रहने के अनुमान के बावजूद फीकी पड़ गई है. बजट सत्र के पहले चरण में कई महत्त्वपूर्ण विधेयक पारित होने और बजट को भी सकारात्मक बताने की विशेषज्ञों की राय के बावजूद बाजार ढीला पड़ा हुआ है. बजट सत्र के पहले चरण के आखिरी दिन यानी 20 मार्च को शेयर बाजार लगातार 3 दिन की गिरावट के साथ डेढ़ माह के निचले स्तर पर बंद हुआ. बाजार के जानकार मानते हैं कि अमेरिका में ब्याज दर बढ़ने की खबर है. इस से विदेशी निवेशक घबराए हुए हैं और खरीदारी करने से डर रहे हैं.

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आईएमएफ के प्रबंध निदेशक क्रिस्टन लगार्डेस ने भी चेतावनी दी है कि अमेरिकी केंद्र रिजर्व द्वारा ब्याज दर बढ़ाने का असर उभरती अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ सकता है. यही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत भी और निचले स्तर तक पहुंच सकती है. इस का भी बाजार पर नकारात्मक असर पड़ेगा. पिछले सप्ताह भी बाजार गिरावट पर बंद हुआ था और सप्ताह के दौरान सूचकांक 946 अंक यानी 3.22 फीसदी तक गिर गया था. इस की वजह थोक मूल्य सूचकांक का फरवरी में 5.37 फीसदी पहुंचना बताया गया जो जनवरी में 5.19 फीसदी पर था. विशेषज्ञों का मानना है कि थोक मूल्य सूचकांक बढ़ने से रिजर्व बैंक के ब्याज दर में कटौती की संभावनाएं घटी हैं जिस का बाजार पर विपरीत असर पड़ा है.

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डिजिटल कारोबार 1 लाख करोड़ रुपए के पार

देश में औनलाइन कारोबार में क्रांति आ रही है. महानगरों अथवा नगरों में ही नहीं, छोटे कसबों और सड़क सुविधा से जुड़े गांवों तक के युवक औनलाइन खरीदारी कर रहे हैं. औनलाइन यात्रा टिकट बुक कराने के अलावा लोगों में मोबाइल फोन, सिलेसिलाए कपड़े, जूते, लैपटौप, टैबलेट, किताबें और यहां तक कि खाद्य वस्तुओं को भी खरीदने की होड़ लगी है. युवा वर्ग इस खरीदारी को ले कर कुछ ज्यादा ही उत्साहित नजर आ रहा है. नौकरीपेशा लोग भी औनलाइन खरीदारी में रुचि ले रहे हैं. महानगरीय जीवनशैली में लोगों के पास बाजार जा कर सामान खरीदने की फुरसत नहीं है, इसलिए औनलाइन सामान मंगा कर आवश्यकता की पूर्ति आसान हो रही है. यह कारोबार किस गति से लोकप्रिय हो रहा है, इस का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि 2014 में एक रिपोर्ट के अनुसार 6.6 करोड़ लोगों ने डिजिटल खरीदारी की थी. इस अवधि में देश का डिजिटल कारोबार 53 फीसदी बढ़ कर 81 हजार करोड़ रुपए के पार पहुंच गया था.

इस बार अनुमान लगाया जा रहा है कि साल के अंत तक यह कारोबार 1 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच जाएगा. डिजिटल बाजार के बढ़ते कारोबार पर यह रिपोर्ट इंटरनैट तथा मोबाइल एसोसिएशन ने तैयार की है. रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीयों को औनलाइन खरीदारी पसंद है. इन में 45 प्रतिशत लोग डिलीवरी पर कैश भुगतान देना पसंद करते हैं जबकि 21 प्रतिशत लोगों ने डैबिट कार्ड और 16 प्रतिशत ने 2014 में क्रैडिट कार्ड से भुगतान को पसंद किया है. डिजिटल बाजार का यह कारोबार लोगों की बढ़ती व्यस्तता का परिणाम है. इस से गलीकूचों का कारोबार बहुत प्रभावित नहीं हो रहा है. इस की वजह यह है कि जो भी व्यक्ति औनलाइन सामान मंगाता है वह ब्रै्रंडेड उत्पादों को ही पसंद करता है और ये उत्पाद उन्हें नजदीक की दुकानों में आसानी से नहीं मिलते हैं. बहरहाल, औनलाइन खरीद में खराब सामान की डिलीवरी की शिकायतें शायद कम नहीं मिल रही हैं इसलिए लोग उत्साहित हैं. लेकिन जैसे ही शिकायतें मिलनी शुरू होंगी, इस बाजार को तगड़ा झटका लग सकता है.

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कंपनियों में महिला निदेशक की अनिवार्यता

बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई में सूचीबद्ध कंपनियों के लिए बाजार नियामक प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड यानी सेबी ने नियम बनाया था कि कंपनियों के निदेशक मंडल में कम से कम एक महिला निदेशक आवश्यक है. सेबी के इस आदेश का अनुपालन पिछले वर्ष तक हो जाना चाहिए था लेकिन बाद में सेबी ने यह अवधि इस साल 31 मार्च तक बढ़ा दी. मगर निर्धारित अवधि से महज एक पखवाड़े पहले तक सैकड़ों कंपनियों ने सेबी के दिशानिर्देश का पालन नहीं किया था. नैशनल स्टौक एक्सचेंज यानी निफ्टी में 1479 कंपनियां सूचीबद्ध हैं और निर्धारित अवधि से एक पखवाड़े पहले तक 451 कंपनियों ने बाजार नियामक के आदेश का पालन नहीं किया था. बीएसई और निफ्टी में सूचीबद्ध कुल 580 कंपनियां 15 मार्च तक नए नियम के दायरे से बाहर थीं. पिछले वर्ष दिसंबर तक 500 महिलाओं को निदेशक मंडल में नियुक्त किया गया था.

कंपनियों से सेबी ने कहा है कि यदि निर्धारित समय तक महिला निदेशक नियुक्त नहीं की जाती है तो आदेश की अवहेलना पर दंड लगाया जा सकता है. कुछ कंपनियों ने सेबी के नियमों का अनुपालन भले ही कर दिया है लेकिन इस में ज्यादातर कंपनियों ने महज खानापूर्ति ही की है और अपने परिवार की महिला सदस्यों को नियुक्ति दी है. इस रास्ते को अब ज्यादा कंपनियां अपना रही हैं. ये नियुक्तियां भले ही कंपनियों की ईमानदारी और नैतिकता का आईना दिखा रही हैं लेकिन सेबी के डंडे के बहाने कम से कम परिवार की महिलाओं को ही सही, कंपनियों के निदेशक मंडल में जगह तो मिल रही है. यह तब है कि ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायतों में महिलाओं को जिस जगह से आरक्षित सीट पर चुना जा रहा है और उन का काम उन के पति कर रहे हैं, लगभग उसी तरह की स्थिति कंपनियों में पैदा हो सकती है, इसलिए महिला निदेशक मंडल के सदस्य के अधिकार पर नजर रखे जाने की भी जरूरत है.

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नौकरियों की उम्मीद वाला बीमा विधेयक

संसद ने बजट सत्र में बीमा विधेयक पारित कर दिया है और उस के साथ ही देश में बीमा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआई की सीमा 26 प्रतिशत से बढ़ कर 49 फीसदी तक पहुंच गई है. विदेशी बीमा कंपनियों ने इस के तहत भारत में कारोबार की योजना पर भी काम शुरू कर दिया है. विशेषज्ञों और बीमा क्षेत्र में पैनी नजर रखने वाले संगठनों का कहना है कि इस साल ही इस क्षेत्र में 1 लाख 18 हजार लोगों को रोजगार के अवसर मिलने की उम्मीद है और अगले 7 साल में लगभग 20 लाख लोगों के लिए बीमा क्षेत्र में रोजगार के अवसर खुल सकेंगे. इस कानून के कारण देश में विदेशी कंपनियों के आने के बाद धन का प्रवाह बढ़ेगा और बीमा कंपनियों में प्रतिस्पर्धा भी बढ़ेगी जिस का सीधा लाभ आम उपभोक्ता को मिलेगा. बीमा क्षेत्र का स्थानीय बाजार अब तक सुस्त चाल चलता रहा है और अपनी मनमानी चलाता रहा लेकिन एफडीआई की सीमा लगभग दोगुनी करने से बीमा क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा आएगी और प्रतिभाओं के लिए रोजगार के अवसर बढ़ेंगे. विशेषज्ञों का मानना है कि विदेशी बीमा कंपनियां भारत में कारोबार के लिए बेहद उत्सुक हैं. इस विधेयक को ले कर राजनीतिक सरगर्मियां भी बढ़ी हैं.

राजनीतिक दल इस का श्रेय लेने की दौड़ में जुटे हैं. दुनिया के बड़े खिलाड़ी इस क्षेत्र में आएंगे तो उस का फायदा उपभोक्ता को मिलेगा. लेकिन यह ध्यान रखना आवश्यक है कि कोई कंपनी सिर्फ हमें लाभ देने के लिए भारत नहीं आएगी बल्कि मुनाफा पाने के लिए निवेश करेगी. उस दृष्टि से उपभोक्ता का नुकसान नहीं होना चाहिए और इस पर निगरानी रखना सरकार की जिम्मेदारी है.

परिवर्तन ही जीवन है

बचपन में 2 पंक्तियां सुनी थीं, ‘जो जा के न आए वह जवानी देखी, जो आ के न जाए वह बुढ़ापा देखा.’ उस समय पूरा अर्थ समझ नहीं पाई थी. लेकिन वक्त ने धीरेधीरे सब समझा दिया. विवाह से पहले अधिकतर मस्ती का माहौल या यों कहिए कोई नियम, कानून सख्ती से लागू नहीं होते. कुछ युवक, युवतियां अपने लक्ष्य की ओर गंभीरता से जुटे भी देखे जा सकते हैं. जब आती है वैवाहिक, गृहस्थ जीवन की जोखिम, जिम्मेदारियों से भरी मिलीजुली डगर तब सपने कुछ और होते हैं, हकीकत उस के विपरीत, इस में दोराय नहीं. दूरदर्शन पर चकाचौंध भरे नाटक देख कर चढ़ती जवानी बिना पंखों के उड़ते देखी है, लेकिन वास्तविक जीवन में कटती कैसे है, यह किसी से छिपा नहीं.

विवाह के बाद लड़के के मातापिता बच्चे के लिए नए घर की तलाश में होते हैं जो उन को सुविधाओं के साथ सुकून दे सके. लड़की के मांबाप की भी यही तमन्ना रहती है कि उन की बेटी, छोटे से छोटे परिवार में, बस मियांबीवी तक की सीमित यूनिट में रहे. परिवर्तनशील दौर में गृहस्थाश्रम से जुड़ते ही कुछ में कुछ ज्यादा ही परिवर्तन आता है. बेटा नई जीवनसंगिनी ले आया, बेटी नया जीवनसाथी. गृहस्थ संसार बस गया. मातापिता अपने उसी दायरे में अपने साधनों में प्रसन्न व संतुष्ट दिखते हैं. कई निराश, दुखी और क्षुब्ध भी देखे गए हैं, जिन्होंने महल से घर बनाए थे इस आशा से कि बड़े होने पर बच्चे उन के साथ रहेंगे, फिर आनंद तथा भरपूर खुशियां होंगी. खैर…

कनाडा में मिस्टर वालिया का आलीशान बंगला इस का जीताजागता प्रमाण है. ऐसे एक नहीं, अनेक बड़े घर यहां सूने पड़े हैं. हालात के चलते पुराने जोड़े में शारीरिक, मानसिक परिवर्तन आना शुरू हो जाता है. जीवन की पटरी थोड़ी धीमी होनी शुरू हो जाती है. मुंह का स्वाद बदलना शुरू हो जाता है, पाचनशक्ति नया रूप दिखाने लगती है. अकसर तीखे व्यंजनों से परहेज होना शुरू हो जाता है. गाड़ी या कोई भी वाहन चलाते समय घबराहट होने लगती है. ये वे बातें हैं जिन पर आप को कभी नाज था. जिन डाक्टर या वैद्य से जीवन में बहुत कम मिले थे उन से परिचय करना या मित्रता रखना समय की जरूरत बन जाती है. इस के अलावा यदि कोई बड़ी बीमारी घेर ले तो समझें चिंता को बुलाने की जरूरत नहीं, वह खुद आप की स्नेही होगी.

यह बात अलग है कि विदेश में रहते हुए लोगों के लिए थोड़ा सुधरा रूप है. एक बड़ा परिवर्तन जो दिखता है, वह है ढलती उम्र में कुछ लोगों का ईर्ष्यालु, चिड़चिड़े, जिद्दी या शंकालु स्वभाव का हो जाना. कुछ के तो यह बस की बात नहीं रहती, कुछ जानबूझ कर न स्वयं खुश रहते हैं न दूसरों को खुश देखना चाहते हैं. अत्यधिक कंजूसी की आदत, आफत बनने लगती है. टीकाटिप्पणी के बिना रह ही नहीं पाते. जबकि यह उचित नहीं. एक सुझाव, यदि हो सके बढ़ती उम्र में अपने निकटतम रिश्तेदारों, मित्रों से फोन पर अकसर बातचीत किया करें. वे दुखसुख में काम आ सकते हैं. वैसे भी, इसी बहाने आप का मन बहलाव हो जाएगा.

पतिपत्नी के संबंधों में बहुत बड़ा परिवर्तन देखने को मिलता है. अकसर पति बाजी पहले हारता है. पत्नी थोड़ी सुस्त हो जाती है. जबकि सब के साथ एक सा तजरबा नहीं हो सकता. फिर समझौते का लिबास ओढ़े दोनों परस्पर प्रसन्न रहने की चेष्टा करते हैं. ऐसी मिलतीजुलती शिकायतें कनाडा में ही नहीं भारत में भी सुनी हैं कि ‘मेरे पति तो कितने वर्षों से वैरागी ही बन गए हैं’, ‘पुरुष लोग अपनी अर्धांगिनी के बारे में क्या सोचते या बतियाते होंगे, मुझे नहीं पता.’

वहीं, कई औरतें भी ढलती उम्र से पहले ही रिश्तों से विमुख सी हो जाती हैं. कारण कुछ भी हो सकता है. परंतु दंपती में परस्पर आकर्षण बना ही रहना चाहिए. यह सुखद दांपत्य का मूल आधार है. इस बढ़ती उम्र में कुछ ‘बिगड़े बुद्धिजीवी’ बहक भी जाते हैं. ऐसे समय में मियांबीवी के रास्ते अलगअलग होते भी देखे गए हैं. गृहस्थी की गाड़ी अपना संतुलन खो बैठती है. यहां तक कि तलाक की नौबत भी आ जाती है. ऐसा भारत में कम, कनाडा या दूसरे देशों में यह बीमारी तो विवाह के कुछ समय बाद ही जोंक सी जकड़ने लगी है. कनाडा में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां दुखी बेटी अपने मातापिता के घर और परेशान बेटा अपने मातापिता के पास है, दूर तक कोई हल दिखता नहीं.

ढलती उम्र का लें मजा

बढ़ती उम्र को हमेशा सकारात्मक लें. मानवीय गुण जैसे संतुष्टि, सहनशीलता, दूरदर्शिता, गंभीरता तथा त्याग की भावना को अपनाएं. अपनी वेशभूषा तथा पहनावे के स्तर को अपनी सामर्थ्य के मुताबिक गिरने न दें. सामाजिक दायरे से एकदम गायब न हो जाएं. जब भी अवसर मिले व स्वास्थ्य साथ दे, लोगों से मिलेंजुलें. वानप्रस्थ आश्रम का आनंद घर में ही रह कर लें. कमल का फूल सब से बढि़या उदाहरण है, उस को अपना प्रेरणास्रोत बनाएं. बढ़ती, ढलती उम्र का मजा लें. इसे अभिशाप नहीं वरदान समझें. 50 वर्ष बीत जाने के बाद खुद को उत्तम या जिस तरह संभव हो, ढालने की भरपूर कोशिश करें. इसी में भलाई है. यदि ढलती, बढ़ती उम्र में हर छोटी जीत को बड़ी जीत और हर बड़ी हार को छोटी हार समझें तो बात ही क्या.

जो बोलेगा मारा जाएगा : निशाने पर समाजसेवी

महाराष्ट्र की प्रगतिशील राज्य की छवि को बारबार कुचलने की कोशिश जारी है. कामरेड गोविंद पानसरे पर हुआ जानलेवा हमला और उस से उन की हुई मौत से फिर एक बार सामाजिक कार्यकर्ताओं पर होने वाले हमलों का विषय गंभीर हुआ है. महाराष्ट्र को और कितनी मौत चाहिए, यह सवाल आम जनमानस से ले कर सोशल मीडिया तक में चर्चा का विषय बना हुआ है. ‘जो बोलेगा मारा जाएगा’ ऐसा ही कुछ महाराष्ट्र में हो रहा है. महाराष्ट्र के नेता कामरेड गोविंद पानसरे और उन की पत्नी पर कोल्हापुर में दिनदहाड़े हमला हुआ. इलाज में सफलता मिलते न देख कर उन्हें मुंबई स्थित बीच कैंडी अस्पताल में दाखिल कराया गया, जहां उन की मौत हो गई. पानसरे की मौत के बाद भी कोई हमलावर पुलिस की गिरफ्त में नहीं आया है. इस के पहले डा. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या में शामिल किसी भी हत्यारे को पकड़ने में सरकार को सफलता नहीं मिली है.

महाराष्ट्र में आरटीआई कानून लागू होने के बाद से ले कर आज तक कई कार्यकर्ताओं पर जानलेवा हमले हुए हैं. इन में डा. नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे के नाम भी जुड़ गए हैं. भले ही ये दोनों किसी की सूचना नहीं इकट्ठा करते थे लेकिन गलत कुरीतियों के खिलाफ जम कर अपनी बात रख कर उस के कार्यान्वयन से पीछे नहीं हटते थे. दाभोलकर और पानसरे की हत्या से पहले पुणे के सतीश शेट्टी की हत्या हुई थी. पिछले 11 सालों में कितने लोगों ने आरटीआई ऐक्ट का इस्तेमाल और सामाजिक मामलों को उठाने के कारण अपनी जान गंवाई और कितने लोगों पर जानलेवा हमले हुए, इस का जवाब न केंद्र के पास है, न राज्य सरकार के पास. सामाजिक आंदोलन की अगुआई करने वालों पर हमला होना नई बात नहीं है.

13 जनवरी, 2010 को सतीश शेट्टी (38) की तलेगांव दाभाड़े में हत्या की गई. अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान से जुड़े सतीश ने वहां के जमीन घोटाले की जानकारी निकाली थी. मौर्निंग वाक के दौरान उन की हत्या हुई, जिस का सुराग आज तक नहीं लग पाया है. सीबीआई ने अप्रैल 2014 में क्लोजर रिपोर्ट सौंप कर मामला बंद किया था जबकि उन के हत्यारों तक सीबीआई पहुंची थी पर राजनीतिक दबाव के कारण मामला आगे बढ़ नहीं पाया. फिर एक बार सीबीआई ने सतीश शेट्टी की फाइल खोल दी है. 20 अप्रैल, 2010 को विट्ठल गीते की मौत हुई, उस पर बीड के वाघबेट गांव में जानलेवा हमला हुआ. उन्होंने साईनाथ विद्यालय में चल रही अनियमितता का भंडाफोड़ किया था. 22 दिसंबर, 2010 को ही कोल्हापुर में दत्तात्रय पाटील की हत्या हुई थी. पाटील ने नगरसेवकों की हौर्सट्रेडिंग बाबत जनहित याचिका दायर की थी तथा पावरलूम कारखानों की पोल खोली थी.

महाराष्ट्र में सामाजिक कार्यकर्ताओं पर जानलेवा हमले की घटनाएं चर्चित रही हैं. प्रसिद्ध अभिनेता और सामाजिक कार्यकर्ता श्रीराम लागू पर वर्ष 1991 में सांगली में एक गुट ने लाठियां बरसाई थीं. उसी वर्ष डा. नरेंद्र दाभोलकर पर हथियारों से लैस एक गुट ने हमला किया था लेकिन दाभोलकर ने पुलिस में शिकायत करने से इनकार कर दिया था. 16 मार्च, 2010 को रेत माफिया ने सामाजिक कार्यकर्ता सुमेरिया अब्दुल अली, नसीर जलाल और एक पत्रकार पर महाड में जानलेवा हमला किया था. महाड पुलिस ने एक विधायक के पुत्र पर मामला भी दर्ज किया. चर्चगेट स्थित ओवल बिल्डिंग में नयना कथपलिया पर 8 जनवरी, 2010 को फायरिंग हुई थी. वे एसआरए योजना, हौकर्स और अतिक्रमित जमीन कब्जेदारों के खिलाफ आंदोलन करती थीं.

कहां हैं हत्यारे

एक बार हमले से बचे डा. नरेंद्र दाभोलकर, जो अंधश्रद्धा निर्मूलन के लिए संघर्षरत थे, की 20 अगस्त, 2013 को पुणे में हत्या की गई. मौर्निंग वाक के दौरान अज्ञात हमलावरों ने उन्हें गोलियों से भून डाला था. आज तक उन के हत्यारे पुलिस गिरफ्त से बाहर हैं. महाराष्ट्र के कोल्हापुर में टोल के खिलाफ आंदोलन करने वाले कामरेड गोविंद पानसरे को भी गोलियों से 16 फरवरी को टारगेट किया गया. 5 दिन मौत से संघर्षरत पानसरे ने मुंबई स्थित बीच कैंडी अस्पताल में 20 फरवरी को दम तोड़ा.

कौमनवैल्थ ह्यूमन राइट्स इनीशिएटिव (सीएचआरआई) द्वारा प्रस्तुत दस्तावेज के अनुसार, केंद्र सरकार के पास सामाजिक और आरटीआई कार्यकर्ताओं पर हमले की आधिकारिक जानकारी उपलब्ध नहीं है. कार्मिक, लोकशिकायत एवं पैंशन मंत्रालय ने हाल के वर्षों में मामले से यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि केंद्र सरकार ऐसे मामलों के आंकड़े एकत्र नहीं करती. उस का तर्क है कि सामाजिक और आरटीआई कार्यकर्ताओं पर हुआ हमला कानूनव्यवस्था की बहाली का मामला है जो राज्यों के अधीन है.

बीते 11 वर्षों के रुझान इस बात का संकेत करते हैं कि उपेक्षा, अन्याय और भ्रष्टाचार का शिकार हुआ तबका सामाजिक कार्यकर्ताओं की हिम्मत को पस्त करने के लिए उन के ऊपर बड़ी तादाद में हमले कर रहा है. मिसाल के लिए, बीते 11 वर्षों में महाराष्ट्र में सामाजिक और आरटीआई कार्यकर्ताओं पर 55 बार हमले हुए हैं और इन में 10 मामलों में कार्यकर्ताओं की हत्या हुई है. अगर सही बात कही जाए तो जल, जंगल और जमीन के अलावा सामाजिक कुरीतियों तथा भ्रष्टाचार को उजागर करने का मामला हो तो सामाजिक और आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या या उन के उत्पीड़न की आशंका सब से ज्यादा है.

महाराष्ट्र में सामाजिक और आरटीआई कार्यकर्ताओं पर जानलेवा हमले होने की घटनाओं की बढ़ती तादाद के बावजूद सरकार की तरफ से कोई व्यवस्था नहीं की गई है कि कार्यकर्ता बेखौफ हो कर काम कर सकें. जब तक शासन और प्रशासन इन की सामाजिकता और संघर्ष को तवज्जुह नहीं देता है तब तक ऐसे कितने ही शेट्टी, दाभोलकर और पानसरे बेमौत मारे जाते रहेंगे. इस का जवाब शायद किसी के पास नहीं है.

बिहार बोर्ड परीक्षा : नकल के भरोसे नई नस्ल

कोई पानी का पाइप पकड़ कर जेम्स बौंड की तरह ऊपर चढ़ रहा है, कोई स्कूल के छज्जे पर स्पाइडरमैन की तरह चढ़ गया है, कोई जुगाड़ लगा कर खिड़की से लटक कर खुद को सुपरमैन समझ रहा है, कोई छलांगें मार कर फिल्मी हीरो की तरह छत पर जा पहुंचा है. इन सारी मशक्कतों ने बिहार को देशभर में मजाक बना कर रख दिया है. अपनेअपने बच्चों को इम्तिहान में पास कराने के लिए ये जनाब चिट और पुर्जे उन तक पहुंचा रहे थे, ताकि उन का भाई, बेटा, भतीजा, बेटी, बहन आदि बगैर पढ़ेलिखे ही नकल कर मैट्रिक का इम्तिहान पास कर सकें.

अपनों को नकल करा कर इम्तिहान पास कराने की जुगाड़बाजी ने बिहार के सुशासन का दावा करने वाली सरकार की छीछालेदर कर दी है. उस के ऊपर से सरकार के तालीम मंत्री ने यह कह कर करेला चढ़ा नीम पर वाली स्थिति पैदा कर दी कि इस कदाचार को रोकना सरकार के बूते की बात नहीं है. राज्य की शिक्षा व्यवस्था पर पहले भी कई सवालिया निशान लगते रहे हैं, पर नकल के ताजा फोटोग्राफोें से यह सवाल एक बार फिर उठ खड़ा हुआ है.

बिहार में मैट्रिक की परीक्षा में चोरी का खुला खेल सालाना जलसे की तरह हो गया है. हर साल परीक्षा शुरू होने के पहले बिहार विद्यालय परीक्षा समिति नकल पर रोक लगाने के बड़ेबड़े दावे करती है. सभी जिलों के डीएम और एसपी को नकल रोकने के लिए कड़े कदम उठाने के फरमान जारी किए जाते हैं. नतीजा वही है टांयटांय फिस्स. घरघर में बच्चों को नकल कराने की छिड़ी जंग की तैयारी के सामने सरकार के सारे दावे हवा हो जाते हैं. फिर कुछेक परीक्षा सैंटरों की परीक्षा को कैंसिल कर फिर से परीक्षा लेने की तारीख का ऐलान होता है और सरकार व प्रशासन एक बार फिर इतमीनान से चादर तान कर सो जाता है. उस के ऊपर से परीक्षा को ‘स्वेच्छा’ बनाने के चक्कर में अभिभावक यह भूल जाते हैं कि नकल को बढ़ावा दे कर वे अपने ही बच्चों का कैरियर बरबाद कर रहे हैं. बिहार के स्कूलों से पास ज्यादातर बच्चों को जब दूसरे राज्यों में कोई तवज्जुह नहीं मिलती है तो वे सिर पीटते हैं.

मजबूर सरकार

परीक्षा समिति के सचिव श्रीनिवास चंद्र तिवारी कहते हैं कि केवल प्रशासन के सहारे कदाचार को रोक पाना मुमकिन नहीं है. इस में बच्चों और उन के अभिभावकों का सहयोग बहुत जरूरी है. अगले साल से कदाचार को रोकने के लिए परीक्षा से पहले समिति के द्वारा कार्यशाला का आयोजन किया जाएगा. इस के जरिए अभिभावकों और बच्चों को जागरूक किया जाएगा. अब देखना है कि ऐसी किसी कार्यशाला का आयोजन हो पाता है या नहीं? अगर होता है तो क्या कोई इस में भाग लेता है और क्या कोई असर होता है या अगले साल फिर मैट्रिक की परीक्षा में कदाचार का खुल कर खेल होगा और सरकार हर साल की तरह कदाचार को रोकने के नए प्लान का ऐलान कर खर्राटे भरने लगेगी?

परीक्षा में चोरी को रोक पाना सरकार के बूते के बाहर की बात है. शिक्षा मंत्री के इस जवाब पर पटना हाईकोर्ट ने शिक्षा मंत्री पी के शाही को लताड़ लगाते हुए कह डाला कि अगर मंत्री कदाचार रोकने में लाचार हैं तो उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए. अगर शिक्षा मंत्री ही यह कहे कि परीक्षा में नकल रोकना सरकार के बूते की बात नहीं है तो उन को अपने पद पर बने रहने का हक नहीं है. मुख्य न्यायाधीश एल नरसिम्हा रेड्डी ने कहा कि जिस राज्य ने पूरी दुनिया को ज्ञान की रोशनी बांटी, वहीं शिक्षा का बंटाधार हो रहा है.

पी के शाही का कहना है कि उन्होंने कुछ भी गलत नहीं कहा है. मैट्रिक की परीक्षा में नकल रोक पाना अकेले सरकार के बूते की बात नहीं है, इस के लिए अभिभावकों को भी साथ देना होगा. परीक्षा केंद्रों पर विद्यार्थियों की संख्या के तीनचारगुना गार्जियन भीड़ लगाए रहते हैं, ऐसे में उन्हें कंट्रोल करना मुश्किल हो जाता है.

सूबे में कुल 1,217 परीक्षा केंद्रों पर 14,26,209 विद्यार्थियों ने इस साल मैट्रिक की परीक्षा में भाग लिया. इन में 7,66,987 लड़के और 6,59,222 लड़कियां थीं. पिछले साल के मुकाबले डेढ़ लाख से ज्यादा विद्यार्थियों ने इस साल परीक्षा में हिस्सा लिया.

अभिभावकों की भूमिका

पटना हाईकोर्ट के वकील उपेंद्र प्रसाद कहते हैं कि शिक्षा के अधिकार अधिनियम-2009 के तहत पहली से 8वीं कक्षा तक के बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा मुहैया कराना सरकार का दायित्व है. इन क्लासों में जब ज्यादातर बच्चे लिखित परीक्षा में फेल हो कर स्कूल छोड़ने लगे तो सरकार ने लिखित परीक्षा को बंद कर केवल मौखिक परीक्षा ले कर बच्चों को प्रमोट करने का फैसला किया. इस से बच्चे पढ़ाई से कतराने लगे. गार्जियन को भी यह मतलब नहीं होता है कि उन के बच्चे क्या पढ़ रहे हैं. वे बस बच्चों का रिपोर्ट कार्ड देख कर और फेल नहीं होने पर ही खुश होते रहे.

ऐसे बच्चों को जब मैट्रिक की परीक्षा में सवालों का लिखित जवाब देना पड़ता है तो उन के पसीने छूट जाते हैं. अभिभावक भी जानते हैं कि उन के बच्चे बगैर चिटपुर्जों के पास नहीं हो सकेंगे तो वे भी उन तक पुर्जा पहुंचाने के लिए जीजान लगा देते हैं. परीक्षाओं में नकल की बढ़ती आपाधापी की सब से बड़ी वजह यह है कि जब सरकारी स्कूलों और पढ़ाई की क्वालिटी ही दुरुस्त न हो तो विद्यार्थी क्या और कैसे पढ़े? बिहार के सरकारी स्कूलों में 2 लाख 15 हजार शिक्षकों की कमी है. 1 लाख 70 हजार प्राइमरी स्कूलों और 45 हजार मिडिल व हाई मिडिल स्कूलों में शिक्षक के पद खाली हैं. उन खाली पदों पर नियुक्ति के लिए केवल तारीख दर तारीख का ही ऐलान होता रहा है. शिक्षा का अधिकार कानून के तहत 35 विद्यार्थियों पर 1 अध्यापक होना आवश्यक है पर अभी 48 विद्यार्थियों पर 1 शिक्षक है. उस के बाद भी ज्यादातर शिक्षकों को ही ‘मिड डे मील’ योजना में लगा दिया गया है. ऐसे में काफी शिक्षक रसोइया बन कर रह गए हैं.

पटना के ही एक सरकारी स्कूल के शिक्षक कहते हैं कि सरकारी स्कूल में शिक्षा के स्तर को गाली देना एक फैशन सा बन गया है. राज्य में शिक्षकों को कभी जनगणना, कभी वोटर आईडी, कभी पल्स पोलियो मुहिम तो कभी बच्चों को दोपहर का खाना खिलाने के काम में लगा दिया जाता है. ऐसे में शिक्षक क्या और कब पढ़ाए? विद्यार्थी ऐसे में क्या खाक पढ़ेंगे? जब स्कूलों में पूरे सिलेबस की पढ़ाई ही नहीं हुई तो बच्चे क्या करेंगे? उन्हें और उन के गार्जियन किसी भी तरह से अपने बच्चों को पास कराने और बढि़या अंक दिलाने की जुगाड़ में लग जाते हैं, क्योंकि अंकों के आधार पर ही कालेजों में दाखिले मिलते हैं.

परीक्षा शुरू होने के पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा था कि कदाचार को किसी भी हाल में बरदाश्त नहीं किया जाएगा. इस के बाद भी 17 मार्च से ले कर 24 मार्च तक चली मैट्रिक की परीक्षा में कदाचार के अजीबोगरीब नमूने देखने को मिले. वैशाली जिले के महनार प्रखंड के सरकारी स्कूल भवन की खिड़कियों, छज्जों और पाइपों के सहारे लटके नकल करवाने वालों की जांबाजी को समूची दुनिया ने देखा और मजाक उड़ाया, पर सूबे के मुख्यमंत्री, मंत्री से ले कर अधिकारी यही राग अलापते रहे कि कदाचार को बरदाश्त नहीं किया जाएगा. बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के आंकड़ों के मुताबिक, 8 दिनों तक चली परीक्षा में कुल 1,828 विद्यार्थियों को नकल करने के जुर्म में सजा दी गई. कदाचार फैलाने के आरोप में करीब 200 अभिभावकों से जुर्माना वसूला गया.

मैट्रिक की परीक्षा में नकल को ले कर देशभर में हुई बिहार की छीछालेदर के मसले पर सफाई देते हुए बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के अध्यक्ष लालकेश्वर सिंह कहते हैं कि सभी जिलों के डीएम और एसपी को कदाचार को रोकने और उसे बढ़ावा देने वालों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करने का निर्देश दिया गया था. परीक्षा सैंटर की सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम करना प्रशासन की जिम्मेदारी है.

जिम्मेदार कौन?

पटना विश्वविद्यालय के प्रोफैसर पी के पोद्दार का मानना है कि आज के दौर में पढ़ाई के गिरते स्तर के लिए बच्चे, गार्जियन और सरकार सभी जिम्मेदार हैं. सरकारी नौकरियों में पंचायत, प्रखंड से ले कर जिला स्तर तक की बहाली के लिए मार्क्स को ही आधार बनाया जाता रहा है. आज से 10-15 साल पहले तक परीक्षाओं में चोरीछिपे ही नकल चलती थी, पर आज तो बच्चे डंके की चोट पर नकल कर रहे हैं. इस से ज्यादा गंभीर बात यह है कि बच्चों के अभिभावक भी अब उन का साथ देने लगे हैं. अब ऐसी परीक्षा का क्या फायदा? केवल डिगरी पाने के लिए परीक्षा हो रही है? नकल करने वाले बच्चे कल डाक्टर, इंजीनियर, वकील, अफसर और क्लर्क बनेंगे तो किस तरह से वे अपनी जवाबदेही को पूरा करेेंगे?

निरंकुश धर्म

धर्म का अर्थ अंधभक्ति. अंधभक्ति से अगर कू्ररता, आतंक, मारपीट, हिंसा, हत्या, आगजनी, औरतों का बलात्कार होता हो तो धर्म माफ करता है सिवा धर्म के सहीगलत उपदेशों के विरोध के. धर्म के नाम का महल केवल जोरजबरदस्ती पर टिका है जो बहुत चतुराई से लोगों के दिमाग की सफाई कर पैदा किया जाता है, भक्तों के पैदा होने से ले कर मरने तक की दिमाग सफाई. तभी अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में एक अर्धविक्षिप्त मगर शिक्षित औरत को सरेआम सड़कों पर पीटपीट कर भीड़ द्वारा मार डाला गया कि उस ने कुरान को जला डाला था. वैसे यह घटना अद्भुत नहीं क्योंकि हर धर्म यही करता है और अपने भक्तों में से बाहर जाने वाले या अपने आलोचकों को ज्यादा धमकाता है बजाय विधर्मियों के.

इस बार नया यह हुआ है कि तालिबानियों के साए में पलने वाले अफगानिस्तानी समाज ने इस औरत के पक्ष में आवाज उठाई है और उन लोगों को गिरफ्तार करने की मांग की जिन्होंने सरेआम पीटपीट कर पुलिस के सामने उस औरत को मारा. उस औरत के जनाजे में सैकड़ों औरतों ने सम्मिलित हो कर संदेश दिया है कि धर्म के खिलाफ भी आवाज उठाई जा सकती है. अफगानिस्तानी सरकार औरतों को मारने वालों पर कोई कार्यवाही करेगी, इस में संदेह है. जब भारत जैसे संविधान से चलने वाले, गैर धार्मिक देश में धर्म की पोल खोलने वालों को सरकारी संरक्षण नहीं, सरकारी आतंक का सामना करना पड़ता है तो अफगानिस्तान तो तालिबानियों का गढ़ है.

धर्मग्रंथ, देवीदेवता, धर्म के उसूलों पर सच बोलने वालों के लिए धर्मचालित शासक अपनी पूरी ताकत लगा देते हैं ताकि इस बहाने शासकों के खिलाफ बोलने वालों को भी डरायाधमकाया जा सके. धर्म के प्रचारकों को संरक्षण देना सरकार, उद्योगपतियों, व्यापारियों, चालबाजों के लिए बहुत लाभदायक रहता है. उस अफगानी औरत की क्या मजाल कि वह धर्म की प्रतीक कुरान का अपमान करे जिस की करोड़ों प्रतियां छप चुकी हैं और करोड़ों ही धूप, पानी, दीमक, सील आदि से स्वत: नष्ट होती रहती हैं. प्रकृति के खिलाफ तो धर्म के ठेकेदार कुछ कर नहीं पाते, सो वे आम आदमी को अकसर लपेटे में ले लेते हैं.

पाक से गिड़गिड़ाहट कैसी

जम्मूकश्मीर के मुख्यमंत्री ने पुलिस और सेना पर आतंकवादियों के हमले को ले कर पाक से कहा है कि वह आतंकवाद रोके. नई सरकार की यह पेशकश समझ से परे है. जब देश की लाखों की पुलिस और फौज कश्मीर की रक्षा के लिए तैनात है फिर आतंकवादियों की हिम्मत कैसे हुई कि वे पाकिस्तान से भारत घुस आए और हमला कर डाला. और अगर हमला कर डाला तो फिर पाकिस्तान से गिड़गिड़ाने का क्या लाभ? अगर पाकिस्तान सरकार, सेना या वहां पनप रहे आतंकवादी प्रशिक्षण केंद्र जानबूझ कर कश्मीर में अलगाववाद की आग जलती रहने देना चाहते हैं तो क्या राजनाथ सिंह की आपत्ति और मुफ्ती मोहम्मद सईद की गिड़गिड़ाहट से वे चुप हो जाएंगे?

कश्मीर भारत के गले में फांस तो बना रहेगा, यह मान कर चलना पड़ेगा. जब तक देश का समाज धर्म के नाम पर बंटा रहेगा, कोई वजह नहीं कि मुसलिम बहुल कश्मीर के लोगों में कुछ ऐसे न हों जो आजाद कश्मीर या पाकिस्तान में मिलने के सपने न देखते हों. जब देश के बाकी हिस्सों में मंचों पर भगवाई लोग खुलेआम हिंदू भारत और संतों, शंकराचार्यों के निर्देशों पर चलने वाली सरकारों की बात करते हैं तो कश्मीर कैसे अछूता रह सकता है. वहां के धर्म के अनुसार, कट्टरपंथी अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए बेचैनी पैदा करेंगे और स्थानीय या बाहरी आतंकवादी इस का लाभ उठाएंगे ही.

हां, इतना आश्चर्य जरूर है कि आखिर ये कट्टरवादी आतंकी आत्मघात के लिए तैयार युवाओं को भारत में लगातार कैसे भेज पा रहे हैं और 2 दिनों में 2-2 के गुट में उन्होंने भारीभरकम फौजी कैंपों पर हमले ही नहीं किए, घंटों तक फौज को परेशान भी रखा.

यह है काला ताजमहल

विश्व आश्चर्य ताजमहल जिसे मुगल शहंशाह शाहजहां ने अपनी बेगम मुमताज महल की याद में श्वेत संगमरमर से आगरा में बनवाया था, वहीं, शाहजहां यमुना के उस पार मेहताब बाग में अपने लिए एक काला ताजमहल बनवाना चाहता था. शाहजहां का ख्वाब, आगरा में 14 फरवरी, 2015 को विश्व के सुप्रतिष्ठित रेत कलाकार ओडिशा के पद्मश्री सुदर्शन पटनायक ने पूरा कर के दिखा दिया. ताजमहल के पूर्वी गेट से मात्र 500 मीटर दूर विकसित ताज नेचर वाक के एक टीले पर सुदर्शन ने इस ख्वाब को मूर्त रूप दिया. ताज नेचर वाक खुद में एक खुशनुमा क्षेत्र है जहां 9 टीलों से ताज की खूबसूरती अलगअलग रंगों में नजर आती है. 1998 में विकसित यह हरित पट्टी क्षेत्र 46 किस्म के 69 रंगों के फूलों का धरती पर बिखरा एक ऐसा गुलदस्ता है जहां प्रकृति हर मौसम में गुलजार रहती है. ताज के सामने यमुना और ओडिशा के सागर तट की रेत से बनाया गया यह काला ताजमहल अपने शिल्प एवं बारीकियों की दृष्टि से किसी भी तरह शाहजहां के ताजमहल से उन्नीस नहीं लगता.240 फुट ऊंचे शाहजहां के ताज को बनवाने में जहां 2,200 कारीगरों ने 20 वर्षों का समय लिया था वहीं सुदर्शन का 15 फुट ऊंचा काला ताजमहल 22 कारीगरों की सहायता से मात्र 1 सप्ताह में ही तैयार हो गया.

पर्यटन के अनूठे ठौर

जिंदगी चलते रहने का नाम है, जो रुक गई वो जिंदगी कहां. इसी फलसफे पर चलती दुनिया सैरसपाटे को जिंदगी में हर्षाेल्लास और नवऊर्जा संचारित करने का जरिया मानती है. इन छुट्टियों में आप भी मजा लीजिए पर्यटन के नए व अनोखे ठौरठिकानों का, जिन में रोमांटिक डैस्टिनेशन, वाइल्ड लाइफ एडवैंचर, साउथ इंडियन हरियाली के साथ विदेश के रंगीन नजारे भी हैं.

फ़िल्मी जगत

टीवी वाला थप्पड़

चुइंगम की तरह खींचे जा रहे धारावाहिकों में सासबहू और साजिश के दौरान बनावटी थप्पड़ों की गूंज तो आप ने कई बार सुनी होगी लेकिन सीरियल के सैट पर कलाकार अपनी खुन्नस निकालने के लिए सहयोगी कलाकार को तमाचे रसीदने लगे तो थोड़ा अजीब सा लगता है. मामला भले ही अजीब लगे लेकिन टीवी धारावाहिक ‘दीया और बाती हम’ की अभिनेत्री दीपिका यानी संध्या ने अपने कोऐक्टर अनस यानी सूरज को पूरी यूनिट के सामने तमाचा जड़ दिया. चूंकि दोनों के बीच मनमुटाव चल रहा था. लिहाजा, इसे उसी का नतीजा माना जा रहा है जबकि संध्या के मुताबिक, सूरज ने उन्हें गलत तरीके से छुआ, सो उन्हें थप्पड़ मिला. बहरहाल, आपसी संबंधों की कड़वाहट को यों सरेआम इस तरह इजहार करना तर्कसंगत कतई नहीं कहा जा सकता.

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टूरिज्म का फिल्मी बाजार

आमिर खान का इंडियन टूरिज्म कैंपेन ‘अतिथि देवो भव:’ काफी चर्चित हुआ था. अमिताभ बच्चन तो बाकायदा गुजरात राज्य के पर्यटन ब्रैंड ऐंबैसेडर भी बने. अब अभिनेता सैफ अली खान भी टूरिज्म को बढ़ावा देते नजर आएंगे. यह बात अलग है कि छोटे नवाब भारतीय पर्यटन का प्रचार नहीं बल्कि इंगलैंड नैशनल टूरिज्म से जुड़े हैं और उन्हें इंगलैंड नैशनल टूरिज्म एजेंसी ने अपना ब्रैंड ऐंबैसेडर नियुक्त किया है. सैफ विजिट ब्रिटेन का प्रचार करेंगे और बौलीवुड ब्रिटेन कैंपेन चलाएंगे. एजेंसी को उम्मीद है इस से ज्यादा भारतीय पर्यटक इंगलैंड आएंगे वैसे, पर्यटकों का तो पता नहीं लेकिन इतना तो तय है कि फिल्म स्टार्स ऐसे कैंपेन की बदौलत फिल्मों से ज्यादा कमाई कर डालते हैं.

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गोरेपन का हौवा

टीवी पर आने वाले हर दूसरे, तीसरे विज्ञापन में महिलाओं को गोरा करने वाली फैयरनैस क्रीम का प्रचार किया जाना आम बात है. और तो और, अब मरदों वाली क्रीम के विज्ञापन में पुरुषों को भी गोरा बनाने के लुभावने औफर्स दिए जा रहे हैं.फिल्म क्वीन और 5 शौकीन्स से चर्चा में आईं अभिनेत्री लीना हेडन इस विचार के खिलाफ हैं. चूकि वे खुद सांवली हैं लिहाजा गोरेपन को ले कर महिलाओं के पूर्वाग्रह से वाकिफ हैं. लीजा के मुताबिक, महिलाओं को गोरे रंग का हौवा नहीं बनाना चाहिए. वे अपनी पढ़ाईलिखाई, कैरियर और अंदरूनी अच्छाइयों को निखारें तो गोरेपन की अनिवार्यता ही नहीं रहेगी. सुनने में ये बातें जरूर शिक्षाप्रद लग सकती हैं लेकिन सच यह भी है कि फिल्मों में ही सांवली रंगत की हीरोइनों को मुश्किलें पेश आती हैं, ऐसे में सामान्य जीवन में इस हौवे से बचना मुश्किल ही लगता है.

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बैन की सनक

निर्भया कांड पर बनी डौक्यूमैंट्री फिल्म को बैन करने के फैसले पर फजीहत झेल रही सरकार से लगता है सैंसर बोर्ड कोई खास सबक नहीं ले रहा. शायद इसीलिए ‘बदलापुर’, ‘एनएच 10’ और ‘दम लगा के हईशा’ के कई संवादों पर कैंची चलाने के बाद सैंसर बोर्ड ने अब एक हौलीवुड फिल्म गेट हार्ड को एडल्ट कंटेंट के चलते भारत में बैन करने की भूमिका बना दी है. हालांकि खबर यह भी है कि सैंसर बोर्ड से परेशान निर्माता ने खुद ही फिल्म को रिलीज न करने का फैसला किया. वहीं, बोर्ड फिल्म को इंटरनैट पर रिलीज करने से भला कैसे रोकेगा, कहीं इंडियाज डौटर जैसा मामला न हो जाए.

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गीता कपूर फंसी

हाल में शाहरुख खान के घर के बाहर बने अवैध चबूतरे को ले कर देशव्यापी हल्ला हुआ. हालांकि ऐसे अवैध निर्माण हर दूसरी गली या महल्ले में आम हैं. शायद फिल्मी सितारा होना मामले को तूल मिलने की बड़ी वजह है. कोरियोग्राफर गीता कपूर को 12 मार्च की सुबह पुलिस ने हिरासत में ले लिया. दरअसल, मुंबई के ओशीवाड़ा इलाके में गीता की कार से एक बाइक सवार टकरा गया. बताते हैं कि उस शख्स के पैर में फ्रैक्चर हुआ है. चूंकि कार गीता कपूर की थी सो उन से पूछताछ हो रही है.  कानून सब के लिए बराबर है और होना भी चाहिए लेकिन सैलिब्रिटीज के मामले में अकसर बातें बढ़ाचढ़ा कर गढ़ी जाने से बचना जरूरी है.

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