लगातार महंगी होती शिक्षा की समस्याओं के बीच एक विरोधाभासी तथ्य यह भी देखने को मिलता है कि हमारे देश में कई अभिभावक अपने बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए उन विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए भेजते हैं जहां पढ़ाई भारत के मुकाबले 8 से 10 गुना तक महंगी है. यह तब है जब देश में मेक इन इंडिया जैसे महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रम की घोषणा हो चुकी है और हर चीज में स्वदेशी विकल्प को प्राथमिकता देने की बात कही जा रही है. इस विरोधाभासी तथ्य का खुलासा हाल में आर्थिक विश्लेषण संस्था एसोचैम ने अपने एक सर्वेक्षण के आधार पर किया है.  

टाटा इंस्टिट्यूट औफ सोशल साइंसेज के साथ मिल कर किए गए सर्वेक्षण के आधार पर एसोचैम ने ‘रीअलाइनिंग स्किलिंग टुवर्ड्स मेक इन इंडिया’ नामक एक रिपोर्ट तैयार की है. रिपोर्ट में बताया गया है कि भारतीय अभिभावक हर साल अपने बच्चों को शिक्षा के लिए विदेश भेजने पर 6 से 7 अरब डौलर की भारीभरकम रकम खर्च करते हैं. ऐसा करने वालों में सिर्फ अमीर, नेता व अभिनेता ही आगे नहीं हैं बल्कि मिडिल क्लास के लोग भी बैंक से कर्ज ले कर अपने बच्चों को ऊंची डिगरियों के लिए विदेश भेज रहे हैं. देश के भीतर ही शिक्षा के देसी और सस्ते विकल्प होने के बावजूद वे ऐसा क्यों करते हैं, यह तो शोध का विषय है लेकिन इस के साथ ही यह जानना भी जरूरी है कि आखिर विदेशी शिक्षा में ऐसा कौन सा आकर्षण है जो भारत व चीन समेत कई और मुल्कों के छात्रों को अपनी ओर खींचती है और लोगबाग इस के लिए लाखों का कर्ज लेने में भी नहीं हिचकते.  

विदेशी शिक्षा महंगी है और उस के मुकाबले देसी शिक्षा बेहद सस्ती, यह बात पिछले साल एक अंतर्राष्ट्रीय बैंक एचएसबीसी द्वारा कराए गए सर्वेक्षण ‘द वैल्यू औफ एजुकेशन : स्ंिप्रगबोर्ड फौर सक्सैस’ से साबित हुई थी. इस सर्वेक्षण में पता चला था कि अंडरग्रेजुएट कोर्स के लिए भारत में बाहर से पढ़ने आए छात्र की यूनिवर्सिटी फीस और रहनेखाने का सालाना औसत खर्च 5,643 डौलर है जिस में से महज 581 डौलर फीस के रूप में चुकाए जाते हैं. इस के विपरीत, आस्ट्रेलिया में यह खर्च 42,093 डौलर, सिंगापुर में 39,229 डौलर, अमेरिका में 36,565 डौलर और ब्रिटेन में 35,045 डौलर सालाना होता है. 15 देशों में 4,500 अभिभावकों पर किए गए सर्वेक्षण में यह बात भी निकल कर सामने आई थी कि भारत में भले ही सब से सस्ती उच्च शिक्षा मिल रही हो, लेकिन 62 प्रतिशत भारतीय पेरैंट्स अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने के उद्देश्य से आस्ट्रेलिया, सिंगापुर और अमेरिका भेजने को अहमियत देते हैं. वे ऐसा क्यों करते हैं, इस का एक जवाब ब्रिटिश कंपनी क्यूएस यानी क्वैक्यूरैली साइमंड्स लिमिटेड द्वारा प्रकाशित की गई वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग से मिल जाता है जिस में पहले 200 विश्वविद्यालयों में से एक भी भारतीय नहीं है. इस लिस्ट में आईआईटी मुंबई का स्थान 222वां था जबकि आईआईटी दिल्ली 235वें नंबर पर आया. प्रतिष्ठित दिल्ली विश्वविद्यालय को अध्ययनअध्यापन के मामले में 420-430वें स्थान के बीच में रखा गया. इस सूची में पहले 10 स्थानों पर अमेरिकी और ब्रिटिश विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थानों का कब्जा बताया गया था, जिस में अमेरिका का मैसाच्युसेट्स इंस्टिट्यूट औफ टैक्नोलौजी लगातार दूसरे साल पहले स्थान पर रहा था. हालांकि यह रैंकिंग जारी करने वाली कंपनी क्यूएस के रिसर्च प्रमुख बेन सौटर मानते हैं कि भारतीय विश्वविद्यालयों का स्तर उठाने के प्रयास हो रहे हैं, लेकिन फिलहाल वे नाकाफी हैं.  

देश में फिलहाल करीब 400 विश्वविद्यालय और लगभग 20 हजार उच्च शिक्षा संस्थान हैं. सैकड़ों विश्वविद्यालयों और हजारों कालेजों की उपस्थिति के बावजूद यह तथ्य हैरान करने वाला है कि इन में से कोई भी यूनिवर्सिटी उस स्तर की शिक्षा नहीं दे पा रही है जिस से कि उसे दुनिया के अव्वल 100 विश्वविद्यालयों में शामिल किया जा सके.

उल्लेखनीय है कि विदेशी यूनिवर्सिटी की उच्च क्वालिटी वाली शिक्षा पाने के लिए हर साल भारत से डेढ़ से पौने 2 लाख छात्र विदेश जाते हैं. बेहद कमजोर हो चुके रुपए के मद्देनजर यह और भी जरूरी लगने लगा है कि या तो छात्रों को देसी यूनिवर्सिटी ही कायदे की शिक्षा देने का इंतजाम करे, या देश में ही विदेशी विश्वविद्यालयों के कैंपस खुलें जिन के जरिए विदेशी डिगरी पाने का सपना थोड़ा सस्ते में पूरा हो सके. जब देश में ही विदेशी कैंपस मौजूद रहेंगे तो इस से विदेशी शिक्षा पर किए जाने वाले खर्च में कटौती से ले कर वे सारे फायदे हो सकेंगे जिन के लिए विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत लाने की वकालत होती रही है.

हाल के वर्षों में खासतौर से आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों के साथ पेश आए नस्लीय हादसों के मद्देनजर भी यह एक बड़ी राहत होगी क्योंकि तब विदेशी डिगरी के लिए बाहर जाने की जरूरत खत्म हो जाएगी. इस से उच्च शिक्षा के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा बढ़ने की भी संभावना है. शिक्षा से ले कर इन्फ्रास्ट्रक्चर आदि के मामलों में उन से होड़ लेने की कोशिश करें. अगर ऐसा हो सका तो निश्चय ही इस से देश में उच्च शिक्षा का माहौल काफी सुधरेगा.  

वहीं विदेशी विश्वविद्यालयों का रुख करने और उन्हें अपने देश में अपना कैंपस खोलने को आमंत्रित करने से पहले यह देखना भी जरूरी है कि आखिर विदेशी शिक्षा में ऐसा क्या है, जो दुनियाभर के छात्र अमेरिका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया की ओर खिंचे चले जाते हैं और जिस के बल पर वहां एक शानदार एजुकेशन इंडस्ट्री बन गई है. इस का एक उदाहरण अमेरिकी शिक्षा व्यवस्था से लिया जा सकता है.

अमेरिका में कानून और चिकित्सा दो ऐसे पेशे हैं जिन में भरपूर कमाई की संभावना होती है. वहां कानून की मुकम्मल पढ़ाई में 7 से 8 साल लग जाते हैं और मैडिकल की पढ़ाई कर डाक्टर बनने के लिए 11 साल लगते हैं. इस में भारतीय मुद्रा के हिसाब से एक से डेढ़ करोड़ रुपए का खर्च होता है. इन दोनों पाठ्यक्रमों के लिए येल, हार्वर्ड और स्टैनफोर्ड की गणना सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में होती है. लेकिन इतनी महंगी शिक्षा के बावजूद वहां ऐसा नहीं है कि अभिभावक अपने बेटे या बेटी को मैडिकल या एमआईटी से ग्रेजुएशन कराने के लिए अपना घरबार अथवा कारोबार दांव पर लगा दें यानी उन्हें रेहन पर रख कर बैंकों से कर्ज लें. दरअसल, शिक्षा के लिए वहां छात्रों को ही आसानी से कम ब्याज दरों पर कर्ज मिल जाता है. वे अपनी शिक्षा पर हुए कर्ज को नौकरी मिलने के बाद चुकाते हैं. मैडिकल और कानून की डिगरियों के अलावा वहां ऐसी अनगिनत डिगरियां और पाठ्यक्रम हैं जिन के जरिए एक अच्छा रोजगार पाया जा सकता है.  

लेकिन वहां बात सिर्फ उच्च शिक्षा की, क्वालिटी की नहीं होती है. अमेरिका में बच्चों की स्कूली शिक्षा की नींव को भी काफी मजबूत बनाया जाता है. प्राइमरी से ले कर हाईस्कूल तक की शिक्षा मुफ्त होती है. इन काउंटी यानी सरकारी स्कूलों के साथसाथ वहां भी प्राइवेट स्कूल हैं जो अपेक्षाकृत महंगे होते हैं. लेकिन यह जरूरी नहीं है कि काउंटी यानी सरकारी स्कूलों से निकला बच्चा प्राइवेट स्कूल के बच्चे से किसी मामले में उन्नीस साबित हो. इस के आगे वहां कालेज स्तर की जो शिक्षा है वह भारतीय उच्च शिक्षा से इस मामले में अलग है कि वहां उच्च शिक्षा पाठ्यक्रम का मूल उद्देश्य पूरी तरह व्यावसायिक होता है. वहां औनलाइन गाइडैंस के लिए भी अनेक कंपनियां हैं जो किसी पाठ्यक्रम के महत्त्व और रोजगार की स्थिति का आकलन करती हैं.

अमेरिका, सिंगापुर और आस्ट्रेलिया में उच्च शिक्षा एक उद्योग का रूप ले चुकी है. चीन और भारत से करीब 4-5 लाख युवा हर साल वहां उच्च शिक्षा के लिए पहुंचते हैं. दूसरे देशों से भी बड़ी तादाद में स्टूडैंट्स वहां हर साल जाते हैं. इस से अकेले अमेरिका को ही सालाना 25-30 अरब डौलर की कमाई हो जाती है. इस के उलट, भारत में सरकारी मदद के भरोसे चल रहे आईआईटी अथवा आईआईएम या मैडिकल कालेज ढांचागत सुविधाओं में अपेक्षित सुधार करने के बजाय न्यूनतम सुविधाओं और सामान्य वेतनमान पर न्यूनतम फैकल्टी से काम चलाने में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं.

अमेरिकी शिक्षा के उदाहरण को ही एक मानक के तौर से लिया जाए, तो साफ हो जाता है कि इस तरह की शिक्षा की भारत में कितनी अधिक जरूरत है. यह भी साफ है कि ग्लोबल इकोनौमी में एक बड़े मुकाम की तरफ बढ़ रहा देश उच्च शिक्षा के मामले में खिड़कीदरवाजे बंद कर के नहीं बैठ सकता. आईटी, मैडिकल और इंजीनियरिंग के क्षेत्र की ग्लोबल चुनौतियों के हिसाब से अपने छात्रों को तैयार करने में विदेशी संस्थानों के देश में स्थित कैंपस काफी मददगार हो सकते हैं. लेकिन इन के लिए ऐसे कायदेकानून जरूर बनाने होंगे जिन से विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत में कायम किए जाने वाले कैंपसों के कामकाज की लगातार निगरानी हो सके और वे हमारे छात्रों का आर्थिक शोषण न कर सकें.  द्य

मसला विदेशी रैंकिंग का

देसी विश्वविद्यालयों की विदेशी शैक्षणिक रैंकिंग एजेंसियों द्वारा जारी की जाने वाली रैंकिंग से यह अंदाजा मिलता है कि अलगअलग मानकों पर शिक्षा के मामले में हम विदेशी संस्थानों से काफी पीछे हैं. लेकिन यह तसवीर इतनी निराशाजनक नहीं है कि लोग अपने बच्चों को कर्ज ले कर विदेशों में भेजें. यदि बात तकनीकी शिक्षा की हो, तो आजादी के बाद इस में उल्लेखनीय तरक्की हुई है. फिलहाल देश में विश्वस्तरीय इंडियन इंस्टिट्यूट औफ टेक्नोलौजी यानी आईआईटी के 17 संस्थान और इंडियन इंस्टिट्यूट औफ मैनेजमैंट यानी आईआईएम के 13 संस्थान हैं. इसी तरह पिछले 25 वर्षों में उच्च शिक्षण संस्थानों में दाखिले में 250 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. देश के इंजीनियरिंग कालेजों में दाखिलों की संख्या अमेरिका और चीन दोनों के कुल दाखिलों से भी ज्यादा है. इस बारे में तकनीकी शिक्षा की नियामक संस्था औल इंडिया काउंसिल फौर टैक्निकल एजुकेशन यानी एआईसीटीई का आंकड़ा यह है कि 2006 में भारत में 1,268 इंजीनियरिंग कालेज थे, जिन की संख्या बढ़ कर वर्ष 2012 तक 3,346 पहुंच गई.

समस्या असल में दूसरी है. वह यह है कि आज भी देश के इंजीनियरिंग कालेजों से निकलने वाले सभी स्नातकों को रोजगार नहीं मिल पाता है. इस के अलावा जब बात ग्लोबल नौकरियों की आती है तो शिक्षा प्रणाली में बरती जा रही लापरवाही और खामियों के चलते हमारे ज्यादातर छात्र वैश्विक पैमाने पर खरे नहीं उतरते हैं. स्थिति तो यह है कि देश में ही प्रोफैशनल डिगरी रखने वालों में से 40 फीसदी से ज्यादा को किसी नौकरी के लायक नहीं माना जाता. इस तरह स्थिति पढ़लिख कर बेरोजगार वाली बनती है और इसीलिए देश में शिक्षित बेरोजगारों की संख्या लाखोंकरोड़ों में जा पहुंची है. यही वह बिंदु है जहां पर ठहर कर विदेशी विश्वविद्यालयों के मानकों के बारे में विचार करना चाहिए.

यहां उल्लेखनीय यह है कि जब यही भारतीय छात्र विदेश में डिगरी ले कर नौकरी पाने निकलते हैं तो उन के रोजगार की दर काफी ज्यादा होती है. वहां उन के कौशल का लोहा माना जाता है. दुनियाभर के आईटी संस्थानों में भारतीय प्रतिभा तो चमक ही रही है, साथ में अमेरिका जैसे देश के कुल डाक्टरों में से 40 फीसदी से ज्यादा भारतीय हैं.

यह भी गौरतलब है कि हमारे देश में कालेजों और विश्वविद्यालयों की रैंकिंग की कोई देसी व्यवस्था नहीं है. ज्यादातर विश्वविद्यालय स्वायत्त रूप से अपनी प्रतिष्ठा बनाते हैं और इस के लिए विदेशी रैंकिंग को मानक बता कर अपना प्रचारप्रसार करते हैं.

हम फिसड्डी क्यों?

देश में उच्च शिक्षा का स्तर इतना डांवांडोल क्यों है, इस की कई मिसालें समयसमय पर मिलती रही हैं. नकल से परीक्षा पास करने और पेपरलीक की घटनाओं ने इस पर सवालिया निशान लगाए ही हैं, साथ में परीक्षा प्रणाली की खामियां भी उजागर की हैं. ऊंची डिगरियां देने वाले शिक्षण संस्थानों में छात्रों की योग्यता के मूल्यांकन की व्यवस्था में भीषण गड़बड़ी का एक उदाहरण इसी साल फरवरी में उत्तर प्रदेश टैक्निकल यूनिवर्सिटी यानी यूजीटीयू के बीटेक के 5वें सैमेस्टर की परीक्षा के संबंध में मिला था.

जब तकनीकी शिक्षा के मामले में देश में इतनी लापरवाही है तो अन्य धाराओं की पढ़ाई में हो रहे गोलमाल के बारे में कुछ कहनासोचना व्यर्थ ही लगता है. शिक्षा को ले कर उपेक्षा और लापरवाही का यह अकेला मामला नहीं है और न ही यह सिर्फ उत्तर प्रदेश तक सीमित है. बिहार में नकल के हादसे और मध्य प्रदेश में हुए व्यापमं जैसे घोटाले, जिस में राज्यपाल से ले कर मुख्यमंत्री तक आरोपों की जद में हों और जिस में फंसे राज्यपाल के पुत्र की संदिग्ध मृत्यु हो चुकी है, इन्हें देख कर कोई भी देश के शिक्षा तंत्र में हुई आपराधिक घुसपैठों का अंदाजा लगा सकता है.

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