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ये पति

मेरे पति रसोई के काम में एकदम अनाड़ी हैं. एक बार घर में एक आयोजन था. सारा खाना तैयार हो चुका था पर हलवे के लिए सूजी भूनते समय मुझे अचानक चक्कर आ गया. मैं ने अधभुनी सूजी छोड़, गैस बंद कर दी और कमरे में आ गई. पति से कहा, ‘मेरी तबीयत खराब हो गई है, आप सिर्फ हलवा बना दीजिए.’ मैं ने उन्हें तरीका समझा दिया. थोड़ी देर बाद रसोई में गई तो हलवे की शक्ल कुछ अजीब थी, देखने में कच्चाकच्चा लग रहा था. पति से पूछा तो पता चला, उन्होंने गैस जलाई ही नहीं थी. उलटा मुझ से उलझ पड़े कि तुम्हें बताना चाहिए था कि गैस भी जलानी है.’’

प्रीति अग्रवाल, टैगोर गार्डन (न.दि.)

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शादी के तुरंत बाद मैं और मेरे पति ट्रेन से दिल्ली जा रहे थे. मैं उदास थी. एक परिवार से बिछड़ने का गम तो था ही, साथ ही पति भी थोड़े गंभीर स्वभाव के थे. कुछ देर बाद इन्होंने 2 कप चाय खरीदी, परंतु इन के पास खुल्ले पैसे नहीं थे. मैं ने अपनी चाय नीचे रखी और अपने बैग से पैसे निकाल कर दे दिए. इस दौरान ये मेरी चाय पीने लगे. मैं ने कहा, ‘‘यह क्या, आप ने मेरी चाय पी ली. यह तो जूठी थी.’’

तब मेरे पति ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘वही तो मैं सोचूं, चाय इतनी मीठी क्यों है?’’ पति के मुंह से इतनी मीठी बातें सुन कर मेरी उदासी काफूर हो गई और मैं रोमांचित हो गई.

सुधा विजय, मदनगीर (न.दि.)

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मेरे पति भुलक्कड़ किस्म के हैं. किसी का जन्मदिन, शादी की सालगिरह वगैरह कुछ याद नहीं रहता. मेरा जन्मदिन आया. पति को हमेशा की तरह याद नहीं था. औफिस जाते समय मैं ने ही याद दिलाया और हिदायत दी कि शाम को कुछ तो लाना मेरे लिए.

‘‘अच्छा बाबा, ले आऊंगा,’’ कहते हुए ये चले गए.

जब शाम को लौट कर आए तो मैं ने दरवाजे से ही पूछा, ‘‘पहले बताओ कुछ लाए हो?’’ वे बोले, ‘‘हां भई, लाया हूं. बाबा, दरवाजा तो खोलो.’’

मैं ने खुशीखुशी दरवाजा खोला, उन्हें पानी ला कर दिया और उन के पास ही खड़ी हो गई. आहिस्ता से उन्होंने अपना ब्रीफकेस खोला, उस में से 2 थैले निकाले और बोले, ‘‘देखो मैडम, आलूप्याज हैं, जल्दी से गरमगरम पकौड़े बनाओ. चटपटे पकौड़े बनाना, मजे से खा कर तुम्हारा जन्मदिन मनाएंगे.’’

आशा भटनागर, कल्याण (महा.)

जीवन की मुसकान

मेरी मौसीजी, जो लखनऊ में रहती हैं, पहली बार दिल्ली गईं. उन्होंने मैट्रो ट्रेन के बारे में बहुत सुन रखा था. उन्होंने मैट्रो में घूमने की इच्छा जाहिर की तो हम ने मैट्रो से ही घूमने का प्रोग्राम बनाया. हम 7-8 लोग थे. सभी एक मैट्रो स्टेशन पहुंचे. मौसीजी मैट्रो स्टेशन पर सारी सुविधाएं देखने लगीं. उन्होंने सोचा था कि अन्य रेलवे स्टेशनों की तरह यहां भी ट्रेन के आने की घोषणा की जाएगी. प्लेटफौर् पर जैसे ही ट्रेन आई हम सब तो जल्दी से चढ़ गए पर आपस में बातें करते हुए किसी का ध्यान मौसीजी की तरफ नहीं गया. उधर मौसीजी भी अपनेआप में ही खोई थीं. जब तक उन्होंने देखा तब तक मैट्रो के गेट बंद हो गए और वे व उन का 6 साल का बेटा वहीं खड़े रह गए.

वह तो एक मैट्रो अधिकारी ने उन की परेशानी जान ली और हम लोगों को फोन कर के दूसरे स्टेशन पर उतरने को कहा. मौसीजी का मोबाइल हम लोगों के पास था. वे सज्जन खुद मौसीजी को दूसरे स्टेशन तक छोड़ने आए. हमें दिल्ली मैट्रो के स्टाफ की ऐसी मदद करने की तत्परता देख कर बहुत खुशी हुई. उस अधिकारी ने रास्ते भर मौसीजी को मैट्रो में चढ़ने व उतरने के बारे में समझाया. हम ने उन्हें दिल से धन्यवाद दिया.   

मीरा शर्मा, झांसी (उ.प्र.)

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बात दिसंबर 1991 की है. उस समय आगरा में चारों ओर दंगा फैला हुआ था, जिस के कारण शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया था. सड़कों पर वाहन देखते ही दंगाई हमला करने को दौड़ पड़ते. मेरी भाभी उस समय गर्भवती थीं. भय और चिंता के कारण अचानक उन की तबीयत खराब होने लगी और उन्हें प्रसव पीड़ा शुरू हो गई. लिहाजा, उन्हें तत्काल अस्पताल पहुंचाने का प्रबंध करना पड़ा. कर्फ्यू के कारण कोई भी टैक्सी ड्राइवर कहीं भी जाने को तैयार नहीं हो रहा था. तभी मैं ने एक उम्रदराज सरदार ड्राइवर को अपनी परेशानी से अवगत कराया तो वे सहर्ष भाभी को अस्पताल ले जाने के लिए तैयार हो गए.

वे जानते थे कि उन की जान खतरे में पड़ सकती है, इस के बावजूद उन्होंने हमें अस्पताल पहुंचाया. अस्पताल पहुंचते ही भाभी को लेबररूम में पहुंचाया गया जहां उन्हें स्वस्थ पुत्र की प्राप्ति हुई. इतने सालों के बाद भी जब अपने भतीजे को देखती हूं तो बरबस उन सरदारजी की छवि आंखों में घूम जाती है और मेरा सिर उन के सम्मान में श्रद्धा से झुक जाता है.   

मधु ओझा, कोलकाता (प.बं.)

इन्हें भी आजमाइए

इंटरव्यू के वक्त इंटरव्यू लेने वाले को यह दिखाना चाहिए कि आप के पास इंटरव्यू के अलावा और कोई जरूरी काम नहीं है. इसलिए उस समय अपना मोबाइल बंद रखें और अगर इंटरव्यू के बीच में मोबाइल बजे तो तुरंत साइलैंट कर दें.

औफिस में कभी ऐसा जाहिर न करें कि आप को सारा काम आता है. हो सकता है कि आप जिस काम में घंटों से फंसे हुए हों, वही काम आप का कुलीग चुटकियों में हल कर सकता हो. औफिस में मदद मांगने के लिए हिचकिचाएं नहीं.

रियल का तेल बच्चों की मालिश करने के लिए काफी लाभकारी होता है. इस से बच्चों की त्वचा के इन्फैक्शन आदि भी सही हो जाते हैं.

गरमी में शरीर को ठंडक प्रदान करने के लिए मट्ठा पिएं. यह खांसी व सर्दी फैलाने वाले हानिकारक जीवाणुओं का भी नाश करता है.

औफिस में सारा दिन बैठ कर काम करने वाले लोग साधारण पानी के बजाय हलका गुनगुना पानी पिएं. इस से सिरदर्द, पेट की बीमारियां नहीं होंगी व पाचनतंत्र सही रहेगा और त्वचा हाइड्रेट रहेगी.

शहद ऐंटीऔक्सिडैंट और ऐंटीमाइक्रोबियल गुणों से भरा होता है. रुई के एक छोटे टुकड़े को शहद में डुबो कर मुंह में रखें. छालों से जल्दी नजात मिलेगी.

इंतजार ख्वाबों का

गाढ़ी नींद में ख्वाबों को सजाने का

होंठों की जुंबिश के राज बताने का

तुम्हारी आंखों से जिगर में समाने का

तुम्हारी आतीजाती सांसों में सिमट जाने का

मैं ने वर्षों ख्वाब नहीं देखा है

ऊंची परवाज पे आकाश में बांहें फैलाने का

तितलियां बन फूलों पे मुसकराने का

तुम्हारे नाम,

तुम्हारी कई कशमकश चुराने का

ख्वाबों में तुम्हें उठा कर हालेदिल सुनाने का

मैं ने वर्षों ख्वाब नहीं देखा है

आओ हम तपिश में छांव बछाएं

तपती धरती में हरी घास लगाएं

यहां मजलूमियत और भूख मिटाएं

नई फसलें उगा परिंदों को लाएं

मैं ने वर्षों ख्वाब नहीं देखा है

हमारी जैसी कई जगीं अलसाई रातें

सितारों को जमीं पे इशारे से बुलाई रातें

रात और सुबह की आमद कराती रातें

बोझिल पलकों पे शरमाती रातें

पलकों पे ठंडी हथेली रखने को बुलाती रातें

मैं ने वर्षों ख्वाब नहीं देखा है.

                  – डा. के पी सिंह

अमेरिका में सैकंडरी एजुकेशन विकल्पों का नया संसार`

भारत के ‘10+2’ स्कूल सिस्टम की ही तरह अमेरिका में भी 12वीं पास करने के बाद कालेज में प्रवेश का प्रबंध पक्का करना पड़ता है. साधारण गे्रड्स पाने वाले और गरीबी की सीमारेखा से ऊपर परिवारों से आने वाले स्वाभिमानी छात्र पार्टटाइम जौब कर के अपने ईबीएफ यानी एजुकेशन बैनिफिट फंड में पैसे जमा करते हैं और कालेज की पढ़ाई करने के साथसाथ काम भी जारी रखते हैं. इलैक्ट्रौनिक/डिपार्टमैंट स्टोर्स या फास्ट फूड जैसे बिजनैसेज में किशोरों के पार्टटाइम काम के घंटे निर्धारित होते हैं ताकि उन की पढ़ाई में कोई व्यवधान न पड़े.

कई बिजनैसेज कार्यस्थल पर ही किशोरों को होमवर्क और पढ़ाई के लिए कम से कम 1 घंटे का समय भी जरूर देते हैं, बिना कोई भी पैसा काटे. किशोरों के अभिभावक ऐसे बिजनैस को प्रोत्साहन देने के लिए उन के नियमित ग्राहक हो जाते हैं. गरमी की छुट्टियों में किशोर और युवा पर्यटन स्थलों में गाइड्स और वाटर पार्क्स/स्विमिंग पूल्स में लाइफ गार्ड जैसी अल्पावधि के फुलटाइम जौब्स कर के पैसे जोड़ते हैं. ऐसे बिजनैस मुख्यतया युवा छात्रों के कंधों पर और उन्हें न्यूनतम दर का वेतन दे कर भारी मुनाफे में चलते हैं.

कई युवा ओपन माइंड रख कर अमेरिकी पीस कोर, रेडक्रौस या अन्य सहायता संगठन से संबद्ध हो कर विश्वभ्रमण करने निकल पड़ते हैं, इस आशा से कि अनुभव और दृष्टिकोण का विस्तार उन के वांछित विषय और कालेज के चयन में सहायक होगा. कई तो विकासशील देशों में किसी न किसी एनजीओ के साथ लंबे अरसे तक काम करते हैं और स्वदेश लौट कर स्नातक व स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त करने के बाद वर्ल्ड बैंक में अपना कैरियर ढूंढ़ लेते हैं.

ब्लू कौलर जौब्स के विकल्प

सारे युवा डाक्टर, इंजीनियर, प्रोफैसर या एग्जीक्यूटिव बनने के इच्छुक नहीं होते. ऐसे व्हाइट कौलर जौब्स के विकल्प हैं बिल्डिंग कौंट्रैक्टर्स, इलैक्ट्रीशियंस, प्लंबर्स आदि जैसों के महत्त्वपूर्ण ब्लू कौलर जौब्स जिन में आमदनी कभीकभी व्हाइट कौलर जौब्स के समान या उन से अधिक भी होती है. हाईस्कूल के बाद ऊंची शिक्षा के प्रति उदासीन छात्रों को भी ध्यान में रख कर कैरियर काउंसलिंग की जाती है. आईवी लीग स्तर की शिक्षा के बाद कौर्पोरेट या टैक्नोलौजी क्षेत्र में अपना कैरियर बनाने का इच्छुक एक छात्र ऐसे ही काउंसलिंग सैशन से बहुत प्रभावित हुआ. वह बखूबी समझ गया कि सभी लोग यदि फैंसी व्हाइट कौलर जौब्स में जाएंगे तो ट्रेनें, बसें और मशीनें कौन चलाएगा, गाडि़यां और मकान कौन बनाएगा, उन में बिजली और प्लंबरिंग का काम कौन करेगा? समाज में इन ट्रेड्स का सम्मान भी अनिवार्य है बल्कि व्हाइट और ब्लू कौलर के बीच वर्गभेद ही नहीं, वर्गदंभ भी मिट जाना चाहिए.

बेहतर कमाई का जरिया

एक किस्सा उन गृहस्वामी का है जिन्होंने प्लंबर की वेटिंग लिस्ट में बारी आने पर उस की तगड़ी इंस्पैक्शन फी भरी. घर में प्लंबरिंग की मरम्मत मुकम्मल होने के बाद प्लंबर ने जब लंबाचौड़ा फाइनल बिल पकड़ाया तो वे दहल कर कहे बिना न रह सके कि उस के चार्जेज तो उन के डाक्टर के बिल से भी अधिक हैं. जानता हूं, प्लंबर ने बहुत सादगी से कहा, प्लंबर बनने से पहले मैं डाक्टर ही था.

हमारे पड़ोस में एक संपन्न परिवार का पुत्र माइकल पतझड़ के मौसम में वीकेंड्स पर आसपड़ोस के लौंज में सूखी पत्तियों के ढेर समेटवाने, झाड़झंखाड़ साफ करवाने में मदद करने को सदा तत्पर रहता. हाईस्कूल के बाद पढ़ाई के प्रति उदासीन रहा लेकिन लैंडस्केपिंग में माहिर होता गया. लौन में झाडि़यों की खूबसूरत कटाईछंटाई में उस का घर माइकल्स हाउस के नाम से मशहूर है. वह क्रिसमस पर अपने घर के आगे पल्लवहीन पेड़ों पर 36 हजार तक नन्हे बल्बों की सजावटी लाइटिंग कर के सराहने वालों की भीड़ जुटा चुका है. सैकंडहैंड पिकअप ट्रक और बेसिक औजार, मशीन खरीद कर उस ने बाकायदा लैंडस्केपिंग बिजनैस शुरू किया है.

रईस मातापिता की संतान की उच्चशिक्षा में कोई समस्या भले ही न हो किंतु जो युवा हाईस्कूल पास करने के बाद उच्चशिक्षा के प्रति उत्साहित ही नहीं होते, उन के लिए शिकागो और न्यूयार्क के गरीब इलाकों में बड़े बिजनैस और इंडस्ट्रीज के सहयोग से चमचमाती नई बिल्ंिडग्स में स्थापित 8 ‘स्टेम’ (एसटीइएम यानी साइंस टैक्नोलौजी इंजीनियरिंग मैथेमैटिक्स) एकैडेमीज सैकंडरी शिक्षा को नई दिशा देने के लिए उद्यत हैं. अगले 2 वर्षों के भीतर ऐसी 29 और स्टेम एकैडेमीज स्थापित किए जाने की योजना है. अन्य स्टेट्स में भी स्टेम एकैडेमीज शिक्षा के क्षेत्र में अत्यंत आशाजनक प्रयोग है जिन्हें सरकार का अनुमोदन प्राप्त है. बिना कोई प्रवेशपरीक्षा पास किए या महंगी फीस भरे इन में पढ़ने वाले छात्रों को इनोवेटर्स की संज्ञा दी जाती है क्योंकि वे केवल शिक्षा से अधिक उस प्रशिक्षण में समय निवेश करते हैं जिस में उन का निश्चित कैरियर दृष्टिगोचर होता है. हाईस्कूल के 4 वर्ष के बाद स्टेम एकैडेमी की हार्ड कोर तकनीकी शिक्षा में 2 वर्ष लगा कर हर ग्रैजुएट के पास एसोसिएट डिगरी के साथ 40 हजार डौलर प्रतिवर्ष तक की नौकरी का आश्वासन होता है. शिक्षक, शिक्षार्थी, उद्योग और सरकार के बीच तालमेल की इस नई पृष्ठभूमि पर अमेरिका में युवा बेरोजगारी का ठोस हल दृष्टिगोचर है.

शिक्षा की मार्केटिंग का नया फंडा

स्कूलों के बाहर बड़ेबड़े संस्थानों में दाखिले के लिए एंटरेंस टैस्ट देने वाले छात्रों और उन के साथ अभिभावकों की भीड़ तो आप सभी ने कई बार देखी होगी लेकिन हाल ही में देश के एक बड़े संस्थान में एंटरेंस परीक्षा के मौके पर जो देखने को मिला वह एक अलग और अनोखा अनुभव था. पत्रकार के नजरिए से जो देखा वह आप सब के साथ साझा करना चाहती हूं. स्कूल के बाहर लगी छात्रों और अभिभावकों की भीड़, सभी की आंखों में एक ही सपना था कि उच्च प्रतिष्ठित संस्थान की एंटरेंस परीक्षा में कामयाबी मिल जाए. वहां कुछ ऐसे लोग भी थे जो अभिभावकों व छात्रों के इस सपने को भुनाने की फिराक में थे.

यहां हर कोई अपनेअपने मिशन पर तैनात था. भीड़ में कुछ लोग शिक्षा की मार्केटिंग में लगे थे. दरअसल, ये लोग अपनेअपने संस्थान का विज्ञापन करने के लिए छात्रों और अभिभावकों को ब्रोशर्स व बुकलैट्स बांटने में व्यस्त थे. पहली नजर में तो माजरा कुछ खास समझ नहीं आया लेकिन जैसे ही छात्र परीक्षा देने के लिए परीक्षा हौल में चले गए और भीड़ कम हो गई तो मैं ने वहां के माहौल को समझने की कोशिश की और जल्द ही मुझे पूरा माजरा समझ में आ गया. दरअसल, ब्रोशर्स बांटते लोग कोचिंग सैंटरों, प्राइवेट शिक्षा संस्थानों के नुमाइंदे थे जो पूरे लावलश्कर के साथ अपने मिशन ‘एजुकेशन मार्केटिंग’ पर आए हुए थे. ये वौलंटियर्स अपने ब्रोशर्स के साथ लुभावने व आकर्षक विज्ञापनों के जरिए अभिभावकों को आकर्षित करने की भरपूर कोशिश में लगे थे.

शिक्षा की इस मार्केटिंग में काउंसलिंग करने वाले संस्थान, प्राइवेट शिक्षण संस्थान, कोचिंग संस्थान सब रंगबिरंगे ब्रोशर्स, आकर्षक गुड्डी बैग लिए अपनी मार्केटिंग टीम के साथ वहां मौजूद थे. सभी का एकमात्र उद्देश्य था अधिक से अधिक अभिभावकों को अपने संस्थान की ओर आकर्षित करना ताकि वे अपने बच्चों की कोचिंग, काउंसलिंग और ऐडमिशन उन के संस्थानों में करवाएं. परीक्षा के लिए आए हजारों छात्रों में से अगर कुछ छात्रों को भी वे अपने संस्थान में ऐडमिशन के लिए राजी कर पाए तो उन का आज का मिशन पूरा हुआ समझो. क्योंकि ऐसे अनेक परीक्षा केंद्र होते हैं जहां जा कर मार्केटिंग करने वाले ये नुमाइंदे अपने संस्थान की पब्लिसिटी करते रहते हैं. दूसरे संस्थानों से कंपीटिशन करते ये वौलंटियर्स छात्रों का पूरा रिकौर्ड अपनी डाटा शीट में ले रहे थे ताकि परीक्षा परिणाम के बाद बारबार इन छात्रों व अभिभावकों को मेल भेज कर, एसएमएस या फोन कर के उन्हें अपने संस्थान में ऐडमिशन के लिए तैयार किया जा सके. इस सब के बीच अभिभावकों की स्थिति बेचारगी वाली थी. वे सभी ब्रोशर्स को सहेज कर रख रहे थे कि पता नहीं कब इन की शरण लेनी पड़ जाए.

सरकारी मान्यताप्राप्त प्रतिष्ठित संस्थान में जहां लिमिटेड सीटें होती हैं, हर छात्र का उन संस्थानों में दाखिले का सपना होता है लेकिन यह सपना चांदसितारे तोड़ने से कम नहीं होता. यहां छात्रों का भविष्य जहां परीक्षा उत्तीर्ण करने पर अटका था वहीं मार्केटिंग टीम का भविष्य अपने उम्मीदवारों यानी छात्रों के जरिए अपना बिजनैस बढ़ाने हेतु उन्हें टारगेट करना था.

सैकंड चौइस देते प्राइवेट संस्थान

परीक्षा केंद्र के बाहर मौजूद एक प्राइवेट संस्थान की मार्केटिंग हैड गरिमा अग्रवाल से जब हम ने शिक्षा की मार्केटिंग के इस नए तरीके के बारे में जानने की कोशिश की तो उन का कहना था, ‘‘माना कि सरकारी मान्यताप्राप्त संस्थान में ऐडमिशन लेना हर स्टूडैंट का सपना होता है लेकिन लिमिटेड सीटों के चलते केवल कुछ ही छात्र यानी क्रीमी लेयर ही उन संस्थानों में ऐडमिशन ले पाती है. ऐसे में हम प्राइवेट इंस्टिट्यूट छात्रों और अभिभावकों को एक विकल्प देते हैं. वे छात्र जिन्हें प्रतिष्ठित मान्यताप्राप्त सरकारी शिक्षा संस्थानों में दाखिला नहीं मिल पाता वे कहां जाएंगे? ऐसे में हम उन्हें सैकंड चौइस देते हैं. परीक्षा केंद्रों पर मार्केटिंग के जरिए हम छात्रों को टारगेट करते हैं ताकि हमारे संस्थान का नाम उन के दिमाग में बैठ जाए, और जब उन्हें उन के मनचाहे संस्थान में ऐडमिशन न मिले तो वे हमारे संस्थान की ओर रुख करें. परीक्षा केंद्रों में जा कर मार्केटिंग करने से संस्थान की ब्रैंडिंग होती हैं. अभिभावक व छात्र उस संस्थान को कम से कम एक औप्शन के रूप में रखते तो हैं. इस तरह की मार्केटिंग से नए संस्थानों को फायदा होता है.’’

डिजिटल मार्केटिंग

डिजिटल मार्केटिंग के दायरे में ईमेल, फोन, एसएमएस, सोशल नैटवर्किंग साइट्स, इंटरनैट आता है, जहां शिक्षा से जुड़े संस्थान छात्रों को इंप्रैस करने के लिए अपने ब्रैंड का प्रमोशन करते हैं. बदलते समय के साथ चूंकि इंटरनैट का प्रयोग बढ़ गया है, अधिकांश छात्र इंटरनैट पर ज्यादा समय बिताते हैं. ऐसे में इंटरनैट पर कालेज की वैबसाइट्स से कालेज के बारे में सारी जानकारी मिल जाती है. और तो और, छात्र व अभिभावक घर बैठे औनलाइन ही ऐडमिशन की सारी जानकारी हासिल कर लेते हैं. उच्च शिक्षा के अधिक कंपीटीटिव होने से शिक्षा की मार्केटिंग का चलन बढ़ा है. जैसे आमिर खान, शाहरुख फिल्म रिलीज से पहले अपनी फिल्म का प्रमोशन करते हैं वैसे ही प्राइवेट शिक्षा संस्थान भी मार्केटिंग के जरिए अपनी तारीफ खुद कर के अपने संस्थान की ब्रैंडिंग करते हैं.

राजनीति में अल्प शिक्षितों का बोलबाला

‘‘यह असामान्य जरूर है मगर न तो पाप है न ही इस में कुछ गलत है, आखिरकार यह ईमानदार जीवन जीने का मामला है. मैं अपने बच्चों को विलासितापूर्ण जीवन जीने के लिए गलत तरीके अपनाने को प्रोत्साहित नहीं करूंगा. इंसान को वही काम करना चाहिए जो उस की क्षमताओं के अनुरूप हो.’’ ये दार्शनिक से विचार राजस्थान के भारतीय जनता पार्टी के विधायक हीरालाल वर्मा के हैं. 21 मार्च को उन का छोटा बेटा हंसराज वर्मा अजमेर कृषि उपज मंडी समिति में चपरासी पद के लिए इंटरव्यू देने गया था तो दूसरे विधायकों ने खासा बवाल मचाया था कि विधायक का बेटा, क्या चपरासीगीरी करेगा.

इस सवाल और बवाल पर तार्किक और करारा जवाब देते वर्मा ने यह भी जोड़ा था कि उन के महज 8वीं पास बेटे के लिए यही बेहतर विकल्प है, सरकारी नौकरी में उस का भविष्य सुरक्षित रहेगा. हैरानी इस बात की है कि हीरालाल वर्मा खुद 3 विषयों में एमए हैं और गोल्ड मैडलिस्ट हैं. वे समाज कल्याण विभाग में उपसंचालक के पद पर सेवाएं दे भी चुके हैं. हंसराज के चपरासी पद के लिए इंटरव्यू देने पर एतराज जता रहे दूसरे राजनेताओं की चिंता यह थी कि इस से समाज में गलत संदेश जाएगा कि विधायक का बेटा चपरासी जैसे मामूली ओहदे पर है. पर हीरालाल ने इन बातों, एतराजों और आलोचनाओं की परवा न करते जो जवाब दिया वह मिसाल है जिस की बाबत उन की तारीफ की जानी चाहिए. वे नहीं चाहते कि एक मामूली पढ़ालिखा लड़का, जो उन का बेटा ही सही, राजनीति में पिता के रसूख और पहुंच के चलते किसी महत्त्वपूर्ण पद पर काबिज हो. उन की नजर में कम शिक्षित लोग ऊंचे व सम्मानजनक पदों पर फिट नहीं बैठते.

यह राय एक विधायक की ही नहीं, बल्कि अधिकांश लोगों की है जो देश को विकसित देशों की कतार में सब से आगे खड़े होते देखना चाहते हैं और बेहतर शिक्षा को इस बाबत बहुत जरूरी मानते हैं. यह तो पता नहीं कि इस स्वीकारोक्ति के वक्त हीरालाल वर्मा के दिलोदिमाग में स्मृति ईरानी कहीं थीं या नहीं पर अपने विचारों को जो विस्तार उन्होंने दिया उस से सभी ने यह दोबारा सोचा कि देश के एक बड़े महत्त्वपूर्ण पद पर एक कम शिक्षित नेत्री क्यों है. अभिनेत्री स्मृति ईरानी को जब केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री बनाया गया था तभी से उन की शिक्षा पर रुकरुक कर बवाल मचा हुआ है. कहा जा सकता है कि लोग अब इस बारे में गंभीर हो चले हैं.

हीन होते हैं कम शिक्षित

विधायक हीरालाल वर्मा चाहते तो बात को छिपा सकते थे और राजनेताओं की शैली वाला कोई गोलमोल जवाब दे कर सब को टरका सकते थे. उन्होंने ऐसा न कर वाकई अपने उच्च शिक्षित होने को सार्थक कर दिया है, जो स्मृति ईरानी नहीं कर पाई थीं. जब उन की शिक्षा पर बवाल मचा था तो उन्होंने एक विदेशी पुरजे का हवाला दिया था जो किसी सैमिनार का या गैर मान्यताप्राप्त शौर्टटर्म पाठ्यक्रम का था. स्मृति ईरानी की मंशा यह थी कि उन के कहने भर से ही लोग उस पुरजे को ही डिगरी मान लेंगे. इस बात पर उन की और ज्यादा छीछालेदर हुई और लोग हंसे भी थे कि कितनी मासूमियत से वे लोगों को बरगलाना चाहती हैं. बाद में जरूर उन्होंने स्वीकारा कि वे कम शिक्षित हैं लेकिन तब तक उन की हीनभावना और कुंठा उजागर हो चुकी थी.

किसी को मानव संसाधन मंत्रालय की मुखिया से ऐसे बचाव की उम्मीद नहीं थी कि वे सच को जिद और अहं से ढकने की बचकानी कोशिश करेंगी. उन्होंने ऐसा किया तो सहज लगा कि गलती उन की नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उन लाखोंकरोड़ों लोगों की भी है जो खुद भी कम पढ़ेलिखे हैं. और इसी वजह से खुद को मुख्यधारा से कटा मानते हुए असहज महसूस करते हैं. अलावा इस के, आजकल जो राजनेता अभद्र, अशिष्ट और अश्लील भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं उन से कम पढ़ेलिखों की संख्या 80 फीसदी है. बचे 20 फीसदी जानबूझ कर बवाल मचाने के लिए असभ्य भाषा का उपयोग करते हैं.

स्मृति ईरानी के प्रकरण से यह साबित हुआ था कि शिक्षित व्यक्ति में आत्मविश्वास होता है और सच को सहज स्वीकारने का साहस भी. इस के अलावा, दूरगामी फैसले लेने के लिए उस के पास पर्याप्त समझ व बुद्धि भी होती है. यह हीनभावना दरअसल वक्तवक्त पर अलगअलग तरह से प्रदर्शित होती रही है. पहले महत्त्वपूर्ण पदों पर कम शिक्षित लोग बैठे या बिठाए जाते थे तो कम लोग एतराज जताते थे और जो जताते थे उन्हें यह कहते हुए चुप कराने की कोशिश की जाती थी कि अरे, ये अनुभवी और ज्ञानी हैं. देश शिक्षा से नहीं, बल्कि बहुमत और लोकतंत्र से चलता है जिस के लिए ज्ञान चाहिए. पंडित जवाहरलाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बने तो किसी की हिम्मत यह कहने की नहीं हुई थी कि उन से ज्यादा काबिल कई नेता हैं, उन्हें क्यों मौका नहीं दिया गया? अप्रत्यक्ष दलील यह दी गई थी कि वे विदेश से कानून की पढ़ाई कर के आए हैं, फर्राटे से अंगरेजी बोलते हैं, ब्राह्मण हैं, इसलिए योग्य हैं. आज यह योग्यता अधिकांश शहरी युवकों के पास है. लेकिन वे राजनीति या नेतागीरी को पसंद नहीं करते.

बदलते दौर में

संविधान में कहीं इस बात के इंतजाम जानबूझ कर तो नहीं किए गए कि कम पढ़ेलिखे लोग ऊंचे और सम्मानित पदों पर न बैठ पाएं. 60-70 के दशक में जो संस्कृत के 4 श्लोक और रामायण की 8-10 चौपाइयां बांच देता था उसे ही काबिल मान लिया जाता था. लोग शिक्षित हो कर ही इस चालाकी से वाकिफ हुए. इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं तब थोड़ीबहुत चर्चा उन के कम शिक्षित होने को ले कर हुई थी लेकिन परिवारवाद और तत्कालीन समस्याओं के आगे वे चर्चाएं दब गई थीं. कमोबेश यही राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनते वक्त हुआ. तब सारा देश उन्माद और भावुकता के समुद्र में गोते लगा रहा था.

अब जमाना और है. नेहरूगांधी खानदान के वारिस राहुल गांधी दौड़ में कहीं नहीं हैं जिन्होंने लगभग अपने ही बराबर शिक्षित स्मृति ईरानी को अमेठी से कांटे की टक्कर में हराया था. तब अगर कांग्रेसी शिक्षा को मुद्दा बनाते तो उंगली उन के युवराज पर भी उठती. लिहाजा, स्मृति को मंत्री बनाए जाने के बाद उन्होंने हल्ला मचाया. अधिकांश लोगों ने अप्रत्यक्ष ही सही, नरेंद्र मोदी द्वारा स्मृति ईरानी को केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय दिए जाने को गलत माना था और खुद नरेंद्र मोदी को ही कठघरे में खड़ा कर देखने की कोशिश की थी कि वे खुद कितने और कहां से पढ़ेलिखे हैं.

इस जागरूकता को अब रोका नहीं जा सकता. लोग समझने लगे हैं कि महत्त्वपूर्ण पदों पर बैठे लोग ही उन का और देश का भविष्य तय करते हैं. लिहाजा, उन का पर्याप्त शिक्षित होना जरूरी होना चाहिए. और शिक्षा का मतलब साक्षरता नहीं या एक ही नहीं बल्कि कई डिगरियां नेता के पास होनी चाहिए. इन में अगर तकनीकी और प्रबंधन पाठ्यक्रम की हों तो लोग नेता को सुनने और चुनने में भी दिलचस्पी लेंगे. लच्छेदार और मनमाफिक बातें तो महल्ला स्तर के नेता भी कर लेते हैं. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की डिगरी को हर कोई सम्मान से देखता है. उन के पास राजनीतिक अनुभव न के बराबर था लेकिन इस के बाद भी लोगों ने उन्हें दोबारा मौका दिया. वजह, एक शिक्षित नेता ही पहली गलती के लिए माफी मांगने की हिम्मत रखता है. कम शिक्षित नेता का अहं ही उस की डिगरी होता है. भाजपा नेत्री साध्वी उमा भारती इस की मिसाल हैं जो जबतब आगबबूला हो जाती थीं. इन दिनों वे चुप हैं तो वजह सियासी है.

मोदी मंत्रिमंडल के 25 फीसदी और देशभर में तकरीबन 60 फीसदी नेता ऐसे हैं जो कम पढ़ेलिखे हो कर अहम पदों पर काबिज हैं. ये लोग तेजी से शिक्षित होते समाज के लिए नीतियां बनाते हैं. इस से समझ आता है कि देश क्यों पिछड़ा है? कांग्रेस में तो ऐसे नेताओं की भरमार थी. भाजपा और दूसरे पनपते क्षेत्रीय दल इस से अछूते नहीं हैं. अरुण जेटली के बजट पर आम प्रतिक्रिया यही थी कि जो मंत्री वित्त के माने नहीं जानता उस से क्या खा कर उम्मीद रखें. भले ही जेटली वाणिज्य स्नातक हों पर उन्हें इस डिगरी के चलते अर्थशास्त्री या वित्त विशेषज्ञ नहीं कहा या माना जा सकता.

कैरियर और शिक्षा

सम्मानित और ऊंचे पदों पर कम शिक्षितों के दबदबे के चलते खासतौर पर युवा पीढ़ी में हमेशा से ही हताशा का माहौल रहा है जिस से उबरने के लिए वह नेताओं की शिक्षा को ले कर मजाक भी उड़ाती रही है. लेकिन इस से समस्या हल नहीं हो जाती, भड़ास ही निकल पाती है. दिक्कत तो यह है कि जो तकनीकी या मैनेजमैंट की डिगरी ले लेता है, जो आजकल ज्यादा अहम है, वह राजनीति को दूर से ही हाथ जोड़ लेता है. नई पीढ़ी समझदार है. वह सुरक्षित और गारेंटेड भविष्य चाहती है, जो कम से कम हालफिलहाल तो राजनीति में नहीं है. हर किसी की इच्छा अब एमबीए करने की इसलिए है कि उस की रचनात्मकता और शिक्षा का सही उपयेग हो.

आज के युवा सही कहते हैं कि अगर नेता ही बनना होता तो वे इतना पढ़ते ही क्यों. युवा, नेता नहीं बल्कि इंजीनियर और प्रबंधक क्यों बनना चाहते हैं, इस पर चर्चा की तमाम गुंजाइशें मौजूद हैं. वे बीए, एमए नहीं बल्कि एमबीए क्यों करना चाहते हैं, इस पर तो खासा शोध हो सकता है जिस का सार यही निकलेगा कि देश की तरक्की में नेताओं से बड़ा योगदान युवाओं का है जिन में वाकई कुछ कर गुजरने का जज्बा है और बकौल हीरालाल वर्मा बात ईमानदारी भरा जीवन जीने की है, विलासी जीवन की नहीं. तेजी से देश का बदला रूप कहता है, जागरूकता आ रही है. इस से चिंता नेताओं, खासतौर से कम पढ़ेलिखे नेताओं को होती है क्योंकि इस से उन की हकीकत और रोजीरोटी पर खतरा मंडराने लगता है. शायद इसीलिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय उन हाथों में दे दिया जाता है जो प्रबंधन तकनीक और शिक्षा की ए बी सी डी भी नहीं जानते. मकसद यह है कि पढ़ाई के मौके बढ़ाए न जाएं, उसे इतना महंगा कर दिया जाए कि मध्यवर्गीय छात्र आसानी से न पढ़ पाएं और गरीब छात्र तो इस बाबत सोचे ही नहीं.

शिक्षित आगे आएं

गांवदेहातों में तो हालात और भी बुरे हैं. इसीलिए नरेंद्र मोदी की चाय बेचने की इमेज चल गई. सभी शिक्षित होते तो बात शायद न बनती. मोदी ने जो माहौल बना लिया था उसे बरकरार रखने में उन्हें अब पसीने आ रहे हैं. शायद ही कोई इवैंट कंपनी उन्हें ऐसा रास्ता बता पाए कि शोहरत की सीढ़ी से बगैर गिरे, नीचे उतरने का तकनीकी गुण क्या है. आज एक विधायक सीना ठोक कर अपने बेटे को राजनीति में लाने के बजाय सरकारी नौकरी पर तवज्जुह दे रहा है, तो इशारा साफ है कि ज्यादा पढ़ेलिखे लोगों को राजनीति में आना चाहिए ताकि महत्त्वपूर्ण, ऊंचे और सम्मानित पदों पर उच्चशिक्षित लोग बैठें जिन के वे ही हकदार हैं. प्रक्रिया हालांकि धीमी है लेकिन यह अब महज अवधारणा नहीं रह गई है.

इस बाबत संविधान और शिक्षा पद्धति में बड़े बदलाव की जरूरत है. राजनीति और शिक्षा को किसी न किसी निवार्यता से जोड़ा जाए. कोई भी चुन कर संसद पहुंच जाए, यह ज्यादा हर्ज की बात नहीं लेकिन उसे ऊंचे पद पर बैठने से रोकने के लिए कुछ शैक्षणिक योग्यताएं तय करनी जरूरी हैं वरना शिक्षा एक महत्त्वहीन आवश्यकता बनी रहेगी.

घर में कैसे बनाएं पढ़ाई का माहौल

वक्त था जब घर में माताएं बच्चों को फर्श की स्लेट बना कर खडि़या मिट्टी से गणित के पहाड़े से ले कर हिंदी, अंगरेजी और इतिहास तक रटा डालती थीं. दरअसल, तब शिक्षा मनोरंजन भी थी. आधुनिकता के नाम पर केवल रेडियो ही हुआ करता था और वह भी केवल धनी लोगों के पास. इसलिए ज्ञान की गठरी को ही मनोरंजन की पोटली समझ बच्चे मां की बात सुन लिया करते थे. अब तो आधुनिकता की परत जम चुकी है और शिक्षा ने अपना चोला बदल लिया है. बिना कोचिंग जाए पढ़ाई पूरी ही नहीं होती और घरों में बच्चों को खेलने से फुरसत नहीं मिलती.

वैसे, इस में गलती बच्चों की कम अभिभावकों की अधिक है. काम में उलझे पिता और किटी पार्टी में व्यस्त मां की प्राथमिकता अब बच्चे की पढ़ाई से अधिक उन का खुद का मनोरंजन बन चुका है. इसीलिए अब घरों में पढ़ाई का माहौल बना कर रख पाना इन आधुनिक अभिभावकों के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है. वैसे अभिभावकों की बदलती प्राथमिकताओं के अलावा शिक्षा के बदलते आयाम और बच्चों की बिगड़ी दिनचर्या भी काफी हद तक घरों में शिक्षा का माहौल न बना पाने में दोषी हैं.

जरा खुद ही गुणाभाग लगा लीजिए. बच्चा 5-6 घंटे स्कूल में बिता कर घर लौटता है कि उसे पढ़ने के लिए कोचिंग भेज दिया जाता है. कोचिंग से घरवापसी के बाद तो बच्चे को किताबों की शक्ल देखना भी मंजूर नहीं होता. और आज के अभिभावकों की इतनी हिम्मत कहां कि वे अपने लाड़ले बच्चे को पढ़ने के लिए उकसा भी सकें. इस का बुरा प्रभाव तब देखने को मिलता है जब बच्चों के परीक्षा में बुरे नंबर आते हैं क्योंकि घर में तो उन्हें पढ़ने की आदत ही नहीं होती और एग्जाम के दिनों में जब उन्हें घर में पढ़ना पड़ता है तो वे उसे बोझ समझने लगते हैं.

इस बाबत सीनियर काउंसलर संजीव कुमार आचार्य कहते हैं, ‘‘घर बच्चे की पहली पाठशाला होता है और अभिभावक उस के पहले टीचर. बच्चा जो कुछ भी घर में सीख सकता है वह और कहीं नहीं. घर के शांतिपूर्ण और सुरक्षित माहौल में बच्चा जब पढ़ता है तो उस की स्मरणशक्ति और एकाग्रता दोनों में ही इजाफा होता है.’’यहां प्रश्न उठता है कि क्या आजकल के घरों में शिक्षा के लिए शांतिपूर्ण माहौल बनाया जा सकता है? इस का जवाब देते हुए संजीव कहते हैं, ‘‘घर एक कमरे का हो या 10 कमरों का, हर स्थिति और परिस्थिति में अभिभावक चाहें तो बच्चों के लि ए घर में पढ़ाई का अच्छा माहौल बना सकते हैं. हां, अभिभावकों को इस के लिए हो सकता है कि अपनी कुछ आदतों में सुधार करना पड़े या फिर अपने कुछ शौक या इच्छाओं से समझौता करना पड़े. मसलन टीवी देखने, मोबाइल पर बात करने या फिर म्यूजिक सुनने जैसे शौक वे अपने बच्चे की पढ़ाई के वक्त पूरे नहीं कर सकते. इस के लिए वे वह वक्त चुनें जब उन का बच्चा फ्री हो. इस से बच्चे में एकाग्रता के साथ खुदबखुद पढ़ने की आदत बनेगी.’’

जब घर हो छोटा

बढ़ती महंगाई और बेलगाम होते खर्चों ने आम आदमी की कमर तोड़ रखी है. ऐसे में जहां वह हर चीज में कटौती कर रहा है, वहीं उस के रहने के स्थान में भी कटौती साफ नजर आ रही है. इस कटौती का असर उन के बच्चों की पढ़ाई पर भी पड़ता है क्योंकि एक कमरे में ही मनोरंजन के लिए टीवी भी होता है और मेहमानों का आनाजाना भी. कुछ बातों का ध्यान रखा जाए तो बच्चे की पढ़ाई के लिए एक अच्छा माहौल बनाया जा सकता है.

आप का घर यदि 1 या 2 कमरे का है तो आप को सब से पहले जरूरी है कि आप अपने बच्चे की पढ़ाई का समय निर्धारित करें. पढ़ाई के लिए वह समय चुनें जब आप के पति औफिस गए हों. इस समय बच्चे को एकांत मिलेगा और बच्चा एकाग्रता के साथ पढ़ सकेगा.

बच्चों की पढ़ाई में सब से अधिक विघ्न तब पड़ता है जब कोई मेहमान घर आ जाए. और जब घर छोटा हो तो इस वक्त मेहमान का आना आप को अखर भी सकता है. बेहतर है कि अपने बच्चे की पढ़ाई के वक्त आप किसी भी मेहमान को न्यौता न दें और अगर मेहमान आ जाएं तो उन के जाने के बाद बच्चे की अधूरी पढ़ाई को पूरा करें.

किसी भी प्रकार के काम से घर के बाहर जाना हो तो कोशिश करें कि बच्चे के स्कूल से घर आने के पहले ही आप बाहर के काम निबटा लें या फिर बच्चे की पढ़ाई खत्म होने के बाद आप वह काम करने जाएं.

बच्चे की पढ़ाई का वक्त हो रहा हो तो आप भी उस के साथ कोई अच्छी पुस्तक पढ़ें या फिर समाचारपत्र या पत्रिकाएं पढ़ें. इस से बच्चे का पढ़ाई में और भी अधिक मन लगेगा.

इस वक्त म्यूजिक सुनने के शौक को काबू में रखें क्योंकि भले ही आप कानों में हैडफोन लगा कर म्यूजिक का आनंद ले रही हों लेकिन आप के चेहरे के हावभाव आप के बच्चे का दिमाग भटका सकते हैं. इस वक्त मोबाइल में ज्यादा न उलझें.

निसंदेह घर के कामकाज निबटाते- निबटाते आप थक जाती होंगी, लेकिन जब बच्चा पढ़ रहा हो तो कतई न सोएं. आप के ऐसा करने से उस में आलस्य आएगा.

कोई प्रलोभन दे कर बच्चे को पढ़ने को न बैठाएं. ऐसा करने से बच्चा पढ़ाई के दौरान दिए गए प्रलोभन के बारे में ही सोचता रहता है.

जब घर मध्यम हो

मध्यम आकार के घर यानी 3 से 4 कमरों का फ्लैटनुमा घर. ऐसे घर अकसर मध्यवर्गीय आय वालों के होते हैं. ये लोग झूठमूठ की शानोशौकत और मानसम्मान के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं. फुजूल के सामान से घर इतना भरा होता है कि जगह होने के बावजूद जगह नहीं होती. इसलिए फालतू सामान घर में न रखें और अपने घर में बच्चों की पढ़ाई के लिए एक अनुसाशित माहौल ऐसे बनाएं :

आप के घर में मेहमानों की आवाजाही हर वक्त लगी ही रहती होगी. आप उन के आने पर रोक भी नहीं लगा सकते. इसलिए जब भी मेहमान आएं तो उन्हें ड्राइंगरूम में बैठाएं. उस वक्त अगर आप का बच्चा दूसरे कमरों में पढ़ रहा हो तो जोरजोर से बातें न करें.

इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि हर मेहमान से मिलने के लिए आप अपने बच्चे को फोर्र्स न करें. बल्कि बच्चे की पढ़ाई के वक्त आए हुए मेहमान से बच्चे को मिलवाने की भी जरूरत नहीं है.

आप किटी पार्टी की शौकीन हैं तो अपने शौक से आप को समझौता करने की जरूरत नहीं लेकिन जिस वक्त बच्चे का पढ़ने का समय हो उस वक्त घर में किसी भी प्रकार का आयोजन न करें.

बच्चा जिस कमरे में बैठ कर पढ़ रहा हो उस कमरे में किसी को भी न जाने दें. हां, आप जरूर 1-2 बार बच्चे की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए वहां जाएं.

बच्चे के पढ़ने का समय हो रहा हो तो आप उसे ऐसी कोई भी चीज न खिलाएं जिस से उसे सुस्ती आए.

बच्चे के कमरे में पानी की एक बोतल जरूर रखें ताकि जब उसे प्यास लगे तो उसे अपनी पढ़ाई छोड़ कर किचन तक न आना पड़े.

बच्चे को पढ़ाई करने के दौरान हर 45 मिनट के बाद 15 मिनट का रैस्ट दें. और इस दौरान उस से इधरउधर की बातों की जगह सिर्फ पढ़ाई की ही बातें करें ताकि उस का फोकस न बिगड़े.

जब घर बड़ा हो

बड़े घरों में पढ़ाई के लिए जगह कम नहीं होती लेकिन माहौल बनाने की दिक्कत जरूर होती है क्योंकि बड़े घर हमेशा आधुनिकता और विलासता से सराबोर होते हैं. ऐसे माहौल में बच्चों की पढ़ाई की हमेशा बली चढ़ती है. कुछ बातों पर यदि ध्यान दिया जाए तो आप भी अपने बच्चों को घर में पढ़ाई के लिए माकूल माहौल दे सकते हैं.

पढ़ाई का कमरा कभी भी बहुत अधिक बड़ा न बनवाएं. छोटे आकार का कमरा ही पढ़ाई के लिए अच्छा होता है. बड़े कमरे में बच्चों का ध्यान इधरउधर भटकता है.

बच्चे का स्टडीरूम बहुत अधिक आधुनिक चीजों से लैस न हो. मसलन, उस कमरे में कंप्यूटर, टैब, आईपैड या लैपटौप जैसी चीजें न हों. हां, बच्चे को जब इन चीजों की जरूरत हो तो आप अपनी निगरानी में ही उन्हें ये इस्तेमाल करने दें.द्य    हो सके तो पढ़ाई के कमरे में पढ़ाई के सामान के अलावा कुछ भी न रखें क्योंकि कमरा जितना भरा होगा उतना ही बच्चे का दिमाग पढ़ाई में नहीं लगेगा.

पढ़ाई के कमरे में बच्चे के लिए जरूरत भर की रोशनी और हवा का इंतजाम जरूर करें लेकिन डिजाइनर लाइट और पंखे न लगवाएं. हो सके तो बच्चे के स्टडीरूम ऐसे स्थान पर बनवाएं जहां बाहर की आवाज कम से कम जाती हो. बालकनी तो बिलकुल भी नहीं होनी चाहिए.

यदि आप अफौर्ड कर सकते हैं तो घर में एक छोटी सी लाइब्रेरी बनवाएं. इस लाइब्रेरी में अच्छी एजुकेशनल पुस्तकें रखें. इस से बच्चे में अच्छी किताबें पढ़ने की आदत आएगी.

बेशक आप के पास बहुत पैसा हो लेकिन बच्चों के आगे इस का गुणगान सही नहीं. यह गुणगान उन्हें एक ऐसे सेफ जोन में ले जाता है जहां वे मेहनत न करने की ठान लेते हैं. खासतौर से पढ़ाई में उन्हें कोई रुचि नहीं रह जाती.

बच्चों को यदि वीकेंड पर बाहर घुमाने ले जाते हैं तो कोशिश करें कि उन्हें खासतौर से एजुकेशन पर डिजाइन किए गए सैंटर्स पर ले जाएं. वहां उन्हें क्विज खेलने और अपना एप्टीट्यूड टैस्ट करने का मौका मिलेगा. 

ऐसा न करें

सीनियर काउंसलर संजीव आचार्य कहते हैं, कई बार मातापिता बच्चों की पढ़ाई को ले कर ओवर कौन्शस हो जाते हैं. यह व्यवहार ठीक नहीं. इस से आप के बरताव में असर पड़ता हैं. ऐसा करने से आप अपनी और अपने बच्चे की भावनाओं को दुख पहुंचाते हैं और कुछ भी नहीं. सो, इन बातों का ध्यान रखें :

बच्चे के साथ जबरदस्ती न करें. पढ़ाई के मामले में तो बिलकुल भी नहीं. जिस वक्त वह खेलने के मूड में है उसे खेलने दें. आप जबरदस्ती उसे पढ़ने बैठा भी देंगे तो उस का ध्यान खेल पर ही लगा रहेगा. वह सिर्फ आप को दिखाने के लिएकिताब पकड़ लेगा.

बच्चे के स्कूल से आते ही उस से क्लास और टीचर की बातें न करें. उसे थोड़ा रिलैक्स होने दें. उसे खाना खिलाएं, टीवी देखने दें और यदि वह सोना चाहे तो उसे सुला भी दें.

कई मातापिता बच्चों को आउटडोर गेम्स नहीं खेलने देते. उन्हें डर रहता है कि दूसरे बच्चे उसे गंदी हरकत करना सिखा देंगे या फिर उसे चोट पहुंचा देंगे. यह गलत बात है. ऐसे बच्चे जो सिर्फ घर में ही खेलते हैं उन का आईक्यू लैवल कम होता है. उन की स्मरणशक्ति भी अधिक नहीं होती. बच्चों को घर से बाहर खेलने जरूर भेजें. हो सके तो आप खुद भी उन के साथ जाएं.

आजकल के मातापिता बच्चों को मूवी दिखाने ले जाते हैं लेकिन कभी प्रदर्शनी या फिर बुकफेयर नहीं ले जाते. यहां ले जाना उन्हें समय और पैसे की बरबादी लगता है. जबकि यह गलत है. बच्चों को बुकफेयर और दूसरी प्रदर्शनियों में जरूर ले जाएं. यहां पहुंच कर बच्चों को बहुतकुछ नया देखने को मिलेगा. हो सकता है कि वे आप से कुछ सवाल भी करें. बच्चों में यदि सवाल करने की प्रवत्ति हो तो यह बहुत अच्छी बात है क्योंकि ऐसे बच्चों में सीखने की लालसा बनी रहती है.

बच्चे यदि आप से इंटरनैट पर बैठने की जिद करें तो उन्हें बिलकुल मना न करें बल्कि उन्हें इंटरनैट पर सर्च करने का सही तरीका समझाएं. आप को यह जान कर हैरानी होगी की लोग अपनी पूरी पढ़ाई खत्म कर लेते हैं, सर्विस करने लगते हैं लेकिन इंटरनैट पर सर्च करने का सही तरीका उन्हें नहीं आता है. इसलिए बच्चों को कभी भी, कोई काम करने से रोकें नहीं बल्कि उस के अच्छे और बुरे प्रभाव के बारे में उन्हें बताएं.

कोचिंग का फलताफूलता धंधा

कक्षा 8 पास करने के बाद अभिषेक ने कक्षा 9 में ऐडमिशन लिया. उस के पिता दिनेश चाहते थे कि बेटा बड़ा हो कर इंजीनियर बने, उस का प्रवेश आईआईटी या फिर किसी अच्छे सरकारी कालेज में हो जाए.  अभिषेक के पिता ने जानकारी हासिल की तो पता चला कि आईआईटी में ऐडमिशन के लिए कक्षा 9 से ही इंजीनियरिंग की कोचिंग करनी चाहिए. इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा में पूरे देश से हर साल करीब 7 लाख बच्चे बैठते हैं. इन में से केवल 1 लाख 50 हजार ही आईआईटी प्रवेश परीक्षा दे पाते हैं. इन 1 लाख 50 हजार छात्रों में से केवल 10 फीसदी ही आईआईटी में प्रवेश पाते हैं. कुछ ऐसी ही हालत डाक्टरी और एमबीए की पढ़ाई करने वालों की भी है. अच्छे कालेजों में प्रवेश के लिए बच्चे 3-5 साल कोचिंग करते हैं. पहले बहुत सारे बच्चे राजस्थान के कोटा शहर जा कर कोचिंग करते थे. लेकिन बदलते समय के साथ कोचिंग का धंधा तेजी से फलनेफूलने लगा. अब हर शहर में बहुत सारी कोचिंग संस्थाएं खुल गई हैं.

कोचिंग में पढ़ाई करने वाले छात्र मुख्यरूप से इंजीनियरिंग, डाक्टरी और एमबीए की पढ़ाई करना चाहते हैं. इस के अलावा दूसरी किस्म के वे छात्र कोचिंग करते हैं जो प्रतियोगी परीक्षाओं में अच्छे नंबर लाना चाहते हैं. अब तो बैंकिंग में नौकरी पाने के लिए भी छात्र कोचिंग संस्थाओं पर निर्भर रहने लगे हैं. कोचिंग का यह रूप सभी ने देखा और महसूस किया है. कोचिंग चलाने वालों ने इसे और विस्तार देने का काम किया है. अब वे हर कक्षा में परीक्षाओं में अच्छे नंबर लाने के लिए कोचिंग क्लास चलाने लगे हैं जिस से बच्चे स्कूल और कोचिंग में एकसाथ पढ़ाई करने को मजबूर होते हैं. महंगे स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने के बाद भी अभिभावक बच्चों को कोचिंग भेजने के लिए मजबूर होते हैं. कईकई स्कूलों में तो वहीं के पढ़ाने वाले शिक्षक कोचिंग कराते हैं. वे बच्चों को क्लास में पढ़ाने के बजाय कोचिंग कराना ज्यादा पसंद करते हैं.

छोटी से ले कर बड़ी क्लास तक में एक सा सिलसिला चल रहा है. हर साल किताबें और सिलेबस बदल जाता है. नए विषय और उस से जुड़ी किताबें आ जाती हैं. इस के पीछे 2 तरह का धंधा फलफूल रहा है. एक तो कठिन सिलेबस होने से बच्चा स्कूल के साथसाथ कोचिंग पढ़ने को मजबूर हो जाता है. दूसरे, हर साल सिलेबस और किताबें बदलने से बच्चे को नई किताबें खरीदनी पड़ती हैं जिस से किताबें छापने वालों को भी भरपूर मुनाफा होता है. हर स्कूल में अलगअलग तरह की किताबें पढ़ाई जाती हैं. एकजैसा सिलेबस न होने के कारण एक ही क्लास में पढ़ने वाले बच्चों को समान जानकारी हासिल नहीं हो पाती है. पहले ऐसा नहीं था. कम किताबें होती थीं. और वे किताबें सालोंसाल बदलती भी नहीं थीं. बच्चे पुरानी किताबें पढ़ कर भी काम चला लेते थे. 

1980 के बाद कोचिंग संस्थानों ने अपना धंधा चमकाने के लिए सिलेबस में बदलाव कराने के प्रयास शुरू किए. 10 साल में ही पढ़ाई का पूरा पैटर्न बदल गया. प्रदेश के शिक्षा बोर्ड के साथ ही साथ सीबीएसई और आईसीएससी बोर्ड भी खुल गए. हर बोर्ड का अपना अलग सिलेबस होने लगा. सब की अलग किताबें हो गईं. कक्षा 9 से नीचे तो एक ही शहर के एक ही बोर्ड के स्कूल में अलगअलग तरह की किताबें पढ़ाई जाने लगीं. इसी कठिन सिलेबस के चलते नकल का धंधा भी फलनेफूलने लगा है, जिस का कुप्रभाव उन बच्चों पर पड़ रहा है जो मेहनत से पढ़ कर परीक्षा पास करते हैं.

भारी पड़ने लगा होमवर्क

बदलते समय के साथ पेरैंट्स और बच्चों की पढ़ाई पैटर्न में भारी अंतर आ गया. जिन पेरैंट्स के पास बच्चों को होमवर्क कराने का समय होता था उन को भी बच्चे का होमवर्क कराने में परेशानी का अनुभव होने लगा. उन को नए सिलेबस वाली बच्चों की किताबें और उन का कोर्स समझने में मुश्किल होने लगी. कक्षा 5 तक किसी तरह से पेरैंट्स बच्चों का होमवर्क करा भी लेते थे तो कक्षा 5 के बाद होमवर्क कराना उन को भारी पड़ने लगा. कुछ ऐसे पेरैंट्स भी हैं जो अपने काम से समय निकाल कर बच्चों को पढ़ाने के लिए उपलब्ध ही नहीं रहते थे. ऐसे में कोचिंग संस्थानों ने अपने पांव पसारने शुरू किए. पहले किसीकिसी बच्चे को ही ट्यूशन की जरूरत महसूस होती थी. अब हर बच्चे को मदद की जरूरत होने लगी और ट्यूशन कोचिंग के धंधे में बदल गया.

मनोविज्ञानी रिचा पांडेय कहती हैं, ‘‘कठिन सिलेबस के साथ पेरैंट्स कदम से कदम मिला कर नहीं चल सकते. ऐसे में उन्हें होमवर्क तक कराने के लिए ट्यूशन और कोचिंग संस्थानों पर निर्भर होना पड़ा. स्कूलों ने सिलेबस को तो कठिन किया पर परीक्षा के स्तर को इतना सरल कर दिया कि हर बच्चा अच्छे नंबरों के साथ पास होने लगा. कक्षा 12 के बाद जब उसे प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठना पड़ता है तो उसे कोचिंग संस्थानों की मदद की दरकार होने लगी. ऐसे में कक्षा 9 से कोचिंग करना बच्चों के लिए मजबूरी हो गई, अगर बच्चों की किताबें देखें तो पता चलेगा कि उन का क्लासवर्क कम और होमवर्क ज्यादा होता है. बच्चों से उन चीजों पर लिख कर लाने के लिए कहा जाता है जिन के बारे में उन को क्लास में पढ़ाया ही नहीं गया होता है.’’

गूगल का सहारा

क्लास में बच्चों को सही तरह से पढ़ाया नहीं जाता. क्लास में मिलने वाले होमवर्क, खासकर प्रोजैक्ट वर्क के लिए बच्चे गूगल का सहारा लेने लगे हैं. इस में वे अपनी जानकारी बढ़ाने के बजाय गूगल में दी गई जानकारी को कागज पर उतार देते हैं. इस से प्रोजैक्ट वर्क करने का मकसद सफल नहीं होता. बच्चों को कोई जानकारी नहीं होती है. जिन बच्चों के पेरैंट्स वर्किंग हैं उन के सामने कोचिंग करने के अलावा दूसरा रास्ता नहीं बचता है. ऐसे में कोचिंग संस्थानों का धंधा चमक रहा है. कोचिंग चलाने वालों ने कोचिंग के साथ ही साथ बच्चों के खाने और रहने का इंतजाम करना भी शुरू कर दिया है जिस से उन का मुनाफा काफी बढ़ जाता है. कई कोचिंग संस्थानों ने खाना बनाने और होस्टल वालों से संपर्क बना रखा है. उन को अपने कोचिंग संस्थान के बच्चे भेजते हैं और उन से इस का कमीशन भी लेते हैं.

सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर बहुत नीचे चला गया है. वहां से पढ़ कर आने वाले बच्चों का काम तो बिना कोचिंग के चल ही नहीं सकता है. देश में एकजैसी समान शिक्षा व्यवस्था न होने के बाद भी प्रवेश परीक्षाओं में एकजैसे ही सवाल पूछे जाते हैं जिस से सरकारी स्कूलों से पढ़ कर आने वाले बच्चे शहरी स्कूलों से पढ़ कर आने वाले बच्चों से पिछड़ जाते हैं. यह एक तरह की गैर समानता है जिस के जरिए गंवई बच्चों को पीछे ढकेलने की नीयत काम कर रही है. ऐसे में जरूरी है कि देश में एकजैसी शिक्षा व्यवस्था और सिलेबस हो जिस से बच्चे कोचिंग संस्थानों के जाल से दूर हो सकें. बच्चों की रुचिऔर जरूरत के हिसाब से उच्च शिक्षा के कालेज खोले जाएं, जहां बच्चों को वह पढ़ाया जाए जो देश और समाज के लिए जरूरी हो. जब तक स्कूलों का सिलेबस सरल नहीं होगा, कोचिंग का धंधा चलता रहेगा.  द्य

विशेषज्ञों की राय

‘‘एक तरफ स्कूलों का सिलेबस कठिन होता जा रहा है तो दूसरी तरफ बच्चे पर ज्यादा से ज्यादा नंबर ला कर परीक्षा में पास होने का दबाव होता है. ऐसे में वह सहीगलत किसी भी तरीके से नंबर लाने की कोशिश करता है. यह होड़ उसे नकल करने से ले कर कोचिंग संस्थाओं की मदद लेने तक के लिए मजबूर करती है. बच्चे के मन पर नंबर का दबाव इतना होता है कि वह अपनी क्षमता का अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाता है.’’   -रिचा पांडेय (मनोविज्ञानी)

‘‘कोचिंग संस्थाओं के बढ़ने का एक कारण यह भी है कि घर में होमवर्क कराने के लिए पेरैंट्स के पास समय नहीं होता है. अगर पेरैंट्स के पास समय हो तो भी सिलेबस ऐसा होता है जो अपने समय में पेरैंट्स ने पढ़ा नहीं होता है. पढ़ाई का तौरतरीका ऐसा हो गया है जो पेरैंट्स की जानकारी से दूर है. ऐसे में उन के सामने ट्यूशन और कोचिंग के अलावा दूसरा रास्ता नहीं होता है. इस से बच्चे पर भी मानसिक दबाव रहता है.’’                  -दीपिका चतुर्वेदी (शिक्षिका)

‘‘सिलेबस को सरल कर बच्चे के  मन को मानसिक दबाव से मुक्त रखने की बड़ी जरूरत है. शिक्षा बच्चे को मशीन बनाती जा रही है, नंबर लाने की मशीन. दिखाने के लिए इस में कई तरह के सुधार की बात कही जाती है. नंबर को ग्रेड में बदल दिया गया पर मूल परेशानी वहीं खड़ी है. अच्छा उन को माना जाता है जो अच्छा ग्रेड लाता है. बच्चे पर अच्छे ग्रेड में पास होने का दबाव होता है. ऐसे में नंबर का चक्कर कहां खत्म हो रहा है.’’               -सिमरन बजाज (समाजसेवी)

‘‘शिक्षा हर बच्चे के लिए जरूरी होती है. इस से बच्चे का मानसिक विकास होता है. वह यह समझ पाता है कि उसे क्या करना चाहिए? पेरैंट्स भी बच्चों से बहुत उम्मीदें रख लेते हैं. उन को लगता है कि महंगे स्कूल, महंगी कोचिंग पढ़ने से बच्चा बड़ा आदमी बन सकता है. इस होड़ में वह बच्चे की काबिलीयत को देख नहीं पाता है. पेरैंट्स को भी सोचना चाहिए कि स्कूल, कोचिंग कोई फैक्टरी नहीं है जहां से हर बच्चा काबिल बन कर ही निकल सके. हर बच्चे की अलग काबिलीयत होती है. उस के अनुसार ही उस का विकास होना चाहिए.’’                     -प्रिया कमल (अभिभावक)  

‘‘स्कूलों में सिलेबस के कठिन होने और पाठ्यपुस्तकों के जल्दीजल्दी बदलने से बच्चे ही नहीं पेरैंट्स भी परेशान होते हैं. इस कारण से वे बच्चों को पढ़ा नहीं     पाते हैं. ऐसे में वे बच्चों को कोचिंग भेजने के लिए मजबूर होते हैं. पहले 5 साल की उम्र में बच्चे स्कूल जाते थे अब 3 साल से कम उम्र में बच्चे स्कूल जाने लगे हैं. इस से उन का बचपन प्रभावित हो रहा है. कई बार तो बच्चों की किताबों का वजन उन के खुद के वजन से भी ज्यादा होता है.’’        -सौम्या मिश्रा (क्रिएटिव राइटर)

मोबाइल छोड़ें किताबों से जुड़ें

‘जल ही जीवन है’ यह तो सुना था पर मोबाइल ही जीवन बन जाएगा, यह सोचा भी नहीं था. मोबाइल के संदर्भ में आज यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा. आज की जैनरेशन मोबाइल पर इतनी ज्यादा आश्रित हो गई है कि वह इस के बिना लाइफ की कल्पना नहीं कर सकती. यहां तक कि अगर उस से मोबाइल और किताबों में से किसी एक को चुनने को कहा जाए तो वह निश्चय ही मोबाइल का चयन करना बेहतर समझेगी. युवाओं को लगता है कि मोबाइल में जो जादू है वह किताबों में नहीं. उन की इसी सोच ने मोबाइल और किताब के बीच प्रतियोगिता को जन्म दिया है.

सचाई यह है कि आज न टैक्नोलौजी को नकारा जा सकता है, न ही किताबों को लेकिन टैक्नोलौजी के प्रयोग को सीमित जरूर किया जा सकता है ताकि लोग किताबों से जुड़े रह कर अपने ज्ञान में वृद्धि कर सकें. इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि आज मोबाइल के कारण ही लोग आउटडोर गेम्स से दूर हो गए हैं. यहां तक कि चौबीसों घंटे मोबाइल में घुसे रहने के कारण युवाओं के पास अपने मातापिता से बात करने तक का समय नहीं होता है, जिस के कारण उन में व्यावहारिक व सामाजिक ज्ञान का अभाव बढ़ रहा है. आप को मोबाइल से लाइफ कितनी ही आसान क्यों न लगती हो लेकिन जो महत्त्व किताबों का है उसे संचार का कोई भी माध्यम कम नहीं कर पाएगा.

किताबों पर हावी

मोबाइल ऐप्स ने घटाया किताबों का महत्त्व : स्मार्टफोन के कारण ऐप्स की बहार आ गई है. अब ऐप्स के माध्यम से पूरा दिन कैसे गुजर जाता है, पता ही नहीं चलता. इन में वाट्सऐप, फेसबुक, स्काइप आदि प्रमुख हैं. इन ऐप्स से बढ़ती नजदीकियां लोगों को किताबों से दूर कर रही हैं. युवाओं को किताबों में सिर गड़ा कर पढ़ने से मोबाइल ऐप्स में व्यस्त रहना अच्छा लगता है. चौबीसों घंटे वाट्सऐप पर दोस्तों से गपशप चलती रहती है. घर बैठे ही स्काइप जैसे माध्यम से एकदूसरे को देखा जा सकता है.

यहां तक कि अब वे पढ़ाई भी वाट्सऐप पर नोट्स शेयर कर के करने लगे हैं. एक दोस्त के नोट्स वाट्सऐप  के माध्यम से पूरे ग्रुप में शेयर कर दिए जाते हैं, जिस से उन के लिए अब चलतेचलते भी पढ़ाई करने की सुविधा हो गई है. इस से उन्हें किताबों को खोलने व उन्हें लाने ले जाने के झंझट से भी छुटकारा मिलता है. पर कठिनाई यह है कि ये नोट्स टाइप किए जाते हैं, लिखे नहीं. जबकि परीक्षा में लिखना होगा, जिस की गति धीरेधीरे कम हो रही है.

मोबाइल पर इंटरनैट : आज के युवा भारीभरकम किताबों को ढोना पसंद नहीं करते, जिस के कारण उन की किताबों में रुचि घटती जा रही है. उन्हें अब किताबों से बेहतर पर्याय इंटरनैट लगता है क्योंकि इस में किताबों की तरह पन्ने पलटने की जरूरत नहीं पड़ती बल्कि गूगल की मदद से कहीं भी कोई भी जानकारी आसानी से प्राप्त की जा सकती है.

उन्हें लगता है कि मोबाइल से जुड़े रहने के कारण उन के एकसाथ कई काम होते रहते हैं, जैसे अगर इंटरनैट की सुविधा से वे मोबाइल पर अपने सिलैबस से संबंधित कोई चीज पढ़ रहे हैं और साथ में मैसेज आ जाए तो दोनों चीजों को साथसाथ हैंडिल किया जा सकता है, जबकि किताबों से ऐसा संभव नहीं है. साथ ही, मोबाइल में इंटरनैट उन के स्टेटस सिंबल को बनाए रखता है. यही सोच उन्हें अब किताबें नहीं बल्कि मोबाइल फोन खरीदने को मजबूर करती है. वे भूल जाते हैं कि गूगल ज्ञान एकत्र करता नहीं, एकत्रित ज्ञान को केवल पुस्तकालय के रूप में रखता है. गूगल का ज्ञान अधूरा या भ्रामक हो सकता है.

गेम्स का बढ़ता क्रेज : मोबाइल फोन में आज ढेरों गेम्स डाउनलोड करने की सुविधा है. इस सुविधा का युवा भरपूर लाभ भी उठा रहे हैं. अब उन्हें परीक्षाओं में अच्छे अंक लाने से ज्यादा अपने पसंदीदा गेम में विजय हासिल करने की उत्सुकता रहती है. अगर एक दोस्त ने बता दिया कि उस ने कार रेस में 10 हजार स्कोर बना लिए हैं तो दूसरा दोस्त पूरे दिन उस स्कोर को पार करने की जुगत में लगा रहता है, चाहे इस से उस का भविष्य चौपट क्यों न हो जाए.

मोबाइल गेम्स के प्रति बढ़ता लगाव उन्हें अब सफर के दौरान भी किताबों की ओर नहीं खींच पा रहा है. तभी तो आप को यात्रा के दौरान युवा के हाथों में किताबें नहीं, बल्कि मोबाइल दिखाई देते हैं.

लेटेस्ट मोबाइल खरीदने की चाह : युवाओं की यह सोच बन गई है कि जितना ज्यादा महंगा व लेटेस्ट फोन होगा, उस में उतने ज्यादा फीचर्स होंगे. इस से उन का अपने ग्रुप में नाम भी होगा. अपने ग्रुप में छाने के लिए युवा जो भी नया फोन मार्केट में आता है उसे खरीदने की कोशिश करते हैं. भले ही इस के लिए उन्हें अपने मातापिता की आवभगत या फिर उन से लड़ाई क्यों न करनी पड़े. उन्हें तो बस किसी भी कीमत पर इस होड़ में पीछे नहीं रहना है. लेटेस्ट फोन खरीदने के चक्कर में वे अपनी किताबों तक से समझौता कर लेते हैं. उन्हें लगता है कि किताबें तो बैग में छिपी रहेंगी, उन्हें देखने वाला कौन है, इसलिए जब जरूरत पड़ेगी तो थोड़ी देर के लिए किसी दोस्त से शेयर कर के काम चला लेंगे, लेकिन मोबाइल तो हमेशा हाथ में रहेगा. इसलिए उस का आकर्षक व नया होना बहुत जरूरी है ताकि शान में कमी न आए. यही सोच उन्हें किताबों से दूर कर रही है.

मोबाइल में गानों की सुविधा : मोबाइल में गानों की सुविधा और इस से बढ़ता लगाव युवाओं को किताबों से दूर कर रहा है. अब वे खाली समय में किताबें पढ़ने से गाने सुनना ज्यादा पसंद करते हैं. साथ ही, अब वे दोस्तों से इस बात की चर्चा करते कम ही नजर आते हैं कि कौन सी किताब परीक्षा के लिए अच्छी है बल्कि वे इस बात पर चर्चा करते हैं कि कौन सा गाना आजकल हिट चल रहा है. भले ही उन्होंने गानों को अपनी जिंदगी बना लिया हो लेकिन उन का गैजेट्स के प्रति बढ़ता प्यार उन्हें किताबों से दूर करने के साथसाथ बाकी चीजों में भी जीरो बना रहा है.

ऐसे जोड़ें बच्चों को किताबों से

पेरैंट्स के लिए अपने बच्चों को किताबों से जोड़ना आज बहुत बड़ी चुनौती बन गई है. लेकिन अगर समझदारी से काम लिया जाए तो इस चुनौती में सफल होना इतना मुश्किल भी नहीं है. आइए जानते हैं कि आप किस तरह अपने बच्चों को किताबों से जोड़ कर रख सकते हैं :

पेरैंट्स पहले खुद छोड़ें मोबाइल : आप अपने बच्चे को तभी सही सीख दे पाएंगे जब आप खुद उस काम को न करते हों. यदि आप खुद हर समय मोबाइल में डूबे रहेंगे तो आप का बच्चा भी आप को देख कर वही सीखेगा. ऐसे में आप उस से कुछ नहीं कह पाएंगे. इसलिए जरूरी है कि मोबाइलरूपी गैजेट्स के मोह को पहले आप त्यागें. फिर अपने बच्चे को धीरेधीरे प्यार से समझाने की कोशिश करें कि मोबाइल नहीं बल्कि किताबें उस के भविष्य को संवारेंगी. किताबें आप को विषय की गहन जानकारी देती हैं जबकि मोबाइल के कारण आप को कौपीपेस्ट की ही लत पड़ रही है.

जब उसे आप की बातें समझ आने लगेंगी और उसे लगने लगेगा कि आप ने भी उस के कारण मोबाइल की लत को छोड़ा है तो वह भी इस से दूर हो कर किताबों से जुड़ने लगेगा.

घर में पढ़ाई का माहौल बनाएं : आप अपने बच्चे को कितने ही अच्छे स्कूल में क्यों न पढ़ा रहे हों या फिर हर विषय के महंगे ट्यूशन क्यों न लगवाए हों, आप घर में उसे पढ़ने के लिए पूरा समय दें.

घर में आप उस की पढ़ाई के लिए अलग टाइमटेबल बनाएं, जिस में आप खुद किताबों की मदद से उसे पढ़ाने की कोशिश करें. जिस चीज को समझाने में आप को दिक्कत आ रही हो, उस के लिए परिवार के किसी अन्य सदस्य की मदद ले सकतेहैं.

इस से उस में आप का डर बना रहेगा और आप को भी उस की परफौर्मेंस के बारे में पता रहेगा. आप का यह प्रयास उसे किताबों से जोड़े रखेगा.

किताबों का महत्त्व समझाएं : बच्चों को इस बात को समझाने की कोशिश करें कि पुस्तकें जीवन का अभिन्न अंग होने के साथसाथ हमारी सब से अच्छी दोस्त भी हैं. हमारे लिए पुस्तकों के बिना सफलता प्राप्त करना मुश्किल है.

यही नहीं, पुस्तकें हमारी रचनात्मक शक्ति का विकास करने में भी मददगार होती हैं. हम जितना ज्यादा पुस्तकों से प्यार करेंगे हमें उतनी ही ज्यादा जानकारी उन से प्राप्त होगी.

किताबों के माध्यम से चीजें हमारे सामने बहुत स्पष्ट होती हैं, जिस से हम खुद चीजों की कल्पना कर पाते हैं. साथ ही, हमारी शब्दावली मजबूत बनती है और हमें चीजों को बेहतर ढंग से लिखने की समझ आती है यानी हमारी लिखने की कुशलता बढ़ती है.

इस बात को समझाने पर भी जोर दें कि किताबों में हर विषय को एकएक कर के व उदाहरणों की मदद द्वारा समझाया जाता है, जिस से मन में किसी भी चीज को ले कर कोई शंका नहीं रहती. अगर एक बार अवधारणा स्पष्ट हो गई तो वह विषय जिंदगीभर के लिए हमारे दिमाग में बैठ जाता है. वहीं इंटरनैट की मदद से आप को जानकारी तो मिल जाएगी लेकिन उस में इतना बिखराव होता है कि आप खुद उस में उलझ कर रह जाएंगे, जिस से बेहतर परिणाम नहीं मिल पाएंगे. एक बार किताब खरीदने के बाद वह जिंदगीभर के लिए आप के पास रहती है, जिस के कारण आप उसे कहीं भी ले जा सकते हैं. लेकिन मोबाइल पर पुस्तकें पढ़ने की सुविधा लेने के लिए आप को नैट कार्ड डलवाने की जरूरत पड़ेगी, जो काफी महंगा पड़ेगा. इसलिए अपने ज्ञान में वृद्धि किताबों से जुड़ कर करें.

स्कूल के दौरान न थमाएं बच्चों के हाथों में मोबाइल : स्कूल के दौरान मोबाइल देने से बच्चे कई बार गलत गतिविधियों में पड़ जाते हैं, जिस से उन की पढ़ाई पर प्रभाव पड़ता है. इसलिए पेरैंट्स होने के नाते आप का यह कर्तव्य बनता है कि आप अपने बच्चे को मोबाइल से तब तक दूर रखें जब तक उस के लिए बहुत जरूरी न हो.

कई बार हम खुद समय से पहले अपने बच्चों को ऐसी सुविधाएं दे बैठते हैं, जिन का वे दुरुपयोग करने लगते हैं. उन में उस वक्त समझ की कमी होती है. इस के लिए दोषी कहीं न कहीं हम ही होते हैं. अगर आप का बच्चा देखादेखी मोबाइल लेने की जिद करे भी तो उसे प्यार से समझाने की कोशिश करें. अगर पढ़ाई के लिए इंटरनैट की जरूरत पड़े तो उसे घर के कंप्यूटर पर इंटरनैट की सुविधा उपलब्ध करवा दें जिस से उस की पढ़ाई बाधित न हो, लेकिन अपनी देखरेख में.

खुद भी खूब पढ़ें किताबें : घर में बच्चे के सामने पढ़ाई का माहौल बनाने के लिए खुद भी खूब किताबें पढ़ें. ऐसी किताबें पढ़ें जिन का ज्ञान आप के बच्चे के भी काम आए. जब वह आप का किताबों से लगाव महसूस करेगा तो वह खुद भी उस माहौल में रमने की कोशिश करेगा, जो हर हाल में उसे किताबों से जोड़ेगा.

बच्चों को गिफ्ट करें किताबें : घर में हम बच्चों के बर्थडे वगैरा पर महंगे गिफ्ट्स ही देते आए हैं. इन गिफ्ट्स में अकसर महंगे कपड़े, वीडियो गेम्स आदि शामिल होते हैं. लेकिन अगर हम उन्हें उन की पसंद की किताबें गिफ्ट करें तो इस से उन्हें जानकारी भी मिल पाएगी और वे इसे बड़े चाव से पढ़ेंगे भी. इसलिए बच्चों को किताबों से जोड़ने के लिए अपनी सोच बदलें.

गिफ्ट का लालच दें : बच्चों को किताबों से जोड़ने के लिए आप उन्हें थोड़ा लालच दे सकते हैं. लेकिन महंगा गिफ्ट दे कर नहीं, क्योंकि इस से उन की आदत बिगड़ेगी.

आप उन्हें किताब का कोई विषय याद करने के लिए दे दीजिए और कहें कि अगर आप इसे दिए गए टाइप पर सही तरीके से मुझे समझाने में सफल हो गए तो आप को गिफ्ट मिलेगा. गिफ्ट के लालच में वे आप को अपना बेहतरीन परिणाम देनेकी कोशिश करेंगे. इस प्रकार आप अपने बच्चों को किताबों से जोड़ पाएंगे. आखिर में यही कहा जा सकता है कि भले ही आज ज्ञान के कई माध्यम विकसित हो गए हैं लेकिन इन के बावजूद किताबों का महत्त्व कम नहीं हुआ है और न ही होगा. ज्ञान के क्षेत्र में क्रांति सिर्फ और सिर्फ पुस्तकों के माध्यम से ही आ सकती है.     

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