मुंबई में 1993 में हुए सीरियल बम धमाकों के लिए साधन जुटाने के जुर्म में याकूब मेमन को फांसी दे कर सरकार ने कानून का चाहे अक्षरश: सम्मान किया हो, लेकिन इस के साथ उस ने सामाजिक खाई को और चौड़ा करने का काम भी कर डाला है. आमतौर पर देश में फांसी की सजा देने पर कोई उंगली नहीं उठाता पर इस बार यह मामला तूल पकड़ गया और बहुतों को लगने लगा कि कहीं कुछ गलत हो रहा है जबकि फांसी से कुछ घंटे पहले तक सुप्रीम कोर्ट ने रात 3 बजे विशेष अदालत लगा कर पक्षों को सुना. एक व्यक्ति की मौत की सजा पर इतना विवाद खड़ा नहीं होता चाहे अन्याय ही क्यों न हो रहा हो पर यह मामला इसलिए विशेष हो गया क्योंकि राममंदिर बनाने के आंदोलन को ले कर जो हजारों मौतें हुई हैं उन में अब तक केवल याकूब मेमन को पहली और शायद आखिरी मौत की सजा हुई है.

राममंदिर आंदोलन ने देश के समाज को 2 हिस्सों में ऐसा बांट दिया जो शायद 1947 के विभाजन ने भी नहीं बांटा था. 1947 के विभाजन से पहले देश में छिटपुट धार्मिक दंगे हुए थे पर विभाजन के बाद जिस ने जिस देश में रहना सही समझा, रहता रहा. हिंदू व मुसलमान दोस्त तो न बने पर एकदूसरे को आराम से झेलते रहे. राममंदिर को अयोध्या में बाबरी मसजिद के स्थान पर बनाने की जिद की वजह से पुराने जख्म फिर हरे हो गए और अब तक रिस रहे हैं. हर थोड़े दिन बाद कोई ऐसी घटना हो जाती है जिस के चलते राममंदिर के तेजाब के छींटे किसी पर आ गिरते हैं. याकूब मेमन के प्रति किसी तरह की दया या सहानुभूति दिखाने की वैसे जरूरत नहीं है क्योंकि अगर धार्मिक दंगों को कराने और निर्दोषों की जान लेने जैसा कोई काम किया गया है तो सजा देना गलत नहीं है पर यह सरकार कैसी है जो हजारों हत्याओं के लिए केवल 1 को पकड़ पाई? यह कानून व्यवस्था कैसी, जो बीसियों सालों में हुए धार्मिक दंगों और उन में होने वाली हत्याओं के लिए केवल 1 को सजा दिला पाती है?

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