लोकसभा में बहस के बाद लगता है कि सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे और शिवराज सिंह चौहान को अपने पदों से फिलहाल तो इस्तीफे नहीं देने होंगे क्योंकि कांग्रेस का दूसरे विपक्षी साथी दलों ने साथ नहीं दिया. पर इस का अर्थ यह नहीं कि यह मामला सुलझ गया है. इन तीनों पर लगे आरोपों को कांग्रेस लोगों के मन पर बैठाने में कामयाब हो गई है. उधर, इस्तीफे न दिलवा कर भारतीय जनता पार्टी ने साबित कर दिया है कि राजनीति के खेल में वह वही पैंतरे अपनाएगी जो कांग्रेस की सरकारें अपनाती रही हैं. भ्रष्टाचार या गलती के लिए चुने हुए नेता त्यागपत्र नहीं देते क्योंकि वे जानते हैं कि चुनाव जीतना और मंत्री पद पाना आसान काम नहीं होता और इस स्थिति तक पहुंचने में उन्हें 15-20 साल लगते हैं. आई शक्ति को सत्ता के सिद्धांतों और आरोपों के नाम पर तो छोड़ने का सवाल ही पैदा नहीं होता. आज राजनीति में जो शामिल है वह देश या समाज सेवा के लिए नहीं है. यह तो धंधा है, व्यवसाय है, पैसा कमाने का जरिया है. इस में पूरे घर का पैसा लगता है और समय भी. अगर आप राजनीति में हैं तो अब और कुछ नहीं कर सकते और जाहिर है कि आप को घर चलाने के लिए, शानोशौकत के लिए, बुरे दिनों को काटने के लिए, चुनाव लड़ने के लिए, आनेजाने के लिए, बच्चों को सैटल करने के लिए पैसा तो चाहिए ही.

ललित मोदी को बचाने व व्यापमं स्कैंडल को छिपाने के लिए भाजपा नेताओं ने जो किया वह अनूठा नहीं था. जो इस गुमान में रहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी के नेता किसी और मिट्टी के बने हैं, क्योंकि वे मंदिरों के चक्कर लगाते हैं, हवन करते हैं, स्वामियों के चरण छूते हैं, तिलक लगाए राज चलाते हैं, इसलिए शरीफ हैं, सरासर गलत है. न गांधी टोपी किसी को शुद्ध करती है न भगवा दुपट्टा और न मफलर. ये तो दिखावे हैं. आरोपों के नाम पर इस्तीफे देने का अर्थ है कि दुकान या व्यवसाय बंद कर देना. यह कोई भी नहीं करेगा. सहीगलत की बात बाद में आएगी. हां, जिस दिन आप से ऊपर वाले को लगेगा कि आप उस पर बोझ बन रहे हैं उस दिन आप का जाना तय है. सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे व शिवराज सिंह चौहान को अभी निकालने का अर्थ है विपक्ष और कांग्रेस के हाथ को मजबूत करना और नरेंद्र मोदी यह नहीं करना चाहेंगे.

कांग्रेस के साथ दिक्कत यह है कि वह जब दूसरों पर आरोप लगाती है तो दूसरे गड़े मुरदे उखाड़ लाते हैं और बहस का मुद्दा बन जाता है कि कौन बड़ा बेईमान है. जनता बेचारी तो ठगी रह जाती है. वह तो दोनों तरफ के नेताओं की ज्यादतियों की मारी हो गई है और उस के पास विकल्प न के बराबर हैं. कांग्रेस ने इस बार फिर भी खासी हिम्मत दिखाई. चुनावों में भारी पराजय मिलने के बाद उस ने उसी तरह हिम्मत नहीं हारी जैसे भारतीय जनता पार्टी ने 1984 में नहीं हारी थी जब लोकसभा में उस के केवल 2 सांसद रह गए थे. राजनीति में बने रहना ही कला है. और ये दोनों पार्टियां अब इस में माहिर हैं. राजनीति सुधरेगी, यह उम्मीद जनता अब छोड़ दे क्योंकि वोटिंग मशीनों से एक ही तरह का सड़ा सामान बनेगा.

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