Download App

जिंदगी में संतुलन की अहमियत

जीवन में संतुलन का बड़ा महत्त्व है. खानेपीने, सांस लेने जैसा यह भी जरूरी है ताकि जीवन चैन से जिया जा सके. संतुलन का मतलब हर चीज में उचित तालमेल बिठा कर चलना होता है. जहां सावधानी हटी, दुर्घटना घटी. दुर्घटना घटती ही तब है जब हम अपना रास्ता छोड़ कर किसी और रास्ते पर चल पड़ते हैं. उत्तराखंड में भयावह तूफान ने 10 हजार से ज्यादा लोग लील लिए. हजारों घर उजड़ गए जिन्हें आजीवन इस पीड़ा के साथ जीना पड़ेगा मगर यह कड़वा सत्य है कि वहां जो हुआ वह इसलिए कि मनुष्य ने प्रकृति का रास्ता रोक रखा था. इतने वर्ष अगर नदी ने उधर का रुख नहीं किया तो मनुष्य ने उसी रास्ते को व्यापार का स्थान बना लिया. नदी के रास्ते में यदि मनुष्य न आया होता तो ऐसा होता ही नहीं.

24 छात्र व्यास नदी में बह गए. 24 घर उजड़ गए. मांबाप का जीवन अंधेरे में डूब गया. जो हुआ दुखद हुआ. इसे ले कर दोषारोपण भी हुए. कुछ अधिकारियों को निलंबित भी कर दिया गया. नतीजा क्या होगा? जो गए सो वापस नहीं आएंगे. सवाल यह है, बच्चे नदी के रास्ते में गए ही क्यों? जिस तरह ट्रेन की पटरी पर चलने का रास्ता सिर्फ ट्रेन के लिए है, उसी का पहला अधिकार है उस पर, उसी तरह मनुष्य को अपने रास्ते का पूरी गंभीरता से पता होना चाहिए. समाज का ढांचा इसी तर्ज पर चलता है कि हर जीने वाला अपनाअपना दायित्व ईमानदारी से निभाए. नेता ईमानदार हो तो देश की समूल पीड़ा ही समाप्त हो जाए. जनता वोट देने की अपनी जिम्मेदारी पूरी ईमानदारी से निभाए. बेईमानी और लापरवाही का हमारे जीवन में कोई स्थान नहीं है. हादसा तभी होता है जब कार या बस ट्रेन के रास्ते पर आ जाती है. हवाई रास्ता हवाई जहाज के लिए है और सड़क मार्ग बसों, कारों और पैदल चलने वालों के लिए. इसी तरह सब का अपनाअपना रास्ता है. प्रकृति ने सब को सब का रास्ता दे रखा है. फर्क सिर्फ इतना सा है कि हम अपना रास्ता देखनासमझना ही नहीं चाहते, अनदेखा कर जाते हैं, जानबूझ कर उसे नकारते हैं.

नतीजा हमारे सामने है-कश्मीर में बाढ़ की जो इतनी बड़ी त्रासदी हुई उस में किस का दोष है? क्या हमारा ही नहीं? झीलों के शहर को हम ने ईंटपत्थरों का घर बना दिया. पहाड़ों से आने वाला पानी जो झेलम नदी में नहीं समा पाता था, वह झीलों में भर जाता था. और वही तो हुआ. बेचारा पानी, अपनी झीलों में ही तो आया. उसे क्या पता था उस के घर में किसी और ने डेरा लगा रखा है. घुसपैठ किस ने की है? क्या पानी ने? नहीं तो, वह तो अपने ही घर आया था न. अनचाहे मेहमान तो हम लोग थे जिन्हें सेना की कृपा से बचाया गया. बचाया गया या कहिए पानी को सहज घर से बाहर खदेड़ा गया. खदेड़ा गया शब्द अप्रिय लग रहा है, लिखने में भी और पढ़ने में भी. शायद सुनने में भी खदेड़ना का अर्थ है छड़ी की नोंक पर किसी को बाहर निकालना. क्या हम लोग आंखें होते हुए भी अंधों सा व्यवहार नहीं कर रहे? कबूतर की तरह आंख बंद कर के जीते हैं कि बिल्ली कहीं नहीं है. जबकि आसपास ही विचरती बिल्ली कब उसे ग्रास बना लेती है, पता ही नहीं चलता. जिस शाख पर घरौंदा है उसी शाख को धीरेधीरे काटने का हुनर भला हम से अच्छा किसे आता होगा.

प्रकृति तो बेचारी लगातार संकेत देती रहती है मगर हम ही आंख के अंधे जो कुछ भी देखना, सुनना और समझना पसंद नहीं करते हैं और न ही हर पल अपने ही जीवन को पलपल मौत की तरफ बढ़ते देखनासमझना चाहते हैं. अपनी दुर्दशा का सारा का सारा इल्जाम हम बेचारी कुदरत पर लगा कर आंख मूंद लेते हैं मगर सत्य यही है कि बेचारी, प्रकृति नहीं बेचारे तो हम हैं. हम ही हैं जिन्हें अपना काले अंधकार से भरा भविष्य नजर नहीं आ रहा. आने वाली पीढ़ी को हम क्या सौंप कर जाने वाले हैं, उस का अंदाजा हमें आज ही हो जाना चाहिए. भावना से शून्य तो हम हो ही चुके हैं. किसी के कंधे पर पैर रख कर ऊपर जाने का हुनर तो हमें आ ही चुका है. अब लाशों के ढेर पर खड़े हो कर विजय उत्सव मनाना ही रह गया था जो पाकिस्तान के पेशावर में हो भी गया. वे लाशें किसी दुश्मन की नहीं थीं, मासूम बच्चों की थीं जिन्हें न सत्ता से कुछ लेना था न राजनीति या धनसंपदा से. हमें कल नजर ही नहीं आ रहा. आज का सत्यानाश करने वाले हम यही समझ नहीं पा रहे भविष्य समाप्त करने वालों का जनाजा किस के कंधे पर जाएगा. जो बच्चे जवान हो कर हमारे बुढ़ापे को श्मशान तक पहुंचाने वाले हैं, उन्हें ही समाप्त कर क्या हम ने अपना बुढ़ापा लावारिस नहीं बना लिया?

यहां भी रास्ता ही भटक गए हैं हम. बच्चों का बचपन और जवानों की जवानी निगल जाने वाले हम समझ क्यों नहीं पा रहे कि कल हमारा दाहसंस्कार कैसे होगा, कौन हमें सुपुर्देखाक करेगा. यह तो प्रकृति का नियम है जो आया है उसे जाना भी है. सही यही है जो पहले आया वह पहले जाए. दादा की अरथी पोते के कंधे पर खूब सजती है. जाने वाले की वेदना तो होती है मगर शवयात्रा में साथ चलने वाले कहते हैं, ‘मरने वाला अच्छा इंसान था, नातीपोतों का सुख भोग कर जा रहा है.’ क्या हमें वह सुख मिलेगा, जरा सोचिए. प्रकृति के हर काम में तो हमारा दखल होता जा रहा है, जिसे 60-70 साल में जाना है उसे हम पहले ही भेजते जा रहे हैं. अधूरी इच्छाएं दमित हो कर कैसा बवंडर खड़ा करती हैं, इस का सहज नतीजा हमारे सामने है, जो मिले उसे सहज स्वीकार कर लेना हमें अब याद ही नहीं रहा. हमारा असंतोष घर की दीवारों को तोड़ कहांकहां फैल गया है. शरारतें, जिसे बच्चों की शरारत समझा जाता था, अब बचपने की परिधि से बहुत दूर चली आई हैं. मरना या मार देना एक नया ही खेल बन गया है जिसे भीगी आंखों से, बेबसी के साथ देखा जा रहा है, सहा जा रहा है मगर रोका नहीं जा रहा.

अब नहीं तो कब

हर बिगड़ी व्यवस्था का बीज कहीं हम ने ही तो नहीं डाला था, यह सोचने का विषय है. हमारे ही रोपे संस्कार आज हमें शर्मसार कर रहे हैं, यह स्वीकार करने का समय है. आतंकवादी और बलात्कारी भी तो किसी मां की ही गोद से निकले हैं. प्रकृति से भी कहीं आगे निकल जाना, हमें किसी अन्य लोक में समय से पहले भेज रहा है. जहां 70-80-90 की उम्र में जाना था वहां 12-14-20 साल में ही भेज देना क्या प्रकृति के नियमों का उल्लंघन नहीं है? यहां भी प्रकृति के काम में दखल. कब हम एक नैसर्गिक संतुलन बनाना सीखेंगे? किसी की सीमा में हमारा हस्तक्षेप आखिर कब बंद होगा? कब आएगा वह दिन जब हम अपनी और दूसरे की मर्यादा का सम्मान करना सीखेंगे? कब हम संतुलन बनाना सीखेंगे? अब नहीं तो आखिर कब?

भारत भूमि युगे युगे

वेंकैया बनाम वरुण

अजमल आमिर कसाब की फांसी गुजरे कल की बात हो गई है लेकिन वरुण गांधी का बयान भाजपा के गले की फांस बन गया है जिस में उन्होंने कहा था कि अब तक ज्यादातर फांसियां अल्पसंख्यकों यानी मुसलमानों और दलितों को ही क्यों हुई हैं. इस फांस को बगैर सर्जरी के हटाने की कोशिश वरिष्ठ मंत्री वेंकैया नायडू ने यह कहते की कि क्या फांसी में भी आरक्षण व्यवस्था लागू की जानी चाहिए? हर कोई जानता है कि मुद्दा या लड़ाई कसाब, दलित या फांसी नहीं बल्कि भाजपा के अंदर वर्चस्व की है. वरुण गांधी के कांग्रेसी संस्कार कभीकभी शब्दों और विचारों में प्रकट हो जाते हैं तो मूल भाजपाई तिलमिला उठते हैं. लेकिन वे कर कुछ नहीं पाते. इस की पहली वजह तो यह है कि वरुण मेनका गांधी के बेटे हैं. उन की गंभीरता और परिपक्वता को ले कर संशय बना ही रहता है. और दूसरी, उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव की आहट है. ऐसे में कोई उन से पंगा नहीं लेना चाहता.

*

मैगी रिटर्न्स

मुंबई उच्च न्यायालय के फैसले से पहले ही केंद्रीय उपभोक्ता मामलों के मंत्री रामविलास पासवान ने अपनी यह उम्मीद सार्वजनिक तौर पर जता दी थी कि मैगी जल्द ही दुकानों पर लौटेगी. इस के बाद अदालत की सी भाषा का इस्तेमाल करते उन्होंने कहा था कि तथ्यपरक निष्कर्ष आने तक अनावश्यक हंगामा नहीं होना चाहिए. पासवान की आवाज में दम इस बात का भी था कि टैक्नोलौजी रिसर्च इंस्टीट्यूट ने अपनी जांच में मैगी को सुरक्षित पाया है. इस विज्ञापन रूपी बयान के कोई खास माने होते अगर योग गुरु बाबा रामदेव देसी मैगी बाजार में लाने का एलान न कर चुके होते. रामदेवरामविलास के संबंधों पर इस बयान का फर्क पड़ना तय है जिस की मध्यस्थता करते नरेंद्र मोदी को तैयार रहना चाहिए क्योंकि बात मैगी की कम मुनाफे की ज्यादा है.

*

कोर्ट को बख्शें

तेजतर्रार डी के अरुणा साल 2014 तक आंध्र प्रदेश की जनसंपर्क मंत्री हुआ करती थीं लेकिन जब तेलंगाना राज्य बना तो उन्हें मंत्री नहीं बनाया गया. यह एक साधारण सी सियासी बात है जिसे ले कर अरुणा सीधे सुप्रीम कोर्ट जा पहुंचीं और एक जनहित याचिका खुद के मंत्री न बनाए जाने पर दायर कर दी. उन की वकील मीनाक्षी अरोड़ा ने दलील यह दी कि तेलंगाना सहित उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब, नागालैंड और मिजोरम में सरकारें समानता के अधिकार का पालन नहीं कर रही हैं. इस अद्भुत याचिका और तर्क पर सुप्रीम कोर्ट का हैरान हो जाना स्वाभाविक था. वजह न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के कामों व अधिकारों के बारे में हर कोई जानता है, इसलिए बड़ी शिष्टता व सभ्यता से यह याचिका जनहित में ही खारिज कर दी गई. वहीं, अदालत ने यह कहते मलहम लगा दिया कि अदालत विधायिका पर ऐसे दबाव नहीं डाल सकती. ऐसी मांग उठाने के और भी मंच हैं, अब अरुणा जो चाहें मंच चुन लें.

*

किस का बजाज

देश के शीर्ष उद्योगपतियों में शुमार सांसद राहुल बजाज ने बड़ी दिलचस्प बातें बीते दिनों कहीं. वे भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों के साथ हैं लेकिन कह वही रहे हैं जो बाकी सभी लोग कह रहे हैं. लाल बुझक्कड़ शैली में एक पहेली का समापन करते राहुल बजाज ने वह रहस्य खोला जो पहले से ही खुला पड़ा था कि पिछले साल ऐतिहासिक जीत हासिल करने वाली सरकार अपनी चमक खो रही है. सरकार यानी नरेंद्र मोदी और राहुल बजाज यानी उद्योग जगत, जिस के इशारों पर सरकारें बनती और गिरती हैं. अब इस उद्योग जगत ने एक चर्चा पर हां की मुहर लगा दी तो धड़ल्ले से कसबाई स्तर तक के सर्वे आने लगे कि नहीं, अभी ऐसा कहना जल्दबाजी होगी. नरेंद्र मोदी को और वक्त दिया जाना चाहिए. तय है इस धुंधलाती चमक के बारे में मध्यवर्गीय राय ज्यादा माने रखती है जो इतनी जल्दी अपने फैसले पर पछताना नहीं चाहता.

अनीता की दूसरी पारी

टीवी की दुनिया टीआरपी के घोड़े पर सवार रहती है. जरा सी टीआरपी क्या लुढ़की, इन के सीरियल्स में उठापटक होने लगती है. कभी किसी किरदार को विवाद की चादर ओढ़ा कर तो कभी गुजरे जमाने के मशहूर व आज रिटायर हो चुके अदाकारों को छोटे परदे पर लाया जाता है ताकि सीरियल्स से दर्शक को चिपकाए रखा जा सके. कई बार यह तरीका कामयाब भी हो जाता है. शेखर सुमन सालों पहले अपना फिल्मी कैरियर डूबता देख रहे थे तभी उन्हें टीवी में बुलावा आया और उन्होंने टीवी की दुनिया में लंबी पारी खेली. इसी तरह फारूख शेख भी टीवी पर आए. छोटे परदे पर इन दिनों 80-90 दशक की अभिनेत्रियों को लाया जा रहा है. पिछले साल सोनाली बेंद्रे ने जहां ‘अजीब दास्तान है ये’ धारावाहिक से टीवी पर कमबैक किया वहीं पूनम ढिल्लन, करिश्मा कपूर, माधुरी दीक्षित और प्रीटी जिंटा भी यह कर चुकी हैं और आज भी कर रही हैं.

जल्द ही अभिनेत्री अनीता राज भी ‘एक था राजा एक थी रानी’ धारावाहिक में महारानी प्रियंवदा के किरदार में नजर आएंगी. वैसे इस से पहले वे अनिल कपूर के साथ धारावाहिक ‘24’ में अहम किरदार निभा चुकी हैं. दरअसल अपने जमाने की मशहूर अभिनेत्रियों को टीवी पर लाने के दोहरे फायदे हैं. पहला तो यह कि रिटायर हो चुकी इन अदाकारों में वापस कैमरे पर आने का उत्साह होता है जिस के चलते ये टीवी पर पहले से स्थापित हो चुके बड़े कलाकारों की तरह नखरे नहीं करते. दूसरा इन अभिनेत्रियों के जमाने से जुड़ा दर्शक वर्ग इन धारावाहिकों को बोनस की तरह मिलता है. यही वजह है कि अमोल पालेकर और रघुवीर यादव भी एक सीरियल से टीवी पर कमबैक कर रहे हैं. अनीता राज की बात करें तो वे अपने जमाने में बहुत कामयाब अभिनेत्री नहीं थी लेकिन कुछ ग्लैमरस स्टाइल और इक्कादुक्का हिट फिल्मों की बदौलत लोग उन्हें जानते हैं. पर उन की लोकप्रियता इस धारावाहिक को बहुत ज्यादा फायदा पहुंचाएगी, लगता नहीं है.

गौरतलब है कि अनीता राज की पहली फिल्म ‘प्रेमगीत’ आज से 33 साल पहले 1982 में बनी थी. इस फिल्म का गाना ‘होंठों से छू लो तुम’ आज भी अपना प्रभाव सुनने वालों पर छोड़ता है. अनीता राज के दौर की ही नहीं, उन के बाद की बहुत सारी अभिनेत्रियां आज गुम सी हो गई हैं. अनीता राज ने आज भी अपने को इस तरह से फिट रखा है कि उन को देख कर उन की उम्र का सही अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. अनीता राज का हेयरस्टाइल फैशनेबल महिलाओं के बीच मशहूर था. हाल में जब इस प्रतिनिधि ने उन से आज के दौर की ज्यादातर अभिनेत्रियों की गुमनामी को ले कर सवाल पूछा तो उन का कहना था.’’ ‘‘नहीं ऐसा नहीं है. जिस ने वक्त के हिसाब से रोल निभाए और उम्र के प्रभाव को मैनेज किया वह आज भी फिल्मी परदे पर दिख रहा है. बढ़ती उम्र में अपने हिसाब के रोल कम मिलते हैं. अनीता का इशारा इस बात से है कि जो अभिनेत्रियां आज फिट हैं वही टीवी पर काम पा सकती हैं. लिहाजा उन से पूछने पर वे कहती हैं.

‘‘फिटनैस के लिए ऐक्सरसाइज और अपनी डाइट पर ध्यान देने के साथ ही साथ मानसिक रूप से सुकून का अनुभव भी करना चाहिए. मैं ने सही समय पर फिल्मों में काम किया. इस के बाद शादी और परिवार को समय दिया. जब मैं ने शादी की तो फिल्मों को छोड़ कर परिवार को समय दिया. मेरे पति का मुंबई में बिजनैस है. मैं उस में सहयोग देने लगी. मेरा बेटा बड़ा हो गया तो मैं ने फिर से ऐक्ंिटग की दुनिया में कदम रखा. मैं अपने बेटे और पति को उन के काम में सहयोग देती हूं. बेटा फिल्म एडिटिंग की लाइन में है. ‘अग्निपथ’ और ‘ये जवानी है दीवानी’ इन दोनों फिल्मों को उस ने एडिट किया है. वह फिल्म डायरैक्शन का काम करना चाहता है. और रही बात फिट रहने की तो मेरी फिटनैस का राज मेरा प्रतिदिन दौड़ना है. मैं रनिंग ऐक्सरसाइज करती हूं. मुंबई में समुद्र के किनारे मुझे दौड़ने का बहुत शौक है. सप्ताह में 3 दिन मैं 20 किलोमीटर की रनिंग करती हूं. मैं 42 किलोमीटर लंबी मैराथन रेस में हिस्सा ले चुकी हूं. इस के अलावा मैंटल ऐक्सरसाइज करती हूं. मैं शुरू से ही सुबह जल्दी उठती रही हूं. सुबह हर दिन टलहने और दौड़ने का काम करती रही हूं. इस से मेरे शरीर में इस तरह की ऐक्सरसाइज करने की आदत पड़ी है.’’ हालांकि फिल्मी दुनिया में जहां मौजमस्ती और लेट नाइट पार्टी रोज होती हैं. फिटनैस के लिए टाइम निकालना बेहद मुश्किल है. लिहाजा ज्यादातर कलाकार या तो जिम साथ ले कर चलते हैं या फिर स्टीरौयड पर निर्भर रहते हैं. आप के पिताजी फिल्मों के सफल चरित्र अभिनेता थे, इस के बाद भी आप पार्टियों में नहीं जाती थीं. इस पर अनीता बताती हैं.

‘‘मेरे पिता जगदीश राज फिल्मों में काम करते थे. वे अपने बच्चों को पूरी आजादी देते थे. इस के बाद भी हम लोगों पर फिल्मी माहौल का असर नहीं हुआ. मेरे पति और बेटा भी फिल्मी पार्टियों से दूर ही रहते हैं. पार्टियों में शिरकत करने में समय का सब से अधिक नुकसान होता है.’’ अकसर देखा जाता है कि सीनियर कलाकार अपने से कम अनुभवी कलाकारों के साथ सही से पेश नहीं आते. ऐसे में सीरियल ‘एक था राजा एक थी रानी’ में आप जूनियर आर्टिस्टों के साथ में काम कर रही हैं, उन से तालमेल बैठाने में कोई परेशानी तो नहीं आती है? इस सवाल पर अनीता का रिएक्शन यो है. ‘‘हमारे दौर में फिल्मों के सैट पर शूटिंग के समय अपने शूट का इंतजार करते समय कलाकार एकसाथ पासपास ही बैठते थे. छोटेबडे़ सभी कलाकार ज्यादातर एकदूसरे से बात कर के ही समय पास करते थे. अब कलाकारों को वैनिटी वैन की सुविधा होती है. जहां वे अकेले अपना समय गुजारते हैं. हमें तो एकसाथ कलाकारों के साथ बैठने की आदत है. ऐसे में मुझे छोटेबडे़ कलाकारों के साथ तालमेल बैठाने में कोई परेशानी नहीं होती. कलाकार साथ बैठते हैं तो आपसी रिलेशन बनते हैं. आज के लोग स्मार्टफोन पर ज्यादा वक्त गुजारते हैं.’’ फिल्में भले ही अनीता की सफल नहीं रही हों लेकिन उन का ग्लैमरस लुक उस जमाने में काफी चर्चित था. जब उन से पूछा गया कि.

आप का हेयरस्टाइल बहुत मशहूर था. कैसे बना यह स्टाइल तो अनीता याद करती हैं ‘‘अनीता राज हेयरस्टाइल कैसे मशहूर हो गया, यह तो मुझे भी नहीं पता. जब मेरी फिल्मों को पसंद किया जाने लगा तो लोगों को मेरा हेयरस्टाइल पसंद आने लगा. जब भी शूटिंग पर लोग मिलते तो मेरे हेयरस्टाइल की तारीफ करते. तब मुझे लगा कि मैं भी कुछ स्टाइलिश हो गई हूं. सही बात यह है कि वह कोई स्टाइल नहीं था वह तो मेरा नैचुरल स्टाइल था. मेरे बाल लंबे थे, इस कारण यह स्टाइल मशहूर हो गया.’’

आज के दौर में पसंदीदा अभिनेत्री को ले कर अनीता राज प्रियंका चोपड़ा और कंगना राणावत का नाम लेती हैं. उन के मुताबिक ये दोनों ही अच्छा अभिनय कर रही हैं. इन की फिल्मों में अलगअलग रोल देखने को मिलते हैं. यही नहीं, ये फैशन और स्टाइल आइकौन भी हैं.  इन को दर्शक भी पसंद करते हैं. हमारे समय से आज के समय की फिल्मी दुनिया बदल गई है. पहले सभी कलाकार फैमिली की तरह आपस में रहते थे, अब ऐसा माहौल नहीं दिखता.’’ अकसर अभिनेत्रियां अपने किरदार की लेंथ व उस के शेड्स को ले कर बेहद सतर्क रहती हैं. जब अनीता से पूछा गया कि. इस दौर में आ कर किस तरह के रोल करने चाहिएं तो उन का कहना है कि उम्र के इस दौर में रोल का चुनाव करना ही सब से प्रमुख काम होता है. अब पहले वाले रोल न मिलेंगे और न ही उस तरह के रोल करना अच्छा लगेगा. वे रोल करें जो आप की उम्र और पर्सनैलिटी को अच्छे लगें. सीरियल ‘एक था राजा एक थी रानी’ में मुझे महारानी का रोल अच्छा लगता है. मंहगी ज्वैलरी, राजघराने की पोशाक, वैसे ही बोलने का अंदाज सब अच्छा लगता है. इस रोल को मैं मजे ले कर कर रही हूं. कई बार तो घर आ कर भी उसी अंदाज में बात करती हूं तो मेरे पति हंसते हुए कहते हैं कि अब यहां महारानी मत बनो.

बहरहाल, अनीता राज जो अपने फिल्मी कैरियर में औसत दरजे से कभी उठ नहीं पाईं, टीवी पर भी कुछ ऐसा ही कर रही हैं. हालांकि उन की मजबूरी भी है कि उन्हें जो रोल औफर हो रहे हैं, वही बड़े सीमित हैं. लिहाजा, चुइंगम सरीखे खींचे जा रहे सीरियल में अनीता कुछ यादगार कर पाएंगी, कहना जरा मुश्किल है.

डायरैक्ट सैलिंग, उभरता कैरियर

एक मल्टीनैशनल कंपनी में कार्यरत अनुराधा गोयल, जो नोएडा की एक पौश कालोनी में रहती हैं, ने पिछले 2 सालों से किसी मौल या दुकान से अपने लिए ब्यूटी प्रोडक्ट्स नहीं खरीदे हैं. वे औरीफ्लेम डीलर को फोन कर देती हैं और घर बैठे ही उन्हें अपनी जरूरत के कौस्मैटिक्स उन्हीं दामों में मिल  जाते हैं. सब से अच्छी बात उन्हें यह लगती है कि जाने के झंझट से बचने के साथ कई बार फायदेमंद स्कीम और डिस्काउंट भी उन्हें मिल जाता है. कंपनी की बुकलैट से उन्हें नए प्रोडक्ट्स की जानकारी भी मिल जाती है और दामों को ले कर कोई चिकचिक भी नहीं करनी पड़ती. 

अनुराधा की तरह अन्य कामकाजी और घरेलू महिलाएं हैं जो डायरैक्ट सैलिंग से अपने काम की चीजों को घर बैठे मंगा लेती हैं फिर चाहे वे ब्यूटी प्रोडक्ट्स हों या हैल्थ प्रोडक्ट्स या टपरवेयर के कंटेनर या घर में काम आने वाली अन्य उपयोगी चीजें. यही नहीं, अगर अपने आसपास आप नजर घुमा कर देखेंगी तो पाएंगी कि डायरैक्ट सैलिंग एक फायदेमंद कैरियर की तरह भी अपनी जड़ें जमा चुका है, खासकर महिलाएं किसी न किसी डायरैक्ट सैलिंग नैटवर्क का हिस्सा जरूर होती हैं. केवल शहरों में ही नहीं, कसबों और ग्रामीण इलाकों में भी डायरैक्ट सैलिंग यानी प्रत्यक्ष बिक्री का चलन तेजी पकड़ रहा है.

कई ऐसी भी डायरैक्ट सैलिंग कंपनियां हैं जिन्हें लगता है कि उन के प्रोडक्ट्स को पर्सनल अटैंशन की आवश्यकता है और उस के लिए डायरैक्ट सैलिंग उन्हें सही प्लेटफौर्म लगता है. कुछ ऐसे उत्पाद होते हैं जिन्हें खरीदने से पहले दूसरों की सहमति या आश्वासन की आवश्यकता होती है, जैसे हैल्थ प्रोडक्ट्स. चूंकि अधिकांश हैल्थ सप्लीमैंट्स की कीमत 500 रुपए या अधिक होती है और लोग हैल्थ के मामले में कोई रिस्क नहीं उठाना चाहते हैं. इसलिए वे इन्हें डायरैक्ट सैलिंग कंपनियों से लेना पसंद करते हैं.

क्या है डायरैक्ट सैलिंग

यह एक ऐसा व्यापारिक माध्यम है जिस में उत्पादों और सेवाओं की मार्केटिंग सीधे उपभोक्ताओं के साथ की जाती है. इस में उपभोक्ता और विक्रेता सीधे जुड़े होते हैं और उत्पादों की सप्लाई उपभोक्ता जहां चाहे वहां की जा सकती है. इस में अपने निजी संपर्कों का प्रयोग करते हुए ‘पार्टी प्लान’ द्वारा बिजनैस किया जा सकता है. यानी कि किसी सोशल गैदरिंग के दौरान या फिर किटी पार्टी में अपने उत्पादों का प्रदर्शन किया जाए और साथ ही अपने ग्राहक बना लिए जाएं. यह बिजनैस एक नैटवर्क की तरह चलाया जाता है.

डायरैक्ट सैलिंग करने वाली कंपनियां जैसे एमवे, ओरीफ्लेम, एवोन, टपरवेयर, मोदीकेयर, सामी डायरैक्ट आदि अपने प्रतिनिधि मैंबर बनाती हैं और वे मैंबर आगे अपने और मैंबर बनाते जाते हैं. और इस तरह यह नैटवर्क एक कड़ी की तरह बनता और बढ़ता जाता है. अधिकतर कंपनियां बहुस्तरीय लाभ योजना के तहत अपने एजेंट को उस की निजी बिक्री का लाभ देती हैं और उस एजेंट ने जिन मैंबर्स को जोड़ा होता है, उन्हें भी उस के द्वारा अर्जित लाभ का हिस्सा दिया जाता है. इस की सब से महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस में उपभोक्ता और विक्रेता सीधे जुड़े होते हैं. इस में उत्पादों की सप्लाई उपभोक्ताओं के घर या कहीं पर भी की जा सकती है.

देता है मोटा मुनाफा

अगर इस समय बिक्री पर नजर डालें तो भिन्नभिन्न कारणों की वजह से भारतीय उपभोक्ता एमवे के शैंपू, टपरवेयर के कंटेनर, ओरीफ्लेम की क्रीम, सामी डायरैक्ट के हैल्थ सप्लीमैंट्स व स्किन केयर प्रोडक्ट्स आदि लगातार खरीद रहे हैं. जबकि आम एफएमसीजी कंपनियों की बिक्री दर में कमी आई है. डायरैक्ट सैलिंग बिजनैस को कम इन्वैस्टमैंट और ज्यादा रिटर्न के रूप में जाना जाता है. 

एमवे इंडिया (वेस्ट) के मैनेजर, कौर्पोरेट कम्युनिकेशंस, जिगनेश मेहता के अनुसार, ‘‘एक कंज्यूमर की नजर से देखें तो डायरैक्ट सैलिंग से उन्हें यह फायदा होता है कि चूंकि किसी भी उत्पाद को बहुत सोचसमझ कर, उस की पूरी जानकारी हासिल करने के बाद खरीदा जाता है, इसलिए धोखा खाने का सवाल ही नहीं उठता है. ऐसा रिटेल में संभव नहीं होता है. रिटेल में ज्यादातर कंज्यूमर विज्ञापनों, प्रमोशंस आदि पर निर्भर होता है, जिस से उसे पूरी और सही जानकारी नहीं मिल पाती. साथ ही, इतने सारे प्रोडक्ट बाजार में उपलब्ध होने के कारण कंज्यूमर को निर्णय लेने में कठिनाई होती है.’’

भारत में 16 वैधानिक डायरैक्ट सैलिंग कंपनियां हैं जो इंडियन डायरैक्ट सैलिंग एसोसिएशन का हिस्सा हैं. यह एसोसिएशन इस बिजनैस के मानक तय करता है. डायरैक्ट सैलिंग बिना किसी बड़े निवेश के किसी को भी अपना बिजनैस करने का अवसर देती है.

खुद बनें बौस

इस बिजनैस से हर वर्ग और हर उम्र के लोग जुड़ सकते हैं. इस के लिए किसी विशेष शैक्षिक योग्यता या अनुभव की आवश्यकता नहीं होती है. घरेलू महिलाएं इस बिजनैस में काफी आ रही हैं क्योंकि इस से वे अतिरिक्त कमाई तो कर ही पाती हैं, साथ ही वे रसोई का सामान या सौंदर्य उत्पादों की बिक्री भी आसानी से कर पाती हैं. इस बिजनैस का सब से बड़ा फायदा यह होता है कि आप खुद की अपनी बौस होती हैं और अपने समय व सुविधा के अनुसार काम कर सकती हैं. 

ओरीफ्लेम इंडिया की मार्केटिंग डायरैक्टर शर्मीली राजपूत के अनुसार, ‘‘यह कैरियर महिलाओं के लिए आजकल बहुत ही लोकप्रिय हो रहा है, क्योंकि यह उन्हें काम करने व समय की स्वतंत्रता देता है. साथ ही, कम पढ़ीलिखी महिलाओं को भी आत्मनिर्भर बनने व एक नियमित आय का अवसर प्रदान करता है. यह उन्हें अपने निजी व प्रोफैशनल जीवन में एक उचित बैलेंस भी रखने में सहायता करता है. ऐसी अनेक महिलाएं हैं जिन्होंने डायरैक्ट सैलिंग की कंसल्टैंट बन इसे फुलटाइम कैरियर की तरह अपनाया है. साथ ही ऐसी महिलाएं व पुरुष भी हैं जो इसे साइड बिजनैस की तरह कर रहे हैं.

‘‘चूंकि डायरैक्ट सैलिंग से एक स्थायी आय का जरिया बना रहता है, इसलिए लोग इस में अपना समय व ऊर्जा लगाने से हिचकिचा नहीं रहे हैं. यह बिजनैस महिलाओं को एक आत्मविश्वास देता है ताकि वे भी उत्पादों की बिक्री कर व एक सामाजिक दायरा विकसित कर अपने पैरों पर खड़ी हो सकती हैं. महिलाओं में चूंकि एकदूसरे को समझनेसमझाने की योग्यता सहज रूप से होती है, इसलिए उन के लिए तो यह एक बढि़या और फायदेमंद कैरियर है.’’

तेजी से बढ़ता ट्रैंड

भारत में डायरैक्ट सैलिंग का ट्रैंड बहुत तेज गति से बढ़ रहा है. इंडियन डायरैक्ट सैलिंग एसोसिएशन और पीएचडी चैंबर के अनुमान के अनुसार, 2011-2012 में भारत में डायरैक्ट सैलिंग कंपनियों की बिक्री 5,320 करोड़ रुपए थी और अगले 4 सालों में इस में 20 प्रतिशत बढ़ोत्तरी होने की संभावना है. द वर्ल्ड फैडरेशन औफ डायरैक्ट सैलिंग एसोसिएशन का मानना है कि डायरैक्ट सैलिंग मार्केट लगभग 3 करोड़ लोगों को रोजगार प्रदान करती है जिस में 2.1 करोड़ महिलाएं हैं. यह बिजनैस एक परिवार को अतिरिक्त आय कमाने का मौका देता है और स्वरोजगार में बढ़ोत्तरी करता है. जो लोग इसे करते हैं, यह बिजनैस उन की निपुणताओं को निखार कर उन में आत्मविश्वास पैदा करता है या और बढ़ाता है. एक बड़ा फायदा यह भी है कि यह लौंग टर्म फाइनैंशियल सिक्योरिटी देता है.

पंडितों का भ्रमजाल

किसी भी जंत्री, पंडित या ज्योतिषी द्वारा असूझ विवाह के लिए (जिस में मुहूर्त देखने की जरूरत नहीं होती) कुछ दिन बताए जाते हैं, जिन में ‘देवोत्थान एकादशी’ प्रमुख है. इस दिन भारत में बहुत बड़ी संख्या में विवाह संपन्न होते हैं.

हर वर्ष देवोत्थान एकादशी पर अकेली दिल्ली में ही हजारों विवाह संपन्न होते हैं. पर टैलीविजन चैनलों पर कई पंडितों के मुख से सुनने को मिलता है कि शैलेंद्र मांगलिक कार्य में ग्रहोंनक्षत्रों का रोड़ा है. चूंकि जिस देवोत्थान एकादशी पर शुक्र अस्त हो तो इस दिन विवाह नहीं करना चाहिए. अगर विवाह करेंगे तो सामंजस्य नहीं बनेगा और वैवाहिक जीवन मजबूत नहीं होगा. इसलिए जो लोग विवाह कर चुके हैं उन्हें अपना शुक्र मजबूत करना होगा. इस बारे में और अधिक जानकारी के लिए अन्य ज्योतिषियों या फिर पंडितों से चर्चा कराई जाती है. अन्य ज्योतिषी इस से भी एक कदम आगे बढ़ कर बताते हैं कि देवोत्थान एकादशी के अलावा और भी स्वयंसिद्ध मुहूर्त होते हैं जैसे-चैत्रशुक्ला प्रतिपदा, विजयादशमी, दीपावली का केवल प्रदोषकाल.

इन मुहूर्तों में विवाह करना शुभ होता है. उन के अनुसार, विवाह आदि के लिए पंचांग में दिए गए मुहूर्त या पंडित की सलाह पर ही तारीख निश्चित करनी चाहिए. खराब ग्रहों में किया गया विवाह कभी सफल नहीं होता. इस बात को कभी भी मजाक में नहीं लेना चाहिए.

ग्रहनक्षत्रों का मायाजाल

एक महिला ज्योतिषाचार्य डा. किरन का कहना है, ‘‘शुक्रास्त में विवाह आदि शुभ कार्य निषिद्ध एवं त्याज्य हैं. इन में राहूकाल का भी ध्यान रखना चाहिए.’’ शुक्रअस्त के महत्त्व व अर्थ को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘शुक्र, पुरुषत्व का प्रतीक होता है और उस के अस्त होने का तात्पर्य है स्त्रीपुरुष संबंधों में कमी का होना.’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘‘गुरु’ विवाह कराता है और ‘शुक्र’ विवाहोपरांत पतिपत्नी संबंध देखता है. सो, ‘शुक्र’ निर्बल हो तो विवाह की आज्ञा न दें.’’ आज के वैज्ञानिक समय में जब नपुंसकता तक का इलाज है तो फिर ‘शुक्र’ की निर्बलता से क्यों डरना? ऐसी शंका व भय अच्छे रिश्तों को हाथ से निकल जाने का मार्ग बना देते हैं. हालांकि कुछ ज्योतिषियों का यह भी कहना है कि प्रेम विवाह तथा स्वयंवर के लिए ऐसे कोई भी मुहूर्त देखने की जरूरत नहीं होती.

यहां प्रश्न उठता है कि क्या ग्रहनक्षत्र भी प्रेम विवाह व स्वयंवर को विशेष रियायत देते हैं या उन से कुछ अधिक ही प्रसन्न हो जाते हैं? विचारणीय तथ्य यह है कि ग्रहों को कैसे पता चलता है कि इस जोड़े ने विवाह से पूर्व प्रेम किया था या प्रेम विवाहोपरांत हुआ? और फिर यह प्रेमप्यार कितना सच्चा है या बनावटी. कुछ ज्योतिषियों का यह भी कहना है कि पहाड़ों व तीर्थों पर भी विवाह के लिए मुहूर्त देखने की जरूरत नहीं होती. कारण, पहाड़ों पर गुरुत्वाकर्षण बल कम होता है. इसलिए वहां ग्रहों का प्रभाव कम होता है.’’ यहां फिर प्रश्न उठता है कि क्या शुभ मुहूर्त पर विवाह करने से मैदानी इलाकों में गुरुत्वाकर्षण बल कम हो जाता है? और जब गुरुत्वाकर्षण बल का ज्ञान नहीं था तब ये ज्योतिषी क्या तर्क देंगे? विवाह संबंधी विचार में गुरुत्वाकर्षण बल को जोड़ना कहां तक तर्कसंगत है? जाहिर है कि अपनी प्रभुता बनाए रखने के लिए और हाथ से शिकार न निकल जाए, इस के लिए नएनए हथकंडे अपनाए जाते हैं. सही बात तो यह है कि प्रेमविवाह लड़का, लड़की की चाहत व इच्छा पर निर्भर होगा, ऐसे में यह तथ्य (पंडितों का) सटीक उतरता है कि ऐसे संबंध में मुहूर्त देखने की जरूरत नहीं क्योंकि मुहूर्त के चक्कर में उस जोड़े के पास वक्त नहीं होगा और ऐसे में वह कोई और मार्ग अपना लेगा. इसलिए पंडित लोग अपने वाक्चातुर्य से ऐसे जोड़े का विवाह करा अपनी जेबें गरम कर लेते हैं. आजकल ऐसे विज्ञापन खूब दिखते हैं जिन में शीघ्र विवाह कराने का आमंत्रण दिया जाता है. वर्ष 2014 में 26 नवंबर से 10 दिसंबर तक ही विवाह संभव बताए गए थे. 10 दिसंबर, 2014 से 14 जनवरी, 2015 तक विवाह निषिद्ध थे क्योंकि इस अवधि में ‘वृहस्पति’, ‘सिंह’ राशि में प्रवेश कर रहा था. अब कोई पूछे कि सिंह राशि में विवाह करने से क्या सिंह प्रकट हो कर दहाड़ेगा?

‘पर्व दीपिका 2014’ से प्रकाशित पंचांग (गणेश शास्त्री) में अप्रैल 2014 से मार्च 2015 के अंत तक केवल 101 दिन, विवाह के लिए शुभ व शुद्ध बताए गए हैं. यह पंचांग दिल्ली के अक्षांश पर आधारित है. दिल्ली की जनसंख्या के हिसाब से केवल 101 दिन कितने पर्याप्त हो सकते हैं, कोई भी सोच सकता है. यही कारण है कि दिल्ली में 1 ही दिन में 20 से 25 हजार विवाह संपन्न होते हैं. इसीलिए बारात स्थल, बैंडबाजा आदि की कमी के साथसाथ ये महंगे भी हो जाते हैं. इस चक्कर में झगड़े, परेशानी, ट्रैफिकजाम की समस्या गंभीर हो जाती है. ‘ज्योतिषतत्त्वांक’ में डा. रामेश्वर प्रसाद गुप्त लिखित एक लेख में बताया गया है कि भारतीय परंपरा में साढे़ 3 मुहूर्त ऐसे सिद्ध व सुकीर्तित हैं जिन में किया गया कार्य अवश्य ही शुभ व फलदायी होता है. ये मुहूर्त हैं-

‘अक्षयतृतीया’, ‘विजयादशमी’, ‘दीपावली के उपरांत प्रतिपदा का अर्धदिन’ तथा ‘बसंतपंचमी’. एक तरफ तो कहा जाता है कि ये सिद्ध व शुभ मुहूर्त हैं फिर समयसमय पर कोई न कोई ग्रह इन में प्रवेश कर इन्हीं को निषिद्ध कर देता है. ऐसी बातें पंडितों व ज्योतिषियों द्वारा अंधविश्वास को फैलाने के साथ उन की वर्चस्वता बढ़ाने में कारगर सिद्ध होती हैं.

विचारणीय तथ्य

भारतवर्ष में सवा सौ करोड़ से ज्यादा आबादी निवास करती है, जिस में युवावर्ग की तादाद ज्यादा है. तो स्पष्ट है कि विवाह भी ज्यादा होंगे. अब अगर मुहूर्तों के हिसाब से चला जाए तो विवाह आदि शुभ कार्यों के लिए बहुत ही कम दिन मिलते हैं. लोग इन मुहूर्तों के चक्कर में न पड़ सुविधानुसार विवाह आदि का कार्य करें. अपने मन में ‘अनिष्ट’ का निर्मूल भय व आशंका निकाल दें. कभी ‘शुक्र’ अस्त तो कभी ‘मंगली’ दोष तो कभी ‘नाड़ी दोष’ के चक्कर में काफी अच्छे रिश्ते जुड़ने से वंचित रह जाते हैं और फिर मजबूरी में इन ग्रहचक्रों के कारण अनमेल विवाह कर पतिपत्नी जीवनभर सामंजस्य बिठाते रहते हैं या अलग होने की त्रासदी सहते हैं. कुछ समुदाय बिना किसी शंका व भय के मुहूर्त नहीं, अपनी सुविधानुसार विवाह आदि करते हैं, जैसे कि सिख, ईसाई, मुसलमान आदि. इन का एक बड़ा प्रतिशत सफल व सुखी जीवनयापन करता देखा जाता है. छोटीमोटी दुर्घटना तो कभी भी, कहीं भी हो सकती है.

अंधविश्वास को हवा देते तथ्य

वैसे तो हर रोज सुबह के समय टैलीविजन खोलते ही अपना प्रवचन देते और लोगों की गृहदशा का निवारण करते नजर आ जाते हैं. ये पंडित भ्रामक धारणा उत्पन्न करते  हैं. एक तरफ, अशुभ मुहूर्त की बात कर फिर उस की पूजापाठ करा, समाधान भी पंडितों द्वारा दे दिया जाता है. फलांफलां पूजा करा लो, अशुभ समाप्त होगा. है न हास्यास्पद बात और एक शातिर तरीका कमाई का. यह स्थिति भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी है. वहां भी जन्मपत्री दिखाई जाती है. बाल्टीमोर मेरीलैंड स्थित ‘जौन हौकिंस यूनिवर्सिटी’ के वैज्ञानिकों ने रिसर्च द्वारा बताया कि 37 फीसदी व्यक्ति अपना कोई भी बड़ा कार्य करने से पूर्व अपनी जन्मपत्री पढ़वाते हैं. यह काम चर्च या किसी और तरह के बिचौलिया का होता है जो पैसा कमाता है. आखिरकार, एक ही बात स्पष्ट होती है कि पंडितों, ज्योतिषियों, ग्रहों के चक्कर में लोग अपने ज्ञान, विवेक, बुद्धि दांव पर लगाते हैं. जन्म से ले कर मृत्यु तक फैलाए इन के जाल में इंसान न जाने कितने वर्षों से चक्करघिन्नी सा घूम रहा है. पंडितों का भ्रम व जाल प्रचार के बल पर फलफूल रहा है. वैज्ञानिक तरीकों को जानें, समझें और अपनाएं.

बिहार विधानसभा चुनाव 2015

चुनाव का माहौल बनते ही हर दल व हर छोटेबड़े नेता को मुसलमानों की फिक्र सताने लगती है. बिहार विधानसभा के चुनाव जैसेजैसे नजदीक आते जा रहे हैं, वैसेवैसे मुसलमानों को रिझाने की कवायद भी परवान चढ़ने लगी है. बिहार में हर चुनाव की तरह इस बार भी मुसलमान कशमकश की हालत में हैं. इस बार लालू और नीतीश के एकसाथ होने से मुसलिम वोटरों की मजबूरी है कि इसी गठबंधन को वोट दें. मुसलमानों ने साल 1990 से ले कर 2005 तक लालू प्रसाद यादव का साथ दिया था. 2005 में मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश ने लालू के मुसलिम वोटबैंक में सेंध लगाने की पुरजोर कोशिश की पर उस में वे खास कामयाबी नहीं पा सके. मुसलिम संगठनों की यही शिकायत है कि उन के नाम पर हर दल सियासत तो करता रहा है लेकिन आबादी के लिहाज से मुसलमानों को टिकट देने में हर दल कन्नी काटता रहा है. भारतीय जनता पार्टी पर मुसलमानों को टिकट न देने का आरोप लगाने वाले और खुद को मुसलमानों का सब से बड़ा रहनुमा बताने वाले कांगे्रस, राजद, जदयू, लोजपा जैसे दल उन्हें टिकट देने में कंजूसी करते रहे हैं.

बिहार में मुसलमानों की आबादी 1 करोड़ 67 लाख 22 हजार 48 है. सूबे के किशनगंज में 78, कटिहार में 43, अररिया में 41, पूर्णियां में 37, दरभंगा में 23, पश्चिम चंपारण में 21, पूर्वी चंपारण में 19, भागलपुर और मधुबनी में 18-18 व सिवान में 17 फीसदी मुसलिम आबादी है. इस के बाद भी उन की अनदेखी की जाती रही है. चुनावी डुगडुगी बजते ही सारे दल मुसलिम वोट, मुलिम वोट का खेल खेलना शुरू कर देते हैं. चुनाव के खत्म होने के बाद वे सभी मुसलमानों को भूल जाते हैं. राजनीतिक दल मुसलमानों के कितने बड़े पैरोकार हैं, इस का नमूना यही है कि राज्य में 33.6 फीसदी मुसलमान बच्चे ही हायर सैकंडरी तक की पढ़ाई कर पाते हैं. बीए, एमए, ऊंची पढ़ाई, तकनीकी पढ़ाई आदि 2.4 फीसदी ही मुसलमान बच्चे कर पाते हैं. शहरी स्कूलों में 3.2 फीसदी और ग्रामीण स्कूलों में 4.1 फीसदी ही मुसलिम बच्चे हैं. ग्रामीण मदरसों में 24.1 फीसदी और शहरी मदरसों में कुल 9 फीसदी मुसलमान बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं.

सामाजिक कार्यकर्ता असलम परवेज कहते हैं कि पढ़ाईलिखाई में इस कदर पिछड़े रहने वाले मुसलमानों की तरक्की का ढोल हर पार्टी किस बूते पीटती रहती है? तालीम के बगैर कोई भी कौम या जाति तरक्की नहीं कर सकती है. सभी सियासी दलों की यही साजिश है कि मुसलमानों को जाहिल व पिछड़ा बना कर रखा जाए ताकि उन्हें वोटबैंक के रूप में हमेशा इस्तेमाल किया जाता रहे. बिहार में मुसलमानों की आबादी 16.5 फीसदी है और कुल 243 विधानसभा क्षेत्रों में से 60 में वे निर्णायक भूमिका में हैं. इस के बाद भी पिछले विधानसभा चुनाव में जदयू के 7, राजद के 6, कांगे्रस के 3, लोजपा के 2 और भाजपा के 1 मुसलिम उम्मीदवार यानी कुल 19 मुसलिम उम्मीदवार ही जीत कर विधानसभा पहुंच पाए थे.

दरकिनार मुसलमान

उस के पहले 2005 के विधानसभा चुनाव में 16 मुसलमान ही विधायक बन सके. यह आजादी के बाद हुए चुनावों में बिहार में मुसलमानों का सब से कम नुमाइंदगी का रिकौर्ड है. 2005 के चुनाव में जदयू ने 9 और भाजपा ने 1 मुसलमान को टिकट दिया. राजद, कांगे्रस और राकांपा गठबंधन ने 46 एवं लोजपा ने 47 मुसलमानों को चुनावी मैदान में उतारा था. उन में कांगे्रस के 5, जदयू और राजद के 4-4, लोजपा के 1 एवं 1 निर्दलीय उम्मीदवार को जीत हासिल हो सकी थी. राजद सुप्रीमो लालू यादव खुद को मुसलमानों का सब से बड़ा खैरख्वाह बताते रहे हैं और मुसलिम यादव समीकरण के बूते ही साल 1990 से 2005 तक बिहार की सत्ता पर काबिज भी रहे. इस बार बिहार विधान परिषद की 24 सीटों के लिए हुए चुनाव में ही लालू ने मुसलमानों को दरकिनार कर दिया. उन की पार्टी राजद ने 10 उम्मीदवार मैदान में उतारे, जिन में एक भी मुसलमान नहीं था.

चुनावी सियासत

जदयू सांसद अली अनवर कहते हैं कि हर चुनाव से पहले मुसलमानों को ले कर सियासत शुरू हो जाती है पर उन्हें टिकट देने की बात उठते ही सब बगलें झांकने लगते हैं. 1952 से 2014 तक के लोकसभा चुनाव में बिहार से 58 मुसलमान ही लोकसभा का मुंह देख सके हैं. इन में से 14 पिछड़े मुसलमान हैं. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में 4 मुसलमान ही चुनाव जीत सके. राजद के तसलीमुद्दीन अररिया से, राकांपा के तारिक अनवर कटिहार से, कांगे्रस के महबूब अली कैसर खगडि़या से और कांगे्रस के ही मोहम्मद असरारुल हक किशनगंज से चुनाव जीत सके थे. इस से पहले 2009 के लोकसभा चुनाव में

3 मुसलमान ही लोकसभा पहुंच सके, जबकि आबादी के हिसाब से यह संख्या कम से कम 7 होनी चाहिए. यही हाल बिहार विधानसभा में भी है. आजादी के बाद से 2010 तक हुए विधानसभा चुनावों में मुसलमानों की नुमाइंदगी 7 से 10 फीसदी के बीच ही रह सकी है. मुसलिम लीडर मानते हैं कि 243 विधानसभा सीटों में से 60 सीटों में मुसलमानों का वोट किसी भी उम्मीदवार को जिता सकता है. उन क्षेत्रों में मुसलमानों का वोट 18 से 74 प्रतिशत तक है. इस के अलावा, 50 सीटें ऐसी हैं जहां 10 से 17 प्रतिशत मुसलिम वोट हैं. इस के बाद भी सियासी दल मुसलमानों को टिकट देने में आनाकानी करते रहे हैं. सब से ज्यादा 74 प्रतिशत आबादी वाला कोचाधामन विधानसभा क्षेत्र है. जोकीहाट में 69, बलरामपुर में 65, मनिहारी में 41, सिकटा में 30, नरकटियागंज में 29, बेतिया में 27, चनपटिया में 21 फीसदी मुसलिम आबादी है. इस के अलावा, किशनगंज, अररिया, बहादुरगंज, ठाकुरगंज, कदवा, प्राणपुर, कोढ़ा, बरारी में मुसलिम आबादी काफी ज्यादा है. मुसलमानों के पैरोकार और सांसद एजाज अली कहते हैं कि हर दल मुसलमानों की तरक्की की बात तो करता है पर हरेक की कोशिश यही रही है कि मुसलमान की तरक्की न हो. वह पढे़लिखे नहीं. पढ़लिख जाने पर उसे समझदारी आ जाएगी और फिर वह अपने दिमाग से वोट डालेगा. सियासी दलों का मकसद बस मुसलमानों को वोटबैंक बना कर रखना है न कि उन की तरक्की करना. मुसलिमों को टिकट देने में हर दल आनाकानी करता रहा है.

आजादी के बाद से 2010 तक के 14 बिहार विधानसभा चुनावों में कुल 4,262 विधायक बने जिन में से सिर्फ 313 ही मुसलमान हैं. यह आंकड़ा बता देता है कि मुसलमानों को समाज की मुख्यधारा में लाने, उन्हें टिकट देने और उन की तरक्की के सवाल पर हर दल एक ही थैली के चट्टेबट्टे साबित हुए हैं.

पौर्न साइट तो बहाना

एक वकील कमलेश वासवानी की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में उत्तर देते हुए निर्णय से पहले ही नरेंद्र मोदी की सरकार ने 857 वैबसाइटों को बंद करवा कर अश्लील सामग्री पर चाहे पूरा प्रतिबंध लगाया हो या न हो, अपने लिए अपने मतलब के वैबसंचार पर पहरेदार नियुक्त करने का रास्ता खोल लिया है. जब भी जो सरकार किसी तरह का नियंत्रण थोपना चाहती है तो वह नैतिकता, स?चरित्रता, विकास की बात करती है जैसे इंदिरा गांधी ने 1975 में आपात स्थिति घोषित करते हुए की थी कि वे अनुशासन काल ला रही हैं, देश को विघटन व विनाश से बचा रही हैं. भजभज मंडली इस याचिका से खुश है हालांकि यह 2013 में मोदी सरकार से पहले सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत की गई थी. सरकार स्वयं बहुत सी पुस्तकों, फिल्मों, मंचित नाटकों, पेंटिंगों पर प्रतिबंध लगाना चाहती है और इस प्रकार पौर्न साइटों का बहाना बना कर बहुतकुछ किया जा सकता है. पौर्न फिल्में मानसिक स्वास्थ्य के लिए बुरी हैं या नहीं, यह अब तक साबित नहीं हो पाया है. दुनिया के जिन देशों में इन पर न के बराबर नियंत्रण है वहां भी अपराध होते हैं और इसलामी देशों में जहां पूर्ण प्रतिबंध हैं, वहां भी सैक्स अपराध उतने ही, बल्कि उस से ज्यादा होते हैं. पौर्न फिल्मों के निर्माण में कोई जोरजबरदस्ती होती है, इस के प्रमाण कहीं नहीं मिलते. उस से ज्यादा जोरजबरदस्ती तो वेश्यावृत्ति में होती है जिस में लड़कियों को अगवा कर के देहव्यापार में झोंक दिया जाता है.पौर्न सदियों से चला आ रहा है. लगभग सभी धर्मग्रंथों में यौन क्रिया का खुला विवरण है और कई में तो अति विस्तृत विवरण है. धर्म के दुकानदारों ने प्रौढ़ व वृद्ध औरतों को पटाने के नाम पर युवा औरतों पर पाबंदियां भले लगा दी हों पर वे भी औरत के शरीर के दुरुपयोग को रुकवा नहीं पाए. यौन संबंधों को परदे में रखने के कारण पौर्न एक व्यापार बन गया और इंटरनैट की तो जान ही यह है. जो पैसा इंटरनैट को पौर्न के कारण मिलता है, न मिले तो इंटरनैट शायद उसी तरह ठप हो जाए जैसे आज पुस्तक व्यापार ठप हो रहा है क्योंकि उस का पौर्न हिस्सा इंटरनैट खा गया.

मोदी सरकार ने जल्दबाजी में अपने दूर के लक्ष्य के कारण फैसला लिया है पर इस से उस ने विचारों व व्यक्तिक स्वतंत्रता के सवाल खड़े कर दिए हैं. बंद कमरों में लोग क्या पढ़ें, क्या सुनें, क्या देखें, यह फैसला सरकार ले, यह मान्य नहीं हो सकता, कम से कम लोकतंत्र में तो नहीं. हां, इसे छद्म धर्मतंत्र बनाना हो, जैसा विश्व हिंदू परिषद कहती रहती है, तो बात दूसरी.

कोख पर कानूनी पहरा क्यों?

क्या आप का बेबी बंप तरबूज की तरह फूला है?

आप को खट्टे से ज्यादा मीठा खाने का मन है?

आप का वजन तेजी से बढ़ रहा है पर पेट का आकार ज्यादा नहीं बढ़ा है?

आप का बेबी बंप ऊंचाई पर है?

नाभि का मुंह बंद होने के कगार पर है?

नाभि के निचले हिस्से व ऊपरी ब्रा लाइन तक डार्क बालों की धारी बन गई है?

ये सब लक्षण अगर आप के शरीर में दिखाई दे रहे हैं तो शर्तिया आप के लड़की होगी. कुछ ऐसे ही टोटके शीना को उस की सास ने बताए थे. शीना बहुत खुश थी क्योंकि कुछ ऐसे ही लक्षण उस के शरीर में भी दिखाई दे रहे थे. घर में खुशियों का माहौल था क्योंकि एक बेटे के बाद बेटी ही चाहिए थी. इस घर में परिवार तभी पूरा होता है जब लड़का और लड़की दोनों हों. परिवार की खुशी इन टोटकों को सुन डबल हो गई थी. युहान की भी खुशी का ठिकाना न था क्योंकि उसे अपनी पत्नी शीना जैसी क्यूट बेबीगर्ल चाहिए थी. शीना की डिलीवरी का वक्त नजदीक आ पहुंचा. डिलीवरी तो हुई पर यह क्या… लड़की नहीं, वह नवजात तो लड़का था. यह देख परिवार को हलका धक्का पहुंचा. इस परिवार में पिछली 2 पीढि़यों से कोई लड़की नहीं जन्मी थी. लड़का देख एकबारगी सब का मुंह उतर गया. केवल अनुमान के आधार पर ही उन्होंने मान लिया था कि लड़की होगी. वैसे भी उन के पास अनुमान लगाने के अलावा दूसरा रास्ता न था क्योंकि सरकार भू्रण का लिंग परीक्षण कराने नहीं देती. अपने परिवार को पूरा करना चाह रहे शीना और युहान को निराशा हाथ लगी थी.

आज की तारीख में कोई भी प्रोडक्ट लेने से पहले हम उस की सारी रिसर्च कर लेते हैं. उस की खासीयत से ले कर कमी तक की सारी चीजों पर सोचविचार कर उसे लेने या न लेने का फैसला करते हैं. ऐसा इसलिए कि हम उस समय (काल) में आ चुके हैं कि बिना सोचेसमझे कुछ लेना बेवकूफी समझते हैं. लेकिन बच्चे के मामले में पिक ऐंड चूज का कोई सवाल ही नहीं उठता. आप को ऐडजस्ट करना पड़ेगा. क्योंकि देश का कानून आप को कभी भी मां के गर्भ में बढ़ रहे भ्रूण की लिंग जानकारी हासिल नहीं करने देगा. हम अपने देश को विकसित देशों की श्रेणी में रखते हैं पर आज भी बच्चा लड़का हो या लड़की हो, यानी उस के लिंग का फैसला परिवार के लोग नहीं, बल्कि सरकार करती है क्योंकि आप को अपने बच्चे का लिंगनिर्धारण करने की अनुमति नहीं है. हमारे देश की महिलाएं भले ही विकसित देशों की महिलाओं से कदमताल कर रही हों लेकिन उन्हें अपनी कोख पर हक हासिल नहीं है. यह हक उन्हें चिकित्सा विज्ञान दे रहा है लेकिन सरकार और समाज ने उन से इसे छीन रखा है. महिलाओं की कोख में सरकार का दखल बना हुआ है. महिलाओं को आखिरी समय तक यह पता नहीं रहता कि उन के घर में आने वाला मेहमान कौन है? वे किस के स्वागत की तैयारी करें, बेटे की या बेटी की? हम शायद खुद को सभ्य कहलाना पसंद करते हैं, पर अब भी कानून हमें हर वक्त यह याद दिलाते हैं कि हमें डंडे से हांका जा रहा है और हांके जाने की जरूरत भी है.

क्या है कानून

भारत की संसद द्वारा 1996 में पारित किया गया पूर्व गर्भाधान और प्रसव पूर्व निदान तकनीक यानी पीसीपीएनडीटी कानून देश में बालिकाभू्रण हत्या रोकने के लिए गर्भस्थ शिशु के लिंग परीक्षण पर प्रतिबंध लगा कर लिंग अनुपात में अंतर को समाप्त करने के लिए लागू किया गया था. प्री कंसैप्शन ऐंड प्री नेटल डायग्नौस्टिक टैक्निक्स यानी पीसीपीएनडीटी ऐक्ट के तहत जन्म से पूर्व शिशु के लिंग की जांच पर पाबंदी है. ऐसे में अल्ट्रासाउंड या अल्ट्रासोनोग्राफी करवाने वाले जोड़े या करने वाले डाक्टर, लैबकर्मी को 3 से 5 साल तक की कैद और 10 से 50 हजार रुपए जुर्माने की सजा का प्रावधान है. आज लोगों को सूचना का अधिकार व जानकारी प्राप्त करने का अधिकार है और सभी इन अधिकारों को जोरशोर से बढ़ावा भी दे रहे हैं. इसी के साथ हमें अपने देश, समाज, परिवार, अपने व अपने शरीर के बारे में भी जानने का अधिकार मिलना चाहिए. जब हमें ये सभी अधिकार मिलने चाहिए तो गर्भवती स्त्री को अपने गर्भ में बढ़ रहे अपने भू्रण की लिंग जानकारी हासिल करने का अधिकार क्यों नहीं है?

भू्रण हत्या के डर से महिला को इस अधिकार से वंचित किया गया है जो उचित नहीं है. भू्रण हत्या को रोकना, भू्रण हत्या में लिप्त लोगों को कठोर सजा देना सरकार का काम है, जो सही है पर आज के समय में महिलाओं को उस की कोख में पलबढ़ रहे भू्रण के लिंग जानने के अधिकार से वंचित करना गलत है. भारत और पूर्व व दक्षिणपूर्व यूरोप में परिवारों के रूढि़वादी तबके की सोच है कि लड़के खानदान का नाम आगे बढ़ाते हैं जबकि लड़कियां शादी कर पराए घर चली जाती हैं. 

स्त्री का अधिकार पर कानून : मौजूदा कानून की नजर में गर्भपात कराना अपराध की श्रेणी में आता है. गर्भ की वजह से यदि किसी महिला के स्वास्थ्य को खतरा हो तो वह गर्भपात करा सकती है, ऐसी स्थिति में उस का गर्भपात वैध माना जाएगा. कोई व्यक्ति महिला की सहमति के बिना उसे गर्भपात कराने के लिए बाध्य नहीं कर सकता. यदि पुरुष ऐसा करता है तो महिला को अधिकार है कि वह कानून का दरवाजा खटखटा सकती है. दोषी पाए जाने पर पुरुष को उम्रकैद तक की सजा हो सकती है.

लोग समझदार, डंडे से न चलाए सरकार

भारत में सरकार लोगों के घरों तक कानून के जरिए दस्तक दे कर उन्हें अपने होने वाले बच्चे का पता लगाने से रोकना चाहती है. आज, भले ही हम विदेशों में पढ़ लें, वहां नौकरी कर लें या अपने देश में विदेशी कंपनी के मुलाजिम हों, पर घर में अगर नया मेहमान आएगा तो उस का फैसला या तो प्रकृति पर निर्भर है या फिर कानून पर. इंसान ने इतनी तरक्की कर ली है कि वह चांद पर घर बनाने की सोच रहा है लेकिन आज भी नए मेहमान के घर में आने तक उस के बारे में वह जान नहीं सकता क्योंकि सरकार का डंडा उस के सिर पर तैनात है. वह इस बारे में सिर्फ कयास ही लगा सकता है. आज की पीढ़ी को देखें तो नया मेहमान आने से पहले ही परिवार में सारी तैयारियां कर ली जाती हैं. बच्चे के जन्म से ले कर, उस की पढ़ाई, उस के बडे़ होने और उस की हायर एजुकेशन तक की तैयारियां कर ली जाती हैं. इस के अलावा परिवार में कितने बच्चे चाहिए, इस की भी काफी सोचसमझ कर प्लानिंग की जाती है. ऐसे में जब कोई पेरैंट्स नई पीढ़ी के लिए हर कदम सोचसमझ कर उठा रहे हैं, तो उन्हें कम से कम यह तय करने का हक तो होना चाहिए कि वे किस के लिए ये तैयारियां कर रहे हैं या फिर उन्हें अपने घर में कौन सा मेहमान चाहिए?

कोख पर अधिकार मां का…

किसी बच्चे को 9 महीने तक अपने अंदर जगह देने वाली संतान पर पहला हक किस का होता है? जवाब बहुत आसान है – मां का. पर असल में ऐसा होता नहीं है. जब हम कोख पर अधिकार की बात करते हैं तो उस में यह भी शामिल होता है कि उस की कोख में कौन आए, या वह अपनी कोख में किसे जगह दे या वह कितनी संतानें पैदा करे? लेकिन भारत में हमें ऐसा देखने को नहीं मिलता. औरत की कोख हो या उस का शरीर, उस का खुद का इन पर हक नहीं है. कहीं समाज के ठेकेदार तो कहीं कानून के ठेकेदार उसे कठपुतली की तरह नचाते रहते हैं. औरत क्या पहने, कैसे रहे, कहां जाए, क्या खाए, किसे पैदा करे, इन सब के लिए लिखित या अलिखित नियम या कानून पहले से ही तय हो गए हैं. कई दशकों बाद भी इन में कोई बदलाव नहीं आया है और न ही पुरुषप्रधान समाज को इस में बदलाव की कोई जरूरत महसूस होती है. अपनी संतान के रूप में औरत की पहली पसंद भी कोई माने नहीं रखती. कभी उसे पति की सुननी पड़ती है, कभी ससुराल वालों की तो कभी अपनी कोख के भीतर बच्चे का लिंग तय करने वाली सरकार के कानूनों की.

इन्हीं कानूनों से हमें देखने को मिलता है कि कईर्बार स्कूली बच्चियों के गर्भवती हो जाने पर उन्हें अपना अबौर्शन करवाने की इजाजत नहीं मिल पाती. ऐसे में 10वीं और 12वीं में पढ़ने वाली बच्चियों के मां बनने की खबरें आती रहती हैं. मार्च 2015 में मध्य प्रदेश की एक छात्रा मां बन गई थी, 13 साल में मां. ऐसे में वह अपनी पढ़ाई जारी रखे या बचपन में ही बच्चा पालने लग जाए. इस कानून में जरूरी बदलाव का समय आ गया है.

कानून व तकनीक का कैसा तालमेल?

किसी महिला के प्रैग्नैंट होने पर पहले महीने से ही उस की कई जांचें और इलाज शुरू कर दिया जाता है. इस में गर्भ में पल रहे बच्चे के एचआईवी पौजिटिव होने से ले कर उस के कौंप्लिकेशन, उस की पोजीशन, उस के बढ़ने और हिलनेडुलने तक की जांचें की जाती हैं. इस के लिए उसे अल्ट्रासाउंड से ले कर सोनोग्राफी जैसी जांचों से गुजरना पड़ता है. ऐसे में लिंग का पता तो प्रैग्नैंसी की शुरुआती स्टेज में ही चल जाता है. लेकिन कानून यह है कि डाक्टर अपने मरीजों को उन के बच्चे के लिंग के बारे में नहीं बता सकते. आज मशीनें इतनी आधुनिक हैं कि बच्चे के लिंग धारण करने के समय से ही वे उस का पता लगा लेती हैं. ऐसे में इस बात को छिपा कर रखना वैसे भी संभव नहीं है. कई बार तो ऐसी कोशिश विकास की टांग खींचने जैसी लगती है. लेकिन कानून के जरिए उसे रोकना किस हद तक संभव है, यह डाक्टर और पेशेंट के बीच की अंडरस्टैंडिंग होती है कि कई बार डाक्टर उन्हें उन के बच्चे के बारे में बता देते हैं. कई बार बच्चे में कौंप्लिकेशन होने पर भी उस के लिंग का राज खोलना पड़ता है. ऐसे में अकसर यह कानून धरा का धरा रह जाता है.

कानून सिर्फ गरीबों के लिए

हमारे देश में हर कानून की तरह गर्भ में लिंग की जांच पर रोक लगाने वाला कानून भी सिर्फ गरीबों के लिए है. अमीर अपने पैसों के दम पर इस कानून का तोड़ निकालने में सफल रहते हैं. गरीबों पर 400-500 रुपए में अल्ट्रासाउंड के जरिए अपने घर में आने वाले बच्चे का पता लगाने पर रोक है लेकिन यही काम आईवीएफ तकनीक के जरिए अमीर आसानी से कर सकते हैं. उन्हें ऐसा करने से देश का कानून भी नहीं रोकता. मैडिकल टूरिज्म का गढ़ बन चुके भारत में विदेशों से भी कपल्स अपने भावी बच्चे का लिंग पता करने और अपनी इच्छानुसार बच्चे पैदा करने यहां आते रहते हैं. नामी अस्पतालों में 1 से 2 लाख रुपए दे कर ये कपल्स अपने भावी बच्चे के लिंग का निर्धारण अपनी सहूलियत से गर्भ में फर्टिलाइज्ड एग को प्रतिरोपित करने से पहले करते हैं और यह काम गैरकानूनी भी नहीं कहलाता है. इस से तो यही लगता है कि सरकार पैसे देने वालों को अपने हिसाब से बच्चे चुनने का हक देती है. वैसे भी, लिंग जांच कानून आईवीएफ को अपने दायरे से बाहर छोड़ देता है. इस तरह एक ही देश के अलगअलग स्तर के लोगों के लिए अलगअलग कानूनी प्रावधान बन गए हैं.

बौलीवुड स्टार शाहरुख खान का मामला ही देख लें. उन्होंने सैरोगेसी के जरिए हुई अपनी तीसरी संतान का लिंग पहले ही जान लिया था. इस मामले में उन के खिलाफ शिकायत भी की गई थी. इस से फिर साबित हो गया कि पैसे के दम पर उच्च परीक्षण और तकनीक के नाम पर अमीरों को अपने भावी बच्चों के लिंग की जांच की छूट दी गई है.

गलत रिवाजों की सजा क्यों झेले सभ्य समाज

पुराने समय में बेटी को बोझ मानने की सोच को आज के जमाने के लोग क्यों झेलें. अब बेटियां जिंदगी के कई मोरचों पर खुद को बेहतर साबित कर रही हैं. पुरानी सोच के मुताबिक बेटियों को पराया धन माना जाता था और उन की परवरिश में कमी भी की जाती थी. यही नहीं, उन के पैदा होते ही उन की शादी में होने वाले खर्च या दहेज के बारे में चिंता की जाने लगती थी. तब बेटियों का पैदा होना, घरपरिवार को दुख से भर देता था. आज स्थिति पहले से अलग है. दुनिया बदली है, तो भारत में भी लोगों ने अपनी सोच बदली है. बेटियां खुद के पैरों पर खड़़़़ी हैं और ‘दुलहन ही दहेज है’ को सही साबित कर रही हैं. ऐसे में कुछ लोगों की नासमझी को पूरे समाज की गलती क्यों मान लिया जाए? आज कई लोग ऐसे भी हैं जो बेटी को बेटे पर वरीयता देते हैं. मान लीजिए, किसी कपल को बेटी चाहिए पर उसे बेटा हो जाए और वह खुद को दूसरी संतान की जिम्मेदारी उठाने लायक न समझता हो तो ऐसे में उसे जिंदगीभर मन मसोस कर नहीं रहना होगा? दरअसल, आजकल बेटा हो या बेटी, दोनों ही कमाऊपूत साबित हो रहे हैं, दोनों किसी पर निर्भर नहीं होते.

मेरा परिवार, मेरा फैसला

परिवार चलाने वाली मां को उस के गर्भ में पलबढ़ रहे बच्चे का लिंग जानने/निर्धारित करने का अधिकार देने की मांग कुछ नारीवादी संगठन पहले भी करते रहे हैं. यह मांग ठोस तौर पर कभी साकार रूप नहीं ले सकी और न ही इस पर नीति नियंताओं का ध्यान गया. एक महिला को अपने परिवार में कौन सी संतान पहले चाहिए, इस का हक उसे होना चाहिए. इस के साथ ही, महिलाओं को सामाजिक बुराइयों के प्रति जागरूक करने की जरूरत भी है. वैसे तो समाज में लैंगिक भेदभाव से सब से ज्यादा महिलाएं ही जूझती हैं. जो महिलाएं इस भेदभाव को झेल कर भी जिंदा रह जाती हैं वे इस का दर्द समझती हैं और अपनी बिरादरी के प्रति हमदर्द भी होती हैं. हमारे समाज में ज्यादातर बुराइयां तो पुरुषप्रधान होने के नाते हैं. कानून को महिलाओं की कोख तय करने का अधिकार देने के बजाय महिलाओं को ही यह अधिकार मिले तो इस के ज्यादा यथार्थ होने की संभावना रहेगी. लेकिन इस के लिए महिलाओं को जागरूक, शिक्षित और सशक्त करना होगा.

समाज की सोच बदलने की जरूरत

भारतीय समाज में दहेजप्रथा जैसे रिवाजों के होने के चलते यहां के पुरुष सत्तात्मक रवैए और पुरुषों की सोच को बदलने की जरूरत है. पुरुषप्रधान समाज की पुरुष सत्तात्मक सोच के चलते ही लड़कियों को गर्भ में मारा जाने लगा. इस के चलते ही ऐसा कानून लाया गया कि जिस से महिलाओं के पास अपनी कोख को तय करने का अधिकार नहीं रह गया. पूरा घर चलाने के अलावा घर के बाहर के मामलों में भी महिलाओं की पुरुषों से ज्यादा समझ होती है. ऐसे में अगर महिलाओं को कोख का फैसला करने को मिलता तो वे ज्यादा तार्किक तरीके से इस बारे में फैसला ले सकती थीं. होना तो यह चाहिए था कि समाज की सोच बदली जाती और अपनी कोख में किसे जगह दी जानी है, इस बारे में महिला का ही फैसला अंतिम माना जाता. समाज को इस बारे में शिक्षित और जागरूक करने के बजाय सरकार ने कानून के डंडे के बल से लोगों को हांकने का आसान और कामचलाऊ तरीका निकाला. महिलाओं से हक छीन लिए गए. दरअसल, समाज को भू्रण हत्या के खतरों के प्रति आगाह करना और भविष्य की तसवीर दिखाने की दीर्घजीवी मगर टिकाऊ प्रक्रिया हो सकती थी, पर इस से कन्नी काट ली गई. लोगों पर खासतौर से महिलाओं पर कानूनरूपी तलवार चला दी गई.

वे करें, हम क्यों नहीं?

अमेरिका में लिंग की जन्मपूर्व जांच में कोई रोकटोक नहीं है. इस के बावजूद वहां पर सैक्स रेशियो भारत से कहीं बेहतर है. भारत में 1 महिला के मुकाबले 1.12 पुरुष हैं तो वहीं अमेरिका में 1 महिला के मुकाबले 1.05 पुरुष हैं. इस से यह तर्क तो गलत साबित होता है कि सैक्स रेशियो और भू्रण के लिंग की जांच का आपस में संबंध है. मान लीजिए, अगर भारतीय संदर्भ में इन का आपस में संबंध है भी, तो उसे दूर करने की कोशिश की जानी चाहिए थी. यह तो बांध बना कर बरसात में नदी के प्रवाह को रोकने जैसी कोशिश हो गई. ऐसे में बांध टूटने पर ज्यादा तबाही का खतरा होगा. बेहतर तो यह होता कि बारिश से पहले नदी और बारिश के पानी के प्रबंधन की योजना बनाई जाती, जिस से नदी और बारिश दोनों के पानी का बेहतर इस्तेमाल हो सकता है. यह भले ही समय लेने वाली प्रक्रिया होती, लेकिन समाज को लंबे समय तक फायदा देती.

बेटियों को प्रोत्साहन दे सरकार

लिंग निर्धारण पर सख्त कानून बनाने के बजाय सरकार को समाज को जागरूक करने पर ध्यान देना चाहिए. सरकारें इस मसले पर अगर वाकई गंभीर रहतीं तो वे बेटियों को प्रोत्साहित करने की जमीनी कार्यवाही करतीं. देशभर में सैक्स रेशियो सुधारने के लिए बेटियों की पालने, पढ़ाने, हायर और प्रोफैशनल एजुकेशन देने व बीमारी में मुफ्त इलाज और सरकारी के साथ ही प्राइवेट नौकरियों में प्राथमिकता देने व उन्हें उचित सुरक्षा देने की व्यवस्था की जानी चाहिए थी. ये सब सुविधाएं समाज में जमीनी स्तर पर बदलाव लाने का काम करतीं  बेटियों को बोझ या मनहूस माने जाने वाले भारत जैसे समाज में ऐसे कदम निश्चित तौर पर बेटियों के जन्म को प्रोत्साहित करते. इस के बाद यह कपल्स पर निर्भर करता कि वे बेटा चाहते हैं या बेटी. जिन देशों में सामाजिक सुरक्षा के बेहतर इंतजाम हैं, वहां के समाज को लिंगानुपात में बड़े अंतर जैसी गंभीर समस्या से दोचार नहीं होना पड़ता है. ऐसे में भारत को कम से कम उन देशों से ही यह सीख ले लेनी चाहिए थी.

अबौर्शन टूरिज्म

भारत और दक्षिणपूर्व यूरोपीय देशों में कन्याभू्रण हत्या के मामले बढ़ते जा रहे हैं. अल्ट्रासाउंड की मदद से डाक्टर गर्भावस्था के 14वें हफ्ते से भू्रण के लिंग का पता लगा सकते हैं. भारत की ही तरह यूरोप के कई देशों में भू्रण के लिंग की जांच करना व कराना अवैध है. कई देशों में तो गर्भपात की ही मनाही है, हालांकि ऐसा धार्मिक कारणों से भी है. जरमनी में पहले 3 महीनों तक गर्भपात की अनुमति है. इस के बाद आप चाहें तो भ्रूण के लिंग की जांच करा सकते हैं लेकिन इस के बाद गर्भपात नहीं कराया जा सकता, जबकि अमेरिका में ऐसा किया जा सकता है. अल्बानिया और मैसेडोनिया की जन्मदर पर ध्यान दें तो वहां भी कानून का उल्लंघन किया जा रहा है. वहां अवैध रूप से कन्याभू्रण हत्या की जा रही है. वहीं, स्वीडन का नाम ‘अबौर्शन टूरिज्म’ से जुड़ गया है. स्वीडन में 18वें हफ्ते तक गर्भपात कराया जा सकता है. यूरोपीय संघ के अलगअलग देशों में अलगअलग कानून होने से भी लोग उन का फायदा उठा रहे हैं. एक देश में लिंग जांच कराने के बाद वे दूसरे देश में जा कर गर्भपात करा लेते हैं.

आंकड़े बताते हैं कि नौर्वे और ब्रिटेन में रह रहे एशियाई मूल के लोगों के लिंग अनुपात की अगर दूसरे लोगों से तुलना की जाए तो भारी फर्क देखने को मिलेगा. आईवीएफ जैसी तकनीक में भी भू्रण का लिंग निर्धारित किया जा सकता है. इसे प्रीइम्प्लांटेशन जैनेटिक डायग्नोसिस या पीजीडी कहा जाता है.

सिर्फ दिखावे की राजनीति

भारत में महिलाओं की कोख में बेटा हो या बेटी, यह जिम्मेदारी सरकार के बनाए कानून से निर्धारित होती है. सरकारें सैक्स रेशियो के बिगड़ने का तर्क दे कर कोख में पलबढ़ रहे भ्रूण के लिंग की पहचान जानने पर रोक लगाती हैं. यही सरकारें महिलाओं को ले कर कितनी संवेदनशील हैं, इस का पता इस बात से चल जाता है कि लगभग सभी दल सत्ता में किसी न किसी तरह रह चुके हैं, लेकिन उन्होंने आज तक महिलाओं को संसद में 33 फीसदी आरक्षण देने वाला विधेयक पारित नहीं कराया है. भारतीय राजनेता या पुरुष राजनेता किसी भी मुद्दे पर सिर्फ दिखावे की राजनीति करते हैं. इन की राजनीति गंभीर होती तो ये सब से पहले अपने बीच में महिलाओं के लिए बराबरी की जगह बनाते. उन्हें उन का 50 फीसदी संख्या में निर्वाचित होने का हक देते, थोड़ा सहिष्णु होते. दरअसल, वे 33 फीसदी महिलाओं को झेलने लायक संयम तक अपने भीतर नहीं ला सके हैं. इस के अलावा, इन नेताओं के बनाए गए कानूनों से स्त्रीपुरुष के अनुपात को बराबरी पर लाने की कोशिशों के परिणाम किस हद तक सफल रहे हैं, यह भी सब के सामने है.

समाचार

चीनी की दुनिया की कड़वाहट

सहकारी चीनी मिलों पर सूबे की सरकार का काबू नहीं

लखनऊ : उत्तर प्रदेश सूबे में चीनी उत्पादन और गन्ना मूल्य भुगतान ही किसानों का सब से खास मुद्दा है. सारे साल इसी बात को ले कर उठापटक मची रहती है. मुख्यमंत्री से ले कर प्रधानमंत्री तक को  मामले में जबतब दखल देना पड़ता है, फिर भी चीनी के मामले की कड़वाहट खत्म नहीं हो पाती. फिलहाल गन्ना मूल्य भुगतान की उम्मीद लगाए बैठे तमाम किसानों को सहकारी चीनी मिलों ने करारा झटका दिया है. बीते चीनी सीजन में गन्ने की पेराई करने वाली 23 सहकारी मिलों ने उच्च न्यायालय को बताया कि वे कोर्ट के फरमान के मुताबिक 2 हफ्ते में बकाया गन्ना मूल्य का भुगतान नहीं कर पाएंगी. इस के लिए उन्हें 31 दिसंबर यानी 2015 के अंत तक का वक्त चाहिए. इन मिलों ने अपने हलफनामे में दो टूक अंदाज में कहा है कि उन पर सूबे की सरकार का कोई काबू लागू नहीं होता. उन का संचालन स्वायत्त सहकारी समितियां करती हैं, जिन की स्थापना किसानों द्वारा की गई है. गौरतलब है कि पिछली बार 29 जुलाई, 2015 को उच्च न्यायालय ने गन्ना मूल्य भुगतान के मसले पर सख्ती बरतते हुए सूबे की सरकार के अधिकार वाली सहकारी चीनी मिलों को 2 हफ्ते में किसानों को भुगतान करने के आदेश दिए थे. कोर्ट ने आदेश का पालन न किए जाने की दशा में सख्त कार्यवाही करने की बात कही थी.

उच्च न्यायायल ने ‘राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन’ के संयोजक वीएम सिंह की जिस याचिका पर 2 हफ्ते में भुगतान किए जाने का आदेश दिया था, उस में पक्षकार बनने के लिए 23 सहकारी मिलें उच्च न्यायालय जा पहुंचीं. उन्होंने दाखिल किए गए अपने हलफनामे में साफ कहा कि उन की मिलें सूबे की सरकार की नहीं है. इस मसले पर याचिकाकर्त्ता वीएम सिंह का कहना है, सहकारी चीनी मिलों का नियंत्रण उत्तर प्रदेश सहकारी चीनी मिल संघ के अधीन है, मगर वह तसवीर से गायब है. ‘पहली दफे सहकारी चीनी मिलों को आगे कर के हाईकोर्ट में हलफनामा दाखिल कराया गया है, जिस में बातों को तोड़मरोड़ कर पेश किया गया है. ‘सूबे की सरकार के कहने पर यह कवायद निजी चीनी मिलों के हित में की जा रही है.’ सहकारी चीनी मिलों के महाप्रबंधकों का कहना है कि सहकारी चीनी मिलों पर 6855.37 करोड़ रुपए का कर्ज है. इस में राज्य सरकार की ब्याज सहित देनदारी 3880.11 करोड़ रुपए है. गौरतलब है कि राज्य सरकार से जो कर्ज मिलता है, उस पर 15 फीसदी ब्याज देना पड़ता है. अब देखने वाली बात यह है कि मिलों के दावे पर कोर्ट क्या कहता है. क्या मिलों को साल के अंत तक का वक्त दिया जाता है? क्या इस के बाद भी भुगतान पूरी तरह निबट पाएगा? सारे सवालों के जवाब समय आने पर ही मिल पाएंगे.                                               ठ्ठ

चीनी मिलों को मिलेगा कर्ज

नई दिल्ली : यकीनन सरकार अपनी तरफ से चीनी मिलों को राहत देने में कोताही नहीं बरतती, फिर भी मामले भले ही लटके रहें. पिछले दिनों सरकार द्वारा मंजूर किए गए 6000 करोड़ रुपए के कर्ज से जुड़ी शर्तों को मिलों के हित में और भी आसान कर दिया गया?है.

यह कर्ज उन चीनी मिलों के लिए है, जिन्होंने 30 जून, 2015 तक किसानों के बकाए का 50 फीसदी चुका दिया था. मगर अब 31 अगस्त 2015 तक किसानों का 50 फीसदी भुगतान करने वाली चीनी मिलों को?भी यह कर्ज मिलेगा. चीनी मिलों पर गन्ना किसानों का 15400 करोड़ रुपए का बकाया?है, लिहाजा सरकार ने किसानों की मदद के लिए चीनी मिलों को दिए जाने वाले कर्जों की शर्तों को काफी आसान कर दिया?है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों की कैबिनेट कमेटी की बैठक में इस फैसले पर मुहर लगाई गई. दरअसल गन्ना किसानों के बकाए के भुगतान के लिए सरकार पिछले कई महीनों से लगातार कोशिश कर रही?है. जून महीने में चीनी मिलों को पैसा मुहैया कराने के इरादे से सरकार ने 2015-16 सीजन के लिए जून में 6000 करोड़ रुपए मंजूर किए थे. इस रकम से किसानों के बकाया भुगतान को गति मिलने की उम्मीद की जा सकती है. पहले 30 जून तक किसानों का आधा भुगतान करने वाली मिलों को ही कर्ज दिए जाने की बात कही गई थी, जिस से तमाम मिलें इस मदद से महरूम रह जातीं. इसी बात को मद्देनजर रखते हुए सरकार ने 31 अगस्त तक किसानों का आधा भुगतान करने वाली मिलों को?भी इस कर्ज का हकदार बना दिया. इस प्रकार कई मिलों को अनकहे अंदाज में 2 महीने का अच्छाखासा अरसा मिल गया. सरकार के सहयोग के इस आलम में तमाम चीनी मिलों का फर्ज है कि वे कर्ज की मदद की बदौलत किसानों का भुगतान करने में कोई कोताही न बरतें और खुद पर लगा लापरवाही का कलंक मिटा लें ताकि चीनी का माहौल मीठा हो जाए.    

     

*

मुहिम

यूपी में लंदन जैसी फलसब्जियां

लखनऊ : जी हां, यह बात सच होने जा रही है कि उत्तर प्रदेश में भी लंदन जैसी फलसब्जियां मिलने लगेंगी. प्रदेश सरकार भी किसानों के लिए लंदन जैसी फलसब्जियों की क्वालिटी, उन के रखरखाव और ऐक्सपोर्ट पर काम करेगी. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और मंत्री राजेंद्र चौधरी ने लंदन यात्रा से लौटने के बाद इस बारे में जानकारी दी. मंत्री राजेंद्र चौधरी ने बताया कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव लंदन से 50 मील दूर गांवों और खेतों के बीच गए. वहां उन्हें खेतों में खूब सारी सरसों दिखी. वहां गेहूं और धान के अलावा फलसब्जी की फसलें भी होती हैं. वहां फल और सब्जियों की क्वालिटी और उन के रखरखाव और वितरण नेटवर्क को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने प्रदेश में भी लागू करने की योजना बनाई है. इस से किसानों को काफी मदद मिलेगी. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव लंदन में गुजरात, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान के अलावा बिहार और उत्तर प्रदेश के तमाम लोगों से भी मिले. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने वहां की संसद, शाही परिवार के निवास और ईस्ट इंडिया कंपनी के दफ्तर को नजदीक से देखा. वे आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी भी गए, जहां उन्होंने छात्रों की पढ़ाईलिखाई के तौरतरीकों को देखा. साथ ही वे लंदन में शेक्सपीयर के गांव भी गए.

इस तरह लंदन से मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अपने यहां के किसानों के लिए एक नया फार्मूला तो ले कर आए. खेती की कसौटी पर मुख्यमंत्री का यह लंदन दौरा कारगर कहा जा सकता?है. उम्मीद है कि जब भी मुख्यमंत्री विदेश जाएंगे तो कुछ खास ले कर लौटेंगे.

*

इनाम

कृषि विज्ञान केंद्र को राष्ट्रीय पुरस्कार

रायपुर : केंद्रीय कृषि मंत्रालय से संबद्ध भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर स्थित कृषि विज्ञान केंद्र को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा. यह पुरस्कार साल 2014 के लिए कृषि केंद्र के बेहतरीन कामों पर दिया गया. कृषि विज्ञान केंद्र को इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, नई दिल्ली द्वारा संचालित किया जाता है. मुख्यमंत्री डाक्टर रमन सिंह और प्रदेश के कृषि मंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने राज्य के किसानों के साथसाथ कृषि विज्ञान केंद्र, अंबिकापुर और कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर के वैज्ञानिकों, अफसरों व मुलाजिमों को बधाई दी. केंद्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने पटना में आयोजित कृषि विज्ञान केंद्रों की 2 दिनों की राष्ट्रीय संगोष्ठी में अंबिकापुर के कृषि विज्ञान केंद्र को जोन 7 के तहत बेहतर काम के लिए कृषि विज्ञान केंद्र पुरस्कार 2014 से नवाजा. इस समारोह का आयोजन पटना के श्रीकृष्णा मेमोरियल हाल में किया गया था.

इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर के कुलपति डाक्टर एसके पाटील, आंचलिक परियोजना निदेशालय जोन 7 के डायरेक्टर डाक्टर अनुपम मिश्रा, डायरेक्टर विस्तार सेवाएं डाक्टर एमबी ठाकुर और कृषि विज्ञान केंद्र के कार्यक्रम समन्वयक डाक्टर आरके मिश्रा ने यह खास पुरस्कार हासिल किया. उल्लेखनीय है कि अंबिकापुर के कृषि विज्ञान केंद्र का संचालन आदिवासी बहुल सरगुजा जिले में पिछले 20 सालों से लगातार किया जा रहा है.                      ठ्ठ

*

मसला

प्याज पर सरकार की आंखें खुलीं

नई दिल्ली : सरकार की नानुकर के बीच प्याज की कीमतें आसमान छूने लगी थीं. पिछले 2 महीने से दिल्ली और उस के आसपास के शहरों में जहां प्याज की कीमतों में 25 फीसदी तक का इजाफा हो चुका था, वहीं देश के दूसरे राज्यों में भी इस की कीमतें काफी बढ़ गई थीं. सरकार आखिरकार प्याज के दाम घटाने में कुछ हद तक कामयाब रही. बढ़ती कीमतों पर रोक लगाने हेतु दिल्ली सरकार ने दिल्ली में प्याज के दाम तकरीबन 10 रुपए कम करने का फैसला लिया.

मुंबई, कोलकाता और चेन्नई जैसे बड़े शहरों में प्याज आम आदमी की पहुंच से बाहर होती जा रही थी, वहीं सरकार का दावा था कि देश में प्याज की कोई कमी नहीं है. कालाबाजारी की वजह से कुछ जगहों पर परेशानी आ रही है. हालांकि सरकार बेशक जो दावे करे, लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि प्याज के बढ़ते दामों ने आम आदमी की आंखों में आंसू लाने शुरू कर दिए थे. दिल्ली की थोक मंडी में प्याज की कीमतों में काफी उछाल देखा गया था. पिछले 2 महीने में ही प्याज की कीमत 36 रुपए से बढ़ कर 45 रुपए तक पहुंच चुकी थी. 2 सरकारी एजेंसियां नेफेड और एसएफएसी रोजाना दिल्ली में सप्लई के लिए सौ टन के करीब प्याज मुहैया कराती हैं.

जानकारी के मुताबिक दिल्ली में रोजाना 800 से 1000 टन प्याज की खपत होती है. ऐसे में इतनी खपत के बीच कीमतों को थामना भी सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती थी. वैसे जानकारों की मानें, तो कीमत बढ़ने के पीछे इस की एक अहम वजह कम आपूर्ति भी है.हालांकि केंद्रीय खाद्य एवं उपभोक्ता मंत्री रामविलास पासवान ने कहा कि देश में प्याज की कोई कमी नहीं है. प्याज का भरपूर भंडार है. राज्य सरकारों की ओर से कालाबाजारी पर कार्यवाही न करने के कारण प्याज का दाम बढ़ रहा है. वैसे उन्होंने इस बात को माना कि सरकार के पास प्याज को महफूज रखने के लिए कोल्ड स्टोरेज नहीं हैं.                                                                                                 

*
कवायद

भुगतान के लिए भटकते किसान

पटना : बिहार के चंपारण जिले के लौरिया योगापट्टी में सब से ज्यादा गन्ने का उत्पादन होता है और इसी वजह से उस इलाके को गन्ने का ‘मायका’ कहा जाता है. गन्ने की भरपूर खेती करने के बाद भी गन्ना किसानों की माली हालत खराब है और वे गन्ने की खेती छोड़ने का मन बनाने लगे हैं. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि चीनी मिलों द्वारा किसानों से गन्ना तो खरीद लिया जाता है, लेकिन उस के भुगतान के लिए किसानों को दरदर भटकना पड़ता है. लौरिया चीनी मिलों के अलावा बगहा, नरकटियागंज और मझौलिया चीनी मिलें किसानों से गन्ना खरीदती हैं. किसान रामसेवक बताता है कि गन्ने की कीमत लेने के लिए किसानों को हर साल भटकना पड़ता है और सड़कों पर उतरना पड़ता है. इस साल 12 जनवरी से ले कर अभी तक किसानों के करीब 25 करोड़ रुपए चीनी मिलों के पास बकाया हैं. ऐसी हालत में किसान गन्ने की खेती कर के पछता रहे हैं और उस से मुंह मोड़ने लगे हैं. बकाया भुगतान की मांग को ले कर किसान लौरिया के विधायक विनय बिहारी से ले कर मुख्यमंत्री तक से गुहार लगा चुके हैं. इस के बाद भी किसानों को दूरदूर तक भगुतान के आसार नजर नहीं आ रहे हैं. विधायक कहते हैं कि किसानों के भुगतान के लिए कई दफे सरकार से मांग की गई है और चीनी मिलों के मालिकों और प्रबंधन पर भी पूरा दबाव बनाया जा रहा है. जागरूक किसान महेंद्र पांडे कहते हैं कि सरकार और चीनी मिलों को ऐसी व्यवस्था करनी होगी कि हर साल गन्ना किसानों को समय पर भुगतान मिल सके. हर साल अपने ही पैसों के लिए भटकने से किसान गन्ने की खेती छोड़ने का मन बनाने लगे हैं.               

*

हौसला

महिला भिड़ी मगरमच्छ से

केंद्रपाड़ा : ओडिशा के केंद्रपाड़ा इलाके के सिंगिरी गांव की 37 साला सावित्री ने जो कारनामा कर दिखाया, वह काबिलेतारीफ है. आजकल सावित्री अस्पताल में भरती है. इस की वजह कोई बीमारी नहीं, बल्कि मगरमच्छ से लड़ाई में जिस्म पर हुए जख्म हैं. सावित्री पर मगरमच्छ ने उस समय हमला कर दिया, जब वह अपने घर के पास ही एक तालाब में अपने बरतन धो रही थी. सावित्री ने बताया, ‘‘यह हमला मेरे ऊपर अचानक हुआ था. उस समय वहां मुझे बचाने के लिए कोई नहीं था, लेकिन मैं ने मगरमच्छ से जूझते हुए एक कटोरे और चमचे से ही उस पर हमला कर दिया. अपने ऊपर हमला होते देख मगरमच्छ उलटे पैर भागा. तब जा कर मेरी जान बच सकी. ‘‘मगरमच्छ मेरे ऊपर अचानक कूदा था. वह मुझे पानी में दूर तक खींच ले गया. तब मैं ने उस के माथे व आंख पर चमचे से प्रहार किया, जो उसे जोर से लगा और वह मुझे छोड़ कर पीछे की ओर हटा.’’ 

*

तरकीब

मछली, मखाना व सिंघाड़ा साथसाथ

पटना : अब तालाबों में किसान एकसाथ 3 चीजों का उत्पादन कर सकेंगे और ज्यादा फायदा उठा सकेंगे. भारतीय कृषि अनुसंधान केंद्र पिछले 4 सालों से उत्तर बिहार के किसानों को मखाने के साथसाथ मछली और सिंघाड़े का समेकित उत्पादन करने के लिए जागरूक कर रहा?है और ट्रेनिंग भी दे रहा है. इस दौरान केंद्र ने इस प्रयोग पर करीब 25 लाख रुपए खर्च किए, पर महज 23 हेक्टेयर जलक्षेत्र में ही समेकित खेती करने में कामयाबी मिल सकी है. कृषि वैज्ञानिकों का दावा?है कि अगर बिहार के सभी मखाना पैदा करने वाले किसान मखाने के साथ सिंघाड़े और मछली का उत्पादन शुरू कर दें, तो उन की आमदनी 2 गुनी हो सकती है. फिलहाल प्रयोग के तौर पर दरभंगा जिले और उस के आसपास के 23 हेक्टेयर जलक्षेत्रों में मखाने के साथ मछली और सिंघाड़े का उत्पादन किया गया है. गौरतलब है कि उत्तर बिहार के 13 हजार हेक्टेयर में मखाने की खेती की जाती?है. इन सभी तालाबों और पोखरों में समेकित खेती करने के लिए किसानों को जागरूक बनाया जा रहा?है. बिहार में कुल जलक्षेत्र 3लाख 61 हजार हेक्टेयर में फैला हुआ है.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के पटना सेंटर और दरभंगा के मखाना अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों के ताजा शोध में यह बात उभर कर सामने आई?है कि 1 हेक्टेयर जलक्षेत्र में अगर केवल मखाने की खेती की जाती?है, तो प्रति हेक्टेयर 40 हजार रुपए की आमदनी होती है. इतने ही जलक्षेत्र में मखाने के साथ मछली और सिंघाड़े का उत्पादन भी किया जाए तो आमदनी की रकम 80 हजार रुपए तक हो सकती?है.          

*

तबाही

कोमेन का कहर : हजारों मकान तबाह

कोलकाता : तेज बारिश और चक्रवाती तूफान के आने से एक तरफ लोगों का जीना मुहाल हो जाता है, वहीं रोटी खाने के भी लाले पड़ जाते हैं. मवेशी मरते हैं, सो अलग. पिछले दिनों आए कोमेन नामक चक्रवाती तूफान ने पश्चिम बंगाल में कहर बरपा दिया. हजारों लोग बेघर हो गए, वहीं पशुओं के लापता होने से चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ है. पश्चिम बंगाल के गांगेय इलाकों में तेज हवाओं के साथ जम कर बारिश हुई. इस दौरान तमाम घर टूटे, हजारों पेड़ उखड़ने के साथ ही बिजली के खंभे भी उखड़ गए. इस वजह से सड़क व रेल यातायात भी काफी प्रभावित हुआ. चक्रवाती तूफान का असर बंगलादेश के अलावा पश्चिम बंगाल के हावड़ा, उत्तर 24 परगना व नदिया जिले में सब से ज्यादा हुआ. इस तूफान के चलते कई लोगों के मरने की खबर है.

*

मुहिम

बिहार में जोरशोर से शुरू हुई समेकित खेती

पटना : बिहार में जैविक खाद के इस्तेमाल की मुहिम को कामयाबी मिलने के बाद अब उसी तर्ज पर समेकित खेती को ले कर भी मुहिम शुरू की गई है. गौरतलब?है कि 4-5 साल पहले भी राज्य सरकार ने समेकित खेती की शुरुआत की थी, पर इस की रफ्तार काफी धीमी रही. अब इसे राष्ट्रीय कृषि विकास योजना में शामिल कर लिया गया है. कृषि मंत्री विजय चौधरी का दावा है कि समेकित खेती के जरीए 1 एकड़ खेत का मालिक भी खेती से अपने समूचे परिवार का पेट भर सकेगा और अपनी सुखसुविधाओं पर भी रकम खर्च कर सकेगा. लोकल जरूरतों के हिसाब के आधार पर खेती की जाएगी. जलजमाव वाले इलाकों में मछलीपालन के साथ बकरीपालन और मुरगीपालन के लिए किसानों को जागरूक किया जाएगा. किसानों को सिखाया जाएगा कि कम जमीन में भी ज्यादा से ज्यादा चीजों की खेती कर के बेहतर नतीजे कैसे हासिल किए जा सकते हैं. बिहार में श्री तकनीक के जरीए धान और गेहूं का रिकार्ड तोड़ उत्पादन करने के बाद खेती और पैदावा को बढ़ावा देने के लिए समेकित खेती को ले कर किसानों के बीच जागरूकता पैदा करने की मुहिम शुरू की गई है. 

*

मदद

300 करोड़ की राहत

नई दिल्ली : स्वतंत्रता दिवस से ऐन पहले केंद्र सरकार ने किसानों के लिए 300 करोड़ के राहत पैकेज का ऐलान किया. यह रकम किसानों को कम कीमत पर डीजल और बीज मुहैया कराने जैसे कामों पर खर्च की जाएगी. दरअसल केंद्र सरकार का यह कदम सूखे से खरीफ की फसल को बचाने की खातिर उठाया गया?है. सरकार की ऐसी राहतों से किसानों का काफी हद तक भला तो होता ही है, बशर्ते सब कुछ कायदे से किया जाए.

खोट

डोमिनोज के रेस्टोरेंट में गड़बड़ी

अमरोहा : खाद्य सुरक्षा एवं औषधि प्रशासन विभाग (एफडीए) ने जुबिलेंट फूड वर्क्स लिमिटेड के गजरौला स्थित डोमिनोज पिज्जा रेस्टोरेंट पर जांच की कार्यवाही की. इस रेस्टोरेंट से लिया गया टोमैटो सास स्नैक्स ड्रेसिंग का सैंपल कोलकाता की प्रयोगशाला की जांच में असुरक्षित (गड़बड़) पाया गया. नतीजतन एफडीए ने रेस्टोरेंट का लाइसेंस सस्पेंड कर के बिक्री पर रोक लगा दी.

*

गायब

फिर रुलाने लगा प्याज

पटना : बरसात का मौसम शुरू होते ही बिहार की मंडियों से प्याज गायब हो चुका?है, जिस से उस की कीमतों में जबरदस्त उछाल आ गया है. थोक मंडी में प्याज की कीमतों में प्रति क्विंटल 300 रुपए तक का इजाफा हो गया है. खुदरा बाजार में प्याज का भाव 20-22 रुपए प्रति किलोग्राम से बढ़ कर 30-32 रुपए तक हो गया?है. प्याज के कारोबारी कहते हैं कि बरसात शुरू होते ही बड़े व्यापारी प्याज को गोदामों में बंद कर देते हैं और खेतों में पानी भरने के बाद मनमानी कीमतों पर प्याज बेचते हैं. पटना की नासिक से ट्रक के जरीए प्याज बिहार आता है और बरसात के मौसम में ज्यादा नमी होने से करीब 25 फीसदी प्याज रास्ते में ही सड़ जाता है. पटना और उस के आसपास के इलाकों में रोजाना 150 टन प्याज की खपत होती है और फिलहाल 100 टन प्याज ही बाजार में आ रहा है. आलूप्याज व्यवसायी संघ के सचिव शंभू प्रसाद कहते हैं कि मुजफ्फरपुर बाजार समिति में प्याज का थोक भाव 1700 से 1900 रुपए प्रति क्विंटल है. उसे मंडियों तक पहुंचाने में करीब 150 रुपए भाड़े पर खर्च होते हैं. इस के बाद भी प्याज का अधिकतम भाव 1850 से 2050 रुपए प्रति क्विंटल होना चाहिए. लेकिन थोक बाजार में ही प्याज 2200 से 2350 रुपए प्रति क्विंटल के हिसाब से बेचा जा रहा है.   

*

चटपटा

बाजार में आया पारले नमकीन

मुंबई : आम लोगों की पसंद को ध्यान में रखते हुए पारले कंपनी ने बाजार में पारले नमकीन भी उतारा है. पारले नमकीन अच्छी क्वालिटी का होने के साथसाथ खाने में बेहद स्वादिष्ठ है. इस की कीमत भी आम लोगों की सुविधा के अनुसार ही रखी गई है. पारले नमकीन 3 कैटीगरी में हैं यानी मिक्सचर, भुजिया और दाल. खट्टामीठा नमकीन और हौट एन मसालेदार मिक्सचर. दूसरी कैटेगरी में भुजिया है. इस की 2 तरह की किस्में?हैं, भुजिया सेव और आलू भुजिया. तीसरी कैटीगरी में मूंग की दाल है. पारले कंपनी ने मसाला मूंगफली इसी साल बाजार में उतारी है पारले प्रोडक्ट्स के डिप्टी मार्केटिंग मैनेजर बीके राव ने बताया कि हम भारत के बाजारों में अधिक से अधिक उपभोक्ताओं तक पहुंचना चाहते हैं. भारत में यह किराना स्टोर और खुदरा दुकानों पर मुहैया है.    

 

*

गलती

वेज की जगह भेजा नौनवेज पिज्जा

चंडीगढ़ : पिज्जा हट पर एक परिवार को गलत आर्डर के रूप में नौनवेज पिज्जा भेजना काफी महंगा सौदा साबित हुआ. चंडीगढ़ कंज्यूमर फोरम ने पिज्जा हट पर उस परिवार को 30 हजार रुपए का मुआवजा देने का निर्देश दिया है. इस आदेश के बाद अब पिज्जा के शौकीनों को औनलाइन आर्डर भेजने से पहले अच्छी तरह सोचना पड़ेगा.चंडीगढ़ की अचल जैन ने 8 अक्तूबर, 2014 को कंज्यूमर फोरम में इस पिज्जा हट के खिलाफ  शिकायत की थी. शिकायत में लिखा था कि उन्होंने पिज्जा हट से औनलाइन और्डर कर वेज पिज्जा मंगवाया था. इसे सही समय पर भेज भी दिया गया, लेकिन पिज्जा खाने पर पता चला कि वह वेज नहीं नौनवेज पिज्जा है. मामले की सुनवाई के दौरान पिज्जा हट ने कई दलीलें दीं, लेकिन कंज्यूमर फोरम किसी भी बहस से सहमत नहीं हुआ. कंज्यूमर फोरम ने पिज्जा हट को आर्डर प्लेस करने वाले परिवार को वेज पिज्जा आर्डर करने के बाद उन से नौनवेज पिज्जा के वसूले गए 605 रुपए लौटाने और परिवार को 30 हजार रुपए का मुआवजा देने का निर्देश दिया है.

*

तरकीब

बंदूक के जरीए वसूला जाएगा कर्ज

भोपाल : ग्वालियरचंबल इलाके में जिस बंदूक को लोग अपनी शान मानते हैं, वही बंदूक अब उन की गले की फांस बनती नजर आ रही है. सहकारी बैंकों से कर्ज ले कर वापस न करने वाले बकायादारों पर ग्वालियर के जिला कलेक्टर ने अब सख्ती दिखाई है. ग्वालियर के कलेक्टर ने बैंकों का पैसा वापस दिलाने के लिए फरमान जारी किया है कि जिन लोगों ने सहकारी संस्थाओं का पैसा नहीं लौटाया है, उन के हथियारों के लाइसेंस निलंबित कर दिए जाएं.कलेक्टर के इस फरमान से उन लोगों में हड़कंप मच गया है, जो सहकारी संस्थाओं का पैसा ले कर डकार चुके हैं. कलेक्टर ने आदेश दिया है कि जिन लोगों ने कर्ज नहीं लौटाया है, उन के लाइसेंस तत्काल निलंबित कर दिए जाएं जानकारी के मुताबिक, हथियार लाइसेंसधारी बकायादारों को पहले कारण बताओ नोटिस भेजा जाएगा. अगर उन्होंने सही जानकारी नहीं दी और कर्ज की रकम नही लौटाई, तो उन के हथियार के लाइसेंस रद्द कर दिए जाएंगे. ग्वालियर के कलेक्टर का यह तरीका काबिलेतारीफ व अलग किस्म का है. यकीनन, इस तरीके का काफी माकूल असर बकायादारों पर पड़ेगा. कलेक्टर ने अपना पैना दिमाग लगा कर जो तरकीब निकाली है, वह वाकई कारगर साबित होगी. इस तरकीब से दूसरे अफसर भी नसीहत ले सकते हैं.          

*

खोज

लाजवाब है ठंडा सोफा

अहमदाबाद : जी हां, यह बात सच है कि सपने दिन में देखने से ही पूरे होते हैं. रात में उन सपनों को सोचसोच कर नींद नहीं आती, जब तक मुकाम हासिल नहीं होता. यह कमाल कर दिखाया है गुजरात के एक मैकेनिक ने. उन्होंने एक ऐसा सोफा तैयार किया है, जिस में एयरकंडीशनर फिट है. ऐसे सोफे का इस्तेमाल घर से बाहर होने वाले जलसों में किया जा सकता है और यह कम बिजली की खपत करता है. गांधीनगर के रहने वाले दशरथ पटेल ने यह सपना साकार किया है. वे एयरकंडीशनर रिपेयरिंग का काम करते हैं. कुछ साल पहले उन के मन में ऐसा एयरकंडीशनर वाला सोफा तैयार करने का खयाल आया. नेशनल इंस्टीट्यूट आफ  डिजाइन नेउन की भरपूर मदद की. दशरथ पटेल के मुताबिक, पहली बार उन्होंने साल 2008 में सोफे में एयरकंडीशनर लगाने के बारे में सोचा. पहली बार जो सोफा बनाया, उस का वजन 175 किलोग्राम हो गया. इस के बाद उन्होंने सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम मंत्रालय की डिजाइन क्लिनिक योजना के डिजाइनर की मदद ली. उस के बाद जो सोफा तैयार हुआ, उस का वजन 35 किलोग्राम था.

एनआईडी के छात्र रहे अंकित व्यास ने दशरथ पटेल की इस काम में काफी मदद की. अंकित व्यास अहमदाबाद में एक डिजाइन स्टूडियो चलाते हैं. दशरथ पटेल ने बताया कि वे एयरकंडीशनर लगे सोफे को 1 लाख से सवा लाख रुपए तक में बेचेंगे. यह सोफा एक स्पिलिट एसी के तौर पर काम करेगा. सोफे के अंदर एक यूनिट पाइप के जरीए बाहर के एक यूनिट से जुड़ा होगा. इस में ठंडी हवा सोफे के हाथ रखने वाले हिस्से से निकलेगी. दशरथ व्यास ने जानकारी देते हुए बताया कि यह घरेलू एसी की ही तरह काम करता है, जो रिमोट कंट्रोल से चलता है. 

*

तकनीक

कलेंडर बताएगा धान कब बोएं

कानपुर : सुनने में भले ही अटपटा लगे, पर सच यही है कि मौसम वैज्ञानिकों ने एक ऐसा कलेंडर तैयार किया है, जो धान के बारे में सटीक जानकारी देगा. अगर किसान इस कलेंडर के मुताबिक धान की खेती करें, तो उन्हें नुकसान न के बराबर होगा.बता दें कि धान की फसल 7 चरणों में तैयार होती है. ये चरण हैं नर्सरी तैयार करना, रोपाई करना, कल्ले निकलना, बाली निकलना, फूल आना, दुग्धावस्था और पुख्तावस्था. जून से अक्तूबर तक के इन तमाम चरणों में तापमान, बारिश और नमी अलगअलग होनी चाहिए. कलेंडर के मुताबिक अगर किसान धान की खेती नहीं करेंगे, तो फसल का बरबाद होना तय है. इस के अलावा धान के खेत में बीमारी लगने व कीडे़ लगने की गुंजाइश ज्यादा रहती है. चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के मौसम विभाग ने मध्यम अवधि की धान की फसल के लिए एक कलेंडर बनाया है. हैदराबाद में बनाए गए इस कलेंडर में धान की फसल के लिए बारिश, तापमान व नमी की उचित मात्रा बताई गई है. मौसम वैज्ञानिकों के मुताबिक, अगर किसानों को समय रहते सारी जरूरी बातों की खबर दे दी जाए, तो वे धान की फसल को बचा सकते हैं.                       

*

फरेब

ईंट वाले सरकार को लगा रहे चूना

पटना : बिहार में फिलहाल ईंटभट्ठे को चलाने और उन पर नजर रखने के लिए सरकार की कोई ठोस नीति नहीं है, जिस से लगभग 50 फीसदी भट्ठे वाले सरकार को राजस्व का भुगतान नहीं करते हैं. राजस्व की चोरी करने वालों पर मुकदमा करने पर विभाग का काफी समय और पैसा बरबाद हो जाता है. ईंट बनाने वालों पर नकेल कसने के लिए सरकार पिछले 2 सालों से बालू नीति की तर्ज पर ईंट नीति बनाने की कवायद में लगी हुई?है, लेकिन अभी तक इस की फाइलें टेबलों के चक्कर ही लगा रही है. खनन एवं भूतत्व विभाग के सूत्रों के मुताबिक विभाग ने नई ईंट नीति का खाका तैयार कर लिया है. इस नीति के लागू होने के बाद ईंट भट्ठे का कारोबार चालू करने से पहले खनन एवं भूतत्व विभाग से रजिस्ट्रेशन कराना होगा और इस के लिए करीब 5 हजार रुपए की फीस वसूली जाएगी. इस के अलावा प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से एनओसी भी लेनी पड़ेगी.

गौरतलब है कि केंद्रीय पर्यावरण एवं वन विभाग ने ईंट भट्ठों के संचालन के लिए कई नियम बना रखे?हैं, पर उन का सही तरीके से पालन नहीं हो पाता है. ईंट के लिए 2 मीटर से ज्यादा मिट्टी नहीं खोदनी चाहिए और खनन के बाद गड्ढे को?भरवाने का काम भी करना होता?है. जिस जगह पर मिट्टी खोदने का काम करना हो, उसे चारों तरफ से घेरना जरूरी?है. भट्ठों पर काम करने वाले मजदूरों के इलाज का पूरा इंतजाम भी होना चाहिए. संरक्षित स्थानों से 1 किलोमीटर के दायरे में ईंटभट्ठा नहीं होना चाहिए. सार्वजनिक जगहों से मिट्टी खनन क्षेत्र की दूरी कम से कम 15 मीटर होनी चाहिए. हालात को देखते हुए ईंट नीति को जल्दी से जल्दी बना कर लागू किया जाना बेहद जरूरी?है, तभी ईंट बनाने वालों की मनमानी पर लगाम लगेगी. 

*
योजना

कृषि उत्पाद बेचने की नई नीति

पटना : बिहार के किसानों की कमाई को बढ़ाने के लिए कृषि उत्पादों की मार्केटिंग की नई नीति बनाने का काम शुरू कर दिया गया है. इस नीति के बनने के बाद राज्य के किसान देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी अपने उत्पादों को बेच सकेंगे. नई नीति बनाने का जिम्मा बिहार एग्रीकल्चर मैनेजमेंट एंड एक्सटेंशन ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट (बामेति) को सौंपा गया?है.

बामेति माहिरों से बात कर के और सेमिनारों का आयोजन कर के इस मसले पर लोगों की राय ले रही है. राज्य में कृषि उत्पादन बाजार समितियों को भंग करने के बाद कृषि उत्पादों को बाजार मुहैया कराने की कोई ठोस व्यवस्था नहीं है. पिछले कुछ सालों से जैव उत्पादों की पैदावार में भी तेजी से इजाफा हुआ है, लेकिन उन की मार्केटिंग का कोई पक्का इंतजाम नहीं?है. मिसाल के तौर पर मशरूम और बेबीकार्न जैसे उत्पादों की अच्छी कीमत किसानों को नहीं मिल रही है. अच्छी कीमत न मिलने की वजह से कई किसान तो बेबीकार्न का उत्पादन करना छोड़ चुके हैं. पटना के संपतचक गांव के किसान पुलक राम कहते?हैं कि 4 साल पहले उन्होंने बेबीकौर्न का उत्पादन करना शुरू किया, लेकिन वह बाजार में बिक ही नहीं पाता था, जिस से उन की काफी पूंजी डूब गई. सरकार ने किसानों को भरोसा दिलाया?था कि पारंपरिक फसलों के बजाय बेबीकौर्न की खेती से किसानों को काफी मुनाफा होगा. बामेति के निदेशक गणेश राम ने बताया कि जल्द ही बिहार के कृषि उत्पादों को स्थानीय बाजार के साथसाथ राष्ट्रीय बाजार भी मुहैया कराया जाएगा. इस के साथ ही 11 जिलों में नई सुविधाओं से लैस कृषि बाजार बनाए जाएंगे.             

*

रोक

मिडडे मील में दूध बंद

लखनऊ : उत्तर प्रदेश सूबे के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने मिडडे मील योजना के तहत हर बुधवार को तमाम परिषदीय स्कूलों के बच्चों को 200 मिलीलीटर दूध बांटने का ऐलान किया था. उसी के मुताबिक यह योजना चालू कर दी गई थी. लेकिन दूध पीने से जबतब इन स्कूलों के बच्चों के बीमार होने की शिकायतें मिलने लगीं. कई स्कूलों में दूध की जगह कोई दूसरी चीज बांट कर खानापूरी की जा रही?है.

इन्हीं गड़बडि़यों और शिकायतों की वजह से यह दूध योजना बंद होने की कगार पर पहुंच गई?है. अब दूध की जगह पर छाछ, दही, मक्खन, केला या कोई दूसरा पौष्टिक पदार्थ देने के बारे में विचार किया जा रहा?है. जल्दी ही शासन को इस बारे में नया प्रस्ताव भेजा जाएगा. सूत्रों के मुताबिक उच्च स्तर पर हुई बैठक में बेसिक शिक्षा विभाग के अफसरों से कहा गया? कि वे दूध की जगह दूसरी पौष्टिक चीजों के बारे में विचार कर के सुझाव पेश करें. इस के बाद मुख्यमंत्री से इजाजत ले कर दूध की योजना बंद कर के उस की जगह दूसरी चीजों को बांटा जाएगा.    

*

झटका

बिहार में तेल कारोबार को लगा चूना

पटना : बिहार में हर साल 12 लाख टन खाद्य तेलों की खपत होती?है और राज्य के तेल कारखानों में 9 लाख टन तेल का उत्पादन होता है. इस के बाद भी बिहार में बने तेल की खपत केवल 3 लाख टन ही हो पाती?है, जिस से तेल के कारखानों पर बंदी की तलवार लटकने लगी है. तेल उत्पादकों का कहना है कि बिहार में इतने तेल का उत्पादन होता?है कि राज्य में उस की खपत आसानी से हो सकती है, लेकिन दूसरे राज्यों से तेल की आवक से राज्य के तेल कारोबार पर काले बादल मंडरा रहे?हैं. पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश से बड़े पैमाने पर खाद्य तेल बिहार आते हैं. बिहार इंडस्ट्री एसोसएिशन के अध्यक्ष अरुण अग्रवाल कहते हैं कि पश्चिम बंगाल ने दूसरे राज्यों से आने वाले तेल पर इंट्री टैक्स नहीं लगता?है. इस से वहां का तेल बिहार के तेल के मुकाबले सस्ता होता?है और बिहार का तेल इंट्री टैक्स दे कर महंगा हो जाता है. बिहार में तेल सड़क या रेल के जरीए आता है, जिस से लागत बढ़ जाती है.

सरकार से मांग की गई है कि दूसरे राज्यों से आने वाले तेल पर 2 फीसदी इंट्री टैक्स लगाया जाए, नहीं तो बिहार का तेल उद्योग ठप हो सकता है.    

*
सलाह

सोयाबीन उगाएं भरपूर पैसा कमाएं

चंडीगढ़ : हरियाणा में किसानों की माली हालत सुधारने के लिए उन का सोयाबीन जैसी फसलों के प्रति रुझान बढ़ाया जाएगा. यह जानकारी प्रदेश के कृषि मंत्री ओमप्रकाश धनकड़ ने मध्य प्रदेश के इंदौर स्थित सोयाबीन अनुसंधान केंद्र में दी. कृषि मंत्री ओमप्रकाश धनकड़ का यह दौरा हरियाणा में सोयाबीन फसल की ज्यादा से ज्यादा पैदावार की संभावना तलाशने के लिए था. उन्होंने बताया कि हरियाणा के दक्षिणी हिस्से में सिंचाई के लिए पानी की कमी है. अगर खरीफ  के मौसम में सोयाबीन की खेती की जाए, तो जहां पानी की बचत होगी, वहीं सोयाबीन का अच्छा भाव मिलने से किसानों की माली हालत में भी सुधार होगा. कृषि मंत्री ओमप्रकाश धनकड़ ने बताया कि सोयाबीन की खेती में पारंपरिक फसलों से कई गुना ज्यादा फायदा होगा.  अगर प्रदेश के लोग सोयाबीन खाएंगे, तो वे सेहतमंद भी रहेंगे.              

*

योजना

धान के खेतों की मेंड़ों पर दलहन

पटना : खेतों में धान की फसलें लहलहाएंगी और खेतों की मेंड़ों पर दालें उगाई जाएंगी. दलहनी फसलों के घटते उत्पादन को ध्यान में रखते हुए बिहार के कृषि विभाग ने नई योजना बना कर दलहनी फसलों की पैदावार को बढ़ाने की कसरत शुरू की है. इस के लिए मेंड़ों पर खेती के लिए अरहर और उड़द की फसलों को चुना गया है. विभाग का दावा है कि इस से जहां समेकित खेती को बढ़ावा मिलेगा, वहीं दाल के पौधों पर चिडि़यों के बैठने से फसलों का कीटों से बचाव हो सकेगा. इस साल 1 करोड़ टन धान के उत्पादन का लक्ष्य पाने के लिए 25 लाख एकड़ में श्री विधि से धान की खेती की जाएगी. कृषि मंत्री विजय कुमार चौधरी ने बताया कि इस बार खेतों की मेंड़ों पर 2 लाइनों में अरहर और उड़द की दालों की खेती की जाएगी. इस साल इस योजना को प्रयोग के तौर पर शुरू किया गया?है और इस के कामयाब होने के बाद इसे विस्तार से शुरू किया जाएगा.

श्री विधि से खेती करने और मेंड़ों पर दलहनी फसलों को लगाने वाले समझदार किसानों को प्रति एकड़ 3 हजार रुपए का अनुदान दिया जाएगा.

*

योजना

खत्म होगी मछली की किल्लत

पटना : बिहार में रोहू मछली की नई किस्म जयंती रोहू से मछलीपालकों की आमदनी में कई गुने का इजाफा होगा और राज्य में मछली उत्पादन तेजी से बढ़ सकेगा. मछली उत्पादन बढ़ने से दूसरे राज्यों से मछली मंगाने की मजबूरी भी काफी कम हो सकेगी. केंद्रीय मीठाजल मत्स्य अनुसंधान संस्थान की ताजा रिसर्च का परीक्षण कामयाब रहा है. परीक्षण में पाया गया कि साधारण रोहू मछली के मुकाबले उस की नई किस्म यानी जयंती रोहू बहुत ज्यादा तेजी से बढ़ती है. सामान्य रोहू की तुलना में इस का वजन डेढ़ गुना ज्यादा होता है. राज्य सरकार किसानों को इस नई किस्म की मछली के बीज मुहैया कराएगी. इस मछली का रंग सुनहरा होता है और स्वाद सामान्य रोहू से काफी अच्छा होता है. मत्स्य महकमे के निदेशक निशात अहमद ने बताया कि राज्य के सभी इलाकों के तालाबों में जयंती रोहू का उत्पादन किया जा सकता है. साधारण रोहू के मुकाबले इस का वजन बहुत तेजी से बढ़ता है और महाशीर मछली की नई किस्में विकसित करने का काम भी चल रहा है. देश में मछली उपलब्धता का राष्ट्रीय औसत 8.54 किलोग्राम प्रति व्यक्ति है, जबकि बिहार में यह आंकड़ा 7.7 किलोग्राम ही?है.  

मधुप सहाय, अक्षय कुलश्रेष्ठ और बीरेंद्र बरियार

कृषि जगत से जुड़े सितंबर के खास काम

बरसात का कहर और धमाचौकड़ी थमने के बाद सितंबर महीने का आगाज होता है. खेतीकिसानी के लिहाज से यह खासा खुशगवार महीना होता है. बारिश के चहबच्चों से राहत पा कर किसान सुकून के आलम में दोगुने जोश से काम करते हैं. खेतीबारी के लिहाज से सितंबर महीने का भी अच्छाखासा वजूद होता है. गन्ने व चावल की अहम फसलों के बीच सितंबर में आलू की बुनियाद भी डाली जाती है. इस माह मटर व टमाटर का भी जलवा रहता है.

आइए गौर करते हैं सितंबर महीने में होने वाली खेतीकिसानी संबंधी गतिविधियों पर :

* यों तो सितंबर तक बरसात का जोश हलका पड़ जाता है, पर थोड़ीबहुत बारिश गन्ने की सिंचाई के लिहाज से ठीक रहती है. अगर बारिश न हो तो गन्ने की सिंचाई का खयाल रखें.

* अगर ज्यादा पानी बरस जाए और खेतों में पानी भर जाए, तो उसे निकालना बेहद जरूरी है, वरना गन्ने की फसल पर बुरा असर पड़ेगा.

* इस बीच गन्ने के पौधे खासे बड़े हो जाते हैं, लिहाजा उन का ज्यादा खयाल रखना पड़ता है. ये मध्यम आकार के पौधे तीखी हवाओं को बरदाश्त नहीं कर पाते, इसलिए उन्हें गिरने से बचाने का इंतजाम करना चाहिए. पौधों की अच्छी तरह बंधाई करने से वे सही रहते हैं.

* सितंबर के दौरान गन्ने के तमाम पौधों को चेक करें और बीमारी की चपेट में आए पौधों को जड़ से उखाड़ दें. इन बीमार पौधों को या तो जमीन में गहरा गड्ढा खोद कर गाड़ दें या फिर उन्हें जला कर नष्ट कर दें.

* धान के खेतों की जांच करें और पानी न बरसने की हालत में जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें.

* अगर पानी ज्यादा बरसे और धान के खेतों में भर जाए तो बगैर लापरवाही के उसे निकालने का इंतजाम करें.

* कीटों के लिहाज से धान के खेतों की गहराई से जांच करें. अगर गंधी बग कीट का प्रकोप नजर आए तो रोकथाम के लिए 5 फीसदी मैलाथियान के घोल को फसल पर कायदे से छिड़कें.

* कीटों के अलावा रोगों के लिहाज से भी धान की देखभाल जरूरी होती है. अगर धान में भूरा धब्बा रोग का हमला दिखाई दे, तो बचाव के लिए 0.25 फीसदी वाली डायथेन एम 45 दवा का छिड़काव पूरे खेत में करें.

* इस दौरान धान में झोंका यानी ब्लास्ट बीमारी का भी खतरा रहता है. इस से बचाव के लिए डेढ़ किलोग्राम जीरम प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. जीरम न हो तो 1 किलोग्राम कार्बंडाजिम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें.

* देर से तैयार होने वाली धान की किस्मों के खेतों में अभी तक नाइट्रोजन की बची मात्रा नहीं डाली गई हो, तो उसे जल्दी से जल्दी डालें.

* अपने अरहर के खेतों का जायजा लें. अगर फाइटोपथोरा झुलसा बीमारी का असर नजर आए तो बचाव के लिए रिडोमिल दवा की ढाई किलोग्राम मात्रा काफी पानी में मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से फसल पर छिड़काव करें.

* कीटों के लिहाज से भी अरहर के खेतों की जांच करें. यदि फलीछेदक कीट का हमला दिखाई दे, तो रोकथाम के लिए इंडोसल्फान 35 ईसी वाली दवा की 2 लीटर मात्रा 1 हजार लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

* सोयाबीन के खेतों का जायजा लें और देखें कि खेत की सतह सूखी तो नहीं है. अगर ऐसा हो तो खेत की बाकायदा सिंचाई करें. दरअसल फसल में फूल आने व फलियां तैयार होने के दौरान खेत में नमी होना जरूरी है.

* यह भी देखना जरूरी है कि कहीं ज्यादा बरसात की वजह से सोयाबीन के खेत में ज्यादा पानी तो नहीं भर गया. ऐसा होने पर उसे निकालने का माकूल इंतजाम करें.

* यह भी देखना जरूरी है कि कहीं सोयाबीन की फसल में फलीछेदक व गर्डिल बीटल कीटों का हमला तो नहीं हुआ. ऐसा होने पर बचाव के लिए क्लोरोपाइरीफास 20 ईसी वाली दवा की डेढ़ लीटर मात्रा काफी पानी में मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से फसल पर छिड़कें. कीटों का असर इस के बाद भी खत्म न हो, तो 2 हफ्ते बाद दवा की इतनी ही मात्रा दोबारा फसल पर छिड़कें.

* सितंबर में आमतौर पर मूंगफली के पौधों में फूल निकलते हैं और उस दौरान खेत में नमी होना जरूरी है. अगर खेत सूखा लगे तो फौरन सिंचाई का इंतजाम करें, लेकिन ज्यादा बरसात की वजह से अगर खेत में पानी जमा हो गया हो, तो उसे निकालने का जुगाड़ करें.

* मूंगफली के खेत में अगर दीमक का असर नजर आए तो रोकथाम के लिए क्लोरोपाइरीफास 20 ईसी वाली दवा की 4 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से सिंचाई के वक्त पानी के साथ डालें.

* मक्के के खेतों का जायजा लें. अगर नमी कम महसूस हो तो जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें. अगर इस बीच ज्यादा बरसात  होने से मक्के के खेत में फालतू पानी भर गया हो, तो उसे निकालने का इंतजाम करें.

* मक्के की फसल में अगर पत्ती झुलसा या तुलासिता रोगों का असर दिखाई दे, तो रोकथाम के लिए जिंक मैंगनीज कार्बामेट दवा की ढाई किलोग्राम मात्रा काफी पानी में घोल कर फसल पर छिड़काव करें.

* अगर तोरिया बोनी हो, तो उस की बोआई का काम सितंबर के दूसरे हफ्ते यानी 15 सितंबर तक निबटा लें.

* तोरिया की बोआई के लिए पीटी 30 या पीटी 303 जैसी उम्दा किस्मों का चयन करें.

* तोरिया की बोआई में 4 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. बोआई से पहले बीजों को थायरम से उपचारित करें. बोआई 4 सेंटीमीटर गहराई पर करें.

* सितंबर महीने में आलू की अगेती बोआई की जाती है. अगेती बोआई के लिए आलू की कुफरी बहार, कुफरी चंद्रमुखी, कुफरी अशोका, कुफरी सूर्या या कुफरी पुखराज किस्मों का चुनाव करें.

* इसी महीने टमाटर की भी नर्सरी डाली जाती है. पिछले महीने डाली गई नर्सरी के पौधे तैयार हो गए होंगे, लिहाजा उन की रोपाई करें.

* टमाटर की रोपाई से पहले निराईगुड़ाई कर के खरपतवार निकालकर खेत की अच्छी तरह तैयारी करना जरूरी है.

* अगेती मटर, मूली व शलजम की बोआई भी सितंबर में की जाती है. बोआई से पहले खेत की अच्छी तरह तैयारी करना बहुत जरूरी है.

* अदरक के खेतों का जायजा लें. अगर खेत सूखे नजर आएं तो सिंचाई का इंतजाम करें और कहीं उन में बारिश का पानी भर गया हो तो उसे निकालने का इंतजाम करें.

* हलदी के खेतों का भी जायजा लें और नमी कम लगे तो सिंचाई करें. लेकिन अगर खेतों में बरसात का पानी भर गया हो, तो उसे निकालने का इंतजाम करें.

* अदरक के पौधों पर ध्यान दें. अगर उन में झुलसा रोग के लक्षण दिखाई दें, तो रोकथाम के लिए जल्दी से जल्दी इंडोफिल एम 45 दवा के 0.2 फीसदी घोल को फसल पर छिड़कें.

* हलदी के पौधों में भी इस दौरान झुलसा रोग का खतरा रहता है, लिहाजा जांच कर के जरूरत के मुताबिक इंडोफिल एम 45 दवा के 0.2 फीसदी घोल का छिड़काव करें.

* अपने बेर के बगीचे पर नजर डालें. अगर चूर्णिल आसिता रोग का प्रकोप दिखाई दे तो कैराथेन दवा का छिड़काव करें.

* आम के पेड़ों पर भी इस दौरान बीमारियों का खतरा मंडराता रहता है, लिहाजा उन की देखभाल बेहद जरूरी है. यदि उन में एंथ्रेकनोज या गमोसिस रोगों का असर दिखाई दे, तो कापर आक्सीक्लोराइड दवा की 600 ग्राम मात्रा 200 लीटर पानी में घोल कर छिड़कें.

* सितंबर के दौरान अकसर लीची के पेड़ों पर तनाछेदक कीटों का हमला हो जाता है. ऐसी हालत में रुई को पेट्रोल में डुबो कर कीटों द्वारा बनाए गए छेदों में भर दें. इस के बाद छेदों को गीली मिट्टी से कायदे से ढक दें.

* गुणकारी बेल के पेड़ अकसर सितंबर के आसपास शाटहोल बीमारी की चपेट में आ जाते हैं. ऐसी नौबत आने पर ब्लाइटाक्स 50 दवा का छिड़काव कारगर रहता है.

* जाती बारिश के इस महीने में अपने तमाम मवेशियों की जांच माहिर पशु चिकित्सक से कराएं ताकि वे स्वस्थ व महफूज रहें.

* जांच के बाद चिकित्सक द्वारा बताए गए टीके वगैरह लगवाने में लापरवाही न बरतें.

* मुरगी व मुरगे वगैरह की हिफाजत का पूरा खयाल रखें. बचीखुची बारिश में उन्हें भीगने न दें.

* इस सूखेगीले महीने में भी सांप, गोह व नेवले जैसे जानवरों का जोर रहता है, लिहाजा अपने पशुपक्षियों को उन से बचा कर रखें.

* खुद भी खेतों में मोटे व अच्छे किस्म के जूते पहन कर जाएं ताकि कीड़ेमकोड़ों से सुरक्षित रहें.

* रात के वक्त अपने साथ टार्च व डंडा जरूर रखें व मोबाइल पर संगीत बजाते रहें ताकि खतरनाक जानवर शोर सुन कर नजदीक न आएं.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें