एक समय था जब कहा जाता था, ‘खाना मन भाया और कपड़ा जग भाया.’ लेकिन वक्त के साथ सब बदल गया. अब ‘खाना जग भाया’ हो गया. कुछ लोग जो खा रहे हैं, वही सभी लोग खाने लगे, अच्छा लगे या नहीं. एक भेड़चाल की सी स्थिति हो गई है. वहीं दूसरों की पसंद व नापसंद से पहना जाने वाला कपड़ा अब पूरी तरह ‘मन भाया’ हो गया, चाहे लोगों को अच्छा लगे, न लगे. लोग वही पहनने लगे हैं जो खुद उन्हें अच्छा लग रहा हो और इस मामले में सब से आगे हैं किशोर और किशोरियां.
जबजब, जहांजहां ड्रैसकोड की बात उठती है, लोग इसे ‘तालिबानी कल्चर’ कह कर इस का मजाक उड़ाते हैं. लेकिन अगर देखा जाए तो ड्रैसकोड और सभ्य समाज का आपस में गहरा संबंध है. बिना ड्रैसकोड का पालन किए हम सभ्यता या विकास की बात सोच भी नहीं सकते हैं. हर पेशे, हर कार्यालय एवं हर अवसर का अलगअलग ड्रैसकोड हुआ करता है. किसी को पसंद आए या न आए, चाहे कितनी असुविधा क्यों न हो, उस का पालन करना ही पड़ता है. और यह उचित भी होता है. इन दिनों तो पार्टियों में भी ‘थीम पार्टी’ के नाम पर एक प्रकार का ड्रैसकोड ही अपनाया जा रहा है. ड्रैसकोड मानने या कपड़ों पर लगी पाबंदी का सब से बड़ा विरोधी वर्ग है किशोरकिशोरियों का. कहने को तो यह उम्र ऐसी है, जब किसी तरह की रोकटोक पसंद नहीं आती, चाहे बात कपड़ों की ही क्यों न हो.
किशोरावस्था की उम्र में मन बिना बात के बगावत पर तुला होता है. सारा जहां दुश्मन एवं पिछड़े विचारों का लगता है. बस, एक आईना ही दोस्त होता है, जो समयसमय पर मन में उठते विचारों को हवा देता रहता है. ‘इस ड्रैस में फंकी लग रहे हो’, ‘क्या मस्त लग रहा है’, ‘यह तो गजब का मैच है.’ आईने एवं मन की आवाज सुनतेसुनते ड्रैस का ‘कंफर्ट’ एवं लोगों की पसंदनापसंद सब भुला दी जाती है. इस उम्र के बच्चों पर कपड़ों को ले कर ज्यादा बंदिशें नहीं लगाई जा सकती हैं लेकिन फिर भी उन्हें कुछ बातों की सीख दी जा सकती है.
कपड़े मौसम के अनुसार हों
बदन ढकने के बाद कपड़े का दूसरा सब से बड़ा उपयोग मौसम से बचाव करना होता है लेकिन जाने क्यों किशोरकिशोरियों को इस बात की ज्यादा परवा नहीं होती. उन्हें मौसम के विपरीत कपड़ों में भी देखा जा सकता है. कड़ाके की ठंड में भी बिना सिर ढके बिना कान ढके, हलकीफुलकी जैकेट में भी ये लोग नजर आ सकते हैं. ठंड से चाहे थरथरा रहे हों मगर गरम कपड़े पहनना या उन की भाषा में कहें तो लादना उन्हें पसंद नहीं. गरमी के मौसम में टाइट जींस एवं काले कपड़ों में नजर आना उन का शौक है. अब उन्हें कौन बताए कि फैशन के नाम पर वे मौसम की मार झेल रहे हैं.
कपड़े सेहत के अनुसार हों
सेहत 2 तरह की होती है. पहली, अंदरूनी सेहत और दूसरी, बाहरी डीलडौल. किसी की सेहत के हिसाब से कौन सी ड्रैस सही है, यह सिर्फ वही व्यक्ति, स्वयं ही जान सकता है. इस का एक अच्छा उदाहरण हैं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल. तमाम लोगों एवं मीडिया ने उन को ‘मफलर मैन’ कहा. इतनी आलोचना के बाद भी उन्होंने मफलर का त्याग नहीं किया क्योंकि उन्हें पता था कि उन की खांसी उन्हें सर्दी से एलर्जी होने के कारण है. और इस से बचने के लिए जरूरी है कि सिर, कान और गले को सर्दी से बचाया जाए. ऐसा करना मफलर के बिना मुमकिन नहीं था. प्रिंट मीडिया से ले कर इलैक्ट्रोनिक मीडिया तक इतनी आलोचना शायद ही किसी नेता की ड्रैस को ले कर हुई हो. मगर केजरीवाल विचलित नहीं हुए. ड्रैस के चुनाव में अपनी लंबाई, चौड़ाई, त्वचा के रंग आदि का भी ध्यान रखना चाहिए. नाटे कद की मोटी लड़की अगर पटियाला सूट पहने तो प्यारी लगेगी, लेकिन लेगिंस या टाइट शर्ट लोगों की नजर में उसे अनाकर्षक बना देगा.
इसी तरह कपड़ों के रंगों का चुनाव करते वक्त त्वचा के रंगों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. त्वचा का रंग बदला नहीं जा सकता है, यह एक सचाई है लेकिन कपड़ों के रंगों का सही चुनाव कर के खूबसूरत दिखा जा सकता है. जैसे काली त्वचा वालों को पीला, सफेद, नेवी ब्लू जैसे रंगों से गुरेज करना चाहिए. ऐसी रंगत पर पिंक, क्रीम कलर खिलते हैं. ये सावधानियां लड़केलड़कियों दोनों के लिए हैं.
कपड़े बजट के अनुसार हों
किशोर बच्चों को कपड़े खरीदते समय ब्रैंडेड के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए क्योंकि उन्हें किसी बोर्ड मीटिंग या इंटरव्यू में तो जाना नहीं है, न ही खुद को प्रैजेंट करना है. उन्हें तो हर जगह बिंदास एवं मस्त लगना है, इसलिए 1 कीमती ड्रैस की जगह कम कीमत के 2-3 कपड़े भी बदलबदल कर पहनने के लिए अच्छे होते हैं. आजकल तो कई बड़ी फिल्मी हस्तियां भी स्ट्रीट शौपिंग कर रही हैं क्योंकि बहुत सी ऐसी अलग दिखने वाली चीजें बड़ेबड़े शोरूमों में नहीं मिलतीं. जबकि फुटपाथ की दुकानों में मिल जाती हैं. ड्रैस के अलावा घड़ी, पर्स, चेन, बे्रसलेट, स्टौल, स्कार्फ, अंगूठी, चश्मा जैसी चीजें भी थोड़ी हट कर हों तो लोगों की नजर आप पर टिक जाती है. दोस्तों के बीच शाइन करना है, बस, मकसद तो इतना ही है न.