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झारखंड : मछली उत्पादन में लंबी छलांग

झारखंड के पथरीले इलाकों के बीच मछली उत्पादकों की मेहनत को देख कर सरकार यह दावा कर रही है कि मछली उत्पादन के मामले में झारखंड जल्द ही अपने पैरों पर खड़ा हो जाएगा. कभी मछली उत्पादन के मामले में फिसड्डी माने जाने वाले राज्य ने मछली उत्पादन में जोरदार छलांग लगाई है. साल 2004-05 में सूबे में 22 हजार मीट्रिक टन मछली का उत्पादन हुआ था, जो आज बढ़ कर 71 हजार मीट्रिक टन हो गया है. राज्य के मछलीपालकों का कहना है कि मछलीपालन को बढ़ावा देने से एक ओर जहां ज्यादा लोगों को रोजगार मिलेगा, वहीं मछली उत्पादन के मामले में राज्य आत्मनिर्भर भी हो जाएगा. रांची के पास नामकुम इलाके के मछलीपालक सुखदेव महतो ने बताया कि राज्य में तालाबों की कमी को देखते हुए वैज्ञानिक तरीके से वैसे तालाब बनाने की जरूरत है, जिन में पूरे साल पानी रह सके. इस से मछली उत्पादन में ज्यादा तेजी आ सकेगी.

मछली उत्पादन से होने वाले फायदे को इस से आसानी से समझा जा सकता है कि 10 पैसे के 1 मछली बीज से 7-8 महीने बाद प्रति मछली 60 से 70 रुपए की कमाई हो जाती है. मछली उत्पादकों को सुविधाएं मिलें तो मछली उत्पादन के क्षेत्र में झारखंड कामयाबी की बुलंदियां छू सकता है. मछली उत्पादन के मामले में बंजर माने जाने वाले झारखंड में मछली उत्पादकों का हौसला बढ़ाने को ले कर सरकार की भी नींद खुली है. पिछले साल रिकार्डतोड़ मछली उत्पादन करने वाले किसानों को सरकार ने सम्मानित कर के उन का हौसला बढ़ाया. पाकुड़ जिले के सोमनाथ हलधर ने 200 क्विंटल मछली उत्पादन के साथसाथ 50 लाख मछली बीज का भी उत्पादन किया, जिस के लिए उन्हें पहला पुरस्कार मिला. गुमला जिले शिव प्रसाद साहू ने 150 क्विंटल मछली और 50 लाख मछली बीज का उत्पादन कर के दूसरा पुरस्कार हासिल किया. इस के अलावा साहू 70 गायों की डेरी चला कर खुद को और सूबे को माली रूप से मजबूत करने में लगे हुए हैं. चतरा जिले के प्रहलाद चौधरी ने 100 क्विंटल मछली उत्पादन कर के तीसरे पुरस्कार पर कब्जा जमाया. इन के साथ सरायकेला के राधाकृष्ण और बोकारो के गुहीराम घीवरने को 1-1 करोड़ और कोडरमा के सकलदेव सिंह को 50 लाख मछली बीज का उत्पादन करने के लिए सम्मानित किया गया. सरकार की ओर से मदद और सम्मान मिलने के बाद झारखंड में मछलीपालन की तरक्की तेज हुई है.

झारखंड के मत्स्यपालन मंत्री रणधीर कुमार सिंह कहते हैं कि सूबे में 1 लाख 15 हजार मीट्रिक टन मछली की खपत होती है, जबकि फिलहाल 71 हजार मीट्रिक टन का ही उत्पादन हो रहा है. मछली की कमी को पूरा करने के लिए पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश से मछलियां मंगाई जाती हैं. झारखंड में रेहू, कतला व मिरगा जैसी मछलियों का ज्यादा उत्पादन होता है और इन मछलियों की मांग भी सब से?ज्यादा है. पोलासिया, गरई व मांगुर जैसी मछलियां गंदे पानी में भी जिंदा रह लेती हैं, जबकि रेहू, कतला, मिरगा, पोठिया व दिलवरकाट वगैरह मछलियों को साफ पानी की जरूरत होती है. मत्स्य संसाधन विकास संस्थान से मिली जानकारी के मुताबिक झारखंड में हर जिले में स्थानीय युवकों में से करीब 5 हजार मत्स्य मित्र बनाए गए हैं. इन के जरीए सूबे के जलकरों के सर्वे का काम कराया जा रहा है. 1 लाख, 5 हजार जलकरों के जल क्षेत्र, मछलीपालकों के नाम और मत्स्य बीज की जरूरत से जुड़ी जानकारियां जमा की जा रही?हैं. मत्स्य मित्रों के जरीए सूबे के मछुआरों की गिनती भी कराई जा रही है.

मत्स्यपालन मंत्री के मुताबिक झारखंड में मछली उत्पादन को बढ़ाने के लिए सभी तालाबों, जलाशयों, चेकडैम और नहरों को दुरुस्त करने के साथ ही नए जल संसाधनों को विकसित करने और उन की जलग्रहण कूवत को बढ़ाने की योजनाओं पर काम चालू किया गया है. पायलट प्रोजेक्ट के तहत बोकारो जिले में पंगद मछली का उत्पादन शुरू किया गया है. यह मछली 2 महीने में 250 ग्राम अैर 7-8 महीने में 1 किलोग्राम की हो जाती है. सूबे के बाकी जिलों में भी इस योजना को चालू किया जाएगा. उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर बनने के लिए 80 करोड़ मत्स्य बीज का उत्पादन करना जरूरी है, जबकि फिलहाल 54 करोड़ मत्स्य बीज का उत्पादन किया जा रहा?है.   

नकदी फसल मसूर की खेती

दलहनी फसलों में मसूर की खेती किसानों के लिए नकदी फसल के रूप में उगाई जाती है. मसूर का इस्तेमाल न केवल दालों बल्कि नमकीन, अंकुरित अनाज व तमाम खाद्य पदार्थों में किया जाता है. मसूर की खेती में मेहनत व लागत दोनों कम लगती है. किसानों के लिए यह माली आमदनी का अच्छा जरीया माना जाता है. मसूर की खेती दोमट मिट्टी से ले कर भारी जमीन में आसानी से की जा सकती है. इस की खेती धान के खाली पड़े खेतों या परती जमीन में भी की जा सकती?है. मसूर की खेती के लिए मिट्टी पलटने वाले हल से 2-3 बार जुताई कर के पाटा लगा देना चाहिए. अगर रोटावेटर या पावर हैरो से जुताई की जा रही है, तो 1 बार जुताई करना ही काफी होता है. इस की बोआई का सही समय अक्तूबर के दूसरे हफ्ते से नवंबर के दूसरे हफ्ते तक होता है. इस की बोआई जीरो टिल सीड ड्रिल से भी की जा सकती है. मसूर की समय से बोआई के लिए प्रति हेक्टेयर 40-60 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है. बोआई समय से न करने की हालत में 65-80 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की जरूरत पड़ती है.

बीज को खेत में बोने से पहले उपचारित किया जाना जरूरी होता है. मसूर बीज का उपचार राइजोबियम कल्चर से किया जाना ज्यादा सही होता है. 10 किलोग्राम बीज के उपचार के लिए 200 ग्राम राइजोबियम कल्चर की जरूरत पड़ती है. किसी खेत में मसूर की खेती पहली बार की जा रही हो, तो बीजोपचार से पहले बीज का रासायनिक उपचार भी किया जाना चाहिए. चूंकि मसूर की जड़ों में राइजोबियम गांठें होती हैं, इसलिए इस की फसल में ज्यादा उर्वरक की जरूरत नहीं पड़ती है. अगर सामान्य तरीके से खाली खेत में मसूर की बोआई की जा रही हो, तो प्रति हेक्टेयर 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस व 20 किलोग्राम पोटाश का इस्तेमाल करना चाहिए. अगर धान की कटाई के बाद खेत में मसूर की बोआई करनी है, तो 20 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से टापड्रेसिंग करना चाहिए. इस के बाद 30 किलोग्राम फास्फोरस का छिड़काव 2 बार फूल आने पर व फलियां बनते समय करना चाहिए.

मसूर की फसल में ज्यादा सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है. अगर बोआई के समय नमी न हो तो फली बनते समय सिंचाई करनी चाहिए. इस से पहले फूल आने पर भी सिंचाई जरूरी होती है. मसूर की बोआई के 20-25 दिनों बाद खरपतवार निकाल देने चाहिए.

खास बीमारियां : मसूर की बोआई से पहले उस के बीज को 2.5 किलोग्राम?थीरम या 4 किलोग्राम ट्राइकोडरमा या 1 ग्राम कार्बेंडाजिम से उपचारित करने पर बीमारियां लगने का खतरा काफी कम होता?है. फिर भी मसूर की फसल में अकसर उकठा, गेरुई गलन रोग, ग्रीवा गलन व मूल विगलन रोग का असर दिखाई पड़ता?है. ऐसे में इन बातों पर खास ध्यान देना चाहिए:

* अगर खेत में उकठा या गेरुई रोग का प्रकोप हो तो मसूर की रोग प्रतिरोधी प्रजातियों जैसे नरेंद्र मसूर 1, पंत मसूर 4, पंत मसूर 5, प्रिया, वैभव जैसी प्रजातियों की बोआई करनी चाहिए.

* बीज व मिट्टी से होने वाले रोगों में?ऊपर बताई गई विधि से बीज को उपचारित करने पर रोग का असर नहीं होता?है.

* अगर ग्रीवा गलन या मूल विगलन रोग से फसल का बचाव करना?हो, तो 5 किलोग्राम ट्राइकोडरमा पाउडर को 2.5 क्विंटल गोबर की खाद में मिला कर मिट्टी में मिला देना चाहिए.

* जिस खेत में उकठा, ग्रीवा गलन या मूल विगलन रोगों का प्रकोप हो, उस में 3-4 सालों तक मसूर की फसल नहीं लेनी चाहिए.

कृषि विज्ञान केंद्र बंजरिया, बस्ती में विषय वस्तु विशेषज्ञ डा. प्रेमशंकर का कहना?है कि मसूर में माहू कीट व फलीछेदक कीट का हमला देखा गया?है. माहू कीट पौधे के कोमल भागों का रस चूस कर पौधे का विकास रोकता है. वहीं फलीछेदक कीट फली के दानों को खा कर उत्पादन घटाता है.

ऐसे में मिथाइल ओ डिमटोन, क्यूनालफास या मेलाथियान का छिड़काव कृषि विशेषज्ञ की सलाह के मुताबिक करना चाहिए. इस के अलावा मोनोक्रोटोफास या मेथिलान का छिड़काव भी कारगर होता है. कृषि विज्ञान केंद्र बंजरिया, बस्ती में वरिष्ठ विशेषज्ञ डा. राघवेंद्र विक्रम सिंह के मुताबिक मसूर की खेती के दौरान कुछ सावधानियों को अपना कर उत्पादन में इजाफा तो किया ही जा सकता?है, साथ ही खेती के जोखिम को?भी कम किया जा सकता?है. मसूर की खेती के दौरान ध्यान देने वाली खास बातें निम्न हैं:

* मसूर की रोगरोधी प्रजाति का ही चयन करें.

* सूत्रकृमियों के नियंत्रण के लिए गरमी में जुताई करें.

* लगातार दलहनी फसलों या सब्जियों की खेती एक ही खेत में न करें, बल्कि 3 साल का फासला रखें.

* अपने क्षेत्र के मुताबिक बताई गई प्रजातियों का ही चयन करें.

* बीज शोधन जरूर करें.

* सिंगल सुपर फास्फेट का इस्तेमाल जरूर करें.

* रोग का नियंत्रण समय से करें.

ऊपर बताई गई बातों को अगर ध्यान में रखा जाए तो मसूर किसानों के लिए महज 4 महीने के कम समय में ही अच्छी आमदनी का साधन साबित होती?है.

कटाई व भंडारण : मसूर की फलियां जब सूख कर भूरे रंग की हो जाएं, तो फसल की कटाई कर के उस में अल्यूमीनियम फास्फाइड की 2 गोलियां प्रति मीट्रिक टन के हिसाब से?डाल कर भंडारित करें.

मसूर की खेती के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए खेती के माहिर राघवेंद्र विक्रमसिंह के मोबाइल नंबर 09415670596 पर बात कर सकते?हैं. इस के अलावा कीटों व बीमारियों के बारे में वरिष्ठ वैज्ञानिक डा. प्रेम शंकर के मोबाइल नंबर 09935668097 पर संपर्क किया जा सकता है

फिर पड़ी सूखे की मार फसलें खराब किसान लाचार

जमीन, आसमान, हवा, पानी व आग के मेल से दुनिया बनी है, लेकिन इन महापंचों की नजर टेढ़ी होने पर बनाबनाया खेल बिगड़ जाता है. किसानों को अकसर यह मार सहनी पड़ती है, क्योंकि ज्यादातर खेती कुदरत के भरोसे है. जमीन ऊसर, बंजर, बीहड़ या दलदली हो, आसमान से बिजली, ओले गिरें, आंधी, तूफान, चक्रवात आएं, बादल फटें, पानी न बरसे या पकी फसल जल जाए, किसानों को जानमाल का नुकसान ज्यादा होता है, क्योंकि खेती में जोखिम बहुत हैं. खतरे उठा कर फसलों को महफूज रखना आसान नहीं है. भले ही खेती को देश की रीढ़ व किसान को अन्नदाता कहें, लेकिन सहूलियतों की बरसात कारखानेदारों पर ज्यादा, किसानों पर कम होती है. लिहाजा दूसरों की थाली भरने वाले किसानों की थाली खाली रहती है. ऊपर से सूखे की मार पड़ जाने के कारण किसानों की मुश्किलें बेहिसाब बढ़ जाती हैं.

दरअसल ज्यादातर किसान आज भी मानसून की मेहरबानी पर खेती करते हैं. बारिश कम होने से असिंचित इलाकों में बसे किसानों की परेशानी ज्यादा बढ़ जाती है. मौसम की बेरुखी व राहत में कमी किसानों को खुदकुशी के कगार पर पहुंचा देती है. ज्यादातर किसान सूखा प्रबंधन की तकनीकों से नावाकिफ हैं. बीते 67 सालों में पानी की तरह पैसा बहाने के बावजूद खेती की यह कैसी तरक्की है? पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में बादल तो घिरे, लेकिन इस बार सावन का महीना सूखा चला गया. पिछले साल के मुकाबले इस बार 44 फीसदी कम बारिश हुई है.  मेरठ ही क्या देश के कई राज्यों में बहुत से जिले सूखे की चपेट में हैं. महाराष्ट्र में मराठवाड़ा इलाके में किसान पानी की भयंकर कमी से जूझ रहे हैं. लिहाजा खेती, पानी बचाने, उस के किफायती इस्तेमाल जैसे मुद्दों पर खास व कारगर पहल बेहद जरूरी है, क्योंकि बहुत से किसान जलप्रबंधन की तकनीकों से एकदम नावाकिफ हैं.

कमजोर मानसून

सालाना बारिश में करीब 70 फीसदी जून से सितंबर तक होती है. मौसम महकमे के मुताबिक पिछले दिनों देश के 6 फीसदी हिस्से में सैलाब आया, 44 फीसदी हिस्से में कम पानी बरसा व बाकी में औसत बारिश हुई. जून से सितंबर मध्य तक बारिश का औसत 13-14 फीसदी कम रहा. उत्तराखंड व हिमाचल प्रदेश में 20 फीसदी, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान व महाराष्ट्र वगैरह में 41 फीसदी व पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस बार 44 फीसदी तक कम बारिश रही. देश के 91 बड़े जलाशयों में पानी तकरीबन 16 फीसदी तक घट गया है. जमीन के नीचे का पानी भी लगातार नीचे उतर रहा है. लिहाजा हालत खराब हो रही है. हालांकि पहले ओडिशा का कालाहांडी जिला फसल खराब होने के लिए जाना जाता था, लेकिन सूखे की वजह से देश के कई दूसरे व खुशहाल इलाकों में भी खुश्की के आसार बन रहे हैं.

देश की कुल माली तरक्की में खेती का हिस्सा काफी अहम है, लिहाजा कमजोर मानसून से बारिश व पैदावार में आने वाली कमी का सीधा असर विकास दर पर पड़ता है. लगातार दूसरे साल भी सूखा पड़ने की वजह से पैदावार इस बार भी घटेगी. खासकर खरीफ की फसलों व दूसरी कृषि जिंसों में तेजी आएगी. केंद्र सरकार के कृषि मंत्रालय के मुताबिक 2014-15 के दौरान देश के 96 जिलों में सूखा पड़ा था. इन में हरियाणा के 21, उत्तर प्रदेश के 44, कर्नाटक के 9 व महाराष्ट्र के 22  जिले शामिल थे. इस साल मौसम के महकमे ने पहले ही मानसून की नजाकत व बारिश में 12 फीसदी कमी से आगाह करा दिया था, लिहाजा किसानों व सरकार के पास सूखे से निबटने का मौका था. सरकार ने 3.7 करोड़ की जगह 5.5 करोड़ टन गेहूं व चावल का भंडार कर लिया.

बचाव की तकनीक

पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा व पंजाब वगैरह में नदीनहरों, ट्यूबवैलों और पंपसेटों वगैरह की भरमार है. ऐसे इलाकोें में यदि बारिश कम भी हो तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता, लेकिन महंगे डीजल व बिजली की किल्लत से किसानों को दिक्कत होती है और प्रति हेक्टेयर फसलों की उत्पादन लागत बढ़ती है. छोटे व सीमांत किसान बारिश के भरोसे खेती करते हैं. उन्हें कम पानी से खेती करने की तकनीक मुहैया कराई जाए. मसलन धान व गन्ने को ज्यादा पानी चाहिए. पानी कम हो तो आयरन की कमी से धान के पत्ते पीले हो जाते हैं. भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों के मुताबिक ऐसे में 1 फीसदी फेरस सल्फेट व 0.25 फीसदी चूने का घोल धान की फसल में डालें. खेत में पानी जमा रहे व 10 दिनों बाद इसे फिर दोहराएं तो फसल बच जाएगी.

उत्तर प्रदेश गन्ना शोध परिषद, शाहजहांपुर ने कोशा 767,07250 व कोसे 01434 वगैरह गन्ने की ऐसी कई किस्में निकाली हैं, जो कम पानी में भी अच्छी पैदावार देती हैं. इस के अलावा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वैज्ञानिकों ने भी सूखे से निबटने के कई तरीके निकाले हैं, जैसे कि छोटे जल भंडारों के लिए किफायती रन आफ सैंपलर, सस्ता जल संचयन व सिंचाई की सूक्ष्म प्रणाली, खेती रन आफ के इस्तेमाल से सीधे जलभराव के लिए फिल्टर और पालीमर के इस्तेमाल से पानी की नमी को ज्यादा देर तक बनाए रखना. सरकारी मुलाजिमों की कामचोरी से ऐसी तमाम जरूरी बातों की जानकारी ज्यादातर किसानों तक नहीं पहुंचती. केंद्र सरकार के कृषि मंत्रालय ने हैदराबाद में केंद्रीय बारानी खेती अनुसंधान संस्थान, सीआरआईडीए और सूखी बागबानी पर रिसर्च व ट्रेनिंग के लिए बीकानेर में केंद्रीय शुष्क बागबानी संस्थान खोल रखा है. इन संस्थानों के वैज्ञानिकों ने फसलों, जानवरों, सिंचाई के तरीकों, मिट्टी की खासीयतों व ढांचागत सहूलियतों को मौसमी बदलाव के पहलुओं पर बांट कर कम पानी से खेती व बागबानी के कारगर उपाय निकाले हैं.

सीआरआईडीए किसानों को सूखे व बाढ़ में होने वाले फसली नुकसान को कम करने की सलाह देगा. इस के लिए इस संस्थान ने देश के 574 जिलों के लिए औचक स्कीमें बनाई हैं, लेकिन ऐसी बातें जमीनी हकीकत से दूर हैं. वे तब तक सिर्फ हवाई, कोरी व कागजी बातें ही मानी जाएंगी, जब तक कि लैब से निकल कर गांवों, खेतों व किसानों तक न पहुंच जाएं.

सरकारी इमदाद

सूखा पड़ने पर सरकारें राहतकारी उपाय करती हैं. खरीफ 2014 के सीजन में हुई कम बारिश के असर को कम करने के लिए डीजल पर छूट, बागबानी फसलों पर माली इमदाद, बीज पर छूट में 50 फीसदी बढ़ोतरी, चाराविकास की स्कीम, तेलखली पर आयात शुल्क माफ जैसे कदम उठाए गए थे, लेकिन हमारे देश में सूखे पर भी राहत कम व राजनीति ज्यादा होती है. सूखा सहायता के लिए राज्यों में विपदा अनुक्रिया निधि एसडीआरएफ व केंद्र में एनडीआरएफ के तहत रकम मौजूद रहती है. इस मद में 2014-15 के दौरान 7,387 करोड़ 1 लाख रुपए थे, जबकि 2015-16 के दौरान 3,693 करोड़ 99 लाख रुपए बढ़ा कर कुल 11,081 करोड़ रुपए एलाट किए गए हैं, लेकिन इस में भी भेदभाव है. लिहाजा सूखा पड़ने पर सभी राज्यों को एक जैसी व बराबर माली इमदाद मयस्सर नहीं होती. देश के 29 में से 18 राज्य आम कैटेगरी के हैं. सूखा राहत में आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, बिहार, छत्तीसगढ़, गोवा, गुजरात, हरियाणा, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश व पश्चिम बंगाल को 3 हिस्से केंद्र सरकार के व 1 हिस्सा राज्य सरकार का होता है. बाकी 11 राज्यों अरुणांचल प्रदेश, असम, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा, सिक्किम, हिमाचल प्रदेश, जम्मूकश्मीर व उत्तराखंड के लिए 9 हिस्से केंद्र सरकार के व 1 हिस्सा राज्य सरकार का होता है.

मोदी सरकार ने कई नए कदम उठाए हैं. पहले फसल के 50 फीसदी नुकसान पर राहत मिलती थी, अब 33 फीसदी पर मिल जाती है. पहले 1 हेक्टेयर जोत वालों को राहत मिलती थी, अब 2 हेक्टेयर जोत वालों को भी मिलती है. साथ ही दी जाने वाली माली इमदाद भी बढ़ा कर प्रति हेक्टेयर 4,500 रुपए से 18 हजार रुपए कर दी गई है. साथ ही कुदरती आपदा में मरने पर वारिसों को देय मुआवजा डेढ़ लाख रुपए से बढ़ा कर 4 लाख रुपए कर दिया गया है.

हीलाहवाली

सब जानते हैं कि सरकारी राहत किसानों तक आसानी से नहीं पहुंचती. उस में काफी देर लगती है, क्योंकि कागजी खानापूरी का रास्ता काफी लंबा व चाल कछुए जैसी होती है. सूखा पड़ने पर राज्य सरकार नुकसान का अंदाजा लगाती है. फिर केंद्र सरकार से माली इमदाद की मांग करती है. इस के बाद केंद्र सरकार उस की जांच के लिए टीम बनाती है. वे टीमें घूमघूम कर दौरा करती हैं व मौकामुआयना करने के बाद अपनी रिपोर्ट सरकार को देती हैं. इस सारे काम में काफी समय लगता है और तब कहीं जा कर राहत की रकम राज्यों को दी जाती है. फिर उस के बंटने में काफी देर लगती है. लिहाजा सूखा राहत की बूंदें किसानों तक जल्द व पूरी न पहुंच कर रास्ते में ही सूख जाती हैं. पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के सिकंदराबाद इलाके में किसानों को बंटने आए फसली मुआवजे में से 56 लाख रुपए की रकम 2 चेकों के जरीए हड़प ली गई. भांडा फूटने पर तहसीलदार मुकर गया. उस ने अपने दस्तखत ही फर्जी बता दिए. पूरा अमला उसे बचाने में जुट गया, लेकिन स्टेट बैंक ने इस मामले की जांच रिजर्व बैंक से कराई तो पोल खुल गई. जांच रिपोर्ट में चैकों पर किए गए तहसीलदार के हस्ताक्षर असली पाए गए. इस उदाहरण से साफ जाहिर है कि सरकार के भरोसे रहने से कुछ होने वाला नहीं है. किसानों का खुद जागरूक होना बहुत जरूरी है. बारिश कम होने पर पानी की कमी से निबटने के उपायों की जानकारी किसानों को जरूर होनी चाहिए. इस बाबत इच्छुक किसान इन पतों पर संपर्क कर सकते हैं :

निदेशक,

केंद्रीय बारानी खेती अनुसंधान संस्थान, सीआरआईडीए, संतोष नगर, सैदाबाद, हैदराबाद, आंध्र प्रदेश : 500059

निदेशक,

केंद्रीय शुष्क बागबानी संस्थान,

बीकानेर, राजस्थान : 334006.

नुकसानदेह है मवेशियों में मोटापा

उम्र बढ़ने के साथ मोटापा मवेशियों को भी अपनी गिरफ्त में ले लेता है. आमतौर पर इस तरफ मवेशीपालकों का ध्यान नहीं जाता, क्योंकि वे इस गलतफहमी में रहते हैं कि मवेशियों में मोटापा नहीं होता बल्कि वे सेहतमंद हो रहे हैं. मवेशियों की सेहत के बारे में किसान ज्यादा जाननेसमझने की जरूरत नहीं महसूस करते. मवेशी खापी रहा है, काम कर रहा है और गायभैंसें दूध दे रही हैं, यही किसानों के लिए काफी है. लेकिन हकीकत यह है कि मोटे होते हुए मवेशी धीरेधीरे काम करना बंद कर देते हैं और गायभैंसों के दूध की मात्रा घटती जाती है.

इसलिए मोटे होते हैं मवेशी

इनसानों की तरह कुछ मवेशी भी आलसी मिजाज के होते हैं. उन्हें जब तक धक्का न दिया जाए, वे हिलते ही नहीं. ऐसे मवेशियों से किसान परेशान रहते हैं, क्योंकि इस से खेती के काम धीमे होते जाते हैं. लेकिन गायभैंसों की यह लत आसानी से पकड़ में नहीं आती. पेटू जानवरों को अगर घासचारा लगातार मिलता रहे, तो वे जरूरत से ज्यादा खाते रहते हैं, इस से धीरेधीरे उन के शरीर में चर्बी बढ़ती जाती है और वे सुस्ती का शिकार होने लगते हैं. ऐसे में दूध घट जाता है. बात सीधी है कि मवेशी ज्यादा खाएगा और मेहनत कम करेगा तो उस का मोटा होना तय है और यही मोटापा उस में कई बीमारियों की वजह बनता है, जिन की पहचान आसानी से नहीं हो पाती. मवेशीपालक भी पशुओं की खुराक पर खास ध्यान नहीं देते, क्योंकि उन्हें इस बारे में जानकारी ही नहीं होती. नीमच के मवेशियों के माहिर डाक्टर प्रदीप त्रिवेदी का कहना है कि यह सच है कि मवेशी भी मोटापे का शिकार हो कर तरहतरह की बीमारियों से घिर जाते हैं, जिन में खास हैं डायबिटीज यानी शुगर की बीमारी, प्रजनन कूवत में कमी और दिल से ताल्लुक रखती बीमारियां. इन से बचाव के लिए किसानों को वक्तवक्त पर मवेशियों की निगरानी करते रहना चाहिए कि कहीं वे मोटे तो नहीं हो रहे.

ऐसे नापें मोटापा

मवेशियों का मोटापा नापने का सब से पहला तरीका उन के वजन में इजाफा है. हर मवेशी का उम्र के मुताबिक वजन तय होता है, जिसे उस की लंबाई से नापा जा सकता है. अगर माहिर 4 साल की भैंस का औसत वजन 200 किलोग्राम बताते हैं और वह इस से 15 फीसदी ज्यादा वजन की यानी 230 किलोग्राम से ज्यादा की हो जाए तो साफ है कि वह मोटी हो गई है. मोटाई नापने का दूसरा तरीका शरीर में वसा या चर्बी की मात्रा परखना है. इस के लिए मवेशी की पसलियों पर अपना हाथ इस तरह रखें कि उंगलियां पसलियों पर और अंगूठा पीठ पर रहे. ऐसा करने पर अगर आप पसलियों को महसूस कर पाएं तो मवेशी का वजन ठीक है और अगर पसलियां महसूस न हों, तो समझ जाएं कि बढ़ी चर्बी के कारण मवेशी मोटा हो गया है. गायभैंसों के पेट का जरूरत से ज्यादा लटकना भी उन के मोटापे की तरफ इशारा करता है.

कैसे रोकें मोटापा

मोटे मवेशी धीरेधीरे बीमारियों के शिकार हो कर किसी काम के नहीं रह जाते. यह बात मवेशियों पर भी लागू होती है कि मोटापा कई बीमारियों की जड़ है, लिहाजा बेहतर है कि मवेशियों को मुटाने ही न दें मवेशियों को मोटापे से बचाने के लिए निम्न बातों पर ध्यान दें: * कम उम्र से ही मवेशियों की खानपान की आदतों को काबू में रखें. उन्हें ज्यादा मात्रा में जायकेदार चारा न दें.

* मवेशियों के चरने की मियाद तय रखें, उसे घटाएं बढ़ाएं नहीं.

* मवेशियों को एकसाथ ज्यादा चारा न दें, बल्कि दिन में 4-6 बार में थोड़ाथोड़ा कर के दें.

* अगर मवेशी सुस्त दिखे तो उस का खाना कम कर के उसे चलाएंफिराएं यानी कसरत कराएं ताकि जमा हो रही फालतू चर्बी घटे.

* मवेशियों को ज्यादा से ज्यादा पानी पिलाएं.

* तमाम कोशिशों के बाद भी मोटापा काबू में न आए, तो अपने नजदीकी पशु डाक्टर से मिलें और उन से मवेशी के आहार की जानकारी लें कि उसे कब, कितना और कैसा चारा दिया जाए, जिस से उस का मोटापा कम हो.

यह वह दौर है जिस में मवेशी लगातार कम हो रहे हैं, इसलिए जो हैं उन का ध्यान रखा जाना बेहद जरूरी है. मवेशियों में ज्यादातर बीमारियां उन के मोटापे की वजह से होती हैं, पर जब तक उन की पहचान होती है, तब तक बात बिगड़ चुकी होती है. इसलिए अपने मवेशियों को मोटा न होने दें. उन्हें फिट रखें और उन से ज्यादा काम लें व पैसे कमाएं.

मशरूम की छांव में पनपता रोजगार

मशरूम मृत कार्बनिक पदार्थों पर उगने वाला एक कवक होता है. इसे खुंब, छतरी व कुकुरमुत्ता के नामों से भी जाना जाता है. इस की खासीयत यह है कि दूसरे कृषि उत्पादों की तरह इस के उत्पादन के लिए लंबेचौड़े खेतों का होना जरूरी नहीं है. इस का उत्पादन बंद कमरे में थोड़ी सी जगह में भी आसानी से किया जा सकता है. यही वजह है कि मौजूदा समय में मशरूम उत्पादन के क्षेत्र में पुरुषों के साथसाथ महिलाओं को भी रुचि लेते देखा जा सकता है. व्यावसायिक स्तर पर उगाई जाने वाली खुंबियों में एगेरिकस बाइस्पोरस (यूरोपियन टैंपरेट या व्हाइट बटन मशरूम), वालवेरियल्ला (पेडो स्ट्री या जाइनाज मशरूम), प्ल्यूरोटस स्पीसीज (आयस्टर या ढिंगरी मशरूम), लेंटाइनस इडोडिस (थाईटेक) और फलैम्यूलाइंना बेल्यूटाइप्स (एनोकाइटेक) खास हैं. इन में से भारत में पहले 3 मशरूमों की खेती की जाती है, क्योंकि इन के उत्पादन की तकनीक यहां विकसित की जा चुकी है.

मशरूम की खासीयत

मशरूम की खासीयत यह है कि यह एक अच्छा पौष्टिक आहार है. इसे सब्जी के रूप में बहुत चाव से खाया जाता है. इस में प्रोटीन, खनिज, लवण, विटामिन व एमीनो एसिड वगैरह पौष्टिक तत्त्व पाए जाते हैं. वसा व स्टार्च की मात्रा कम होने के कारण यह दिल के रोगियों व मधुमेह जैसी बीमारियों से पीडि़तों के लिए बेहतरीन आहार है. इस में फोलिक एसिड व लौह तत्त्व भी पाए जाते हैं, जो रक्त में लाल कण बनाने में मददगार हैं.

शिक्षणप्रशिक्षण

मशरूम उत्पादन को रोजगार के रूप में अपनाने की इच्छा रखने वालों के लिए देशभर के तमाम कृषि विश्वविद्यालयों व कृषि अनुसंधान केंद्रों में साप्ताहिक, पाक्षिक व मासिक कोर्स संचालित किए जा रहे हैं. इन पाठयक्रमों का मकसद उत्पादकों को मशरूम उत्पादन की तकनीक व बीजों की अच्छी नस्ल से परिचित कराना है. इन प्रशिक्षण कार्यक्रमों में दखिले के लिए उम्र व पढ़ाई संबंधी कोई जरूरी शर्त नहीं है. फिर भी अगर दाखिला लेने वाला 8वीं या 10वीं तक पढ़ालिखा हो, तो वह तमाम तकनीकी पहलुओं को आसानी से समझ सकेगा.

सरकारी कर्ज का इंतजाम

मशरूम उत्पादन में जुटे लोगों की आर्थिक मदद के लिए सरकारी सहायता का पूरा इंतजाम है. केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने इस काम के लिए विभिन्न माध्यमों की व्यवस्था कर रखी है, जो अपनेअपने सतर पर मशरूम उत्पादकों को 50 हजार से ले कर 2 लाख रुपए तक की सहायता का प्रबंध कराते हैं. मशरूम उत्पादन के काम से जुड़े अनुसूचित जाति व जनजाति के लोगों को इस सरकारी कर्ज पर कुछ विशेष भुगतान राहत भी दी जाती है, जो देश के सभी राज्यों में एकसमान है. इस के अलावा निजी बैंक भी उचित दरों पर कर्ज देते हैं.

वातावरण

मशरूम के तमाम प्रकारों के उत्पादन के लिए अलगअलग तापमान व वातावरण की जरूरत होती है. इस के बिना इन का उत्पादन करना मुमकिन नहीं है. सफेद बटन मशरूम (टेंपरेंट या यूरोपियन मशरूम) का उत्पादन नवंबर से फरवरी के बीच में करना ठीक रहता है. इस के लिए 15 से 25 डिगरी सेंटीग्रेड तापमान व सापेक्षिक आर्द्रता 80 से 90 फीसदी होनी जरूरी है. आयस्टर मशरूम (ढिंगरी) के लिए फरवरीमार्च व सितंबरअक्तूबर के महीने अच्छे होते हैं. इस के लिए तापमान 20 से 28 डिगरी सेंटीग्रेड व सापेक्षिक आर्द्रता 80 फीसदी से अधिक होनी चाहिए. भारत में उत्पादित की जाने वाली मशरूम की तीसरी किस्म वालवेरियल्ला का उत्पादन मध्य अप्रैल से अक्तूबर तक किया जाता है. इस के लिए तापमान 30 से 40 डिगरी सेंटीग्रेड व सापेक्षिक आर्द्रता 80 फीसदी से ज्यादा होनी बेहद जरूरी है.

अवसर1

मशरूम उत्पादन ऐसा रोजगार है, जिस में आप कम लागत में ज्यादा मुनाफा कमा सकते हैं. भारत में पैदा होने वाली मशरूम की नस्लों की न केवल देश में, बल्कि विदेशों में भी भारी मांग है. अगर आप व्यवसाय में थोड़ा धन लगा कर काम शुरू करते हैं, तो कई लोगों को रोजगार दे सकते हैं.

आमदनी

मशरूम का उत्पादन एक ऐसा रोजगार है, जिसे अगर आप घरेलू स्तर पर घर के सदस्यों के साथ भी शुरू करते हैं, तो हर महीने 6 से 8 हजार रुपए आसानी से कमा सकते हैं.

कृषक मित्र बन कर मालाराम कर रहे कमाल

राजस्थान में जोधपुर जिले के अणवाणा गांव के 65 साला किसान मालाराम विश्नोई बीए की पढ़ाई करने के बाद वायु सेना में भर्ती हो गए. वायुसेना में पूरी सेवाएं देने के बाद उन्होंने खेती के काम में नवाचार करने की सोची. राज्य में कृषि विस्तार कार्यक्रम को चलाने के लिए हर 2 आबाद गांवों पर 1 स्थानीय पढ़ेलिखे प्रगतिशील किसान को कृषक मित्र के रूप में ग्राम पंचायत के जरीए चुने जाने का प्रावधान था. लिहाजा मालाराम ने कृषक मित्र बन कर नवाचार शुरू कर दिया. उन्होंने सब से पहले बाजरे की संकर किस्म एचएचबी 67 का बीज तैयार किया. उन्होंने 5 बीघे में बीज उत्पादन किया और 6 क्विंटल बीज पैदा किया. जब बाजरे का भाव बाजार में 10 रुपए प्रति किलोग्राम था, तब उन से 60 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बीज निगम ने बीज खरीदा. इस प्रकार उन्हें नवाचार से अच्छा लाभ मिला. आज भी वे बाजरे का अच्छा उत्पादन लेते हैं और लगभग 15 बीघे में बाजरे की खेती करते हैं. मालाराम ने खरीफ में अरंडी की खेती शुरू की. पहले बूंदबूंद सिंचाई विधि से 5 हेक्टेयर में अरंडी की खेती की और 120 क्विंटल अरंडी पैदा की. मालाराम को नवाचार करने की वजह से हैदराबाद में अरंडी की राष्ट्रीय कार्यशाला में राजस्थान का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला. वे एक किसान प्रतिनिधि के रूप में राजस्थान की तरफ से शामिल हुए.

वे खरीफ में ही हर साल 2 हेक्टेयर में कपास लगाते हैं. कपास में नवाचार कर के पौधों की संख्या पूरी रख कर 5 क्विंटल प्रति बीघे तक का उत्पादन करते हैं. मालाराम कृषि विभाग के 2 गांवों अणवाणा व केलावा के कृषक मित्र हैं. पिछले 5 सालों से वे पड़ोसी किसानों को कृषि विभाग की नवीन तकनीकों की जानकारी भी देते हैं. उन्होंने किसानों को कपास के मिलीबग कीट की भी जानकारी दी. उन्होंने कृषि विभाग द्वारा क्षेत्र में सब से पहले केंचुआ खाद की शुरुआत कराई. उन्होंने कुल 9 वर्मीबेड अपने खेत में बनवाए और वर्मी कंपोस्ट बना कर अपने खेत में डाल कर उत्पादन बढ़ाया. मालाराम ने क्षेत्र में पानी की अहमियत को देखते हुए सब से पहले 1995 में 30 बीघे में फव्वारा सिंचाई व्यवस्था लगाई और 2008 में बूंदबूंद सिंचाई तकनीक अपने खेत पर 5 हेक्टेयर खेत में लगाई है. मालाराम ने हाल ही में 10 बीघे में सरसों की खेती कर के 4 क्विंटल प्रति बीघे का उत्पादन लिया. पिछले साल उन्होंने 8 बीघे में 9 क्विंटल जीरा पैदा किया और 5 बीघे में 35 क्विंटल गेहूं पैदा किया. गेहूं की नई किस्म राज 4037 अच्छी साबित हुई. मालाराम ने पड़ोसी किसानों को भी बीज मुहैया करा कर लाभ दिलाया. वे 5 बीघे में ईसबगोल और 2 बीघे में प्याज की खेती करते हैं.

मालाराम ने खेती के साथ ही पशुपालन में भी नवाचार किए. उन्होंने साल 1998 में 8 गायों को ले कर डेरी लगाई थी. इस से कमाई भी की, पर मार्केट नहीं होने से यह काम कम कर दिया. अभी वे 2 गायें व 2 भैंसें रखते हैं. उन्हें जैविक खेती में अधिक दिलचस्पी थी, इसलिए गोबर की खाद खेत में डालते रहे. उन्हें वर्मी कंपोस्ट यूनिट से भी अपने खेत के लिए खाद मिलती रही और खेत ताकतवर बने. मालाराम के उम्दा काम और कृषि में रुचि को देखते हुए तहसील स्तर पर उन्हें 10 हजार रुपए का इनाम भी मिला. वे पड़ोसी किसानों से नवाचार कराते रहते हैं और कृषक मित्र का काम भी अच्छे ढंग से करते हैं. ज्यादा जानकारी के लिए किसान मालाराम के मोबाइल नंबर 09413956951 पर संपर्क कर सकते हैं या लेखक के मोबाइल नंबर 09414921262 पर भी बात कर सकते हैं.

नई मशीनों से किसानों की दूरी : कितनी मुश्किलें कितनी मजबूरी

मशीनों के इस्तेमाल ने दुनिया को बदल कर रख दिया है. खेती भी इन के असर से अछूती नहीं है. पैदावार बढ़ाने में नए बीज, खाद, पानी व बोआई की तकनीक के साथसाथ मशीनें भी बहुत मददगार साबित हुई हैं. नए दौर में मशीनों के बगैर खेती करना मुश्किल व महंगा है. खेती में मशीनों के इस्तेमाल से फायदे ही फायदे हैं. मशीनों से किसानों का वक्त, मेहनत व धन बचता है. मशीनें, खेती को घाटे से उबार कर फायदेमंद बना सकती हैं. इन से काम जल्दी, ज्यादा व बेहतर होता है. मशीनें किसानों की कूवत बढ़ाती हैं. इन से कम लागत में उम्दा और ज्यादा पैदावार हासिल होती है. उपज उम्दा हो तो उस की कीमत ज्यादा मिलती है. मशीनेें उपज की कीमत बढ़ाने व डब्बाबंदी में भी खूब काम आती हैं. खेती से मुंह मोड़ कर शहरों की ओर भागती नई पीढ़ी को मशीनों से गांवों में ही रोजगार मिल सकता है. कुल मिला कर मशीनें किसानों का नजरिया कारोबारी बना कर खेती व उस से जुड़े कामधंधों के बहुत से मसले सुलझाती हैं.

मुश्किलें कम नहीं हैं

खेती में बोआई, निराई, गुड़ाई, सिंचाई, कटाई, गहाई, छंटाई व ढुलाई वगैरह कामों में मशीनों का इस्तेमाल बढ़ा है. सरकार का इरादा अगले 5 सालों में पैदावार दोगुनी करने का है. ऐसे में खेती में मशीनों का इस्तेमाल तेज करना लाजिम है, लेकिन मुश्किल यह है कि ज्यादातर किसानों की माली हालत खराब है. बहुत से किसान महंगी व बड़ी मशीनें नहीं खरीद पाते. देश के 85 फीसदी किसान छोटे व सीमांत दर्जे के हैं. वे हल, बैल व पाटे का जुगाड़ ही मुश्किल से कर पाते हैं. खुरपी, फावड़े और दरांती से ही खेती करना उन की मजबूरी है, लिहाजा आम किसानों व खेती की मशीनों के बीच में दूरी बरकरार है.

बीच के फासले

खेती की मशीनों का दायरा बहुत बड़ा है. आए दिन मशीनें बन रही हैं. मगर 3 जुलाई, 2015 को जारी आंकड़ों के मुताबिक सिर्फ  4 फीसदी किसानों के पास खेती की मशीनें हैं. इन में भी पंपसेट, इंजन, थ्रेशर, पावर ट्रिलर, कल्टीवेटर, स्प्रेयर, डस्टर, हैंडहो व सीडड्रिल जैसी छोटी मशीनें ज्यादा हैं. ट्रैक्टर, प्लांटर, डिस्कंप्लाऊ व बड़े कंबाइन हार्वेस्टर जैसी बड़ी मशीनें कम किसानों के पास?हैं. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के माहिरों ने बहुत सी नायाब मशीनें बनाई हैं. इन में गन्ने की बड चिपिंग मशीन, क्यारी बनाने वाली रोटेरी बिजाई मशीन, 3 लाइनों वाली धान रोपाई मशीन, अनार में छिड़काव के लिए अल्ट्रासोनिक सेंसर, बहुफसली थ्रैशर, सेब तोड़ू सीढ़ी, पेड़ी गन्ने के लिए खाद डिबलर, हल्दी राइजोम रोपाई मशीन, हलदी व लहसुन खोदने के औजार, मक्का ज्वार के मिनी हार्वेस्टर व कीटनाशी छिड़काव के लिए सेफ्टी किट वगैरह मशीनें खास हैं. भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के माहिरों ने खरपतवार साफ  करने वाली पावर मशीन, पावर नैप सैक स्प्रेयर, सौर ऊर्जा चालित फल सब्जियों की रेहड़ी ठंडी करने की मशीन, गांवों के लिए मुफीद सौर पावर चालित फ्रिज, ग्रीन हाउस को ठंडा करने के फैन पैड, उठी क्यारी में गाजर रोपने व खोदने की मशीनें बनाई हैं.

खेती की मशीनें बनाने का सब से ज्यादा काम केंद्रीय कृषि अभियांत्रिकी संस्थान, भोपाल में हुआ है. वहां के माहिरों ने बहुत सी उम्दा व किफायती मशीनें और औजार बनाए हैं, लेकिन मुश्किल यह है कि आम किसानों में मशीनों की जानकारी व दिलचस्पी की कमी है. बहुत से किसानों को अब भी पुरानी लीक पर चलने की आदत है. दूसरी ओर खेतीबागबानी के महकमे व रिसर्च स्टेशन भरपूर प्रचार नहीं करते, लिहाजा किसानों को नई मशीनों की जानकारी नहीं होती. ज्यादातर किसान आज भी गेहूं, धान व चारा वगैरह हंसिया से ही काटते हैं. पुराने ढर्रे पर चल कर खेती के काम करने में काफी समय लगता है. अब आसानी से मजदूर भी नहीं मिलते. महंगा कंबाइन हार्वेस्टर खरीदना आम किसानों के बस की बात नहीं है. वैसे भी बड़ी मशीनें छोटे खेतों की बजाय बड़ेबड़े फार्मों के लिए ज्यादा कारगर रहती हैं. ऐसे में किफायती व छोटी मशीनें ज्यादा कारगर साबित होती?हैं. पंपसेट, इंजन, ट्रिलर व स्प्रेयर वगैरह बनाने वाली होंडा सियल कंपनी का ब्रश कटर गेहूं, धान व चारे की फसलें तेजी से काटता है. करीब 22 हजार रुपए कीमत की यह छोटी व हलकी मशीन पेट्रोल की मोटर से चलती है.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद, बुलंदशहर, नोएडा, आगरा व शिकोहाबाद जिलों में इस के डीलर हैं.

किल्लत

खेती की मशीनों से जुड़ी एक मुश्किल है बिजली की कमी. बहुत सी मशीनें बिजली से चलती हैं, लेकिन गांवों में बिजली कम आती है. मशीनें खेती की कायापलट कर के किसानों को खुशहाल कर सकती हैं, लेकिन भारतीय किसान मशीनी खेती में दूसरे देशों के किसानों से काफी पीछे हैं. वहां के किसान खेती में मशीनों का भरपूर इस्तेमाल करते हैं. साथ ही अमीर मुल्कों में बड़ेबड़े फार्म हैं, जबकि हमारे देश में छोटी जोतों की गिनती ज्यादा है. साल 2004 से 2014 तक भारत में 48,21,976 ट्रैक्टर व 4,17,898 पावर ट्रिलर बिके थे, फिर भी भारत में प्रति 1 हजार हेक्टेयर पर औसतन 16 ट्रैक्टर हैं, जबकि वैश्विक स्तर 20 से भी ज्यादा हैं. हरियाणा, पंजाब वगैरह में खेती की तरक्की का कारण मशीनें भी हैं, जबकि दूसरे राज्यों में मशीनोें की भारी कमी है.

सरकारी स्कीमें

नेशनल मिशन आन एग्रीकल्चर एक्टेंशन टैक्नोलाजी के तहत कृषि यंत्रीकरण पर 1 उपमिशन चल रहा है. खेती में मशीनों को बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार का खेती महकमा 2 स्कीमें चला रहा है. नई मशीनों की ट्रेनिंग व प्रदर्शन  की आउटसोर्सिंग की स्कीम में खेती की मशीनों के बारे में जागरूकता बढ़ाई जाती है, ताकि किसान नई मशीनें इस्तेमाल करने के तरीके सीख सकें. साल 2013-14 में इस स्कीम पर 21 करोड़ 12 लाख रूपए खर्च किए गए. कटाई के बाद की तकनीक व प्रबंधन की दूसरी स्कीम में उपज के प्रसंस्करण, मूल्यवर्धन, भंडारण व ढुलाई के लिए नई तकनीकों के इस्तेमाल पर जोर दिया जाता है, ताकि कटाई के बाद उपज कम से कम खराब हो. इस में पीएचटी उपकरण व ट्रेनिंग की सहूलियतें दी जाती हैं. साल 2013-14 में इस स्कीम पर 18 करोड़ 77 लाख रुपए खर्च हुए. यह बात दीगर है कि करोड़ों रुपए खप जाते हैं, लेकिन प्रचार की कमी से ज्यादातर किसानों को सरकारी स्कीमों की जानकारी नहीं होती.

माली इमदाद

खेती की मशीनें खरीदने पर सरकार किसानों को सिर्फ  50 फीसदी छूट देती है. यह कम व सिर्फ  कहने भर की है, क्योंकि इस में कई तरह के पेंच व पाबंदियों के पैबंद हैं. मसलन राष्ट्रीय कृषि विकास योजना में अब तक 395 अरब रुपए खर्च हुए, लेकिन उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों को इस स्कीम में मानव चालित मशीनों पर सिर्फ 500 रुपए, पशुचालित मशीनों पर 2500 रुपए व पावर चालित मशीन पर 30 हजार रुपए तक की छूट है, जो महंगाई के जमाने में ऊंट के मुंह में जीरे जैसी है. हज पर सब्सिडी, अमीरों को हीरे, सोने पर अरबों की कर रियायत, कारपोरेट सेक्टर को करों में छूट, धार्मिक संस्थाओं को कर में छूट देने से अरबों का घाटा सहने वाली व राजनैतिक दलों को अरबों रुपए आयकर में छोड़ने वाली दरियादिल सरकार को किसानों की छूट बढ़ाने में कंजूसी नहीं करनी चाहिए. संसद की कैंटीन में खाने की चीजों पर 90 फीसदी तक छूट है. सांसदों को वाहन खरीद पर बिना ब्याज कर्ज मिलता है. किसानों को भी मशीन खरीदने पर 90 फीसदी छूट व बिना ब्याज का कर्ज दिया जाना चाहिए. साथ ही मशीनों के बैंक बनाए जाने चाहिए, जिन से मशीनें किराए पर मिलें. गन्ना, कपास व चावल वगैरह खरीदने वाले मिल मालिक किसानों को मशीनें मुहैया कराएं, ताकि किसानों की मुश्किलें दूर हो सकें. 

मचान खेती से खुशहाली

गांव पेवनपुर, ब्लाक पिपरौली, जिला गोरखपुर के 44 साला आनंद निशाद ने अपनी खेती को नई तकनीक से एक नया रूप दे दिया. बचपन से ही आनंद का खेती के प्रति बहुत लगाव था. जब वे 10 साल के थे, तभी अपने पिता के साथ खेती करने लगे थे और उन का हाथ बराबर बंटाते रहते थे. 4 भाइयों में सब से गरीब आनंद ही थे. उन के पास बहुत कम जमीन है. उन्हें व्यावसायिक खेती करने का बेहद शौक था, इसलिए उन्होंने दूसरों की 1 एकड़ जमीन ले कर उस पर पारंपरिक ढंग से खेती शुरू की. साल 2013 में आधार संस्था द्वारा सर दोराब जी टाटा ट्रस्ट के सहयोग से कृषि आधारित आजीविका परियोजना पेवनपुर गांव में शुरू हुई. इस में आनंद निशाद को आधार द्वारा संचालित किसान विद्यालय का संचालक बनाया गया.

इस दौरान आनंद संस्था के कार्यकर्ताआें व संस्था में बुलाए गए कृषि विशेषज्ञों के संपर्क में आए और अपनी खेती संबंधी जानकारियों को लगातार बढ़ाते रहे. संस्था के कहने पर उन्होंने हुंडा की 500 वर्गमीटर जमीन पर मचान में द्विस्तरीय सब्जी की खेती शुरू की. पहले फसल चक्र में उन्होंने नीचे प्याज लगाया और ऊपरी स्तर पर लौकी के पौधे लगाए. दूसरे फसलचक्र में उन्होंने नीचे सूरन लगाया और ऊपरी स्तर पर करेले की खेती की. पहले साल मचान की फसलों को लगाते समय उन्हें काफी दिक्कतें हुईं, लेकिन इस से प्राप्त उत्पादन व आमदनी से वे इतने उत्साहित हुए कि उन्होंने अपनी पुश्तैनी जमीन पर भी इस साल मचान लगाया है. अप्रैल में उन्होंने मचान के नीचे खीरा लगाया, जिस से अब तक 15 हजार रुपए प्राप्त हुए. मई में उन्होंने मचान के ऊपर खीरा लगाया, जिस से अब तक 69 हजार रुपए प्राप्त कर चुके हैं. इस प्रकार महज 4 महीने में वे अब तक 84 हजार रुपए की सब्जी बेच चुके हैं. करीब 20 हजार रुपए की सब्जी और होने का अनुमान है. पहले साल में खीरा, लौकी, मचान, खाद व कीटनाशक को मिला कर 40 हजार रुपए का निवेश किया गया था.  इस तरह पहले साल में लगभग 50 हजार रुपए की आमदनी हुई.

इस मचान की कामयाबी को देख कर अब तक 7-8 अन्य किसान भी मचान लगा चुके हैं और कई अन्य किसान भी मचान लगाने के लिए बेताब हैं. गांव के लोग आनंद के कृषि ज्ञान के कारण उन्हें कृषि डाक्टर के नाम से पुकारते हैं. आनंद मचान के अलावा आधार संस्था के तकनीकी सहयोग से नए ढंग से पत्तागोभी, गाजर, चुकंदर, मूली, लौकी व खीरा की वैज्ञानिक खेती कर के अपने उत्पाद बाजार में ऐसे समय पहुंचाते हैं, जब उन की मौजूदगी कम रहती है जिस से उन की सब्जियां अधिक दामों में बिक जाती हैं और अन्य किसानों की तुलना में उन्हें अधिक आमदनी होती है. आनंद की सफलता व आमदनी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे अपने 6 बच्चों की पढ़ाईलिखाई व पत्नी समेत पूरे परिवार का खर्च बेहतर ढंग से चलाते हैं और अपनी सारी पारिवारिक जिम्मेदारियों को बाकायदा पूरा करते हैं. वे बचत भी कर लेते हैं.

अपने कृषि उत्पादों को उचित समय पर बाजार पहुंचाने के लिए आनंद ने दोपहिया वाहन भी खरीद लिया है. कृषि के साथसाथ पशुपालन कर के भी वे अपनी आय में इजाफा करते हैं. कृषि वानिकी के तहत उन्होंने आधार संस्था के सहयोग से क्लोनल यूकेलिप्टस व सागौन के पेड़ों को भी अपने खेत के किनारों पर लगाया है. आनंद को बचपन में स्कूली तालीम नहीं मिल पाई थी, फिर भी वे अपने बच्चों व अन्य लोगों से थोड़ाबहुत पढ़नालिखना सीख गए हैं. वे अपने खेती के कामों का पूरा लेखाजोखा रखते हैं. आनंद समयसमय पर अपनी जानकारी बढ़ाने के लिए आधार संस्था के सहयोग से और निजी खर्चे पर भी विभिन्न कृषि विश्वविद्यालयों व सब्जी अनुसंधान केंद्रों पर जाते रहते हैं. उन्होंने अपने 2 भाईबहनों की शादियां भी खूब धूमधाम से कीं. आनंद के तमाम कामों में उन की पत्नी मीरा देवी व बच्चों का पूरा साथ रहता है.

कुदरती खेती की अहमियत

अपने खेतों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए इस वैज्ञानिक युग में विभिन्न रसायनों का इस्तेमाल कर के हम फसलों का अधिक उत्पादन ले रहे हैं. इन रसायनों में कीटनाशी, फफूंदनाशी व रासायनिक उर्वरक खास हैं. सभी रसायन फसलों की पैदावार जरूर बढ़ाते हैं, लेकिन हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं. इसलिए आज यह जरूरी हो गया है कि फसलों में रसायनों का सोचसमझ कर कम इस्तेमाल किया जाए. ये तमाम रसायन पौधों व इनसानों के शरीर के अंदर ऊतकों की प्रतिरोधक कूवत को खत्म करते हैं. ऐसे में गुणवत्ता वाले उत्पादन के लिए निम्नलिखित नवीनतम तकनीकों का इस्तेमाल कर के घातक रसायनों के इस्तेमाल से छुटकारा मिल सकता है :

प्राकृतिक खाद : जीवाणु खाद, वर्मी कंपोस्ट, गोबर की खाद व वे खादें जो पशुओं के अवशेषों से बनाई जाती हैं, वे सभी कुदरती यानी प्राकृतिक खाद कहलाती हैं. इन सभी प्राकृतिक खादों से पोषक तत्त्व संतुलित मात्रा में प्राप्त होते हैं.

संतुलित मात्रा में पोषक तत्त्व प्राप्त होने से पौधों की बढ़वार तो अच्छी होती ही है, साथ ही गुणवत्तायुक्त उत्पादन भी प्राप्त होता है. पोषक तत्त्वों की पूर्ति के अलावा प्राकृतिक खाद से खेत की उत्पादकता में इजाफा होता है. कुदरती खादों के इस्तेमाल से पोषक तत्त्वों की मात्रा में इजाफा होता है. प्राकृतिक खादों की मात्रा और इस्तेमाल करने की विधि तालिका में दी गई है.

जैव उत्पाद : वैज्ञानिक खेती के विकास के साथसाथ कीट व बीमारियों का प्रकोप भी बढ़ा है. नतीजतन तमाम तरह के रसायनों का अंधाधुंध इस्तेमाल होने लगा है. अब हालत यह है कि ये तमाम रसायन भी असरहीन हो रहे हैं, क्योंकि कीटों ने अपने शरीर की प्रतिरोधक कूवत बढ़ा ली है. इस हालत में जैव उत्पाद जैसे नीम के बने उत्पाद, लहसुन के उत्पाद, गोमूत्र व अन्य पौध या जंतु उत्पादों का इस्तेमाल काफी फायदेमंद साबित हो रहा है. जैव उत्पादों के इस्तेमाल से प्रदूषण का खतरा बिल्कुल भी नहीं होता है और गुणवत्ता वाली उपज में इजाफा होता है. गुणवत्ता वाले उत्पादों की कीमत बाजार में अधिक होती है.

वर्मी कंपोस्ट : जैविक खादों में वर्मी कंपोस्ट की बहुत अहमियत है. इस के लिए कृत्रिम विधि द्वारा केंचुओं को पाला जाता है. ये केंचुए  गोबर व फसलों के अवशेषों को शीघ्र अपघटित कर के उम्दा किस्म की जैविक खाद में बदल कर मल के रूप में बाहर निकालते हैं, इसी को वर्मी कंपोस्ट कहा जाता है.

वर्मी कंपोस्ट के लाभ

* केंचुए जमीन की कुदरती तरीके से जुताई करते हैं.

* केंचुए के मल में जो पेरिट्रोपिक झिल्ली होती है, वह मिट्टी के कणों से चिपक कर उन के चारों ओर परत सी बना देती है.

* इस के इस्तेमाल से जल संग्रहण की कूवत बढ़ जाती है.

* इस के इस्तेमाल से भूमि क्षरण में कमी आती है.

* इस के इस्तेमाल से फलों व खाद्यान्नों में होने वाले प्रदूषण में कमी आती है.

* इस के इस्तेमाल से फसलों व पौधों को संतुलित पोषण मिलता है, जिस से उपज व गुणवत्ता में इजाफा होता है.

* यह मिट्टी की उर्वरा कूवत बढ़ाने में मददगार है.

* वर्मी कंपोस्ट में पोषक तत्त्वों की भरपूर मात्रा होती है.

परजीवी का इस्तेमाल : हर जीव एकदूसरे पर निर्भर है. इस सोच के तहत कुछ जीव ऐसे हैं, जो फसल की हिफाजत करते हैं. उदाहरण के लिए पक्षी कीट नियंत्रक का काम करते हैं. इस के लिए खेतों में ‘टी’ आकार में लकडि़यां गाड़ कर पक्षियों को लुभाते हैं. इसी प्रकार एनवीपी वायरस के इस्तेमाल से कैटरपिलर (सूंड़ी) द्वारा पहुंचने वाला नुकसान कम हो जाता है. इस के तहत वे कीट भी आते हैं, जो हानिकारक कीटों को खाते हैं.

इंटरनेट : खत्म हो रही किसानों की झिझक

देश भर में किसानों और गांवों को इंटरनेट और नई तकनीकों से लैस करने की योजनाएं अब रंग लाने लगी हैं. इंटरनेट को ले कर किसानों की बेरुखी और झिझक खत्म होने लगी है. कई किसान इंटरनेट, स्मार्ट फोन, लैपटौप, कंप्यूटर वगैरह नई तकनीकों की मदद से खेती और उत्पादन को बढ़ा रहे हैं. पंचायत भवनों, किसान भवनों और कृषि विज्ञान केंद्रों में इंटरनेट की सुविधा मिलने से पढ़ेलिखे किसानों को खेती की नई तकनीकों के बारे में जानकारी हासिल करना आसान हो गया है. कृषि वैज्ञानिक लगातार किसानों को इंटरनेट के फायदों के बारे में जागरूक कर रहे हैं. बिहार के शेखपुरा जिले के मैट्रिक पास किसान रामबालक सिंह सीना तान कर कहते हैं कि इंटरनेट के जरीए हर कोई शिक्षा, कारोबार, स्वास्थ्य, मौसम वगैरह से जुड़ी कई तरह की जानकारियां हासिल कर सकता है. इंटरनेट तो वाकई जानकारियों का खजाना है.

बिहटा गांव के किसान संजय मिश्र कहते हैं कि वे पढ़ेलिखे नहीं हैं, इसलिए उन्हें कंप्यूटर और इंटरनेट के बारे में कुछ भी पता नहीं है. वे अपने 10वीं क्लास में पढ़ने वाले बेटे की मदद से इंटरनेट से खेती की नई जानकारियां लेते हैं और उन्हें खेतों में आजमाते हैं. संजय बताते हैं कि बेटे की मदद से उन्होंने इंटरनेट का फायदा उठाना शुरू कर दिया है. खेत को बनाने से ले कर फसलों की सिंचाई और अनाज भंडारण तक के बारे में अब वे इंटरनेट से मिलने वाली सलाहों पर अमल कर रहे हैं. उन्हें सब से ज्यादा खुशी इस बात की है कि सिंचाई की नई तकनीक को अपनाने से सिंचाई का खर्च आधा रह गया है.बिहार जैसे पिछड़े राज्य में पंचायती राज के ठेठ गंवई प्रतिनिधियों को हाईटेक बनाने की कवायद शुरू की गई है. इफ्को का ‘किसान संचार लिमिटेड’ वायस मैसेज के जरीए पंचायत प्रतिनिधियों को खेती की तकनीकों और मौसम की जानकारी  देगा. इफ्को किसान संचार से जुड़े पंचायत प्रतिनिधियों को 20 रुपए में सिम कार्ड मिलेगा.

कृषि मंत्री विजय कुमार चौधरी ने बताया कि सभी प्रतिनिधियों के मोबाइल फोनों पर एसएमएस के जरीए कृषि विकास बागबानी, पशुपालन, मछलीपालन और मौसम वगैरह की जानकारी दी जाएगी. पंचायती राज महकमे ने पंचायत प्रतिनिधियों और किसानों को संचार सेवा से जोड़ने का फैसला लिया है. जिला परिषद के सदस्य, पंचायत समितियों के सदस्य और प्रमुख, सभी मुखिया और सरपंच, वार्ड सदस्य और पंच, जिला और प्रखंड पंचायती राज पदाधिकारी, पंचायत सेवक, जनसेवक और बाकी पंचायत कर्मचारी इस सिम का इस्तेमाल कर सकते हैं. इस से वे खेतीबारी, बाजार, सरकारी योजनाओं और मौसम के बारे में पूरी जानकारी रख सकेंगे. इस से पंचायत प्रतिनिधियों को सरकारी दफ्तरों और अफसरों के पास भागदौड़ करने की जरूरत नहीं पड़ेगी.

नालंदा जिले के नूरसराय गांव के किसान कपिलदेव प्रसाद कहते हैं कि बिहार में पंचायत स्तर पर कृषि उत्पादों का डाटा बैंक बनाने की कवायद शुरू की गई है. इस से किसानों को आसानी से पता चल सकेगा कि किस गांव में किस तरह की फसलें लगाई जा सकती हैं, किस गांव की मिट्टी कैसी है, वहां कौन सी फसल लगाना फायदेमंद साबित होगा, मिट्टी का उपचार कैसे किया जाए. इस के अलावा दूसरी कई तरह की जानकारियां भी किसानों को मिल सकेंगी. इस के लिए वेब आधारित एमआईएस सिस्टम की मदद से सभी जानकारियों को इकट्ठा किया जाएगा. इसी तरह से बिहार के दुधारू पशुओं के बारे में ठोस आंकड़े हासिल करने के लिए गायों और भैंसों में इलेक्ट्रोनिक चिप (रेडियो फ्रीक्वेंसी आइडेंटीफिकेशन टैग) लगाने का काम भी चालू किया गया है. पशु और मत्स्य संसाधन विभाग द्वारा डेरी यूनियनों से जुड़े पशुपालकों  को पहले चरण में इस सिस्टम से जोड़ा जा रहा है. पशुओं की सही आबादी पता लगने से उन के रोगों की रोकथाम, टीकाकरण और बीमा योजनाओं की कामयाबी की गारंटी योजना बनाने और उसे अमल में लाने में आसानी होगी. साल 2007 के आंकड़ों के मुताबिक बिहार में 1 करोड़ 24 लाख गायें और 67 लाख भैंसें हैं, लेकिन इस में से ज्यादातर पशुओं का जुड़ाव दूध सोसाइटियों से नहीं है. कृषि रोड मैप के तहत सूबे में दूध उत्पादन को बढ़ाने और इस व्यवसाय में ज्यादा से ज्यादा लोगों को जोड़ने के लिए मवेशियों की संख्या का सही आंकड़ा जुटाना जरूरी है. लिहाजा विभाग की साइट पर मवेशियों का पूरा ब्योरा मुहैया कराया जाएगा.

हर साल धान की खरीद के समय किसानों को परेशानियों से बचाने के लिए भी इंटरनेट की मदद ली जा रही है. बिहार में धान खरीद से ले कर उस के पेमेंट को औनलाइन किया जाएगा. इस के लिए सभी पैक्सों (प्राथिमिकी कृषि साख समिति) को पूरी तरह से कंप्यूटराइज्ड किया जा रहा है. खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री श्याम रजक ने बताया कि धान खरीद को औनलाइन कर देने से गड़बड़ी की गुंजाइश पूरी तरह से खत्म हो जाएगी. सूबे के कुल 8463 पैक्सों को कंप्यूटराइज्ड करने के लिए डीपीआर बनाने की जिम्मेदारी बेलट्रौन को सौंपी गई है. हर प्रखंड में मिट्टी जांच प्रयोगशाला और कंप्यूटर, इंटरनेट, फोन वगैरह सुविधाओं से लैस ई किसान भवन बनाने का काम चल रहा है. इस से किसानों को अपने उत्पादों की नेशनल और इंटरनेशनल कीमतों का पता आसानी से चल सकेगा और अपनी समस्याओं के हल के लिए उन्हें सरकारी दफ्तरों के चक्कर नहीं लगाने पड़ेंगे. साथ ही उन्हें खेती के लिए वैज्ञानिकों की सलाह भी मुफ्त में मिल सकेगी.

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