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कहां गई मेरी संतान

‘‘सभी भोपाली सतर्क रहें, पिछले 24 घंटों में 4 और स्कूली बच्चे गायब हो गए हैं, 2 बच्चे दिल्ली पब्लिक स्कूल से, 1 सैंट जेवियर स्कूल से और 1 लिटिल फ्लावर स्कूल से. कृपया अपने बच्चे का ध्यान रखें.’’ 20 अगस्त को मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में यह मैसेज इस तरह वायरल हुआ कि शायद ही कोई सैलफोन इस से अछूता रहा हो. एक हफ्ते में एक शहर से 5 स्कूली बच्चों के गायब हो जाने से शहर का माहौल बदल गया था. जिन के यहां छोटे बच्चे हैं उन्हें रिश्तेदार, जानपहचान वाले व शुभचिंतक फोन कर के भी हिदायत दे रहे थे कि बच्चों का ध्यान रखना. शहर में बच्चा चोरों का गिरोह सक्रिय है. भोपाल शहर संवेदनहीन नहीं है. यह तो सोशल मीडिया पर गुमशुदा बच्चों की चिंता से जाहिर हुआ, लेकिन बच्चों को ले कर जो दहशत फैल चुकी थी उस का इलाज किसी के पास नहीं था. आलम यह था कि चौराहों, बाजारों, कालोनियों, महल्लों और अपार्टमैंट्स में एक ही चर्चा, गुम होते बच्चे और निशांत का हफ्तेभर बाद भी कोई पता न चलना, थी.

दहशत और अफवाहों में सब से ज्यादा चर्चा में निशांत झोपे रहा. 10 वर्षीय 5वीं कक्षा का यह मासूम 14 अगस्त को सुबह सवा 7 बजे घर से स्कूल जाने के लिए निकला था पर स्कूल से वापस नहीं लौटा था. साकेत नगर इलाके के मकान नंबर बी-9, 133 में 21 अगस्त को मातम पसरा था. निशांत को प्यार से निशु कह कर बुलाने वाले उस के पिता दीपक झोपे बदहवास सी हालत में थे. बात करने पर जैसेतैसे खुद को संभालते हुए उन्होंने कहा, ‘‘अब तो समझ ही नहीं आ रहा कि निशु को कहां जा कर तलाश करूं, जहांजहां मुमकिन था ढूंढ़ लिया. पुलिस को भी अब तक कोई सुराग नहीं मिला है.’’ ये 3 वाक्य बोलने के बाद उन का गला भर आया. इस दिन भोपाल के 40 थानों के प्रभारी सहित कोई 200 पुलिसकर्मी निशांत को तलाश रहे थे. प्रदेशभर के जिलों के थानों में उस की फोटो भेज दी गई थी. यह तो पुलिसप्रशासन स्तर की बात थी लेकिन निशांत को ढूंढ़ने में भोपाल के लोग भी दिनरात एक किए हुए थे. वाट्सऐप, फेसबुक और टैक्स्ट मैसेज के जरिए लाखों लोग निशांत और दूसरे लापता बच्चों की बात कर रहे थे.

मां की ममता

दीपक के घर से सागर पब्लिक स्कूल महज 100 मीटर की दूरी पर है, लिहाजा दोनों बच्चे पैदल जा सकते थे लेकिन इतनी कम दूरी का भी जोखिम निशांत की मां ज्योति नहीं उठाती थी. वह खुद अपनी स्कूटी से दोनों बच्चों को स्कूल के गेट तक छोड़ने जाती थी. दीपक एक प्राइवेट फाइनैंस कंपनी में कलैक्शन एरिया मैनेजर हो कर राजगढ़ में पदस्थ हैं. लिहाजा, उन का अधिकांश समय फील्ड में ही गुजरता था. 14 अगस्त को निशांत जल्द तैयार हो गया था जबकि उत्कर्ष तैयार होने में वक्त ले रहा था इस पर गुस्साया निशांत अकेला ही स्कूल की तरफ चल दिया. ज्योति ने इस हरकत पर ज्यादा गौर नहीं किया. क्योंकि ऐसा पिछले 2 दिनोें से हो रहा था कि निशु पहले पैदल चल देता था और वह उत्कर्ष को स्कूटी से छोड़ने जा रही थी.

उस दिन भी निशांत के जाने के बाद ज्योति ने उत्कर्ष को स्कूटी से स्कूल छोड़ा. दोपहर 2 बजे के लगभग उत्कर्ष तो वक्त पर घर आ गया लेकिन निशांत नहीं आया. थोड़ी देर इंतजार किया लेकिन जैसेजैसे वक्त गुजरने लगा, ज्योति को चिंता होने लगी. वह दौड़ीदौड़ी स्कूल गई और खोजबीन की तो एक टीचर से यह सुन कर धक रह गई कि निशांत तो आज आया ही नहीं, वह तो गैरहाजिर था. दीपक और दूसरे परिचित घर आए और निशांत की खोजबीन शुरू भी कर दी पर किसी ने उसे नहीं देखा था. अब तक कुछ परिचित इकट्ठा हो गए थे जिन की सलाह पर दीपक ने बाग सेवनिया थाने जा कर बच्चे की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाई. एक बड़ी आशंका अपहरण की थी जिस से दोनों की जान हलक में आ रही थी लेकिन अपहरण अगर हुआ भी तो फिरौती के लिए मांग की जानी चाहिए थी. तो फिर क्या हुआ होगा, यह सोच कर ही दीपक और ज्योति के दिल दहल उठते थे. दीपक ने घर का मुखिया होने की जिम्मेदारी निभाते खुद को संभाले रखा और तमाम संभावनाओं पर विचार करते रहे कि क्याक्या हो सकता है. लेकिन एक मां की ममता का तर्कों, अनुमानों व संभावनाओं से नाता टूटने लगा था. ज्योति खाना तो दूर की बात है, पानी भी पीने को तैयार नहीं थी, बस बुत की तरह कातर निगाहों से फोन और दरवाजे की तरफ टकटकी बांधे देखे जा रही थी. आंसू सूख जाते थे तो चुप हो जाती थी, वरना रोने लगती थी.

दुनियाभर की बातें हुईं और सुझाव मिले. अब तक कुछ लोग फिर से थाने के चक्कर लगा आए थे. लेकिन 15 अगस्त होने के चलते कुछ खास हासिल नहीं हुआ. बस, यही जवाब मिला कि हम ढूंढ़ रहे हैं. सभी जगह खबर कर दी है. जैसे ही बच्चा मिलेगा, आप को खबर कर देंगे. ‘किसी से कोई दुश्मनी नहीं, और मेरे पास तो इतना पैसा भी नहीं कि कोई तगड़ी फिरौती की उम्मीद करे’ जैसी ढेरों बातें सोचते दीपक का मन भी अब बुझने लगा था पर आस नहीं छूट रही थी. 17 तारीख के अखबारों में जब निशांत के गुम होने की खबर छपी तो शहर के लोग चिंता में पड़ गए कि अब तो घर भी सुरक्षित नहीं रहा. दिनदहाड़े एक बच्चे का अपहरण या लापता हो गया, वह भी तब जब घर और स्कूल के बीच चंद कदमों का फासला हो. इधर, पुलिस हरकत में आई तो जांच में पता चला कि एक आटो वाले ने और कोने के पास चाय वाले ने भी निशांत को स्कूल की तरफ जाते देखा था. कहां गया निशांत, यह सस्पैंस और सवाल सभी को झकझोर रहा था. यह सस्पैंस आखिरकार 23 अगस्त को टूटा जब नाटकीय तरीके से अपहरणकर्ता निशांत को बाइक से छोड़ गए. पता यह चला कि निशांत को भोपाल से 35 किलोमीटर दूर रायसेन में रखा गया था.

लापता और अफवाहें

‘निशांत आज आएगा, कल तक मिल जाएगा’ जैसी बातों और चर्चाओं के बीच 18 और 19 अगस्त को भोपाल में तरहतरह की बातें होने लगी थीं. इन दिनों में 4 और बच्चे गायब हुए. इन में 4 साल की एक नन्ही बच्ची आंचल विश्वकर्मा भी शामिल थी. आंचल के पिता प्रवेश विश्वकर्मा ने भी थाने में रिपोर्ट लिखाई थी. दूसरी तरफ पुराना नगर में रहने वाले एक ट्रैवल्स संचालक प्रदीप पांडे का 13 वर्षीय बेटा आदित्य गायब हो गया. भोपाल रेलवे स्टेशन के एक नंबर प्लेटफौर्म के बाहर चांदबड़ इलाके के बाल आश्रय गृह से आकाश और चांद कुमार नाम के बच्चे स्कूल जाने के लिए निकले तो वापस नहीं लौटे. इन बच्चों के गुम होने से शहर में हाहाकार मच गया और इतना मचा कि लोगों ने ध्यान ही नहीं दिया कि ये चारों अलगअलग जगहों पर मिल चुके हैं. आंचल अशोका गार्डन इलाके के 80 फुट रोड पर रोती हुई मिली थी. मासूम आंचल ने कहा कि एक अंकल मुझे उठा कर ले गए थे.

इसी दौरान 2 महीने पहले लापता हुए सुलेमान का भी जिक्र आया जो अब तक नहीं मिला था. शाहजहानाबाद इलाके के फुरकान खां का 16 वर्षीय बेटा भी गायब है. उस के घरवाले उसे 2 महीने से देशभर में ढूंढ़ चुके हैं लेकिन कोई कामयाबी हाथ नहीं लगी. बच्चा चोर गिरोह की अफवाहों को आदित्य के पिता प्रदीप पांडेय ने यह कहते शह दी कि आदित्य का अपहरण हुआ था और अपहरणकर्ताओं ने इस बाबत उन्हें फोन भी किया था. प्रदीप ने फोन नंबर भी बताया जिस की लोकेशन भोपाल के ही कोलार इलाके की मिल रही थी. बकौल प्रदीप, आदित्य को किसी बाबा ने प्रसाद खिलाया था जिस से वह बेहोश हो गया था. बोनीफाई स्कूल का छात्र आदित्य हालांकि 19 अगस्त को छत्तीसगढ़ के रायगढ़ शहर में अपने ताऊ के यहां मिल गया. अब तक स्कूलों में भी खासी अफरातफरी मच चुकी थी व सुरक्षा इंतजाम और पुख्ता कर दिए गए थे. किसी भी स्कूल में बगैर जांच किए किसी को दाखिल नहीं होने दिया जा रहा था.

वोट की चिंता बच्चों की नहीं

यदि बिहार की बात करें तो इन दिनों बिहार चुनावी रंग में रंगा हुआ है. तमाम राजनीतिक दल एकदूसरे को नीचा दिखाने में लगे हुए हैं. प्रदेश में बच्चे लापता हो रहे हैं इस की चिंता शायद ही किसी को हो. 1 मई को पटना के इंदिरानगर महल्ले में रहने वाले बिमल कुमार के 9 साल के बेटे ऋषभ का अपहरण और हत्या उस के पड़ोस में रहने वाले युवक बिट्टू ने कर दी. रातोंरात पैसा कमाने की चाह में उस ने ऋषभ का अपहरण कर लिया और फिरौती के रूप में 10 लाख रुपए की मांग की. बच्चे को साथ रखने के खतरे को भांप कर उस ने कुएं में ढकेल कर उस की हत्या कर दी. उस के बाद भी ऋषभ के पिता को फोन कर वह फिरौती की मांग करता रहा. उस के मोबाइल फोन की लोकेशन के आधार पर पुलिस ने उसे दबोच तो लिया पर तब तक मासूम ऋषभ अपने पड़ोसी की कू्ररता का शिकार बन चुका था. पिछले कुछ समय से इस तरह के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं. बच्चों का अपहरण जैसी वारदातें काफी तेजी से बढ़ती जा रही हैं. मासूम बच्चे अपनों और आसपड़ोस के खूंखार लोगों के सौफ्ट टारगेट बने हुए हैं. पुलिस अफसर राकेश दूबे कहते हैं कि अपने आसपास खेलतेकूदते, स्कूल आतेजाते और छोटीमोटी चीज खरीदने महल्ले की दुकानों पर जाने वाले बच्चों को उठाना अपराधियों के लिए काफी आसान होता है. परिवार और पड़ोस के लोगों की आपराधिक सोच और साजिश का पता लगा पाना किसी के लिए भी आसान नहीं है. ऐसे में हरेक मांबाप को अपने बच्चों पर खास ध्यान रखने की जरूरत है.

बिहार के पुलिस आंकड़े बताते हैं कि साल 2014 में गुमशुदा हुए कुल बच्चों की संख्या 515 थी. उन में से 14 बच्चे ही बरामद किए जा सके. इस साल केवल अगस्त महीने में 46 बच्चों के गुम होने की रिपोर्ट राज्य के थानों में दर्ज की गई, जिस में से केवल 8 बच्चों का पुलिस पता लगा सकी. बच्चों की गुमशुदगी के बढ़ते आंकड़ों पर काबू पाने के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय के निर्देश पर देशभर में ‘औपरेशन स्माइल’ शुरू किया गया है. पिछले महीने इस औपरेशन के तहत बिहार में 185 बच्चों को उन के घर पहुंचाया गया. सीआईडी के एडीजी आलोक राज ने बताया कि ‘औपरेशन स्माइल’ के तहत 1 महीने के अंदर 185 बच्चों को बरामद किया गया. पटना से 53, पूर्णियां से 46, किशनगंज से 28, औरंगाबाद से 21, मुजफ्फरपुर और सीतामढ़ी से 8-8, लखीसराय से 7, गया और अरवल से 6-6 तथा बक्सर और बेगुसराय से 1-1 बच्चों को बरामद किया गया. सभी बच्चों की उम्र 10-11 साल की थी और उन में से ज्यादातर रेलवे स्टेशनों पर लावारिस जिंदगी जी रहे थे. अपहरण कर बच्चों के मांबाप से फिरौती वसूलने, बच्चों के किडनी, लिवर, आंख आदि अंगों को बेचने, उन से गुलाम की तरह घर और फार्महाउस में काम करवाने, सीसा, सीमेंट, कालीन जैसे खतरनाक कारखानों में मजदूर के रूप में इस्तेमाल करने आदि के लिए बच्चों को गायब किया जाता रहा है. इस के पीछे अपराधियों का बड़ा नैटवर्क काम करता है.

मगध विश्वविद्यालय के प्रोफैसर अरुण कुमार प्रसाद कहते हैं कि बच्चों के स्कूल, कालेज या कोचिंग जाने पर, खेलनेकूदने पर, मार्केट आदि जाने पर हर समय हर जगह गार्जियन का नजर रखना मुमकिन नहीं है. इंसान का बहुत सारा काम परिवार और आसपड़ोस के पहचान वालों के जरिए ही चलता रहा है. इन सब के पीछे इंसानी भरोसा ही काम करता रहा है. अब कुछेक शैतानी और खूंखार मानसिकता वाले लोगों की वजह से यह भरोसा ही कठघरे में खड़ा हो गया है.

पश्चिम बंगाल का भी यही हाल

बच्चों के लापता होने के मामले में पश्चिम बंगाल भी कम नहीं है. यहां गांवदेहात से अच्छी नौकरी दिलाने का लालच दिखा कर नाबालिग लड़कियों की तस्करी होती है. निठारी कांड में यह प्रमाणित भी हो चुका है. इस कांड के बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने साफतौर पर बच्चों की तस्करी रोकने का दायित्व स्थानीय प्रशासन पर होने की बात कही. इतना ही नहीं, आयोग ने राष्ट्रीय स्तर पर गुमशुदा बच्चों का डीएनए समेत तमाम विवरण का एक डाटाबेस बनाने की भी बात की थी. 2011 में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह ने अपने एक बयान में कहा था कि भारत में हर साल लगभग 60 हजार बच्चे गुम हो जाते हैं. हालांकि इन में से कुछ का पता चल जाता है और वे अपने घरपरिवार में लौट भी आते हैं, लेकिन बड़ी संख्या में गुमशुदा बच्चों का पता नहीं चल पाता है. 2007 के आंकड़े कहते हैं कि हर साल 45 हजार बच्चे गुम हो जाते हैं, जिन में से लगभग 11 हजार बच्चे कभी नहीं मिलते.

‘बचपन बचाओ आंदोलन’ के एक सर्वे के अनुसार, ‘‘भारत में हर घंटे कम से कम 11 बच्चे गुम हो जाते हैं. वहीं, केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन नैशनल क्राइम ब्यूरो का मानना है कि हर 8 मिनट में 1 बच्चा गुम होता है जिन में 55 प्रतिशत लड़कियां होती हैं, जबकि 45 प्रतिशत लड़के होते हैं. 2011 में 90,654 बच्चे गुम हुए, जिन में 55,683 लड़कियां थीं, बाकी लड़के. इस साल 34,406 बच्चों का आज तक पता नहीं चल पाया है.’’ बंगाल पुलिस का मानना है कि गांवदेहात के जो बच्चे गुम हो जाते हैं उन में से कुछ किन्हीं कारणों से अपनी मरजी से या रूठ कर घर छोड़ कर चले जाते हैं या भाग जाते हैं. ऐसे बच्चों को बाल मजदूरी, देहव्यापार में धकेल दिया जाता है.

महाराष्ट्र पुलिस की मुहिम

महाराष्ट्र पुलिस के अनुसार, 2010 से करीब 15 हजार बच्चे आज तक मिसिंग हैं. महाराष्ट्र बाल विकास मंत्रालय ने इस पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए अधिक से अधिक बच्चों को खोज निकालने की बात कही है. पहली जुलाई से ‘औपरेशन मुसकान’ को मुंबई में भी लागू किया गया है ताकि ऐसे लापता बच्चों का पता लग सके. इस के लिए महाराष्ट्र पुलिस ने एक ट्रेनिंग प्रोग्राम का आयोजन भी किया जिस में डाटाबेस के द्वारा ऐसे बच्चों का जल्दी पता चल सके. पुलिस डाटा के अनुसार, लापता बच्चों में लड़कों से लड़कियों की संख्या अधिक रहती है. लड़कों को तो भीख मांगने या फिर काम पर लगा दिया जाता है जबकि लड़कियों को दूसरे शहरों में बेच दिया जाता है.

खुद करें हिफाजत

बच्चों की सुरक्षा की पहली जिम्मेदारी अभिभावकों की ही बनती है पर छोटे होते परिवारों और बढ़ते शहरों ने कई मुश्किलें पैदा कर दी हैं. हालत यह है कि बड़े शहरों के अधिकांश बच्चों को चाचा और मामा में फर्क करना नहीं आता. उन की नजर में सभी अंकल होते हैं. आंकड़े और मामले बताते हैं कि बच्चे स्कूल से बहुत कम गायब होते हैं. दरअसल, रास्ते ही असुरक्षित हो चले हैं और बच्चों को पहले की तरह अपनी सुरक्षा के मामले में प्रशिक्षित नहीं किया जा रहा. 

बच्चों की सुरक्षा के लिए निम्न बातों का रखें ध्यान :

  1. बच्चे को अपना मोबाइल नंबर व घर का पता रटाया जाए.
  2. घर से बस स्टौप तक भी उसे अकेले आनेजाने न दिया जाए.
  3. घर से ज्यादा दूर खेलने के मैदान या जगहों पर न जाने दिया जाए.
  4. भीड़भाड़ वाली जगहों पर बच्चों का ध्यान रखा जाए.
  5. बच्चे को जरूरत से ज्यादा न डांटा जाए. पिटाई तो बिलकुल नहीं की जानी चाहिए. ऐसा करने से नाराज हो कर नासमझ बच्चे घर से भागने जैसा कदम उठा लेते हैं.
  6. स्कूल बस के कंडक्टरों और ड्राइवरों की पूरी जानकारी रखें.
  7. पड़ोसियों से संबंध मधुर रखें ताकि वे आप की गैरमौजूदगी में बच्चे का ध्यान रखें.
  8. बच्चे को पैदल ज्यादा घुमाया जाए जिस से वह घर के आसपास की गलियों व शहर से परिचित हो सके.
  9. नौकरों व झूलाघरों की पूरी जानकारी रखी जाए.
  10. बच्चे को नजदीकी रिश्तेदारों के नाम, पता व फोन नंबर रटाए जाएं.
  11. कहीं गुम जाएं तो तुरंत कैसे खबर करें. यह सिखाया जाए कि नजदीकी थाने में जा कर खबर करें या फिर किसी भी सार्वजनिक स्थान की दुकान पर संपर्क करें. राह चलते लोगों से पूछताछ न करें.
  12. घर में सीसीटीवी कैमरे और सुरक्षा के दूसरे इंतजाम कर सकते हैं.
  13. अगर मांबाप दोनों कामकाजी हैं तो कार्यस्थल से बच्चों से एक नियमित अंतराल से संपर्क रखा जाए.
  14. घर के आसपास निगरानी रखी जाए. सेल्समैन व फेरी वालों को कतई दाखिल न होने दिया जाए. ये संगठित गिरोह का हिस्सा हो सकते हैं जो घात लगा कर वारदात को अंजाम देते हैं.
  15. यह खुशफहमी कतई न पाली जाए कि हमारा बच्चा तो समझदार हो गया है, उस के साथ ऐसा हो ही नहीं सकता. याद रखें, बच्चे आखिरकार बच्चे ही होते हैं.                  

– भारत भूषण श्रीवास्तव के साथ बीरेंद्र, साधना शाह, शैलेंद्र सिंह व सोमा घोष

बिहार चुनावी जंग मुख्य प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के डीएनए को खराब बता कर नीतीश कुमार पर सीधा और बड़ा ही तीखा हमला बोला था और उन्हें सीधी लड़ाई की चुनौती दी थी. पिछले कई सालों से दोनों नेताओं के बीच छिपछिप कर एकदूसरे पर वार करने का हथकंडा अब खुल कर सामने आ चुका है. बिहार विधानसभा चुनाव में प्रदेश भाजपा के तमाम बड़े नेताओं को दरकिनार कर नरेंद्र मोदी खुद नीतीश कुमार के साथ दोदो हाथ कर रहे हैं. किसी राज्य के मुख्यमंत्री बनने के लिए किसी प्रधानमंत्री की ऐसी बेचैनी शायद ही कभी देखने को मिली हो. मोदी बिहार जीतने के लिए साम, दाम, दंड, भेद का इस्तेमाल कर रहे हैं और तिलमिलाए नीतीश अपने धुरविरोधी लालू प्रसाद यादव से हाथ मिला कर मोदी को तगड़ी चुनौती दे रहे हैं. मुख्यमंत्री नीतीश को हराने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने बिहार में ‘मुख्यमंत्री’ का चोला सा पहन लिया है. नीतीश को सब से ज्यादा तिलमिलाने का काम नरेंद्र मोदी ने बिहार को 165 करोड़ रुपए के स्पैशल पैकेज देने का ऐलान कर किया है. नीतीश 6-7 सालों से बिहार को स्पैशल राज्य का दरजा देने की सियासी लड़ाई लड़ रहे हैं. मोदी ने बिहार को स्पैशल राज्य का दरजा तो नहीं दिया, बल्कि अलग से स्पैशल पैकेज देने का ऐलान कर नीतीश की सियासत पर पानी फेरने की कोशिश की है. नीतीश बिहार की जनता के सामने यह रट लगाते रहे हैं कि जब तक बिहार को स्पैशल राज्य का दरजा नहीं मिलेगा तब तक बिहार की तरक्की नहीं हो सकती है.

बिहार की बदहाली के लिए वे केंद्र को जिम्मेदार बता कर बिहार में अपने राजनीतिक रास्ते को आसान बनाते रहे हैं. बदहाली और गरीबी के हर मामले को ले कर नीतीश का यही रटारटाया जवाब होता है कि जब तक केंद्र स्पैशल राज्य का दरजा नहीं देगा तब तक बिहार की तरक्की नहीं हो सकती. नरेंद्र मोदी ने उन की मांग को पूरा नहीं किया, क्योंकि मोदी जानते थे कि अगर उन्होंने स्पैशल राज्य का दरजा दे दिया तो उस का सारा क्रैडिट नीतीश के खाते में चला जाएगा और चुनाव के दौरान नीतीश जनता के बीच घूमघूम कर यही कहते कि उन के ही दबाव में मोदी को स्पैशल राज्य का दरजा देने के लिए झुकना पड़ा. नीतीश फिलहाल मोदी के स्पैशल पैकेज को पैकेजिंग साबित करने में लगे हुए हैं.

बिहार का किया अपमान

मोदी ने जब अतिथि का भोज रद्द करने की बात कह कर नीतीश के डीएनए पर सवालिया निशान लगाया तो नीतीश की बौखलाहट और ज्यादा बढ़ गई. अब वे मोदी को जवाब देने के लिए ‘इंदिरा इज इंडिया’ की तर्ज पर खुद को ही बिहार साबित करने पर तुल गए हैं. नीतीश अपनी हर चुनावी सभा में चिल्लाचिल्ला कर कह रहे हैं कि मोदी ने उन के डीएनए को खराब बता कर पूरे बिहार का अपमान किया है. भाजपा नेता और केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह कहते हैं कि चुनाव में अपनी हार की स्थिति बनती देख नीतीश बौखला गए हैं और खुद को ही बिहार समझने का भ्रम पाल बैठे हैं.

दरअसल, बिहार विधानसभा का यह चुनाव नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार के लिए करो या मरो वाली हालत में है. नीतीश यह साबित करना चाहते हैं कि साल 2005 और 2010 का विधानसभा चुनाव वे भाजपा के भरोसे नहीं जीते थे, बिहार की जनता में उन की गहरी पैठ है. दलित, पिछड़े तो उन्हें पसंद करते ही हैं, शहरी और अगड़ी जातियों के ज्यादातर लोग भी उन के तरक्की के नारे में यकीन करते हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के हाथों करारी हार मिलने के बाद नीतीश जीत के लिए किसी भी तरह का दांवपेंच छोड़ना नहीं चाहते हैं. गौरतलब है पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में नीतीश की पार्टी जदयू को केवल 2 सीटें ही मिलीं, जबकि 2009 के आम चुनाव में जदयू ने 20 सीटों पर कब्जा जमाया था.  यही वजह है कि नीतीश अपने धुरविरोधी नरेंद्र मोदी को उन के ही दांव से उन्हें मात देने में जुटे हैं.

साल 2002 में गुजरात में हुए गोधरा कांड के बाद से नीतीश को लगने लगा कि नरेंद्र मोदी के साथ मंच शेयर करने या उन के साथ फोटो खिंचवाने से उन का मुसलिम वोट छिटक सकता है. नीतीश के करीबी रहे जदयू के एक नेता बताते हैं कि नीतीश कभी मोदी की तारीफ में कसीदे पढ़ा करते थे. मोदी गुजरात की पिछड़ी घांची (धानुक) जाति से और नीतीश बिहार की पिछड़ी कुर्मी जाति से आते हैं. पहली बार जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे तो नीतीश का मानना था मोदी भाजपा को ब्राह्मणवाद के चोले से बाहर निकाल सकते हैं. गोधरा कांड के बाद नीतीश ने मोदी से दूरी बनानी शुरू कर दी थी और 16 मई, 2013 को तो नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर प्रोजैक्ट करने के विरोध में नीतीश ने भाजपा से 17 साल पुराना नाता झटके में तोड़ डाला. विधानसभा के इस चुनाव में नरेंद्र मोदी और उन की पार्टी भाजपा ने पूरी ताकत झोंक दी है. 243 सीटों वाली बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा अकेली 160 सीटों पर चुनाव लड़ रही है और उस के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने 150 सीटों पर जीत का लक्ष्य तय किया है. सरकार बनाने के लिए 123 सीटों की जरूरत होगी. भाजपा की रणनीति यही है कि वह अपने बूते सरकार बना ले, ताकि वह रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा जैसे अति महत्त्वाकांक्षी सहयोगियों को काबू में रख सके. अगर भाजपा अकेले 123 सीटें जीतने में कामयाब नहीं हो पाती है तो उस के सहयोगी बिहार से दिल्ली तक उस की नाक में दम कर के रखेंगे. यही वजह है कि भाजपाइयों को ‘भगवान’ के दरबार में जा कर ज्यादा ही गुहार लगाने की जरूरत पड़ रही है और जनता को पटाने के लिए ज्यादा से ज्यादा चुनावी रैलियां करनी पड़ रही हैं.

साख का सवाल

नरेंद्र मोदी बिहार के चुनाव में 20 सभाओं का आयोजन कर नीतीश और लालू को चुनौती देने में लगे हुए हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले महीने बिहार के गया जिले पहुंचे तो महाबोधि मंदिर जाना नहीं भूले. चुनाव भले बिहार विधानसभा का हो रहा है, लेकिन उस में भाजपा की नहीं बल्कि नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत इज्जत पूरी तरह से दांव पर लगी हुई है. वरिष्ठ पत्रकार वीरेंद्र यादव एक वैबसाइट के जरिए कहते हैं कि भाजपा ने सहयोगियों को दरकिनार कर दिया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सभी घटक दलों के स्टार प्रचारक हैं और सब के लिए वोट मांगना उन का दायित्व है. लेकिन वे सिर्फ भजपा के लिए वोट मांग रहे हैं. भाजपा के चुनावी होर्डिंग्स में अकेले नरेंद्र मोदी छाए हुए हैं. पार्टी अध्यक्ष अमित शाह भी अब साथ नहीं दे रहे हैं. होर्डिंग्स से शाह की तसवीर की भी विदाई दिख रही है. यह भाजपा की रणनीति हो सकती है कि अकेले नरेंद्र मोदी की तसवीर व नाम के भरोसे चुनाव में लालू यादव, नीतीश कुमार व कांगे्रस गठबंधन का मुकाबला किया जाए.

चुनाव में विकास का मुद्दा गौण हो गया है. विकास के दावे बेमानी हो गए हैं. केंद्र व राज्य सरकार के विकास के दावे भी हवाहवाई होते दिख रहे हैं. बस, सब जगह दिख रही है जाति, पार्टी की जाति, उम्मीदवार की जाति, वोटर की जाति. इन्हीं जातियों के जोड़तोड़ के सहारे चुनाव जीतने के गणित गढ़े जा रहे हैं. नरेंद्र मोदी की तसवीर की मार्केटिंग भी ‘जातीय बाजार’ को अनुकूल बनाने की रणनीति है. अब देखना है कि वह कितना असरकारक होती है. नरेंद्र मोदी के बिहार विधानसभा के चुनाव में ज्यादा दिलचस्पी लेने और पसीना बहाने के पीछे जाहिर तौर पर पिछले फरवरी महीने में हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव का नतीजा ही है. दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने भाजपा को मात्र 3 सीटों पर समेट डाला था. उस चुनाव में अपना मुंह बुरी तरह जला चुकी भाजपा बिहार चुनाव में फूंकफूंक कर कदम रख रही है.

दुश्मन बने दोस्त

मोदी को करारी टक्कर देने के लिए लालू, नीतीश और कांगे्रस ने मिल कर कमर कस ली है. बिहार के पिछड़ेपन की दुहाई देने वाले महागठबंधन के नेता यह भूले हुए हैं कि पिछले 67 सालों तक तो बिहार में महागठबंधन में शामिल पार्टियों का ही राज रहा है  पिछले 10 साल तक नीतीश ने राज किया. उस के पहले के 15 साल तक बिहार लालू के हाथों में रहा और उस के पहले के 42 साल तक कांगे्रस का शासन रहा था. बिहार को कई साल पीछे ढकेलने वाले ही अब ‘बढ़ता रहेगा बिहार, फिर एक बार नीतीश कुमार’ का ढोल पीट रहे हैं. वहीं, नेताओं ने तो ऊपरऊपर गठबंधन कर लिया है पर उन की पार्टियों के कार्यकर्ता पसोपेश में हैं कि वे अपने इलाके के किस का और कैसे प्रचार करें. जदयू के नेता और कार्यकर्ता वोटरों को क्या जवाब देंगे कि ‘जंगलराज’ वाले अब उन के दोस्त कैसे बन गए. अब तक एकदूसरे के खिलाफ आग उगलने वाले राजद, जदयू और कांगे्रस के कार्यकर्ताओं के लिए मिलजुल कर चुनाव प्रचार करने में पसीने छूट रहे हैं. जदयू के कार्यकर्ता रमेश महतो कहते हैं कि उन के इलाके में लोग उन की बात नहीं सुनते हैं. उलटे जनता सवाल पूछती है कि लालू का विरोध कर नीतीश कुमार ने सरकार बनाई थी, अब लालू अच्छे कैसे हो गए?

महागठबंधन से दलितों, पिछड़ों और सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वालों का वोट तो एकजुट हो सकता है लेकिन मुलायम सिंह, ओवैसी, पप्पू यादव, तारिक अनवर जैसों के गठबंधन से छिटके नेता महागठबंधन का खेल बिगाड़ कर नरेंद्र मोदी की राह आसान कर सकते हैं. बिहार में 11 फीसदी यादव, 12.5 फीसदी मुसलिम, 3.6 फीसदी कुर्मी, 14.1 फीसदी अनुसूचित जाति और 9.1 फीसदी अनुसूचित जनजाति की आबादी है और गठबंधन के नेताओं को पूरा भरोसा है कि इन का वोट उन्हें ही मिलेगा. गठबंधन के बनने के बाद अब बिहार में उस की सीधी लड़ाई राजग से होनी है. इस से कांटे की लड़ाई के साथ खेल दिलचस्प भी हो गया है. महागठबंधन के पास बिहार को बचाने से ज्यादा नरेंद्र मोदी को रोकने और भाजपा से बचने की छटपटाहट है. पिछले लोकसभा और विधानसभा दोनों ही चुनावों के नतीजों के आंकड़े गठबंधन को मजबूत बता रहे हैं. अगर यह वोट एकजुट रहा तो गठबंधन को कामयाबी मिल सकती है.

इन के गठबंधन को एक झटके में बेअसर करार देना किसी भी माने में समझदारी नहीं कही जाएगी क्योंकि इस गठजोड़ के पास वोट है. आज के हालात में भले ही उन का वोट बिखरा और छिटका हुआ हो पर दोनों ने अपनेअपने वोटबैंक को एकजुट करने में पूरी ताकत झोंक रखी है. इस मसले पर नीतीश और लालू बारबार सफाई दे रहे हैं कि नेताओं और पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच कहीं कोई कन्फ्यूजन नहीं है. प्रमंडल स्तर पर कार्यकर्ताओं से रायविचार करने के बाद ही गठबंधन हुआ है. कहीं कोई भी विवाद या खींचतान के हालात नहीं हैं. भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी कहते हैं कि राजद और जदयू का गठबंधन तेल और पानी को मिलाने की तरह है. लाख कोशिशों के बाद भी तेल और पानी एक नहीं हो सकते हैं. गठबंधन ने लालू को फिर से उठने का मौका दे दिया है जबकि नीतीश के लिए यह सियासी ताबूत की आखिरी कील साबित होगी. सुशील मोदी महागठबंधन की खिल्ली तो उड़ाते हैं लेकिन वे अपने गिरेबान में झांकने की हिम्मत नहीं कर पाते हैं. महागठबंधन ने तो नीतीश को मुख्यमंत्री का चेहरा बना कर चुनावी मैदान में उतारा है, लेकिन मुख्यमंत्री के उम्मीदवार का नाम ऐलान करने में भाजपा कन्नी काटती रह गई और सिरफुटव्वल व फजीहत से बचने के लिए नरेंद्र मोदी को ही मैदान में उतार रखा है. नरेंद्र मोदी के चेहरे ने केंद्र में भाजपा को बड़ी कामयाबी दिलाई है और अब भाजपा बिहार चुनाव में भी उसी आजमाए चेहरे के बूते चुनाव लड़ रही है. प्रधानमंत्री के पद को अलग रख मुख्यमंत्री का चेहरा ओढ़े मोदी के कंधों पर ही भाजपा का बेड़ा पार लगाने की जिम्मेदारी है.

जातिगत भेदभाव में जकड़ी सिनेमाई बिरादरी

कांस फिल्म समारोह में पुरस्कृत की गई हिंदी फिल्म  ‘मसान’ का नायक दीपक चौधरी नीची जाति का है जो अपने खानदानी पेशे को आगे बढ़ाते हुए काशी के बनारस के एक घाट में मुर्दों को जलाने का काम करता है. दीपक कसबे की लड़की शालू गुप्ता की ओर आकर्षित होता है और 1-2 मुलाकातों में ही प्रेमप्रसंग बन जाता है. एक दफा दीपक अपनी मित्रमंडली के बीच अपने प्रेम के किस्से चटकारे ले ले कर सुना रहा होता है, तभी एक मित्र बनारसी लहजे में टोकता है,  ‘‘गुरु, प्यारव्यार तो बहुत हो गया पर लौंडिया अपर कास्ट की है और तुम नीची जाति के. समझ रहे हो न? उस को अपने बारे में बता तो दिए हो न? बाद में दिक्कत हो जाएगी, पहले बताए दे रहे हैं.’’ इतना सुनते ही दीपक का चेहरा मुरझा जाता है और खुद को नीच जाति का स्वीकृत करते हुए वह कहता है कि अबे, अब की बार मिलेंगे तो बता देंगे.

बहरहाल, अगले घटनाक्रम में शालू तीर्थयात्रा से लौटते समय बस दुर्घटना में मर जाती है और दीपक को उस की लाश जलानी पड़ती है. इस तरह तथाकथित ऊंची जाति की लड़की का निम्न जाति के लड़के से फिर से मिलन नहीं हो पाता. याद आता है फिल्म  ‘शोले’ का प्रकरण. इस फिल्म का एक अनोखी और सामाजिक सरोकारी चश्मे से विश्लेषण यह भी है कि नायक जय (अमिताभ बच्चन) पिछड़ी जाति से है और उच्च वर्ण के ठाकुर की विधवा से प्रेम करने लगता है. मामला एकतरफा नहीं है. विधवा की भी इस प्रेम को मूक सहमति है. लेकिन फिल्म के निर्मातानिर्देशक में शायद समाज के जातिगत ढांचे को तोड़ने की न तो हिम्मत थी और न ही नीयत. इसलिए इन्हें मिलाने के बजाय संकीर्ण रास्ता निकाला गया और जय को मरवा दिया जाता है. अलगअलग समाज और समयकाल में रिलीज हुईं फिल्म  ‘मसान’ और  ‘शोले’ के एकजैसे दिखते प्रकरणों में जिस तरह 2 असमान जाति के लोगों को मिलाने के साहसी कदम के बजाय, नाटकीय मौत का दृश्य रचा गया है वह फिल्म इंडस्ट्री की मानसिक संकीर्णता और वहां फैली जातिगत सड़ांध की ओर इशारा करते हैं. वहां भी हिंदू धर्म के ज्यादातर पाखंड, पूजापाठ और अंधविश्वास के साथ जातिगत भेदभाव की भावना पल रही है. हर दौर में फिल्मी बिरादरी का परंपरागत रूढि़वादी तबका दलित और पिछड़े समाज को ले कर नाकभौं सिकोड़ता रहा है.

ऊंची जातियों का दबदबा

सामाजिक सरोकारों को ले कर भारत में ढेरों फिल्में बनीं पर उन में सदियों से प्रचलित वर्ण एवं जाति व्यवस्था का चित्रण नहीं के बराबर हुआ है. सवर्ण हिंदू समाज ने पिछड़ों और दलितों को कभी अपने बराबर का मनुष्य नहीं माना. हिंदी सिनेमा का नजरिया भी दलितों के प्रति कुछ खास भिन्न नहीं है. शायद यही वजह है कि पिछले साल 300 से ज्यादा फिल्में प्रदर्शित हुईं लेकिन पिछड़े व दलित तबके के नायकों की कहानी इक्कादुक्का फिल्मों में थी, बाकी सारी फिल्मों के लीड किरदार सवर्ण, कपूर, शर्मा और चतुर्वेदी बने दिखे. किसी भी नायक का नाम न तो पासवान था, न भागवत और न ही कुशवाहा.

एक अखबार में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक, बीते 2 वर्षों में रिलीज 400 से ज्यादा हिंदी फिल्मों में मात्र 6 फिल्में थीं जिन में शीर्ष भूमिका में पिछड़े वर्ग की जाति के नायक को दिखाया गया. यह भेदभाव सिर्फ परदे तक ही सीमित नहीं है. बौलीवुड में बिरादरी का खेल भी होता है. 2013 की फिल्मों में 4 लीड अभिनेता क्रिश्चियन, 1 जैन, 3 सिख, 5 मुसलिम और बाकी 65 ऊंची जातियों से ताल्लुक रखते थे. ये आंकडे़ फिल्मों में जातिगत भेदभाव को साफ जाहिर करते हैं. देश के अन्य संस्थानों की तरह यहां भी ऊंचे पदों पर उच्च जाति के लोगों का कब्जा है और निम्न व पिछड़े तबके या तो फिल्म स्टूडियो में चपरासी का काम कर रहे हैं या फिर स्टंटमैन व स्पौटबौय की हैसियत से आगे नहीं बढ़ पाते.

हाशिए पर जनक

1913 में जब ल्युमिअर ब्रदर्स ने बाहर से आयातित रीलें भारत में दिखाईं तो इन फिल्मों को ले कर समाज, संस्कृति के ठेकेदार बड़े खिलाफ थे. तब सिनेमा को स्वीकारने के लिए उच्च जाति का कोई नुमाइंदा नहीं आया. इसे वेश्यागीरी  सरीखा काम माना जाता था. ऐसे में दादा साहब फाल्के की हरिश्चंद्र तारामती में तारामती के किरदार के लिए कोई उच्च जाति की अभिनेत्री नहीं मिली. ऐसे समय में सिनेमा की बागडोर दलित, मुसलिम और एंग्लोइंडियन परिवारों के स्त्रीपुरुष कलाकारों ने संभाली. सिनेमा जैसे माध्यम को दलित, पिछड़े तबके ने अपने खूनपसीने से सींचा और इस सिनेमाई पौधे के फल देने लायक होते ही, इस का विरोध करने वालों को इस में अचानक से कलासंस्कृति के नजारे दिखने लगे, और वे इस में घुसपैठ करने लगे. और उस तबके को हाशिए पर खड़ा कर दिया जिस ने इस माध्यम को खड़ा किया था. आज कोई उस अभिनेत्री का नाम  नहीं जानता जिसे मात्र डालडा के विज्ञापन में काम करने के चलते सोसायटी से यह कह कर निकाल दिया गया था कि यहां शरीफ रहते हैं.

कपूर, बजाज और सिंघानिया

फिल्म बजरंगी भाईजान में सलमान के किरदार का नाम पवन चतुर्वेदी है जो एक दृश्य में बाल कलाकार के गोरी होने के चलते उसे उच्च जाति से जोड़ते हुए कहता है कि गोरी है, ब्राह्मण होगी. यह अकेला संवाद हिंदी फिल्मों में जातिगत भेदभाव, संभ्रांत वर्ग की दलितों और पिछड़ों के प्रति नस्लीय विचारधारा को उजागर करने के लिए काफी है. अकसर फिल्मों के नायकों की जाति उच्च वर्ण की होती है. कभी हीरो खुद को आदित्य बजाज बताता है तो कभी राहुल सिंहानिया, कभी सचिन गुप्ता तो कभी मनोहर लाला. जिन के नामों में जाति का उल्लेख नहीं होता उस का चरित्रचित्रण पूरा सवर्ण हिंदू मर्द जैसा ही होता है. कुछ फिल्मों में अगर कोई दलित या पिछड़ा चरित्र होगा भी, तो दलित पात्र हमेशा पीडि़त, शोषित और न्याय की गुहार के लिए दरदर भटकता दिखेगा. उस का कल्याण भी किसी सवर्ण के ही हाथों होता है. शायद इसलिए दक्षिण के एक डौक्यूमैंट्री फिल्मकार ने अपनी फिल्म का टाइटल ‘डोंट बी अवर फादर्स’ रखा. असल जीवन में भी सवर्ण कलाकारों का ही दबदबा है. पिछड़ों के नाम पर सीमा बिस्वास, रघुवीर, राजपाल यादव, राजकुमार यादव व कैलाश खेर जैसे नाम हैं. मुसलिमों में भी खानों का ही दबदबा है. समकालीन हिंदी सिनेमा में किसी बड़े दलित अभिनेताअभिनेत्री का नाम याद नहीं आता.

धर्म, वर्ण और फिल्मशास्त्र

रामायण, महाभारत, संतोषी माता और भारत की पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र समेत भस्मासुर मोहनी, सत्यवान-सावित्री, लंका दहन, द्रौपदी चीरहरण और अन्य धार्मिक ग्रंथ लंबे समय तक फिल्मों के कथानक का स्रोत रहे, जिन का मूलाधार तुर वर्ण व्यवस्था को कायम रखना और उन का महिमा मंडन करना ही रहा है. सिनेमा के जड़ में ही धर्म, वर्ण कथानकों का प्रचार किया गया है. फिल्में चमत्कारों और अंधविश्वासों से भरी होती हैं. उन में दिखाया जाता है कि ब्राह्मण और क्षत्रिय ही सब का उद्धार करेंगे. भगवान ने इन्हें पिछड़ों और दलितों का कल्याण करने के लिए भेजा है. ऐसी फिल्में कमाई भी खूब करती थीं. याद हगा शोले के आसपास रिलीज फिल्म जय संतोषी मां ने रिकौर्ड बिजनैस किया था.

दलितों सा व्यवहार

साल 2011 में रामविलास पासवान अपने बेटे चिराग पासवान की डेब्यू फिल्म  ‘मिले न मिले हम’ का जोरशोर से प्रचार कर रहे थे. प्रैस बुलावे में यह प्रतिनिधि भी गया. जब वहां चिराग के कैरियर को ले कर भविष्य की संभावनाओं पर चर्चा हुई तो कइयों ने दबी जबान में कहा, लिख लो हिंदी फिल्मों में दलित हीरो का चलना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है. 5 साल हो चुके इस बात को और चिराग के बारे में कही गई वह बात सच निकली. गया (बिहार) में महादलित दशरथ मांझी, जिन्होंने सिर्फ अपने दम पर 22 साल एक पहाड़ को तोड़ कर अतरी से वजीरगंज ब्लौक का रास्ता 55 किलोमीटर से घटा कर 15 किलोमीटर कर दिया, पर निर्देशक केतन मेहता ने 4 साल पहले ‘मांझी द माउंटेन मैन’ फिल्म बनाई लेकिन सालों तक भी किसी वितरक ने न खरीद कर इस फिल्म के साथ भी दलितों सा व्यवहार किया. कोई उच्च जाति का निर्माता भला एक महादलित की फिल्म पर पैसे क्यों लगाता. कैलाश खेर को कई बार ऐसे ही कड़े अनुभव हुए. राजकुमार यादव ने तो नाम बदल कर राजकुमार राव कर लिया है. फिल्मों से जुडे़ एक कलाकार बताते हैं, एक बार उन्हें सिर्फ दलित होने के चलते शूटिंग स्थल से किराया दे कर लौटा दिया गया था.

दलित चित्रण का सिनेमा

तमिल फिल्मों में सब से ज्यादा दलित और पिछड़े नायकों को वरीयता दी गई जबकि हिंदी में एक दशक के दरम्यान 750 से ज्यादा कलाकार, जिन्होंने 5 से ज्यादा फिल्में कीं, उच्च हिंदू जाति के थे. 2014 की सभी फिल्मों में मात्र 9 मुसलिम लीड किरदार दिखे. अजय देवगन ने ‘ओमकारा’, ‘लज्जा’, ‘राजनीति’ और ‘आक्रोश’ जैसी फिल्मों में पिछड़ी जाति के किरदार किए हैं. कुछ वाम विचारधारा के निर्मातानिर्देशकों और नई सोच के लोगों ने दलित और दरकिनार विषयों को मुख्य कथानक बनाया. कुछ ऐसी ही फिल्में गौरतलब हैं :

1984 में गौतम घोष निर्देशित फिल्म ‘पार’ दलित व पिछड़ों पर बनी बेहद अहम कृति है. बिहार के ग्रामीण इलाके पर आधारित कहानी कुछ यों है : एक शिक्षक के गांव के दलित को चुनाव में खड़ा करने की कोशिश से दलित चुनाव जीत जाता है. उत्साहित गांव के मजदूर, जमींदार के यहां न्यूनतम मजदूरी पर काम करने से मना कर देते हैं. बौखलाया जमींदार स्कूल मास्टर की हत्या करवा देता है. जवाब में विद्रोही दलित नौरंगिया साथियों के साथ जमींदार के भाई की हत्या करता है. बदले में जमींदार पूरी दलित बस्ती में आग लगवा देता है. किसी तरह नौरंगिया और उस की गर्भवती पत्नी कलकत्ता भाग जाते हैं. लेकिन शहर में अनिश्चितकालीन हड़तालों व रोजगार न मिलने के चलते दोनों गांव लौटने के लिए विवश होते हैं. किराए का पैसा जुटाने के लिए नौरंगिया को एक बेहूदा काम मिलता है, सूअरों के झुंड को नदी पार कराने का. इस काम में उसे रोटी तो मिल जाती है और पैसा भी, पर उस की पत्नी के पेट में पलने वाला उस का बच्चा मर जाता है. दलित जीवन की भयानक त्रासदियों भरी यह फिल्म उच्च बनाम निम्न जाति के संघर्ष को बखूबी बयान करती है. 2015 की नागराज मंजुले निर्देशित मराठी फिल्म ‘फैंड्री’ भी कुछ ऐसी ही है. एक बच्चा जो हर जगह दलित होने के चलते सवर्णों के अत्याचार सहता है, उसे सब फैंड्री बुलाते हैं. यह महाराष्ट्र के एक दलित समुदाय कैकाड़ी द्वारा बोली जाने वाली बोली का शब्द है जिस का अर्थ सूअर होता है. फिल्म में सूअर को छुआछूत के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया गया है. इसी तरह 1973 में प्रदर्शित फिल्म ‘अंकुर’ में सामंती मूल्यों के खिलाफ एक लड़ाई दिखी.

हिंदी फिल्मों में इस तबके की आवाज प्रमुखता से उठाने वाली फिल्मों में ‘अछूत कन्या’ (1936) का नाम प्रमुख है. 1934 में बनी ‘चंडीदास’ फिल्म में अस्पृश्यता और जातिवाद पर गहरी चोट की गई. 1957 में फिल्म ‘अर्पण’ गौतम बुद्ध के शिष्य आनंद और इतिहास प्रसिद्ध भिक्षुणी चांडलिका के प्रेम के इर्दगिर्द बुनी गई. इस में दलित चेतना के संकेत थे. इसी कड़ी में 1959 में बनी फिल्म ‘सुजाता’ दलित विमर्श की बात करती है. 1975 में श्याम बेनेगल ने ‘निशांत’ में जमींदारी व अत्याचारों के प्रति शोषित ग्रामीणों के सामूहिक संघर्ष को प्रतिबिंबित किया. फिल्म में मास्टर साहब यानी गिरीश कर्नाड की पत्नी का जमींदार के बेटे अपहरण करते हैं. लाचार मास्टर गांव को संगठित कर जमींदार को धूल चटाता है. फिल्म ‘मंथन’, जो गुजरात के नैशनल डेरी डैवलपमैंट कौर्पोरेशन के अध्यक्ष वी कुरियन के सहयोग से बनी, में इशारा किया गया कि कैसे जातिवाद और अस्पृश्यता कुछ रचनात्मक करने की राह में रोड़ा बने हैं.

1980 में आई गोविंद निहलानी की ‘आक्रोश’ में आदिवासी विद्रोह की मार्मिक झलक थी. भीखू लहन्या (ओमपुरी) पत्नी की हत्या के जुर्म में कैद है. अपने बचाव में खामोश है. अपने पिता के अंतिम संस्कार के समय जेल से निकला भीखू अपनी बहन की हत्या भी कर देता है ताकि वह समाज की दरिंदगी का शिकार न बने. दलितआदिवासी जीवन के वीभत्स यथार्थ को परदे पर उतारती फिल्म ‘आक्रोश’ में सांकेतिक तौर पर नक्सलवाद की अनुगूंज है. प्रकाश झा ने जातिवादी व्यवस्था को ले कर अपनी हर फिल्म में करारा व्यंग्य कसा है. उन की 1984 में आई ‘दामुल’ में ब्राह्मण और राजपूतों के आपसी वर्चस्व में दलित कैसे पिसते हैं, बखूबी दिखा.

उत्पलेंदु चक्रवर्ती निर्देशित फिल्म ‘देबशिशु’ में धार्मिक शोषण को अलग अंदाज में बयान किया गया. फिल्म एक ऐसे दलित मातापिता के 3 सिर वाले अजीबोगरीब बच्चे की कहानी है जिसे अशुभ और दैवीय आपदा बता कर एक तांत्रिक छीन लेता है. बाद में इस बच्चे को अवतार प्रचारित कर मोटी कमाई करता है. जगमोहन मुंद्रा की फिल्म ‘बवंडर’ और ‘बैंडिट क्वीन’ में भी दलित शोषण की तसवीरें नजर आईं. इसी तरह ‘सुष्मन’, ‘महायात्रा’, ‘बंटवारा’, ‘भीम गर्जना’, ‘धारावी’, ‘दीक्षा’, ‘टारगेट’, ‘समर’, ‘डा. बाबासाहेब अंबेडकर’, ‘लगान’, ‘एकलव्य : द रौयल गार्ड’, ‘धर्म’, ‘चक्रव्यूह’, ‘आरक्षण’, ‘अछूत’, ‘बूटपौलिश’ और ‘सद्गति’ जैसी फिल्में जातिगत व्यवस्था में जकड़े समाज की पीड़ा प्रदर्शित करती हैं. हालांकि सिनेमा के माध्यम से इन कथानकों को ले कर जिस तल्खी और शिद्दत से आवाज उठाने की दरकार है वह नहीं दिखती. लिहाजा, सिनेमा में जातिवादी भेदभाव आज भी कायम है.

कब बदलेगी मानसिकता

जाति भारतीय समाज की एक कटु सचाई है. आजादी और संवैधानिक हक मिलने के बावजूद जातिप्रथा पूरी तरह खत्म नहीं हुई. फिल्में अपने समय और समाज का आईना होती हैं. लेकिन समाज और साहित्य में जो भेदभाव दलितों के साथ होता आया है वही सिलसिला फिल्मों में क्यों जारी है, यह बात खटकती है. बहरहाल, जितना दोषी शोषक होता है उतना ही शोषित भी. कई मानों में दलित व पिछड़े वर्ग खुद इस हालत के जिम्मेदार हैं क्योंकि यही धर्म के नाम पर पंडितों से कर्मकांड करवाते हैं, उन के चरण धो कर पीते हैं, देवीदेवताओं से चमत्कार की उम्मीद पालते हैं और अपनी दुर्दशा को भगवान और नियति का फैसला मानते हैं. फिर उन का शोषण होता है तो उन्हें खुद ही आवाज उठानी चाहिए. अगर फिल्म बिरादरी इन के साथ जातिगत भेदभाव करती है तो, ‘अंकुश’, ‘अंकुर’, ‘निशांत’ और ‘शूद्र’ जैसी फिल्मों के समाधान इन्हें भी अपनाने होंगे. महादलित मांझी पर आधारित फिल्म का यह संवाद समझने के लिए काफी है कि भगवान के भरोसे मत बैठिए, हो सकता है भगवान हमारे भरोसे बैठा हो.

यह भी खूब रही

मैं मायके गई हुई थी. रविवार का दिन था. पापा सुबह के समय किसी घरेलू काम में व्यस्त थे. तभी किसी मेहमान ने दरवाजे की घंटी बजाई और आवाज दी, दिवाकरजी हैं क्या? मैं ने कहा, आप अंदर आइए, बैठिए, पापाजी अभी आ रहे हैं. पापा को मैं ने अंदर जा कर बताया. उन्होंने कहा, ‘‘तुम उसे चायनाश्ता दो, मैं बस आ रहा हूं.’’ पापा आए तो वह आदमी कहने लगा, ‘‘सर, नमस्ते, आप ने मेरा बहुत बड़ा काम किया है. मैं आप का एहसान कभी नहीं भूल सकता.’’

पापाजी कहने लगे, ‘‘मैं ने तो आप को पहचाना ही नहीं. अपना नाम तो बताइए.’’ उन्होंने नाम और काम बताया. तब पापाजी को समझने में देर न लगी कि उस आदमी को कहीं और जाना था. कालोनी में एक जैन परिवार रहता था, उन का सरनेम दिवाकर था, वहां उस आदमी को जाना था. मेरे पापा का पहला नाम दिवाकर है. इसलिए सारी कन्फ्यूजन हुई. बात समझते ही हम सभी हंसहंस कर लोटपोट हो गए.

अल्पिता घोंगे, भोपाल (म.प्र.)

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दफ्तर में बड़े बाबू के सेवानिवृत्त होने का आयोजन चल रहा था. सभी कर्मचारी अपनीअपनी तरह से बड़े बाबू का सम्मान कर रहे थे. अब बारी आई घोष बाबू की. वे हाथों में फूलमाला ले कर बड़े बाबू के पास आए और बोले, ‘‘बड़े बाबू, आप बहुत अच्छे हैं, मैं आप को हमेशा याद रखूंगा. मैं आप को श्रद्धांजलि देता हूं.’’ और फूलमाला उन के गले में डाल दी. बंगाली होने के कारण हिंदी शब्दों का हेरफेर हो गया. लोग मुंह दबा कर मुसकराने लगे.

महेश चंद्र भटनागर, कल्याण (महा.)

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मैं अपनी 6 और 8 साल की बेटियों के साथ पीहर आई थी. पीहर में भाभी के 2 बच्चे, एक 5 साल का बेटा और एक 7 साल की बेटी, थे. सब मिल खूब खेलते, शैतानी भी करते. एक दिन मुझे तथा भाभी को बाजार जाना पड़ा. बच्चों को घर पर बाबूजी के पास छोड़ गए. जातेजाते अपना मेकअप का सामान अलमारी के ऊपर रख गए क्योंकि लड़कियां शृंगार करने की बहुत शौकीन हैं. पर हुआ यह कि जब हम लौट कर आए तो देखा, बच्चे भरपूर शृंगार किए हुए थे. बाबूजी से पूछा कि यह सामान इन के हाथ कैसे लगा? उत्तर मिला बारबार कूदकूद कर सामान उतारने की कोशिश कर रहे थे, धमाचौकड़ी मचा रहे थे. परेशान हो कर मैं ने ही सामान उतार दिया. अब बाबूजी से क्या कहते. इतनी महंगी चीजों का सत्यानाश हो चुका था. बस, सिर पकड़ कर बैठ गए.

आशा भटनागर, कल्याण (महा.)

क्या अब पाकिस्तान नचा पाएगा तालिबान को

दुनिया भर में क्रूरता, कट्टरपन और कठमुल्लेपन का पर्याय बन चुके  तालिबान का संस्थापक और एकछत्र नेता मुल्ला उमर अपने जीवनकाल में रहस्य में लिपटी पहेली सी रहे. उस की मौत और भी ज्यादा रहस्यमय रही. कुछ दिनों पहले यह खबर आई कि 2 साल पहले पाकिस्तान में उस की मौत हो गई. अब ये सवाल उठने लगे हैं कि 2 सालों तक कौन मुल्ला उमर की जगह तालिबान का नेतृत्व करता रहा, कौन अफगानिस्तान की सरकार के खिलाफ युद्ध का संचालन करता रहा, मुल्ला उमर का काल्पनिक तौर पर जिंदा रहना किस के हितों की रक्षा करता रहा? बहुत से अंतर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षक यह मानते हैं कि मुल्ला उमर के 2 साल तक जीवित होने का भ्रम बनाए रख कर पाकिस्तान नए तालिबान प्रमुख मंसूर के माध्यम से अफगानिस्तान में आतंक का तांडव कर अफगानिस्तान सरकार पर अपना वर्चस्व कायम करता रहा. गौरतलब यह है कि पाकिस्तान अफगानिस्तान  की वर्तमान सरकार का बहुत नजदीकी है और वहां आतंक फैलाने वाले व कभी सत्तारूढ़ रहे तालिबान का भी. लेकिन वह 2 साल तक ‘चोर से कहे चोरी करो हवलदार से कहे जागते रहो’ का खेल खेलता रहा. अंतर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षक मानते हैं कि मुल्ला उमर व तालिबान और कुछ नहीं, पाकिस्तान के हाथों के खिलौने रहे हैं. यह बात अब सच भी लगती है क्योंकि पाकिस्तान अब अफगानिस्तान में शांति कायम करना चाहता है, इसलिए उस ने मुल्ला उमर को क्या दिया. अब उसे इस भ्रम को ढोने की आवश्यकता नहीं रह गई कि एक आंख वाला तालिबान का नेता मुल्ला उमर अभी जीवित है. पाकिस्तान के लिए मुल्ला उमर की उपयोगिता खत्म हो गई थी. बहरहाल, मुल्ला उमर के बाद नेता के सवाल ने संगठन में खेमेबंदी के हालात पैदा कर दिए हैं.

पाकिस्तान की साजिश

तालिबान प्रमुख मुल्ला उमर के मारे जाने के बाद उस के बेटे मुल्ला याकूब की भी मौत हो गई है. वर्चस्व की लड़ाई के चलते मुल्ला उमर के बाद संगठन के सरगना बने मुल्ला अख्तर मोहम्मद मंसूर ने मुल्ला याकूब की हत्या करवा दी है. अफगानिस्तान के सांसद जाहिर कादिर के कथनानुसार मुल्ला याकूब अपने पिता की मौत के बाद तालिबान पर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता था. लेकिन रहस्यमयी तरीके से सरगना अख्तर मंसूर ने उस का कत्ल करवा दिया. पाकिस्तानी साजिश सामने आ गई है. पाकिस्तान ने एक साजिश के तहत अपने खास तालिबान कमांडर मुल्ला मोहम्मद मंसूर को तालिबान के अंदर मजबूत किया. मुल्ला मंसूर अब तालिबान चीफ हो गया. वहीं अभी तक अफगानिस्तान-तालिबान शांतिवार्त्ता में की जा रही पाकिस्तानी साजिश भी सामने आ गई है. पाकिस्तान ने पूरे तालिबान को हाईजैक कर इस शांतिवार्त्ता को शुरू करवाया जिस से कई महत्त्वपूर्ण तालिबान कमांडर सहमत नहीं थे. यहां तक कि मुल्ला उमर के कई करीबी कमांडर और रिश्तेदार अफगान शांतिवार्त्ता का विरोध कर रहे थे.

तालिबान में विभाजन

अफगान तालिबान में विभाजन की खबर पहले से आ रही थी. तालिबान के 3 गुट पहले से ही काम कर रहे हैं. विभाजन स्पष्ट रूप से तब दिखा जब पाकिस्तान प्रायोजित शांतिवार्त्ता शुरू हुई. इस का विरोध कतर स्थित तालिबान पौलिटिकल कमीशन ने लगातार किया. खुद तालिबान के प्रवक्ता ने साफ  कहा कि तालिबान और अफगान पीस काउंसिल की वार्त्ता से वह सहमत नहीं है. शांतिवार्त्ता को ले कर तालिबान के विभाजन को खत्म करने के लिए इसलामाबाद के अंदर तालिबान के 2 विरोधी कमांडरों की बैठक आईएसआई ने कुछ महीने पहले करवाई थी. बैठक में मुल्ला मंसूर और मुल्ला जाकिर शामिल हुए थे. जाकिर पाकिस्तान प्रायोजित वार्त्ता का विरोध कर रहा था. जाकिर और मंसूर का आपस में पुराना विरोध है. जाकिर मंसूर के बढ़ते प्रभाव और तालिबान को पूरी तरह से पाकिस्तानी कब्जे में ले जाने की साजिश से नाराज था. अब खबर आई है कि मंसूर ने बीते दिनों क्वेटा में जब तालिबान कमांडरों की बैठक बुलाई तो मुल्ला जाकिर और मुल्ला उमर का बेटा याकूब और भाई अब्दुल मन्नान ने बैठक का बायकाट किया. विभाजित तालिबान का एक गुट, जिस में उमर का बेटा, मुल्ला जाकिर आदि शामिल हैं, ईरान के संपर्क में थे. ईरान नहीं चाहता कि अफगानिस्तान पूरी तरह से पाकिस्तानी नियंत्रित तालिबान के प्रभाव में आए. इस में एक तात्कालिक कारण भी है. हक्कानी नैटवर्क का सिराजुद्दीन हक्कानी तालिबान का डिप्टी चीफ  हो गया है जो सऊदी अरब के इशारे पर भी नाचता है. वर्ष 1980 से ही जलालुद्दीन हक्कानी और उस के लड़ाके सऊदी अरब के नजदीक रहे हैं, जब उन्होंने सोवियत संघ के खिलाफ अफगानिस्तान में लड़ाई शुरू की थी. सऊदी अरब के समर्थित लड़ाकों को ईरान पसंद नहीं करता है.

अफगानिस्तान में पाक का खेल

पाकिस्तान ने बीते 1 साल में भारत को अफगानिस्तान से बाहर करने के लिए कई साजिशें रचीं. पाकिस्तान को बस हामिद करजई की विदाई का इंतजार था. बाकी पाकिस्तान ने सारा प्लौट तैयार कर रखा था. अशरफ गनी के राष्ट्रपति बनते ही पाकिस्तान ने खेल शुरू कर दिया. तालिबान के हक्कानी नैटवर्क को आईएसआई ने मुल्ला मंसूर के नजदीक कर दिया. आईएसआई के इशारे पर ही अब हक्कानी नैटवर्क के जलालुद्दीन हक्कानी के बेटे सिराजुद्दीन को तालिबान का डिप्टी चीफ  बनाया गया है. इन फैसलों ने साबित किया कि तालिबान का स्वतंत्र चरित्र खत्म करने की साजिश हो रही है. पाकिस्तानी सेना पूरी तरह से तालिबान को नियंत्रण में लेने की कोशिश कर रही है. लेकिन पाकिस्तान यह भूल गया कि तालिबान बेशक सुन्नी इसलाम की बात करता है, लेकिन मूलरूप से यह पश्तूनों का संगठन है, जिन के मूल में पाकिस्तान विरोध है. ये पाकिस्तान-अफगानिस्तान के विभाजक सीमारेखा डूरंड लाइन को आज भी स्वीकार नहीं करते और पाकिस्तान के हिस्से वाले खैबर पख्तूनख्वा राज्य पर अपना दावा करते हैं. इसलिए तालिबान का विभाजन तय है. तालिबान के दोनों गुटों का टकराव निकट भविष्य में दिखेगा. मुल्ला उमर के खास कमांडर अभी भी मंसूर का विरोध कर रहे हैं. अफगानिस्तान के मामले में पाकिस्तान के दोनों हाथों में लड्डू हैं. उसे विश्वास है कि अमेरिका और पश्चिमी देशों के अफगानिस्तान छोड़ने के बाद तालिबान एक बार फिर अफगानिस्तान की सत्ता हासिल करने में कामयाब होगा. आतंकवाद के मुद्दे पर दोहरे खेल खेलने के लिए बदनाम पाकिस्तान अफगानिस्तान में भी दोहरे खेल खेल रहा है. एक तरफ अशरफ गनी की चुनी हुई सरकार का समर्थन कर रहा है तो दूसरी तरफ तालिबान को पाकिस्तानी सेना नैतिक और सैनिक समर्थन दे रही है और तालिबान से उस के नजदीकी रिश्ते हैं. पाकिस्तान जानता है कि हर हालत में लाभ उसी को है. इस कारण अफगानिस्तान पर आतंकवादी, कट्टरपंथी, तालिबान की सत्ता में वापसी का खतरा मंडराने लगा है.

धोखे में अफगानी राष्ट्रपति

अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी खुद भी इस हकीकत से भलीभांति वाकिफ हैं, इसलिए वे पहले पाकिस्तान गए ताकि तालिबान को किसी तरह शांतिसुलह के लिए मनाया जा सके. यहां तक कि गनी ने पाक सैन्य जनरलों की खुशामद में रावलपिंडी स्थित पाक सेना के मुख्यालय जा कर प्रोटोकौल भी तोड़ा. हालांकि, जिस तरह तालिबान के हमले लगातार उग्र होते जा रहे हैं, उस से साफ है कि पाकिस्तान अफगानिस्तान की नई सरकार को धोखे में रख रहा है. नए तालिबान को अंतर्राष्ट्रीय विश्लेषक-मेड इन पाकिस्तान–तालिबान कहते हैं और भारत के लिए इसे पुराने तालिबान से ज्यादा खतरनाक मानते हैं. तालिबान के नए सुप्रीमो अख्तर मंसूर न केवल पाकिस्तान के लिए काम करते रहे, बल्कि कंधार विमान अपहरण के दौरान उस ने रिहा किए गए अजहर मसूद को रिसीव किया था. तालिबान का नया उपनेता सिराजुद्दीन हक्कानी, 2008 के काबुल के भारतीय दूतावास पर हुई बमबारी के लिए जाना जाता है जिस में 58 लोग मारे गए थे.

वैसे पाकिस्तान के लिए यह कोई नया काम नहीं है. वह हमेशा ही विभिन्न उग्रवादी संगठनों को मैनेज करता रहा है. लेकिन सवाल यह है कि क्या तालिबान शांतिवार्त्ता के मौजूदा स्वरूप को स्वीकार करेगा जिस में चीन और अमेरिका दोनों शामिल हों.

भारत के लिए खतरा तालिबान

नया मेड इन पाकिस्तान तालिबान भारत के लिए नुकसानदेह ही होगा क्योंकि भारत हमेशा उस के निशाने पर होगा. भारत में अगर कोई अभी तक ऐसा सोचता भी होगा कि तालिबान तक पहुंच बनाई जा सकती है तो उसे अब अपना इरादा छोड़ना होगा क्योंकि नए तालिबानी नेतृत्व पर पाकिस्तान की आईएसआई का कड़ा शिकंजा होगा. वहीं, आईएस तालिबान के लिए बहुत बड़ा खतरा बनता जा रहा है. पिछले काफी समय से वह अफगानिस्तान में अपने पांव पसारने की कोशिश कर रहा है. उसे कुछ क्षेत्रों में सफलता भी मिली है. इस कारण से दोनों संगठनों में अफगानिस्तान में कई जगह संघर्ष भी हो चुके हैं. तालिबान के सामने सब से बड़ी चुनौती यह है कि वह कितनी जल्दी गनी की सरकार को अपदस्थ करता है. यदि इस में देर लगी तो आईएस को अफगानिस्तान में पांव जमाने का मौका मिल जाएगा. हो सकता है तालिबान को एक गृहयुद्ध आईएस के साथ लड़ना पड़े. तालिबान जानता है कि आईएस की तुलना में अमेरिका उसे ही पसंद करेगा.

फिर आ रहा है पोस्टकार्ड का जमाना

पोस्टकार्ड के जरिए चिट्ठी भेजने का प्रचलन आज की पीढ़ी के लिए दादादादी द्वारा सुनाई जाने वाली एक रोचक कहानी हो सकती है लेकिन उन से यदि यह कहा जाए कि पोस्टकार्ड का प्रचलन फिर से शुरू हो रहा है तो उन्हें शायद विश्वास नहीं होगा. यकीन मानिए सरकार फिर से पोस्टकार्ड द्वारा चिट्ठी भेजने की व्यवस्था लागू कर रही है, लेकिन नए अवतार के साथ. भारतीय डाक विभाग पोस्टकार्ड जैसी साधारण चिट्ठी को ई-मेल के जरिए प्रचलन में लाने की संभावना पर काम कर रहा है. यह कार्य एक संसदीय समिति के प्रस्ताव के आधार पर किया जा रहा है. समिति ने कहा था कि डाक विभाग पोस्टकार्ड जैसी साधारण डाक को आधुनिक तकनीक के जरिए नए तौर पर पेश कर सकता है. इस व्यवस्था के तहत पोस्टकार्ड को जहां से भेजा जाएगा, वहां स्कैन कर के उस के पावक के पते पर ई-मेल से भेजा जाना है. जैसे ही स्कैन पोस्टकार्ड उस के गंतव्य वाले आखिरी पोस्ट औफिस में पहुंचेगा, वहां स्कैन का प्रिंट निकाला जाएगा और पावक के पते पर उसे भेज दिया जाएगा. इस से कागज की ढुलाई, डाक ले जाने में बीच में होने वाली सारी कसरत और समय की बरबादी से बचा जा सकेगा.

डाक विभाग को यह सुझाव अच्छा लगा है और उस ने इस सुझाव को लागू करने की संभावना तलाशने पर काम शुरू कर दिया है. इस के लिए उसे सब से पहले अपने डाकघरों का कंप्यूटरीकरण करना होगा और देशभर में फैले डेढ़ लाख से अधिक पोस्ट औफिसों के कंप्यूटरीकरण के लिए अभियान चलाना होगा.हर गांव में डाकघर हो सकता है लेकिन बिजली की लाइन हर गांव में नहीं है. कंप्यूटरीकरण के लिए पहले गांव का विद्युतीकरण किया जाना जरूरी है. सरकार यदि यह योजना लागू करती है तो इसी बहाने हर गांव रोशन हो सकेगा.

अल्ट्रा मेगा पावर प्रोजैक्ट के लिए भूमि अधिग्रहण

सरकार देश के 3 राज्यों-तमिलनाडु, ओडिशा तथा बिहार में एकएक अल्ट्रा मेगा पावर प्रोजैक्ट (यूएमपीपी) स्थापित कर रही है. इन परियोजनाओं की स्थापना से बिजली संकट को कम किया जा सकेगा. बिहार में यह परियोजना बांका में स्थापित की जानी है. नए यूएमपीपी के तहत सब से ज्यादा फायदा किसानों को होगा. बिजली परियोजना के लिए किसान की जमीन को नए भूमि अधिग्रहण कानून के तहत लिया जाएगा. बिजली विभाग इस योजना के तहत भूमि अधिग्रहण के लिए पहले की तुलना में 50 फीसदी अधिक का भुगतान करेगा. इस तरह परियोजना की लागत में स्वाभाविक रूप से बढ़ोतरी होगी. अब तक इन परियोजनाओं को पूरा करने की लागत 20 हजार करोड़ रुपए के आसपास थी लेकिन नए कानून के तहत यह परियोजना 50 फीसदी महंगी हो जाएगी और उस की अनुमानित लागत 30 हजार करोड़ रुपए से अधिक हो जाएगी. निश्चित रूप से इस का नुकसान बिजली उपभोक्ताओं को उठाना होगा और उन्हें महंगी बिजली खरीदनी पड़ेगी. बिजली विभाग बिजली की लाइन खींचने के लिए बिजली के पोल लगाने के वास्ते इस्तेमाल जमीन के लिए 1893 के पोस्ट ऐंड टैलीग्राफ कानून के तहत जमीन का मुआवजा देता है, जिस की वजह से बिजली की लाइन खींचने में भारी दिक्कत होती है.

इस कानून के तहत सिर्फ फसल का मुआवजा दिया जाता है. मेगा पावर परियोजना के लिए अब तक पुराने कानून के तहत भूमि अधिग्रहण होता था लेकिन अब परियोजनाओं में भूमि अधिग्रहण नए कानून के दायरे में किया जाएगा. यह उचित है और इस का सीधा फायदा किसान को मिलेगा.

जनकल्याण के लिए आवंटित पैसा खर्च होना जरूरी

हमारे यहां जनप्रतिनिधियों और सरकारी विभागों को लगता है कि विकास कार्य खत्म हो चुके हैं, लोगों के लिए सुविधाएं जुटाने की जरूरत और ढांचागत विकास आवश्यक नहीं है. यह स्थिति दुविधा वाली है. कारण, विकास कार्य तो हुआ ही नहीं है, इसलिए खत्म होने की बात निराधार है. विकास के कार्य करें अथवा नहीं, या चुनावी वर्ष में ही देख लेंगे, इस तरह की अवधारणा ही हो सकती है जो हमारे सरकारी विभागों और जनप्रतिनिधियों को विकास के लिए आवंटित धन को इस्तेमाल करने से रोकती है. सरकार पैसा इसलिए देती है कि देश के हर हिस्से में लोगों को बुनियादी सुविधाएं दी जाएं, जनप्रतिनिधि और समाज कल्याण विभाग देश के हर हिस्से में विकास सुनिश्चित करें और विकास के लिए आवंटित पैसे का इस्तेमाल हो. आश्चर्य की बात है कि जिन्हें विकास की जिम्मेदारी सौंपी गई है वे सब उदासीन हो कर बैठे हैं. सांसद, विधायक लोक कल्याण के लिए आवंटित पैसे का इस्तेमाल नहीं करते हैं. अगर वे कुछ पैसों का इस्तेमाल करते हैं तो अपने लोगों के हितों को ध्यान में रख कर ही करते हैं. सरकारी विभागों का भी यही हाल है. सभी मंत्रालयों और विभागों को बजट में आवंटित राशि का इस्तेमाल करने का सरकारी फरमान हाल में इसीलिए जारी हुआ है. हालत यह है कि सरकार के विभिन्न मंत्रालयों ने इस वर्ष अप्रैल से जुलाई की तिमाही में आवंटित बजट का सामाजिक व ढांचागत विकास कार्य के लिए सिर्फ 34 प्रतिशत ही इस्तेमाल किया है.

बैंकमित्रों के सहारे जनधन योजना

प्रधानमंत्री जनधन योजना का लाभ दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों में पहुंचाने की सरकार की योजना जमीनी स्तर पर क्रियान्वित होती नजर आ रही है. इस के लिए सरकार ने करीब सवा लाख बैंकमित्र यानी बिजनैस करैसपौंडेंट एजेंट (बीसीए) नियुक्त कर दिए हैं. इन बैंकमित्रों की नियुक्ति का उद्देश्य जनधन योजना का लाभ उन क्षेत्रों के ग्रामीणों तक पहुंचाना है जहां बैंक की शाखाएं नहीं हैं और एटीएम मशीन लगाने की संभावना नगण्य है. वित्त मंत्रालय ने बैंकमित्रों के कार्य को संतोषजनक बताते हुए खुलासा किया है कि करीब 80 हजार बैंकमित्रों ने 9 सितंबर को समाप्त हुए सप्ताह के दौरान करीब सवा करोड़ रुपए का लेनदेन किया है. इसी तरह से जून में समाप्त तिमाही के दौरान इन क्षेत्रों से 678 करोड़ रुपए का लेनदेन हुआ जिस में 532 करोड़ रुपए का नकदी के रूप में लेनदेन हुआ है. मंत्रालय ने कहा कि धीरेधीरे बैंकमित्रों की सक्रियता बढ़ रही है और उन के जरिए पैसे का बड़े स्तर पर लेनदेन हो रहा है. साथ ही, बैंकमित्रों की गतिविधियों पर वीडियो कौन्फ्रैंस के जरिए कड़ी निगाह भी रखी जा रही है. अभावग्रस्त ग्राम स्तर तक मित्रों के जरिए बैंक की सुविधा पहुंचाने की यह पहल बहुत अच्छी है और इस से जनधन योजना को फायदा होगा लेकिन सब से बड़ी चुनौती ग्रामीणों के विश्वास को जीतने की है. बैंकमित्र पर उन का भरोसा बना रहे, इस के लिए बैंकमित्रों को और अधिक सक्रिय बनाने के साथ ही उन को भरोसे का प्रतीक बनाना होगा. इस काम में जरा भी चूक हुई तो भोलेभाले ग्रामीणों का विश्वास फिर से अर्जित करना बड़ी चुनौती बन जाएगी. देश के दूरदराज के क्षेत्रों में बसे गांव के आदमी तक बैंक की सुविधा पहुंचाने के सरकार के लक्ष्य का स्वागत किया जाना चाहिए, लेकिन आसपास बसे कुछ गांवों के बीच बैंक की शाखा खोलने की संभावना तलाशना ज्यादा बेहतर होगा. बैंकों को बैंकमित्र की जगह शाखा स्थापना पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है.

यात्री सुरक्षा के लिए ओला की पहल

टैक्सी सेवा प्रदाता कंपनियां पिछले दिनों राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली तथा आसपास के क्षेत्रों में टैक्सी ड्राइवरों की आपराधिक वारदात के कारण चर्चा में रही हैं. दिल्ली के लोगों के लिए, खासकर महिला सुरक्षा के लिए टैक्सियों का सफर खतरनाक सेवा के रूप में सामने आया था. टैक्सियों में छेड़छाड़ की घटनाओं के बढ़ने से टैक्सी महिलाओं के लिए अत्यधिक असुरक्षित सेवा मानी जाने लगी थी लेकिन ओला जैसी कंपनियों ने अपनी सेवाओं में तरहतरह के तकनीकी सुधार कर के ग्राहकों का भरोसा जीतने का प्रयास किया था. इस क्रम में टैक्सी सेवा प्रदाता ओला ने 2 करोड़ डौलर खर्च कर टैक्सी सेवा में सुरक्षा व्यवस्था को बढ़ाने का फैसला किया.

इस निधि का इस्तेमाल ओला टैक्सी द्वारा यात्रियों की सुरक्षा के उपाय पर खर्च किया जाएगा. यात्री सुरक्षा के लिए ओला टैक्सी के ड्राइवर के मोबाइल पर सब से पहले ऐसा मास्क लगाया जाएगा कि टैक्सी ड्राइवर ग्राहक से बात तो कर सकेगा लेकिन उसे ग्राहक का मोबाइल नंबर नहीं दिखाई देगा. उस से अपराधी अथवा शातिर ड्राइवर मोबाइल नंबर का इस्तेमाल आपराधिक वारदात के लिए नहीं कर सकेगा और न ही वह ऐसी प्रकृति के किसी अपराधी को ग्राहक का मोबाइल नंबर दे सकेगा. कंपनी का कहना है कि इस से ग्राहक की निजता की सुरक्षा के संरक्षण के साथ ही ड्राइवर पर बराबर नजर भी रखी जा सकेगी. ड्राइवर की बातचीत और उस के व्यवहार पर ओला प्रशासन की नजर होगी और साथ ही, ड्राइवर की मोबाइल कौल पर खर्च होने वाले पैसे को भी बचाया जा सकेगा. कंपनी का कहना है कि उसे अगले वर्ष मार्च तक टैक्सी सेवा में सुधार के लिए 2 करोड़ डौलर यानी करीब 135 करोड़ रुपए खर्च करने हैं.

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