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Depression: डिप्रेशन के होते हैं कई प्रकार, जानें इनके लक्षण और इलाज

Depression:रेनू की शादी 20 साल की उम्र में हो गई थी. रेनू एक संपन्न परिवार से थी. शादी के बाद ससुराल से जिस तरह से उस पर जिम्मेदारियों का बोझ आया, वह परेशान रहने लगी. सही तरह से अपने पति के साथ सैक्स संबंधों को भी निभा नहीं पा रही थी.

रेनू को यही लगा रहता कि उस का जीवन खत्म हो गया. धीरेधीरे वह अपनेआप में ही डूबी रहती. रेनू का पति और उस के परिवार के लोग पहले तो रेनू की चिंता करते थे लेकिन धीरेधीरे वे लोग उस के साथ उपेक्षा का व्यवहार करने लगे. पति को जब जरूरत होती, उस से सैक्स संबंध बना लेता. रेनू को इस से और भी ज्यादा चिड़चिड़ाहट होने लगती. चिंता में घिरी रहने वाली रेनू का शरीर और मन दोनों टूटने लगे. उस के परिवार में एक बाबा आते थे.

घर वालों ने रेनू को उन्हें दिखाया तो वे बोले कि इस पर भूतप्रेत की छाया है. इस के बाद वे तरहतरह से रेनू का इलाज करने लगे. रेनू किस दिन, कौन से रंग के कपड़े पहने, यह बाबा तय करते थे. रेनू के हाथ की उंगलियों में कई तरह के नग और पत्थर वाली अंगूठियां आ गईं. इस तरह के तमाम उपाय करने के बाद भी रेनू की जिंदगी में किसी तरह का उल्लास नहीं आ पाया.

रेनू की ससुराल वालों ने उस से तलाक लेने की प्रक्रिया शुरू कर दी. इस से सब से ज्यादा तकलीफ रेनू के पिता लाल बहादुर को थी. बेटी की हालत उन से देखी नहीं जा रही थी. डाक्टरों को दिखाया तो वे बोले कि रेनू डिप्रैशन का शिकार है. डिप्रैशन जिंदगी में जहर घोलने वाले मन का भाव होता है.

डाक्टरों ने दवाओं से रेनू का इलाज शुरू किया. इस के बाद भी रेनू न तो एक भी अंगूठी उतारने को तैयार थी और न ही साधारण तरीके से कपड़े पहनने को. वह दिन के हिसाब से रंग वाले कपड़े पहनती. गुरुवार को पीले चावल खाती. कई माह तक इलाज कराने के बाद भी रेनू को कोई लाभ नहीं हुआ. वह घर के कमरे में पड़ी रहती. कोई पूछ लेता तो खाती, नहीं तो खाने तक का होश नहीं रहता था. परेशान पिता ने उस को एक शैल्टर होम भेजने का फैसला लिया.

रेनू अपने घर से शैल्टर होम में आ गई. वहां उसे अपनी उम्र की कई दूसरी लड़कियां मिलीं. शुरुआत में काफी दिनों तक रेनू को वहां अच्छा नहीं लगा. धीरेधीरे वह बदलने लगी. 1 माह में ही रेनू ने हंसना और मुसकराना सीखा. उस की दवाएं और अपने उम्र की लड़कियों का साथ उस का सहारा बन रहा था. अब वह बेहतर तरीके से खाने लगी. उस के पिता को अब उस से बात कर अच्छा लगने लगा.

असल में रेनू के मन पर जो असर पड़ा उस का शुरुआत में सही हल नहीं निकाला गया, जिस से वह अवसाद की खतरनाक स्टेज तक पहुंच गई. अवसाद चिंता का ही रूप है.

चिंता करना कोई बुरी बात नहीं है पर चिंता में डूब जाना खतरनाक होता है. जब अवसाद के दौर में अपनों का सहारा नहीं मिलता तो बात और भी बिगड़ जाती है. अपनों का सहारा, खुद पर भरोसा और नई सोच से सुधार संभव है.

बात केवल एक रेनू की नहीं है. किसी भी सरकारी और गैरसरकारी अस्पताल के मानसिक रोग विभाग में ऐसे तमाम मरीज मिल जाएंगे.

दरअसल, मस्तिष्क को जब पूरा आराम नहीं मिल पाता और उस पर हमेशा एक दबाव बना रहता है तो समझिए तनाव ने आप को अपनी चपेट में ले लिया है. चिकित्सकीय भाषा में तनाव को शरीर के होमियोस्टैसिस में गड़बड़ी माना जाता है. यह वह अवस्था है जो किसी व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक व मनोवैज्ञानिक कार्यप्रणाली को गड़बड़ा देती है. तनाव के कारण शरीर में कई हार्मोनों का स्तर बढ़ता जाता है, जिन में एड्रीनलीन और कार्टिसोल प्रमुख हैं. लगातार तनाव की स्थिति अवसाद में बदल जाती है.

अवसाद एक गंभीर स्थिति है, हालांकि यह कोई रोग नहीं है, इस के बावजूद इस बात का संकेत है कि आप का शरीर और आप का जीवन असंतुलित हो गया है. यह याद रखना महत्त्वपूर्ण है कि जब आप अवसाद को एक बीमारी के रूप में देखना प्रारंभ करते हैं तब आप सोचते हैं कि आप को दवा लेने की आवश्यकता है जबकि अवसाद से निबटने में एंटीडिप्रैसैंट उतने कारगर नहीं होते जितने जीवन में फिर से संतुलन लाने के प्रयास.

तनाव किसी भी उम्र में हो सकता है. अस्पतालों में ज्यादातर भीड़ 30 से 45 साल के लोगों की होती है. कई बार लोग इस का इलाज झांड़फूंक और गंडाताबीज से करवाते हैं. जब हालात बिगड़ जाते हैं तब मरीज को डाक्टर के पास ले जाया जाता है. केवल दवा की गोली खिला कर और अस्पताल में भरती करा देने भर से तनाव का मरीज सही नहीं हो सकता. उसे एक प्यारभरी थपकी देना जरूरी होता है.

डिप्रैशन : कैसे कैसे

अवसाद के बारे में अब तक वैज्ञानिक और शोधकर्ता यह स्पष्ट रूप से पता नहीं लगा पाए हैं कि इस के होने की वजह क्या है लेकिन इस के प्रमाण जरूर हैं कि तनाव के पीछे व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन से जुड़ी कई चीजों की अहम भूमिका होती है, जैसे हमारे जीवन में आने वाले महत्त्वपूर्ण पड़ाव जिन में किसी प्रियजन का बिछुड़ना, नौकरी छूट जाना, विवाह संबंधों में टूटन, शिक्षा के क्षेत्र में असफलता और ऐसी ही कई दूसरी चीजें अवसाद का कारण बनती हैं.

इस के अलावा जीवन के प्रति नकारात्मक सोच रखने वाले लोगों को अवसाद में जाने का ज्यादा डर रहता है जैसे वे सोचते हैं कि मैं सफल नहीं होऊंगा, इसलिए यह कार्य नहीं कर सकता या फिर कई लोगों के मन में हमेशा कुछ न कुछ अनहोनी का डर रहता है जिस से उन का अवसाद में जाने का खतरा बना रहता है. साथ ही कुछ स्वास्थ्य समस्याएं भी हैं जिन के कारण व्यक्ति अवसाद में जा सकता है, जैसे थायराइड, विटामिन डी की कमी आदि.

कुछ दवाओं के साइड इफैक्ट्स के कारण भी व्यक्ति अवसाद में जा सकता है. हालांकि अवसादग्रस्त व्यक्ति सामान्य व्यक्तियों की तुलना में समाज से कटाकटा रहना पसंद करता है लेकिन इस के अलावा भी कई और लक्षण हैं जिन से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि व्यक्ति अवसादग्रस्त है.

अवसाद के लक्षणों को पहचानें

अलगअलग लोगों में डिप्रैशन के लक्षण अलगअलग हो सकते हैं. अवसाद से निकलने के लिए जरूरी है कि उस के कारणों को समझें.

– अत्यंत संवेदनशील हो जाना.

– ज्यादा या कम भूख लगना.

– कम या ज्यादा नींद आना.

– गुस्सा और चिड़चिड़ापन.

– थकान और ऊर्जा की कमी.

– पेटदर्द या सिरदर्द.

– ध्यान केंद्रित करने में समस्या.

अगर नीचे दिए गए लक्षण आप में दृष्टिगोचर होते हैं तो डाक्टर से संपर्क करें :

उदासी या एकाकीपन : अगर व्यक्ति अवसादग्रस्त है तो उस का किसी काम या चीज में मन नहीं लगता है. हालांकि सामान्य उदासी अवसादग्रस्त उदासी से बिलकुल भिन्न होती है. अवसादग्रस्त व्यक्ति की हर चीज में रुचि खत्म हो जाती है, उसे खुशी या गम का एहसास नहीं होता. वह अपनी ही दुनिया में खोया रहता है.

नकारात्मक रवैया : सकारात्मक सोच से बहुत दूर ऐसे व्यक्ति पर नकारात्मकता हावी रहती है. वह किसी भी चीज को सकारात्मक दृष्टिकोण से नहीं देखता.

शारीरिक अस्थिरता

अवसाद से जुड़ा एक सच यह भी है कि यह बिना किसी खास कारण के भी हो सकता है जो शरीर में धीरेधीरे घर कर लेता है. शोध दर्शाते हैं कि इस के पीछे आनुवंशिक कारण भी हो सकते हैं.

अवसाद के विभिन्न स्तर हैं जो इस प्रकार हैं :

मेजर डिप्रैशन : डिप्रैशन का सब से सामान्य रूप है मेजर डिप्रैशन. अगर व्यक्ति मेजर डिप्रैशन में होता है तब वह अत्यधिक दुख, हताशा, ऊर्जा की कमी, चिड़चिड़ापन, किसी काम में ध्यान न लगना, नींद और खाने की आदतों में परिवर्तन, शारीरिक दर्द व आत्महत्या जैसे विचारों का एहसास करता है. डाक्टर को भली प्रकार जांच के लिए व्यक्ति में कम से कम 2 हफ्ते से ज्यादा तक ये लक्षण दिखने चाहिए.

कुछ मामलों में व्यक्ति मेजर डिप्रैशन का हलकाफुलका एहसास करता है और फिर उस की स्थिति जीवनभर के लिए सुधर जाती है.

क्रौनिक डिप्रैशन : यह मेजर डिप्रैशन से कम गंभीर होता है लेकिन इस में भी खतरा रहता है. डिस्थाइमिया इस प्रकार का डिप्रैशन होता है जिस में व्यक्ति लंबे समय तक लो मूड यानी खराब मानसिक स्थिति का शिकार होता है. यह स्थिति एक साल या इस से भी ज्यादा समय के लिए हो सकती है. इस डिप्रैशन में मैडिकेशन से बेहतर टौक थैरेपी होती है.

हालांकि कुछ अध्ययन बताते हैं कि टौक थैरेपी के साथ मैडिकेशन के मिश्रण से इस का बेहतर परिणाम मिल सकता है. जो व्यक्ति डिस्थाइमिया की चपेट में होता है उसे मेजर डिप्रैशन होने का खतरा भी रहता है.

बाइपोलर डिसऔर्डर : बाइपोलर डिसऔर्डर, जिसे मैनिक डिप्रैशन भी कहा जाता है, अत्यधिक मूड स्विंग का कारण बनता है जिस से भावनात्मक उतारचढ़ाव (मेनिया या हाइपोमेनिया) देखा जाता है. जब व्यक्ति डिप्रैस्ड होता है तब वह दुखी या हताश महसूस करता है और किसी भी क्रियाकलाप के प्रति दिलचस्पी खो देता है. लेकिन जब उस का मूड दूसरे डायरैक्शन में शिफ्ट होता है तब वह ऊर्जा से भरपूर और उल्लासमय नजर आता है. मूड का इस तरह बदलना अकसर साल में एक या दो बार या फिर हफ्ते में कई बार भी नजर आ सकता है.

हालांकि बाइपोलर डिसऔर्डर अशांत, लंबे समय की स्थिति है इसलिए इस डिसऔर्डर से ग्रस्त व्यक्ति को विशेषज्ञ की सलाह से ट्रीटमैंट लेना आवश्यक होता है. ज्यादातर मामलों में बाइपोलर डिसऔर्डर दवाओं और काउंसलिंग द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है.

पोस्टपार्टम डिप्रैशन : शिशु का जन्म महिला के भीतर अत्यधिक भावनाओं के सागर का मिश्रण होता है, जिस में उत्साह और खुशी के साथ ही डर और अवसाद भी शामिल होता है. इन सब का मिलाजुला परिणाम वह भी हो सकता है जिस के बारे में वह कभी सोचती भी नहीं और वह है डिप्रैशन. शिशु के जन्म के बाद कई नई मांएं पोस्टपार्टम बेबी ब्लूज का अनुभव करती हैं, जिस में सामान्य रूप से मूड स्विंग, अचानक रोना, चिड़चिड़ापन और नींद की समस्या होती है. बेबी ब्लूज की शुरुआत सामान्य रूप से डिलीवरी के 2 या 3 दिन के भीतर शुरू हो जाती है जो लगभग 2 हफ्तों तक रहती है. लेकिन कुछ नई मांएं इस से भी गंभीर डिप्रैशन का अनुभव करती हैं जो लंबे समय तक रहता है जिसे पोस्टपार्टम डिप्रैशन साइकोसिस कहते हैं.

प्रीमैनेस्ट्रुअल सिंड्रोम : कुछ महिलाएं मासिक धर्म के कुछ दिन पहले स्तन में कड़ापन, सूजन और मांसपेशियों में दर्द का अनुभव करती हैं. ये सभी सामान्य प्रीमैनेस्ट्रुअल लक्षण हैं. लेकिन जब यह महिला की प्रतिदिन की दिनचर्या को अस्तव्यस्त करे तो इसे प्रीमैनेस्ट्रुअल सिंड्रोम कहते हैं. पीएमएस महिला के शरीर, मूड और मैनेस्ट्रुअल पीरियड के दिनों में वह कैसे एक्ट करती है, पर निर्भर करता है. इस के लक्षण 30 और 40 वर्ष के बीच और भी खतरनाक हो जाते हैं जब महिला मेनोपौज की स्थिति में पहुंचती है. पीएमएस का संबंध हार्मोन के परिवर्तन से है जो मैनेस्ट्रुअल साइकिल के कारण होता है.

साथ ही, महिला के भोजन में शामिल विटामिन बी6, कैल्शियम या मैग्नीशियम पीएमएस के खतरे को बढ़ा सकते हैं. तनाव का उच्च स्तर, व्यायाम की कमी और अत्यधिक कौफी पीने से इस के लक्षण और भी खराब हो जाते हैं.

सीजनल अफैक्टिव डिसऔर्डर : सीजनल अफैक्टिव डिसऔर्डर जिसे सैड एसएडी भी कहते हैं, डिप्रैशन का ही एक रूप है जिस का संबंध मौसम के बदलने के साथ होता है. यह व्यक्ति की एनर्जी समाप्त कर देता है और उसे मूडी बना देता है. बहुत कम ही मामलों में सैड से होने वाला डिप्रैशन गरमी की शुरुआत या वसंत ऋतु में नजर आता है. इस के निदान के लिए लाइट थैरेपी (फोटो थैरेपी), साइकोथैरेपी और मैडिकेशंस का सहारा लिया जाता है.

सिचुएशनल डिप्रैशन : जैसा कि इस के नाम से ही जाहिर है कि यह डिप्रैशन कुछ निश्चित परिस्थिति के कारण होता है. इसे एडजस्टमैंट डिसऔर्डर भी कहा जाता है. तनावपूर्ण या जीवन में परिवर्तन लाने वाली घटनाएं जैसे नौकरी खोना, प्रियजन की मृत्यु, तलाक आदि इस डिप्रैशन का कारण बनती हैं. सिचुएशनल डिप्रैशन मेजर डिप्रैशन से तीनगुना ज्यादा पाया जाता है. इस का कारण यह है कि समय के साथसाथ यह अपनेआप ठीक भी हो जाता है. इस का मतलब यह नहीं कि इसे नजरअंदाज कर दिया जाए. इस के लक्षणों में अत्यधिक दुख, चिंता, घबराहट आदि शामिल होते हैं. अगर धीरेधीरे यह खत्म नहीं होता तो यह मेजर डिप्रैशन की चेतावनी हो सकती है.

साइकेटिक डिप्रैशन : साइकोसिस एक मानसिक स्थिति है जिस में भ्रम, झूठा विश्वास जैसे मतिभ्रम या झूठी मान्यताओं पर विश्वास जैसी हालत होती है. हालांकि इसे पारंपरिक रूप से डिप्रैशन से नहीं जोड़ा जाता लेकिन तनावग्रस्त 20 प्रतिशत से ज्यादा लोगों में इस तरह के गंभीर मामले नजर आते हैं. इस तरह के लोग न बात करना चाहते हैं और न ही इधरउधर जाना चाहते हैं. इस के निदान के लिए एंटीडिप्रैशन और एंटीसाइकेटिक मैडिकेशंस का प्रयोग किया जाता है.

फार्मेकोथैरेपी : दवाओं के द्वारा किसी मानसिक रोग के उपचार को फार्मेकोथैरेपी कहते हैं. अवसाद के उपचार के लिए एंटीडिप्रैससैंट का उपयोग किया जाता है. इन का चुनाव अवसादग्रस्त व्यक्ति के लक्षणों के आधार पर किया जाता है. सामान्यतौर पर 6 महीने से साल भर तक एंटीडिप्रैससैंट लेने की सलाह दी जाती है. कुछ लोगों में इन के सेवन से उल्टी होना, मुंह सूख जाना, चक्कर आना, बेचैनी, वजन बढ़ जाना, कब्ज होना आदि लक्षण दिखाई दे सकते हैं.

कुछ लोगों में अवसाद इतना गंभीर होता है कि उन्हें अस्पताल में रखना आवश्यक हो जाता है. यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब व्यक्ति अपनी स्वयं की ठीक प्रकार से देखभाल नहीं कर सके या जब इस बात की आशंका उत्पन्न हो कि रोगी अपनेआप को या किसी और को नुकसान पहुंचा सकता है. अस्पताल में साइकियाट्रिक ट्रीटमैंट रोगी को शांत व सुरक्षित रखने में सहायता करता है जब तक कि उस का मूड ठीक नहीं हो जाता.

जरूरी है काउंसलिंग

इसे सब से बेहतरीन टौकिंग थैरेपी माना जाता है. काउंसलर अवसादग्रस्त व्यक्ति की सहायता करता है और उसे व्यावहारिक सलाह देता है. इस में 6 से 12 सैशन होते हैं और प्रत्येक की अवधि एक घंटा होती है. आप काउंसलर पर विश्वास रख सकते हैं और उसे खुल कर बता सकते हैं कि आप अपने और अपनी स्थिति के बारे में क्या सोचते हैं.

काउंसलिंग उन लोगों के लिए एक अच्छा उपाय माना जाता है जो वैसे तो स्वस्थ होते हैं लेकिन उन्हें अपने वर्तमान संकट से निबटने के लिए थोड़ी सी सहायता की आवश्यकता होती है.

कारगर है सीबीटी

कोगनिटिव बिहेवियोरल थैरेपी यानी सीबीटी का उद्देश्य सकारात्मक रूप से सोचने में सहायता करना है, ताकि आप असहाय और अवसादग्रस्त अनुभव करने के बजाय स्थितियों का बेहतर तरीके से सामना कर सकें और यहां तक कि आप उस स्थिति का आनंद लेने लगें.

सीबीटी में थैरेपिस्ट रोगी के साथ मिल कर एक लक्ष्य निर्धारित कर लेता है. इस में लगभग 6-15 सैशन होते हैं. काउंसलिंग की तरह ही इस थैरेपी में भी अतीत या बचपन की घटनाओं से अधिक वर्तमान स्थितियों से निबटने पर फोकस किया जाता है. यह थैरेपी अवसाद से पीडि़त लोगों की बहुत सहायता करती है.

उपचार के अन्य विकल्प

गहरे तनाव और अवसाद के उपचार के लिए कुछ अन्य विकल्प भी लोकप्रिय हो रहे हैं :

एक्युपंक्चर : इस में उपचार के लिए शरीर के विशेष बिंदुओं पर बारीक सुइयों का उपयोग किया जाता है. अवसाद के उपचार के रूप में इस पर लगातार विश्वास बढ़ रहा है. कुछ अनुसंधानों में भी इस से अच्छे परिणाम मिले हैं.

रिलैक्सेशन तकनीक : रिलैक्सेशन तकनीक स्टैस मैनेजमैंट का एक महत्त्वपूर्ण भाग है. जो लोग अत्यधिक महत्त्वाकांक्षी होते हैं वे कम ही आराम करना पसंद करते हैं. लेकिन यह उन की बहुत बड़ी भूल है क्योंकि आप अपनी महत्त्वाकांक्षाएं तभी पूरी कर सकते हैं जब आप पूरी तरह से स्वस्थ हों. हर किसी को रिलैक्स और रिचार्ज होने की आवश्यकता होती है.

रिलैक्सेशन तकनीक से शरीर और मस्तिष्क के तनाव का स्तर घटता है. रिलैक्सेशन तकनीक आप को अपनी सांसों की गति को धीमा करने और वर्तमान क्षण में ध्यान केंद्रित करने में सहायता करती है.

मसाज थैरेपी : मसाज को मस्तिष्क और शरीर को तनावमुक्त रखने का एक अचूक नुस्खा माना जाता है. यह मस्तिष्क और शरीर को पुनर्जीवन देने का सब से प्राचीन तरीका है. मसाज तनाव को कम कर क्रोध, हताशा व अवसाद को कम करता है. मसाज से मानसिक शांति मिलती है जिस से एकाग्रता बढ़ती है और उत्तेजना कम होती है. मसाज हमेशा किसी प्रोफैशनल से ही कराएं.

डांस थैरेपी : डांस एक मैडिसिन की तरह है. यह तनाव और चिंता कम कर के शरीर में ऊर्जा का प्रवाह बढ़ाता है. डांस करने से फील गुड हार्मोन एंडोरफिन स्रावित होता है. आधुनिक शोधों में ये बातें भी सामने आई हैं कि डांसिंग से अल्जाइमर्स और डिमैंशिया का खतरा भी कम होता है. डांसिंग अवसाद की चपेट में आने की आशंका भी कम करती है. डांस थैरेपी में 30 से 60 मिनट का डांस सैशन रखा जाता है.

अकेले डांस करना संभव नहीं होता. सो डांस थैरेपी लेने वाले लोगों को किसी डांस स्कूल को जौइन कर लेना चाहिए जहां कई लोग एकसाथ डांस करते हैं.

अकसर यह प्रश्न उठता है कि डांस स्कूल जौइन किस उम्र में किया जा सकता है, हम आप को बता दें कि डांस स्कूल में उम्र का कोई बंधन नहीं होता. उम्र के अनुसार ग्रुप बना दिए जाते हैं. आप अपनी उम्र के अनुसार डांस ग्रुप में शरीक हो सकते हैं. यदि आप किसी के सामने डांस करने में हिचकते हैं तो आप अपनी पसंद के गानों पर अकेले ही नाच सकते हैं. आप स्वयं रेडियो, डीवीडी चला कर डांस कर सकते हैं.

(डा. एस सुदर्शनन (मनोचिकित्सक) बीएलके सुपर स्पैशलिटी हौस्पिटल, डा. गौरव गुप्ता (मनोचिकित्सक) तुलसी हैल्थ केयर, नई दिल्ली एवं शैलेंद्र सिंह)

इस हाथ ले, उस हाथ दे : मर्यादा की सीमा रेखा लांघ कर वरुण ने क्या पाया

वरुण और अनुज के पिता ने जीवन भर की भागदौड़ के बाद एक बड़ा कारखाना लगाया था. उन की रेडीमेड कपड़ों की फैक्टरी तिरुपुर में थी, जहां मुंबई से रेल में जाने पर काफी समय लगता था. हवाई जहाज से जाने पर पहले कोयंबटूर जाना पड़ता था. उन दिनों मुंबई से कोयंबटूर के लिए हफ्ते में केवल एक उड़ान थी, अत: वरुण प्राय: वहां महीने में एक बार जाता था. वरुण  को कपड़ों के एक्सपोर्ट के सिलसिले में आस्टे्रलिया व अमेरिका भी साल में 2-3 बार जाना पड़ता. पिता मुंबई आफिस व ऊपर का सारा काम देखते, वरुण फैक्टरी व भागदौड़ का काम देखता था. अनुज अपने बड़े भाई वरुण से करीब 10 साल छोटा था और अब कालिज में दाखिल हो चुका था.

वरुण का विवाह काफी साल पहले साधना से हो चुका था. उस के 1 लड़का व 2 लड़कियां यानी कुल 3 बच्चे थे. तीसरे बच्चे के होने तक साधना पूजापाठ, व्रतउपवास व तीर्थयात्रा आदि में अधिक समय बिताने लगी, धार्मिक मनोवृत्ति उस की शुरू से ही थी. पतिपत्नी की रुचियों में भारी अंतर होने के चलते ही दोनों में काफी तनातनी रहने लगी.

वरुण का धंधा एक्सपोर्ट का था और चेंबर औफ कौमर्स की सभाओंपार्टियों में उसे हफ्ते में एक बार तो जाना ही पड़ता था. ऐसी पार्टियों में शराब व डांस आदि का सिलसिला जोर से चलता था. इस वातावरण में धार्मिक प्रवृत्ति की साधना का दम घुटता था. यह देख कर कि कोई मर्द दूसरी औरत को छाती से चिपका कर नाचता. चूंकि यह सब आम दस्तूर की बातें थीं, जो उसे कतई रास न आतीं.

शुरुआत में तो साधना अकेली टेबल पर बैठी रहती और वरुण दूसरी औरतों के साथ नाचता रहता. साधना न तो इतनी देर रात की कायल थी, न ही वह ससुर व बच्चों को अकेले छोड़ना चाहती थी. अब तो उस ने ऐसी पार्टियों में जाना ही बंद कर दिया तो वरुण पहले से और भी अधिक खुल गया और 1-2 महिलाओं से उस का संबंध भी हो गया, जिस के लिए उसे छोटे होटलों में जाना पड़ता. धंधे के नाम पर सब ढका रहता.

अनुज अब एम.बी.ए. कर चुका था. शादी के बाद वह घर के धंधे में ही हाथ बटाना चाहता था. वरुण ने शुरूशुरू में तो उसे ऊपर का काम बताया, पर बाद में उसे फैक्टरी को संभालने के काम से तिरुपुर भेजने लगा. अनुज का विवाह चंदा से हुआ, जो ग्वालियर के एक व्यापारी की लड़की थी.

चंदा साधना से ठीक उलटे स्वभाव की निकली. उसे आएदिन पार्टियों में जाने, नए फैशन व गहनों का बेहद शौक था. उस की उलझन सामने आने लगी क्योंकि अनुज अब ज्यादातर कंपनी के काम से बाहर रहने लगा. एकाध बार बेहद आवश्यक पार्टी में वरुण साधना के न जाने पर चंदा को ले गया. साथ में 1-2 बार दोनों ने डांस भी किया जिस से चंदा की झिझक जाती रही.

शेर जब खून चख लेता है तो फिर उस के पीछे पड़ जाता है. पिता के साथ दोनों भाई एक ही मकान में रहते थे. दोनों भाइयों के रहने के हिस्से अलगअलग थे, पर सभी कमरे ड्राइंगरूम में खुलते थे. वरुण ऊपर से तो शालीन नजर आता, पर एकांत में चंदा से थोड़ाबहुत मजाक कर बैठता. चंदा को इस प्रकार की छेड़खानी अच्छी लगती थी, उस से आगे दोनों ने ही कुछ सोचाविचारा न था.

एक दिन शाम को क्लब में दोनों ही एकाएक स्वीमिंग पूल में साथ हो लिए. वरुण वैसे तो अकसर सुबह क्लब जाता था और चंदा कभीकभी शाम को. साधना यथावत शाम को कहीं न कहीं भजनकीर्तन में जाती थी और भोजन के वक्त आ जाती. उसे इस मामले में कुछ भी सुराग न था, वह अपने नित्यकर्म में मस्त रहती.

स्वीमिंग देर शाम को हो रही थी, अत: पानी के नीचे क्या हो रहा है, दिखाई नहीं देता. पहले तो दोनों साधारण गपशप करते रहे, फिर खेलखेल में तैरने व दोनों के बीच अठखेलियां होने लगीं. वरुण ने पानी में ही उस के वक्ष पर इस तरह हाथ लगाया, जैसे अनजाने में लगा हो. इस पर चंदा मुसकरा कर और तेजी से तैरने लगी. इस प्रकार दोनों तैर कर बगल में बने हुए गरम पानी के जकूजी में गए, जहां तैरने के  बाद नहाने से पहले जा कर तैरने वाले रिलैक्स होते थे.

वरुण चंदा के पांव धीरेधीरे सहलाने लगा, मानो उस की थकावट मिटा रहा हो. बाद में वह चंदा का हाथ ले कर अपने शरीर पर फिरवाने लगा. उत्तेजना में दोनों काफी देर तक एकदूसरे के साथ अंगीकरण के बाद जब शांत हुए तो चुपचाप अपनाअपना टावल ले कर चल दिए. दोनों अलगअलग गाडि़यों में जैसे वहां आए थे, वैसे ही आगेपीछे घर पहुंचे. अब तो दोनों का हौसला बढ़ गया. देर रात को सब के सोने के बाद वरुण अपना डे्रसिंग गाउन पहन कर इस तरह कमरे से निकलता मानो ड्राइंगरूम में जा रहा हो. घंटे आधघंटे मस्ती व आलिंगन के बाद वह वापस आ कर सो जाता.

साधना को पहले तो काफी अरसे तक कुछ पता नहीं चला. इन दिनों वरुण का ब्लड प्रेशर भी हाई रहने लगा था और उस की शराब व जिंदगी के तौरतरीके से डाक्टर ने वार्षिक टेस्ट होने पर उसे चेतावनी दी कि उसे अब उत्तेजनात्मक व भागदौड़ की टेंशन से बचना होगा. दवा लेने के बावजूद वरुण का ब्लड प्रेशर 180/120 पर रहने लगा, पर जीवन को नियंत्रित करना कोई सहज खेल नहीं है. यू टर्न के लिए बहुत धीमी गति व काफी फासले की जरूरत रहती है, पर इस के लिए मन में आभास होने पर दृढ़ निश्चय करना होता है जोकि उस के बस की बात नहीं थी.

एक रात को सहसा पलंग सूना देख साधना देखने गई कि कहीं वरुण की तबीयत तो नहीं खराब हो गई. थोड़ी देर में वह चंदा के कमरे से निकला तो साधना को मानो सांप ही सूंघ गया. वह गश खा कर बेहोश हो गिर गई. ललाट फटने से खून बह निकला. बड़ी मुश्किल से अस्पताल में टांके व मरहमपट्टी करवा कर वरुण उसे खिसियाए मुंह घर ले आया. उस ने साधना से वादा भी किया कि यह भूल अब कभी नहीं होगी, वह तो केवल 5 मिनट के लिए चंदा के कमरे से कुछ आवाज आने पर उसे देखने गया था. और वह कहता भी क्या?

साधना गंभीर व समझदार तो थी ही, बात को बढ़ाने में उस ने कोई लाभ नहीं समझा. वरुण अब चंदा से कतरा कर आफिस की एक लड़की के साथ किसी होटल में जाता. एक बार उसे इसी क्रिया में जबरदस्त हार्टअटैक आया और बेहोशी की हालत में लड़की ने उसे अस्पताल में भरती करा कर घर वालों को फोन किया कि दफ्तर में वरुण का जी घबराने से वह उसे डाक्टर के पास ले जा रही थी कि रास्ते में ही हालत खराब हो गई.

वरुण को हार्टअटैक बहुत जोर का पड़ा था, साथ ही ब्लड प्रेशर की मार से दाएं अंग में लकवा आ गया. 52 साल की उम्र में ही उस के जीवन में उल्कापात हुआ, करीब 6 महीने की साधना व फिजियोथेरैपी से वह बच तो गया, पर चलनेफिरने व यात्रा करने से मजबूर हो गया. अब वह घर पर ही पड़ा रहता और साधना उस की मन से सेवा करती. रात के लिए एक नर्स अलग से रखी गई थी, ताकि 24 घंटे वरुण की देखभाल हो सके.

पिता ने अनुज को कंपनी का चार्ज दे दिया. साधना ने एक दिन भी पति को खरीखोटी नहीं सुनाई, बल्कि धीरज व धैर्य से उसे रहने की हिदायत देती रहती और मदद करती रहती. वरुण अब देखने में 65-70 साल का दिखने लगा है. वापस पुरानी ऊर्जा व स्फूर्ति अब उसे कभी नहीं मिलेगी, ऐसा सभी डाक्टरों ने कह दिया.

पति पत्नी ऐसे करें मिल बांट कर काम, आज ही ये तरीके अपनाएं

मेरी दीदी को औफिस के लिए जीजाजी से पहले निकलना होता था. अत: सुबह के नाश्ते की जिम्मेदारी जीजू पर थी. एक दिन सुबहसुबह किसी कारणवश जीजाजी को नीचे जाना पड़ा. उस समय उन के हाथों में आटा लगा था. बस फिर क्या था. जैसे ही वे नीचे पहुंचे उन की पड़ोसिन ने उन के हाथों में आटा लगा देखा तो हैरान हो बोलीं, ‘‘भैया, क्या आप रोटियां बना रहे थे?’’ वे इस तरह से बोल रही थीं जैसे जीजू ने कोई बड़ा गलत काम कर दिया हो. आसपास कुछ और महिलाएं भी थीं. अत: सब को बातें बनाने का मौका मिल गया.

यह देख जीजाजी भी दुविधा में पड़ गए कि क्या सच में उन्होंने कुछ गलत कर दिया है. दरअसल, वे हैरान इसलिए भी थे, क्योंकि वे शादी से पहले भी अपना खाना खुद बनाते थे. आसपास के लोग यह जानते थे. खैर, हद तो उस दिन हुई जब इसी बात पर सोसाइटी के पुरुषों ने उन्हें समझाया, ‘‘आप औरतों वाले काम न किया करें. घर की सफाई और रसोई का काम तो औरतों को ही करना चाहिए. आप ऐसा क्यों करते हैं? क्या आप दोनों के बीच कुछ ठीक नहीं चल रहा है? क्या आप की पत्नी की कमाई आप से ज्यादा?’’

इतना ही नहीं. पासपड़ोस की औरतों ने दीदी को भी समझाया गया कि पति की इज्जत करनी चाहिए. औरतों के काम मर्दों से नहीं कराने चाहिए. दीदी व जीजू दोनों ने आसपास के लोगों को समझाने की बहुत कोशिश कि पतिपत्नी दोनों को घर के काम मिल कर करने चाहिए, बावजूद इस के वे कई बार मजाक के पात्र बने. दीदी को खासतौर पर सुनने को मिला कि वह एक संवेदनहीन पत्नी हैं.

बदलनी होगी सोच दरअसल, इस सोच के पीछे कई कारण हैं जैसे लिंग के आधार पर काम का विभाजन, महिलाओं से संबंधित हर काम, हर चीज को निचले दर्जे का मानना, बदलते परिवेश के साथ खुद की सोच को न बदलना आदि.

मगर जब पत्नी कामकाजी बन कर पति को आर्थिक सहयोग दे सकती है, तो पति से घरेलू कामों में मदद की उम्मीद भी कर सकती है. इस में कोई बुराई नहीं है. पतिपत्नी दोनों मिल कर अपना घर बसाते हैं. फिर घर की जिम्मेदारियां सिर्फ पत्नी के हिस्से ही क्यों रहें? जमाना बदल रहा है. अब घर के कामकाज में पति की भागीदारी भी बढ़ रही है. आप भी इस के लिए अपने पति को प्रोत्साहित करें ताकि आप का वर्कप्रैशर थोड़ा कम हो.

पत्नियां पति से घर के काम कराने के लिए निम्न तरीके अपना सकती हैं: विवाद का विषय न बनाएं: पति के काम करने का तरीका अजीब भी हो सकता है. अत: इस बात को विवाद का विषय न बनाएं. पहले काम कराने की आदत डालें. धीरेधीरे काम करने का सलीका भी आ जाएगा.

गलती न निकालें: काम गलत होने पर पति की गलती निकालने के बजाय दोनों मिल कर काम करें. लंबी लिस्ट न हो: पति के औफिस से आते ही उन्हें कामों की लंबी लिस्ट न पकड़ाएं. पहले चायनाश्ता कराएं. फिर प्यार से कहें कि प्लीज फलां काम कर देना.

जिम्मेदारियां बांट लें: जिम्मेदारियों का बंटवारा कर लें ताकि पति समझ जाएं कि ये काम उन्हीं के हैं, क्योंकि अगर आप ने सभी कामों की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली तो वे जिम्मेदारी लेने से बचेंगे. आप चाहे कामकाजी हों या फिर गृहिणी घर के कामों में पति की मदद जरूर लें. किन कामों में लें मदद

सवाल यह उठता है कि ऐसे कौन से काम हैं जिन में पति की मदद ली जा सकती है? अगर आप उन पर काम का बोझ नहीं डालना चाहती हैं तो छोटेमोटे काम जैसे घर की डस्टिंग, बच्चों का होमवर्क, कपड़े ठीक करना, बाजार से सामान लाना आदि कामों में आप उन की मदद ले सकती हैं. अगर आप किचन में खाना बना रही हैं तो पति से सब्जी कटवा सकती हैं या फिर फ्रिज से जरूरत का सामान निकलवा सकती हैं. किचन समेटने में उन की मदद ले सकती हैं. ये छोटेमोटे काम कराने से ही आप का वर्कलोड काफी कम हो जाएगा. इस का एक फायदा यह भी होगा कि आप पति की मदद से घर के कामों से जल्दी फ्री हो जाएंगी और फिर आप पति के साथ ज्यादा समय बिता सकेंगी. इस के अलावा आप के इस कदम से आप का रिश्ता मजबूत होगा. घर में शांति और खुशहाली रहेगी.

Rajya Sabha Election 2024: अंतरात्मा की आवाज, बेईमानी सिखा कौन रहा?

Rajya Sabha Election 2024: दलबदल और क्रौस वोटिंग भी उसी तरह से दूषित आचारविचार है जैसे महाभारत में शकुनि और समुद्र मथंन में देवताओं ने किया था. इस के लिए बेईमानी सिखाने वाला जिम्मेदार होता है. दलबदल करने के लिए प्रेरित करने वाला दलबदल करने वालों से अधिक दोषी होता है, क्योकि वह निंदनीय और दूषित आचारविचार के लिए उकसाने का काम करता है. जब भगवा चोले वाले दक्षिणापंथी इस काम को करते हैं तो वे भेड़ के वेष में भेड़िए लगते हैं. राज्यसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से ले कर हिमांचल प्रदेश तक जो हुआ वह दलबदल की परिभाषा में भले ही पूरी तरह से फिट न हो पर यह भ्रष्ट आचरण का उदाहरण है.

भारतीय राजनीति में दलबदल बदल करने वालों को ‘आया राम गया राम’ के नाम से भी जाना जाता है. पहले यह कहावत ‘आया लाल गया लाल’ के नाम से मशहूर थी. बदलतेबदलते यह ‘आया राम गया राम’ में बदल गई. इस का अर्थ राजनीतिक दलों में आने और जाने से होता है. मजेदार बात यह है कि ‘गया लाल’ नाम का एक विधायक था जिस के नाम पर यह कहावत पड़ी. 55 सालों के बाद आज भी यह कहावत पूरी तरह से यथार्थ को दिखाती है.

बात 1967 की है. उस समय हरियाणा के हसनपुर निर्वाचन क्षेत्र, जिसे अब होडल के नाम से जाना जाता है, विधानसभा के सदस्य गया लाल ने एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीता. इस के बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए. इस के बाद उन्होंने एक पखवाड़े में 3 बार पार्टियां बदलीं. पहले राजनीतिक रूप से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से संयुक्त मोरचे में दलबदल कर के, फिर वहां से वापस कांग्रेस में शामिल हो गए और फिर 9 घंटे के भीतर संयुक्त मोरचे में शामिल हो गए.

जब गया लाल ने संयुक्त मोरचा छोड़ दिया और कांग्रेस में शामिल हो गए तो कांग्रेस नेता राव बीरेंद्र सिंह, जिन्होंने गया लाल के कांग्रेस में दलबदल की योजना बनाई थी, चंडीगढ़ में एक सम्मेलन में गया लाल को लाए और घोषणा की कि ‘गया लाल अब आया लाल’ हो गए हैं. इस से राजनीतिक दलबदल का खेल शुरू हो गया. उस के बाद हरियाणा विधानसभा भंग हो गई और राष्ट्रपति शासन लगाया गया.

1967 के बाद भी गया लाल लगातार राजनीतिक दल बदलते रहे. 1972 में वे अखिल भारतीय आर्य सभा के साथ हरियाणा में विधानसभा चुनाव लड़े. 1974 में चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में भारतीय लोक दल में शामिल हुए. 1977 में लोकदल के जनता पार्टी में विलय के बाद जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में सीट जीती. उन के बेटे उदय भान भी दलबदल करते रहे. 1987 में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में विधानसभा चुनाव जीता. 1991 में जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव हार गए. 1996 में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में हार गए. वर्ष 2000 में चुनाव जीतने के बाद इनेलो में शामिल हो गए. 2004 में दलबदल विरोधी कानून के तहत आरोपों का सामना करना पड़ा. इस के बाद वे कांग्रेस में शामिल हुए. 2005 में कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में जीत हासिल की.

हरियाणा रहा दलबदल का जनक

राजनीति का असर समाज और घरपरिवार पर भी पड़ता है. यह कहावत बहुत मशहूर हो गई. अपने वादों और दावों से बदलने वालों को ‘आया राम, गया राम’ के नाम से पहचाना जा सका. राजनीति की नजर से देखें तो हरियाणा इस का केंद्र रहा है. 1980 में भजनलाल जनता पार्टी छोड़ कर 37 विधायकों के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए थे और बाद में राज्य के मुख्यमंत्री बने. 1990 में उस समय भजनलाल की ही हरियाणा में सरकार थी. बीजेपी के के एल शर्मा कांग्रेस में शामिल हो गए थे. उस के बाद हरियाणा विकास पार्टी के 4 विधायक धर्मपाल सांगवान, लेहरी सिंह, पीर चंद और अमर सिंह धानक भी कांग्रेस में शामिल हो गए.

1996 में हरियाणा विकास पार्टी और बीजेपी गठबंधन ने सरकार बनाई. बाद में हरियाणा विकास पार्टी के 22 विधायकों के पार्टी छोड़ने की वजह से बंसीलाल को इस्तीफा देना पड़ा. हरियाणा विकास पार्टी के 22 विधायक आईएनएलडी में शामिल हो गए थे. उस के बाद बीजेपी की मदद से ओम प्रकाश चौटाला ने राज्य में सरकार बनाई थी. 2009 के चुनाव में किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था. कांग्रेस और इंडियन नेशनल लोक दल दोनों सरकार बनाने की कोशिश कर रही थीं. उस समय हरियाणा जनहित कांग्रेस के 5 विधायक सतपाल सांगवान, विनोद भयाना, राव नरेंद्र सिंह, जिले राम शर्मा और धर्म सिंह कांग्रेस में शामिल हो गए थे.

दूसरे प्रदेश भी चले दलबदल की राह

‘आया राम गया राम’ की शुरुआत भले ही हरियाणा से हुई हो पर दलबदल की जलेबी हर दल को पसंद आने लगी. इस की मिठास में सभी सराबोर हो गए. 1995 के बाद से उत्तर प्रदेश में यह दौर तेज हुआ. पहली बार बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से मुख्यमंत्री बनीं. 1996 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में किसी एक दल को बहुमत नहीं मिला. पहले 6 माह राज्य में राष्ट्रपति शसन लगा रहा. इस के बाद भाजपा और बसपा ने 6-6 माह का फार्मूला तय किया, जिस के तहत पहले 6 माह बसपा की मायावती को मुख्यमंत्री बनना था, उसके बाद भाजपा का नंबर आता.

दूसरी बार प्रदेश की मुख्यमंत्री बनने के बाद मायावती ने अपनी 6 माह सरकार चलाई. जब सत्ता भाजपा को सौंपने का नंबर आया तो मायावती ने राज्यपाल से विधानसभा भंग करने की सिफारिष कर दी. राज्यपाल रोमेश भंडारी कोई फैसला लें, इस के पहले भाजपा ने अपना समर्थन वापस ले कर सरकार गिरा दी. अब सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया कांग्रेस के नेता जगदंबिका पाल ने. राज्यपाल ने जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री बना दिया. इस के खिलाफ भाजपा हाईकोर्ट गई. तब कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री बना कर बहुमत साबित करने का आदेश दिया गया. कोर्ट ने जगदंबिका पाल के मुख्यमंत्री बनाने के फैसले को रदद कर दिया.

कल्याण सिंह और भाजपा ने बहुमत साबित करने के लिए बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस को तोड़ दिया. दलबदल कानून से बचने के लिए पार्टी टूट कर नई पार्टी बनी. विधासभा अध्यक्ष ने नई पार्टी को मान्यता दी. बसपा से टूटी बहुजन समाज दल और कांग्रेस से अलग हुई लोकतांत्रिक कांग्रेस ने भाजपा को समर्थन दिया और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने. 4 साल के कार्यकाल में भाजपा ने पहले कल्याण सिंह, इस के बाद राम प्रकाश गुप्ता और आखिर में राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री बने.

2003 में भी पहले बसपा-भाजपा का 6-6 माह का फार्मूला बना. फिर वही कहानी दोहराइ गई. इस बार भाजपा ने सरकार नहीं बनाई. लोकदल और भाजपा से अलग हुए कल्याण सिंह की पार्टी ने मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी को समर्थन दिया और सरकार बनाई.

कश्मीर में साल 2016 में पीपल्स डैमोक्रेटिक पार्टी के 43 में से 33 विधायक बीजेपी में शामिल हो गए थे. पहले कांग्रेस विधायक पीपल्स पार्टी में चले गए थे और बाद में बीजेपी में चले गए थे. साल 2018 में गोवा में कांग्रेस के 2 विधायक बीजेपी में शामिल हो गए थे. मध्य प्रदेश के दिग्गज नेता और कांग्रेस से सांसद व केंद्रीय मंत्री रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस से अपना 18 साल पुराना नाता तोड़ कर बीजेपी का दामन थाम लिया. कांग्रेस की सरकार गिर गई. बिहार में भी आया राम गया राम का खेल चलता रहा. नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने के लिए दलबदल हुआ.

काम नहीं आया दलबदल विरोधी कानून

1985 में केंद्र की राजीव गांधी सरकार ने दलबदल रोकने के लिए ‘दलबदल विरोधी कानून’ बनाया. राजीव गांधी सरकार द्वारा भारतीय संविधान की 10वीं अनुसूची के रूप में इस को शामिल किया गया था. इस दलबदल विरोधी अधिनियम को संसद और राज्य विधानसभाओं दोनों पर लागू किया गया जो सदन के किसी अन्य सदस्य की याचिका के आधार पर दलबदल के तहत विधायकों को अयोग्य घोषित करने के लिए विधायिका के पीठासीन अधिकारी (विधानसभा अध्यक्ष) को अधिकार देता है. दलबदल तभी मान्य होता है जब पार्टी के कम से कम दोतिहाई विधायक विलय के पक्ष में हों.

राज्यसभा चुनाव में पार्टी के उम्मीदवार से अलग किसी दूसरे प्रत्याशी को वोट दिया जाए तो विधायक की सदस्यता खुद से नहीं जाती है. यहां केवल पार्टी के चुनाव अधिकारी को वोट दिखाना होता है कि किस को वोट कर रहे है. उत्तर प्रदेश में राज्यसभा चुनाव के लिए वोट करते समय पार्टी विधायकों ने सपा नेता शिवपाल यादव को अपना वोट दिखा दिया था. जिस से यह साफ हो गया कि सपा के किन विधायकों ने वोट दिया. इन की सदस्यता खुद ही नहीं जाएगी. अब समाजवादी पार्टी विधानसभा अध्यक्ष से अपील करेगी. विधानसभा अध्यक्ष पूरा मामला मुकदमे की तरह से सुनेंगे. फिर जैसा वे फैसला देंगे, वह माना जाएगा. विधानसभा के अंदर किसी भी मामले में विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका खास होती है. उस के फैसले पर सामान्यतौर पर कोर्ट भी कोई बचाव नहीं करता है.

अंतरात्मा नहीं, लाभ-लालच है यह

दलबदल आज की समस्या नहीं है. यह हमेशा से रही है. दलबदल कानून बनने के बाद भी इस को रोका नहीं जा सका है. यह अंतरात्मा की आवाज पर नहीं, लालच और बेईमानी की वजह से किया जाता है. जिस तरह से महाभारत में शकुनी ने पांडवों के खिलाफ काम किया, लाक्षागृह, पांडवों को जुएं में धोखे से हराना जैसे बहुत सारे काम किए. पांडवों का साथ दे रहे कृष्ण ने बात तो धर्मयुद्ध की की पर कर्ण, अश्वथामा जैसों को मारने के लिए अधर्म का सहारा लिया. पौराणिक कथाओं में ऐसे तमाम उदाहरण हैं जहां अपनी जीत के लिए साम, दाम, दंड और भेद का सहारा लिया गया. समुद्र मंथन भी इस का एक उदाहरण है जिस में अमृत पीने के लिए देवताओं ने दानवों को धोखा दिया.

यहां इन घटनाओं से तुलना इसलिए जरूरी है क्योकि दक्षिणापंथी लोग खुद को बहुत पाकसाफ कहते हैं. भारतीय जनता पार्टी खुद को ‘पार्टी विद डिफरैंट’ कहती थी. उस का दावा था कि वह ‘चाल चरित्र और चेहरा’ सामने रख कर काम करती है. अगर दलबदल की घटनाओं को देखेंगे तो साफ दिखेगा कि भाजपा जीत के लिए दलबदल खूब कराती है. राज्यसभा चुनाव में हार के बाद सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने कहा, ‘भाजपा जीत के लिए किसी भी स्तर तक जा सकती है. विधायकों को तमाम तरह के लालच दे सकती है. कुछ पाने की चाह में विधायक भटक जाते हैं.’

असल में यह राजनीतिक भ्रष्टाचार का हिस्सा है. यह जनता को धोखा देने के समान है. कोई विधायक एक दल से चुनाव लड़ता है. उस दल की विचारधारा और उस के वोटर से वोट ले कर जीतता है. बाद में वह दलबदल कर दूसरे दल की खिलाफ विचारधारा से हाथ मिला लेता है. इस से उस को वोट दे कर चुनाव जिताने वाली जनता खुद को ठगी महसूस करती है. यह काम भगवाधारी करते हैं तो खड़ग सिंह और बाबा भारती की कहानी याद आती है जिस में डाकू खड़ग सिंह ने वेष बदल कर बाबा भारती को धोखा देते हुए उन का घोड़ा छीन लिया था.

Misleading Ads Case: सुप्रीम कोर्ट ने पतंजलि को दी चेतावनी, भ्रामक विज्ञापन बंद करें

Misleading Ads Case: जिस शख्स और संस्था की जैसी नीयत होती है वह गाहेबगाहे उजागर हो ही जाती है. अपनेआप को योगगुरु के रूप में देशभर में प्रसिद्ध कर के ‘सेठ’ और धंधेबाज की भूमिका में आ चुके रामदेव की एक बात फिर पोल देश की सब से बड़ी अदालत में खुल चुकी है. रामदेव के प्रोडक्ट्स पर जो टिप्पणी आई है वह गौर करने लायक है.

सिर्फ इसलिए कि आप सत्ता के साथ गलबहियां डाले फिरते हैं, देश की जनता के साथ झूठ और फरेब का खेल करने लगें और दोनों हाथों से रुपए कमाने की योजना बनाएं तो आप के गेरुए वस्त्र पर प्रश्न लग जाता है.‌ देश की जनता को यह पूछने का अधिकार बनता है कि आप ने क्यों ऐसे कपड़े पहन कर इतना नीचे गिर रहे हैं कि झूठ पर झूठ का किला खड़ा कर रहे हैं.

याद रहे कि रामदेव ने एक बार खुद कहा था- ‘मीडिया के कारण ही हमारा सम्राज्य चंद वर्षों में कहां से कहां पहुंच गया है. यही कारण है कि देश की अधिकतर मीडिया में और सारे बड़े चैनलों में उन के करोड़ों रुपए के विज्ञापन चल रहे हैं, उन का चेहरा दिखाया जा रहा है. और यह भी जनता के दिमाग में स्थापित किया जा रहा है कि रामदेव आप के स्वास्थ्य को ले कर एक ब्रैंड बन चुका है और फलांफलां दवाइयां आदि इनइन बीमारियों में कारगर हैं.

रामदेव ने दरअसल लोगों को भ्रमित किया है. यही कारण है कि देश की उच्चतम न्यायालय ने इसे बड़ी गंभीरता से लेते हुए रामदेव के संपूर्ण कारोबार पर जो टिप्पणी की है वह बताती है कि रामदेव धनदौलत के लिए कितना नीचे गिर चुके हैं कि झूठ पर झूठ बोल रहे हैं. अपने प्रोडक्ट बेच कर रुपए कमाने के लिए सब को अपनी जेब में रखने की फितरत रखते हैं. यह तो अच्छी बात है कि देश का उच्चतम न्यायालय इस पर गंभीर है वरना रामदेव क्याकुछ कर गुजर सकते हैं, इस की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता.

फिर एक दफा घेरे में

रामदेव ने एक चोला पहन रखा है, यह चोला है हिंदू धर्म के झंडा बरदार का. योगगुरु के रूप में अपनेआप को प्रतिस्थापित करने के बाद देश की जनता के मनोविज्ञान को समझ कर इन्होंने स्वास्थ्य को ले कर बड़ी संगीन धंधेबाजी शुरू कर दी और देखते ही देखते आज देश में रामदेव का एक बड़ा आर्थिक साम्राज्य खड़ा हो चुका है. यहां तक तो सब ठीक था मगर जिस तरह अपने प्रोडक्ट को बेचने के लिए रामदेव ने झूठ का सहारा लिया है वह आम जनता नहीं समझ पाती और यह मानती है कि गेरुए कपड़ों में लिपटा हुआ यह आदमी संत है, सो, झूठ नहीं बोल सकता और हमारे लिए यह कितना चिंतित है. मगर जिस तरह झूठ बोल कर प्रोडक्ट बेचा जा रहा है वह किसी बड़े अपराध से कम नहीं है. ऐसा अगर कोई आम आदमी कर रहा होता तो उस की जगह जेल के सींखचों के पीछे होती.

दरअसल, अब बीमारियों के इलाज के बारे में भ्रामक विज्ञापनों को ले कर सुप्रीम कोर्ट ने पतंजलि, रामदेव और बालकृष्ण को अदालती अवमानना का नोटिस जारी कर दिया है जो यह बताता है कि हमारे देश में अभी भी कानून का राज है और कोई कितना ही सत्ता के करीब हो जाए, बच नहीं सकता. देश की सब से बड़ी अदालत ने पतंजलि आयुर्वेद से 3 हफ्ते में जवाब मांगा है. साथ ही, भारतीय जनता पार्टी की केंद्र में बैठी सरकार, जो पतंजलि के भ्रामक विज्ञापनों के लिए कोई कार्रवाई नहीं कर रही है, को भी कोर्ट ने आड़ेहाथों लिया है.

न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति एहसानुद्दीन अमानुल्ला की पीठ ने इंडियन मैडिकल एसोसिएशन की याचिका पर सुनवाई करते हुए रोग को समूल खत्म कर देने के दावे वाले पतंजलि की दवाओं के विज्ञापनों और बिक्री पर भी अंतरिम रोक लगा दी है. रोचक और गंभीर बात यह है कि पीठ में शामिल न्यायमूर्ति एहसानुद्दीन अमानुल्ला खुद एक अखबार ले कर अदालत पहुंचे थे. इस के बाद अखबार का विज्ञापन दिखाते हुए उन्होंने पतंजलि आर्युवेद से कहा- ‘आखिर आप कोर्ट के आदेश के बाद भी यह विज्ञापन प्रकाशित करने का साहस कैसे रखते हैं.’

न्यायमूर्ति अमानुल्ला ने पतंजलि आयुर्वेद से स्पष्ट कहा कि आप कोर्ट को उकसा रहे हैं. उन्होंने कहा, ‘हम एक बहुत सख्त आदेश पारित करने जा रहे हैं. आप कैसे कह सकते हैं कि आप बीमारी को ठीक कर देंगे? हमारी चेतावनी के बावजूद आप कह रहे हैं कि हमारी चीजें रसायन आधारित दवाओं से बेहतर हैं.’ उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार को भी इस पर कार्रवाई करनी चाहिए थी.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पूरे देश को ऐसे विज्ञापनों के जरिए भ्रमित किया जा रहा है और केंद्र सरकार अपनी आंखें बंद कर के बैठी है. यह बेहद हैरानी की बात है. कोर्ट ने कहा कि सरकार को तत्काल कुछ कार्रवाई करनी होगी. अदालत ने केंद्र सरकार से भी 3 हफ्ते में यह बताने को कहा है कि उस ने क्या कार्रवाई की है. सुनवाई के दौरान जजों ने पतंजलि के वकील से कहा कि आप ने एलोपैथी पर टिप्पणी कैसे की जब हम ने मना किया था? इस पर पतंजलि ने पीठ को बताया कि हम ने 50 करोड़ रुपए की एक रिसर्च लैब बनाई है. इस पर जजों ने पतंजलि से कहा कि आप केवल साधारण विज्ञापन दे सकते हैं.

अदालती पीठ ने कहा कि हम 2 लोगों को पक्षकार बनाएंगे, जिन की तसवीर विज्ञापन पर हैं, उन्हें नोटिस जारी करेंगे. उन्हें अपना जवाब व्यक्तिगत दाखिल करना होगा. इस संपूर्ण प्रकरण को का ध्यान से देखा जाए तो स्पष्ट है कि नरेंद्र मोदी की सरकार भगवाई रामदेव की करतूतों के प्रति अपनी आंखें बंद किए हुए है.

परदे: भाग 3- क्या स्नेहा के सामने आया मनोज?

Writer- अपूर्वा चौमाल

इधर न तो समारोह मनोज के शहर में था और न ही उस का नाम विजेताओं की सूची में था, इसलिए स्नेहा को विश्वास नहीं था कि वह आएगा. लेकिन वह यह नहीं जानती थी कि वह मनोज के लिए सिर्फ एक आभासी मित्र ही नहीं, बल्कि एक पहेली और चुनौती भी है, इसलिए चाहे जो हो जाए, इस पहेली को सुल झाने और चुनौती पर विजय पाने को मनोज तो आएगा ही आएगा.

आखिर समारोह का दिन आ ही गया. मनोज नियत समय से कुछ पहले ही समारोह स्थल पर पहुंच गया, ताकि स्नेहा के साथ कुछ व्यक्तिगत समय गुजार सके. उसे बता सके कि वह उस की कल्पना के कितनी पास, कितनी दूर है. देख सके कि उस के कमैंट्स जैसी धार उस की बातों में भी है या नहीं.

समारोह स्थल चूंकि दूसरे शहर में था, इसलिए मनोज को वहां कोई नहीं जानता था. वह चुपचाप पीछे की कुरसी पर जा कर बैठ गया और वहां मौजूद हर महिला का गौर से अवलोकन करने लगा.

हालांकि सभ्य समाज में इसे अभद्रता ही कहा जाएगा, लेकिन दिल के हाथों मजबूर होना भी शायद इसी को कहा जाता होगा.

मनोज ने पूरे सभागार में निगाह घुमा ली. हौल ही में लगभग 20 महिलाएं मौजूद थीं, लेकिन किसी में भी उसे उस की वाली स्नेहा दिखाई नहीं दी या शायद वह उसे पहचान ही नहीं पा रहा था. उसे कोई आंख उत्सुकता से कहीं तलाशती हुई भी महसूस नहीं हई.

‘शायद स्नेहा को ले कर मैं कुछ अधिक ही सोच रहा हूं,’ विचार कर मनोज का उत्साह कुछ उतार पर आया, तभी कार्यक्रम के विधिवत शुरू होने

की घोषणा हुई और सभी आगंतुक अपनीअपनी जगह पर बैठ गए. हारा हुआ मनोज पिछली पंक्ति में कोने वाली सीट पर बैठ गया. उस की निगाहें अब स्टेज पर टिकी थीं.

‘अब अधिक देर नहीं है. अब तो सामने आओगी ही,’ मनोज मन ही मन मुसकराया.

‘लेकिन शर्त तो हार ही गए न पायलट बाबू? खुद से तो पहचान नहीं पाए?’ उस के मन की चुलबुली स्नेहा अचानक चहकी तो मनोज ने मुड़ कर पीछे देखा मानो चोरी पकड़ी गई हो.

‘इतना तो बता दे कोई हमें, क्या प्यार इसी को कहते हैं,’ हौल में किसी के मोबाइल की रिंग टोन बजी तो मनोज अकबका गया. जैसे उस के मनोभावों को लक्ष्य कर के ही यह गीत बजाया गया हो. उसे खुद पर इतना गुस्सा आज से पहले कभी नहीं आया था.

कार्यक्रम शुरू हो गया. एकएक कर अतिथि अपना स्थान लेने लगे. औपचारिक स्वागत भाषण के बाद अतिथियों ने सभागार को संबोधित किया. उन के संबोधन का एकएक पल मनोज को बहुत भारी लग रहा था. उस की नजर अब भी सभागार में मौजूद महिलाओं पर ही अटकी हुई थी.

अध्यक्ष महोदय के अभिभाषण से पहले पुरस्कार वितरण का कार्यक्रम शुरू हुआ. मनोज ने राहत की सांस ली और सतर्क हो कर बैठ गया. उस ने अपनी सांसों को संयत करने का प्रयास भी किया, ताकि अचानक स्नेहा से सामना होने पर कहीं दीवानगी में उखड़ न जाएं.

सब से पहले प्रथम विजेता और फिर द्वितीय व तृतीय विजेता को पुरस्कृत किया गया. मनोज की हृदय गति फिर तेज होने लगी. उस की आंखें एक बार फिर पूरे सभागार में घूम कर वापस उस तक लौट आईं. अब स्नेहा का नाम पुकारा जाएगा. मनोज कुरसी पर बिलकुल सावधान की मुद्रा में बैठ गया. स्नेहा की  झलक में वह एक पल की भी देरी नहीं करना चाहता था.

‘‘और अब, सांत्वना पुरस्कार के लिए मैं दिल्ली से स्नेहा को आमंत्रित करती हूं,’’ मंच संचालक के इतना कहते ही मनोज अपनी कुरसी से लगभग उठ ही खड़ा हुआ.

स्नेहा के मंच की तरफ बढ़ने के साथ ही संचालिका उस का परिचय देती जा रही थी और सभागार करतल ध्वनि से गुंजित हो रहा था, लेकिन मनोज को कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था. उस की आंखें तो मंच की तरफ कदम बढ़ाती उस मोहिनी के साथसाथ सफर पर निकल पड़ीं. उस ने स्नेहा को देखा तो देखता ही रह गया.

हलके गुलाबी रंग की साड़ी ने उस के चेहरे की रंगत को और भी अधिक गुलाबी कर दिया था. कंधे तक कटे बाल और हलका, लेकिन सुरुचिपूर्ण, मेकअप उस के व्यक्तित्व को बेहद गरिमामय बना रहा था. उस की चाल में गजब का आत्मविश्वास था.

मंच पर पहुंचते ही उस ने बेहद नजाकत से अपने बालों में उंगलियां फिराईं और एक हलके से  झटके से उन्हें अपने चेहरे से हटा कर कंधे के पीछे कर दिया.

‘उफ्फ… इतना सम्मोहक कोई कैसे हो सकता है,’ मनोज पसीनेपसीने हो गया. वह अपनी कुरसी से उठ कर स्टेज के जरा और पास गया. उस ने अपना मोबाइल निकाला और कैमरे को स्नेहा के चेहरे पर फोकस कर के जूम किया. फोटो लेने वालों की भीड़ का हिस्सा बन, 2-4 तसवीरें स्नेहा की खींच कर मनोज थके कदमों से सभागार से बाहर निकल गया.

औटो कर के मनोज बसस्टैंड की तरफ चल दिया. औटो में लगे शीशे में मनोज को  झक्क दाढ़ी और सन जैसे बाल चिढ़ा रहे थे. कहां स्नेहा और कहां वह… उस ने अपनी छड़ी की तरफ देखा और घबरा कर आंखें बंद कर लीं. पलकें निचोड़ीं तो बेबस टपक गईं.

‘क्या हुआ? हकीकत का सामना नहीं कर पाए ना?’ खुद ने खुद से ही परिहास किया.

‘कहां उगती भोर और कहां ढलती रात,’ अपने परिहास को स्वीकारता, स्नेहा और स्वयं को उपमा देता मनोज फीका सा हंस दिया.

बसस्टैंड पर उतरते ही देखा कि उस के शहर को जाने वाली बस खड़ी थी. मनोज ने टिकट लिया और खिड़की के पास वाली सीट पर बैठ गया.

आदतन नैट चालू किया तो टनटन करते हुए कई मैसेज एकसाथ आने लगे. कुछ संदेश स्नेहा के भी थे.

‘‘आज आप को पक्का कौआ काटेगा. वादा कर के भूल जाते हो,’’ उस ने गुस्से वाली इमोजी के साथ लिखा था.

‘‘सिर्फ आप से किए अपने वादे के कारण ही इतनी दूर आ रहा था, लेकिन अचानक ही तबीयत खराब होने के कारण बस से वापस उतरना पड़ा. यकीन न हो तो टिकट देख लो.

‘‘और हां, पुरस्कार में से मेरा हिस्सा यानी टिकट के पैसे मेरे खाते में डलवा देना,’’ 2-3 तेज हंसी वाली इमोजी जोड़ते हुए मनोज ने लिखा. इस के साथ ही बस के टिकट की फोटो भी संलग्न कर दी. जवाब में तुरंत दुखी चेहरे वाली 2 इमोजी हाजिर थीं.

दूसरे संदेश में लिखा था, ‘‘दुनिया गोल है बाबू मोशाय. कभी न कभी तो टकराओगे ही.’’

मनोज ने अंगूठे वाला हाथ दिखाते हुए स्नेहा की बात से सहमति जताई और मोबाइल में दूसरे मैसेज देखने लगा.

ग्रुप में स्नेहा और मनोज की चुलबुली चैटिंग आज भी जारी है. मनोज चाह कर भी डीपी पर लगी 30 बरस पुरानी अपनी तसवीर नहीं हटा पाया. जीने के लिए कभीकभी परदों का बने रहना भी जरूरी है.

‘चिट्ठी आई है’ का पैगाम सुनाने वाले गजल गायक पद्मश्री पंकज उधास का निधन

 Pankaj Udhas Death: ‘चिट्ठी आई है…’ गीत को सुनते ही गजल गायक पद्मश्री पंकज उधास का चेहरा सामने आ जाता है, जिन का आज पैंक्रियाज कैंसर की बीमारी के बाद निधन हो गया. वे पैंक्रियाज कैंसर से जूझ रहे थे. लता मंगेशकर को अपना गुरु मानने वाले अपनी मखमली आवाज के लिए मशहूर गजल गायक पंकज उधास एक बेहतरीन गायक ही नहीं बल्कि बेहतरीन इंसान भी थे. वे हमेशा प्रयास करते थे कि किसी भी गरीब का नुकसान न होने पाए. वे हमेशा लोगों की मदद के लिए तैयार रहते थे.
उन्होंने अपनी संगीत बिरादरी अर्थात गायकों, संगीतकारों व गीतकारों को रौयलिटी दिलाने की लड़ाई भी लता मंगेशकर, आशा भोंसले, संजय टंडन, शैलेंद, शान व सोनू निगम के साथ मिल कर सदा लड़ते रहे. जब इंडियन सिंगर्स राइट एसोसिएशन यानी कि इसरा का गठन नहीं हुआ था, सिर्फ एक विचार आया था, तभी से पंकज उधास इस के लिए कार्य करने लगे थे.
अब जबकि ‘इसरा’ और ‘इसामरा’ के चलते गायक, संगीतकार को रौयलिटी मिलने लगी है, तो इस के लिए पंकज उधास के अद्वितीय योगदान को भुलाया नहीं जा सकता. वे अपनी जिंदगी के अंतिम समय यानी कि आज भी ‘इसरा’ व ‘इसामरा’ के निदेशक मंडल के सदस्य थे.
 गायकों व संगीतकारों के लिए निस्वार्थ भाव से किया काम
मुझे आज भी याद है, 23 अप्रैल, 2023 का दिन जब इंडियन सिंगर्स राइट एसोसिएशन यानी कि ‘इसरा’ और संगीत कंपनियों की संस्था इंडियन म्यूजिक इंडस्ट्री यानी कि आईएमए के बीच केद्रीय मंत्री पीयूष गोयल की मौजूदगी में गायकों व संगीतकारों की रौयलिटी को ले कर समझौते पर हस्ताक्षर हुए थे. तब उस दिन पंकज उधास कैंसर से पीड़ित होने के बावजूद ‘मास्क’ लगा कर पहुंचे थे, जबकि इसरा की मानद चेयरमैन आशा भोंसले इस खास अवसर पर नहीं पहुंची थीं. उन के लिए 2 घंटे इंतजार किया गया, बाद में बताया गया कि वे बीमार हैं, इसलिए नहीं आ पाईं. पर कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी से जूझते हुए भी पंकज उधास वहां पर समय से पहुंच गए थे. उस वक्त उन्होंने हम से कहा था, ‘बीमारी तो अपना काम करती रहती है, इलाज चल रहा है. पर जिस हक की लड़ाई हम अपनी गुरु लता मंगेशकर के साथ मिल कर 1991 से अब तक लड़ते आए हैं, वह अब हम ने जीत ली है. आज ऐतिहासिक समझौता हो रहा है तो आज मैं अपने साथी गायकों व संगीतकारों के साथ कैसे मौजूद न रहता. मैं ने बीमारी के बावजूद इस ऐतिहासिक समझौते का साक्षी बनने का फैसला करते हुए आया हूं. मैं अपने उत्तरदायित्व से मरते दम तक मुंह नहीं मोड़ सकता.’
उसी दिन पंकज उधास ने हम से आगे कहा था, ‘मैं इस फैसले/समझौते को ऐतिहासिक ही कहूंगा क्योंकि जब से हम पैदा हुए हैं तब से हम यह बात सुन रहे थे कि गायकों को रौयलिटी मिलनी चाहिए. पर हम ये बातें सिर्फ सुन रहे थे. आज भी मन मानने को नहीं हो रहा है कि यह बात सच हो गई है जिस के लिए हम 1991 से लड़ाई लड़ रहे थे. हम ने जिस ख्वाब को वर्षों पहले देखा था, वह आज पूरा हो गया है. इस के लिए मैं संजय टंडन व गायकों का भी आभारी हूं कि आज गायक समुदाय को हम एक ऐतिहासिक मुकाम पर ले आए हैं.’

 इसरा और इसामरा के सीईओ संजय टंडन ने क्या कहा

पंकज उधास के निधन की खबर से सब से अधिक दुखी इसरा और इसामरा के सीईओ संजय टंडन कहते हैं, ‘‘मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा है कि पंकजजी अब हमारे बीच नहीं हैं. वे तो संगीत से जुड़े लोगों को रौयलिटी दिलवाने में सब से बड़े संबल थे. पंकजजी मेरे निजी दोस्त हैं. वे तो रौयलिटी की लड़ाई के पहले दिन से, जब इसरा का गठन नहीं हुआ था, तब से यानी कि 1991 से आज तक हमारे साथ थे. जहांजहां हम चाहते थे कि वे हमारे साथ चलें, जहां भी हम अपना प्रेजैंटेशन देने जाते थे, वहांवहां वे हमारे साथ होते थे. वे अपने अनुभवों से इतना योगदान देते थे कि कई बार हम अचंभित हो जाते थे कि उन्हें रचनात्मक पहलुओं के साथ ही कानून व समाजिकता का इतना ज्ञान कैसे है.
“कला के हिसाब से उन का जो योगदान रहा है उस की भरपाई नहीं हो सकती. अंतिम समय तक वे इसरा यानी कि ‘इसामरा’ में पैशिनेट थे. ऐसे लोग कम ही मिलेंगे. मुझे दुख इस बात का है कि जितने भी गुणी लोग हैं वे हम से बिछुड़ते जा रहे हैं. कुछ समय पहले हमारे निदेशक एस पी बाला सुब्रमण्यम हमें छोड़ कर चले गए. पंकजजी आज भी हमारे निदेशक हैं. वे हमेशा चाहते थे कि कलाकार को हर हाल में रौयलिटी मिलनी चाहिए. वे हंसमुख व मैच्योर थे. वे अपने विचारों से हमें अवगत कराते हुए एक ही बात कहते थे कि ऐसा कुछ नहीं होना चाहिए जिस से किसी गरीब कलाकार का नुकसान हो जाए. ऐसे लोग बहुत कम मिलते हैं जो अपने बारे में सोचने के बजाय सभी के हित के बारे में सोचते हों.
“मैं तो 3 दिनों पहले ही उन से मिलने उन के घर पर गया था. तब ढेर सारी बातें हुई थीं. उस वक्त भी संगीत जगत को बेहतर बनाने को ले कर कई सलाह दी थीं. उन की आदत थी कि हर बार वे यह जरूर कहते थे कि यह मेरी निजी राय है, बाकी आप समझ लो. इसलिए मुझे यकीन नहीं हो रहा है कि अब वे हमारे बीच नहीं हैं.”

 जब  गायिका मंजू भाटिया की बात का बुरा नहीं माना

पंकज उधास की विनम्रता का कोई भी इंसान कायल हो सकता है. जब वे गजल गायकी में चरम पर थे, उस वक्त भी अपने बारे में कही गई बात का वे बुरा नहीं मानते थे. बौलीवुड में आम राय है कि हर गजल गायक शराब पी कर ही स्टेज पर गजल गायकी करने बैठता है. और पंकज उधास ने शराब को ले कर जितनी भी गजलें लिखीं, वे सभी आज भी सर्वाधिक लोकप्रिय हैं.
पंकज उधास ने तो भजन भी गाए हैं. एक बार उन दिनों उभरती हुई गजल गायिका मंजू भाटिया, जो कि उस दौर के भजन टीवी चैनलों में स्टार बनी हुई थी, ने एक पत्रकार से बातचीत करते हुए कह यों ही दिया था कि यहां तो गजल छोड़िए, भजन भी शराब पी कर गाते हैं. उस पत्रकार ने मंजू भाटिया के इंटरव्यू में इस बात को अपनी पत्रिका में छाप दिया कि पंकज उधास तो गजल के साथ ही भजन भी शराब पी कर गाते हैं. जब मंजू भाटिया ने पढ़ा तो वे बहुत परेशान हो गईं. उन्हें लगा कि जिस तरह से छापा गया, वैसा कहने का उन का कोई मकसद नहीं था और अब पंकज उधासजी बुरा मान जाएंगे. मंजू भाटिया ने पत्रकार को फोन किया कि मैं ने यह बात छापने के लिए नहीं कहा था. अब मैं पंकजजी का सामना कैसे करूंगी.
पत्रकार ने कह दिया कि पंकज जी बुरा नहीं मानेंगे. लेकिन मंजू भाटिया को ग्लानि हुई और परेशान हो कर उन्होंने पंकज उधास को फोन लगाया. तब तक पंकज उधास को इस इंटरव्यू की भनक लग चुकी थी. मंजू भाटिया पंकज उधास से कुछ कहतीं, उस से पहले ही मंजू की घबराई हुई आवाज सुन कर पंकज उधास ने कहा, ‘आप इतना घबराई व डरी हुई क्यों हैं. मैं ने इंटरव्यू पढ़ा. मुझे बुरा नहीं लगा. यहां इस तरह की बातें चलती रहती हैं. मेरे बारे में पत्रकार अकसर बुरा लिखते रहते हैं. आप बिलकुल फिक्र न करें.’
पंकज उधास की बातें सुन कर मंजू भाटिया को बड़ा सकून मिला और उन्होंने यह बात खुद फोन कर उस पत्रकार को बताई थी कि उन्होंने अपनी जिंदगी में ऐसा कलाकार नहीं देखा.
पंकज उधास मैच्योर, हंसमुख और ऐसे विनम्र इंसान थे, जो कि हर किसी की मदद करने, उसे आगे बढ़ाने के लिए तत्पर रहते थे. उन का जाना संगीत जगत की बहुत बड़ी क्षति है.

 मनोज देसाई उवाच : मैं ने अपना सहपाठी और 50 वर्ष का साथी खो दिया

पंकज उधास के सहपाठी और मशहूर फिल्म वितरक मनोज देसाई ने पंकज उधास को याद करते हुए कहा, ‘‘मुझे यकीन ही नहीं हो रहा है कि हम ने पंकज उधास को खो दिया. मैं पंकज उधास को 50 से अधिक वर्षों से जानता था. हम एक ही कालेज में पढ़ते थे और मेरा पंकज उधास के परिवार के साथ व्यक्तिगत संबंध है. मैं पंकज उधास के अनगिनत गजल स्टेज शो का भी हिस्सा रहा हूं. हर बार मैं ने एंजौय किया. पंकजजी के निधन की खबर अविश्वसनीय है पर प्रकृति के आगे किसी की नहीं चलती.’’

कैसे और कौन बन सकता जामा मसजिद का शाही इमाम, कितनी मिलती है सैलरी

शब ए बरात के दिन दिल्ली की जामा मसजिद को नया शाही इमाम मिल गया. शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी ने दस्तारबंदी (पगड़ी पहनाने की रस्म) समारोह में अपने बेटे सैयद शाबान बुखारी को जामा मसजिद का नया इमाम घोषित किया है. इस से पहले 29 वर्षीय सैयद शाबान बुखारी जामा मसजिद के नायब इमाम थे.

शाबान को 2014 में नायब इमाम की जिम्मेदारी मिली थी. उस के बाद से ही वे देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी धर्म से जुड़ी ट्रेनिंग ले रहे थे. शाही इमाम के पद पर होने के लिए इसलाम से जुड़ी तमाम तरह की जानकारी होना जरूरी होता है.

एमिटी यूनिवर्सिटी के छात्र रहे सैयद शाबान बुखारी की दस्तारबंदी होने के साथ ही वे जामा मसजिद के 14वें इमाम बन गए हैं. उन के परिवार ने 13 पीढ़ियों से जामा मसजिद की अध्यक्षता की है. गौरतलब है कि जामा मसजिद का निर्माण वर्ष 1650 में मुगल बादशाह शाहजहां द्वारा शुरू करवाया गया था. इस को बनने में 6 साल लगे और 1656 में यह पूरी तरह बन कर तैयार हुई थी. तब शाहजहां ने बुखारा (जो अब उज्बेकिस्तान में है) के शासकों को इस मसजिद के लिए एक इमाम की जरूरत बताई थी. उस के बाद इसलामिक धर्मगुरु सैयद अब्दुल गफूर शाह बुखारी को भारत भेजा गया था. उन को 24 जुलाई, 1656 को जामा मसजिद के शाही इमाम का खिताब दिया गया.

तब से आज तक उन्हीं के परिवार से दिल्ली की जामा मसजिद में इमाम बनते रहे हैं. इन्हें आज भी शाही इमाम का दर्जा हासिल है. ‘शाही’ का मतलब होता है ‘राजा’ और ‘इमाम’ वह होते हैं जो मसजिद में नमाजियों को नमाज अदा कराने के नेतृत्व करते हैं. इस तरह शाही इमाम का अर्थ होता है राजा की ओर से नियुक्त किया गया इमाम.

वर्तमान इमाम शाबान बुखारी

सैयद शाबान बुखारी का जन्म 11 मार्च, 1995 को दिल्ली में हुआ था. उन्होंने एमिटी यूनिवर्सिटी से सोशल वर्क में मास्टर डिग्री हासिल की है. इस के अलावा इसलामी धर्मशास्त्र में आलमियत और फाजिलियत भी की है. सैयद शाबान बुखारी ने इसलाम की बुनियादी तालीम के साथसाथ धर्म से संबंधित व्यापक अध्ययन मदरसा जामिया अरबिया शम्सुल उलूम, दिल्ली से हासिल किया है.

शाबान सामाजिक कार्यों में भी सक्रिय रूप से भाग लेते हैं और विभिन्न समुदायों के बीच शांति व सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए भी काम करते हैं. चूंकि शाबान युवा हैं, ऐसे में वे युवा वर्ग को शिक्षा और धर्म से जोड़ने में काफी मददगार साबित हो सकते हैं. वे जामा मसजिद के अब तक के सब से युवा शाही इमाम हैं.

13 नवंबर, 2015 को शाबान बुखारी ने गाजियाबाद की एक हिंदू लड़की से शादी की. शुरुआत में उन का परिवार इस शादी के लिए राजी नहीं था लेकिन शाबान की मोहब्बत को देखते हुए बाद में पूरा परिवार शादी के लिए राजी हो गया और 13 नवंबर, 2015 को धूमधाम से उन की शादी हुई. शादी के बाद 15 नवंबर को महिपालपुर के एक फार्महाउस में ग्रैंड रिसैप्शन दिया गया, जिस में कई राजनीतिक हस्तियां शामिल हुई थीं. शाबान के फिलहाल 2 बच्चे हैं और निकाह के बाद उन की पत्नी का नाम शबानी रखा गया है.

कैसे बनते हैं शाही इमाम

उत्तराधिकार संबंधी किसी भी अप्रिय विवाद से बचने के लिए जामा मसजिद के इमाम अपने जीवनकाल में ही अपने उत्तराधिकारी की घोषणा कर देते हैं. मौजूदा इमाम सैयद अहमद बुखारी को वर्ष 2000 में नायब इमाम घोषित किया गया था जब उन के पिता सैयद अब्दुल्ला बुखारी गंभीर रूप से अस्वस्थ थे. बाद में उन का एम्स में निधन हो गया था. इस बार, नायब इमाम के पद के लिए इमाम सैयद अहमद बुखारी के 2 भाइयों के नाम भी चर्चा में थे, लेकिन दस्तारबंदी सैयद शाबान बुखारी की हुई और वे सर्वसम्मति से शाही इमाम घोषित किए गए.

शाही इमाम के कार्य

जो व्यक्ति मसजिद में नमाज पढ़ाता है उसे इमाम कहा जाता है. इमाम आम तौर पर एक पुरुष धार्मिक नेता होता है जो इस्लामी शिक्षाओं का जानकार होता है और प्रार्थना में मंडली का नेतृत्व करने के लिए जिम्मेदार होता है. सामूहिक प्रार्थनाओं का नेतृत्व करने के अलावा, इमाम समुदाय को धार्मिक मार्गदर्शन और शिक्षा भी प्रदान कर सकता है और विवाह एवं अंतिम संस्कार जैसे धार्मिक कर्तव्यों का पालन कर सकता है.

कुछ देशों में, एक महिला केवल महिलाओं वाली मसजिद या समुदाय में इमाम के रूप में काम कर सकती है, लेकिन कई मुसलिम देशों और समाजों में यह आम बात नहीं है. भारत में तो शायद ही कोई महिलाओं की मसजिद हो जहां महिला इमाम हो.

मुगलकाल में जामा मसजिद के शाही इमाम के 2 प्रमुख काम थे- मुगल सम्राटों का राज्याभिषेक करवाना और जामा मसजिद में नमाज के सुचारु संचालन को देखना. जामा मसजिद के पहले इमाम सैयद गफूर बुखारी ने बादशाह औरंगजेब का राज्याभिषेक किया था. मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर का राज्याभिषेक 30 सितंबर, 1837 को जामा मसजिद के 8वें इमाम मीर अहमद अली शाह बुखारी की सरपरस्ती में हुआ था.

खैर, अब राजशाही तो खत्म हो गई है, इसलिए जामा मसजिद के इमाम का मुख्य काम नमाज अदा करवाना ही रह गया है. कई बार वे राजनीतिक मामलों में भी अपनी राय रखते हैं. चुनावी दौर में मुसलिम वोटों के लिए राजनेता इन के आगेपीछे रहते हैं. इमाम अहमद बुखारी के पिता अब्दुल्ला बुखारी अलगअलग मुसलिम दलों को अपना समर्थन दे चुके हैं.

अहमद बुखारी के पिता ने 1977 में जनता पार्टी और 1980 में कांग्रेस को भी समर्थन दिया था. उस के बाद से देश की अलगअलग पार्टियां शाही इमाम का समर्थन लेने जामा मसजिद के दर पर आने लगीं. इन में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ ही सोनिया गांधी के भी नाम शामिल हैं.

वर्ष 2004 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई को भी शाही इमाम के समर्थन की जरूरत पड़ी थी. तब बुखारी ने मुसलमानों से भाजपा को समर्थन देने की अपील की थी. वर्तमान समय में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से भी शाही इमाम के अच्छे संबंध हैं और केजरीवाल सरकार की तरफ से दिल्ली की मसजिदों के इमामों को आर्थिक मदद दी जाती है, जिस पर अन्य राजनीतिक दलों, खासकर भारतीय जनता पार्टी, को घोर आपत्ति है और इस संबंध में मामला अदालत में लंबित भी है.

कौन उठाता है मसजिद का खर्च

मसजिद के रखरखाव, रंगरोगन, बिजलीपानी और इमामों को सैलरी वक्फ बोर्ड द्वारा जाती है. सुप्रीम कोर्ट ने 1993 में अखिल भारतीय इमाम संगठन के अध्यक्ष मौलाना जमील इलियासी की याचिका पर सुनवाई करते हुए वक्फ बोर्ड को उस के मैनेजमैंट वाली मस्जिदों में इमामों को वेतन देने का निर्देश दिया था.

दिल्ली, हरियाणा और कर्नाटक में मसजिदों के इमाम को वक्फ बोर्ड सैलरी देता है. कई राज्यों में वक्फ बोर्ड कुछ मसजिदों के इमाम को काफी पहले से ही सैलरी दे रहा था, खासकर उन मस्जिदों के इमाम को जिन की पुरातत्व विभाग देख रेख करता है और जो ऐतिहासिक मसजिदें हैं.

मुसलिम पर्सनल लौ बोर्ड के सदस्य सैयद कासिम रसूल इलियास कहते हैं कि वक्फ बोर्ड सभी मसजिदों के इमाम को सैलरी नहीं देता है बल्कि अपनी ही मसजिदों के इमामों को सैलरी देता है, बाकी मसजिदों के इमामों को मसजिद कमेटियां तनख्वाह देती हैं. वक्फ की जो भी संपत्तियां हैं, वो सभी मुसलिमों की हैं. ऐसे में वक्फ की आय को सिर्फ मुसलिमों पर ही खर्च किया जा सकता है. इसीलिए वक्फ बोर्ड अपनी मसजिदों के इमामों से ले कर गरीबों-यतीमों तक को मदद देने का काम करता है.

दिल्ली में वक्फ प्रौपर्टी काफी प्राइम लोकेशन पर हैं, जिन के किराए वसूले जाएं तो सरकार जितना फंड देती है, वह रकम उस से कई गुना ज्यादा होगी. वक्फ बोर्ड अपनी संपत्तियों के किराए या फिर दरगाह से होने वाली आमदनी से अपने कर्मचारियों और अपनी मसजिदों के इमाम-मुअज्जिन को सैलरी देता है.

इस के अलावा बोर्ड यतीमों और गरीबों को पैंशन के तौर पर आर्थिक मदद देता है. कुछ राज्यों की सरकारें वक्फ संपत्तियों के संरक्षण के लिए फंड देती हैं, जिसे बोर्ड कई जगह मदद में खर्च करता है. दिल्ली सरकार लगभग 62 करोड़ रुपए का अनुदान प्रतिवर्ष वक्फ बोर्ड को देती है जबकि वक्फ बोर्ड की अपनी खुद की आय सालाना 4 करोड़ रुपए से ज्यादा है. सरकार द्वारा दिया गया फंड वक्फ संपत्तियों के संरक्षण के लिए होता है. बोर्ड इस फंड को अलगअलग मद में खर्च करता है.

वक्फ का फाइनैंस मौडल

वक्फ बोर्ड की आय का स्रोत अपनी वक्फ संपत्तियां हैं. यह आय मसजिदों में बनी दुकानें-प्रौपर्टी के किराए, दरगाह और खानकाह के जरिए होती है. वक्फ की जिस संपत्ति से आय होती है उस संपत्ति की स्थानीय कमेटी 93 फीसदी को अपने पास रखती है, सिर्फ 7 फीसदी आय को राज्य वक्फ बोर्ड को देती है, जिस में एक फीसदी सैंट्रल वक्फ काउंसिल को जाता है. स्थानीय कमेटी 93 फीसदी को वहां के रखरखाव पर खर्च करती है जबकि राज्य वक्फ बोर्ड 7 फीसदी में से कर्मचारियों और प्रबंधन पर पैसा खर्च करता है.

उदाहरण के तौर पर बहराइच की दरगाह में सालाना 7 करोड़ रुपए आय होती है, जिस में करीब साढ़े 6 करोड़ रुपए दरगाह के रखरखाव पर खर्च होते हैं और और 49 लाख रुपए स्टेट वक्फ बोर्ड को जाते हैं. स्टेट बोर्ड 49 लाख में से 7 लाख रुपए सैंट्रल वक्फ काउंसिल को देता है. ऐसे ही दिल्ली की निजामुद्दीन दरगाह, महरौली दरगाह से होने वाली आय का हिस्सा वक्फ बोर्ड को मिलता है. वक्फ बोर्ड इसी आय में से अपनी मसजिदों के इमामों और मोअज्जिनों को सैलरी देता है.

किसकिस राज्य में इमाम को सैलरी

दिल्ली ही नहीं, बल्कि देश के लगभग सभी राज्यों में वक्फ बोर्ड अपनी मसजिदों के इमामों को सैलरी देते हैं. तेलंगाना में जुलाई 2022 से इमामों और मुअज्जिनों को हर महीने 5,000 रुपए मानदेय दिया जा रहा है. मध्य प्रदेश वक्फ बोर्ड इमाम को 5,000 रुपए महीना और मुअज्जिनों को 4,500 रुपए महीना देता है.

हरियाणा में वक्फ बोर्ड अपनी मसजिदों के 423 इमामों को प्रतिमाह 15,000 रुपए का वेतन देता है. बिहार में साल 2021 से सुन्नी वक्फ बोर्ड अपनी मसजिदों के इमाम को 15,000 और मोअज्जिनों को 10,000 रुपए मानदेय दे रहा है. हालांकि, बिहार स्टेट शिया वक्फ बोर्ड 105 मसजिदों के इमाम को 4,000 और मोअज्जिनों को 3,000 रुपए मानदेय दे रहा है.

कर्नाटक वक्फ बोर्ड ने पंजीकृत मसजिदों के इमाम को सैलरी देने का स्लैब बना रखा है, जिस में बड़े शहरों में इमाम को 20,000, नायब इमाम को 14,000, मोअज्जिन को 14,000, खादिम को 12,000 और मुअल्लिम को 8,000 रुपए देने का प्रावधान है. ऐसे ही शहर की मसजिद के इमाम को 16,000, कसबे या नगर की मसजिद के इमाम को 15,000 और ग्रामीण मसजिद के इमाम को 12,000 रुपए दिए जाते हैं. इसी तरह पंजाब में भी वक्फ बोर्ड की मसजिद के इमाम को सैलरी दी जाती है.

उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड वक्फ बोर्ड अपनी मसजिदों के इमाम और मुअज्जिन को सैलरी नहीं देते. उत्तर प्रदेश में कुछ चुनिंदा मस्जिदों के इमाम को सैलरी दी जाती है, जो खासकर पुरातत्व विभाग के अधीन हैं. इन में ताजमहल मसजिद, लखनऊ में राजभवन की मसजिद, फतेहपुर सीकरी जैसी मसजिद के इमाम को सैलरी यूपी वक्फ बोर्ड देता है. वहीं, बाकी मसजिदों के इमाम को स्थानीय मसजिद कमेटी द्वारा सैलरी दी जाती है.

दिल्ली सहित कुछ राज्य सरकारें भी आर्थिक मदद करती हैं. बिहार सरकार सालाना 100 करोड़ रुपए का फंड वक्फ बोर्ड को अनुदान के तौर पर देती है. पश्चिम बंगाल की सरकार ने साल 2012 से ही इमामों को हर महीने 2,500 रुपए देने का ऐलान किया था और तब से यह सिलसिला जारी है.

मंदिर के पुजारी को क्यों नहीं मिलती सैलरी

यह विवाद और मांग काफी समय से जारी है कि जब मसजिद के इमाम को सैलरी मिलती है तो मंदिर के पुजारियों को क्यों सैलरी नहीं दी जाती है. हालांकि उत्तर प्रदेश में योगी सरकार ने अब मंदिर के पुजारियों के लिए भी सैलरी का प्रावधान किया है और मोदी सरकार भी देशभर के मंदिरों में पुजारियों की तैनाती व सैलरी की योजना पर काम कर रही है.

पश्चिम बंगाल में ममता सरकार पुजारियों को सैलरी देती है, जो कि जनता के टैक्स से दिया जाता है. हालांकि मंदिर के पुजारियों को सैलरी न दिए जाने के पीछे कई कारण हैं. मंदिरों में प्रतिदिन जितनी दानदक्षिणा पुजारियों को मिलती है, उतना पैसा न तो मसजिद के इमाम को मिलता है और न चर्च के पादरी को.

गौरतलब है कि बड़ी संख्या में दानपात्रों की व्यवस्था मंदिरों में होती है और पूजा के लिए जाने वाला प्रत्येक मनुष्य उस में अपनी हैसियत के अनुसार पैसा डालता ही है. इस के अलावा मंदिर में फलमिठाई भी खूब चढ़ाया जाता है और दक्षिणा के रूप में पुजारियों को नए कपड़े व पैसे देने का भी चलन है. दक्षिण के मंदिरों में तो लोग सोनेचांदी के आभूषण तक चढ़ाते हैं. इन में से बहुत बड़ा हिस्सा वहां के पंडितों के पास जाता है.

वक्फ संपत्तियों के तहत आने वाली मसजिदों की देखरेख वक्फ बोर्ड करता है, जो एक स्वायत्त संस्था है और स्टेट सरकार के अधीन आती है. वक्फ संपत्तियों से होने वाली आय वक्फ बोर्ड को जाती है, जिस के जरिए वक्फ अपनी मसजिदों के इमाम को सैलरी देता है. वहीं, मंदिर के पुजारियों को सैलरी इसलिए सरकार द्वारा नहीं दी जाती, क्योंकि मंदिर और आश्रम का संचालन निजी ट्रस्ट द्वारा किया जाता है.

मंदिरों से होने वाली आय को ट्रस्ट अपने पास रखता है और उस से अपने मंदिरों के पुजारियों को सैलरी देता है. इतना ही नहीं, कई जगह पर धर्मार्थ विभाग हैं, जो मंदिरों के लिए ही पैसा खर्च करते हैं. उत्तराखंड में मंदिरों को सरकार ने अपने अधीन लेना चाहा तो पुजारियों ने विरोध कर दिया था, क्योंकि इस से उन को होने वाली असीमित आय का खुलासा हो जाता.

शाहरुख खान के बेटे को पुलिस ने नहीं छोड़ा तो मैं क्या चीज हूं: Ajaz Khan

Ajaz Khan:गंभीर आवाज, अच्छी कदकाठी के अभिनेता और रिऐलिटी शो बिग बौस 7 के पूर्व कंटैस्टेंट एजाज खान धारावाहिक ‘रक्तचरित्र’, ‘रहे तेरा आशीर्वाद’ आदि में भूमिका निभा कर चर्चित हुए हैं. इस के अलावा उन्होंने हिंदी फिल्मों और वैब सीरीज में भी काम किया है.

एजाज खान का जन्म गुजरात, अहमदाबाद में हुआ. कालेज के समय से उन की अभिनय करने की इच्छा हुई. इस के बाद वे मौडल बने और कई विज्ञापनों में काम किया. उन की जर्नी में उन की पत्नी और 2 बेटे हैं, जो क्रिकेट और फुटबौल खेलते हैं.

एजाज ने काम भले ही अधिक न किया हों लेकिन उन का नाता कंट्रोवर्सी से हमेशा रहा है. इस की वजह के बारे में उन का कहना है, “पहले मैं स्पष्टभाषी था, जो सामने दिखता उसे कह दिया करता था लेकिन अब नहीं कहता, समय के अनुसार चलने की कोशिश करता हूं.”

उन की वैब सीरीज ‘अमावस्या’ रिलीज पर है, जो अंधविश्वास के जाल में फंसे इंसान की दुर्दशा को बताती है. इस के अलावा एजाज एक म्यूजिक वीडियो भी करने वाले हैं. वे कहते हैं, “’अमावस्या’ में मैं ने आईपीएस पुलिस औफिसर की मुख्य भूमिका निभाई है. मेरे कई आईपीएस दोस्त हैं, उन से मैं ने अभिनय की बारीकियां सीखी हैं. ढाई साल के बाद मैं ने कैमरा फेस किया था, इसलिए मेहनत अधिक करनी पड़ी. जेल में रहते हुए मेरा वजन भी काफी बढ़ गया था, जिसे कम करना पड़ा.”

फिर से किए काम शुरू

एजाज ने 26 महीना आर्थर जेल में बिताए हैं. उन्हें मन में विश्वास था कि उन्होंने कोई जुर्म नहीं किया है, उन्हें आजादी मिलेगी. वे उस वक्त बहुत मायूस हुए, लेकिन मजबूत बने रहे. वे कहते हैं, “जेल में रहते हुए मैं ने अपने मन में सोचा कि मैं ने कोई गलत काम नहीं किया है और मुझे आजादी मिली. इस दौरान मैं ने खुद को अधिक मजबूत बनाया. जिस औफिसर ने मुझे जेल में डाला था, आज उस पर भी केस चल रहा है. उस ने मुझ पर झूठा केस डाला था. वह सैलिब्रिटी को झूठे आरोप में डाल कर सब से पैसे लेता था, जो बाद में सब को पता चला. अब उस की बारी जेल जाने की है. इन 26 महीनों को मेरी पत्नी और बच्चों ने बहुत मुश्किल से झेला है. मेरा सब काम छूट गया. मेरे सारे प्रोजैक्ट बंद हो गए थे. लेकिन मैं ने हौसला नहीं छोड़ा और अब फिर से काम करना शुरू कर दिया है. मैं ने देखा है कि जेल में बिना जुर्म किए, बहुत सारे लोग सजा पा रहे होते हैं, मायूस हो कर कुछ तो पंखे से लटक कर अपनी जान तक दे देते हैं. मेरा भी एक बुरा समय था, जो बीत गया. मेरे परिवार को भी पता था कि मैं ने कुछ किया नहीं है, वे हमेशा मेरे साथ मजबूती से खड़े रहे.”

कंट्रोवर्सी की वजह

एजाज बताते हैं, “फिल्म इंडस्ट्री के लोग पुलिस के सौफ्ट टारगेट होते हैं, क्योंकि उन्हें नाम और पैसा दोनों साथसाथ मिल जाते हैं. उस ने मुझे ही नहीं, शाहरुख खान के बेटे, अरमान कोहली, दीपिका पादुकोण, रणवीर सिंह आदि सभी के नामों को उछाला है. दिवंगत अभिनेता सुशांत सिंह के साथ भी मेरी अच्छी दोस्ती थी, उस के साथ मेरा घूमनाफिरना होता था. इसलिए कई वीडियोज उस के साथ मेरे थे, इसलिए मुझे भी पुलिस ने जबरदस्ती बुला लिया.
“मेरी थोड़ी बहस भी हो गई थी. जब शाहरुख खान के बेटे को पुलिस वालों ने नहीं छोड़ा, तो मैं क्या चीज हूं. बाद में शाहरुख खान का बेटा छूट गया, लेकिन मेरे पास न तो इतना पैसा है और न ही कोई बड़ा नेता मेरे पीछे है. मैं 26 महीने बाद छूटा हूं, केस अभी भी चल रहा है. सुप्रीम कोर्ट से मेरी बेल हुई है. इस के पीछे घरवालों की काफी मेहनत रही है. इस के अलावा मैं पहले बहुत ब्लंट था, सच अधिक बोल देता था. अब सच नहीं बोल सकते हो, तो झूठ भी मत बोलो, चुप रहो. इसी सिद्धांत पर चलने लगा हूं.”

मिली प्रेरणा

फिल्म इंडस्ट्री में आने की प्रेरणा के बारे में पूछे जाने पर एजाज कहते हैं, “कालेज में मुझे सभी कहते थे कि मैं अच्छा दिखता हूं, मेरी बौडी अच्छी दिखती है. कालेज के शो और थिएटर करते हुए इस क्षेत्र में आने की इच्छा जगी और ऐक्टिंग फील्ड में आ गया. यहां मैं ने एकता कपूर के शो से काम करना शुरू किया. बिग बौस में दूसरे नंबर पर था. फिर ‘खतरों के खिलाडी’ में भाग लिया. मैं ने विलेन के रूप में 28 फिल्में की हैं. साउथ के सभी बड़ेबड़े कलाकारों के साथ काम किया है. कैरियर बहुत अच्छा जा रहा था, तभी बीच में यह हादसा हो गया था. मेरा करीब ढाई से तीन साल का समय खराब हो गया.”

बिग बौस से मिला फायदा

बिग बौस में जाने से एजाज को बहुत फायदा मिला था. वे कहते हैं “मुझे उस रिऐलिटी शो में जाने से बहुत अधिक फायदा हुआ था, मेरी प्रसिद्धि बढ़ी, मेरे बैंक अकाउंट में वृद्धि हुई, लोगों का प्यार मिलने लगा, बड़ेबड़े इवैंट्स मिलने लगे. सफलता मिलने पर उसे संभालना बहुत आवश्यक होता है, जिसे सभी नहीं कर पाते.”
बिग बौस में फेवरिज्म के बारे में एजाज कहते हैं, “ऐसा कभी नहीं होता. फैन्स का प्यार, दर्शकों की वोटिंग और उस व्यक्ति के स्वभाव पर सब निर्भर करता है. मुनव्वर का जीतना बहुत सही था, उस ने बहुत अच्छा परफौर्मेंस दिया है.”

दर्शकों की पसंद को पकड़ना हुआ मुश्किल

फिल्म इंडस्ट्री बुरे दौर से गुजर रही है. इस की वजह आप क्या मानते हैं? इस सवाल के जवाब में वे कहते हैं, “दरअसल एक निर्देशक पूरी फिल्म को विजुअल कर सकता है. एक तरह की कहानी लगातार नहीं चल सकती. समाज में बुराइयां, हिंसा, चोरी, रेप आदि सब हो रहे हैं. साथ ही, देश को लूटा भी जा रहा है. निर्देशक हर तरह की स्टोरी कहना चाहता है और दर्शक की पसंद क्या है, इसे निर्देशक समझ नहीं पा रहे हैं, इसलिए फिल्में बन तो रही हैं, लेकिन चल नहीं रही हैं. एक जोनर की फिल्में चलने पर निर्माता, निर्देशक वैसी ही कई फिल्में बना लेते हैं और फिर वे चलती नहीं. साउथ के फिल्ममेकर दर्शकों की पसंद जानते हैं और उन की फिल्में चलती हैं. नई चीज सब को पसंद आती है.”

नहीं मिलता इंसाफ

एजाज कहते हैं, “मैं आगे निर्देशन में जाना चाहूंगा और जेल में मुझ पर जो बीती है, उस को मैं ने लिख लिया है और उसे फिल्म के रूप में सब को दिखाना चाहता हूं. वह एक अलग दुनिया है, वहां 20 प्रतिशत गुनाहगार और 80 प्रतिशत बेगुनाह होते हैं. उस दौरान उन के परिवार पर क्या बीतती है, वकील और जज उन्हें कैसे बेवकूफ बनाते हैं आदि सब मैं ने लिखा है. ‘तारीख पे तारीख’ के संवाद मैं ने बचपन में सुना था और अब मैं ने देख लिया है कि इंसाफ जल्दी नहीं मिलता, मिलती है तो सिर्फ तारीख.
“26 महीने तक मुझे सिर्फ तारीख ही मिली. अंत में मुझे इंसाफ मिला, जिसे मैं ने बड़ेबड़े वकील रख कर, काफी पैसे खर्च कर हासिल किया. ऐसे में गरीब व्यक्ति क्या कर सकेगा. वे जेल में सड़ रहे हैं और एक साल बाद उन के घर वाले भी उन्हें भूल जाते हैं. न्याय मिलने की देरी की बात की जाए तो इस की वजह जजों की कमी है. इस कमी से लाखों केस पैंडिंग पड़े रहते हैं. फास्ट केस सिर्फ नेताओं के चलते हैं, उन को न तो सजा होती है, न तो उन का कोई कुछ बिगाड़ सकता है.

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