Depression:रेनू की शादी 20 साल की उम्र में हो गई थी. रेनू एक संपन्न परिवार से थी. शादी के बाद ससुराल से जिस तरह से उस पर जिम्मेदारियों का बोझ आया, वह परेशान रहने लगी. सही तरह से अपने पति के साथ सैक्स संबंधों को भी निभा नहीं पा रही थी.
रेनू को यही लगा रहता कि उस का जीवन खत्म हो गया. धीरेधीरे वह अपनेआप में ही डूबी रहती. रेनू का पति और उस के परिवार के लोग पहले तो रेनू की चिंता करते थे लेकिन धीरेधीरे वे लोग उस के साथ उपेक्षा का व्यवहार करने लगे. पति को जब जरूरत होती, उस से सैक्स संबंध बना लेता. रेनू को इस से और भी ज्यादा चिड़चिड़ाहट होने लगती. चिंता में घिरी रहने वाली रेनू का शरीर और मन दोनों टूटने लगे. उस के परिवार में एक बाबा आते थे.
घर वालों ने रेनू को उन्हें दिखाया तो वे बोले कि इस पर भूतप्रेत की छाया है. इस के बाद वे तरहतरह से रेनू का इलाज करने लगे. रेनू किस दिन, कौन से रंग के कपड़े पहने, यह बाबा तय करते थे. रेनू के हाथ की उंगलियों में कई तरह के नग और पत्थर वाली अंगूठियां आ गईं. इस तरह के तमाम उपाय करने के बाद भी रेनू की जिंदगी में किसी तरह का उल्लास नहीं आ पाया.
रेनू की ससुराल वालों ने उस से तलाक लेने की प्रक्रिया शुरू कर दी. इस से सब से ज्यादा तकलीफ रेनू के पिता लाल बहादुर को थी. बेटी की हालत उन से देखी नहीं जा रही थी. डाक्टरों को दिखाया तो वे बोले कि रेनू डिप्रैशन का शिकार है. डिप्रैशन जिंदगी में जहर घोलने वाले मन का भाव होता है.
डाक्टरों ने दवाओं से रेनू का इलाज शुरू किया. इस के बाद भी रेनू न तो एक भी अंगूठी उतारने को तैयार थी और न ही साधारण तरीके से कपड़े पहनने को. वह दिन के हिसाब से रंग वाले कपड़े पहनती. गुरुवार को पीले चावल खाती. कई माह तक इलाज कराने के बाद भी रेनू को कोई लाभ नहीं हुआ. वह घर के कमरे में पड़ी रहती. कोई पूछ लेता तो खाती, नहीं तो खाने तक का होश नहीं रहता था. परेशान पिता ने उस को एक शैल्टर होम भेजने का फैसला लिया.
रेनू अपने घर से शैल्टर होम में आ गई. वहां उसे अपनी उम्र की कई दूसरी लड़कियां मिलीं. शुरुआत में काफी दिनों तक रेनू को वहां अच्छा नहीं लगा. धीरेधीरे वह बदलने लगी. 1 माह में ही रेनू ने हंसना और मुसकराना सीखा. उस की दवाएं और अपने उम्र की लड़कियों का साथ उस का सहारा बन रहा था. अब वह बेहतर तरीके से खाने लगी. उस के पिता को अब उस से बात कर अच्छा लगने लगा.
असल में रेनू के मन पर जो असर पड़ा उस का शुरुआत में सही हल नहीं निकाला गया, जिस से वह अवसाद की खतरनाक स्टेज तक पहुंच गई. अवसाद चिंता का ही रूप है.
चिंता करना कोई बुरी बात नहीं है पर चिंता में डूब जाना खतरनाक होता है. जब अवसाद के दौर में अपनों का सहारा नहीं मिलता तो बात और भी बिगड़ जाती है. अपनों का सहारा, खुद पर भरोसा और नई सोच से सुधार संभव है.
बात केवल एक रेनू की नहीं है. किसी भी सरकारी और गैरसरकारी अस्पताल के मानसिक रोग विभाग में ऐसे तमाम मरीज मिल जाएंगे.
दरअसल, मस्तिष्क को जब पूरा आराम नहीं मिल पाता और उस पर हमेशा एक दबाव बना रहता है तो समझिए तनाव ने आप को अपनी चपेट में ले लिया है. चिकित्सकीय भाषा में तनाव को शरीर के होमियोस्टैसिस में गड़बड़ी माना जाता है. यह वह अवस्था है जो किसी व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक व मनोवैज्ञानिक कार्यप्रणाली को गड़बड़ा देती है. तनाव के कारण शरीर में कई हार्मोनों का स्तर बढ़ता जाता है, जिन में एड्रीनलीन और कार्टिसोल प्रमुख हैं. लगातार तनाव की स्थिति अवसाद में बदल जाती है.
अवसाद एक गंभीर स्थिति है, हालांकि यह कोई रोग नहीं है, इस के बावजूद इस बात का संकेत है कि आप का शरीर और आप का जीवन असंतुलित हो गया है. यह याद रखना महत्त्वपूर्ण है कि जब आप अवसाद को एक बीमारी के रूप में देखना प्रारंभ करते हैं तब आप सोचते हैं कि आप को दवा लेने की आवश्यकता है जबकि अवसाद से निबटने में एंटीडिप्रैसैंट उतने कारगर नहीं होते जितने जीवन में फिर से संतुलन लाने के प्रयास.
तनाव किसी भी उम्र में हो सकता है. अस्पतालों में ज्यादातर भीड़ 30 से 45 साल के लोगों की होती है. कई बार लोग इस का इलाज झांड़फूंक और गंडाताबीज से करवाते हैं. जब हालात बिगड़ जाते हैं तब मरीज को डाक्टर के पास ले जाया जाता है. केवल दवा की गोली खिला कर और अस्पताल में भरती करा देने भर से तनाव का मरीज सही नहीं हो सकता. उसे एक प्यारभरी थपकी देना जरूरी होता है.
डिप्रैशन : कैसे कैसे
अवसाद के बारे में अब तक वैज्ञानिक और शोधकर्ता यह स्पष्ट रूप से पता नहीं लगा पाए हैं कि इस के होने की वजह क्या है लेकिन इस के प्रमाण जरूर हैं कि तनाव के पीछे व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन से जुड़ी कई चीजों की अहम भूमिका होती है, जैसे हमारे जीवन में आने वाले महत्त्वपूर्ण पड़ाव जिन में किसी प्रियजन का बिछुड़ना, नौकरी छूट जाना, विवाह संबंधों में टूटन, शिक्षा के क्षेत्र में असफलता और ऐसी ही कई दूसरी चीजें अवसाद का कारण बनती हैं.
इस के अलावा जीवन के प्रति नकारात्मक सोच रखने वाले लोगों को अवसाद में जाने का ज्यादा डर रहता है जैसे वे सोचते हैं कि मैं सफल नहीं होऊंगा, इसलिए यह कार्य नहीं कर सकता या फिर कई लोगों के मन में हमेशा कुछ न कुछ अनहोनी का डर रहता है जिस से उन का अवसाद में जाने का खतरा बना रहता है. साथ ही कुछ स्वास्थ्य समस्याएं भी हैं जिन के कारण व्यक्ति अवसाद में जा सकता है, जैसे थायराइड, विटामिन डी की कमी आदि.
कुछ दवाओं के साइड इफैक्ट्स के कारण भी व्यक्ति अवसाद में जा सकता है. हालांकि अवसादग्रस्त व्यक्ति सामान्य व्यक्तियों की तुलना में समाज से कटाकटा रहना पसंद करता है लेकिन इस के अलावा भी कई और लक्षण हैं जिन से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि व्यक्ति अवसादग्रस्त है.
अवसाद के लक्षणों को पहचानें
अलगअलग लोगों में डिप्रैशन के लक्षण अलगअलग हो सकते हैं. अवसाद से निकलने के लिए जरूरी है कि उस के कारणों को समझें.
– अत्यंत संवेदनशील हो जाना.
– ज्यादा या कम भूख लगना.
– कम या ज्यादा नींद आना.
– गुस्सा और चिड़चिड़ापन.
– थकान और ऊर्जा की कमी.
– पेटदर्द या सिरदर्द.
– ध्यान केंद्रित करने में समस्या.
अगर नीचे दिए गए लक्षण आप में दृष्टिगोचर होते हैं तो डाक्टर से संपर्क करें :
उदासी या एकाकीपन : अगर व्यक्ति अवसादग्रस्त है तो उस का किसी काम या चीज में मन नहीं लगता है. हालांकि सामान्य उदासी अवसादग्रस्त उदासी से बिलकुल भिन्न होती है. अवसादग्रस्त व्यक्ति की हर चीज में रुचि खत्म हो जाती है, उसे खुशी या गम का एहसास नहीं होता. वह अपनी ही दुनिया में खोया रहता है.
नकारात्मक रवैया : सकारात्मक सोच से बहुत दूर ऐसे व्यक्ति पर नकारात्मकता हावी रहती है. वह किसी भी चीज को सकारात्मक दृष्टिकोण से नहीं देखता.
शारीरिक अस्थिरता
अवसाद से जुड़ा एक सच यह भी है कि यह बिना किसी खास कारण के भी हो सकता है जो शरीर में धीरेधीरे घर कर लेता है. शोध दर्शाते हैं कि इस के पीछे आनुवंशिक कारण भी हो सकते हैं.
अवसाद के विभिन्न स्तर हैं जो इस प्रकार हैं :
मेजर डिप्रैशन : डिप्रैशन का सब से सामान्य रूप है मेजर डिप्रैशन. अगर व्यक्ति मेजर डिप्रैशन में होता है तब वह अत्यधिक दुख, हताशा, ऊर्जा की कमी, चिड़चिड़ापन, किसी काम में ध्यान न लगना, नींद और खाने की आदतों में परिवर्तन, शारीरिक दर्द व आत्महत्या जैसे विचारों का एहसास करता है. डाक्टर को भली प्रकार जांच के लिए व्यक्ति में कम से कम 2 हफ्ते से ज्यादा तक ये लक्षण दिखने चाहिए.
कुछ मामलों में व्यक्ति मेजर डिप्रैशन का हलकाफुलका एहसास करता है और फिर उस की स्थिति जीवनभर के लिए सुधर जाती है.
क्रौनिक डिप्रैशन : यह मेजर डिप्रैशन से कम गंभीर होता है लेकिन इस में भी खतरा रहता है. डिस्थाइमिया इस प्रकार का डिप्रैशन होता है जिस में व्यक्ति लंबे समय तक लो मूड यानी खराब मानसिक स्थिति का शिकार होता है. यह स्थिति एक साल या इस से भी ज्यादा समय के लिए हो सकती है. इस डिप्रैशन में मैडिकेशन से बेहतर टौक थैरेपी होती है.
हालांकि कुछ अध्ययन बताते हैं कि टौक थैरेपी के साथ मैडिकेशन के मिश्रण से इस का बेहतर परिणाम मिल सकता है. जो व्यक्ति डिस्थाइमिया की चपेट में होता है उसे मेजर डिप्रैशन होने का खतरा भी रहता है.
बाइपोलर डिसऔर्डर : बाइपोलर डिसऔर्डर, जिसे मैनिक डिप्रैशन भी कहा जाता है, अत्यधिक मूड स्विंग का कारण बनता है जिस से भावनात्मक उतारचढ़ाव (मेनिया या हाइपोमेनिया) देखा जाता है. जब व्यक्ति डिप्रैस्ड होता है तब वह दुखी या हताश महसूस करता है और किसी भी क्रियाकलाप के प्रति दिलचस्पी खो देता है. लेकिन जब उस का मूड दूसरे डायरैक्शन में शिफ्ट होता है तब वह ऊर्जा से भरपूर और उल्लासमय नजर आता है. मूड का इस तरह बदलना अकसर साल में एक या दो बार या फिर हफ्ते में कई बार भी नजर आ सकता है.
हालांकि बाइपोलर डिसऔर्डर अशांत, लंबे समय की स्थिति है इसलिए इस डिसऔर्डर से ग्रस्त व्यक्ति को विशेषज्ञ की सलाह से ट्रीटमैंट लेना आवश्यक होता है. ज्यादातर मामलों में बाइपोलर डिसऔर्डर दवाओं और काउंसलिंग द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है.
पोस्टपार्टम डिप्रैशन : शिशु का जन्म महिला के भीतर अत्यधिक भावनाओं के सागर का मिश्रण होता है, जिस में उत्साह और खुशी के साथ ही डर और अवसाद भी शामिल होता है. इन सब का मिलाजुला परिणाम वह भी हो सकता है जिस के बारे में वह कभी सोचती भी नहीं और वह है डिप्रैशन. शिशु के जन्म के बाद कई नई मांएं पोस्टपार्टम बेबी ब्लूज का अनुभव करती हैं, जिस में सामान्य रूप से मूड स्विंग, अचानक रोना, चिड़चिड़ापन और नींद की समस्या होती है. बेबी ब्लूज की शुरुआत सामान्य रूप से डिलीवरी के 2 या 3 दिन के भीतर शुरू हो जाती है जो लगभग 2 हफ्तों तक रहती है. लेकिन कुछ नई मांएं इस से भी गंभीर डिप्रैशन का अनुभव करती हैं जो लंबे समय तक रहता है जिसे पोस्टपार्टम डिप्रैशन साइकोसिस कहते हैं.
प्रीमैनेस्ट्रुअल सिंड्रोम : कुछ महिलाएं मासिक धर्म के कुछ दिन पहले स्तन में कड़ापन, सूजन और मांसपेशियों में दर्द का अनुभव करती हैं. ये सभी सामान्य प्रीमैनेस्ट्रुअल लक्षण हैं. लेकिन जब यह महिला की प्रतिदिन की दिनचर्या को अस्तव्यस्त करे तो इसे प्रीमैनेस्ट्रुअल सिंड्रोम कहते हैं. पीएमएस महिला के शरीर, मूड और मैनेस्ट्रुअल पीरियड के दिनों में वह कैसे एक्ट करती है, पर निर्भर करता है. इस के लक्षण 30 और 40 वर्ष के बीच और भी खतरनाक हो जाते हैं जब महिला मेनोपौज की स्थिति में पहुंचती है. पीएमएस का संबंध हार्मोन के परिवर्तन से है जो मैनेस्ट्रुअल साइकिल के कारण होता है.
साथ ही, महिला के भोजन में शामिल विटामिन बी6, कैल्शियम या मैग्नीशियम पीएमएस के खतरे को बढ़ा सकते हैं. तनाव का उच्च स्तर, व्यायाम की कमी और अत्यधिक कौफी पीने से इस के लक्षण और भी खराब हो जाते हैं.
सीजनल अफैक्टिव डिसऔर्डर : सीजनल अफैक्टिव डिसऔर्डर जिसे सैड एसएडी भी कहते हैं, डिप्रैशन का ही एक रूप है जिस का संबंध मौसम के बदलने के साथ होता है. यह व्यक्ति की एनर्जी समाप्त कर देता है और उसे मूडी बना देता है. बहुत कम ही मामलों में सैड से होने वाला डिप्रैशन गरमी की शुरुआत या वसंत ऋतु में नजर आता है. इस के निदान के लिए लाइट थैरेपी (फोटो थैरेपी), साइकोथैरेपी और मैडिकेशंस का सहारा लिया जाता है.
सिचुएशनल डिप्रैशन : जैसा कि इस के नाम से ही जाहिर है कि यह डिप्रैशन कुछ निश्चित परिस्थिति के कारण होता है. इसे एडजस्टमैंट डिसऔर्डर भी कहा जाता है. तनावपूर्ण या जीवन में परिवर्तन लाने वाली घटनाएं जैसे नौकरी खोना, प्रियजन की मृत्यु, तलाक आदि इस डिप्रैशन का कारण बनती हैं. सिचुएशनल डिप्रैशन मेजर डिप्रैशन से तीनगुना ज्यादा पाया जाता है. इस का कारण यह है कि समय के साथसाथ यह अपनेआप ठीक भी हो जाता है. इस का मतलब यह नहीं कि इसे नजरअंदाज कर दिया जाए. इस के लक्षणों में अत्यधिक दुख, चिंता, घबराहट आदि शामिल होते हैं. अगर धीरेधीरे यह खत्म नहीं होता तो यह मेजर डिप्रैशन की चेतावनी हो सकती है.
साइकेटिक डिप्रैशन : साइकोसिस एक मानसिक स्थिति है जिस में भ्रम, झूठा विश्वास जैसे मतिभ्रम या झूठी मान्यताओं पर विश्वास जैसी हालत होती है. हालांकि इसे पारंपरिक रूप से डिप्रैशन से नहीं जोड़ा जाता लेकिन तनावग्रस्त 20 प्रतिशत से ज्यादा लोगों में इस तरह के गंभीर मामले नजर आते हैं. इस तरह के लोग न बात करना चाहते हैं और न ही इधरउधर जाना चाहते हैं. इस के निदान के लिए एंटीडिप्रैशन और एंटीसाइकेटिक मैडिकेशंस का प्रयोग किया जाता है.
फार्मेकोथैरेपी : दवाओं के द्वारा किसी मानसिक रोग के उपचार को फार्मेकोथैरेपी कहते हैं. अवसाद के उपचार के लिए एंटीडिप्रैससैंट का उपयोग किया जाता है. इन का चुनाव अवसादग्रस्त व्यक्ति के लक्षणों के आधार पर किया जाता है. सामान्यतौर पर 6 महीने से साल भर तक एंटीडिप्रैससैंट लेने की सलाह दी जाती है. कुछ लोगों में इन के सेवन से उल्टी होना, मुंह सूख जाना, चक्कर आना, बेचैनी, वजन बढ़ जाना, कब्ज होना आदि लक्षण दिखाई दे सकते हैं.
कुछ लोगों में अवसाद इतना गंभीर होता है कि उन्हें अस्पताल में रखना आवश्यक हो जाता है. यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब व्यक्ति अपनी स्वयं की ठीक प्रकार से देखभाल नहीं कर सके या जब इस बात की आशंका उत्पन्न हो कि रोगी अपनेआप को या किसी और को नुकसान पहुंचा सकता है. अस्पताल में साइकियाट्रिक ट्रीटमैंट रोगी को शांत व सुरक्षित रखने में सहायता करता है जब तक कि उस का मूड ठीक नहीं हो जाता.
जरूरी है काउंसलिंग
इसे सब से बेहतरीन टौकिंग थैरेपी माना जाता है. काउंसलर अवसादग्रस्त व्यक्ति की सहायता करता है और उसे व्यावहारिक सलाह देता है. इस में 6 से 12 सैशन होते हैं और प्रत्येक की अवधि एक घंटा होती है. आप काउंसलर पर विश्वास रख सकते हैं और उसे खुल कर बता सकते हैं कि आप अपने और अपनी स्थिति के बारे में क्या सोचते हैं.
काउंसलिंग उन लोगों के लिए एक अच्छा उपाय माना जाता है जो वैसे तो स्वस्थ होते हैं लेकिन उन्हें अपने वर्तमान संकट से निबटने के लिए थोड़ी सी सहायता की आवश्यकता होती है.
कारगर है सीबीटी
कोगनिटिव बिहेवियोरल थैरेपी यानी सीबीटी का उद्देश्य सकारात्मक रूप से सोचने में सहायता करना है, ताकि आप असहाय और अवसादग्रस्त अनुभव करने के बजाय स्थितियों का बेहतर तरीके से सामना कर सकें और यहां तक कि आप उस स्थिति का आनंद लेने लगें.
सीबीटी में थैरेपिस्ट रोगी के साथ मिल कर एक लक्ष्य निर्धारित कर लेता है. इस में लगभग 6-15 सैशन होते हैं. काउंसलिंग की तरह ही इस थैरेपी में भी अतीत या बचपन की घटनाओं से अधिक वर्तमान स्थितियों से निबटने पर फोकस किया जाता है. यह थैरेपी अवसाद से पीडि़त लोगों की बहुत सहायता करती है.
उपचार के अन्य विकल्प
गहरे तनाव और अवसाद के उपचार के लिए कुछ अन्य विकल्प भी लोकप्रिय हो रहे हैं :
एक्युपंक्चर : इस में उपचार के लिए शरीर के विशेष बिंदुओं पर बारीक सुइयों का उपयोग किया जाता है. अवसाद के उपचार के रूप में इस पर लगातार विश्वास बढ़ रहा है. कुछ अनुसंधानों में भी इस से अच्छे परिणाम मिले हैं.
रिलैक्सेशन तकनीक : रिलैक्सेशन तकनीक स्टैस मैनेजमैंट का एक महत्त्वपूर्ण भाग है. जो लोग अत्यधिक महत्त्वाकांक्षी होते हैं वे कम ही आराम करना पसंद करते हैं. लेकिन यह उन की बहुत बड़ी भूल है क्योंकि आप अपनी महत्त्वाकांक्षाएं तभी पूरी कर सकते हैं जब आप पूरी तरह से स्वस्थ हों. हर किसी को रिलैक्स और रिचार्ज होने की आवश्यकता होती है.
रिलैक्सेशन तकनीक से शरीर और मस्तिष्क के तनाव का स्तर घटता है. रिलैक्सेशन तकनीक आप को अपनी सांसों की गति को धीमा करने और वर्तमान क्षण में ध्यान केंद्रित करने में सहायता करती है.
मसाज थैरेपी : मसाज को मस्तिष्क और शरीर को तनावमुक्त रखने का एक अचूक नुस्खा माना जाता है. यह मस्तिष्क और शरीर को पुनर्जीवन देने का सब से प्राचीन तरीका है. मसाज तनाव को कम कर क्रोध, हताशा व अवसाद को कम करता है. मसाज से मानसिक शांति मिलती है जिस से एकाग्रता बढ़ती है और उत्तेजना कम होती है. मसाज हमेशा किसी प्रोफैशनल से ही कराएं.
डांस थैरेपी : डांस एक मैडिसिन की तरह है. यह तनाव और चिंता कम कर के शरीर में ऊर्जा का प्रवाह बढ़ाता है. डांस करने से फील गुड हार्मोन एंडोरफिन स्रावित होता है. आधुनिक शोधों में ये बातें भी सामने आई हैं कि डांसिंग से अल्जाइमर्स और डिमैंशिया का खतरा भी कम होता है. डांसिंग अवसाद की चपेट में आने की आशंका भी कम करती है. डांस थैरेपी में 30 से 60 मिनट का डांस सैशन रखा जाता है.
अकेले डांस करना संभव नहीं होता. सो डांस थैरेपी लेने वाले लोगों को किसी डांस स्कूल को जौइन कर लेना चाहिए जहां कई लोग एकसाथ डांस करते हैं.
अकसर यह प्रश्न उठता है कि डांस स्कूल जौइन किस उम्र में किया जा सकता है, हम आप को बता दें कि डांस स्कूल में उम्र का कोई बंधन नहीं होता. उम्र के अनुसार ग्रुप बना दिए जाते हैं. आप अपनी उम्र के अनुसार डांस ग्रुप में शरीक हो सकते हैं. यदि आप किसी के सामने डांस करने में हिचकते हैं तो आप अपनी पसंद के गानों पर अकेले ही नाच सकते हैं. आप स्वयं रेडियो, डीवीडी चला कर डांस कर सकते हैं.
(डा. एस सुदर्शनन (मनोचिकित्सक) बीएलके सुपर स्पैशलिटी हौस्पिटल, डा. गौरव गुप्ता (मनोचिकित्सक) तुलसी हैल्थ केयर, नई दिल्ली एवं शैलेंद्र सिंह)