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बिना ऐक्सरसाइज के मैं पीठ दर्द से कैसे छुटकारा पाऊं?

सवाल

2 साल से मुझे पीठदर्द की समस्या है. उम्र मेरी 24 साल है. यह दर्द गरदन से होते हुए पीठ के निचले हिस्से तक पहुंच जाता है. ज्यादा देर बैठने, खड़े रहने, चलने आदि से पीठ में बहुत दर्द होता है. गरमी में इस दर्द को मैं सहन कर लेता हूं लेकिन ठंड के मौसम में असहनीय हो जाता है. लेटने पर आराम मिलता है. लेकिन हर वक्त लेट नहीं सकता. कृपया मुझे बताएं क्या करूं?

जवाब

ठंड में हड्डियों और जोड़ों का दर्द बढ़ जाता है. हालांकि कम उम्र के लोगों को यह समस्या कम परेशान करती है लेकिन लाइफस्टाइल की गलत आदतों के कारण युवा भी इस समस्या के शिकार बनते हैं. आप को अपने लाइफस्टाइल में बदलाव लाने की जरूरत है. अच्छा खानपान, अच्छी नींद, उठनेबैठने का सही पोस्चर, सही पोस्चर में काम करना, ऐक्सरसाइज आदि करने से इस समस्या से बचा जा सकता है.

हालांकि, आप की समस्या गंभीर है, इसलिए आप के लिए डाक्टर से संपर्क करना आवश्यक है. पहले यह जानने की कोशिश करें कि कहीं आप सर्वाइकल का शिकार तो नहीं हैं. इस के लिए आप को प्रौपर ऐक्सरसाइज और फिजियोथेरैपी की सलाह दी जाएगी. इस के अलावा हर दिन धूप में कम से कम आधा घंटा बैठें. गरम कपड़े पहनें रहें और पीठ की सिंकाई करें. मल्टी विटामिन टैबलेट्स के सेवन से भी दर्द में राहत मिल सकती है.

शुक्रिया श्वेता दी: भाग 3

Writer- डा. कविता कुमारी

सासससुर ड्राइंगरूम में थे. सास सीरियल देख रही थी. उस ने जल्दी से  वह कागज निकाला और बिना सांस लिए पढ़ने लगी.

‘प्रिय अंकिता,

‘अब तक तुम्हें सम?ा में आ गया होगा कि हमारे ऊपर पहरा है. इसलिए सब से छिपा कर किसी तरह लिख रही हूं. जितना लिखूं, उस से ज्यादा सम?ाना. तुम ने गलत लड़के से शादी कर ली. यहां हर आदमी दो चेहरे रखता है जो बहुत बाद में सम?ा में आता है. मेरी शादी धोखे से हुई.

इन लोगों का सारा खर्च और ठाटबाट मेरे पापा के पैसों से चलता है. ये लोग हमेशा मारपीट कर के मु?ा से पैसे मंगवाते हैं. मैं कब तक पापा से पैसे मांगूंगी और वे कब तक दे पाएंगे. तुम्हें फंसाने के लिए दीपेन ने शराफत का ढोंग रचा. अब धीरेधीरे उस का रंगरूप देखना. तुम्हारे साथ भी यही सब होगा. जल्दी ही वह यहां आ जाएगा. यह घर भी इन लोगों का अपना नहीं है, किराए का है. मैं इस नर्क में फंस गई हूं लेकिन अभी तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ा है, तुम यहां से निकल जाओ. अपने हिस्से का नर्क मु?ो भोगना ही है, तुम अपने हिस्से का स्वर्ग बचा लो.

‘-श्वेता दी.’

अंकिता के पांवतले की जमीन खिसकने लगी. दीपेन अपनी शराफत का नकाब धीरेधीरे उतार रहा था, इस का  एहसास उसे होने लगा था. प्यार का भूत उस के सिर से जाने कब उतर गया था. पता नहीं कब उस का बचपन चला गया और वह मैच्योर हो गई. अब उसे एहसास होने लगा, क्यों श्वेता दी से बात करने से उसे हमेशा रोका जाता है, क्यों उस पर साए की तरह नजर रखी जाती है? जितना सोचती उतना दर्द होता. पापा, भैया सब ने कितना सम?ाया था उसे लेकिन…

मौका मिलते ही उस ने मम्मी को फोन किया, ‘मम्मी, कोई सवाल मत करना अभी. बस, किसी बहाने मु?ो यहां से बुला लो. वहां आ कर ही बातें होंगी.’

मांपापा सम?ा गए, बेटी बड़ी मुसीबत में है. उसी दिन पापा ने समधी को फोन किया, ‘अंकिता की मम्मी की तबीयत अचानक खराब हो गईर् है. वह हौस्पिटल में है, उसे ले कर आइए, प्लीज.’

सासससुर सोच भी नहीं पाए कि उन की करतूतों की भनक किसी को लग सकती है. नई बहू को अकेले कैसे भेजते. सास ने कहा, ‘अंकिता को वहां पहुंचा दीजिए. विपिन आएगा तो उसे ले आएगा.’

दूसरे दिन अंकिता ने कुछ कपड़े बैग में डाले, जेवर सास के पास थे. उन्होंने यह कह कर रखा था कि अभी तुम नहीं संभाल पाओगी, बाद में लौकर में डाल देना. ऐसे मौके पर वह मांग भी नहीं सकती थी.  वैसे उस का मकसद किसी तरह वहां से निकलना था. जाते समय वह श्वेता दी के गले लग कर खूब रोई. रास्तेभर उन की सूनीसूनी डबडबाई आंखें उस का पीछा करती रहीं. उसे लगा वे उस की जेठानी नहीं, उस की बड़ी बहन हैं, कोई मददगार हैं उस के लिए.

मां अपने कमरे में बीमार की मुद्रा में लेटी थी. भले ही उन्होंने बीमारी का नाटक किया था लेकिन बेटी की चिंता ने एक दिन में ही उन्हें सचमुच बीमार बना दिया था. वह गहरी मानसिक वेदना से गुजर रही थीं. अभीअभी बेटी की शादी से इतनी खुश थीं. 2 महीने भी नहीं गुजरे थे, अभी शादी की खुमारी भी नहीं उतरी थी और…

अंकिता के ससुर उसे पहुंचा कर लौट गए, कह गए कि दीपेन आने वाला है, वह तुम्हें आ कर ले जाएगा. मां ने कहा, ‘समधीजी, अभी इसे यहीं रहने दीजिए, मेरा सहारा हो जाएगा.’

अब? सारी बातें सुनसम?ा कर मांपापा की चिंता बढ़ गई. दूसरे दिन छुट्टी ले कर भैयाभाभी आ गए. दीदीजीजाजी ने फोन पर मैंटली सपोर्ट किया. सब ने तय किया कि अंकिता वहां नहीं जाएगी. भैया ने इलाहाबाद जा कर 2-3 दिनों तक खाक छानी. पता लगा कि श्वेता दी ने जो कुछ कहा, सब सही था. जीजाजी ने बेंगलुरु के अपने कुछ दोस्तों से दीपेन के बारे में पता लगाने को कहा. चौंकाने वाली असलियत सामने आई. दीपेन वहां किसी और के साथ रिलेशनशिप में था. उस ने औफिस में यह कहा कि अंकिता से उस की शादी नहीं हुई. उस के पिता और भाई तैयार नहीं हुए. वह शराबसिगरेट का भी शौकीन निकला.

आह, अंकिता का दिल तारतार हो गया. उस के दोहरे चरित्र का कैसे उसे पता नहीं चला. क्या उस ने सब सोचीसम?ा साजिश के तहत किया था? उस ने ठंडे दिमाग से सोचा, यदि शादी के पहले उस के घर के लोग उस के बारे में पता लगाते, तब भी वह शायद ही उन पर यकीन कर पाती. वह सोचती, दीपेन दूसरी जाति का है, इसलिए ऐसा कह रहे हैं. सच है प्यार में विवेक नहीं खोना चाहिए. घर के सभी लोगों ने उस के जख्मों को भरने की पूरी कोशिश की. अभी किसी ने ताना नहीं दिया, किसी ने कुछ नहीं कहा. उसे परिवार के संबल ने टूटने नहीं दिया. उसे बारबार श्वेता दी याद आती. उन से कोई रिश्ता ठीक से जुड़ा भी नहीं था. जेठानी हो कर, खुद लाख गम खा कर, उन्होंने उस के लिए जो कुछ किया, कौन करता है भला.

आजकल दीपेन के फोन कुछ ज्यादा आते. अब वह उस से कम बात करती. उस के सामने यह जाहिर न करती कि उसे सब पता चल गया है. वह कुछ ऐसा नहीं करना चाहती थी जिस से श्वेता दी पर कोई आंच आए. काश, वह श्वेता दी के लिए कुछ कर पाती.

मम्मी के इलाज के बहाने वे लोग अचानक बेंगलुरु पहुंच गए. एकाएक सब को वहां देख दीपेन सकपका गया. उस की गर्लफ्रैंड भी वहां मौजूद थी. बहुत बड़ा तमाशा क्रिएट हुआ. दीपेन ने सफाई देने की खूब कोशिश की. बारबार माफी मांगने लगा. उस के मम्मीपापा से भी फोन पर बात हुई. वे लोग बेटे की गलती पर परदा डालने लगे.

एक बार माफ कर देने की गुजारिश भी की लेकिन सारी असलियत जान कर आंख मूंदने का वक्त नहीं था. फैसला पहले ही हो चुका था. खुद अंकिता भी उस नर्क में दोबारा नहीं जाना चाहती थी. आते समय उस ने बड़ी दृढ़ता से कहा, ‘हम अंतिम बार कोर्ट में मिलेंगे तलाक

के पेपर पर हस्ताक्षर करने

के लिए.’

गाड़ी के हौर्न की आवाज से उस की तंद्रा टूटी. मम्मीपापा आ गए थे शायद. बारिश रुक गईर् थी. वह बुदबुदाई, ‘शुक्रिया श्वेता दी…’ और दरवाजा खोलने के लिए उठ गई.

शुक्रिया श्वेता दी: भाग 1

Writer- डा. कविता कुमारी

बालकनी में अकेली बैठी अंकिता की टेबल पर रखी कौफी ठंडी हो रही थी. हलकी बूंदाबांदी अब मूसलाधार बारिश में बदल गई थी. वह पानी की मोटीमोटी धारों को एकटक निहार रही थी लेकिन उस का दिमाग कहीं और था. मम्मीपापा वकील से बात करने गए थे, घर में वह अकेली थी. उस की नजरों के सामने बारबार श्वेता दी का चेहरा आ रहा था.

श्वेता दी… उस की जेठानी. कहने को उन दोनों का रिश्ता देवरानीजेठानी का था लेकिन श्वेता ही सही माने में उस की बड़ी बहन साबित हुई. अगर वह न होती तो न जाने क्या होता उस के साथ. उन्होंने उसे उस नर्क से निकाला जहां वह स्वर्ग की तलाश में गई थी.

हां, स्वर्ग से भी सुंदर अपना घर बसाने की चाहत में उस ने दीपेन का साथ चुना था. दोनों एक ही औफिस में काम करते थे. दोनों में दोस्ती हुई जो धीरेधीरे प्यार में बदल गई. यह कब, कैसे हुआ, अंकिता को पता ही न चला. हर प्रेमी जोड़े की तरह वे साथ जीनेमरने की कसमें खाते, हाथों में हाथ डाले मौल में घूमते, लंचडिनर साथ में करते. दीपेन उस के आगेपीछे डोलता रहता. उस की खूब केयर करता. अंकिता उस के इसी केयरिंग नेचर पर फिदा थी.

उसे याद है, औफिस का वाटर प्यूरीफायर खराब हो गया था. गरमी इतनी थी कि एयरकंडीशंड औफिस में भी गला सूख रहा था. उस ने कहा, ‘दीपेन, मैं प्यास से मर जाऊंगी. मु?ो प्यास कुछ ज्यादा ही लगती है और नौर्मल पानी सूट नहीं करता.’

‘यह बंदा किस दिन काम आएगा, अभी पानी की बोतल ले कर आता

हूं, यार.

‘3-4 किलोमीटर जाना होगा यार. शहर से इतनी दूर, ऐसी साइट पर हमें जौइन ही नहीं करना चाहिए था.’

‘मैडम, एक दिन पानी क्या नहीं मिला, आप ने नौकरी छोड़ने का प्लान बना लिया. बंदे को सेवा का मौका तो दीजिए…’ अदा से ?ाक कर उस ने ऐसे कहा जैसे प्रपोज कर रहा हो और तीर की तरह निकल गया. अंकिता खिड़की के पास आ कर, उस का मोटरसाइकिल स्टार्ट कर के जाना देखती रही. जब आंखों से ओ?ाल हो गया, उस ने मुसकरा कर हौले से सिर हिलाया ‘पागल’ और टेबल पर आ कर काम निबटाने लगी.

मम्मीपापा शादी की बात चलाने लगे थे. एक दिन अंकिता ने मां को फोन पर दीपेन के बारे में बताया. मां अचकचा गई, ‘यह क्या कह रही हो? अपने पापा को नहीं जानती? एक तो लड़का तुम्हारी पसंद का, उस पर जाति भी अलग. तुम जितना आसान सम?ा रही हो, उतना आसान नहीं है.’

‘मम्मी जातिवाति से कुछ नहीं होता. दिल मिलना चाहिए, बस. और मैं पहली लड़की नहीं जो दूसरी जाति के लड़के संग ब्याह रचाऊंगी. कितनी शादियां हो रही हैं समाज में. वह कितना अच्छा और केयरिंग है, तुम लोग एक बार मिल लो, फिर पता चल जाएगा.’

पापा नहीं माने. वह जिद पर अड़ गई. मां दोनों के बीच थी. बड़ी बहन और भाई की शादी हो चुकी थी. उन लोगों ने भी पापा को सम?ाया. मां निश्ंिचत थीं कि उस में कोई उस से छोटा नहीं था कि उस की शादी के बाद किसी तरह की परेशानी होगी. कुछ वक्त लगा. पापा थोड़ेथोड़े नरम पड़े. दीपेन से मिलने को तैयार हुए.

5-6 दिनों तक वे लोग बेंगलुरु के होटल में रुके. अंकिता गर्ल्स होस्टल में रहती थी. उस ने औफिस से छुट्टी ले ली. दीपेन मांपापा को भा गया. लंबा, इकहरा, गोरागोरा दीपेन खूब बातें करता और दिल खोल कर हंसता. सचमुच इतना केयरिंग न उन का बेटा था, न दामाद ही. मम्मी के हाथ में एक छोटा पैकेट भी देखता तो ?ाट ले लेता- ‘अरे आंटी, बेटे के होते आप सामान क्यों ढो रही हैं?’

रास्ते में सब का खयाल रखता. छोटीछोटी बातों का भी उसे ध्यान रहता. किसी चीज की जरूरत तो नहीं, प्यास लगी है क्या, थकावट हो रही होगी, आराम कर लें…

उस के बाद 2-3 बार वे लोग दीपेन से और मिले. वह हर बार हंसतामुसकराता एनर्जी से भरपूर मिला. आखिर पापा ने शादी के लिए हां कर दी. जब उस के मम्मीपापा से मिलने की बारी आई, उस ने कहा कि आप लोग इतनी दूर कहां जाइएगा, मम्मीपापा पटना जाने वाले हैं, वहीं उन से मिल लीजिएगा. उस का अपना घर इलाहाबाद था. उन लोगों को आइडिया ठीक लगा.

बूआ के बेटे की शादी थी. सब लोग

पटना आए. दीपेन के मम्मीपापा,

भाईभाभी और उन के दोनों बच्चे. सभी खुशमिजाज और मिलनसार थे. हां, सुंदरसलोनी भाभी बात कम कर रही थीं. शांत स्वभाव की थीं शायद. अंकिता का रिश्ता वहीं पक्का हो गया. पंडितजी ने दिन, मुहूर्त भी निकलवा दिया. दानदहेज की बात नहीं हुई. दीपेन के पापा ने मजाक में कहा, ‘समधीजी, अंकिता आप  की सब से छोटी और लाड़ली बेटी है. इस के लिए आप ने बहुतकुछ जोड़ कर रखा ही होगा. अब और आप को करना भी क्या है?’

‘भला यह भी कहने की बात है? शादी में समधीजी दिल खोल कर

खर्च करेंगे. यह शादी शानदार होगी,

क्यों समधीजी?’ दीपेन की मां ने हंस

कर कहा.

शादी के दस दिन पहले दीपेन के पापा का फोन आया, ‘समधीजी, दीपेन बड़बोला लगता है लेकिन अंदर से संकोची है. उस की चाहत थी एक गाड़ी अंकिता के लिए आप उसे देते. खुद की गाड़ी खरीदने में तो काफी वक्त लग जाएगा. वैसे, वह आप से कहने को मना कर रहा था लेकिन मैं ने कहा कि इच्छा को इतना क्या दबाना. आप गाड़ी के लिए रुपए ही भेज दीजिए, दीपेन को यहां एक गाड़ी पसंद आ गई है, साढ़े दस लाख की है. लेकिन शोरूम हमारे जानपहचान वालों का है, वे डिस्काउंट दे रहे हैं. दस लाख तक में मिल जाएगी.’

पापा से कुछ कहते नहीं बना. भैया ने सुना तो ताव खा गया, ‘अरे, यह तो सरासर दहेज है. इतनी जल्दी हम कहां से लाएंगे. वे लोग लालची लग रहे हैं.’

अंकिता को बुरा लगा. एक गाड़ी मांग रहा है, वह भी मेरे लिए. भैया वह भी देना नहीं चाहता. शादी के बाद वह बदल गया है. बहन की खुशी कोई माने नहीं रखती. शादी के दिन बहुत कम बचे थे. सारी तैयारी हो चुकी थी. पैसे भी काफी खर्च हो चुके थे. मानमर्यादा की बात थी. सिर्फ इस बात के लिए शादी तोड़ना मूर्खता थी. फिर अंकिता कहां मानने वाली थी. किसी तरह रुपयों का इंतजाम कर के उन लोगों को देना ही पड़ा.

उस के बाद शादी के दिन तक बड़े सलीके से कभी चेन, कभी अंगूठी, कभी सोफा कम बैड और कभी जाने क्याक्या सामानों की डिमांड की गई. अंकिता प्यार में इस तरह अंधी थी, उसे सम?ा में नहीं आ रहा था कि यह डिमांड ही दहेज है. भाई, पापा सम?ाना चाहते तो उसे लगता, ये लोग आज भी दीपेन को दिल से स्वीकार नहीं कर रहे. मां ठीक से सम?ा नहीं पा रही थी कि क्या करे. बेटी का दिल भी नहीं तोड़ना चाहती थी और पति व बेटे के तर्क भी सही लग रहे थे.

…और अंकिता शादी के बाद इलाहाबाद आ गई. बेहद खुश थी वह. घर ज्यादा बड़ा नहीं था. तीन छोटेछोटे कमरे थे. छोटा सा ड्राइंगरूम, किचन और बाथरूम. वह सोचती, यहां रहना कितने दिन है. उसे बेंगलुरू जाना है.

जब आसपास के लोगों का स्तर आपसे कम हो

वीणा ने जब देखा उनके पड़ोस में नए दंपत्ति आये हैं,राकेश और  सुनीता,उनकी एक छोटी बच्ची सुमि,वीणा उनसे मिलने गयी,फौरन ही महसूस हो गया कि राकेश और सुनीता के पास अभी गृहस्थी का सामान भी पूरा नहीं है पर उन दोनों का सरल स्वभाव वीणा को बहुत अच्छा लगा. दोनों के स्तर में कहीं से भी समानता नहीं थी  पर वीणा ने देखते ही देखते अपने स्वभाव की  उदारता से सुनीता की  हेल्प ऐसे की  कि सुनीता को जरा भी एहसान ही नहीं लगा कभी,वह जब भी सुनीता को अपने यहाँ कुछ खाने पीने बुलाती,पता नहीं कितनी ही चीजें उसके साथ ऐसे बाँध देती कि जैसे सुनीता ले जाएगी तो वीणा ही खुश होगी,वीणा कहती,देखो,सुनीता,जब दीदी कहती हो तो मेरा घर तुम्हारा ही हुआ,अब ये बताओ,थोड़ा सामान ले जाओगी तो मेरा सामान हल्का होगा,मैं ढंग से सफाई कर पाऊँगी,बेकार में ले लेकर रखने की गलती कर रखी है तो बस अब तुम ले जाओ और मेरी अलमारी में जगह बनाओ ,”वीणा ऐसे हस हस कर कहती कि किसी को भी बुरा न लगता.

वीणा ने जब देखा सुनीता के पास खाना खाने की प्लेट्स भी बहुत कम हैं तो अगली बार जब सुनीता से मिलने गयी तो अपनी नयी क्रॉकरी पैक करके ले गयी.वीणा का यही सोचना था कि अलमारियों में बंद सामान किसी के काम आये तो उससे अच्छी बात क्या हो सकती है.  आज इस बात को पच्चीस साल बीत गए हैं,सुमि पढ़ लिख कर अच्छी पोस्ट पर है,घर की काया पलट तो कब की हो गयी,दोनों आजकल अलग अलग शहरों में भी हैं पर सुनीता और वीणा के सम्बन्ध आज भी बहुत ही मधुर हैं,सुनीता आज तक नहीं भूली कि उनके घर आने वाली सबसे पहली  ढंग की प्लेट्स वीणा की दी हुई थीं ,सुनीता के जीवन का स्तर बढ़ा तो समय के साथ वीणा का और बढ़ा पर जीवन के नीचे के दौर में वीणा ने जैसे साथ दिया था,उससे अजनबी भी अपने हो गए.

सरला ने एक कॉलोनी में एक प्लाट लेकर छोड़ दिया था,जब सालों बाद उस प्लाट पर अपनी कोठी बनाकर रहने आयी तो उसे लगा उसके आसपास के लोगों का स्तर उससे कम है,कोठी के दोनों और मध्यमवर्गीय परिवार थे ,आसपास के बाकी लोग भी उसके जितने धनी नहीं थे,सरला,उसके पति अनिल और उनकी एक ही युवा बेटी कोमल ही उस बड़े से घर में  रहते,अनिल तो बिज़नेस में व्यस्त रहते पर माँ बेटी आसपड़ोस में किसी से भी बात करना गवारा न समझतीं,न किसी से बोलना,न किसी के घर किसी भी मौके पर जाना, न किसी को कभी अपने घर बुलाना. धीरे धीरे आसपास के लोगों ने भी एक दूरी बनानी शुरू कर दी,अब न कोई उन्हें कभी बुलाता न उनसे बात करने की कोई कोशिश करता,दो साल ऐसे ही बीत गए,उनके यहाँ कोई उन्ही की हैसियत का को मेहमान आता तो घर के लोग उनके साथ कभी कहीं आते जाते दिख जाते. एक  दिन कुछ फल खरीदते हुए भारी भरकम शरीर वाली सरला का बैलेंस बिगड़ गया,वे रोड पर ही गिर गयीं,इतने दिन से अपमान झेल रहीं साथ खड़ी महिलाओं ने किसी भी तरह की हेल्प का हाथ नहीं बढ़ाया,सब उनकी तरफ से नजरें बचा कर अपने घर चली गयीं,सब्जी वाला ही उन्हें घर छोड़ कर आया,इसके बाद वे जल्दी ही उस जगह से कहीं और रहने चली गयीं क्योंकि उनका मन इस जगह लगा ही नहीं.

मेघा जब नयी नयी सोसाइटी में आयी तो उसने भांप लिया कि उसकी बिल्डिंग में रहने वाले कुछ लोगों का स्तर उससे कम है तो उसने आसपास की महिलाओं के सामने और भी डींगें मारना शुरू कर दिया,साल में एक बार मेघा अपने पति और बच्चों के साथ विदेश घूमने जाया करती थी,जो महिलाएं कभी विदेश नहीं गयीं थीं उनके सामने डींगें मारने में मेघा को अलग ही ख़ुशी मिलती. पहले तो किसी का ध्यान नहीं गया पर जब सबने नोट किया तो उसकी पीठ पीछे उसका खूब मजाक बनने लगा. हर समय अपने घमंड में चूर मेघा किसी से भी बात करती तो ऐसे जैसे उस पर एहसान कर रही हो,धीरे धीरे उसका सोशल बायकॉट होने लगा,यहाँ तक कि उसके बच्चों के साथ महिलाएं अपने बच्चों को खेलने भी न देतीं,उसके बच्चे ही उस पर गुस्सा होने लगे कि आपकी वजह से हमारे दोस्त नहीं बन पाते,पति के सहयोगियों की पत्नियां  भी एक दूरी रखती.

मेघा के बिलकुल उलट सरिता अपने आसपास के लोगों से खूब घुल मिल कर रहती,जब पता चल जाता कि  सामने वाले इंसान का लाइफ स्टाइल अपने जैसा नहीं है तो भी सरिता उससे बहुत अपनेपन के साथ व्यवहार  करती ,सबको जैसे एक भरोसा सा रहता कि कोई भी जरुरत होगी,सरिता साथ देगी,सब उसकी खुले दिल से पीठ पीछे भी तारीफ़ करते,पर कभी कभी उसका छोटा मोटा नुकसान भी हो जाता जिसे आसपास के रिश्ते में कटुता न आने देने के लिए वह इग्नोर कर देती,एक बार उसने देखा कि पड़ोस की रेखा को पत्रिकाएं पढ़ने का बहुत शौक है पर वह इतनी  खरीद नहीं पाती,सरिता को पत्रिकाएं पढ़ने का बहुत शौक था,वह हर महीने खूब पत्रिकाएं खरीदती,उसने रेखा से कहा ,”तुम्हे पढ़ने का शौक है तो मुझसे ले कर पढ़ लिया करो. ”

रेखा खुश हो गयी,अब वह हर महीने सरिता से पत्रिकाएं तुरंत ले जाती,यह भी न देखती कि सरिता ने भी खुद अभी पढ़ी है या नहीं और जब वापस करती,वे फटी मुचड़ी हालत में होतीं,अपनी एक एक पत्रिका हमेशा संभाल कर रखने वाली सरिता के लिए यह बहुत अजीब सी स्थिति होती,कुछ कहना भी ठीक न लगता पर फटी पत्रिका हाथ में लेकर पढ़ने में उसे बहुत दुःख होता,कभी वह मिक्सर मांग कर ले जाती,सरिता कभी मना न करती,कई कई दिन तक बिना मांगे वापस न करती,अचानक सरिता को जरुरत पड़ती,वह ही लेने भागती पर फिर भी उसने हमेशा इस बात का ध्यान रखा कि अगर किसी आसपास वाले के काम आ सकती है तो जरूर आये.

विपिन जब अविवाहित था उसने अपनी नयी नौकरी लगते ही जिस एरिया में घर लिया,वहां मकान मालिक के जीवन का स्तर उसकी नयी नयी सुविधाओं से भरी लाइफ से कम था,मकान मालिक को जिस भी चीज की जरुरत होती,वह अपने पोरशन की चाभी ही दे जाता,नए शहर  में नयी नौकरी में वह   काफी व्यस्त रहता,धीरे धीरे उसके नम्र स्वभाव के चलते वह उनकी फॅमिली मेंबर जैसा ही हो गया,यहाँ तक कि जब वह शादी के बाद अपनी वाइफ को लेकर आया,उनकी लाइफ की हर जरुरत के समय मकान मालिक का पूरा परिवार हाजिर रहता,दोनों में से कोई भी कभी बीमार हो जाता,उन्हें कोई परेशानी नहीं होती,उनके काम आने वाले कई लोग हाजिर रहते.जब उनका ट्रांसफर हो गया,वे परिवार की ही तरह अलग हुए और जब भी कभी फिर उस शहर में आये,मकान मालिक से मिले बिना  कभी नहीं गए.

पुणे की दीपा जो एक पॉश सोसाइटी में रहती हैं,वे अपने दिल की बात कुछ इस तरह शेयर करते हुए कहती हैं,”अगर मेरे आसपास कोई मुझसे कम स्तर वाले के साथ मेरा मिलना होता है तो मैं बहुत आराम,सहजता महसूस करती हूँ क्योंकि फिर मुझ पर कपड़ों,गहनों की नुमाइश का प्रेशर नहीं रहता,मैं स्वभाव से बहुत सिंपल हूँ,मुझसे बड़ी बड़ी बातें नहीं होतीं,न मुझे कोई पार्टीज या कभी किटी पार्टीज का शौक  रहा,मैं अपने पति की ऑफिस की पार्टीज में भी ज्यादा मिक्स नहीं होती क्योंकि उन लेडीज का सोचना मुझसे बहुत अलग होता है,मैं पढ़ना लिखना पसंद करती हूँ,वे कुछ और बातें करती हैं जो मेरे इंटरेस्ट की नहीं होती इसलिए मैं अपने से कम स्तर वालों के साथ बहुत अच्छा,फ्री महसूस करती हूँ.”

अपने आसपास के स्तर का बच्चों पर कुछ अलग ही प्रभाव पड़ता है,मुंबई की रीता का कहना है,”जिन लोगों का स्तर आपसे कम हो,उन बच्चों के साथ खेलते हुए आपसे बच्चों पर कुछ अलग असर होता है,कम स्तर वाले घरों के  बच्चे ऐसे माहौल में पल बढ़ रहे होते हैं जिनका सोचना हमारे से बिलकुल अलग होता है,हमारे बच्चों के ऊपर बड़ी बड़ी कोचिंग क्लास ,उनके हाई फाई करियर का प्रेशर होता है,हमारे बच्चों की बातें अलग होती हैं,उनकी अलग. ऐसे में हमारे बच्चों का सोचना हमारे लाइफस्टाइल से अलग न हो,इसकी टेंशन तो रहती है. ” कड़वा ही सही पर सच है यह.

कई बार ऐसा भी होता है कि बेहतर लाइफ स्टाइल वाली फॅमिली को साधारण स्तर वाले लोग उतनी खुशदिली से नहीं अपनाते जबकि बेहतर स्तर की फॅमिली में न कोई घमंड होता है न दिखावा,मेरठ में थापर नगर में जब संजना का अति समृद्ध परिवार रहने आया तो वह जितना आसपास वालों से मिलने जुलने की कोशिश करती,हर बार कोई न कोई उसे चुभता हुआ कुछ कह देता,उनकी बेटी एक मल्टी नेशनल कंपनी में काम करती थी,बड़ी पोस्ट पर थी ,वह अक्सर लेट होती,कोई कलीग उसे छोड़ने आ जाता तो आसपास की खिड़कियों से कई जोड़ी नजरें ऐसे घूरतीं कि उन्हें बहुत अजीब लगता,यहाँ आसपास का आर्थिक  स्तर तो मेल मिलाप में दीवार बनता ही,मानसिक स्तर भी एक दूरी बनाये रखता.मानसिक स्तर पर जो आपस में अंतर होता है,वह भी उतना ही समस्याएं खड़ी कर देता है जितना आर्थिक स्तर पर अंतर करता है.

आसपास के लोगों का स्तर अगर आपसे कम है तो सबसे पहले इस बात का ध्यान जरूर रखें कि कभी भी भूल कर भी डींगें न मारें,यह बहुत छोटी बात होगी,इससे भले ही आपके पास पैसा हो,आप  नीचे ही दिखेंगें,डींगें मारना,घमंड करना ,सामने वाले का अपमान करना आपकी सारी खूबियों को ख़तम कर सकता है. आजकल वैसे भी समाज में नफ़रतें बढ़ती ही जा रही हैं,धर्म  और जाति को लेकर दिलों में दीवारें खड़ी की जा रही हैं,ऐसे में कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि आसपास प्यार और सद्भावना का माहौल बनाने  में मदद करें,आसपास के लोगों को आपकी किसी भी तरह की जरुरत हो,उनके काम आएं,अपनी हेल्प ऑफर करें.

जी उठी हूं मैं: नेहा के आने से क्यों खुश थी रिया

रिया ने चहकते हुए मुझे बताया, ‘‘मौम, नेहा, आ रही है शनिवार को. सोचो मौम, नेहा, आई एम सो एक्साइटेड.’’

उस ने मुझे कंधे से पकड़ कर गोलगोल घुमा दिया. उस की आंखों की चमक पर मैं निहाल हो गई. मैं ने भी उत्साहित स्वर में कहा, ‘‘अरे वाह, तुम तो बहुत एंजौय करने वाली हो.’’

‘‘हां, मौम. बहुत मजा आएगा. इस वीकैंड तो बस मजे ही मजे, 2 दिन पढ़ाई से बे्रक, मैं बस अपने बाकी दोस्तों को भी बता दूं.’’

वह अपने फोन पर व्यस्त हो गई और मैं चहकती हुई अपनी बेटी को निहारने में.

रिया 23 साल की होने वाली है. वह बीकौम की शिक्षा हासिल कर चुकी है. आजकल वह सीए फाइनल की परीक्षा के लिए घर पर है. नेहा भी सीए कर रही है. वह दिल्ली में रहती है. 2 साल पहले ही उस के पापा का ट्रांसफर मुंबई से दिल्ली हुआ है. उस की मम्मी मेरी दोस्त हैं. नेहा यहां हमारे घर ही रुकेगी, यह स्पष्ट है. अब इस ग्रुप के पांचों बच्चे अमोल, सुयोग, रीना, रिया और नेहा भरपूर मस्ती करने वाले हैं. यह ग्रुप 5वीं कक्षा से साथ पढ़ा है. बहुत मजबूत है इन की दोस्ती. बड़े होने पर कालेज चाहे बदल गए हों, पर इन की दोस्ती समय के साथसाथ बढ़ती ही गई है.

अब मैं फिर हमेशा की तरह इन बच्चों की जीवनशैली का निरीक्षण करती रहूंगी, कितनी सरलता और सहजता से जीते हैं ये. बच्चों को हमारे यहां ही इकट्ठा होना था. सब आ गए. घर में रौनक आ गई. नेहा तो हमेशा की तरह गले लग गई मेरे. अमोल और सुयोग शुरू से थोड़ा शरमाते हैं. वे ‘हलो आंटी’ बोल कर चुपचाप बैठ गए. तीनों लड़कियां घर में रंगबिरंगी तितलियों की तरह इधरउधर घूमती रहीं. अमित औफिस से आए तो सब ने उन से थोड़ीबहुत बातें कीं, फिर सब रिया के कमरे में चले गए. अमित से बच्चे एक दूरी सी रखते हैं. अमित पहली नजर में धीरगंभीर व्यक्ति दिखते हैं. लेकिन मैं ही जानती हूं वे स्वभाव और व्यवहार से बच्चों से घुलनामिलना पसंद करते हैं.  लेकिन जैसा कि रिया कहती है, ‘पापा, मेरे फ्रैंड्स कहते हैं आप बहुत सीरियस दिखते हैं और मम्मी बहुत कूल.’ हम दोनों इस बात पर हंस देते हैं.

तन्मय आया तो वह भी सब से मिल कर खेलने चला गया. नेहा ने बड़े आराम से आ कर मुझ से कहा, ‘‘हम सब डिनर बाहर ही करेंगे, आंटी.’’

‘‘अरे नहीं, घर पर ही बनाऊंगी तुम लोगों की पसंद का खाना.’’

‘‘नहीं आंटी, बेकार में आप का काम बढ़ेगा और आप को तो पता ही है कि हम लोग ‘चाइना बिस्ट्रो’ जाने का बहाना ढूंढ़ते रहते हैं.’’

मैं ने कहा, ‘‘ठीक है, जैसी तुम लोगों की मरजी.’’

डिनर के बाद सुयोग और अमोल तो अपनेअपने घर चले गए थे, तीनों लड़कियां घर वापस आ गईं. रीना ने भी अपनी मम्मी को बता दिया था कि वह रात को हमारे घर पर ही रुकेगी. हमेशा किसी भी स्थिति में अपना बैड न छोड़ने वाला तन्मय चुपचाप ड्राइंगरूम में रखे दीवान पर सोने के लिए चला गया. हम दोनों भी सोने के लिए अपने कमरे में चले गए. रात में 2 बजे मैं ने कुछ आहट सुनी तो उठ कर देखा, तीनों मैगी बना कर खा रही थीं, साथ ही साथ बहुत धीरेधीरे बातें भी चल रही थीं. मैं जानती थी अभी तीनों लैपटौप पर कोई मूवी देखेंगी, फिर तीनों की बातें रातभर चलेंगी. कौन सी बातें, इस का अंदाजा मैं लगा ही सकती हूं. सुयोग और अमोल की गर्लफ्रैंड्स को ले कर उन के हंसीमजाक से मैं खूब परिचित हूं. रिया मुझ से काफी कुछ शेयर करती है. फिर तीनों सब परिचित लड़कों के किस्से कहसुन कर हंसतेहंसते लोटपोट होती रहेंगी.

मैं फिर लेट गई थी. 4 बजे फिर मेरी आंख खुली, जा कर देखा, रीना फ्रिज में रखा रात का खाना गरम कर के खा रही थी. मुझे देख कर मुसकराई और सब के लिए उस ने कौफी चढ़ा दी. मैं पानी पी कर फिर जा कर लेट गई.

मैं ने सुबह उठ कर अपने फोन पर रिया का मैसेज पढ़ा, ‘मौम, हम तीनों को उठाना मत, हम 5 बजे ही सोए हैं और मेड को मत भेजना. हम उठ कर कमरा साफ कर देंगी.’

मैसेज पढ़ कर मैं मुसकराई तो वहीं बैठे अमित ने मुसकराने का कारण पूछा. मैं ने उन्हें लड़कियों की रातभर की हलचल बताते हुए कहा, ‘‘ये लड़कियां मुझे बहुत अच्छी लगती हैं, न कोई फिक्र न कोई चिंता, पढ़ने के समय पढ़ाई और मस्ती के समय मस्ती. क्या लाइफ है इन की, क्या उम्र है, ये दिन फिर कभी वापस नहीं आते.’’

‘‘तुम क्या कर रही थीं इस उम्र में? याद है?’’

‘‘मैं कुछ समझी नहीं.’’

‘‘तुम तो इन्हें गोद में खिला रही थीं इस उम्र में.’’

‘‘सही कह रहे हो.’’

20 वर्षीय तन्मय रिया की तरह मुझ से हर बात शेयर तो नहीं करता लेकिन मुझे उस के बारे में काफीकुछ पता रहता है. सालों से स्वाति से उस की कुछ विशेष दोस्ती है. यह बात मुझे काफी पहले पता चली थी तो मैं ने उसे साफसाफ छेड़ते हुए पूछा था, ‘‘स्वाति तुम्हारी गर्लफ्रैंड है क्या?’’

‘‘हां, मौम.’’

उस ने भी साफसाफ जवाब दिया था और मैं उस का मुंह देखती रह गई थी. उस के बाद तो वह मुझे जबतब उस के किस्से सुनाता रहता है और मैं भरपूर आनंद लेती हूं उस की उम्र के इन किस्सों का.

अमित ने कई बार मुझ से कहा है, ‘‘प्रिया, तुम हंस कर कैसे सुनती हो उस की बातें? मैं तो अपनी मां से ऐसी बातें करने की कभी सोच भी नहीं सकता था.’’

मैं हंस कर कहती हूं, ‘‘माई डियर हस- बैंड, वह जमाना और था, यह जमाना और है. तुम तो बस इस जमाने के बच्चों की बातों का जीभर कर आनंद लो और खुश रहो.’’

मुझे याद है एक बार तन्मय का बेस्ट फ्रैंड आलोक आया. तन्मय के पेपर्स चल रहे थे. वह पढ़ रहा था. दोनों सिर जोड़ कर धीरेधीरे कुछ बात कर रहे थे. मैं जैसे ही उन के कमरे में किसी काम से जाती, आलोक फौरन पढ़ाई की बात जोरजोर से करने लगता. जब तक मैं आसपास रहती, सिर्फ पढ़ाई की बातें होतीं. मैं जैसे ही दूसरी तरफ जाती, दोनों की आवाज धीमी हो जाती. मुझे बहुत हंसी आती. कितना बेवकूफ समझते हैं ये बच्चे बड़ों को, क्या मैं जानती नहीं सिर जोड़े धीरेधीरे पढ़ाई की बातें तो हो नहीं रही होंगी.

तन्मय फुटबाल खेलता है. पिछली जुलाई में वह एक दिन खेलने गया हुआ था. अचानक उस के दोस्त का फोन आया, ‘‘आंटी, तन्मय को चोट लग गई है. हम उसे हौस्पिटल ले आए हैं. आप परेशान मत होना. बस, आप आ जाओ.’’

अमित टूर पर थे, रिया औफिस में, उस की सीए की आर्टिकलशिप चल रही थी. मैं अकेली आटो से हौस्पिटल पहुंची. बाहर ही 15-20 लड़के खड़े मेरा इंतजार कर रहे थे. बहुत तेज बारिश में बिना छाते के बिलकुल भीगे हुए.

एक लड़के ने मेरे पूछने पर बताया, ‘‘आंटी, उस का माथा फट गया है, डाक्टर टांके लगा रहे हैं.’’

मेरे हाथपैर फूल गए. मैं अंदर दौड़ पड़ी. कमरे तक लड़कों की लंबी लाइन थी. इतनी देर में पता नहीं उस के कितने दोस्त इकट्ठा हो गए थे. तन्मय औपरेशन थिएटर से बाहर निकला. सिर पर पट्टी बंधी थी. डाक्टर साहब को मैं जानती थी. उन्होंने बताया, ‘‘6 टांके लगे हैं. 1 घंटे बाद घर ले जा सकती हैं.’’

तन्मय की चोट देख कर मेरा कलेजा मुंह को आ रहा था पर वह मुसकराया, ‘‘मौम, आई एम फाइन, डोंट वरी.’’

मैं कुछ बोल नहीं पाई. मेरी आंखें डबडबा गईं. फिर 5 मिनट के अंदर ही उस के दोस्तों का हंसीमजाक शुरू हो गया. पूरा माहौल देखते ही देखते बदल गया. मैं हैरान थी. अब वे लड़के तन्मय से विक्टरी का ङ्क साइन बनवा कर ‘फेसबुक’ पर डालने के लिए उस की फोटो खींच रहे थे. तन्मय लेटालेटा पोज दे रहा था. नर्स भी खड़ी हंस रही थी.

तन्मय ने एक दोस्त से कहा, ‘‘विकास, मेरा क्लोजअप खींचना. डैड टूर पर हैं. उन्हें ‘वाट्सऐप’ पर भेज देता हूं.’’

देखते ही देखते यह काम भी हो गया. अमित से उस ने बैड पर बैठेबैठे ही फोन पर बात भी कर ली. मैं हैरान थी. किस मिट्टी के बने हैं ये बच्चे. इन्हें कहां कोई बात देर तक परेशान कर सकती है.

रिया को बताया तो वह भी औफिस से निकल पड़ी. रात 9 बजे तन्मय के एक दोस्त का भाई अपनी कार से हम दोनों को घर छोड़ गया था. तन्मय पूरी तरह शांत था, चोट उसे लगी थी और वह मुझे हंसाने की कोशिश कर रहा था. तन्मय को डाक्टर ने 3 हफ्ते का रैस्ट बताया था. अमित टूर से आ गए थे. 3 हफ्ते आनेजाने वालों का सिलसिला चलता रहा. एक दिन उस ने कहा, ‘‘मौम, देखो, आप की फ्रैंड्स और मेरे फ्रैंड्स की सोच में कितना फर्क है. मेरे फ्रैंड्स कहते हैं, जल्दी ठीक हो यार, इतने दिन बिना खेले कैसे रहेगा और आप की हर फ्रैंड यह कह कर जाती है कि अब इस का खेलना बंद करो, बस. बहुत चोट लगती है इसे.’’

उन 3 हफ्तों में मैं ने उस के और उस के दोस्तों के साथ जो समय बिताया, इस उम्र के स्वभाव और व्यवहार का जो जायजा लिया, मेरा मन खिल उठा.

इन बच्चों की और अपनी उस उम्र की तुलना करती हूं तो मन में एक कसक सी होती है. मन करता है कि काश, कहीं से कैसे भी उस उम्र में पहुंच जाऊं. इन बच्चों के बेवजह हंसने की, खिलखिलाने की, छोटीछोटी बातों पर खुश होने की, अपने दर्दतकलीफ को भूल दोस्तों के साथ ठहाके लगाने की, खाने की छोटी से छोटी मनपसंद चीज देख कर चहकने की प्रवृत्ति को देख सोचती हूं, मैं ऐसी क्यों नहीं थी. मेरी तो कभी हिम्मत ही नहीं हुई कि घर में किसी बात को नकार अपनी मरजी बताऊं. जो मिलता रहा उसी में संतुष्ट रही हमेशा. न कभी कोई जिद न कभी कोई मांग.

13 साल की उम्र में पिता को खो कर, मम्मी और भैया के सख्त अनुशासन में रही. अंधेरा होने से पहले भैया का घर लौटने का सख्त निर्देश, ज्यादा हंसनेबोलने पर मम्मी की घूरती कठोर आंखें, मुझे याद ही नहीं आता मैं जीवन में कभी 6 बजे के बाद उठी होऊं, विशेषकर विवाह से पहले. और यहां मेरे बच्चे जब मैसेज डालते हैं, ‘उठाना मत.’ तो मुझे कभी गुस्सा नहीं आता. मुझे अच्छा लगता है.

मेरे बच्चे आराम से अपने मन की बात पूरी कर सकते हैं. मेरी प्लेट में तो जो भी कुछ आया, मैं ने हमेशा बिना शिकायत के खाया है और जब मेरे बच्चे अपनी फरमाइश जाहिर करकर के मुझे नचाते हैं, मैं खुश होती हूं. मेरी कोई सहेली जब अपने किसी युवा बच्चे की शिकायत करती है जैसे देर से घर आने की, ज्यादा टीवी देखने की, देर तक सोने की आदि तो मैं यही कहती हूं–जीने दो उन्हें, कल घरगृहस्थी की जिम्मेदारी संभालनी है, जी लेने दो उन्हें.

मुझे लगता है मैं तो बहुत सी बातों में हमेशा मन मार कर अब तक जीती आई थी पर इन बच्चों को निश्ंिचत, खुश, अपनी इच्छा पूरी करने के लिए बात मनवाते देख कर सच कहती हूं, जी उठी हूं मैं.

हम साथ-साथ हैं: कुनिका को अपनी कौन सी गलती का पछतावा हो रहा था

‘‘क्या बात है, पापा, आजकल आप अलग ही मूड में रहते हैं. कुछ न कुछ गुनगुनाते रहते हैं. पहले तो आप को इस रूप में कभी नहीं देखा. इस का कोई तो कारण होगा,’’ कुनिका के इस सवाल पर कुछ पल मौन रहे. फिर ‘‘हां, कुछ तो होगा ही’’ कह राजेशजी चाय का घूंट भरते हुए अखबार ले कर बैठ गए.

इकलौती लाड़ली कुनिका कब चुप रहने वाली थी, ‘‘कोई ऐसावैसा काम न कर बैठना, पापा. अपनी उम्र और हमारी इज्जत का ध्यान रखना.’’

क्या यह उन की वही नन्ही बिटिया है जिसे पत्नी के गुजर जाने के बाद मातापिता दोनों का लाड़ दिया. तब बेटी और नौकरी बस 2 ही तो लक्ष्य रह गए थे. पर जब 19 वर्षीया कुनिका, असगर के साथ भाग गई थी तब भी बिना किसी शिकायत और अपशब्द के बेटी की इच्छा को पूरी तरह मान देने की बात, अखबारों में अपील कर के प्रसारित करवा दी. 4 दिन बाद कुनिका, असगर को छोड़ वापस आ गई थी और अपने इस गलत चुनाव के लिए पछताई भी थी.

तब शर्मिंदगी से बचने व बेटी के भविष्य के लिए उन्होंने अपना तबादला भोपाल करा लिया. अब समय का प्रवाह, उन्हें 65 बसंत के पार ले आया था. जीवन यों ही चल रहा था कि पिछले 1 वर्ष से पार्क में सैर करते हुए रेनूजी से परिचय हुआ. उन की सादगी, शालीनता, बातचीत में मधुरता देख उन के प्रति एक अलग सा मोह उत्पन्न हो रहा था. रेनूजी, यहां छोटे बेटेबहू के साथ रह रही थीं. बड़ा बेटा परिवार सहित अमेरिका में रह रहा था.

‘‘अपने बारे में कुछ सोचती हैं कभी?’’ एक दिन बातों ही बातों में राजेशजी ने कहा.

‘‘अपने बारे में अब सोचने को रहा ही क्या है? हाथपांव चलते जीवन बीत जाए,’’ कहते हुए रेनूजी का चेहरा उदास हो उठा था.

कुछ दिनों बाद, राजेशजी ने जीवनभर का साथ निभाने का प्रस्ताव रेनूजी के समक्ष रख दिया, ‘‘क्या आप मेरे साथ बाकी का जीवन बिताना चाहेंगी? अकेलेपन से हमें मुक्ति मिल जाएगी.’’

‘‘इस उम्र में यह मेरा परिवार, आप का परिवार, समाज, हम…’’ शब्द गले में ही अटक गए थे.

‘‘एक विधवा या विधुर को जीवन बसाने की तमन्ना करना क्या गुनाह है? हम ने अपने कर्तव्य पूरे कर लिए हैं. अब कुछ अपने लिए तलाश लें तो भला गलत क्या है? तुम्हारी स्वीकृति हम दोनों को एक नया जीवन देगी.’’

‘‘हां, यह सच है कि अकेलापन, मन को पीडि़त करता है. पर जीवन तो बीत ही गया, अब कितना बचा है जो…’’ कंपित स्वर था रेनूजी का, ‘‘अब मैं चलती हूं,’’ तेजी से वे चली गईं.

इधर, 10-12 दिनों से वे घर से नहीं निकलीं. उस दिन माला, रोहन से कह रही थी, ‘‘आजकल मम्मी घूमने नहीं जातीं. गुमसुम बैठी रहती हैं. मातम जैसा बनाए रखती हैं चेहरे पर.’’

‘‘कोई बात नहीं. अपनेआप ठीक हो जाएगा मूड. तुम टाइम से तैयार हो जाना. लंच पर रमेश के घर जाना है.’’

बेटे के इस उत्तर पर, रेनूजी की आंखें भर आईं. न जाने क्या सोच कर राजेशजी को मोबाइल पर नंबर लगा दिया. उधर से राजेशजी का मरियल स्वर सुन वे घबरा गईं, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं, 8 दिनों से तबीयत थोड़ी खराब चल रही है. बेटीदामाद लंदन गए हुए हैं. 2-4 दिनों में ठीक हो जाऊंगा,’’ और हलकी सी हंसी हंस दिए वे.

उस दिन 2 घंटे बाद, रेनूजी दूध, फल आदि ले राजेशजी के घर पहुंच गईं. तब राजेशजी के चेहरे की खुशी व तृप्ति, रेनूजी को अपने अस्तित्व की महत्ता दर्शा गई. आज का दिन उन की ‘स्वीकृति’ बन गया.

2 हफ्तों बाद, एकदूसरे को माला पहना, जीवनसाथी बन, रेनूजी के चेहरे पर संतोष के साथसाथ दुश्चिंता केभाव भी स्पष्ट थे. दोनों परिवारों के बच्चों से सामना करने का संकोच गहराता जा रहा था.

‘‘मुझे तो घबराहट व बेचैनी हो रही है कि बच्चे क्या कहेंगे? आसपास के लोग क्या कहेंगे? पांवों में आगे बढ़ने की ताकत जैसे खत्म हो रही है.’’

‘‘सब ठीक होगा. मैं हूं न तुम्हारे साथ. हर स्वीकृति कुछ समय लेती है. अब हमारे कदम रुकेंगे नहीं पहले मेरे घर चलो.’’

छोटी बिंदी और मांग में सिंदूरभरी महिला को पापा के साथ दरवाजे पर खड़ा देख कुनिका के अचकचा कर देखने पर परिचय कराते हुए राजेशजी बोले, ‘‘बेटी, ये तुम्हारी मां हैं. हम ने आज ही विवाह किया है. और…’’

‘‘यह क्या तमाशा है, पापा? शादी क्या कोई खेल है जो एकदूसरे को माला पहनाई और बन गए…’’

‘‘पहले पूरी बात तो सुनो, अगले माह कोर्टमैरिज भी होगी,’’ बीच में ही राजेशजी ने जवाब दे डाला.

‘‘कुछ भी हो, यह औरत मेरी मां नहीं हो सकती. इस घर में यह नहीं रह सकती,’’ वह उंगली तानते हुए बोली.

‘‘पर यह घर तो मेरा है और अभी मैं जिंदा हूं. इसलिए तुम इन्हें रोक नहीं सकतीं.’’

तभी रेनूजी ने आगे बढ़ते हुए कहा, ‘‘सुनो तो, बेटी.’’

‘‘मैं आप की बेटी नहीं हूं. मत करिएयह नाटक,’’ कुनिका पैर पटकती अंदर चली गई.

‘‘आओ रेनू, तुम भीतर आओ,’’ रेनूजी का उतरा चेहरा देख, राजेशजी ने समझाते हुए कहा, ‘‘हमारे इस फैसले को ये लोग धीरेधीरे अपनाएंगे. थोड़ा सब्र करो, सब ठीक हो जाएगा.’’

चाय बनाने के लिए रेनूजी के रसोई में घुसते ही, कुनिका ‘हुंह’ के साथ लपक कर बाहर निकल आई. पीछेपीछे राजेशजी भी वहीं पहुंच गए.

‘‘मेरे बच्चे भी न जाने क्याकुछ कहेंगे, कैसा व्यवहार करेंगे,’’ उन के पास जाने की सोच कर ही दिल बैठा जा रहा है,’’ चाय कपों में उड़ेलते हुएरेनूजी कह रही थीं, ‘‘मैं ने रोहन को बता दिया है मैसेज कर के. बस, अब बच्चों को एहसास दिलाना है कि हम उन के हैं, वे हमारे हैं. हम अलग रहेंगे पर सुखदुख में साथ होंगे. कोशिश होगी कि हम उन पर बंधन या बोझ न बनें और उन की खुशी…’’

तभी कुनिका की दर्दभरी चीख सुन सीढि़यों की तरफ से आती आवाज पर दोनों उस ओर लपके. वह कहीं जाने के लिए निकली ही थी कि ऊंची एड़ी की सैंडिल का बैलेंस बिगड़ने से 4 सीढि़यों से नीचे आ गिरी. रेनूजी व राजेशजी ने सहारा दिया और उस के कक्ष में बैड पर लिटा दिया. पहले तो दर्दनिवारक दवा लगाई फिर रेनूजी जल्दी से हलदी वाला गरम दूध ले आईं. कुनिका का पांव देख रेनूजी समझ गईं कि मोच आई है. राजेशजी से मैडिकल बौक्स ले कर उस में से पेनकिलर गोली दी. साथ ही, पांव में क्रेपबैंडेज भी बांध दिया.

‘‘परेशान न हो, कुनिका. कुछ ही घंटों में यह ठीक हो जाएगा,’’ कहते हुए रेनूजी ने पतली चादर उस के पैरों पर डाल उस के माथे पर हाथ फेर दिया.

धीरेधीरे दर्द कम होता गया. अब कुनिका आंखें बंद किए सोच रही थी, ‘सच में ही इस औरत ने पलक झपकते ही यह स्थिति सहज ही संभाल ली. अकेले पापा तो कितने नर्वस हो जाते.’ कुछ बीती घटनाओं को याद करते हुए वह सोचने लगी, ‘पापा वर्षों से अकेलेपन में जीते आए हैं. अब उन्हें मनपसंद साथी मिला है तो मैं क्यों चिढ़ रही हूं?

‘‘बेटी, अब कैसा लग रहा है?’’ माथे पर रेनूजी का गुनगुना स्पर्श, मन को ठंडक दे गया.

‘‘मैं ठीक हूं, आप परेशान न हों,’’ एक हलकी मुसकान के साथ कुनिका का जवाब पा रेनूजी का मन हलका हो गया.

अगले दिन रेनूजी अपने द्वार की घंटी बजा, राजेशजी के साथ दरवाजा खुलने की प्रतीक्षा में खड़ी थीं. दरवाजा खुला, माला ने दोनों को एक पल देखा और बिना कुछ कहे भीतर की ओर बढ़ गई. सामने लौबी में रोहन चाय पी रहा था. वह न तो बोला, न उस ने उठने का प्रयास किया और न इन लोगों से बैठने को कहा. राजेशजी स्वयं ही आगे बढ़ कर बोले, ‘‘हैलो बेटे, मैं राजेश हूं. तुम्हारी मां का जीवनसाथी. हम जानते हैं कि हमारा यह नया रिश्ता तुम्हें अच्छा नहीं लग रहा पर तुम्हें अब अपनी मां की चिंता करने की जरूरत नहीं होगी. हम दोनों…’’

‘‘बेकार की बातें न करें. हमारे बच्चे, समाज, आसपास के लोगों के बारे में कुछ तो सोचा होता. इतनी उम्र निकल गई और अब शादी रचाने की इच्छा जागृत हो गई आप लोगों की. क्या हसरत रह गई है अब इस उम्र में? मेरी मां तो ऐसा स्वप्न में भी नहीं सोच सकती थीं. यह सब आप का फैलाया जाल है. क्या इस वृद्धावस्था में यह शोभा देता है? आखिर, कैसे हम अपने रिश्तेदारों में गरदन उठा पाएंगे?’’ क्रोध और तनाववश रोहन का चेहरा विदू्रप हो उठा था.

तभी रेनूजी सामने आ गईं, ‘‘कौन से रिश्तेदारों की बात कर रहा है. जब मैं 2 छोटे बच्चों के साथ मुसीबतों से जूझ रही थी तब तो कोई अपना सगा सामने नहीं आया. तुम्हारे पापा की मृत्यु के साथ जैसे मेरा अस्तित्व भी समाप्त हो गया था. पर मैं जिंदा थी. सच पूछो तो मुझे स्वयं पर गर्व है कि मैं ने अपना कर्तव्य पूरी तरह निभाया, तुम बच्चों को ऊंचाई तक पहुंचाया.’’

तभी पास रखी कुरसी खींच, उस पर बैठते हुए राजेशजी बोले, ‘‘तुम्हारा कहना कि हमारी उम्र बढ़ गई है, तभी तो यह रिश्ता हसरतों का नहीं, साथ रहने व संतुष्टि पाने का है. बेटे, एक बार हमारी भावना, संवेदना पर गौर करना, सोचना और हमें अपना लेना. हम तो तुम्हारे हैं ही, तुम भी हमारे हो जाना. तुम्हारा छोटा सा साथ, हमें ऊर्जा व खुशी से लबालब रखेगा. अब हम चलते हैं.’’

उसी शाम कुनिका को भी फोन कर दिया, ‘‘आज गौरव भी भारत आ जाएगा. परसों रविवार की सुबह तुम लोग, साकेत वाले फ्लैट पर आ जाना. और हां, रेनूजी का परिवार भी निमंत्रित है. तुम सब की प्रतीक्षा होगी हमें.’’ फोन डिसकनैक्ट करने ही वाले थे कि उधर से आवाज आई, ‘‘पापा, हम जरूर आएंगे. बायबाय.’’ राजेशजी के चेहरे पर मुसकराहट छा गई.

वर्षों पूर्व छुटी एक ही रूम में सोने की आदत, अपनाने में असहजता व कुछ अजीब सा लग रहा था राजेशजी व रेनूजी को. फिर भी बातें करतेकरते एक सुकून के साथ कब वे दोनों नींद की आगोश में समा गए, पता ही न लगा. गहरी नींद में सोई हुई रेनूजी, अलार्म की घंटी पर, हलकी सी चीख के साथ जाग पड़ीं, ‘‘क्या हुआ? कौन है?’’

‘‘अरे, कोई नहीं. यह तो घड़ी का अलार्म बजा है.’’

‘‘अभी तो शायद 4 या साढ़े 4 ही बजे होंगे और यह अलार्म?’’

‘‘हां, मैं इतनी जल्दी उठता हूं, फिर फ्रैश हो कर सैर करने के लिए निकल जाता हूं. तुम चलोगी?’’ राजेशजी के पूछने पर, ‘‘अरे नहीं, मैं आधी रात के बाद तो सो पाई हूं कि…’’ परेशानी युक्त स्वर में जवाब आया.

‘‘क्यों? क्या तुम्हें नींद न आने की समस्या है?’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है. असल में नई जगह पर नींद थोड़ी कठिनाई से आ पाती है.’’

जीवन में कई ऐसी बातें होती हैं जिन पर गौर नहीं किया जाता, खास महत्त्व नहीं दिया जाता. और फिर अचानक ही वे महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं, जैसे कि राजेशजी को चटपटी सब्जी, एकदम खौलती हुई चाय, मीठे के नाम पर बूंदी के लड्डू बहुत पसंद हैं. इस के विपरीत रेनूजी को सादा, हलके मसाले की सब्जी और बूंदी के लड्डू की तो गंध भी पसंद नहीं आती. पर अब वे दोनों ही एकदूसरे की पसंद पर ध्यान देने लगे हैं, एकदूसरे की खुशी का ध्यान पहले करते हैं.

रविवार की दोपहर, राजेशजी व रेनूजी के घर में दोनों परिवारों के बच्चे एकदूसरे से परिचित हो रहे थे. रोहन और माला चुपचुप थे पर कुनिका और गौरव बातों में पहल कर रहे थे. तभी राजेशजी की आवाज पर सब चुप हो गए.

‘‘बच्चों, हम कुछ कहना चाहते हैं. हमारी इस शादी से किसी के परिवार पर भी आर्थिक स्तर पर कोई दबाव नहीं होगा. प्रौपर्टी बंट जाएगी या ऐसी ही कुछ और समस्या का सामना होगा, ऐसा कुछ भी नहीं होगा. हम दोनों ने कोर्ट में ऐफिडेविट बनवा कर निश्चय किया है कि हम पतिपत्नी बन कर एकदूसरे की चलअचल संपत्ति पर हक नहीं रखेंगे. अपनी इच्छा से अपनी संपत्ति गिफ्ट करने की स्वतंत्रता होगी. अपनीअपनी पैंशन अपनी इच्छा से खर्च करने की मरजी होगी. खास बात यह कि तुम्हारी मां अपनी पैंशन को हमारे घर के खर्च पर नहीं लगाएंगी. यह खर्च मैं वहन करूंगा. आर्थिक सहायता नहीं, पर भावनात्मक या कभी साथ की जरूरत हुई तो हम बच्चों की राह देखेंगे. हम तो तुम्हारे हैं ही, बस, तुम्हें अपना बनता हुआ देखना चाहेंगे. और भी कुछ जिज्ञासा हो तो आप पूछ सकते हैं,’’ इतना कह राजेशजी, प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में चुप हो गए.

‘‘हम आप के साथ हैं, आप की खुशी में हम भी खुश हैं,’’ दोनों परिवारों के सदस्यों ने समवेत स्वर में कहा. तभी राजेशजी ने रेनूजी का हाथ धीरे से थामते हुए कहा, ‘‘शेष जीवन, कटेगा नहीं, व्यतीत होगा.’’

पैरों का फैट कम करने के ये हैं आसान उपाय

मोटापा जाल लोगों के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है. इससे निजात पाने के लिए लोग तरह तरह के इलाज अपनाते हैं. मोटापा भी कई तरह का होता है. कई बार पूरा शरीर फैट के चपेट में आ जाता है. तो कभी शरीर के कुछ हिस्से, जैसे शरीर का उपरी हिस्सा या नीचे का हिस्सा मोटा  जाता है.

इस खबर में हम आपका बताएंगे कि आप शरीर के निचले हिस्से में बढ़ रहे फैट से कैसे छुटकारा पा सकते हैं. हमारे बताए कुछ स्मार्ट टिप्स आपको इस परेशानी से आजादी देंगे. तो आइए जानते हैं इन ट्रिक्स के बारे में.

खूब पिएं पानी

वेटलौस के लिए जरूरी है कि आप हाइड्रेटेड रहें. ज्यादा पानी पीने से आपके शरीर से एक्स्ट्रा साल्ट निकल जाता है.

कार्डियो में मदद

वजन कम करने के लिए लोग तरह तरह के एक्सरसाइज करते हैं. पर क्या आपको पता है कि एक्सरसाइज से अधिक असरदार कार्डियो होता है. जौगिंग, रनिंग और रस्सी कूदने जैसी चीजें इसमें काफी कारगर हैं.

लो कार्बोहाइड्रेट

अधिक कार्बोहाइड्रेट लेने से शरीर के कई जरूरी हिस्सों में, जैसे मांसपेशियों में, लिवर में पानी भर जाता है जिससे आप अधिक वेट महसूस करते हैं. लो कार्बोहाइड्रेट का सेवन शरीर के लिए काफी अच्छा होता है इससे इससे वाटर वेट निकल जाता है.

कम करें नमक का सेवन

आमतौर पर नमक को संतुलित मात्रा में सेवन करने की बात लोगों के दिमाग में जल्दी नहीं आती. पर जिस तरह से चीनी का अधिक सेवन सेहत पर नकारात्मक असर डालता है, नमक भी आपके लिए काफी हानिकारक हो सकता है. इस रोग के मरीजों को तुरंत नमक का सेवन कम करना चाहिए. ऐसा करने से जल्दी ही उन्हें शरीर में बदलाव महसूस होगा.

फ्लूड बैलेंस

शरीर में फ्लूड का बैलेंस रहना बेहद जरूरी है. इसके लिए जरूरी है कि आप ऐसे खआद्य पदार्थों का सेवन करें जिनमें पानी की मात्रा अधिक हो. जैसे हरी साग सब्जियां, फल, दही आदि का सेवन काफी लाभकारी होगा. इन चीजों से आपको कैल्शियम, पोटैशियम, मैग्नीशियम मिलता है.

चाय कौफी को कहें ना

चाय या कौफी का सेवन कम कर दें. इनसे दिन की शुरुआत करने से सेहत का काफी नुकसान होता है. इसकी जगह पर आप जीरा पानी, सौंफ पानी का सेवन कर सकते हैं. फैट कम करने में काफी लाभकारी होते हैं.

तुम हो नागचंपा- भाग 1

“आज तो आप बहुत ही सुंदर लग रही हैं,” दर्पण में अपनेआप को निहारती, अपनी आवाज को अपने पति महीप जैसी भारी बना कर स्नेह रस उड़ेलती कामिनी खिलखिला कर हंस पड़ी. स्वयं पर वह न्यौछावर हुई जा रही थी.

गुलाबी सिक्वैंस साड़ी के साथ डीप बैक नैक का ब्लाऊज शादी से पहले मां से छिप कर बनवाया था. महीप का कामिनी के प्रति रवैया किसी नवविवाहित पति सा क्यों नहीं है, यह सोचसोच कर व्यथित होने के स्थान पर पति को रिझाना उचित समझा था उस ने. आज अपनेआप को नख से शिखा तक श्रृंगार में लिपटाए वह पति को खुद में डूबो देना चाहती थी.

कामिनी की शादी 2 माह पहले महीप से हुई थी. एक मध्यम श्रेणी का व्यापारी महीप कासगंज में रह रहा था. पास के एक गांव में पहले वह बड़े भाइयों, पिता, चाचाताऊ आदि के साथ खेतीबाड़ी का काम देखता था. गांव छोड़ कासगंज आने का कारण पास के एक आश्रम में रहने वाले स्वामी के प्रति आस्था के अतिरिक्त कुछ न था.

स्वामीजी ने एक बार गांव में प्रवचन क्या दिया कि महीप उन के विचारों को प्रतिदिन सुनने की आस लिए आश्रम के समीप जा बसा. पिता से पैसा ले कर गत्ते के डब्बे बनाने का एक छोटा सा धंधा शुरू किया. धीरेधीरे जीवनयापन योग्य कमाई होने लगी.

कामिनी यूपी के रामनगर की थी. परिवार की सब से बड़ी संतान कामिनी से छोटे 2 भाई पढ़ रहे थे. पिता स्कूल मास्टर थे और मां घर संभालती थी. रामनगर के सरकारी कालेज से बीए करते ही कामिनी का हाथ महीप के हाथों में दे दिया गया. रिश्ता पिता के एक मित्र ने करवाया था. मध्यवर्गीय परिवार में पलीबङी कामिनी की कामना रुपयापैसा नहीं केवल पति का प्रेम था, जो विवाह के 2 माह बीत जाने पर भी वह अनुभव नहीं कर पा रही थी. सखीसहेलियों से सुने तमाम किस्से ऐसी कहानियां लग रही थीं जिन का वास्तविकता से कोई संबंध नहीं. अब तक कुल 2 रातें ऐसी गुजरी थीं, जब पति के प्रेम में डूब स्वयं को वह किसी राजकुमारी से कम नहीं समझ रही थी, लेकिन बाकी के दिन महीप से हलका सा स्पर्श पाने को तरसते हुए बीते थे.

आज गुलाबी साड़ी के साथ गले में कुंदन का चोकर नैकलेस, कानों में मैचिंग लटकते झुमके, गुलाबी और सिल्वर रंग की खनखनाती चूड़ियों का सैट और गुलाब की हलकी रंगत और महक लिए शिमर लिपस्टिक लगा कर वह महीप को मोहपाश में जकड़ लेना चाहती थी. अपने चांद से रोशन चेहरे को आईने में देख मुसकराई ही थी कि याद आई परफ्यूम की वह शीशी जो पारिवारिक मित्र आकाश ने विवाह से 2 दिन पहले कामिनी को देते हुए कहा था, “मैं नागचंपा की सुगंध वाला परफ्यूम उपहार में इसलिए दे रहा हूं ताकि तुम को याद रहे कि शादी के बाद नागचंपा के पेड़ सी बन कर रहना है. कोमल भी कठोर भी। पता है न कि यह पेड़ खुशबूदार फूलों के साथ साथ लंबी व घनी पत्तियों से लद कर खूब छाया देता है, लेकिन इस की लकड़ी इतनी सख्त और मजबूत होती है कि काटने वालों की कुल्हाड़ी की धारें मुड़ जाती हैं.”

कामिनी ने अलमारी खोल कर गिफ्ट निकाला. शीशी का ढक्कन खोला तो उस की सुगंध में डूब गई, ‘आज तो महीप का मुझ में खो जाना निश्चित है.’ आकाश को मन ही मन धन्यवाद देते हुए कामिनी ने नागचंपा परफ्यूम लगा लिया.

नईनवेली ब्याहता कामिनी के पायल की रुनझुन से महीप का 2 कमरे वाला मकान पहले ही झनक रहा था, आज नागचंपा की खुशबू से पूरा घर महक उठा.

महीप का दुपहिया घर के सामने रुका तो कामिनी ठुमकते हुए दरवाजे तक पहुंची. महीप के भीतर दाखिल होते ही वह तिरछी मुसकराहट बिखरा कर प्रेम भरे नेत्रों से उसे देखने लगी. महीप माथे पर बल लिए उड़ती सी नजर कामिनी पर डाल आगे बढ़ गया.
कामिनी ने चाय बना ली. ट्रे में 2 कप चाय और नमकीन लिए मुसकराती सोफे पर बैठे महीप के पास जा कर खड़ी हो गई.

“यहां क्यों खड़ी हो गईं? वहां रख दो न चाय,” टेबल की ओर इशारा कर रुखाई से महीप बोला.

ट्रे टेबल पर रख कामिनी महीप से सट कर बैठ गई. महीप मूर्ति सा बना बैठा रहा. कामिनी ने उस के बालों को सहलाते हुए कान को हौले से चूम लिया.

‘चटाक…’ की तेज आवाज कमरे में गूंजी, कामिनी गाल पर हाथ रख भय मिश्रित आश्चर्य से महीप को देखती रह गई. इस से पहले कि वह कुछ समझ पाती महीप का कठोर स्वर सुनाई दिया, “शर्म नहीं आती? इस तरह सजधज कर पति के सामने कुलटाओं सी हरकतें कर रही हो.”

“आप मेरे पति हैं. शादी हुई है आप से. पतिपत्नी में कैसी शर्म? पिछले 2 महीनों में आप का रवैया पति जैसा तो बिलकुल भी नहीं है. ऐसा क्यों है? क्या कमी है मुझ में?”

“कमी यह है कि तुम पतिपत्नी के मिलन को मौजमस्ती समझती हो. जानती भी हो कि क्या कारण होता है इस का?”

“मेरे विचार से तो दोनों के बीच इस संबंध से प्रेम पनपता है, वे इस मिलन के बहाने एकदूसरे के नज़दीक आते हैं. भविष्य में सुखदुख बांट लेने से जीवन जीना आसान हो जाता है. बहुत जरूरी है यह संबंध. यह सच नहीं है क्या?” कामिनी एक सांस में बोल गई.

“मुझे पता था कि तुम्हारी सोच भी बिगड़े लोगों जैसी ही होगी. आज जान लो कि पतिपत्नी संबंध का कारण केवल संतान उत्पत्ति है और वह एक बार संबंध बनाने के बाद ही हो जाना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता तो इस का अर्थ है कि पत्नी ने कुछ पाप किए हैं. मैं जान गया था कि तुम पापी हो. आज तुम्हारे निर्लज्ज रूप ने समझा दिया कि बदचलन भी हो.”

“पापी? बदचलन? यह कैसी बातें कर रहे हैं आप?”

“मेरे सामने इस तरह लुभावना स्वरूप बनाए क्यों चली आईं? तम्हें लगा कि मैं इतना मूर्ख हूं जो तुम पर फिदा हो कर अभी संबंध बनाने लगूंगा? संतान के लिए पत्नी के पास मैं महीने में एक बार जाने वालों में से हूं. मुझे अपने जैसा समझ लिया क्या?”

कामिनी की रुलाई फूट पडी. सुबकते हुए बोली, “मैं ने तो ऐसा कभी नहीं सुना कि संबंध केवल बच्चे के लिए बनते हैं, न ही महीने में एक बार मिलन से गर्भवती होने की बात किसी ने मुझ से की है. आप को किस ने कहा यह सब?”

“कभी साधु लोगों की संगत में जाओ तो कुछ अच्छी बातें पता लगेंगी. घर बैठे कौन तुम्हें ज्ञान देने आएगा. होंगी 2-4 तुम्हारे जैसी मूर्ख सहेलियां जो स्त्रीपुरुष संबंधों को तुम्हारी तरह ही मजे की चीज समझती हैं. उन से ही सीख ली होगी अब तक तुम ने. कल चलना मेरे साथ स्वामीजी के आश्रम में. बहुत कुछ जान पाओगी वहां. पास ही है अपने घर के,” स्वयं को ज्ञानी समझ अकड़ता हुआ महीप उठ खड़ा हुआ. कामिनी टूटे हुए मन के टुकड़ों को सहेज पीड़ा से भरी अपने कमरे में चली गई.

क्या थी सलोनी की सच्चाई: भाग 2

मुकेश चला गया , सलोनी को कुछ ख़ास फर्क नहीं पड़ा , उसकी एक अलग सोच थी , वह इस टाइम को खुलकर एन्जॉय करती , जहाँ मन होता , जाती , जो अच्छा लगता , वो करती

मुकेश को यही कहती , मुकेश , मैं अपने घर में ही ठीक हूँ , जगह छोटी है , आसपास का पड़ोस तो अच्छा है ही , तुम मेरी चिंता न करो , अपना ध्यान रखना.’

दोनों रोज फ़ोन पर बात करते ,  सलोनी अकेली जरूर थी , पर परेशान नहीं  हो रही थी.अचानक सामने वाले घर में रहने वाले परिवार के सुनील ने  एक दिन उसका दरवाजा खटखटाया , कहा , सलोनी , मेरी पत्नी नीता को तेज बुखार है , गुड्डू छोटा है , मैं संभाल नहीं पा रहा हूँ , तुम थोड़ी देर के लिए उसे संभाल सकती हो ? बड़ी मेहरबानी होगी.” सलोनी ने ख़ुशी ख़ुशी गुड्डू की जिम्मेदारी ले ली , गुड्डू ही क्या , सुनील भी आते जाते सलोनी को ऐसे दिल दे बैठा कि बात बहुत दूर तक पहुँच गयी. सलोनी कई दिन से अकेली थी ही , सुनील की पत्नी बीमार , दोनों ने एक दूसरे का अकेलापन ऐसा बांटा कि कानोकान किसी को खबर नहीं हुई. दोनों  के सम्बन्ध बनने लगे , सारी दूरियां ख़तम हो गयी. सुनील धीरे धीरे सलोनी के लिए बहुत कुछ करने लगा , उसके खर्चों को खूब संभालता , मुकेश कई दिन से उसे पैसे ट्रांसफर नहीं कर पाया था , पर सुनील सलोनी की पैसों से खूब  मदद करने लगा.

मुकेश को अपनी पत्नी पर नाज हो आता , कितनी सहनशक्ति है , सलोनी में , जरा नहीं घबराती. सलोनी की सुनील के साथ रासलीला दिनोदिन बढ़ती जा रही थी , उसकी पत्नी ठीक हो गयी थी और सलोनी की अहसानमंद थी कि उसने परेशानी के समय गुड्डू को संभाल कर बहुत हेल्प की. अब भले ही गुड्डू का बहाना नहीं था पर सुनील अब भी सबसे नजरें बचा कर सलोनी के साथ  समय बिताता.अचानक सलोनी की एक सहेली उसके पास कुछ दिन रहने आ गयी , वह बीमार चल रही थी और सलोनी के कहने पर पीर बाबा  का आशीर्वाद  लेने आ गयी थी , सलोनी उसे बाबा  के पास ले गयी , बाबा ने झाड़ फूंक शुरू की , कहा , रोज आना होगा.” सहेली मंजू तैयार हो गयी , मंजू का पति अनिल भी उसके साथ आया था , सलोनी का रंग रूप देख अनिल का दिल मचल उठा , मंजू और सलोनी एक ही गांव की थी , मंजू का एक बेटा था जिसे वह इस समय अपने ससुराल छोड़ कर आयी थी , अनिल आया तो था कि बस मंजू को छोड़कर चला जायेगा पर सलोनी के पास से जाने का उसका मन ही नहीं हुआ. मंजू रोज पीर  बाबा के पास अकेली ही चली जाती , पीछे से अनिल ने मर्यादा लांघने की कोशिश की तो सलोनी को कहाँ ऐतराज हो सकता था , वह मुकेश की अनुपस्थिति को जी भर कर एन्जॉय कर रही थी. सलोनी ने उसके साथ कई बार सम्बन्ध बनाये , अभी सुनील नहीं आ सकता था , वह फ़ोन पर सलोनी से तड़प तड़प कर बात  किया करता , मन ही मन उसे मूर्ख कहती हुई सलोनी इस समय तो अनिल में डूबी थी , उसे न तो मुकेश की याद आती , न सुनील की.

मंजू की झाड़ फूंक इक्कीस दिन चली , अनिल इस बीच कई बार आता रहा था , बाइक पर आता , इस तरह आता कि मंजू को भी पता नहीं चल पाया कि जब वह पीर बाबा के सामने बैठी होती है , अनिल उसकी सहेली के साथ बैठा होता है. झाड़फूंक और अंधविश्वास में डूबे लोग न जाने कितने तरीके से अपने आप को नुकसान पहुंचा लेते हैं . अनिल फिर आते रहने का वायदा करके मंजू को लेकर चला गया , सलोनी ने कह दिया था , फ़ोन करके ही आना , उसे पता था अब वह कुछ दिन सुनील के साथ गुजारेगी। अनिल और मंजू चले गए  सलोनी ने फौरन सुनील को फोन किया , बहुत दिन हो गए , मैं तो मेहमानो में ही घिरी रही , कब आओगे ? बड़ी मुश्किल से कटे ये दिन ”

”जल्दी ही आता हूँ , सलोनी , बड़ा मुश्किल रहा तुम्हारे बिना जीना , आता हूँ ”

सलोनी मुकेश से पूछती रहती , ”कब तक काम ख़तम होने वाला है ? अब तो बहुत दिन हो गए ” वह कहता , बस जल्दी ही आता हूँ ‘  काम ऐसा ही था , मुकेश को पता ही नहीं होता था कि वह कब घर आ पायेगा , पर सलोनी की याद उसे खूब सताती , रोज फ़ोन पर बात हो जाती थी , सलोनी उसे बताती कि वह अपना सारा टाइम पूजा पाठ में , स्वामीजी की कुटीर में , पीर बाबा  के पास जाकर लगाती है , मुकेश खूब खुश हो जाता  कुछ दिन और बीते , मस्ती करने के चक्कर में सलोनी भूल ही गयी कि उसे काफी दिनों से पीरियड नहीं हुआ है , ध्यान गया तो हिसाब लगाया कि तीन महीने से ऊपर हो चुके हैं , खुद ही किट लेकर प्रेगनेंसी चेक भी कर ली , होश उड़ गए उसके , वह प्रेग्नेंट थी  मुकेश को गए तो चार महीने से ऊपर हो चुके थे , अनिल उसके पास आता रहा था , सुनील से भी सम्बन्ध चल ही रहे थे , उसने हिसाब लगाया , बच्चा मुकेश का तो नहीं था , इतना बेवक़ूफ़ तो मुकेश भी नहीं था कि इतना न सोचता  वह कुछ दिन सोचती रही , फिर एक लेडी डॉक्टर के पास पहुँच गयी , एबॉर्शन के लिए बात की तो डॉक्टर ने कहा ,” टाइम कुछ ज्यादा ही हो गया है , तुम कुछ कमजोर भी हो , यह तुम्हारे भविष्य के लिए ठीक नहीं रहेगा , अपने पति को ले आना , मैं उन्हें भी समझा दूंगी ” टाइम गुजरता जा रहा था , उसने दो और डॉक्टर्स से बात की , कोई भी एबॉर्शन के लिए तैयार नहीं हुआ  उसने सुनील को बता दिया , सुनील ने तो सुनते ही हाथ झाड़ लिए ,” देखो , सलोनी , मैं कुछ नहीं कर सकता , तुम ही सोचो , क्या करना है , मैं इतना ही कर सकता हूँ कि  आज के बाद तुमसे न मिलूं ” और वह सचमुच फिर कभी सलोनी से मिला भी नहीं  सलोनी को जैसे बड़ा धक्का लगा

गाड़ियों में दिखाते हैं मर्दानगी

उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे प्रदेशों की बात करें तो जमाना भौकाल का है. भौकाल बनता है मर्दानगी से. मर्दानगी दिखाने के लिए आजकल सब से अधिक प्रयोग इस तरह की गाड़ियों का किया जा रहा है जिन को देखते ही लगे कि कोई भौकाली चला आ रहा है. भौकाल दिखाने से रुतबा बढ़ता है. इस के लिए शुरू से ही लोग खास किस्म की गाड़ियों से चलते हैं. एक दौर था जब गाड़ियों में बोलैरो का प्रयोग इस के लिए किया जाता था. इस की लोकप्रियता का यह आलम था कि इस को ले कर ‘मैडम बैठ बोलैरो पर’ गाना भी बना.

उत्तर प्रदेश, बिहार ही नहीं हरियाणा और पंजाब तक इन का जलवा था. भोजपुरी ही नहीं, हरियाणवी में भी ‘मैडम बैठ बोलैरो बहुत लोकप्रिय हो गया था. बोलैरो महिंद्रा कंपनी की गाड़ी थी और इस की कीमत 9 लाख से शुरू होती थी. इस को चलाने वाला अपनी मर्दानगी दिखाता था. यही कारण है कि ‘मैडम बैठ बोलैरो…’ जैसे गाने खूब लोकप्रिय हो गए थे. अपनी बड़े पहिए और ताकतवर इंजन के बल पर यह शान और दमदारी से अच्छे और खराब दोनों रास्तों पर दौड़ती थी.
कुछ ही दिनों में बोलैरो से मर्दों का दिल भर गया. सड़कों पर महिंद्रा की ही महिंद्रा स्कौर्पियो उतर पड़ी. इस के आगे बोलैरो फीकी पड गई. अब सड़कों पर मर्दानगी की निशानी स्कौर्पियो हो गई, जिस की शुरुआती कीमत वह थी जो बोलैरो की टौप मौडल की होती थी. स्कौर्पियो की कीमत 13.59 लाख से शुरू होती है. 25 लाख से ऊपर की कीमत की गाड़ियां हैं. स्कौर्पियो को ले कर भी म्यूजिक अलबम बने. हरियाणा के कलाकार प्रदीप बूरा और पूजा हुड्डा ने ‘काली स्कौर्पियो तेरा यार जमानत पर आया…’ बहुत मशहूर हुआ.

स्कौर्पियो के बाद टाटा की सफारी बहुत मशहूर है. इस का प्रयोग भी सड़क पर मर्दानगी दिखाने के लिए किया जाता है. इस की कीमत 16 लाख से 35 लाख रुपए तक है. काली सफारी और उस के काले रंग के शीशे इतने लोकप्रिय हुए कि दंबगई और मर्दानगी का दूसरा नाम हो गए. इस के बाद इन पर नियंत्रण के लिए पुलिस विभाग ने काले रंग के शीशे पर प्रतिबंध लगा दिया. टाटा की सफारी भी म्यूजिक बनाने वालों की पहली पंसद बन गई. भोजपुरी के गायकों ने सफारी पर बहुत से म्यूजिक अलबम बनाए. इन में ‘गाड़ी में गाड़ी, गाड़ी सफारी…’, ‘कहिया घुमाईभो गाड़ी सफरिया में…’ और ‘बैठी के आइबो सफारी मा…’ जैसे तमाम गाने हैं.

बोलैरो, स्कौर्पियो और सफारी के बाद सब से अधिक एसयूवी फौर्च्यूनर को पसंद किया जा रहा है. इस का पहला कारण यह देखने में मर्दाना लुक रखती है. इस की कीमत उतनी है जिस में 5 बोलैरो, 3 स्कौर्पियो और 2 सफारी मिल जाएं. मर्दानगी में गाड़ी की कीमत का भी असर होता है. एसयूवी फौर्च्यूनर 60 लाख रुपए से शुरू होती है. इस पर भी म्यूजिक अलबम वालों ने खूब काम किया. बहुत सारे म्यूजिक अलबम बनाए. भोजपुरी में मोनू अलबेला और शिल्पी राज ने ‘गाड़ी फौच्यूनर लेल…’ गाया. राजस्थानी में एक गाना ‘बन्ना फौरच्यूनर लायो…’ बहुत मशहूर है. भोजपुरी में परवेश लाल, नीलम गिरी और शिल्पी राज ‘करिया ब्लाउज करिया साडी में फौच्यूनर लागे…’ खूब पसंद किया गया.

इन सब के बीच एक और गाड़ी मशहूर है जिस का नाम ‘थार’ है. यह तब और मशहूर हुई जब उत्तर प्रदेश के लखीमपुर में किसान आंदोलन के समय केंद्रीय मंत्री के बेटे पर थार से कुचल कर 4 किसानों के मार देने की घटना घटी. ‘थार’ सड़क पर चलती एक दहशत के रूप में देखी जाने लगी. सोशल मीडिया पर वायरल हुआ कि ‘थार’ सड़क पर जा रही हो तो किनारे खड़े हो जाओ.

कम कीमत में महिंद्रा की ‘थार’ का रुतबा भी कम नहीं है. 12 लाख रुपए की कीमत से यह शुरू होती है. सड़क पर मर्दानगी दिखाने वालों की यह एक अलग पसंद बन चुकी है. इस की बड़ी दिक्कत यह है कि इस में एक ही गेट होने के कारण कम पसंद की जा रही है. मर्दानगी दिखाने वाली दूसरी गाड़ियों की तरह ‘थार’ को ले कर भी खूब म्यूजिक अलबम बने हैं. लव कटारिया और खुशी बालियान ‘सिक्का मेरे यार का चले थार में…‘ खूब पसंद किया गया. भोजपुरी में शिल्पी राज और रानी का गाना ‘हमार बलाम लेके खूमें थार मा…’ भी पसंद किया गया.

 

मर्दानगी की निशानी बनी गाड़ियां

14 करोड़ रुपए से अधिक कीमत वाली बेंटले मल्सैन ईडब्ल्यूबी सेंटेनरी एडिशन भारत की सब से महंगी कार भले हो पर यहां जलवा मर्दानगी दिखाने वाली गाड़ियों का ही है. बात कार तक ही सीमित नहीं है. सड़कों पर मर्दानगी दिखाने वाली बाइक भी हैं. इन में पहला नंबर आज भी रौयल फील्ड बुलेट का है. इस की कीमत 2 लाख से शुरू होती है. वैसे तो रौयल फील्ड ने बुलेट के कई मौडल बाजार में उतारे हैं, इस के बाद भी जो बात काले रंग की बुलेट क्लासिकल की है वह दूसरे की नहीं. कम कीमत में यह अपने आवाज और अंदाज से सड़कों पर राज करती है. बुलेट की खासीयत उस की आवाज होती है. अब इस आवाज को कम करने के लिए साइलैंसर पर कई तरह के प्रयोग होने लगे हैं.

मर्दानगी दिखाने वाली चारपहिया गाड़ियों की तरह से बुलेट को ले कर भी खूब म्यूजिक अलबम बने हैं. इन में शिल्पी राज और विनय पांडेय का गाना ‘बुलेट पर जीजा…’ बहुत पसंद किया गया है. इस के अलावा ‘पंडित जी के बुलैट पै बईठ ए गोरी…’ और हरियाणवी गाना ‘बुलैट पर मारे गेढिंया…’ भी मशहूर हैं, जिन को कप्तान, फिजा चौधरी अषू टिविंकल ने गाया है. इस तरह से सड़कों पर कार और बाइक दोनों के जलवे हैं. इन के जरिए मर्दानगी का दिखावा होता है.

दबंगई और मर्दानगी दिखाने वाले ये लोग अधंविश्वास से दूर होते हैं. इन की सब से पहली पंसद काले रंग की गाड़ी होती है चाहे वह बाइक हो या कार. ये खुद तो इस तरह की गाड़ी से चलते ही हैं, इन के काफिले में भी एक ही रंग और मौडल की गाड़ियां चलती हैं. काले रंग को अशुभ माना जाता है. इस के बाद भी इन की पसंद काला रंग होता है. दूसरी बात इन की गाड़ी पर लाल रंग की चुनरी भी नहीं दिखती है. इन को अपनी काबिलीयत पर भरोसा अधिक होता है. इसी वजह से वे अंधविश्वास नहीं मानते हैं.

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