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क्या ऐसे अदालती फैसलों से सहमत होना चाहिए

जबलपुर हाईकोर्ट का यह फैसला एक बार फिर साल 1972 की सुपरडुपर हिट फिल्म ‘दुश्मन’ की याद ताजा कर गया. दुलाल गुहा निर्देशित यह फिल्म न्याय में नए प्रयोग के लिए जानी जाती है, जिस का स्वागत करने के लिए दर्शक सिनेमाघरों की तरफ टूट पड़े थे. फिल्म के हीरो राजेश खन्ना (सुरजीत) ट्रक ड्राइवर के रोल में थे जिस के हाथों रामदीन नाम के किसान की सड़क हादसे में मौत हो जाती है जो अपने घर का कर्ताधर्ता है.

ऐसे हादसे गैरइरादतन हत्या के होते हैं, इसलिए इन में सजा ज्यादा नहीं होती. जज के रोल में रहमान थे जो रामदीन के घर वालों की बदहाली, गरीबी और दुर्दशा के मद्देनजर सुरजीत को रामदीन के घरवालों के भरणपोषण की सजा सुनाते हैं कि वह मृतक के खेतों में हल जोते, फसलें उगाए और रामदीन के बीवीबच्चों की परवरिश करे. शुरुआती आनाकानी के बाद सुरजीत का मन गांव में लग जाता है और कुछ दिनों में ही उसे अपने हाथों हुए अपराध का एहसास होता है तो वह पश्चात्ताप भी करता है. फिर फिल्म फार्मूला होती जाती है. राजेश खन्ना को गांव की लड़की मुमताज से प्यार हो जाता है. विलेन वगैरह भी आ जाते हैं और आखिर में सबकुछ ठीक हो जाता है. रामदीन की विधवा मालती भी सुरजीत को माफ़ कर देती है और दर्शक नम आंखें लिए थियेटर के बाहर निकलते हैं. मालती की भूमिका में मीना कुमारी ने जबरदस्त अभिनय किया था.

तब क़ानूनी हलकों में इस फिल्म को ले कर खासी बहस और चर्चा हुई थी और कानून से जुड़े लोग व बुद्धिजीवी दोफाड़ हो गए थे कि ऐसे फैसले होने चाहिए या नहीं और अगर हो भी गए तो क्या गारंटी है कि वे भी फिल्म की तरह कारगर होंगे.

अब सालों बाद ऐसी ही बहस जबलपुर हाईकोर्ट के एक फैसले को ले कर छिड़ी हुई है. पहले इस मामूली से लगने वाले मामले को थोड़े से में समझें- बीबीए फर्स्ट ईयर का छात्र अभिषेक शर्मा भोपाल के पिपलानी इलाके में रहता है. पढ़ाई के साथसाथ वह इस उम्र में होने वाला एक और काम छेड़छाड़ का भी कर रहा था जिस का तरीका वैसा ही गलत था जैसा कि ‘दुश्मन’ फिल्म में राजेश खन्ना का नशे में धुत हो कर ट्रक चलाना था. अभिषेक एक 17 साल की लड़की, बदला नाम मान लें प्रिया है, से एकतरफा प्यार करने लगा था और रातबिरात फोन करने लगा था. वह राह चलते उसे छेड़ता था, उस का पीछा करता था, कमैंट्स करता था जिस से प्रिया बेहद तंग आ गई थी. आखिर चूंकि लड़की थी, इसलिए लड़ नहीं पाई.

उस की ख़ामोशी को अभिषेक ने मजबूरी और कमजोरी समझ लिया तो उस के हौसले और भी बुलंद होने लगे. उसे लगा और बेहद गलत लगा कि लड़कियां ऐसे भी पटती हैं, वे पहले नाजनखरे दिखाती हैं, नानुकुर करती हैं और फिर प्यार के आगे हथियार डाल बगीचे में पेड़ के इर्दगिर्द गाना गाने को तैयार हो जाती हैं. इसी जिद और जनून की गिरफ्त में आते उस ने प्रिया को इंप्रैस करने की गरज से उस के नाम का टैटू भी अपने हाथ में बनवा लिया. इस पर भी बात न बनी तो वह प्रिया को धमकियां देने लगा.
आखिकार एक दिन प्रिया के सब्र का बांध टूट गया और उस ने पुलिसथाने जा कर अभिषेक के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करा दी. पुलिस ने पाक्सो एक्ट के तहत अभिषेक को जेल भेज दिया. अभिषेक ने जमानत के लिए भोपाल जिला अदालत में अर्जी दाखिल की जो कि रद्द हो गई. यह 13 अप्रैल, 2024 की बात है. चार दिनों बाद ही यह मजनू हाईकोर्ट जा पहुंचा जहां उस की अर्जी पर 16 मई को सुनवाई हुई.

यह फैसला आया

अभिषेक के अधिवक्ता सौरभ भूषण श्रीवास्तव ने अदालत में दलील दी कि अभिषेक की पढ़ाई चल रही है, ऐसे में अगर उसे सख्त सजा दी गई तो उस का कैरियर बरबाद हो जाएगा. अभिषेक के पेरैंट्स ने बेटे की करतूत पर माफ़ी भी मांगी. सौरभ भूषण ने अपने मुवक्किल के अच्छे चालचलन का भी हवाला दिया.

इन दलीलों से इत्तफाक रखते और अभिषेक के भविष्य को गंभीरता से लेते जस्टिस आनंद पाठक ने लीक से हट कर फैसला सुनाया जो जल्द ही चर्चा का विषय बन गया. उन्होंने अपने फैसले में कहा कि छात्र को बेहतर नागरिक बनाने, उस की उम्र और भविष्य को देखते हुए समाजसेवा का आदेश दिया गया है ताकि उसे समाज की मुख्यधारा में आने का मौका मिले. दो महीने की अस्थाई जमानत की शर्त हाईकोर्ट ने यह रखी कि उसे सप्ताह में 2 दिन शनिवार और इतवार को भोपाल के जिला अस्पताल जा कर मरीजों की सेवा करनी होगी जिस के लिए उसे कोई भुगतान नहीं किया जाएगा. इस दौरान अगर उस के आचरण में सुधार दिखता है तो जमानत नियमित कर दी जाएगी.

अदालत ने यह भी कहा कि युवक अस्पताल में मरीजों के लिए परेशानी का कारण नहीं बनेगा. अगर उस के दुर्व्यवहार या आचरण की जानकारी या शिकायत आती है तो जमानत ख़ारिज कर दी जाएगी. अपने आदेश में जस्टिस आनंद पाठक ने यह भी लिखा कि भोपाल के मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ अधिकारी उसे बाह्य विभाग में कार्य करने की अनुमति देंगे, इस के बाद रिपोर्ट प्रदान करेंगे.

इत्तफाक से इन्हीं दिनों पुणे में हुए हादसे की भी चर्चा लोगों में थी जिस में एक नाबालिग ने आधीरात को बाइकसवार अनीश अवधिया और अश्विनी कोष्टा को हाई स्पीड पोर्शे कार से कुचल दिया था. आरोपी 12 बी में पास होने का जश्न मना कर घर लौट रहा था लेकिन ‘दुश्मन’ फिल्म के ड्राइवर राजेश खन्ना की तरह नशे में धुत था. लोग आरोपी के घर वालों को कोस रहे थे कि कैसे लापरवाह लोग हैं जिन्होंने नाबालिग बेटे को कार सौंप दी. चर्चाएं खत्म होतीं, इस के पहले ही यह खबर भी आ गई कि निचली अदालत ने आरोपी को जमानत दे दी और मामूली शर्तें ये रखीं कि वह ऐक्सिडैंट पर 300 शब्दों में निबंध लिखे और 15 दिन ट्रैफिक पुलिस के साथ काम करे. शराब की लत छुड़ाने के लिए उस की काउंसलिंग की बात भी अदालत ने कही. इस पर खूब हल्ला मचा जिस के चलते इस आरोपी के मां, बाप और दादा को भी पेश होना पड़ा.

फर्क क्या

इंसाफ के तराजू पर देखा जाए तो जबलपुर और पुणे के फैसलों में कोई खास फर्क नही है सिवा इस के कि पुणे वाले आरोपी के हाथों 2 लोगों की मौत हुई थी. कहा जा सकता है कि पुणे के मामले में भी अदालत की मंशा आरोपी के भविष्य को ध्यान में रखते हुए उसे एक मौका देने की थी. लेकिन इस पर बवंडर मचा तो अभी तक थमने का नाम नहीं ले रहा. रोजरोज नईनई बातें सामने आ रही हैं. यह ठीक है कि यह हादसा गंभीर था और गलती पेरैंट्स की भी थी, मुमकिन है सजा उन्हें भी भुगतनी पड़े.

अभिषेक के मामले पर सौरभ भूषण का कहना है कि ऐसे फैसलों से आरोपी को अपनी गलती का एहसास होगा और वह उसे सुधारने की कोशिश भी करेगा.
लेकिन क्या इसे प्रिया को इंसाफ मिलना कहा जा सकता है? इस का तर्कपूर्ण और ठोस जवाब किसी के पास नहीं कि उस ने 2 साल अभिषेक की ज्यादतियों और मानसिक यातना को बरदाश्त किया है. उस दौरान सोतेजागते, उठतेबैठते, खातेपीते और राह चलते वह किस दहशत में रही होगी, यह तो कोई और भुक्तभोगी लड़की ही बता सकती है. उस के कैरियर को हुए नुकसान की भरपाई कौन और कैसे करेगा. मुमकिन है अभिषेक को अपनी गलती का एहसास हो और वह सुधर भी जाए जो कि अदालत की उम्मीद और मंशा दोनों है. यह ठीक है कि कम उम्र लड़कों को सबक मिलना चाहिए वह भी बिना किसी सख्त सजा के तो यह इस मामले में देखने में आया है.

प्रिया की राय अगर अदालत इस बारे में लेती तो तसवीर कुछ और भी हो सकती थी. प्रिया जैसी पीड़िताओं को लंबे वक्त तक ऐसे लफंगो की ज्यादतियां बरदाश्त करने के बजाय तुरंत ही कानून की मदद लेनी चाहिए. अगर सहती रहेंगी तो कोई भी हादसा उन के साथ पेश आ सकता है जो अभिषेक बेखौफ हो कर उसे धमकियां देने लगा था, कल को वह साजिशन जबरदस्ती भी कर सकता था.

मेरे बड़े भाई हर वक्त मुझे डरा कर रखते हैं, मैं क्या करूं?

सवाल

मेरे 2 बड़े भाई हैं जो मुझ पर अकसर रोकटोक करते रहते हैं. उन दोनों के अनुसार मुझे एक सभ्य लड़की की तरह रहना चाहिए मुंह बंद कर के. बीते दिनों घर में सुबहशाम न्यूज चैनल चलते रहते थे. उन पर कभी जमाती तो कभी हिंदूमुसलिम मसला उठता तो परिवार के सभी लोग किसी गुंडे जैसी भाषा का प्रयोग करने लगते. जला दो, मार डालो जैसे शब्द कहते तो मैं खिन्न हो जाती क्योंकि किसी भी स्थिति में इंसानियत भूल जाना तो किसी मसले का हल नहीं. इस चक्कर में मेरी अपने भाइयों से भी कई बार लड़ाई हुई और मम्मीपापा से भी. अब हो यह रहा है कि वे आज तक मुझे ताने ही देते रहते हैं. मुझे लगने लगा है कि मेरी ही गलती है जो मैं ने किसी को कुछ समझाने की कोशिश की, लेकिन क्या सचमुच में मैं ही गलत हूं? अब अपने घरवालों से अपने रिश्ते को संभालूं या अपने सिद्धांतों पर चलूं?

जवाब

आप का कहना सही है कि इंसान को इंसानियत देखनी चाहिए और अपने सिद्धांतों पर भी चलना चाहिए. आप अब तक अपने परिवार को सही समझाने की कोशिश करती आई हैं तो अब पीछे हटने के बारे में मत सोचिए. यह सही है कि रिश्ते बनाए रखना जरूरी है लेकिन इस बाबत किसी के गलत तथ्यों या कहें गलत बातों का समर्थन करना तो सही नहीं है. आप अपनी बात पर अडिग रहें और साथ ही अपने पारिवारिक संबंध भी सही करने की कोशिश करें.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

अगर आप भी इस समस्या पर अपने सुझाव देना चाहते हैं, तो नीचे दिए गए कमेंट बॉक्स में जाकर कमेंट करें और अपनी राय हमारे पाठकों तक पहुंचाएं.

साड़ी में नाभि दिखना अश्लील नहीं, तो जींस में क्यों?

गरमी का समय था. मुझे सुबह जयपुर के लिए निकलना था. पारा इतना ज्यादा था कि पूछो मत. ट्रेन में बैठा ही था कि सामने वाली सीट पर क्रौप टौप और जींस पहनी एक 20-22 साल की लड़की बैठ गई. लड़की कान में हैडफोन लगा कर अपनी धुन में गाना सुन रही थी, और बाहर प्लेटफौर्म पर होने वाली हलचल देख रही थी.

ट्रेन के कोच में अधिकतर मर्दों की नजरें लड़की की नाभि पर अटकी हुई थीं, वही नाभि जिसे ‘बेली बटन’ के नाम से भी जाना जाता है. यह नाभि नवजात समय में मां और बच्चे के जुड़ाव की एक मात्र कड़ी गर्भनाल को अलग करने के चलते बनती है. वहां मेरी बगल में बैठा अधेड़ आदमी तो टकटकी लगाए देख ही रहा था.

उस अनजान अधेड़ सहयात्री ने मेरे कान में फुसफुसाना शुरू किया, ‘“क्या हो गया आजकल की लड़कियों को… कपड़े देखो.’” मैं ने पूछा, ‘क्यों क्या हुआ?’ वह उसी फुसफुसाहट में अश्लील और मादकता सी मुसकराहट के साथ कहने लगा, ‘“बताओ, पेट का छेद दिख रहा है. कमर दिखाने का क्या मतलब?”’ यह वही महाशय थे जो गरमी के चलते सफर में शर्ट खोल कर बनियान में बैठे थे, और बनियान को आधे पेट ऊपर धकेले हुए थे.

उस के इस कमैंट से मैं थोड़ा ठिठका, थोड़ा असहज हुआ. कम से कम खुले में उस के ऐसे कहने की उम्मीद नहीं थी. तभी मेरी नजर उस लड़की की बगल में बैठी एक तीसएक वर्ष की उम्र की महिला पर पड़ी. महिला के साथ एक बच्चा था. पति कहीं बाहर प्लेटफौर्म पर सामान लेने गया लगता था. महिला ने साड़ी पहनी थी. साड़ी भारतीय परंपरागत परिधान है. जितना तन उस लड़की का ढका था उतना ही भारतीय परिधाम में उस महिला का भी ढका रहा होगा. यहां तक कि साडी में कमर और नाभि भी दिखाई दे रही थी, जिसे पल्लू से फौर्मैलिटी के लिए ढका गया था क्योंकि गरमी इतनी थी कि वही पल्लू उस के लिए जी का जंजाल जैसा बना हुआ था. पर दावे के साथ कहा जा सकता है उस अधेड़िया को साड़ी वाली महिला के परिधान से कोई दिक्कत थी नहीं.

पेट के जिस छेद (नाभि) की बात वह अधेड़ उम्र का आदमी कर गया उस की बातों में ऐसा विरोधाभास समझ से बाहर था. एक ही सीट में दो अलगअलग परिधान वाली महिलाओं के जिस अंग के प्रति उस की राय समझ आई वह, दरअसल, उस की कुंठित सोच का नतीजा थी. सवाल यह कि जब साड़ी में नाभि और कमर दिखना अश्लील नहीं तो फिर जींस में क्यों?

दरअसल, हम भारतीय महिलाओं को लंबे समय से साड़ी में देखते आए हैं, जिस में नाभि और कमर नजर आती थी और आज भी आती है. जिस कारण हमें साड़ी में एक महिला की नाभि और कमर दिखना अश्लील नहीं लगता. पर जींसटौप अश्लील लगता है क्योंकि यह पश्चिमी है. फर्क सिर्फ सोच का है, वरना नाभि और कमर तो वही है, साड़ी में भी और टौपजींस में भी.

आज से 15-20 साल पहले तक तो जींस पहनी महिला अधिकतर मर्दों को चरित्रहीन और हर किसी से संबंध बनाने वाली लगती थी, पर आज उन्हीं के घर से उन की बेटीपोती जींस पहन रही हैं, क्योंकि यह चरित्रहीन का नहीं बल्कि कम्फर्ट और लड़कियों को भागदौड़ करने के लिए ऐक्टिव रखने वाला परिधान है. आज यह हमारे समाज का एक अभिन्न अंग बन चुका है.

भारतीय मर्द अगर अपनी सोच बदलें तो लड़की को सिर्फ योनि समझने की कुंठित भावना से बच सकते हैं. वरना, चीजें तो बदल ही रहीं हैं, आप नहीं बदलेंगे तो क्या हुआ, महिलाएं तो खुद को बदल ही रही हैं.

Summer Skin Care Tips: ये 5 तरीके अपनाएं ताकि गरमी में भी त्वचा रहे खिलीखिली

गरमियां आम की मीठी महक के साथसाथ ये चिलचिलाती धूप भी ले कर आती हैं. गरमी में हमें चिंता होती है क्योंकि सूरज की तेज किरणें हमारी त्वचा को हानि पहुंचाती हैं. इस चिंता का समाधान है. कुछ ऐसी चीजों के बारे में बात करते हैं जो आप को अपनी त्वचा की रक्षा के लिए अपने साथ रखनी चाहिए

1. वेट वाइप्स

जब आप काम करने या फिर यात्रा करने के लिए बाहर निकलते हैं तो गरमी में आप का चेहरा बारबार पसीने से चिपचिपा हो जाता है. ऐसे में हर बार चेहरा धोना आसान नहीं होता है. इसलिए अपने साथ वेट वाइप्स का पैक रखना चाहिए.

ये आसान समाधान प्रदान करते हैं, जिन्हें विभिन्न अवसरों और सतहों पर इस्तेमाल किया जा सकता है. अगर आप की कार की सीट पर कौफी गिर जाए या स्मार्टफोन की स्क्रीन पर दाग पड़ जाएं, ये वाइप्स हर मामले में सरल समाधान प्रदान करते हैं.

ये मोटे, मुलायम और गीले वाइप्स स्किन के लिए सुरक्षित हैं और ताजगीभरी खुशबू के साथ साफ अहसास प्रदान करते हैं. गरमी में पसीने की वजह से गंदगी और बैक्टीरिया पनपने लगते हैं जो स्किन पर जमा हो जाते हैं, जिस से घमौरियां, मुंहासे आदि हो सकते हैं. वेट वाइप्स स्किन को साफ कर के इन्हें बढ़ने से रोकते हैं और स्वच्छता व ताजगी प्रदान करते हैं.

2. बारबार हाथ धोना

डा. मनोज कुमार, कंसल्टैंट-इंटरनल मैडिसिन, मणिपाल हौस्पिटल द्वारका के अनुसार, “हाथ की स्वच्छता बनाए रखना एक आवश्यक आदत है जो हमें स्वस्थ रखने और गरमी में कीटाणुओं को फैलने से रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. नियमित रूप से हाथ धोने से हानिकारक बैक्टीरिया और वायरस दूर हो जाते हैं जिस से सर्दी, फ्लू और पेट में संक्रमण जैसी बीमारियों का खतरा कम हो जाता है. यह हमारे आसपास के लोगों, विशेष कर बच्चों, बुजुर्गों और कमजोर प्रतिरक्षा प्रणाली वाले व्यक्तियों की रक्षा करने में भी मदद करता है.

“स्कूल जाते समय या खेलते समय बच्चे अकसर कई सतहों को छूते हैं और रास्ते में कीटाणु के संपर्क में आ जाते हैं और फिर वे बिना हाथ धोए अपने चेहरे, आंखों और मुंह को छू लेते हैं, जिस से बीमारी हो सकती है.

“हाथ धोने को नियमित आदत बनाने से बीमारियों को फैलने से प्रभावी ढंग से रोका जा सकता है. चाहे घर पर हो या यात्रा पर, अच्छे हैंडवाश का उपयोग स्वस्थ रहने का एक सरल लेकिन शक्तिशाली तरीका है. सैवलोन जैसे हैंडवाश जो कीटाणुओं से सुरक्षा प्रदान करते हैं विशेष रूप से उपयोगी होते हैं क्योंकि यह कीटाणुओं के खिलाफ एक मजबूत सुरक्षा प्रदान करते हैं और बीमारी को रोकने में एक आवश्यक सहायक हैं. यह उन बच्चों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं जो अपने आसपास की हर चीज को छूना और जानना पसंद करते हैं. रोगाणुरोधी हैंडवाश से नियमित रूप से हाथ धोने के लिए प्रोत्साहित कर के, आप अपने बच्चों को सुरक्षित और स्वस्थ रखने में मदद कर सकते हैं.”

3. सनस्क्रीन

सूर्य की नुकसानदायक किरणें त्वचा पर बुरा असर डालती हैं. त्वचा को इन किरणों के नुकसान से बचाने और गर्मी से राहत पाने के लिए एसपीएफ 30 या उस से ज्यादा क्षमता की सनस्क्रीन का उपयोग करें. ऐसी सनस्क्रीन आप की त्वचा को अल्ट्रावौयलेट किरणों से बचाएगी और सुरक्षा प्रदान करेगी. इसलिए बाहर जाने से पहले अपने चेहरे से धूल व गंदगी साफ करने के बाद सनस्क्रीन लगाएं.

4. धूप की छतरी

अगर आप बाहर ज्यादा समय बिताते हैं या जन परिवहन का काफी उपयोग करते हैं तो पूरे दिन धूप की छतरी अपने साथ रखें. यह आप को धूप से बचाएगी और गरमी को सहनशील बनाने में मदद करेगी.

5. पानी

पानी गरमी में ही नहीं हर मौसम में साथ रखना जरूरी होता है. इसे आप बिल्कुल भी नहीं भूल सकते. आप को दिन भर हाइड्रेटेड रहने और अपनी प्यास बुझाने के लिए पानी की एक बोतल अपने पास रखनी चाहिए.

गरमी के कारण अपने दिन के आनंद को कम न होने दें. इस मौसम में अपनी स्किन को अच्छा बनाए रखने के लिए इन कुछ सुझावों का पालन करें.
मोबाईल / लैपटौप क्लीनिंग के लिए डिवाइस निर्माता के निर्देशों का पालन करें. उपयोग से पहले डिवाइस को टर्नऔफ कर दें और सभी केबल प्लग से निकाल दें. किसी भी छेद, जैसे माईक्रोफोन, स्पीकर स्लौट, पोर्ट आदि में लिक्विड को न जाने दें. उपयोग से पहले डिवाइस के छिपे हुए छोटे से हिस्से में लगा कर देख लें कि यह उपयोग के लिए उपयुक्त है या नहीं.

बायोलौजिकल बनाम नौन बायोलौजिकल ब्रह्म, अहं और वहम

लोकतांत्रिक तानाशाही में तमाम दक्षिणपंथी शासक भगवान हो जाने की आदिम इच्छा से ग्रस्त होते हैं. लंबे समय तक सत्ता एक ही के हाथ में रहे, तो उसे धीरेधीरे अपने भगवान हो जाने का भ्रम होने लगता है. इस भ्रम को विश्वास में बदलने वह जनता की सहमति लेने को संविधान को अपनी मरजी के मुताबिक ढालने में कोई कसर नहीं छोड़ता.

यह बात सरिता के मई (द्वितीय) अंक 2024 की कवर स्टोरी शीर्षक ‘एक का फंदा एक देश, एक चुनाव, एक टैक्स यानि एक ब्रह्म, एक पार्टी, एक नेता’ में यह बात पृष्ठ 28 पर कही गई है. यह अंक अभी स्टौल्स से होते पाठकों के हाथ में पहुंच ही रहा था कि एक न्यूजचैनल को दिए गए इंटरव्यू में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद के भगवान या अवतार होने की घोषणा इन शब्दों के साथ कर दी कि, “मुझे लगता है कि जब मेरी मां जिंदा थीं तो मुझे लगता था कि मैं बायोलौजिकल रूप से पैदा हुआ हूं. उन के निधन के बाद जब मैं अनुभवों को देखता हूं तो मुझे यकीन हो जाता है कि मुझे भगवान ने ही भेजा है. यह ऊर्जा मेरे शरीर से नहीं है.”

यानी, वे खुद को नौन बायोलौजिकल मानते हैं जो कि आमतौर पर भगवान, देवता या अवतार होते हैं. यह एक सामान्य वक्तव्य नहीं था जिस में मोदी खुद को असामान्य बता रहे हैं. अपने भगवान हो जाने का भ्रम हो जाना कोई नई या हैरत की बात नहीं है जो दुनिया में करोड़ों लोगों को हो जाता है. लेकिन जब यही भ्रम वहम की शक्ल में दुनिया के सब से ज्यादा आबादी वाले प्रधानमंत्री को उसे सार्वजनिक रूप से व्यक्त कर देने की हद तक हो जाए तो बात देश के भविष्य के लिहाज से चिंता की तो है. जनता ने मई 2014 में तो मोदीजी को आदमी मानते चुना था जिन का 10 साल में भगवान हो जाना हैरत की भी बात है.

बायोलौजिकल कांड के सदमे से भक्तअभक्त और तटस्थ अभी पूरी तरह उबर भी नहीं पाए थे कि तय है खिसियाहट मिटाने की गरज से नरेंद्र मोदी अपच पैदा करने वाली एक और बात यह कह बैठे कि 82 से पहले गांधी को जानता ही कौन था . इस बात जो सनातनी कुंठा ज्यादा है को व्यक्त करने से पहले उन्होंने गांधी को दुनिया की महान शख्सियत होने का सर्टिफिकेट जारी करते हुए कहा , पहली बार जब ‘गांधी’ फिल्म बनी तब जा कर लोगों में जिज्ञासा हुई कि ये कौन आया. अगर मार्टिन लूथर किंग, नैल्सन मंडेला को दुनिया जानती है, तो गांधी किसी से कम नहीं थे. गांधी को और गांधी की वजह से भारत को तवज्जो मिलनी चाहिए थी. शुक्र तो इस बात का है कि मोदीजी मार्टिन लूथर किंग और नैल्सन मंडेला को जानते हैं नहीं तो इन की महानता पर शक होना कुदरती बात थी.

इस एक और खुलासे पर कुछ लोग सकते में आए तो कईयों ने अपना माथा ठोक लिया. विपक्षियों और कांग्रेसियों को समझ आ गया कि वे सफाई देतेदेते और आलोचना करतेकरते थक जाएंगे पर अपनी पर उतारू हो आए नरेंद्र मोदी से जीत नहीं पाएंगे. लेकिन बात कुछकुछ न रहा जाए न सहा जाए की तर्ज पर थी इसलिए सभी ने बोलने की रस्म निभाई. लेकिन सभी बढ़ते टेम्प्रेचर की गिरफ्त में नहीं आए . उन्होंने आरएसएस और भाजपा के सनातनी संस्कारों हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र के एजेंडे पर फोकस किया. जोरदार तंज आप के संजय सिंह ने यह कहते कसा कि क्योंकि राजा पढ़ा चौथी तक और गांधी आया पांचवीं में.

चिंता की बात इस लिहाज से कि नरेंद्र मोदी अपने 4-5 करोड़ अंधभक्तों को अंधभक्त बनाए रखने के लिए ऐसी बातें जानबूझ कर कर रहे हैं जिस से उन का यह भ्रम कायम रहे कि मोदीजी अतिमानव हैं. इस से किसी को कुछ हासिल होने वाला नहीं है कि कौन बायोलौजिकल है और कौन नौन बायोलौजिकल. अहम यह है कि चुनावप्रचार के दौरान तुक और मुद्दों की बातें नहीं हुईं जिस के लिए लोकतंत्र में जनता अपने प्रतिनिधि चुनती है. सारा चुनाव धर्म, मंदिर, मुसलमान और मांसमछली सहित मंगलसूत्र जैसी बेमतलब की बातों में उलझा रहा.

ऐसे में पूरा दोष सिर्फ नेताओं को ही दे देना भी तर्कसंगत नहीं, जनता भी इस के लिए कम दोषी नहीं जो नेताओं को मुद्दे की बातें करने उन पर दबाव नहीं बना पाई, हालांकि कम मतदान से साफ लगा कि खुद मतदाता इन बातों और हल्ले से खुश और सहमत नहीं लेकिन वोट देने न जाना इस समस्या का हल नहीं माना जा सकता क्योंकि वोट न देने वालों की तादाद वोट देने वालों से कम थी.

बायोलौजिकल के मुद्दे पर खुद मोदीभक्त हैरान हैं कि अब इस पर क्या प्रतिक्रिया दें. ये वही लोग हैं जो दिनरात राहुल गांधी का मजाक बनाया करते हैं, इसलिए सोशल मीडिया पर वे इस पर चुप्पी ही साधे रहे. लेकिन मोदी का विरोध करने वालों की तो मानो बांछें ही खिल गईं. ऐसा 10 वर्षों में पहली बार हुआ कि मोदी की जम कर खिल्ली सोशल मीडिया पर उड़ाई गई. इस में वे लोग भी शामिल हैं जो आमतौर पर राजनीति और नेताओं को ले कर तटस्थ रहते हैं.

एक वायरल होती पोस्ट में अंडे से चूजा निकलता हुआ दिखाया गया तो तुरंत बाद ही पेड़ के पत्तों पर प्रगट हुआ नवजात शिशु दिखाया गया. ऐसे कई दृश्य दिखाए गए जिन में बच्चा सामान्य प्रसव से पैदा न हो कर चमत्कार या जादू से प्रगट हुआ है. इन दृश्यों के बाद सवाल किया गया है कि इन में से हमारा नौन बायोलौजिकल कौन सा वाला है. यानी, लोगों को मोदीजी का यह शिगूफा पसंद नहीं आया है. जबकि वे मानव कल्पना से परे न हो कर धार्मिक प्रसंगों से प्रेरित हैं लेकिन व्यावहारिकता से उस का कोई वास्ता नहीं और सभी लोग अभी इतने भी बेवकूफ नहीं हुए हैं कि मोदी या कोई और नेता ऐसी काल्पनिक बातें करे तो उसे वे प्रसाद की तरह ग्रहण कर लें.

चुनाव के पहले तक खुद मोदी भी राहुल गांधी का जम कर मजाक उड़ाया करते थे लेकिन अब बाजी उलट गई है. अब राहुल गांधी जम कर उन का मजाक उड़ा रहे हैं. आखिर मौका भी तो मोदीजी ने ही दिया है. 23 मई को राहुल ने ट्वीट कर कहा था कि जैसी बातें प्रधानमंत्री आजकल कर रहे हैं वैसी बातें कोई आम व्यक्ति करे तो आप उसे सीधा मनोचिकित्सक के पास ले जाएंगे.

28 मई को देवरिया की सभा में उन्होंने मजे लेने के लहजे में कहा, “आप ने मोदीजी के वो चमचों वाले इंटरव्यू देखे हैं. इस में मोदीजी के सामने 4-5 चमचे बैठते हैं और सवाल पूछते हैं. मोदीजी जवाब देते हैं, ‘ओ चमचो, नरेंद्र मोदी कुछ नहीं करता, सबकुछ अपनेआप होता है. नरेंद्र मोदी को धरती पर परमात्मा ने भेजा है. बाकी सब लोग बायोलौजिकल हैं यानी मातापिता से पैदा हुए हैं, नरेंद्र मोदी बायोलौजिकल नहीं हैं.’ नरेंद्र मोदीजी ऊपर से टपक कर आए हैं, उन को परमात्मा ने हिंदुस्तान भेजा है. अंबानीअडानी की मदद करने भेजा है लेकिन परमात्मा ने उन्हें किसानमजदूर की मदद के लिए नहीं भेजा. मोदी के परमात्मा ने कहा कि अडानी की मदद करो हिंदुस्तान के सारे एयरपोर्ट्स अडानी को दे दो. हिंदुस्तान के सारे पावर प्लांट्स अडानी को दे दो.”

राहुल गांधी भी कोई नई बात नहीं कह रहे हैं लेकिन बात कहने नया तरीका उन्हें नरेंद्र मोदी ने ही थमाया है कि भगवान को बीच में घसीटने के बाद भी कोई इस बार चूं तक नहीं कर रहा. नहीं तो, इधर राहुल के मुंह से भगवान का नाम पूरी तरह निकल भी नहीं पाता था कि उधर से अंधभक्त हल्ला मचाना शुरू कर देते थे कि तुम्हें तो भगवान का नाम लेने का भी हक नहीं क्योंकि तुम तो मुसलमान, ईसाई, पारसी और न जाने क्याक्या हो, कुछ भी हो लेकिन हिंदू होने का हक तुम्हें नहीं है.

देवरिया के पहले उन्होंने एक खास मकसद से सोशल मीडिया पर अपना वीडियो पोस्ट करते हुए पूछा था कि, “मोदीजी, आप को ऐसा कब लगता है कि आप बायोलौजिकल नहीं हो? सुबह उठने के बाद लगता है या शाम के वक्त नोटबंदी के बाद से लगना शुरू हुआ या जीएसटी लागू करने के बाद?”

इन और ऐसे हमलों पर नरेंद्र मोदी खामोश रहे, यह उन की मजबूरी भी हो गई थी क्योंकि बारबार वे खुद को बायोलौजिकल कहते तो बात कुछ ऐसे बिगड़ती कि किसी के संभाले न संभलती. हद तो तब हो गई जब राहुल गांधी ने यह भी पूछ डाला कि मोदीजी, आप आम चूस कर खाते हो या छील कर खाते हो. इस सवाल का जवाब खुद राहुल ने ही यों दिया कि मोदीजी जवाब देते हैं कि पता नहीं, सबकुछ अपनेआप हो जाता है.

अकेले राहुल गांधी ही नहीं, फिर तो सब कांग्रेसियों को नरेंद्र मोदी के बायोलौजिकल अवतार का मजाक बनाने का मौका मिल गया. शशि थरूर ने चुटकी लेते हुए कहा, “क्या कोई दिव्य प्राणी भारत में नागरिकता के लिए पात्र हो सकता है? अगर नहीं, तो क्या उसे वोट देने या चुनाव लड़ने का अधिकार है?”

इस में कोई शक नहीं कि कुछ भाजपा नेता मोदी को भगवान का अवतार मानते हैं. इन की संख्या इतनी है कि यहां नाम देना संभव नहीं लेकिन संबित पात्रा का जिक्र मौजूं है जिन्होंने 6 दिन पहले ही यह बयान दे दिया था कि भगवान जगन्नाथ मोदीजी के भक्त हैं. यहां भी जबान फिसली नहीं थी जैसी कि बवाल मचने के बाद संबित पात्रा ने सफाई दी. यह बयान भी जानबूझ कर दिया था जिस से उन की भगवान वाली इमेज कायम रहे. इस से पहले मंडी से चुनाव लड़ रही ऐक्ट्रैस और भाजपा उम्मीदवार कंगना रानौत ने मोदी को भगवान विष्णु का अवतार बताया था और उस से भी कुछ दिनों पहले कंगना ने ही मोदी को राम का अवतार कहा था.

कंगना से एक कदम आगे चलते बेगुसराय से भाजपा उम्मीदवार गिरिराज सिंह ने जनवरी के महीने में कहा था कि जैसे पहले अत्याचार बढ़ने पर भगवान किसी न किसी रूप में जन्म लेते थे वैसे ही फिर से त्रेता युग की स्थापना कर नरेंद्र मोदी अवतरित हुए हैं.

सरिता का मकसद तो यह बताना भर था कि नरेंद्र मोदी खुद को भगवान समझने लगे हैं लेकिन अब खुद मोदीजी ही खुद को भगवान सा कहने लगें, तो इस में हमारा क्या कुसूर?

गेहूं की रोटी को आप की रसोई से क्यों निकालने पर तुले हैं लोग

भारत में उगने वाले अनाज में पहला स्थान धान का है जिस से चावल बनता है और दूसरे नंबर पर है गेहूं, जिस से आटा तैयार होता है. भोजन के लिए रोटियां बनाने में गेहूं के आटे का प्रयोग ही सब से ज्यादा होता है. सदियों से गेहूं के आटे की रोटियां हमारे खाने का खास हिस्सा रही हैं. मगर अभी कुछ समय से यह बात सारी दुनिया में फैलाई जा रही है कि गेहूं हमारे स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह है.

दुनियाभर में लोग गेहूं के आटे से बनी रोटियों से दूर हो रहे हैं. जो भी मोटा हो रहा है उस को पहली सलाह यह दी जा रही है कि गेहूं के आटे की रोटी खाना छोड़ दो. उस की जगह चावल खाओ. व्हाट्सऐएप यूनिवर्सिटी पर तो इस को ले कर तमाम रील्स दिखाई जा रही हैं. कोई कह रहा है कि आटे में उपस्थित ग्लूटेन आंतों में जम कर बीमारियां पैदा करता है तो कोई समझाने की कोशिश कर रहा है कि गेहूं में बहुत अधिक मात्रा में ग्लैडिन पाया जाता है, जो एक प्रोटीन है और भूख बढ़ाने का काम करता है. इस कारण से गेहूं का सेवन करने वाला व्यक्ति एक दिन में अपनी जरूरत से ज्यादा कम से कम 400 कैलोरी अधिक सेवन कर जाता है. इसलिए गेहूं के आटे की रोटी को अपनी रसोई से बाहर कर दें.

अमेरिका के एक हृदय रोग विशेषज्ञ हैं डा. विलियम डेविस. उन की एक किताब इन दिनों बड़ी चर्चा में है. ‘व्हीट बेली’ यानी गेहूं की तोंद, नामक इस किताब में उन्होंने गेहूं से होने वाले शारीरिक नुकसान के बारे में विस्तार से लिखा है. डा. विलियम लिखते हैं कि यदि लोगों को डायबिटीज और हृदय रोगों से मुक्ति चाहिए तो गेहूं छोड़ कर पुराने लोगों की तरह मोटा अनाज यानी ज्वार, बाजरा, रागी, चना, मटर, कोडव, जौ और सावां जैसे अनाजों की रोटी खानी चाहिए.

डा. विलियम का कहना है कि भारत के लोग सुबहशाम गेहूं खाखा कर महज 40 वर्षों में ही मोटापे और डायबिटीज का शिकार हो रहे हैं. इस मामले में भारत दुनिया की राजधानी बन चुका है. एक पीढ़ी पहले तक भारत में मोटा होना आश्चर्य की बात होती थी. मोटे लोगों की शादियां बड़ी मुश्किल से होती थीं मगर आज 30 वर्ष की उम्र पार का हर दूसरा भारतीय मोटापा चढ़ाए घूम रहा है. डा. विलियम का सुझाव है कि मोटापे और मोटापे के कारण होने वाले रोगों से मुक्ति के लिए हमें अपनी रसोई में 80 से 90 प्रतिशत जगह मोटे अनाज को देनी होगी और गेहूं को मात्र 10 से 20 प्रतिशत देना होगा.

गौरतलब है कि भारत में गेहूं की सालाना पैदावार 109.6 मिलियन टन है. इस के बाद रूस 76.1 मिलियन टन, यूएसए 44.8 मिलियन टन और फ्रांस 36.5 मिलियन टन का नंबर आता है. 2021 के डेटा के मुताबिक यूक्रेन में सलाना 32.1 मिलियन टन गेहूं का उत्पादन होता है. चीन 21वीं सदी के पहले 2 दशकों में 2.4 बिलियन टन के साथ दुनिया का सब से बड़ा गेहूं उत्पादक देश रहा है, जो वैश्विक कुल गेहूं का 17 फीसदी है. विश्व में सब से ज्यादा गेहूं पैदा करने वाला उत्तर चीन है. 2020 तक यहां गेहूं का उत्पादन 1,34,250 हजार टन था जो दुनिया के गेहूं उत्पादन का 20.65 फीसदी हिस्सा है. सारी दुनिया में गेहूं का खूब उत्पादन हो रहा है और खूब खपत भी हो रही है. भारत में कुल उत्पादन का मात्र एक फीसदी ही निर्यात होता है, बाकी यहीं खप जाता है.

भारत में उत्तर प्रदेश सब से बड़ा गेहूं उत्पादक राज्य है, इस के बाद पंजाब, हरियाणा और मध्य प्रदेश आते हैं. भारत में गेहूं का उपयोग खाने के तौर पर हजारों वर्षों से हो रहा है. मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से पता चलता है कि साढ़े चार हजार साल पहले सिंधु घाटी की सभ्यता में गेहूं की खेती होती थी. यानी, 5,000 वर्ष से भी अधिक समय पहले से भारत में गेहूं का उत्पादन हो रहा है.

गौर करने वाली बात यह है कि हजारों सालों से गेहूं का आटा भारतीय रसोई का खास हिस्सा होने के बावजूद यहां मोटापे की समस्या इस हद तक कभी नहीं हुई जैसी आजकल देखी जा रही है. वजह यह कि भारतीय मानस जम कर रोटी, प्याज और नमक खाने के बाद दिनभर खेतों में कड़ी मेहनत करता था. जो लोग सेना में होते थे वे भी दिनभर शारीरिक कार्य करते थे. शहरी लोग भी मेहनतमशक्कत में कम नहीं थे. मोटर गाड़ियां और लग्जरी जीवन तो था नहीं, एक जगह से दूसरी जगह अधिकांश लोग पैदल यात्रा करते थे या घोड़े की सवारी होती थी. अंगरेजों के जमाने में भारत में साइकिल आई तो धनाढ्य वर्ग ने इस की सवारी करनी शुरू कर दी, जिस में भी खासी मेहनत लगती है.

पुराने समय में और आज भी गांवदेहात में महिलाएं घरों में सारा काम स्वयं करती हैं. जब तक घरों में नल नहीं आए थे, महिलाओं के हिस्से कुओं से पानी भर कर लाना, हाथचक्की चलाना, खेतों में काम करना, जानवरों की देखभाल करना, दूध दुहना, जानवरों को चराने ले जाना, घर में चूल्हा फूंकना, जलावन की लकड़ी जंगलों से इकट्ठा करना, खाना बनाना, कपड़े धोना, घरों को लीपनापोतना, बच्चों को पालना आदि सब शारीरिक काम होते थे, तो गेहूं के आटे की 10-12 रोटियां खा कर भी किसी के शरीर पर कभी मोटापा नहीं चढ़ता था. आज भी ग्रामीण भारत में मोटापे के लक्षण नहीं दिखते हैं. हां, लिवर सिरोसिस, किडनी की बीमारी या मच्छरों के काटने से होने वाले बुखार की जद में वे ज्यादा आते हैं.

लिवर और किडनी के रोग ग्रामीण और शहरी दोनों जगहों पर बढ़ रहे हैं जो मुख्यतया इस कारण से हैं क्योंकि खेतों में फसलों, दालों और सब्जियों पर जरूरत से ज्यादा कीटनाशकों का इस्तेमाल होने लगा है. गोबर की खाद किसानों को उपलब्ध नहीं है. पशुधन इतना महंगा है कि हर किसान गायभैंस नहीं पाल सकता. लिहाजा, फसलें उगाने के लिए यूरिया और कीटनाशकों की मदद ली जा रही है. कृषिभूमि और सिंचाई का पानी इन कीटनाशकों की वजह से बहुत हद तक जहरीला हो चुका है.

शहरी लोगों के पास पैसा है, ऐशोआराम है, लग्जरी गाड़ियां हैं, फास्ट फूड है, कोल्ड ड्रिंक है, मेक्डोनाल्ड का फ्राइड चिकन है, पिज्जा हट का मेयोनीज और चीज से भरे पिज्जा बर्गर हैं. रसोई में जो काम महिलाएं पहले हाथ से करती थीं, उन सब की जगह अब मशीनों ने ले ली है. लाइटर की एक क्लिक से चूल्हा जल जाता है. मसाला पीसने के लिए मिक्सी है. कपड़े धोने के लिए वाशिंगमशीन है. घर साफ करने के लिए वैक्यूम क्लीनर या मेड है. कहीं आनेजाने के लिए स्कूटर या गाड़ी है. खाना पकाने का मन नहीं है तो होटल और रैस्तरां हैं. फिर मोटापे और बीमारियों के लिए सारा इलजाम गेहूं के आटे से बनी रोटी को देना क्या उचित है?

आप रोटी खाएं या चावल अथवा मोटा अनाज, यदि शारीरिक श्रम नहीं होगा तो मोटापा और बीमारियां तो बढ़नी ही हैं. भारत में मोटापे का शिकार बच्चे भी हो रहे हैं क्योंकि उन को भरभर के फास्टफूड खिलाया जा रहा है. वे हर दिन कोल्डड्रिंक गटक रहे हैं. ब्लौटिंग पेपर और क्रीम से बनी आइसक्रीम खा रहे हैं. स्कूलों और कालेज की कैंटीन में अब खाने की वह थाली गायब हो चुकी है जिस में दाल, रोटी, सब्जी, दही, चावल होता था. अब मिलते हैं तले हुए पकौड़े, समोसा, पैटी, बर्गर, नूडल्स, पिज्जा, मोमोज और पौलिश्ड चीनी से भरे एनर्जी ड्रिंक्स.

इस तरह का खाना पेट में भर कर दिनभर बच्चे क्लासरूम में बैठे रहते हैं. उस के बाद ट्यूशन क्लास में चले जाते हैं. वहां से निकले तो घर आ कर मोबाइलफोन, औनलाइन गेम या टीवी देखने में बिजी हो गए. मैदान में जा कर खेलने, व्यायाम करने या स्विमिंग-साइक्लिंग करने का समय उन के पास कहां हैं? तो मोटापा बढ़ने की असली वजह यह है, न कि गेहूं के आटे की दो रोटी, जिस को रसोई से निकालने का षड्यंत्र बड़े व्यापक रूप से चलाया जा रहा है.

पिछले कुछ समय से भारत की केंद्रीय सरकार मिलेट्स को बढ़ावा देने में जुटी है. मिलेट्स यानी मोटा अनाज. सरकारी कार्यक्रमों में आजकल मिलेट्स से बने पकवान परोसे जा रहे हैं. ज्वारबाजरे की रोटियां, खीर आदि बन रही हैं. कुछ बड़े नामी होटल भी अब मोटे अनाज को बढ़ावा देने के लिए पकवान तैयार कर परोसने में लगे हैं. सवाल यह है कि मोटा अनाज भारत में कितना उगाया जाता है? क्या यह भारत की 140 करोड़ जनता का पेट भरने लायक उगता है? बिलकुल नहीं.

भारत का किसान मुख्य रूप से धान और गेहूं की फसल ही उगाता है. खेतों में इन 2 फसलों की अच्छी पैदावार हो जाए तो उस के परिवार की दो जून की रोटी का इंतजाम कर देती है. चना, बाजरा, ज्वार, कोदो जैसा मोटा अनाज तो वह बहुत कम उगाता है. अगर खेत में जगह बचती है या 2 फसलों के बीच जब खेत खाली होते हैं तब ये फसलें उगाई जाती हैं. ऐसे में अचानक गेहूं के आटे के प्रति उपभोक्ता के मन में बीमारी का डर पैदा कर किसानों के पेट पर लात मारने के षड्यंत्र के पीछे सरकार और मल्टीनैशनल कंपनियों की मिलीभगत साफ नजर आती है. गेहूं के प्रति भय पैदा कर के उपभोक्ता द्वारा गेहूं की मांग जब कम की जाएगी तो इस का बुरा प्रभाव सीधे किसानों पर पड़ेगा.

जब किसान की फसल कम बिकेगी तब मल्टीनैशनल कंपनियां पूरी साजिश के साथ उन की मदद को आगे बढ़ेंगी और कम कीमत पर उन का अनाज खरीद कर अपने गोदाम भरेंगी. यह भी गौर करने वाली बात है कि भारत के स्वास्थ्य, मोटापे और हृदय रोगों के बढ़ने के संबंध में किताब लिखने वाले डा. विलियम डेविस अमेरिकी लोगों के मोटापे की वजह नहीं बताते, जहां भारत के मुकाबले मोटापे की समस्या चारगुना अधिक है. जबकि अमेरिकी रसोई में गेहूं के आटे की रोटी भारतीय परिवारों के अलावा शायद ही किसी अमेरिकी के घर में बनती हो. हां, ब्रेड का इस्तेमाल वहां जरूर होता है.

दरअसल मोटापे और बीमारियों की मुख्य वजह फास्ट फूड, कोल्डड्रिंक, रिफाइंड औयल में तले हुए खाद्य पदार्थ, चौकलेट्स, फ्रोजन फूड और विभिन्न प्रकार के प्रोटीन व एनर्जी ड्रिंक हैं. वहीं, शारीरिक श्रम बिलकुल खत्म हो चुका है. खासतौर पर उच्च और मध्य वर्ग की महिलाएं बहुत ज्यादा आलसी व फूडी हो गई हैं. उन का हर काम मशीनें कर रही हैं और उन का पूरा वक्त फास्टफूड या चौकलेट्स खाते और टीवी देखते गुजर रहा है. यही आदतें उन्होंने अपने बच्चों में डैवलप कर दी हैं. नतीजा, मोटापा और मोटापे से जुड़ी बीमारियां बढ़ रही हैं.

क्या आप ने सोचा है कि गांव की औरतों में या आप के घर में काम करने वाली मेड के शरीर पर चरबी क्यों नहीं चढ़ती? वे क्यों नहीं मोटी, थुलथुल नजर आतीं जबकि उन की खुराक अपनी मालकिन की खुराक से दुगनीतिगुनी होती है. आप अगर लंच और डिनर में 4 रोटी खाती हैं तो आप की मेड दिनभर में 12 से 15 रोटियां गेहूं के आटे की खाती है, फिर भी वह दुबलीपतली है क्योंकि वह सारा दिन शारीरिक श्रम करती है. जबकि, आप खाना खा कर बिस्तर या सोफे पर ही पड़ी रहती हैं.

अगर मोटापे और बीमारी से दूर रहना है तो शरीर को हिलाना और उस से काम लेना बहुत जरूरी है. बूढ़े हों, बच्चे हों, पुरुष हों या स्त्री, उतना ही खाएं जितनी भूख है और उस खाने को पचाने व ऊर्जा में परिवर्तित करने के लिए नियमित व्यायाम और श्रम करें. गेहूं के आटे को रसोई से निकालने की जरूरत नहीं है बल्कि मोमोज, नूडल्स, पिज्जा, बर्गर, फ्राइड चिकन, फिंगर चिप्स, केक, पैटीज, पेस्ट्री, कोल्डड्रिंक जैसे जंक फूड को अपने जीवन से निकालना जरूरी है.

आज मनाया जा रहा है World Multiple Sclerosis Day, जानिए इस बीमारी के बारे में सबकुछ

World Multiple Sclerosis Day 2024 : मल्टीपल स्केलेरोसिस डिजीज हमारे ब्रेन और स्पाइनल कोर्ड को इफैक्ट करता है. साथ में औप्टिक नर्व को भी इंवौल्व करता है. यह एक औटोइम्यून डिसऔर्डर है. औटोइम्यून का मतलब होता है, बौडी अपनी ही बौडी के किसी पार्ट या सेल के अगेंस्ट काम करना शुरू कर देती है. हमारी न्युरौंस को आपस में कम्युनिकेट करने के लिए उन के ऊपर एक शीट होती हैं जिस को हम मायलिन शीट कहते हैं. यह शीट एकदूसरे न्यूरौन में सिग्नल भेजने और कम्युनिकेट करने में हैल्प करती हैं. इस इम्यून डिसऔर्डर में हमारी मायलिन शीट, जो हमारी नर्व के ऊपरवाला कवर है, डैमेज हो जाती है जिस से उन का कम्युनिकेशन लिंक टूट जाता हैं और इस बीमारी के लक्षण आने शुरू हो जाते हैं.

हमें कैसे पता चलेगा कि हमें यह समस्या है

यह बीमारी कौमन रूप से फीमेल में होती है खासकर 20 साल से ले कर 35 साल तक की महिलाओं में अकसर देखी जाती है. इस में लक्षण हमेशा पर्सन टू पर्सन या मेल टू फीमेल वैरी करते हैं.

कुछ कौमन लक्षण हैं. आंखों की रोशनी धुंधली पड़ जाना, वन हाफ बौडी का सुन्न हो जाना, शरीर का एक हिस्सा वीक हो जाना या बौडी में करंट वाली लहरें दौड़ना. गरदन को जब हम हिलाते हैं और पूरी बौडी में, खासकर गरदन के नीचे, करंट वाली लहरें दौड़ रहीं हैं तो उस का मतलब है कि इस बीमारी की शुरुआत हो चुकी है. इसी तरह जब आप को दोदो चीजें दिखने लग जाएं, एक साइड की बाजू, टांग, बेस सब सुन्न हो जाएं, चलें तो ऐसे लगे जैसे लड़खड़ा के चल रहे हैं तो समझिए इस बीमारी की चपेट में आ चुके हैं.

इलाज के औप्शन

इस संदर्भ में डाक्टर बीरिंदर सिंह पॉल, प्रोफैसर डिपार्टमैंट औफ न्यूरोलौजी, दयानंद मैडिकल कालेज एंड हौस्पिटल, लुधियाना, पंजाब कहते हैं कि इस बीमारी में पिछले 10-15 वर्षों में इतनी रिसर्च हो गई है कि अब हमारे पास इस के इलाज के बहुत सारे औप्शन्स हैं.

इस बीमारी के लिए मुख्य रूप से 2 तरह के ट्रीटमैंट हैं. दरअसल जब हमारे नस के ऊपर से कवर उतरता है तो हमारी आंखों की रोशनी चली जाती है. इस अवस्था को अटैक आना कहते हैं. जब यह बीमारी अटैक के रूप में आती है तो इमिजेटली इस का इलाज स्टिरौयड्स से होता है जिसे इंजैक्शन के फौर्म में देते हैं ताकि इस अटैक को रोका जाए. जो कवर उतर रहा है उस के अराउंड जो स्वेलिंग या इनफ्लोनेशन हो रही है उस को कम किया जाए. इस को कहते हैं एक्यूट ट्रीटमैंट.

आजकल इतनी रिसर्च के बाद कुछ खाने वाली दवाई आ गई हैं. कुछ इंजैक्शन भी अवेलेबल हैं जो डायरैक्टली हमारे इम्यून सिस्टम पर काम करती हैं ताकि बौडी में अगर इम्यून इन बैलेंस हो रहा है, इम्यून सिस्टम खराब या डैमेज हो रहा है, इम्यून सिस्टम में चेंजेस आने की वजह से नर्व डैमेज हो रही हैं तो उस को रोकने के लिए यह ट्रीटमैंट दे सकते हैं. इस ट्रीटमैंट का नाम है ‘डिजीज मोडिफाइ ट्रीटमैंट’. यह दोतीन फौर्म में अवेलेबल है. एक तो खाने वाली गोली आती है, एक आता है लगाने का इंजैक्शन जो हम हफ्ते में जैसे इंसुलिन का टीका लगता है वैसे लगाते हैं. अब इस में एक और रिसर्च हो गई है. अभी कुछ ऐसे इंजैक्शन भी अवेलेबल हैं जो महीने में 2 लगवाने हैं और इस का असर 6 महीने से साल तक रहता है. यह एडवांस ट्रीटमैंट अभी पिछले दिसंबर से इंडिया में अवेलेबल हो गया है. एडवांस ट्रीटमैंट को ‘सीडी ट्वेंटी मोनोक्लोनल एंटीबौडीज’ कहते हैं.

दरअसल हमारी बौडी में टी सेल और बी सेल होते हैं. किसी का गला खराब हो गया तो हमारी बौडी में इमिजेटली टी और बी सेल काम करते हैं. इस बीमारी में ये टी और बी सेल आउट औफ कंट्रोल हो जाती है. बौडी की बात नहीं सुनते. ये बी सेल जा कर हमारी नर्व को डैमेज करते हैं. वहां पे मायलिंग कवर को डैमेज करना शुरू कर देते हैं. सीडी ट्वेंटी मोनोक्लोनल एंटीबौडीज ऐसी दवा है जो इस बी सेल को कंट्रोल करती है.

भले ही इस बीमारी को जड़ से नहीं खत्म कर सकते मगर इतने इफैक्टिव ट्रीटमैंट आ रहे हैं जिस से बीमारी को डोरमैंट स्टेज में ले जाते हैं. तब कई साल तक कोई दोबारा ट्रीटमैंट की जरूरत नहीं पड़ती. यानी, यह 70 -80 परसेंट तक इफैक्टिव ट्रीटमैंट है.

जब सालों पहले इस बीमारी का ट्रीटमैंट शुरू हुआ था तो हमारे पास एक ही औप्शन था, रोज इंजैक्शन लगाओ. हमारे पास कोई गोली खाने वाली नहीं थी. फिर पिछले 10 सालो में 5-6 गोलियां अवेलेबल हो गईं. अब ऐसे इंजैक्शन भी आ रहे हैं जिन को साल में केवल 2 बार लगाना होता है. यह सारे साल काम करता है. वह इंजैक्शन जो आप रोज लगाते थे उस का इफैक्ट 35 से 50 फीसदी था, मतलब 50 फीसदी लोगों में ही वह इंजैक्शन काम करता था. मगर अब जो ट्रीटमैंट अवेलेबल है और जिस को हम हाई एफिकेसी ट्रीटमैंट कहते हैं, वह डिजीज को 70 से 80 परसैंट तक कंट्रोल करता है.

यानी, एक तो चेंज यह हुआ है कि नंबर औफ इंजैक्शन या नंबर औफ गोली जो हमें इस बीमारी में खानी होती थी वह कम हो गई है. दूसरा एफिकेसी बढ़ गई है. मतलब डिजीज कंट्रोल करने की क्षमता बहुत बढ़ गई है. औल मोस्ट डबल हो गई है. पहले इस के पेशेंट्स को हम कहते थे कि आप घर जा कर इस की केयर और फिजियोथेरैपी करो, हमारे पास ज्यादा इलाज नहीं है. अब उलटा हो गया है. हम पेशेंट को कहते हैं कि आप हमारे पास हौस्पिटल में आओ. हमें बताओ क्या डिजीज है. आप का इलाज 80 परसैंट पौसिबल है. 20 साल में यह चेंज हो गया.

मल्टीपल स्केलेरोसिस के प्रकार

एमएस के 3 मुख्य प्रकार हैं:

रिलैप्सिंग-रिमिटिंग एमएस (आरआरएमएस)- यह एमएस (मल्टीपल स्केलेरोसिस) का सब से आम प्रकार है. एमएस से पीड़ित लगभग 85 फीसदी लोगों में यह होता है. इस के साथ आप को रिलैप्स यानी अटैक से जूझना पड़ता जाता है. यदि आप को आरआरएमएस है तो अटैक के दौरान आप के लक्षण बिगड़ने की संभावना बहुत अधिक है.

प्राइमरी प्रोग्रैसिव एमएस (पीपीएमएस)- यदि आप को पीपीएमएस है तो आप के एमएस लक्षण धीरेधीरे खराब होने लगते हैं. लेकिन आप को बीमारी के दोबारा उभरने या ठीक होने की कोई खास अवधि नहीं मिलती.

सैकंडरी-प्रोग्रैसिव एमएस (एसपीएमएस)- एसपीएमएस के साथ आप के लक्षण समय के साथ लगातार बदतर होते जाते हैं.

मल्टीपल स्केलेरोसिस के कारण

• कुछ खास जीन वाले लोगों में इस के होने की संभावना ज्यादा हो सकती है.
• धूम्रपान करने से भी जोखिम बढ़ सकता है.
• कुछ लोगों को वायरल संक्रमण के बाद एमएस हो सकता है क्योंकि इस से उन की प्रतिरक्षा प्रणाली सामान्य रूप से काम करना बंद कर देती है.
• संक्रमण बीमारी को ट्रिगर कर सकता है या बीमारी को फिर से होने का कारण बन सकता है.
कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि विटामिन डी, जो आप को सूरज की रोशनी से मिल सकती है, आप की प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत कर सकता है और आप को एमएस से बचा सकता है.

मल्टीपल स्केलेरोसिस जोखिम कारक

इस के होने की संभावना अधिक हो सकती है यदि आप-

• आप महिला हैं
• आप की उम्र 20, 30 या 40 के बीच है
• धूप में ज्यादा समय न बिताना
• अंधेरे वातावरण में रहना
• धुआं
• एमएस का पारिवारिक इतिहास होना

इस बीमारी का डायग्नोसिस कैसे होता है

डायग्नोसिस के लिए सब से पहले डाक्टर आप की हिस्ट्री को एनालाइज करता है. आप की हिस्ट्री को समझता है, फिर आप को एग्जामिन करता है. उस के बाद कुछ टैस्ट करता है जिन में ब्रेन का एमआरआई और एक होता है जिस को हम कहते हैं विजुअल इवोक पोटैंशियल. कई बार रीड़ की हड्डी के पानी, जिस को हम सीएसएफ एग्जामिनेशन कहते हैं, को भी टैस्ट करते हैं.

इस के इलाज में कितना खर्च आता है

डाक्टर वीरेंद्र सिंह पाल कहते हैं कि इलाज का खर्च इस बात पर डिपैंड करता है कि आप किस स्टेज से इलाज शुरू कर रहे हो, कौन सी डिजीज में कर रहे हो, जैसे पीपीएमएस डिसीज है, प्रोग्रैसिव है. इस में इलाज कई बार लाखों में भी चला जाता है, महंगा हो जाता है. बाकी दूसरा इलाज अगर हम देखें तो अगर साल में आप ने 1 या 2 बार ट्रीटमैंट लेना है तो वह इलाज इतना महंगा नहीं पड़ता. अगर हम एक साल का पीरियड काउंट करें तो कुछ हजार से लाखों रुपयों में होता है.

स्कूल में बच्चे मेरी बेटी का मजाक उड़ाते हैं, मैं क्या करूं?

सवाल

मेरी 15 वर्षीया बेटी 9वीं क्लास में पढ़ती है. वह मानसिक रूप से कमजोर है. 7 वर्ष की उम्र से उस का मिर्गी का इलाज चल रहा है. वह पढ़ाई में और बौद्धिक तौर पर भी कमजोर है. स्पैशल एजुकेटर की देखरेख में वह पढ़ाई करती है. लेकिन इन दिनों वह स्कूल नहीं जाना चाहती क्योंकि स्कूल में बच्चे उस का मजाक उड़ाते हैं जिस से संघर्ष करने के बजाय वह बस अपनी दुनिया में ही खोए रहना चाहती है. हम उस की कैसे मदद करें?

जवाब

आप की बेटी ऐसे दौर से गुजर रही है जहां मानसिक के साथसाथ उस में शारीरिक बदलाव भी होने शुरू हो गए हैं. इस स्थिति में उस पर आप को सचमुच पहले से ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है. सब से पहले तो आप अपनी बेटी को सामान्य स्कूल से निकलवा कर स्पैशल स्कूल में भरती कराएं. ऐसा इसलिए क्योंकि हम अकसर यह सोचते हैं कि सामान्य स्कूल में शारीरिक या मानसिक रूप से कमजोर बच्चों को डाल कर हम उन्हें सामान्य होने का एहसास दिला रहे हैं, लेकिन होता इस का बिलकुल उलटा ही है.

बच्चे बाकी बच्चों को देखदेख कर यह सोचनेसमझने लगते हैं कि उन में कोई कमी है. यह भावना समय के साथ गहरी होती जाती है. वहीं स्पैशल स्कूल में बच्चे के शारीरिक व मानसिक स्तर के अनुसार ही पढ़ाईलिखाई व दूसरी ऐक्टिविटीज होती हैं जो बच्चे के पूर्ण विकास के लिए बेहद जरूरी हैं. वहां वह अपने जैसे बाकी बच्चों से मिलेगी भी और काफी कुछ सीखेगी व उन्हें भी सिखाएगी, जो विकास की सही परिभाषा भी है. वहां कोई उस का मजाक नहीं उड़ाएगा.

आप उसे समय दें, उस से बातें करें. उसे यह एहसास न कराएं कि उस में कोई कमी है. इन सब के बाद भी यदि उस का मनोबल मजबूत न हो तो किसी काउंसलर या विशेषज्ञ की मदद लें.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

कौन तोड़ रहा दलित युवा नेताओं की हिम्मत

24 अप्रैल, संतकबीर नगर

भाजपा गद्दार और घमंडी है, भाजपा के लोग कहते हैं कि उन्होंने राम मंदिर बनवाया. तुम कौन होते हो भगवान को लाने वाले? तुम इंसान हो कर भगवान को लाने की बात कर रहे हो. मंदिर तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश से बनना शुरू हुआ और पैसे जनता के लग रहे हैं. इस में भाजपा का क्या लगा है?

25 अप्रैल, आजमगढ़

सरकारी नौकरियों के लिए पेपर देते हो, वह लीक हो जाता है. तो मन करता है जिस ने पेपर लीक किया उस का गूदा निकाल कर जमीन में गाड़ दें.

28 अप्रैल, सीतापुर

वे कहते हैं सरकारी नौकरियां नहीं हैं तो क्या हुआ, पकोड़े तलना भी तो रोजगार है. अब आप बताइए, खासी पढ़ाईलिखाई करने, डिग्री हासिल करने के बाद आप अपने बच्चों से पकोड़े तलवाएंगे? बहुजन समाज पढ़ालिखा समाज है, वह पकोड़े तलने के लिए पैदा नहीं हुआ है. यह समाज संविधान के आधार पर भारत को आगे बढ़ाने का काम करेगा.

इलैक्शन कमीशन को लगे कि हमें भाजपा को आतंकवादी नहीं बोलना चाहिए था तो हम चुनाव आयुक्तों से अपील करेंगे कि वे गांवगांव घूमें, देखें और पता करें कि यहां जो बहनबेटियां हैं वो किस हाल में जी रही हैं. यहां के युवाओं के हालात देखें, उन्हें पता चल जाएगा कि मैं सच बोल रहा हूं.

chandra shekhar ravan - Copy_11zon

भाजपा के खिलाफ इतना बोलने वाले को अव्वल तो बाहर नहीं, बल्कि किसी झूठेसच्चे इल्जाम में जेल में होना चाहिए था. इस की नौबत आती, इस से पहले ही बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद से 7 मई को दी गई वे तमाम जिम्मेदारियां व पद वापस ले लिए जो उन्होंने उन्हें पिछले साल दिसंबर में सौंपे थे. बकौल मायावती, आकाश अभी अपरिपक्व हैं. (उम्र 28 वर्ष, लंदन से एमबीए, इस के बाद भी अपरिपक्व?).

दरअसल आकाश विकट की परिपक्वता दिखाते और जनता को भाजपा की हकीकत से रूबरू कराते लोकसभा चुनाव में बसपा उम्मीदवारों की मजबूती देने की कोशिश कर रहे थे और खुद भी बहुजनों के बीच लोकप्रिय व मजबूत हो रहे थे कि एक झटके में बूआ ने उन्हें एहसास करा दिया कि हमें बसपा को नहीं, बल्कि भाजपा को मजबूत करना है. राममंदिर और धर्म की बात तो भूल कर भी नहीं करना है. दलित युवाओं को नौकरी न मिले, न सही, इस के लिए हम अपने आर्थिक साम्राज्य और अस्तित्व को खतरे में नहीं डाल सकते. दलित तो सदियों से ही प्रताड़ित और शोषित है. उस की बदहाली न तो बाबासाहेब दूर कर पाए थे, न मान्यवर कांशीराम और न ही मैं कुछ कर पाई, तो तुम किस खेत की मूली हो. जाओ अपने महल के एसी में बैठ आईपीएल का लुत्फ उठाओ, आराम करो, हमारी तरह पसीना मत बहाओ. राजनीति तुम्हारे बस की बात नहीं. एक इंटरव्यू में आकाश ने यह भी उजागर किया था कि स्कूल के दिनों में एक सीनियर उन्हें चमार कह कर बेइज्जत करता था.

कुछ दिन अपना जलवा बिखेर कर खूबसूरत और स्मार्ट आकाश उत्तरप्रदेश से वापस दिल्ली पहुंच गए. जातेजाते सनातनी शैली में बूआ के आदेश को उन्होंने सिरआखों पर लिया और अब यदाकदा, इक्कादुक्का कोई छोटामोटा बयान दे देते हैं जिस के कोई माने नहीं होते. अब इस युवा के पास यह सोचने के लिए मुक्कमल वक्त और मौका है कि आखिर कौनकौन दलित युवा नेतृत्व की पौध को पेड़ नहीं बनने दे रहा. और कोई क्यों अब कांशीराम के दिए चर्चित नारे ‘तिलक तराजू और तलवार इन को मारो जूते चार’ की बात करता? क्यों बसपा अयोध्या के महंगे आलीशान मंदिर की प्रासंगिकता को बहुजन समाज के मद्देनजर कठघरे में खड़ा करतीं हैं? आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी आन पड़ी है जो एक दलित युवा नेता दिल की बात जबां पर ले आए तो उस के कान अपने वाले ही उमेठने लगे हैं? जबकि इस बाबत तो उसे प्रोत्साहन ही मिलना चाहिए कि, शाबाश बेटा, डटे रहो, इस मुहिम में हम तुम्हारे साथ हैं.

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दलित राजनीति इन दिनों सब से बुरे दौर से गुजर रही है. देश के अधिकतर दलित नेता भाजपा की गोद में जा बैठे हैं जिन में रामदास अठावले, चिराग पासवान और जीतनराम माझी के नाम प्रमुख हैं. कांग्रेस में भी इन दिनों दलित नेताओं के लिए कोई खास स्पेस नहीं है. मल्लिकार्जुन खडगे के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद दूसरी पंक्ति के दलित दलित नेता न तो सनातनी राजनीति और मंदिर मुद्दे पर तुक की कोई बात कह पाए और न ही आरक्षण पर मचे बवंडर पर आम दलित युवा का डर जता पाए.

कांग्रेस के एक प्रमुख युवा दलित नेता उदित राज दिल्ली से चुनाव मैदान में जरूर हैं लेकिन उन के तेवर पहले जैसे आक्रामक नहीं रह गए हैं. भाजपा का झूठा पानी पी चुके उदित राज अब बूढ़े भी हो चले हैं. साल 2014 में वे अपनी इंडियन जस्टिस पार्टी सहित भाजपा में चले गए थे लेकिन भगवा गैंग की पूजापाठी मानसिकता ज्यादा नहीं झेल पाए तो 2019 में कांग्रेस में आ गए.

2014 का चुनाव वे दक्षिणपूर्व दिल्ली सीट से भाजपा के टिकट पर जीते थे. इस बार भी वे इसी सीट से मैदान में हैं. मुकाबला भाजपा के योगेंद्र चंदोलिया से है. आम आदमी पार्टी का साथ उन्हें फिर से संसद पहुंचा भी सकता है. उदित राज जीतें या न जीतें लेकिन एक बात तय है कि भाजपा में महत्त्वाकांक्षी दलित नेताओं के लिए कोई जगह नहीं है. वहां वही चलता है जो गले में भगवा गमछा डाल कर गला फाड़ कर जयजय श्रीराम के नारे लगाए और यह मान ले कि वर्णव्यवस्था पर दलितों को कोई एतराज नहीं.
उदित राज की तरह ही मनुवाद विरोधी तीखे तेवरों के लिए पहचाने जाने वाले 37 वर्षीय चंद्रशेखर रावण अपनी ही बनाई आजाद समाज पार्टी से उत्तरप्रदेश की नगीना सीट से चुनाव लड़ रहे हैं. एक वक्त में चंद्रशेखर को मायावती के विकल्प के तौर पर भी देखा जाने लगा था जिसे ले कर मायावती घबरा भी उठी थीं और उन्होंने रावण की राजनीति खत्म करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.

भाजपा भी चंद्रशेखर को ले कर चिंतित थी क्योंकि वे तेजी से दलित समुदाय में पैठ बना रहे थे. इस से ज्यादा दिक्कत की बात यह थी और है भी कि वे अकसर मनुवाद और वर्णव्यवस्था को ले कर लगातार हमलावर रहते हैं जिसे ले कर उन पर आएदिन जानलेवा हमले होते रहते हैं और जिस के चलते ही उन्हें वाई श्रेणी की सुरक्षा मिली हुई है.
नगीना सीट उन के ही नहीं, बल्कि मनुवाद विरोधी और मनुवाद समर्थक दलित राजनीति का भी भविष्य तय करेगी. क्योंकि इस सीट पर उन का मुकाबला भाजपा के ओम कुमार, सपा के मनोज कुमार और बसपा के सुरेंद्रपाल सिंह से है. 2019 के चुनाव में नगीना से बसपा के गिरीश चंद्र ने भाजपा के यशवंत सिंह को 1 लाख 66 हजार वोटों से हराया था. इस बार के चतुष्कोणीय कड़े मुकाबले में जीत किस के हाथ लगेगी, यह तो सट्टा बाजार भी तय नहीं कर पा रहा.

चंद्रशेखर के लिए यह पहला चुनाव ही चैलेंज इस लिहाज से साबित हो रहा है कि उन्हें किसी भी सूरत में बसपा उम्मीदवार सुरेंद्रपाल को नहीं जीतने देना है, तभी भविष्य में दलित उन का साथ देगा. दूसरे, उन्हें भाजपा के ओम कुमार को भी सवर्ण वोटों तक समेट कर रखना है.

भाजपा इस सुरक्षित सीट को ले कर आश्वस्त नहीं है लेकिन दलित वोटों का बंटवारा किस फार्मूले पर होता है, इस पर भी उसकी नजर है. जो भी इस लोकसभा सीट के 6 लाख के लगभग मुसलिम वोट थोक में ले जाएगा उस की जीत की संभावनाए ज्यादा होंगी. इस लिहाज से तो इंडिया गठबंधन के मनोज कुमार फायदे में रहेंगे, बशर्ते उन्हें कुछ वोट दलितपिछड़ों के भी मिलें. रावण अगर बसपा का वोट काटने में कामयाब रहे तो इस में कोई शक नहीं कि दलित नेता के तौर पर वे स्थापित हो जाएंगे लेकिन इस के लिए उन के वोट बसपा उम्मीदवार से ज्यादा होने चाहिए. इस सीट से जो भी जीतेगा उस का मार्जिन बहुत कम होना तय है.

एक और युवा दलित नेता 41 वर्षीय चिराग पासवान भी अपनी लोक जनशक्ति पार्टी से बिहार की जमुई सीट से मैदान में हैं. भाजपा उन के साथ है, जिस ने एलजेपी को पहले की तरह 6 सीटें दी हैं. लेकिन इस बार हालत खस्ता है क्योंकि रामविलास पासवान नहीं हैं जो जुगाड़तुगाड़ के महारथी थे और जनता भी उन्हें चाहती थी.

चिराग की दिक्कत यह है कि उन्होंने कभी जमीनी राजनीति नहीं की है. दलितों की परेशानियों का उन्हें एहसास ही नहीं. दूसरी दिक्कत यह है कि उन्होंने भी सनातनी तौरतरीकों से रहना/जीना शुरू कर दिया है. एक हिंदी फिल्म में बतौर हीरो दिख चुके चिराग ने अपने पिता का अंतिम संस्कार और गंगा पूजन सनातनी रीतिरिवाजों से किए थे और इस दौरान खुलेआम ब्राह्मणों के पैरों में माथा नवाते, उन्हें तगड़ी दक्षिणा भी दी थी. इसलिए भाजपा ने उन्हें साथ भी ले लिया कि, चलो, लड़का मंदिर और वर्णव्यवस्था का विरोधी नहीं जबकि रामविलास पासवान इन ढोंगपाखंडों को दलितों का दुश्मन मानते थे और डील अपनी शर्तों पर करते थे.

ऐसा किसी को नहीं लग रहा कि एलजेपी अपना पुराना प्रदर्शन दोहरा पाएगी. ऐसे में चिराग की भविष्य की राजनीति यही होगी कि वे भी भगवा गमछा गले में डाल लें. हालांकि, अभी वे इस बात से इंकार कर रहे हैं कि एलजेपी का भाजपा में विलय होगा. लेकिन यह तय है कि बहुत से ऐसे अहम और दिलचस्प सौदे 4 जून के बाद संपन्न होंगे.
चंद्रशेखर रावण की तरह ही दलित अत्याचारों के विरोध में खड़े रहने वाले गुजरात के बाड़मेर से विधायक कांग्रेस के युवा दलित विधायक जिग्नेश मेवानी भी चुनावप्रचार में उम्मीद के मुताबिक सक्रिय नहीं दिखे. दलित जीवन की दुश्वारियां भुगत चुके जिग्नेश से दलित युवाओं को बड़ी उम्मीदें हैं लेकिन कांग्रेस उन का सही इस्तेमाल नहीं कर पा रही है.

पिछले दिनों गृहमंत्री अमित शाह के एक वीडियो से कथित छेड़छाड़ के आरोप में शक की सुई जिग्नेश पर गहराई थी और उन की गिरफ्तारी की चर्चा भी हुई थी लेकिन चुनाव सिर पर देख एक दलित युवा नेता को गिरफ्तार करना घाटे का सौदा भाजपा के लिए साबित होता इसलिए उन्हें हालफिलहाल बख्श दिया गया है लेकिन अमित शाह की वक्रदृष्टि जिग्नेश पर पड़ चुकी है. इस विवादित वीडियो में गृहमंत्री यह कहते नजर आ रहे हैं कि एससी, एसटी का आरक्षण खत्म कर दिया जाएगा.

10 साल से भाजपा मंदिरमंदिर खेल रही है. इस खेल में दलितों का न तो कोई रोल है और न ही उन्हें मंदिरों की जरूरत है. उन्हें दरकार है तो बस सरकारी नौकरियों की, जिन की वेकैंसी अब कभीकभार ही निकलती हैं. आरक्षण कैसेकैसे कमजोर किया जा रहा है, यह हर वह दलित युवा समझ रहा है जो पढ़ रहा है लेकिन उन के गले को आवाज देने वाला नेता कोई नहीं है जिस से वे निराश हताश हो चले हैं.

सामाजिक न्याय की बात भी अब कोई नहीं करता जबकि इस की जरूरत पहले से कहीं ज्यादा महसूस की जा रही है. रोज कोई न कोई दलित दबंगों के कहर का शिकार हो रहा है लेकिन देश का माहौल धर्ममय है. जो यह कहता है कि तुम अगर छोटी जाति के हो तो यह तुम्हारी प्रौब्लम है. तुम्हारे पूर्वजन्म के कर्म खराब थे जो तुम ने शूद्र वर्ण में जन्म लिया. अब अगर इस से बचना है तो अगले जन्म में ऊंचे कुल में पैदा होने के लिए धर्मकर्म करो, ब्राह्मणों को दानदक्षिणा दो और पूजापाठ, व्रतउपवास शुरू कर दो जैसे तुम्हारे कई नेता कर रहे हैं और इतना कर रहे हैं कि इसी जन्म में उन की हालत सुधर गई है. रही बात रोजगार और नौकरी की, तो वह नश्वर है और भाग्य की बात है जिसे बदलने को अब हर कभी तो कोई भीमराव आंबेडकर पैदा होगा नहीं, जिन्हें हम ने देवता सरीखा बना दिया है. सो, तुम लोग बेकार का हल्ला न मचाओ.

बच्चों की जिद कहीं भारी न पड़ जाए, जानें क्या है रास्ता

कहते हैं कि बाल हट से बड़ा कोई हट नहीं होता. नन्हामुन्ना बच्चा अगर कोई जिद कर ले तो उसे समझाना अच्छेअच्छे उस्ताद के लिए भारी पड़ जाता है. ऐसे में आवश्यकता पड़ती है समझदारी की, होशियारी की और अनुभव की. अगर थोड़ी भी गलती हुई तो बाल हट को ले कर कुछ ऐसे घटनाक्रम सामने आ जाते हैं जो परिवार और समाज के लिए कलंक का टीका बन जाते हैं और सोचने पर मजबूर कर देते हैं.

ऐसे अनेक घटनाक्रम हमारे आसपास अकसर घटित होते रहते हैं जिन्हें हम देखते हैं और कई दफा अनदेखा कर देते हैं जो बाद में नासूर बन जाते हैं.

ऐसे ही घटनाक्रमों में से कुछ हम नीचे प्रकाशित कर रहे हैं-

पहली घटना – छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में एक किशोर अपनी मां से यह जिद करने लगा कि फलां खिलौने ले कर दीजिए. मां ने अनदेखी कर दी तो बच्चे ने घर में आग लगा दी. मुश्किल से परिवारजनों की जान बच पाई.

दूसरी घटना – छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव में 10 वर्ष के एक बालक ने पिता से वाहन मांगा, कहा खरीद कर दीजिए. जब पिता ने नहीं खरीदा तो बालक ने घर में रखा हुआ डिटौल पी लिया. बालक को बहुत मुश्किल से बचाया जा सका.

आप को हम अब बताते हैं हाल ही में मध्य प्रदेश की संस्कारधानी के जाने वाले जबलपुर का घटनाक्रम- जबलपुर में एक छात्रा रंजना (बदला नाम) की मौत का मामला सामने आया है. रंजना 5वीं क्लास में पढ़ती थी. परिजनों के मुताबिक, वह घूमने जाना चाहती थी लेकिन उस की मां ने जाने के लिए मना कर दिया था. इस बात से गुस्से में आ कर रंजना फांसी के फंदे से लटक गई. फिलहाल पुलिस मामले की जांच कर रही है और जो जानकारियां सामने आ रही हैं वे चिंताजनक हैं.

दरअसल, घटना जबलपुर के धनवंतरी नगर थाना इलाके के जसूजा सिटी की है. रंजना की उम्र सिर्फ 10 साल थी. वह 5वीं क्लास में पढ़ रही थी. छात्रा अपने मातापिता की इकलौती संतान थी. एक दिन रंजना ने अपनी मां से भेड़ाघाट घूमने के लिए मनुहार की थी लेकिन मां ने उसे मना कर दिया था.

रंजना की मां उसे पढ़ाई और होमवर्क करने के लिए समझाने लगी. पुलिस ने बताया, वह घूमने की जिद पर अड़ी हुई थी लेकिन मां इस के लिए राजी नहीं हुई. इस बात से गुस्साई रंजना घर के ऊपर वाले कमरे में चली गई. वहां जा कर उस ने दरवाजे पर लगे परदे का फंदा बना कर अपनी इहलीला समाप्त कर ली.

जांच अधिकारी ने हमारे संवाददाता को बताया, मृतक छात्रा रंजना धनवंतरी नगर के जसूजा सिटी में रहने वाले भलावी परिवार की इकलौती बेटी थी. वह लिटिल वर्ल्ड स्कूल में कक्षा 5वीं की छात्रा थी. पुलिस ने पोस्टमार्टम करा कर शव को परिजन को सौंप दिया है. पुलिस ने बताया कि, वह मां से भेड़ाघाट घुमाने को ले कर जाने के लिए बोल रही थी. मां ने मना कर दिया. जिद करने पर मां ने डांट लगा दी. इस के बाद बच्ची ने खुदकुशी कर ली.

कुछ देर बाद जब मां ने ऊपर कमरे में जा कर देखा तो वहां का मंजर देख उस के होश उड़ गए. मां ने देखा कि बेटी फांसी के फंदे से लटकी है, जिसे देख मां चीखनेचिल्लाने लगी. महिला की चीखपुकार सुन कर वहां लोग आ पहुंचे. लोगों ने पुलिस को कौल कर मामले की जानकारी दी.

परिवारवालों का रोरो कर बुरा हाल हो गया. छोटी सी गलती और इतना बड़ा खमियाजा परिवार को भुगतना पड़ा. रंजना की मां ने अगर समझदारी से काम लिया होता तो शायद यह घटना घटित न होती.

शिक्षाविद और प्राचार्य डाक्टर संजय गुप्ता के मुताबिक अगर ऐसे हालात हैं कि बच्चे जिद्दी हैं तो मांबाप को बड़े ही मनोवैज्ञानिक तरीके से बच्चों को समझाना चाहिए. सब से पहले तो बच्चों के मनोभाव को समझना और पढ़ना मांबाप के लिए आवश्यक है.

डाक्टर जी आर पंजवानी के मुताबिक, समाज में ऐसी घटनाएं अकसर घट जाती हैं. इस के लिए मांबाप, परिजनों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. मगर, परिजनों को यह समझना होगा कि किस बच्चे का क्या स्वभाव है. अगर बच्चा उद्दंड, जिद्दी है तो उसे बड़े ही प्यार से स्नेह से समझाना जरूरी होता है. यह उम्र ऐसी होती है जब बच्चा कोई भी खतरनाक कदम उठा सकता है. मांबाप का कर्तव्य है कि वे बच्चों के स्वभाव को समझें.

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