शब ए बरात के दिन दिल्ली की जामा मसजिद को नया शाही इमाम मिल गया. शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी ने दस्तारबंदी (पगड़ी पहनाने की रस्म) समारोह में अपने बेटे सैयद शाबान बुखारी को जामा मसजिद का नया इमाम घोषित किया है. इस से पहले 29 वर्षीय सैयद शाबान बुखारी जामा मसजिद के नायब इमाम थे.
शाबान को 2014 में नायब इमाम की जिम्मेदारी मिली थी. उस के बाद से ही वे देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी धर्म से जुड़ी ट्रेनिंग ले रहे थे. शाही इमाम के पद पर होने के लिए इसलाम से जुड़ी तमाम तरह की जानकारी होना जरूरी होता है.
एमिटी यूनिवर्सिटी के छात्र रहे सैयद शाबान बुखारी की दस्तारबंदी होने के साथ ही वे जामा मसजिद के 14वें इमाम बन गए हैं. उन के परिवार ने 13 पीढ़ियों से जामा मसजिद की अध्यक्षता की है. गौरतलब है कि जामा मसजिद का निर्माण वर्ष 1650 में मुगल बादशाह शाहजहां द्वारा शुरू करवाया गया था. इस को बनने में 6 साल लगे और 1656 में यह पूरी तरह बन कर तैयार हुई थी. तब शाहजहां ने बुखारा (जो अब उज्बेकिस्तान में है) के शासकों को इस मसजिद के लिए एक इमाम की जरूरत बताई थी. उस के बाद इसलामिक धर्मगुरु सैयद अब्दुल गफूर शाह बुखारी को भारत भेजा गया था. उन को 24 जुलाई, 1656 को जामा मसजिद के शाही इमाम का खिताब दिया गया.
तब से आज तक उन्हीं के परिवार से दिल्ली की जामा मसजिद में इमाम बनते रहे हैं. इन्हें आज भी शाही इमाम का दर्जा हासिल है. ‘शाही’ का मतलब होता है ‘राजा’ और ‘इमाम’ वह होते हैं जो मसजिद में नमाजियों को नमाज अदा कराने के नेतृत्व करते हैं. इस तरह शाही इमाम का अर्थ होता है राजा की ओर से नियुक्त किया गया इमाम.
वर्तमान इमाम शाबान बुखारी
सैयद शाबान बुखारी का जन्म 11 मार्च, 1995 को दिल्ली में हुआ था. उन्होंने एमिटी यूनिवर्सिटी से सोशल वर्क में मास्टर डिग्री हासिल की है. इस के अलावा इसलामी धर्मशास्त्र में आलमियत और फाजिलियत भी की है. सैयद शाबान बुखारी ने इसलाम की बुनियादी तालीम के साथसाथ धर्म से संबंधित व्यापक अध्ययन मदरसा जामिया अरबिया शम्सुल उलूम, दिल्ली से हासिल किया है.
शाबान सामाजिक कार्यों में भी सक्रिय रूप से भाग लेते हैं और विभिन्न समुदायों के बीच शांति व सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए भी काम करते हैं. चूंकि शाबान युवा हैं, ऐसे में वे युवा वर्ग को शिक्षा और धर्म से जोड़ने में काफी मददगार साबित हो सकते हैं. वे जामा मसजिद के अब तक के सब से युवा शाही इमाम हैं.
13 नवंबर, 2015 को शाबान बुखारी ने गाजियाबाद की एक हिंदू लड़की से शादी की. शुरुआत में उन का परिवार इस शादी के लिए राजी नहीं था लेकिन शाबान की मोहब्बत को देखते हुए बाद में पूरा परिवार शादी के लिए राजी हो गया और 13 नवंबर, 2015 को धूमधाम से उन की शादी हुई. शादी के बाद 15 नवंबर को महिपालपुर के एक फार्महाउस में ग्रैंड रिसैप्शन दिया गया, जिस में कई राजनीतिक हस्तियां शामिल हुई थीं. शाबान के फिलहाल 2 बच्चे हैं और निकाह के बाद उन की पत्नी का नाम शबानी रखा गया है.
कैसे बनते हैं शाही इमाम
उत्तराधिकार संबंधी किसी भी अप्रिय विवाद से बचने के लिए जामा मसजिद के इमाम अपने जीवनकाल में ही अपने उत्तराधिकारी की घोषणा कर देते हैं. मौजूदा इमाम सैयद अहमद बुखारी को वर्ष 2000 में नायब इमाम घोषित किया गया था जब उन के पिता सैयद अब्दुल्ला बुखारी गंभीर रूप से अस्वस्थ थे. बाद में उन का एम्स में निधन हो गया था. इस बार, नायब इमाम के पद के लिए इमाम सैयद अहमद बुखारी के 2 भाइयों के नाम भी चर्चा में थे, लेकिन दस्तारबंदी सैयद शाबान बुखारी की हुई और वे सर्वसम्मति से शाही इमाम घोषित किए गए.
शाही इमाम के कार्य
जो व्यक्ति मसजिद में नमाज पढ़ाता है उसे इमाम कहा जाता है. इमाम आम तौर पर एक पुरुष धार्मिक नेता होता है जो इस्लामी शिक्षाओं का जानकार होता है और प्रार्थना में मंडली का नेतृत्व करने के लिए जिम्मेदार होता है. सामूहिक प्रार्थनाओं का नेतृत्व करने के अलावा, इमाम समुदाय को धार्मिक मार्गदर्शन और शिक्षा भी प्रदान कर सकता है और विवाह एवं अंतिम संस्कार जैसे धार्मिक कर्तव्यों का पालन कर सकता है.
कुछ देशों में, एक महिला केवल महिलाओं वाली मसजिद या समुदाय में इमाम के रूप में काम कर सकती है, लेकिन कई मुसलिम देशों और समाजों में यह आम बात नहीं है. भारत में तो शायद ही कोई महिलाओं की मसजिद हो जहां महिला इमाम हो.
मुगलकाल में जामा मसजिद के शाही इमाम के 2 प्रमुख काम थे- मुगल सम्राटों का राज्याभिषेक करवाना और जामा मसजिद में नमाज के सुचारु संचालन को देखना. जामा मसजिद के पहले इमाम सैयद गफूर बुखारी ने बादशाह औरंगजेब का राज्याभिषेक किया था. मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर का राज्याभिषेक 30 सितंबर, 1837 को जामा मसजिद के 8वें इमाम मीर अहमद अली शाह बुखारी की सरपरस्ती में हुआ था.
खैर, अब राजशाही तो खत्म हो गई है, इसलिए जामा मसजिद के इमाम का मुख्य काम नमाज अदा करवाना ही रह गया है. कई बार वे राजनीतिक मामलों में भी अपनी राय रखते हैं. चुनावी दौर में मुसलिम वोटों के लिए राजनेता इन के आगेपीछे रहते हैं. इमाम अहमद बुखारी के पिता अब्दुल्ला बुखारी अलगअलग मुसलिम दलों को अपना समर्थन दे चुके हैं.
अहमद बुखारी के पिता ने 1977 में जनता पार्टी और 1980 में कांग्रेस को भी समर्थन दिया था. उस के बाद से देश की अलगअलग पार्टियां शाही इमाम का समर्थन लेने जामा मसजिद के दर पर आने लगीं. इन में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ ही सोनिया गांधी के भी नाम शामिल हैं.
वर्ष 2004 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई को भी शाही इमाम के समर्थन की जरूरत पड़ी थी. तब बुखारी ने मुसलमानों से भाजपा को समर्थन देने की अपील की थी. वर्तमान समय में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से भी शाही इमाम के अच्छे संबंध हैं और केजरीवाल सरकार की तरफ से दिल्ली की मसजिदों के इमामों को आर्थिक मदद दी जाती है, जिस पर अन्य राजनीतिक दलों, खासकर भारतीय जनता पार्टी, को घोर आपत्ति है और इस संबंध में मामला अदालत में लंबित भी है.
कौन उठाता है मसजिद का खर्च
मसजिद के रखरखाव, रंगरोगन, बिजलीपानी और इमामों को सैलरी वक्फ बोर्ड द्वारा जाती है. सुप्रीम कोर्ट ने 1993 में अखिल भारतीय इमाम संगठन के अध्यक्ष मौलाना जमील इलियासी की याचिका पर सुनवाई करते हुए वक्फ बोर्ड को उस के मैनेजमैंट वाली मस्जिदों में इमामों को वेतन देने का निर्देश दिया था.
दिल्ली, हरियाणा और कर्नाटक में मसजिदों के इमाम को वक्फ बोर्ड सैलरी देता है. कई राज्यों में वक्फ बोर्ड कुछ मसजिदों के इमाम को काफी पहले से ही सैलरी दे रहा था, खासकर उन मस्जिदों के इमाम को जिन की पुरातत्व विभाग देख रेख करता है और जो ऐतिहासिक मसजिदें हैं.
मुसलिम पर्सनल लौ बोर्ड के सदस्य सैयद कासिम रसूल इलियास कहते हैं कि वक्फ बोर्ड सभी मसजिदों के इमाम को सैलरी नहीं देता है बल्कि अपनी ही मसजिदों के इमामों को सैलरी देता है, बाकी मसजिदों के इमामों को मसजिद कमेटियां तनख्वाह देती हैं. वक्फ की जो भी संपत्तियां हैं, वो सभी मुसलिमों की हैं. ऐसे में वक्फ की आय को सिर्फ मुसलिमों पर ही खर्च किया जा सकता है. इसीलिए वक्फ बोर्ड अपनी मसजिदों के इमामों से ले कर गरीबों-यतीमों तक को मदद देने का काम करता है.
दिल्ली में वक्फ प्रौपर्टी काफी प्राइम लोकेशन पर हैं, जिन के किराए वसूले जाएं तो सरकार जितना फंड देती है, वह रकम उस से कई गुना ज्यादा होगी. वक्फ बोर्ड अपनी संपत्तियों के किराए या फिर दरगाह से होने वाली आमदनी से अपने कर्मचारियों और अपनी मसजिदों के इमाम-मुअज्जिन को सैलरी देता है.
इस के अलावा बोर्ड यतीमों और गरीबों को पैंशन के तौर पर आर्थिक मदद देता है. कुछ राज्यों की सरकारें वक्फ संपत्तियों के संरक्षण के लिए फंड देती हैं, जिसे बोर्ड कई जगह मदद में खर्च करता है. दिल्ली सरकार लगभग 62 करोड़ रुपए का अनुदान प्रतिवर्ष वक्फ बोर्ड को देती है जबकि वक्फ बोर्ड की अपनी खुद की आय सालाना 4 करोड़ रुपए से ज्यादा है. सरकार द्वारा दिया गया फंड वक्फ संपत्तियों के संरक्षण के लिए होता है. बोर्ड इस फंड को अलगअलग मद में खर्च करता है.
वक्फ का फाइनैंस मौडल
वक्फ बोर्ड की आय का स्रोत अपनी वक्फ संपत्तियां हैं. यह आय मसजिदों में बनी दुकानें-प्रौपर्टी के किराए, दरगाह और खानकाह के जरिए होती है. वक्फ की जिस संपत्ति से आय होती है उस संपत्ति की स्थानीय कमेटी 93 फीसदी को अपने पास रखती है, सिर्फ 7 फीसदी आय को राज्य वक्फ बोर्ड को देती है, जिस में एक फीसदी सैंट्रल वक्फ काउंसिल को जाता है. स्थानीय कमेटी 93 फीसदी को वहां के रखरखाव पर खर्च करती है जबकि राज्य वक्फ बोर्ड 7 फीसदी में से कर्मचारियों और प्रबंधन पर पैसा खर्च करता है.
उदाहरण के तौर पर बहराइच की दरगाह में सालाना 7 करोड़ रुपए आय होती है, जिस में करीब साढ़े 6 करोड़ रुपए दरगाह के रखरखाव पर खर्च होते हैं और और 49 लाख रुपए स्टेट वक्फ बोर्ड को जाते हैं. स्टेट बोर्ड 49 लाख में से 7 लाख रुपए सैंट्रल वक्फ काउंसिल को देता है. ऐसे ही दिल्ली की निजामुद्दीन दरगाह, महरौली दरगाह से होने वाली आय का हिस्सा वक्फ बोर्ड को मिलता है. वक्फ बोर्ड इसी आय में से अपनी मसजिदों के इमामों और मोअज्जिनों को सैलरी देता है.
किसकिस राज्य में इमाम को सैलरी
दिल्ली ही नहीं, बल्कि देश के लगभग सभी राज्यों में वक्फ बोर्ड अपनी मसजिदों के इमामों को सैलरी देते हैं. तेलंगाना में जुलाई 2022 से इमामों और मुअज्जिनों को हर महीने 5,000 रुपए मानदेय दिया जा रहा है. मध्य प्रदेश वक्फ बोर्ड इमाम को 5,000 रुपए महीना और मुअज्जिनों को 4,500 रुपए महीना देता है.
हरियाणा में वक्फ बोर्ड अपनी मसजिदों के 423 इमामों को प्रतिमाह 15,000 रुपए का वेतन देता है. बिहार में साल 2021 से सुन्नी वक्फ बोर्ड अपनी मसजिदों के इमाम को 15,000 और मोअज्जिनों को 10,000 रुपए मानदेय दे रहा है. हालांकि, बिहार स्टेट शिया वक्फ बोर्ड 105 मसजिदों के इमाम को 4,000 और मोअज्जिनों को 3,000 रुपए मानदेय दे रहा है.
कर्नाटक वक्फ बोर्ड ने पंजीकृत मसजिदों के इमाम को सैलरी देने का स्लैब बना रखा है, जिस में बड़े शहरों में इमाम को 20,000, नायब इमाम को 14,000, मोअज्जिन को 14,000, खादिम को 12,000 और मुअल्लिम को 8,000 रुपए देने का प्रावधान है. ऐसे ही शहर की मसजिद के इमाम को 16,000, कसबे या नगर की मसजिद के इमाम को 15,000 और ग्रामीण मसजिद के इमाम को 12,000 रुपए दिए जाते हैं. इसी तरह पंजाब में भी वक्फ बोर्ड की मसजिद के इमाम को सैलरी दी जाती है.
उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड वक्फ बोर्ड अपनी मसजिदों के इमाम और मुअज्जिन को सैलरी नहीं देते. उत्तर प्रदेश में कुछ चुनिंदा मस्जिदों के इमाम को सैलरी दी जाती है, जो खासकर पुरातत्व विभाग के अधीन हैं. इन में ताजमहल मसजिद, लखनऊ में राजभवन की मसजिद, फतेहपुर सीकरी जैसी मसजिद के इमाम को सैलरी यूपी वक्फ बोर्ड देता है. वहीं, बाकी मसजिदों के इमाम को स्थानीय मसजिद कमेटी द्वारा सैलरी दी जाती है.
दिल्ली सहित कुछ राज्य सरकारें भी आर्थिक मदद करती हैं. बिहार सरकार सालाना 100 करोड़ रुपए का फंड वक्फ बोर्ड को अनुदान के तौर पर देती है. पश्चिम बंगाल की सरकार ने साल 2012 से ही इमामों को हर महीने 2,500 रुपए देने का ऐलान किया था और तब से यह सिलसिला जारी है.
मंदिर के पुजारी को क्यों नहीं मिलती सैलरी
यह विवाद और मांग काफी समय से जारी है कि जब मसजिद के इमाम को सैलरी मिलती है तो मंदिर के पुजारियों को क्यों सैलरी नहीं दी जाती है. हालांकि उत्तर प्रदेश में योगी सरकार ने अब मंदिर के पुजारियों के लिए भी सैलरी का प्रावधान किया है और मोदी सरकार भी देशभर के मंदिरों में पुजारियों की तैनाती व सैलरी की योजना पर काम कर रही है.
पश्चिम बंगाल में ममता सरकार पुजारियों को सैलरी देती है, जो कि जनता के टैक्स से दिया जाता है. हालांकि मंदिर के पुजारियों को सैलरी न दिए जाने के पीछे कई कारण हैं. मंदिरों में प्रतिदिन जितनी दानदक्षिणा पुजारियों को मिलती है, उतना पैसा न तो मसजिद के इमाम को मिलता है और न चर्च के पादरी को.
गौरतलब है कि बड़ी संख्या में दानपात्रों की व्यवस्था मंदिरों में होती है और पूजा के लिए जाने वाला प्रत्येक मनुष्य उस में अपनी हैसियत के अनुसार पैसा डालता ही है. इस के अलावा मंदिर में फलमिठाई भी खूब चढ़ाया जाता है और दक्षिणा के रूप में पुजारियों को नए कपड़े व पैसे देने का भी चलन है. दक्षिण के मंदिरों में तो लोग सोनेचांदी के आभूषण तक चढ़ाते हैं. इन में से बहुत बड़ा हिस्सा वहां के पंडितों के पास जाता है.
वक्फ संपत्तियों के तहत आने वाली मसजिदों की देखरेख वक्फ बोर्ड करता है, जो एक स्वायत्त संस्था है और स्टेट सरकार के अधीन आती है. वक्फ संपत्तियों से होने वाली आय वक्फ बोर्ड को जाती है, जिस के जरिए वक्फ अपनी मसजिदों के इमाम को सैलरी देता है. वहीं, मंदिर के पुजारियों को सैलरी इसलिए सरकार द्वारा नहीं दी जाती, क्योंकि मंदिर और आश्रम का संचालन निजी ट्रस्ट द्वारा किया जाता है.
मंदिरों से होने वाली आय को ट्रस्ट अपने पास रखता है और उस से अपने मंदिरों के पुजारियों को सैलरी देता है. इतना ही नहीं, कई जगह पर धर्मार्थ विभाग हैं, जो मंदिरों के लिए ही पैसा खर्च करते हैं. उत्तराखंड में मंदिरों को सरकार ने अपने अधीन लेना चाहा तो पुजारियों ने विरोध कर दिया था, क्योंकि इस से उन को होने वाली असीमित आय का खुलासा हो जाता.