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देश का किसान क्यों बार बार देता है दिल्ली चलो का नारा

करीब दो साल पहले मोदी सरकार द्वारा लाए गए 3 कृषि कानूनों को वापस लेने की हुंकार के साथ किसानों ने दिल्ली की घेराबंदी की थी. ‘दिल्ली चलो’ के नारे के साथ दिल्ली के बौर्डर पर किसानों ने डेरा डाला, क्योंकि दिल्ली के अंदर घुसने के सारे रास्तों पर पुलिस ने सीमेंट के अवरोधों पर कीलकांटे जड़ कर किसानों और केंद्र सत्ता के बीच मजबूत दीवार खड़ी कर दी थी. उस आंदोलन के दौरान करीब साल भर तक जाड़ा, गर्मी, बरसात झेलते हुए किसान खुले आकाश के नीचे सड़कों पर बैठे रहे थे.

उस दौरान करीब 700 किसानों की जानें भी गई थीं लेकिन किसानों ने तब मोदी सरकार को झुका ही लिया था और वह तीन काले कानून वापस करवा दिए थे जिन से किसानों को अपनी ही जमीन पर मजदूर बनाने के सारे प्रबंध मोदी सरकार ने कर दिए थे.

जिस के बाद मजबूरन मोदी सरकार को किसानों की मांगों के आगे झुकना पड़ा. लेकिन उस आंदोलन से कुछ और नए मुद्दे खड़े हुए जिन को ले कर किसान एक बार फिर दिल्ली घेरने निकल पड़े. 14 मार्च को दिल्ली के रामलीला मैदान में देश भर से 400 से ज़्यादा किसान संगठन के लोग महापंचायत के लिए पहुचें. इतनी बड़ी तादात में किसानों का रेला देख दिल्ली के कई क्षेत्रों में 144 लागू कर दी गई. हालांकि किसानों की तरफ से किसी तरह की अराजकता या अव्यवस्था उत्पन्न नहीं हुई और महापंचायत के बाद 3 बजे दोपहर में रैली समाप्त भी हो गई. मगर इस महापंचायत में किसानों ने सरकार को यह संदेश जरूर दे दिया कि सरकार के व्यवहार से वे न सिर्फ आहत हैं, बल्कि आगामी लोकसभा चुनाव में वह भारतीय जनता पार्टी को करारा सबक भी सिखाने के लिए कमर कस चुके हैं.

महापंचायत के दौरान अपनी भड़ास निकालते हुए एसकेएम के नेता डा. दर्शन पाल ने कहा कि आगामी लोकसभा चुनाव में किसान बीजेपी नेताओं को गांवों में नहीं घुसने देंगे. वहीं भारतीय किसान यूनियन (टिकैत) के नेता राकेश टिकैत ने कहा, “इस महापंचायत से सरकार को संदेश मिल गया है कि किसान इकट्ठा हैं और भारत सरकार बातचीत से समाधान करे. यह आंदोलन खत्म नहीं होगा. जिस तरह उन्होंने बिहार को बर्बाद किया, वहां मंडियां खत्म कर दीं, पूरे देश को बर्बाद करना चाहते हैं.”

किसान नेताओं ने एमएसपी की गारंटी कानून लाने की मांग की और हरियाणा पंजाब के शंभू और खनोरी बौर्डर पर बैठे किसानों पर पुलिस की कार्रवाई की निंदा की.

दरअसल मोदी सरकार ने अपने करीबी उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए जिस तरह किसानों की उपेक्षा की और उन्हें साजिशन गुलाम बनाने की चेष्टा की उस से किसान बिफर गया है. उद्योगपतियों के अरबोंखरबों के कर्ज माफ करने वाली सरकार किसानों की छोटीछोटी मांगों को दरकिनार कर रही है.

केंद्र सरकार की ओर से लगातार लागू की जा रही मजदूर किसान विरोधी नीतियों के खिलाफ संयुक्त किसान मोर्चा लगातार संघर्ष कर रहा है. अन्नदाता के मुद्दे वही पुराने हैं जिन पर मोदी सरकार ध्यान नहीं दे रही है –
1. एमएसपी गारंटी कानून आए.
2. स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट लागू की जाए.
3. किसानों की कर्जमाफी हो.
4. पिछले किसान आंदोलन में दर्ज मामले वापस लिए जाएं.
5. पिछले किसान आंदोलन में मृत किसानों को मुआवजा दिया जाए.
6. लखीमपुर खीरी मामले में दोषियों को सजा मिले.
7. भूमि अधिग्रहण कानून के किसान विरोधी क्लौज पर पुनर्विचार किया जाए.

किसान चाहते हैं कि स्वामीनाथन आयोग के सिफारिश को सरकार लागू करे. स्वामीनाथन आयोग ने किसानों को उन की फसल की लागत का डेढ़ गुना कीमत देने की सिफारिश की थी. आयोग की रिपोर्ट को आए 18 साल गुजर गए, लेकिन एमएसपी पर सिफारिशों को अब तक लागू नहीं किया गया. बिजली कानून 2022 भी वापस करने का दबाव वे सरकार पर बनाए हुए हैं. इस के अलावा भूमि अधिग्रहण और आवारा पशुओं की प्रमुख समस्या देश के अंदर बनी हुई है, जिस से किसान त्रस्त हैं. आवारा पशु खड़ी फसल को बर्बाद कर देते हैं. इस का कोई समाधान सरकार के पास नहीं है. उलटे सरकार किसानों के हित में कार्य करने की बजाय किसानों की जमीनों को कौर्पोरेट के हाथों बेचना चाहती है और इसी नियत से सरकार मजदूर किसान विरोधी नीतियां लगातार लागू कर रही है.

देश का किसान अपनी सभी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के लिए कानूनी आश्वासन चाहता है और सभी किसानों के लिए ऋण की पूर्ण माफी की मांग कर रहा है. जब उद्योगपतियों के कर्ज माफ़ हो सकते हैं तो उस के मुकाबले किसानों की कर्ज राशि तो मामूली सी है.

मनरेगा के तहत किसानों को खेती के लिए प्रतिदिन 700 रुपए निश्चित मजदूरी और साल में 200 दिनों के रोजगार की गारंटी भी चाहिए, जो सरकार के लिए कोई मुश्किल बात नहीं है. मगर सरकार की नीयत गरीबी खत्म करना नहीं, बल्कि गरीब को खत्म करने की है.

मार्च माह का दूसरा सप्ताह कैसा रहा, बौलीवुड का कारोबार

इस वर्ष की शुरुआत से ही सभी फिल्में बौक्स औफिस पर मुंह के बल धराशाही हो रही थीं, लेकिन मार्च माह के दूसरे सप्ताह 8 मार्च को प्रदर्शित फिल्म “शैतान” ने निर्माताओं के चेहरे पर थोड़ी सी मुसकान लाने का काम किया है.

इस सप्ताह विकास बहल निर्देशित बड़े बजट की अजय देवगन और आर माधवन अभिनीत फिल्म “शैतान” के साथ दो अन्य फिल्में, एक निर्देशक शंकर श्रीकुमार की फिल्म “अल्फा बीटा गामा” और बलविंदर सिंह जुंजुआ निर्देशित तथा रणदीप हुडा, इलियाना डिक्रूज व करण कुंद्रा एवं “तेरा क्या होगा लवली” प्रदर्शित हुई. अफसोस “अल्फा बीटा गामा” और “तेरा क्या होगा लवली” ने घोर निराशा किया.

शंकर ‌श्रीकुमार निर्देशित फिल्म “अल्फा बीटा गामा” के कलाकारों में निशान, अमित कुमार वशिष्ठ व मेनका शर्मा का समावेश है. यह पुरानी फिल्म है जिसे 24 नवंबर 2021 को भारत के इंटरनेशनल फिल्म फैस्टिवल अर्थात इफ्फी में पैनोरमा खंड के अंतर्गत प्रदर्शित किया गया था.

यह फिल्म तब से प्रदर्शन का इंतजार कर रही थी. यह फिल्म अब 8 मार्च को रिलीज हुई, पर अफसोस यह फिल्म कब सिनेमाघर पहुंची? कब उतर गई ? दर्शकों को पता ही नहीं चला. फिल्म कहानी कोविड के पृष्ठभूमि में तीन किरदारों की है, जिन्हें 14 दिन के लिए एक ही कमरे में क्वारंटाइन किया गया है.

इस में मिताली, उस का प्रेमी रवि और पूर्व पति चिरंजीवी हैं. इस फिल्म का कोई प्रचार नहीं किया गया. इतना ही नहीं इस के बौक्स औफिस के कलैक्शन को ले कर भी निर्माता ने चुप्पी साध रखी है.

इसी सप्ताह बलविंदर सिंह जंजुआ निर्देशित सामाजिक हास्य फिल्म “तेरा क्या होगा लवली” प्रदर्शित हुई. गोरी त्वचा के इर्दगिर्द घूमने वाली इस कहानी में रणदीप हुड्डा, इलियाना डिक्रूज, करण कुंद्रा, पवन मल्होत्रा, राजेंद्र गुप्ता जैसे कलाकारों ने अभिनय किया है. मजेदार बात यह है कि इस फिल्म का निर्माण सोनी पिक्चर्स ने किया है, मगर कहीं कोई प्रचार नहीं किया गया. फिल्म किस थिएटर में लगी यह भी पता नहीं चला. बौक्स औफिस कलैक्शन को ले कर भी निर्माता कुछ भी कहने को तैयार नहीं है.

8 मार्च को ही फिल्म “क्वीन” फेम निर्देशक विकास बहल निर्देशित सुपरनैचुरल हौरर फिल्म “शैतान” रिलीज हुई जो की सफलतम गुजराती फिल्म “वश” की हिंदी रीमेक है. जिस में अजय देवगन, आर माधवन और ज्योतिका की आम भूमिकाएं हैं. इस के निर्माण में अजय देवगन, जिओ स्टूडियो और पैनोरमा स्टूडियो जुड़ा हुआ है.

फिल्म की कहानी के केंद्र में चार्टर्ड अकाउंटेंट कबीर (अजय देवगन) है, जो अपनी पत्नी ज्योति (ज्योतिका), बेटी जान्हवी (जानकी बोदीवाला) और बेटा ध्रुव (अंगद राज) के साथ देहरादून के जंगली इलाके के फार्म हाउस में कुछ समय बिताने आते हैं. बीच रास्ते में उन की मुलाकात वनराज (आर माधवन) से होती है.

वनराज, कबीर की बेटी जान्हवी को लड्डू खाने के लिए देता है. लड्डू खाते ही जान्हवी, वनराज के इशारे पर नाचने लगती है. कबीर परिवार के साथ फार्म हाउस पहुंचते हैं, जहां वनराज भी पहुंच जाता है और अब वह कबीर की मर्जी से उन की बेटी जाह्नवी को अपने साथ ले जाना चाहता है.

कबीर, वनराज के चंगुल से अपनी बेटी जान्हवी को छुड़ाने का प्रयास करते हैं. इस फिल्म को बिकाउ फिल्म समीक्षकों के अलावा किसी भी समीक्षक ने दो स्तर से ज्यादा नहीं दिए थे. फिल्म में तमाम घटनाक्रमों का दोहराव है. अंधविश्वास भरा हुआ है. विकास बहल के निर्देशन के साथ ही अजय देवगन व आर माधवन का अभिनय स्तरहीन है. जान्हवी के किरदार में जानकी बोदीवाला का अभिनय शानदार है.

ज्यादातर समीक्षाकों की राय थी कि यह फिल्म फ्लौप होगी. जबकि अजय देवगन तथा उनके मैनेजर और पैनोरमा स्टूडियो के कर्ताधर्ता मंगत कुमार पाठक के लिए इस फिल्म का चलना बहुत जरूरी था क्योंकि पैनोरमा स्टूडियो अप्रैल माह में शेयर बाजार में उतरते हुए अपना पहला आईपीओ बाजार में ला कर आम जनता से धन उगाही करने की योजना पर काम कर रहा है.

बहरहाल अब फिल्म “शैतान” का पीआरओ भी गर्व से बता रहा है कि कम लागत में बनी फिल्म “शैतान” ने महज 7 दिन में भारत के बौक्स औफिस पर लगभग 80 करोड़ रुपए कमा लिए हैं. तो वहीं इस ने विश्व भर में 20 करोड़ रुपए अलग से कमाए हैं. इस तरह यह फिल्म अब तक 100 करोड़ कमा चुकी है.

कुछ लोगों की राय में अपने आने वाले आईपीओ को ध्यान में रख कर पैनोरमा स्टूडियो और अजय देवगन की तरफ से टिकटों की बल्क खरीदारी की गई है. जबकि सिनेमा घर मलिक “शैतान” के व्यापार से खुश हैं. उत्तर प्रदेश के सिंगल थिएटर मालिकों का दावा है कि “शैतान” से उन्होंने अच्छी कमाई की है.

फिल्मों और फैशन का है आपस में गहरा रिश्ता कैसे, जानिए

फिल्में और फैशन दो क्रिएटिव विषय हैं, जो हमेशा साथसाथ चलते हैं, जिन में से हर एक दूसरे को अलगअलग तरीकों से प्रभावित करते हैं. यही वजह है कि फिल्मों या टीवी सीरियल पर दिखाए गए पोशाक को कुछ ही दिनों मे मार्केट मे दिखने लगते हैं और दुकानदार भी उस पोशाक को फिल्मों के नाम ले कर ग्राहक को बेचते हैं. हमारी युवा पीढ़ी भी उसे तुरंत खरीद लेती है, क्योंकि वे फैशन मे किसी से पीछे नहीं रहना चाहती.

समाज में अपनेआप को बनाए रखने के लिए जमाने के साथ चलने को वे अच्छा मानती है, क्योंकि उन्हें इस बात का भी डर रहता है कि वे जमाने से पिछड़ न जाएं. युवक हों या युवतियां बाइक, कार, कपड़ों के साथ मैचिंग के जूते, चप्पल, हेयर कट, पर्स, हेयर पिन, ज्वैलरी आदि बहुत सी चीजें हैं, जिसे ले कर युवाओं की दीवानगी देखने लायक होती हैं.
25 वर्षीय उमा कहती है, “मैँ फिल्मों और टीवी धारावाहिकों मे दिखाए गए पोशाक और गहनों की बहुत शौकीन हूं और वैसी चीजें मार्केट मे खोजती भी हूं. फिल्म रौकी और रानी की प्रेम कहानी में मैं ने अभिनेत्री आलिया भट्ट को कौर्पोरेट वर्ल्ड में काम करते हुए सहजता से साड़ी और स्लीक ब्लाउस पहने देखा है और वह मुझे बहुत पसंद आया है. मैं ने भी वैसी ब्लाउज सिलवाई है. इस के अलावा कैटरीना कैफ हमेशा ट्रेंडी ज्वैलरी पहनती हैं, जिसे मैं ने सोशल मीडिया लुक में देखा है और मैं ने वैसी ही ज्वेलरी खरीदी है, जो रियल डायमंड नहीं है.”

मिलता है सहारा

ये सही है कि फैशन को लोगों तक पहुंचाने का माध्यम बहुत हद तक फिल्में ही होती हैं और फिल्मों को शूट करने के लिए फैशन के सहारे की जरूरत होती है. फिल्मों, टीवी और फैशन उद्योग के बीच का यह रिश्ता बड़े पैमाने पर समाज पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है.

खासकर जब बात फैशन ट्रेंड, कल्चरल ट्रेंड और वैल्यू की आती है तो फिल्में और फैशन उन सांस्कृतिक ट्रेंड और मूल्यों के बारे में एक जैसे विचार रखते हैं, क्योंकि एकदूसरे के बिना वे अधूरे हैं. ये चीजें सालों से पोपुलर है, जहां अधिक से अधिक लोग फिल्म के पात्रों की शैली की कौपी करने की कोशिश करना चाहते हैं और फिल्मों में विलासितापूर्ण जीवन शैली का चित्रण करने वाले पात्रों की तरह बनने की चाहत रखने के लिए उन के जैसे कपड़े खरीदना चाहते हैं.

जुड़ाव सालों का

इस बारे में डिजाइनर गौरांग कहते हैं, “फिल्मों का फैशन इंडस्ट्री से काफी जुड़ाव सालों से रहा है. मैँ हमेशा फैशन शो में ब्राइडल कलैक्शन का प्रयोग करता हूं, जो मैं ने इस बार शो में होली के गुलाबी रंगों को कपड़ों मे शामिल किया है. मैँ अगर फिल्म की बात करूं तो मुझे निर्देशक निर्माता संजय लीला भंसाली की फिल्में याद आती हैं जो बहुत ही भव्य तरीके से बनाई जाती हैं जिस में हीरोइनें बड़ीबड़ी घागरा चोली और साड़ी में दिखती हैं, जो युवाओं को आकर्षित करती है. यही वजह है कि आजकल की लड़कियां अपनी शादी में उन्हीं भव्य पोशाक को पहनना पसंद करती हैं.”

बराबर का होता है क्रेज

फिल्में फैशन उद्योग में विविधता और प्रतिनिधित्व भी बढ़ा सकती हैं. उदाहरण के लिए, फिल्म, “क्रेजी रिच एशियन्स” ने एशियाई फैशन की सुंदरता को प्रदर्शित किया, जिस के परिणामस्वरूप ऐसे डिजाइनों की मांग पूरे विश्व में वृद्धि हुई.
डिजाइनर श्रुति संचेती कहती हैं, “इंडिया में ही नहीं, विश्व मे हर जगह दो चीजें सब से अधिक बिकती हैं. वह है फिल्मों में दिखाए जाने वाले फैशन, इस में पुरुष और महिला, दोनों में क्रेज बराबर मात्रा मे होता है. अगर मैँ पुरानी फिल्मों को देखूं, तो लड़कियों को हेयर कट में साधना कट के साथ छोटीछोटी कुर्तियां और चूड़ीदार पहनना सालों पहले पसंद था.
“असल में लोग अपने पसंदीदा कलाकार के पहनावे को कौपी करना पसंद करते हैं और वही उन की प्रेरणादायक मूल्य होते हैं. अब डिजिटल मीडिया का क्रेज यूथ में अधिक हो गया है, इस से उन्हें कोई भी सूचना आसानी से मिल जाती है, जिस से वे अपनी पसंदीदा बड़े स्टार्स के पहनावे को देख कर कौपी कर लेते हैं. अगर उन्हें स्वीटजरलैंड में श्री देवी, अनुष्का शर्मा या काजोल को साड़ी में देखा है, तो वे भी हनीमून में साड़ी पहनना पसंद करते हैं. भले ही वह प्रैक्टिकली पौसिबल न हों, लेकिन उन की इच्छा यही रहती है.”

कलाकार का पहनावा है दुल्हनों की पसंद

श्रुति आगे कहती हैं, “फिल्मों और फैशन का संबंध सालों से साइड बाइ साइड रहा है. साथ ही फिल्मों के फैशन का गहरा प्रभाव आम जनता पर भी पड़ता है. आज अगर गोद भराई की रसम होती है, तो फिल्म ‘हम आपके हैं कौन’ में माधुरी दीक्षित ने जो ड्रैस पहनी थी, वह आजतक भी लड़कियां पहनना पसंद करती हैं. इसके बाद कितने भी रंग आए और गए, लेकिन वह बैंगनी रंग की साड़ी आज भी सब के दिमाग में है.

“कुछ हिस्टोरिकल फिल्में जैसे जोधा अकबर, पद्मावत आदि फिल्मों को उस युग के हिसाब से रिसर्च कर बनाया गया है. भले ही उस युग को किसी ने देखा नहीं, लेकिन उस की खूबसूरती को फिल्मों में देख कर दुल्हनें वैसी ही तैयार होना पसंद करती हैं. यही वजह है कि फिल्मस्टार भी किसी नई ड्रैस को एन्डार्स करना पसंद करते हैं, जिसे देख कर लोग उन पोशाकों को खरीद कर अपने वार्डरोप मे रखना पसंद करते हैं.

“साड़ी में स्टाइलिश लगने के लिए हर तरह के स्ट्रैपी, स्लीवलेस, बैकलेस आदि सब तरीके के ब्लाउज महिलाओं ने पहना है. अभी 13 इंच की ब्लाउज, फ्रन्ट बटन के साथ सब से क्लासी लुक देता है और ये आरामदायक भी होता है.”
इस प्रकार यह कहना सही होगा कि समय के साथ मीडिया और सोशल मीडिया की वजह से फिल्मों और फैशन के बीच का संबंध, आपस में गहरा जुड़ गया है. फैशन और फिल्में दोनों एक साथ मिल कर ही किसी पोशाक को दर्शकों तक पहुंचाते हैं जिस में दोनों को फायदा होता है.

 

 

फिल्मों में कैंसर : लोगों को बीमारी के बारे में बताया या सिर्फ इसे भुनाया

Dolly Sohi Passed Away: 48 वर्षीया टीवी ऐक्ट्रैस डाली सोही उन कलाकारों में से थीं जो नाम से ज्यादा अपने चेहरे से जानीपहचानी जाती हैं. छोटे परदे के कलाकार आमतौर पर अपने फैंस के बीच सीरियल के फेमस किरदार से मशहूर हो जाते हैं. जैसे डाली हिटलर दीदी के नाम से घरघर पहचानी जाने लगी थीं. डाली का कम उम्र में सर्वाइकल कैंसर से निधन टीवी इंडस्ट्री के लिए दोहरा सदमा है क्योंकि मौत के 48 घंटे पहले ही उस की ऐक्ट्रैस बहन अमनदीप की मौत भी पीलिया से हुई थी. इस दुखद इत्तफाक के थोड़े ही पहले डाली ने सोशल मीडिया पर अपने प्रशंसकों से आग्रह किया था कि वे उस के लिए दुआएं करें.

लेकिन एक बार फिर साबित हो गया कि कैंसर के मरीजों पर न दुआओं का असर होता, न ही दवाओं का. हालांकि यह कहा जाता है कि अगर पहली स्टेज पर ही कैंसर की पहचान हो जाए तो इलाज मुमकिन है. लेकिन इस घातक जानलेवा बीमारी की खूबी और दहशत इसलिए ज्यादा है कि बहुत एडवांस स्टेज पर ही इस की पहचान हो पाती है. टीवी और फिल्म इंडस्ट्री में कैंसर से मौत कोई हैरत की बात नहीं रही है लेकिन सुखद बात यह है कि कैंसर से ठीक होने वाले कलाकारों की संख्या कम नहीं. जिन में अहम नाम ऐक्ट्रैस मनीषा कोइराला का है. लीजा रे और सोनाली बेंद्रे भी इसी कड़ी के अगले नाम हैं.

दर्द का रिश्ता

कैंसर से जंग जीतने वालों में एक बड़ा नाम अभिनेता संजय दत्त का भी है जिन्हें फेफड़ों का कैंसर 2020 में हुआ था. जिस की पहचान भी चौथी स्टेज पर हुई थी. संजय दत्त अब इलाज के बाद एकदम ठीक हो चुके हैं लेकिन उन की बीमारी गौरतलब इसलिए है कि अपने दौर की मशहूर अभिनेत्री ब्यूटी क्वीन के खिताब से नवाजी गई उन की मां नर्गिस दत्त की मौत भी कैंसर से हुई थी.

संजय की पहली पत्नी की मौत भी कैंसर से हुई थी. उन के पिता सुनील दत्त ने अपनी पत्नी की याद में 1982 में फिल्म ‘दर्द का रिश्ता’ बनाई थी. इस फिल्म से होने वाले प्रौफिट को उन्होंने कैंसर के इलाज के लिए दान भी कर दिया था. सुनील दत्त की एक मंशा लोगों को कैंसर के दर्द और उस से होने वाली मौत से रूबरू कराने की भी कामयाब कोशिश थी.

‘दर्द का रिश्ता’ में कैंसर पेशेंट का रोल खुशबू ने निभाया था जिसे 11 साल की उम्र में ल्यूकोमिया यानी ब्लड कैंसर हो जाता है जिसे बोन मेरो ट्रांसप्लांट से ठीक होते दिखाया भी गया है. फिल्म की कहानी जानबूझ कर कैंसर के इर्दगिर्द गढ़ी गई जिस से अपनी बात कहने या मैसेज देने में आसानी रहे. नायक और नायिका दोनों ही डाक्टर बताए गए.

फिल्म में मुंबई के टाटा मैमोरियल अस्पताल को भी प्रमुखता से दिखाया गया है. 80 के दशक में कैंसर तेजी से फैलती बीमारी थी जिस में मरीज के बचने की कोई उम्मीद नहीं होती थी. ‘दर्द का रिश्ता’ की खूबी यह भी थी कि इस की कहानी को परिवार और खून के रिश्तों को ध्यान में रखते लिखा गया था.

रीना राय और स्मिता पाटिल दोनों ने प्रभावी अभिनय किया था. लेकिन सुनील दत्त बेहद नैचुरल एक ऐसे पिता के रोल में लगे थे जिस के चेहरे पर बेटी की मौत का खौफ हरदम मंडराता रहता है. फिल्म दर्शकों ने सराही थी और उन्हें इस से कैंसर को समझने का भी मौका मिला था.

अखियों के झरोखे से

फिल्म ‘दर्द का रिश्ता’ की खूबी यह थी कि इस में, अमेरिका में ही सही, कैंसर के इलाज को मुमकिन बताया गया था जिस का इलाज अब भारत में भी होने लगा है लेकिन यह भी कड़वा सच है कि यह बहुत महंगा है. यह चिंता भारत के मद्देनजर फिल्म के आखिर में सुनील दत्त स्मिता पाटिल के सामने जताते भी हैं.

आज भी बौन मेरो ट्रांसप्लांट आम आदमी की बस की बात नहीं जिस पर 20-25 लाख रुपए का खर्च आता है. ‘दर्द का रिश्ता’ रिलीज होने के 4 साल पहले 1978 में आई थी ‘अखियों के झरोखे से’ जिस ने बौक्सऔफिस पर धूम मचा दी थी. यह मूलतया रोमांटिक फिल्म थी जिस की कामयाबी में गीतसंगीत का भी बड़ा हाथ था. सस्ती, स्वस्थ और मनोरंजक पारिवारिक फिल्में बनाने के लिए मशहूर राजश्री प्रोडक्शन की इस फिल्म में सचिन और रंजीता की जोड़ी थी.

नायक हिंदू है जिसे क्रिश्चियन युवती से प्यार हो जाता है. लेकिन दोनों के प्यार में पेरैंट्स या समाज आड़े आता नहीं दिखाया गया है. जब शादी की बात तय हो जाती है तो पता चलता है कि नायिका को ल्यूकेमिया है. नायिका चाहती है कि नायक उस से दूर हो जाए जो हिंदी फिल्मों का एक खास टोटका है लेकिन नायक नहीं मानता. आखिर में सभी कैंसर से हार जाते हैं और नायिका नायक की बांहों में दम तोड़ देती है.

‘दर्द का रिश्ता’ और कैंसर पर बनी दूसरी फिल्मों की तरह इस में भी कैंसर को ले कर कोई खास मैसेज नहीं है लेकिन इस के बाद भी ‘अखियों के झरोझे से’ हिट हुई थी तो इस की वजह कालेज के सीन्स, रोमांस और उस से भी ज्यादा अहम बात फिल्म का अंत दुखद होना था जो आमतौर पर उन दिनों हिंदी फिल्मों का रिवाज नहीं था. कैंसर के मरीज के आखिरी दिन कितने द्वन्दात्मक होते हैं, यह दिखाने में ताराचंद बड़जात्या सफल रहे थे और रंजीता को खासी तारीफ दर्शकों व समीक्षकों की मिली थी.

आनंद

1971 में कैंसर पर प्रदर्शित पहली बड़ी फिल्म ‘आनंद’ ने ही, दरअसल, देशभर को कैंसर के खौफ से रूबरू कराया था. लेकिन कुछ इस अंदाज में कि दर्शक भले ही नम आंखें लिए सिनेमाहौल से बाहर निकले लेकिन उस के जेहन में राजेश खन्ना की ऐक्टिंग और होंठों पर उन के बोले जिंदादिल डायलौग थे कि ‘बाबू मोशाय, जिंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं.’ फिल्म फ़्लैशबैक में चलती है जिस में डाक्टर भास्कर बनर्जी बने अमिताभ बच्चन को अपने लिखे उपन्यास ‘आनंद’ के लिए पुरस्कार मिलता है.

निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी के सधे डायरैक्शन का कमाल ही इसे कहा जाएगा कि कई जगह अतिनाटकीयता होने के बाद भी फिल्म पर उन की पकड़ बनी रही. इस के एक साल पहले ही निर्देशक असित सेन 1970 में राजेश खन्ना ही अभिनीत फिल्म ‘सफर’ में भी कैंसर का दर्द दिखा चुके थे. ‘आनंद’ को देखने के बाद दर्शकों की जबान पर लिंफोस्कोर्मा औफ इंटेसटाइन यानी आंतों का कैंसर शब्द चढ़ गया था.

कैंसर का कोई इलाज न होने पर एक डाक्टर किस तरह खीझताझल्लाता है, इस बेबसी को अमिताभ बच्चन ने बखूबी जिया था. मौत जब तय हो चुकी हो तो किसी की भी प्रतिक्रिया निराशा और हताशा भरी ही हो सकती है, इस मिथक को झुठलाते हुए ‘आनंद’ का जिंदादिल किरदार दर्शकों को खूब भाया था.

‘आनंद’ में हालांकि सारे मसाले थे लेकिन कैंसर के प्रति गंभीरता भी कम नहीं थी. तब चूंकि कैंसर का कोई इलाज नहीं था, इसलिए निर्माता और निर्देशक के पास इस के अलावा कोई और थीम हो भी नहीं सकती थी कि कैंसर की गिरफ्त में आए मरीज कैसे बचीखुची जिंदगी हंसीखुशी जिएं. फिल्म के गाने आज भी शिद्दत से सुने और गुनगुनाए जाते हैं.

कल हो न हो

कैंसर पर जो कमजोर लेकिन चर्चित फिल्में बनीं उन में से एक साल 2003 में प्रदर्शित फिल्म ‘कल हो न हो’ भी है. इस फिल्म में शाहरुख खान, प्रीति जिंटा और सैफ अली खान जैसे नामी व महंगे कलाकार थे. लिहाजा, इस का चलना तो तय था.

निर्माता कारण जौहर ने इस की कहानी लिखी थी जिस में हिंदी फिल्मों को कामयाब बनाने वाले सारे टोटके आजमाए गए थे. निर्देशक निखिल आडवाणी मुद्दे की बात कम ही कर पाए लेकिन चूंकि कैंसर रोगी के रोल में शाहरुख खान थे इसलिए उन के द्वारा निभाए अमन के किरदार में थोड़ा दम तो आया था.

नायिका नैना हालात की मारी निराश युवती है जो अमन से मिलती है तो जिंदगी के माने समझती है. दोनों में प्यार हो जाता है लेकिन नायक कुछ ऐसे हालात पैदा करता है कि नायिका उस के दोस्त की तरफ झुके.

आखिर वह क्यों ऐसा चाहता है, यह राज खुलता है तो दर्शकों को पता चलता है कि उसे कैंसर है. यह थीम बहुत घिसीपिटी हो चली थी, इसलिए निखिल आडवाणी ने इस में वह सब ठूंस दिया जो दर्शक बीसियों बार देख चुके थे. अमन के किरदार पर भी ‘आनंद’ के राजेश खन्ना की छाप दिखाई पड़ती है. कैंसर पर बनी इस फिल्म में शोबाजी के चलते दर्शक नायक से उतने कनैक्ट नहीं हो पाए जितने कि दूसरी फिल्मों में हुए थे.

दिल बेचारा

कैंसर पर एक नियमित अंतराल से फिल्में बनती रहीं लेकिन अधिकतर में इसे जबरदस्ती कहानी में ठूंसा गया था. जहां सहानुभूति और मौत की दरकार थी वहां निर्माताओं ने कैंसर को एक प्रोडक्ट की तरह भुनाने की कोशिश की जिसे दर्शकों से नकार दिया. लेकिन साल 2020 में ओटीटी पर प्रदर्शित ‘दिल बेचारा’ एक हद तक इस की अपवाद मानी जा सकती है. मुकेश छावड़ा द्वारा निर्देशित ‘दिल बेचारा’ में लीड रोल सुशांत सिंह राजपूत ने निभाया था जो उन की आखिरी फिल्म भी थी.

थायराइड कैंसर की मरीज के रूप में संजना सांघी ने अपनी प्रतिभा दिखाने की पूरी कोशिश की लेकिन वह ज्यादा चल नहीं पाई. इस के बाद वे किसी फिल्म में नजर नहीं आईं. उन की पहचान केडबरी, तनिष्क और डाबर के विज्ञापनों तक ही सिमटी रही. नायक को भी आस्टियो साकोर्मा से पीड़ित दिखाया गया है जिस में कैंसर हड्डियां बनाने वाली कोशिकाओं में शुरू होता है.

भारत में हर साल एक लाख से भी ज्यादा मामले आस्टियो साकोर्मा के सामने आते हैं. इस कैंसर से ताल्लुक रखती एक अहम बात यह है कि यह ज्यादातर टीनऐजर्स में होता है. असल में ‘दिल बेचारा’ लुकिंग फार अलास्का और पेपर टाउंस जैसे चर्चित उपन्यास लिखने वाले अमेरिकी उपन्यासकार जान ग्रीन के उपन्यास पर बनी हौलीवुड की फिल्म ‘द फौल्ट इन आवर स्टार्स’ की रीमेक थी जो कोविड के चलते देर से रिलीज हुई.

सुशांत की रहस्यमय मौत के बाद मचे बवंडर का ‘दिल बेचारा’ को भरपूर फायदा मिला था. युवा उन्हें देखने को टूट पड़े थे. इस फिल्म की थीम प्यार और मौत थी जो सुशांत की जिंदगी से मैच भी करती हुई थी. मैनी के किरदार में वे ठीकठाक लगे थे जो जीने के नएनए फंडे बताता रहता है लेकिन फिल्म में वास्तविकता तब ज्यादा नजर आती है जब हताशनिराश नायिका को औक्सीजन सिलैंडर साथ ले कर चलते दिखाया जाता है.

खुद नायक भी लाइलाज बीमारी से जूझ रहा है लेकिन वह नायिका के मुकाबले जिंदादिल है और नियति को स्वीकार चुका है. नाटकीय घटनाओं के बीच दोनों में प्यार हो जाता है लेकिन आखिर में नायक मर जाता है. फिल्म थायराइड कैंसर के प्रति आगाह करती है जो पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में ज्यादा होता है. हालफिलहाल यह माना जाता है कि यह बीमारी पैसे वाली महिलाओं में ज्यादा होती है. दूसरे कैंसरों की तरह इस की पहचान भी शुरुआत में हो जाए तो इस का भी इलाज संभव है.

मैनी का किरदार कुछकुछ ‘आनंद’ से मिलताजुलता दिखाने की कोशिश की गई है लेकिन मुकेश छावड़ा ‘आनंद’ जैसी कोई बात ‘दिल बेचारा’ में पैदा नहीं कर पाए.
कैंसर पर और भी जो फिल्में बनीं उन में 1972 में ही आई ‘अनुराग’ प्रमुख थी. 1976 में आई ‘मिली’ में भी कैंसर था और 1981 में रणधीर कपूर अभिनीत फिल्म ‘हरजाई’ में भी कैंसर पर फ़ोकस किया गया था. जब कुछ फिल्में चल निकलीं तो निर्माताओं ने इस गंभीर विषय पर जो बनाया उसे दर्शकों ने सिरे से खारिज कर दिया.

‘कलंक’, ‘कट्टी बट्टी’, ‘लुटेरा’ और ‘द स्काई इज पिंक’ वक्तवक्त पर कैंसर पर बनी फ्लौप फिल्में हैं. साल 2016 में करण जौहर की ही ‘ए दिल है मुश्किल’ ऐसी ही फिल्म थी जो रणवीर कपूर ऐश्वर्या राय और अनुष्का शर्मा के लीड रोल्स में होने से ठीकठाक कमाई कर ले गई थी, वरन तो कैंसर इस में कहनेभर को था, बाकी जितनी बकवास एक फिल्म में हो सकती है वह इस में थी. कहने का मतलब यह नहीं कि कैंसर पर बनी फिल्म कोई डाक्यूमैंट्री हो लेकिन उस से इतने बंबइया होने की भी उम्मीद नहीं की जाती कि वह अपनी और मुद्दे की बात ही न कह पाए.

इस के बाद भी कैंसर पर बनी सभी फिल्मों की यह खासीयत रही कि उन में टोनेटोटकों और तंत्रमंत्र या आयुर्वेद या किसी और चमत्कार से कैंसर ठीक होते नहीं दिखाया गया. नहीं तो हिंदी फिल्मों में तो गूंगा बोलने और लंगड़ा चलने लगता है. इस के बाद भी अफसोस की बात यह है कि कैंसर मरीज के परिजन झाड़फूंक वगैरह में ज्यादा लगे दिखते हैं जिस से कुछ दिनों के लिए झूठी उम्मीद तो मिलती है लेकिन जिंदगी नहीं, जो अब एलोपैथी के इलाज से मुमकिन होने लगी है.

बोझ नहीं रिश्ते दिल के: भाग 4

एक दिन वह भी आया जब उस का विवाह हो गया पर उस के उन के साथ संबंध सदा बने रहे. मायके आती तो अधिक से अधिक समय उन के साथ व्यतीत करने की कोशिश करती. विपुल उसे मौसी कह कर बुलाता था. उस को देख कर वह इतना खुश होता कि जब तक वह रहती, उस से ही चिपका रहता. अपने स्कूल की एकएक बात उसे बताता. वह उस के लिए ढेर सारे खिलौने ले कर आती तथा उसे भी दीदी की तरफ से उपहार मिलते. सब से ज्यादा खुशी तो इस बात की थी कि दीपेश ने भी उस के इस रिश्ते का मान रखा.

कभीकभी उसे लगता कि वे उस की बड़ी बहन जैसी ही नहीं, उस की सब से अच्छी मित्र है जिन के पास उस की हर समस्या का हल रहता है तथा वह भी अपने दिल की हर बात उन के साथ शेयर कर मन में चलते द्वंद या कशमकश से मुक्ति प्राप्त कर लेती है. एक दिन पता चला कि दीदी के मातापिता तथा भाई सरल अपने किसी रिश्तेदार की बेटी के विवाह में अपनी कार से जा रहे थे कि अचानक गाड़ी का संतुलन बिगड़ गया तथा तीनों ही पंचतत्त्व में विलीन हो गए. समाचार सुन कर अनुजा उन के पास गई. उसे आया देख कर दीदी बिलख कर रोते हुए बोलीं, ‘अनु, सब समाप्त हो गया. इस भरी दुनिया में मैं अकेली रह गई.’ 

उस समय उस के साथ आई उस की मां ने उन को गले लगा कर दिलासा देते हुए कहा, बेटा तू अकेली कहां है, हम हैं न तेरे साथ. आज से तू भी मेरी बेटी है. हमारे रहते कभी स्वयं को अकेला मत समझना.’ और सच जब तक मांपापा रहे, कभी उन्हें अकेलेपन का एहसास नहीं होने दिया यहां तक कि भाई अभिनव और भाभी पूजा ने भी उन्हें बहन जैसा सम्मान दिया. वह जब भी अमेरिका से इंडिया आता तो जैसे उपहार उस के लिए लाता वैसे ही उन के लिए भी लाता. विपुल के विवाह में भी वह आने वाला है भात की रस्म निभाने.

अचानक अनुजा को अपना हाथ हलका लगा, देखा, तो पाया कि उस के हाथ को पकड़ा उन का हाथ नीचे लटक गया है. उस ने घबरा कर नब्ज टटोली. कुछ न पा कर डाक्टर को आवाज लगाती बाहर दौड़ी. उस की बदहवास दशा देख कर विपुल घबरा गया. दीपेश जो डाक्टर से कंन्सल्ट कर के लौटे ही थे, उस की चीख सुन कर हतप्रभ रह गए. डाक्टर ने आते ही उन्हें मृत घोषित कर दिया.

उस के जीवन की सूत्रधार, जिस के साए में उस ने रहना, चलना, सोचना और समझाना सीखा वह अपना नश्वर कलेवर छोड़ कर इस दुनिया से विदा ले चुका था. वह समझ नहीं पा रही थी कि कैसे उन के बिना चल पाएगी, कैसे विपुल को संभालेगी? तभी कहीं पढ़े शब्द उस के दिलदिमाग में गूंज उठे- जीवन तो उस नाव की तरह है जिस में प्राणी अपनी सुविधानुसार चढ़ता और उतरता रहता है. फिर चढ़ने पर खुशी और उतरने पर गम क्यों? जीवन की नाव हिचकोले खाएगी, डराएगी. फिर भी नाव को डूबने से बचाना हर इंसान का कर्तव्य है जब तक कि वह स्वयं जर्जर हो कर टूट न जाए.

दीदी के जीवन की नाव शायद जर्जर हो गई थी. तभी वे सब चाह कर भी उन्हें बचा नहीं सके. अंतिमक्रिया के समय पूरे महल्ले के लोगों के अलावा कालेज के सभी अध्यापक और छात्रछात्राएं उपस्थित थे. सब उन की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे. यह देख कर, सुन कर गर्व से मन भर उठा. आज दीदी उसे शायर के उस कथन की पर्याय लग रही थीं- मैं तो अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर, लोग मिलते गए कारवां बनता गया… 

लड़की वाले भी इस घटना से बेहद मायूस तथा डरे हुए थे. वे हमारी प्रतिक्रिया का इंतजार कर रहे थे. जब उन्हें दीदी की अंतिम इच्छा के बारे में बताया तो वे नतमस्तक हो गए. आखिर एक बहुत बड़ा बोझ उन के सिर से उतर गया था. उन्हें डर था कि कहीं यह घटना उन की बेटी के लिए अपशगुन बन कर न रह जाए. सच तो यह है कि हमारा समाज आधुनिक बनने को ढोंग तो करता है पर जब स्वयं पर आती है तो नाना प्रकार के अंधविश्वासों में उलझ कर रह जाता है.

कर्मकांडों से निबटने के बाद थोड़ा स्थिर होने पर उन की वार्डरोब में रखी डायरी निकाल कर पढ़ने लगी. डायरी में हर रस्म पर दी जाने वाली वस्तुएं सिलसिलेवार लिखी हुई थीं. कुछ शौपिंग जो उन्होंने कर ली थी उस पर उन्होंने टिक लगा दिया था तथा जो नहीं कर पाई थीं उस के आगे कोई निशान नहीं था. हर रस्म में देने वाली वस्तुएं एक बड़े पैकेट में डाल कर अलमारी में टैग लगा कर रख दी थीं. अपने जीवन की तरह ही पूरी तरह सुव्यवस्थित, योजनाबद्ध विवाह की तैयारी कर रही थीं. जीवन से थोड़ी मोहलत उन्होंने चाही थी पर पूरी नहीं हो पाई. सच कुदरत भी कभीकभी इतनी निर्दयी कैसे हो जाती है कि इंसान को उस के न्याय पर ही शक होने लगता है.  

पढ़तेपढ़ते एक जगह नजर ठहर गई- ‘अनुजा, बस एक ही बात मुझे बारबार कचोटे जा रही है कि मैं विपुल को परिपूर्ण जीवन नहीं दे पाई. कोई कितनी भी कोशिश कर ले पर मातापिता दोनों का प्यार कोई एक अकेला अपने बच्चे को नहीं दे सकता. मैं ने अकसर विपुल की आंखों में पिता के लिए चाहत देखी है. शायद मन ही मन मुझे कुसूरवार भी ठहराता रहा हो पर तू ही बता, मैं क्या करती? क्या पूरी उम्र उस नरक में सड़ती रहती तथा विपुल को भी उस सड़न का भागीदार बनाती?

‘अगर तुम चाहो तो इस अवसर पर उन्हें बुला सकती हो, मुझे कोई एतराज नहीं होगा. आखिर विपुल उन का भी तो अंश है. वैसे, मैं नहीं जानती वे कहां और कैसे हैं पर दुनिया इतनी बड़ी भी नहीं कि किसी को ढूंढा न जा सके. पुराना पता इसी डायरी में है. अच्छा, अब रुकती हूं, पता नहीं क्यों बहुत घबराहट हो रही है.’ 

तारीख देखी तो वही दिन था जिस दिन उन्हें अटैक आया था. अंतिम लाइनों ने उसे झकझोर कर रख दिया तो क्या ऊपर से जिंदादिल दिखने वाली सविता दी कहीं न कहीं अपराधबोध से ग्रस्त थीं? अपने लिए नहीं, शायद अपने बच्चे के प्रति पूर्ण न्याय न कर पाने के कारण. पर उन्होंने यह क्यों लिखा कि अगर तुम चाहो तो उन्हें बुला सकती हो, क्या उन्हें अपने अंतिम समय का आभास हो गया था?

दीदी का अंतिम पत्र पढ़ कर आज लग रहा था कि कहीं वे दोहरी जिंदगी तो नहीं जीती रहीं. चेहरे पर हंसी और अंदर ही अंदर एक अनकहा तूफान. पर जातेजाते वे उस तूफान को छिपा नहीं पाईं. शायद इस दुनिया से जाते समय वे अपने दिल पर कोई बोझ ले कर नहीं जाना चाहती थीं और न ही जीतेजी सब के सामने स्वीकार कर कमजोर पड़ना चाहती थीं. सच, अगर कुछ अपवादों को छोड़ दें तो साधारणतया हर हंसी के पीछे कोई भीषण दुख छिपा रहता है. सच कुछ पल भुलाए नहीं भूलता. कहीं मन में वर्षो से डंक मारता दुख आज उन के इस अटैक का कारण तो नहीं बन गया? कारण जो भी रहा हो पर हकीकत का सामना तो करना ही था. वैसे भी, अंतिम सांसें लेता व्यक्ति कभी झूठ नहीं बोलता. दीदी की अंतिम इच्छा का सम्मान करना उस का कर्तव्य है पर कैसे, समझ नहीं पा रही थी. 

दीपेश को दीदी की डायरी का वह अंश दिखाया तो वे भी सोच में पड़ गए. जब समझ में नहीं आया तो विपुल से बात करने की सोची. आखिर वही तो था जिस ने मातापिता के अलगाव का दुख झेला था.

विपुल को डायरी दिखाई तो उस की आंखों से आंसू बहने लगे, बोला, “मौसी, यह सच है कि मैं ने पापा को मिस करने का दर्द सहा है पर जो दर्द ममा ने सहा है वह मेरे दर्द से बहुत ज्यादा है. उस आदमी ने ममा का तो तिरस्कार किया ही, मेरी भी परवा नहीं की तो फिर मैं उस की परवा क्यों करूं? उसे बुला कर मैं ममा के प्यार का अपमान नहीं करूंगा. मेरे ममापापा दोनों मां ही थीं. आज मैं अनाथ हो गया, मौसी. मैं अनाथ हो गया.Þ 

दीदी के जाने के बाद तू अकेला ही नहीं, हम सब ही अनाथ हो गए हैं, बेटा. वे हमारे लिए वटवृक्ष के समान थीं. हालात पर किसी का वश नहीं है, बेटा. पर उन की खुशी के लिए स्थिति के साथ समझौता करना ही पड़ेगा. न तू रोएगा, न हम रोएंगे,Þ अनुजा ने उसे अपने अंक में समेटते हुए कहा. 

दीदी तो उस समय का इंतजार नहीं कर सकीं पर विवाह टलेगा नहीं और न ही इस स्थिति के लिए कोई नई बहू को दोषी ठहराएगा. वह विपुल के साथ दीदी की भी पसंद है. वह उसी धूमधड़ाके के साथ इस घर में प्रवेश करेगी जैसा कि दीदी चाहती थीं. इस निर्णय ने अनुजा के डगमगाते इरादों को मजबूती दी. वह विवाह की तैयारी में जुट गई. आखिर उसे अपनी सविता दीदी के विश्वास की कसौटी पर खरा उतरना है.

स्पेनिश मौस: क्या गीता अपनी गृहस्थी बचा पाई?

‘‘आप यह नहीं सोचना कि मैं उन की बुराई कर रही हूं, पर…पर…जानती हैं क्या है, वे जरा…सामाजिक नहीं हैं.’’

उस महिला का रुकरुक कर बोला गया वह वाक्य, सोच कर, तोल कर रखे शब्द. ऋचा चौंक गई. लगा, इस सब के पीछे हो न हो एक बवंडर है. उस ने महिला की आंखों में झांकने का प्रयत्न किया, पर आंखों में कोई भाव नहीं थे, था तो एक अपारदर्शी खालीपन.

मुझे आश्चर्य होना स्वाभाविक था. उस महिला से परिचय हुए अभी एक सप्ताह भी नहीं हुआ था और उस से यह दूसरी मुलाकात थी. अभी तो वह ‘गीताजी’ और ‘ऋचाजी’ जैसे औपचारिक संबोधनों के बीच ही गोते खा रही थी कि गीता ने अपनी सफाई देते हुए यह कहा था, ‘‘माफ करना ऋचाजी, हम आप को टैलीफोन न कर सके. बात यह है कि हम…हम कुछ व्यस्त रहे.’’

ऋचा को इस वाक्य ने नहीं चौंकाया. वह जान गई कि अमेरिका में आते ही हम भारतीय व्यस्त हो जाने के आदी हो जाते हैं. भारत में होते हैं तो हम जब इच्छा हो, उठ कर परिचितों, प्रियजनों, मित्रों, संबंधियों के घर जा धमकते हैं. वहां हमारे पास एकदूसरे के लिए समय ही समय होता है. घंटों बैठे रहते हैं, नानुकर करतेकरते भी चायजलपान चलता है क्योंकि वहां ‘न’ का छिपा अर्थ ‘हां’ होता है. किंतु यहां सब अमेरिकन ढंग से व्यस्त हो जाते हैं. टैलीफोन कर के ही किसी के घर जाते हैं और चाय की इच्छा हो तो पूछने पर ‘हां’ ही करते हैं क्योंकि आप ने ‘न’ कहा तो फिर भारतीय भी यह नहीं कहेगा, ‘‘अजी, ले लो. एक कप से क्या फर्क पड़ेगा आप की नींद को,’’ बल्कि अमेरिकन ढंग से कंधे उचका कर कहेगा, ‘‘ठीक है, कोई बात नहीं,’’ और आप बिना चाय के घर.

अमेरिका आए ऋचा को अभी एक माह ही हुआ था. घर की याद आती थी. भारत याद आता था. यहां आने पर ही पता चलता है कि हमारे जीवन में कितनी विविधता है. दैनिक जीवन को चलाने के संघर्ष में ही व्यक्ति इतना डूब जाता है कि उसे कुछ हट कर जीवन पर नजर डालने का अवसर ही नहीं मिलता. यहां जीवन की हर छोटी से छोटी सुखसुविधा उपलब्ध है और फिर भी मन यहां की एकरसता से ऊब जाता है. अजीब एकाकीपन में घिरी ऋचा को जब एक अमेरिकन परिचिता ने ‘फार्म’ पर चलने की दावत दी तो वह फूली न समाई और वहीं गीता से परिचय हुआ था.

शहर से 20-25 किलोमीटर दूर स्थित इस ‘फार्म’ पर हर रविवार शाम को ‘गुडविल’ संस्था के 20-30 लोग आते थे, मिलते थे. कुछ जलपान हो जाता था और हफ्तेभर के लिए दिमाग तरोताजा हो जाता था. यह अनौपचारिक ‘मंडल’ था जिस में विविध देशों के लोगों को आने के लिए खास प्रेरित किया जाता था. सांस्कृतिक आदानप्रदान का एक छोटा सा प्रयास था यह.

यहीं उन गोरे चेहरों में ऋचा ने यह भारतीय चेहरा देखा और उस का मन हलका हो गया. वही गेहुआं रंग, काले घने बाल, माथे पर बिंदी और साड़ी का लहराता पल्ला. दोनों ने एकदूसरे की ओर देखा और अनायास दोनों चेहरों पर मुसकान थिरक गई. फिर परिचय, फिर अतापता, टैलीफोन नंबर का लेनदेन और छोटीमोटी, इधरउधर की बातें. कई दिनों बाद हिंदी में बातचीत कर अच्छा लगा.

तब गीता ने कहा था, ‘‘मैं टैलीफोन करूंगी.’’

और दूसरे सप्ताह मिली तो टैलीफोन न कर सकने का कारण बतातेबताते मन में लगी काई पर से जबान फिसल गई. उस के शब्द ऋचा ने पकड़ लिए, ‘‘वे सामाजिक नहीं हैं…’’ शब्द नहीं, मर्म को छूने वाली आवाज थी शायद, जो उसे चौंका गई. सामाजिक न होना कोई अपराध नहीं, स्वभाव है. गीता के पति सामाजिक नहीं हैं. फिर?

बातचीत का दौर चल रहा था. हरीहरी घास पर रंगबिरंगे कपड़े पहने लोग. लगा वातावरण में चटकीले रंग बिखर गए थे. ऋचा भी इधरउधर घूमघूम कर बातों में उलझी थी. अच्छा लग रहा था, दुनिया का नागरिक होने का आभास. ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की एक नन्ही झलक.

यहां मलयेशिया से आया एक परिवार था, कोई ब्राजील से, ये पतिपत्नी मैक्सिकन थे और वे कोस्टारिका के. सब अपनेअपने ढंग से अंगरेजी बोल रहे थे. कई ऋचा की भारतीय सिल्क साड़ी की प्रशंसा कर रहे थे तो कई बिंदी की ओर इशारा कर पूछ रहे थे कि यह क्या है? क्या यह जन्म से ही है आदि. कुल मिला कर ऐसा समां बंधा था कि ऋचा की हफ्तेभर की थकान मिट गई थी. तभी उस की नजर अकेली खड़ी गीता पर पड़ी. उस का पति बच्चों को संभालने के बहाने भीड़ से दूर चला गया था और उन्हें गाय दिखा रहा था.

ऋचा ने सोचा, ‘सचमुच ही गीता

का पति सामाजिक नहीं है. पर फिर यहां क्यों आते हैं? शायद गीता के कहने पर. किंतु गीता भी कुछ खास हिलीमिली नहीं इन लोगों से.’

‘‘अरे, आप अकेली क्यों खड़ी हैं?’’ कहती हुई ऋचा उस के पास जा खड़ी हुई.

‘‘यों ही, हर सप्ताह ही तो यहां आते हैं. क्या बातचीत करे कोई?’’ गीता ने दार्शनिक अंदाज से कहा.

‘‘हां, हो सकता है. आप तो काफी दिनों से आ रही हैं न?’’

‘‘हां.’’

‘‘तुम्हारे पति को अच्छा लगता है यहां? मेरा मतलब है भीड़ में, लोगों के बीच?’’

‘‘पता नहीं. कुछ कहते नहीं. हर इतवार आते जरूर हैं.’’

‘‘ओह, शायद तुम्हारे लिए,’’ ऋचा कब आप से तुम पर उतर आई वह जान न पाई.

‘‘मेरे लिए, शायद?’’ और गीता के होंठों पर मुसकान ठहर गई, पर होंठों का वक्र बहुत कुछ कह गया. ऋचा को लगा, कदाचित उस ने किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया था, अनजाने ही अपराधबोध से उस ने झट आंखें फेर लीं.

तभी गीता ने उस के कंधे पर हाथ रखा और कहा, ‘‘सच मानो, ऋचा. मैं तो यहां आना बंद ही करने वाली थी कि पिछली बार तुम मिल गईं. बड़ा सहारा सा लगा. इस बार बस, तुम्हारी वजह से आई हूं.’’

‘‘मेरी वजह से?’’

‘‘हां, सोचा दो बातें हो जाएंगी. वरना हमारे न कोई मित्र हैं, न घर आनेजाने वाले. सारा दिन घर में अकेले रह कर ऊब जाती हूं. शाम को कभी बाजार के लिए निकल जाते हैं पर अब तो इन बड़ीबड़ी दुकानों से भी मन ऊब गया है. वही चमकदमक, वही एक सी वस्तुएं, वही डब्बों में बंद सब्जियां, गत्तों के चिकने डब्बों में बंद सीरियल, चाहे कौर्नफ्लैक लो या ओटबार्न, क्या फर्क पड़ता है.’’

गीता अभी बहुत कुछ कहना चाहती थी पर अब चलने का समय हो गया था. उस के पति कार के पास खड़े थे. वह उठ खड़ी हुई. ऋचा को लगा, गीता मन को खोल कर घुटन निकाल दे तो उसे शायद राहत मिलेगी. इस परदेस में इनसान मन भी किस के सामने खोले?

वह अपनी भावुकता को छिपाती हुई बोली, ‘‘गीता, कभी मैं तुम्हारे घर आऊं तो? बुरा तो नहीं मानेंगे तुम्हारे पति?’’

‘‘नहीं. परंतु हां, वे कभी कार से लेने या छोड़ने नहीं आएंगे, जैसे आमतौर पर भारतीय करते हैं. इन से यह सामाजिक औपचारिकता नहीं निभती,’’ वह चलते- चलते बोली. फिर निकट आ गई और साड़ी का पल्ला संवारते हुए धीरे से बोली, ‘‘तभी तो नौकरी छूट गई.’’

और वह चली गई, ऋचा के शांत मन में कंकड़ फेंक कर उठने वाली लहरों के बीच ऋचा का मन कमल के पत्ते की भांति डोलने लगा.

इस परदेस में, अपने घर से, लोगों से, देश से हजारों मील दूर वैसे ही इनसान को घुटन होती है, निहायत अकेलापन लगता है. ऊपर से गीता जैसी स्त्री जिसे पति का भी सहारा न हो. कैसे जी रही होगी यह महिला?

अगली बार गीता मिली तो बहुत उदास थी. पिछले पूरे सप्ताह ऋचा अपने काम में लगी रही. गीता का ध्यान भी उसे कम ही आया. एक बार टैलीफोन पर कुछ मिनट बात हुई थी, बस. अब गीता को देख फिर से मन में प्रश्नों का बवंडर खड़ा हो गया.

इस बार गीता और अधिक खुल कर बोली. सारांश यही था कि पति नौकरी छोड़ कर बैठ गए हैं. कहते हैं भारत वापस चलेंगे. उन का यहां मन नहीं लगता.

‘‘तो ठीक है. वहां जा कर शायद ठीक हो जाएं,’’ ऋचा ने कहा.

गीता की अपारदर्शी आंखों में अचानक ही डर उभर आया.

ऋचा सिहर गई, ‘‘नहीं. ऐसा न कहो. वहां मैं और अकेली पड़ जाऊंगी. इन के सब वहां हैं. इन का पूरा मन वहीं है और मेरा यहां.’’

तब पता चला कि गीता के 2 भाई हैं जो अब इंगलैंड में ही रहते हैं, पहले यहां थे. मातापिता उन के पास हैं. बहन कनाडा में है.

‘‘हमारी शादियां होने तक तो हम सब भारत में थे. फिर एकएक कर के इधर आते गए. मैं सब से छोटी हूं. मेरी शादी के बाद मातापिता भी भाइयों के पास आ गए.’’

गीता एक विचित्र परिस्थिति में थी. पति भारत जाना चाहते थे,वह रोकती थी. घर में क्लेश हो जाता. वे कहते कि अकेले जा कर आऊंगा तो भी गीता को मंजूर नहीं था क्योंकि उसे डर था कि मांबाप, भाईबहनों के बीच में से निकल कर वे नहीं आएंगे.

‘‘बच्चों की खातिर तो लौट आएंगे,’’ ऋचा ने समझाया.

‘‘बच्चों की खातिर? हुंह,’’ स्पष्ट था कि गीता को इस बात का भी भय था कि उन्हें बच्चों से भी लगाव नहीं है. ऋचा को अजीब लगा क्योंकि हर रविवार को बच्चों के साथ वे घंटों खेलते हैं, उन्हें प्यार से रखते हैं.

ऋचा कई बार सोचती, ‘आखिर कमी कहां रह गई है, वह तो सिर्फ गीता का दृष्टिकोण ही जान पाई है. उस के पति से बात नहीं हुई. वैसे गीता यह भी कहती है कि उस के पति बहुत योग्य व्यक्ति हैं और नामी कंप्यूटर वैज्ञानिक हैं. फिर यह सब क्या है?’

अब तो जब मिलो, गीता की वही शिकायत होती. पति ने फिलहाल अकेले भारत जाने की ठानी है. 3-4 महीने में वे चले जाएंगे. तत्पश्चात बच्चों की छुट्टियां होते ही वह जाएगी और फिर सब लौट आएंगे. पिछले 2 रविवारों को ऋचा फार्म पर गई नहीं थी. तीसरे रविवार गई तो गीता मिली. वही चिंतित चेहरा.

गीता के चेहरे पर भय की रेखाएं अब पूरी तरह अंकित थीं.

‘‘उन के बिना यहां…’’ गीता का वाक्य अभी अधूरा ही था कि ऋचा बोल पड़ी.

‘‘उन से इतना लगाव है तो लड़ती क्यों हो?’’

गीता चुप रही. फिर कुछ संभल कर बोली, ‘‘हमारा जीवन तो अस्तव्यस्त हो जाएगा न. बच्चों को स्कूल पहुंचाना, हर हफ्ते की ग्रौसरी शौपिंग, और भी तो गृहस्थी के झंझट होते हैं.’’

तभी गीता की परिचिता एक अमेरिकी महिला आ कर उस से कुछ कहने लगी. गीता का रंग उड़ गया. ऋचा ने उस की ओर देखा. गीता अंगरेजी में जवाब देने के प्रयास में हकला रही थी. ऋचा ने गीता की ओर से ध्यान हटा लिया और दूर एक पेड़ की ओर ध्यानमग्न हो देखने लगी. कुछ देर बाद अमेरिकन महिला चली गई. ऋचा को पता तब चला जब गीता ने उसे झकझोरा.

‘‘तुम ऋचा, दार्शनिक बनी पेड़ ताक रही हो. मैं इधर समस्याओं से घिरी हूं.’’

ऋचा ने उस की शिकायत सुनी- अनसुनी कर दी.

‘‘गीता, यह तुम्हारी अमेरिकी सहेली है. है न?’’

‘‘हां. नहीं. सच पूछो ऋचा, तो मैं कहां दोस्ती बढ़ाऊं? कैसे? अंगरेजी बोलना भी तो नहीं आता. मांबाप ने हिंदी स्कूलों में पढ़ाया.’’

‘‘ऐसा मत कहो,’’ ऋचा ने बीच में टोका, ‘‘अपनी भाषा के स्कूल में पढ़ना कोई गुनाह नहीं.’’

‘‘पर इस से मेरा हाल क्या हुआ, देख रही हो न?’’

‘‘यह स्कूल का दोष नहीं.’’

‘‘फिर?’’

‘‘दोष तुम्हारा है. अपने को समय व परिस्थिति के मुताबिक ढाल न सकना गुनाह है. बेबसी गुनाह है. दूसरे पर अवलंबित रहना गुनाह है. यही गुनाह औरत सदियों से करती चली आ रही है और पुरुषों को दोष देती चली आ रही है,’’ ऋचा तैश में बोलती चली गई. चेहरा तमतमाया हुआ था.

‘‘तुम कहना क्या चाहती हो, ऋचा?’’

‘‘बताती हूं. सामने पेड़ देख रही हो?’’

‘‘हां.’’

‘‘उन पेड़ों की टहनियों से ‘लेस’ की भांति नाजुक, हलके हरे रंग की बेल लटक रही है. है न?’’

‘‘हां. पर इन से मेरी समस्या का क्या ताल्लुक?’’

‘‘अमेरिका के दक्षिणी प्रांतों में ये बेलें प्रचुर मात्रा में मिलती हैं…’’

‘‘सुनो, ऋचा. इस वक्त मैं न कविता के मूड में हूं, न भूगोल सीखने के,’’ गीता लगभग चिढ़ गई थी.

ऋचा के चेहरे पर हलकी मुसकराहट उभर आई. फिर अपनी बात को जारी रखते हुए कहने लगी, ‘‘इन बेलों को ‘स्पेनिश मौस’ कहते हैं. इन की खासीयत यह है कि ये बेलें पेड़ से चिपक कर लटकती तो हैं पर उन पर अवलंबित नहीं हैं.’’

‘‘तो मैं क्या करूं इन बेलों का?’’

‘‘तुम्हें स्पेनिश मौस बनना है.’’

‘‘मुझे? स्पेनिश मौस?’’

‘‘हां, ‘अमर बेल’ नहीं, स्पेनिश मौस. ’’

‘‘पहेलियां न बुझाओ, ऋचा,’’ गीता का कंठ क्रोध और अपनी असहाय दशा से भर आया.

‘‘गीता, तुम्हारी समस्या की जड़ है तुम्हारी आश्रित रहने की प्रवृत्ति. पति पर निर्भर रहते हुए भी तुम्हें अपना अस्तित्व स्पेनिश मौस की भांति अलग रखना है. उन के साथ रहो, प्यार से रहो, पर उन्हें बैसाखी मत बनाओ. अपने पांव पर खड़ी हो.’’

‘‘कहना आसान है…’’ गीता कड़वाहट में कुछ कहने जा रही थी. पर ऋचा ने बात काट कर अपने ढंग से पूरी की, ‘‘और करना भी.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘पहला कदम लेने भर की देर है.’’

‘‘तो पहला कदम लेना कौन सिखाएगा?’’

‘‘तुम्हारा अपना आत्मबल, उसे जगाओ.’’

‘‘कैसे जगाऊं?’’

‘‘तुम्हें अंगरेजी बोलनी आती है, जिस की यहां आवश्यकता है, बोलो?’’

‘‘नहीं?’’

‘‘कार चलानी आती है?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘यहां आए कितने वर्ष हो गए?’’

‘‘8.’’

‘‘अब तक क्यों नहीं सीखी?’’

‘‘विश्वास नहीं है अपने पर.’’

‘‘बस, यही है हमारी आम औरत की समस्या और यहीं से शुरू करना है तुम्हें. मदद मैं करूंगी,’’ ऋचा ने कहा.

गीता के चेहरे पर कुछ भाव उभरे, कुछ विलीन हो गए.

‘स्पेनिश मौस,’ वह बुदबुदाई. दूर पेड़ों पर स्पेनिश मौस के झालरनुमा गुच्छे लटक रहे थे. अनायास गीता को लगा कि अब तक उस ने नहीं जाना था कि स्पेनिश मौस की अपनी खूबसूरती है.

‘‘यह सुंदर बेल है ऋचा, है न?’’ आंखों में झिलमिलाते सपनों के बीच से वह बोली.

‘‘हां, गीता. पर स्पेनिश मौस बनना और अधिक सुंदर होगा.’’

शापित: पूनम के सामने क्यों छलक पड़े रश्मि के आंसू?

“रश्मि, रश्मि, कहां हो तुम?  भई, यह करेले का मसाला तो कच्चा ही रह गया हैं,” फिर हंसते हुए भूपिंदर बोला, “सतीश जी, जिस  दिन कुक नहीं आती है, ऐसा ही कच्चापक्का खाना बनता है.”

ये सब बातें करते भूपिंदर यह भी भूल गया था कि आज रश्मि कोई नईनवेली दुलहन नहीं है बल्कि सास बनने वाली है और आज खाने की मेज पर जो मेहमान  बैठे हैं वे उस की होने वाली बहू के मातापिता हैं.

मम्मी के हाथों में करेले पकड़ाते हुए आदित्य बोला, “क्या जरूरत थी  सोनाक्षी के मम्मीपापा को घर पर बुलाने की. आप को पता है न, पिताजी कैसे हैं?”

रश्मि बोली, “आदित्य, मूड मत खराब कर, जा कर बाहर बैठ.”

जैसे ही आदित्य बाहर आया, भूपिंदर बोला, “भई, यह आदित्य तो अब तक मम्माबौय है, सोनाक्षी को बहुत मेहनत करनी पड़ेगी.”

आदित्य बिना लिहाज किए बोल पड़ा, “मैं ही नहीं पापा, सोनाक्षी भी मम्मागर्ल ही बनेगी.”

तभी रश्मि खिसियाते हुई डाइनिंग टेबल पर फिर से करेला की प्लेट  ले कर आ गई थी.

नारंगी और हरी तात कौटन की साड़ी में रश्मि बहुत ही सौम्य व सलीकेदार लग रही थी. खाना अच्छा ही बना हुआ था और डाइनिंग टेबल पर बहुत सलीके से लगा भी हुआ था. लेकिन भूपिंदर  फिर भी कभी नैपकिन के लिए तो कभी नमकदानी के लिए रश्मि को टोकता ही रहा था.

माहौल में इतना अधिक तनाव था कि अच्छेखासे खाने का जायका खराब हो गया था.

खाने के बाद भूपिंदर, सतीश को ले कर ड्राइंगरूम में चला गया, तो पूनम मीठे स्वर में रश्मि से बोली, “खाना बहुत अच्छा बना हुआ था और बहुत सलीके से लगा भी हुआ था. लगता है भाईसाहब कुछ ज्यादा ही परफेक्शनिस्ट हैं.”

रश्मि की बड़ीबड़ी शरबती आंखों में आंसू दरवाजे पर ही अटके हुए थे, उन्हें पीते हुए धीरे से बोली, “पूनम जी, पर  मेरा आदित्य अपने पापा से एकदम अलग है. आप की सोनाक्षी को कोई तकलीफ नहीं होने देंगे.”

पूनम अच्छे से समझ सकती थी कि रश्मि के मन पर क्या बीत रही होगी.

आदित्य और सोनाक्षी दोनों रोहिणी के जयपुर गोल्डन आई हौस्पिटल में डाक्टर हैं. दोनों एकदूसरे को पसंद करते हैं और जैसे कि आजकल होता हैं, परिवार ने उन की पसंद पर सहमति की मुहर लगा दी थी. आज विवाह की आगे के बातचीत के लिए पूनम और सतीश, आदित्य के घर खाने पर आए थे. भूपिंदर का यह रूप उन्हें  अंदर तक हिला गया था. आदित्य का गुस्सा भी उन से छिपा नहीं था.

रास्ते में पूनम से रहा न गया, इसलिए सतीश से बोली, “सबकुछ ठीक हैं, पर क्या तुम्हें लगता है कि आदित्य ठीक रहेगा अपनी सोनाक्षी के लिए? उस के पापा उस की मम्मी को कितना बेइज़्ज़त करते हैं. लड़का ये सब देख कर बड़ा हुआ है. ऐसे में मुझे डर है कि कहीं आदित्य भी सोनाक्षी के साथ ऐसा ही व्यवहार न करे.”

सतीश बोला, “देखो, हम सोनाक्षी को सब बता देंगे, उस की जिंदगी हैं, फ़ैसला भी उसी का होगा.”

उधर रश्मि को लग रहा था कि कही भूपिंदर के व्यवहार के कारण सोनाक्षी और आदित्य के विवाह में रुकावट न आ जाए.

आदित्य सोनाक्षी के मम्मीपापा के जाते ही भूपिंदर पर उबल पड़ा, “क्या जरूरत थी आप को सोनाक्षी के मम्मीपापा के सामने ऐसा व्यवहार करने की?”

भूपिंदर बोला, “घर मेरा है, मैं जैसे चाहूं, करूंगा. इतनी ही दिक्कत है, तो अलग रह सकते हो.”

आदित्य ने दरवाजे पर खटखट की. रश्मि मुसकराते हुए बोली, “अज्जू, अंदर आ जा, खटखट क्यों कर रहा है.”

आदित्य बोला, “मम्मी, पापा के यह व्यवहार और तुम्हारा चुपचाप सब सहन करना, मुझे अंदर तक आहत कर जाता है. आज मैं सोनाक्षी के मम्मीपापा के सामने आंख भी नहीं उठा पाया हूं. गुलाम बना कर रखा हुआ हैं उन्होंने हमें.”

रश्मि आदित्य के सिर पर हाथ फेरते हुए बोली, “अज्जू, शिखा, तेरी छोटी बहन, तो गोवा में मेडिकल की पढ़ाई कर रही है और तू, बेटा,  शादी के बाद अलग घर ले  लेना.”

आदित्य बोला, “मम्मी, और आप?  मैं क्या इतना स्वार्थी हूं कि आप को अकेला छोड़ कर चला जाऊंगा.”

रश्मि उदासी सी बोली, “अज्जू, मैं तो शापित हूं  इसे साथ के लिए बेटा, पर मैं बिलकुल नहीं चाहती कि तुम या सोनाक्षी ऐसे डर के साथ जिंदगी व्यतीत करो.”

आदित्य का हौस्पिटल जाने का समय हो गया था. आज उस की नाइट शिफ़्ट थी.

रश्मि आंखे बंद कर के सोने का प्रयास करने लगी. पर नींद थी कि आंखों से कोसों दूर. आदित्य की शादी की उस के मन में कितनी उमंगें थीं. लेकिन वह अच्छे से जानती थी, हर बार गहनेकपड़ों के लिए उसे भूपिंदर के आगे हाथ फैलाना पड़ेगा. भूपिंदर कितनी लानतमलामत भेजेगा और साथ  ही साथ, वह यह भी जोड़ेगा कि उस ने आदित्य की मेडिकल की पढ़ाई में 25 लाख रुपए खर्च किए हैं.

रश्मि का  कितना मन करता था कि वह अपनी पसंद से कपड़े ले. लेकिन भूपिंदर ही उस के लिए कपड़े ख़रीदता था क्योंकि भूपिंदर के हिसाब से रश्मि को तमीज़ ही नही हैं अच्छे कपड़े खरीदने की. रश्मि के वेतन की पाईपाई का हिसाब भूपिंदर ही रखता था.

जब कोई भी रश्मि के कपड़ों की तारीफ़ करता तो भूपिंदर छूटते ही बोलता, “मैं जो ख़रीदता हूं, वरना ये तो अजीब कपड़े ही खरीदती और पहनती है.”

रिश्तेदार और पड़ोसियों को लगता था कि भूपिंदर जैसा शाहखर्च कौन हो सकता हैं जो अपनी बीवी का वेतन उस के गहनेकपड़ों पर ही खर्च करता है.   आजकल के ज़माने में  ऐसे पतियों की कमी नहीं हैं जो अपनी पत्नियों के वेतन से घरखर्च चलाते हैं. रश्मि कैसे समझाए किसी को कि गहनेकपड़ों से अधिक महत्त्व सम्मान का होता है.

यह जरूर था  कि भूपिंदर अपने काम का पक्का था, इसलिए दिनदूनी  और रातचौगुनी तरक्की कर रहा था. तरक़्क़ी के साथसाथ उस का अहं भी सांप के फन की तरह फुम्फकारने लगा था. शादी के कुछ वर्षों बाद ही रश्मि के कानों में भूपिंदर के अफेयर की भनक लगने लगी थी. पर जब भी अलग होने की सोचती, तो अज्जू और शिखा का भविष्य दिखने लगता. कैसे पढ़ा पाएगी वह दोनों बच्चों को दिल्ली जैसे शहर की इस विकराल महंगाई में. नालायक ही सही, पर सिर पर बाप का साया तो रहेगा.

रश्मि के हथियार डालते ही  भूपिंदर उस पर  और हावी हो गया था. रातदिन वह रश्मि को कोंचता रहता था. पर अब उस हिमशिला पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था.

घर 3 कोणों  में बंट गया था- एक पाले मे थे रश्मि, अज्जू और दूसरे पाले में था भूपिंदर. शिखा आज के दौर की स्मार्ट लड़की थी, इसलिए वह किस भी पाले में नहीं थी. वह अपने हिसाब से पाले बदलती रहती थी. आदित्य बेहद ही संवेदनशील युवक था. रातदिन के तनाव का  प्रभाव आदित्य पर पड़ रहा है. 30 वर्ष की कम उम्र में ही आदित्य को हाइपरटेंशन रहने लगी थी.

आदित्य जैसे ही अस्पताल पहुंचा, सोनाक्षी वहीं खड़ी थी. सोनाक्षी धीमे स्वर में बोली, “आदित्य, कल डयूटी के बाद मुझे तुम से जरूरी बात करनी है.”

आदित्य को पता था कि सोनाक्षी क्या कहना चाहती है.

सुबह आदित्य और सोनाक्षी जब कैंटीन में आमनेसामने थे, तो सोनाक्षी बोली, “आदित्य, देखो, मुझे गलत मत समझना पर मैं ऐसे माहौल में एडजस्ट नहीं कर सकती. क्या हम विवाह के बाद अलग फ्लैट ले कर रह सकते हैं?”

आदित्य बोला, “सोना, मुझे मालूम है, तुम अपनी जगह सही हो  पर मैं अपनी मम्मी को अकेले उस  घर  में नही छोड़ सकता हूं”

सोनाक्षी बोली, “अगर तुम्हारी मम्मी हमारे साथ रहना चाहती हों, तो मुझे कोई प्रौब्लम नहीं हैं.”

जब आदित्य ने यह बात घर पर बताई तो भूपिंदर गुस्से से आगबबूला हो उठा था. गुस्से में बोला, “तुम्हारा तो यह ही होना था गोबरगणेश. जो लड़का मां का पल्लू पकड़ कर चलता है वह बीवी के इशारों पर ही नाचेगा.”

आदित्य बोला, “पापा, आप चिंता न करो. आप को मुझ से और मम्मी से बहुत प्रौब्लम है न, तो मैं मम्मी को भी अपने साथ ले कर जाऊंगा. ऐसा लगता है ,घर घर नहीं हैं बल्कि एक जेल हैं और हम सब कैदी हैं.”

भूपिंदर दहाड़ उठा, “हां, यह जेल है न, तो रिहाई की भी कीमत है. अपनी मम्मी को क्या ऐसे ही ले कर  चला जाएगा, वह मेरी पत्नी है. और सुन लड़के, तेरी पढ़ाई पर 25 लाख रुपए खर्च हुए हैं, पहले 25 लाख वापस दे देना और फिर अपनी मम्मी को रिहा कर ले जाना.”

आदित्य के विवाह की तिथि निश्चित हो गई थी और भूपिंदर न चाहते हुए भी जोरशोर से तैयारियों में जुटा  हुआ था.

जब नवयुगल हनीमून से वापस आ जाएंगे तो वे अलग फ्लैट में शिफ्ट हो जाएंगे. आदित्य किसी भी कीमत पर अपनी मम्मी को अकेले उस यातनागृह में नहीं छोड़ना चाहता था, इसलिए आदित्य ने किसी तरह से 20 लाख रुपयों का बंदोबस्त कर लिया था.

विवाह धूमधाम से संपन्न हो गया था. 14 दिनों बाद आदित्य और सोनाक्षी सिंगापुर से घूम कर लौट आ गए थे. आदित्य ने रश्मि को सूचित कर दिया था कि वह अपना सारा साजोसामान ले कर उन के पास आ जाए.

लेकिन, रश्मि का फ़ोन आया कि आदित्य रविवार को एक बार घर आ जाए. उस के बाद ही रश्मि आदित्य के पास रहने आ जाएगी. आदित्य को लग रहा था कि शायद मम्मी को निर्णय लेने में मुश्किल हो रही है या फिर पापा उन्हें ताने मार रहे होंगे.

जब आदित्य और सोनाक्षी घर पहुंचे तो देखा घर पर मरघट सी शांति छाई हुई थी. आदित्य ने देखा, रश्मि बहुत थकीथकी लग रही थी. आदित्य बोला, “मम्मी, कमाल करती हो, तुम आज भी पापा के कारण निर्णय नहीं ले पा रही हो? आप चिंता मत करो, मैं ने 20 लाख रुपयों का बंदोबस्त कर लिया है.”

रश्मि बोली, “बेटे, तेरे पापा को  5 दिन पहले लकवा मार गया था. रातदिन वे बिस्तर पर ही रहते हैं.  अब बता, उन्हें ऐसी स्थिति में छोड़ कर कैसे आ सकती हूं? और तुम लोगों से बात किये बिना मैं भूपिंदर को ले कर तुम्हारे घर कैसे आ सकती थी?”

इस से पहले आदित्य कुछ कहता, सोनाक्षी बोल उठी, “मम्मी, आप यहीं रहिए, हमारा फ़्लैट तो बहुत छोटा हैं. पापा की अच्छे से देखभाल  नहीं हो पाएगी.  हम एक के बजाय दो नर्स ड्यूटी पर लगा देंगे. फिर मम्मी, मैं घर पर भी हौस्पिटल जैसा माहौल नहीं चाहती हूं. आदित्य, तुम ये पैसे मम्मी को दे दो, पापा की अच्छी देखभाल हो जाएगी.”

आदित्य बोला, “मम्मी, नर्स का इंतजाम मैं कर दूंगा. आप चलो यहां से, बहुत कर लिया आप ने पापा के लिए.”

रश्मि बोली, “आदित्य बेटा, तू मेरी चिंता मत कर, पर मैं भूपिंदर को इस हाल में छोड़ कर नहीं जा सकती.”

आदित्य बोला, “मम्मी, कब तक  तुम पापा के कारण जिंदगी  से दूर रहोगी?”

रश्मि बोली, “बेटा, तू खुश रह, मैं तो इस साथ के लिए शापित हूं. पहले मानसिक यातना भोगती थी, अब अकेलापन भोगने के लिए शापित हूं.”

आदित्य बोला, “मम्मी, यह शापित जीवन आप ने खुद ही चुना है अपने लिए. सामने खुला आकाश है. पर, आप को इस पिंजरे में ही रहना पसंद है.”

यह कह कर आदित्य 20 लाख रुपए मेज पर रख कर तीर की तरह निकल गया.

हर्बल दवाएं बिना जानकारी न लें

हर्बल औषधियों से जुड़ा ज्ञान दुनिया की हर मानवजाति, संस्कृति और सभ्यता का हिस्सा रहा है. कई जड़ीबूटियों को तो सोने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण माना गया है. अदरक, सेमल लहसुन, अश्वगंधा, हलदी, लौंग, धनिया, आंवला, अमरूद और ऐसी हजारों जड़ीबूटियों के प्रभावों की प्रामाणिकता आधुनिक विज्ञान साबित कर चुका है.

कई जड़ीबूटियों को आधुनिक औषधि विज्ञान ने बाकायदा दवाओं के तौर पर आधुनिक अमलीजामा पहनाया भी है. सिनकोना नामक पेड़ से प्राप्त होने वाली छाल से क्वीनोन नामक दवा तैयार की गई और इसे मलेरिया के लिए रामबाण माना गया.

दुनिया के तमाम देश शोधों और उन के परिणामों से प्रोत्साहित हो कर कई हर्बल दवाओं के वैज्ञानिक प्रमाण खोजने के प्रयास कर रहे थे. आज डंडेलियान नामक पौधे से कैंसर रोग के इलाज की दवा खोजी जा रही है, तो कहीं किसी देश में सदाबहार और कनेर जैसे पौधों से त्वचा पर होने वाले संक्रमण के इलाज पर अध्ययन हो रहा है.

परंपरागत ज्ञान का वैज्ञानिक प्रमाणन जरूरी है ताकि हम यह हकीकत समझ पाएं कि किस जड़ीबूटी से कौन सा रोग वाकई में ठीक होता है और ऐसा कैसे संभव हो पाता है. लेकिन मैं जड़ीबूटियों में खास रसायनों को अलग कर के औषधियों को कृत्रिम रूप से तैयार करने का पक्षधर नहीं.

पौधों में होते हैं रसायन

औषधीय पौधों में सिर्फ एक नहीं, हजारों रसायन और उन के समूह पाए जाते हैं. और कौन जाने, कौन सा रसायन प्रभावी गुणों वाला होता है. इसलिए मार्कर कंपाउंड (किसी जड़ीबूटी में पाए जाने वाला खास रसायन) शोध पर कई जानकार सवालिया निशान खड़े करते हैं. जड़ीबूटियों में से महत्त्वपूर्ण रसायनों को अलग कर के उन्हें कृत्रिम रूप से तैयार करने की कोशिश असरकारक न होगी. इस बात को साबित करने के लिए एस्पिरिन से बेहतर उदाहरण क्या होगा.

एस्पिरिन टेबलेट्स में मार्कर कंपाउंड के नाम पर सौलिसिलिक एसिड होता है जिसे सब से पहले व्हाइट विल्लो ट्री नामक पेड़ से प्राप्त किया गया. सौलिसिलिक एसिड को कृत्रिम तौर पर तैयार किया गया और एस्पिरिन नामक औषधि बाजार में लाई गई. दर्दनिवारक गुणों के लिए मशहूर इस दवा के सेवन के बाद कई रोगियों को पेट में गड़बड़ी और कइयों को पेट में छालों की समस्याओं से जूझना पड़ा. जबकि व्हाइट विल्लो ट्री की छाल का काढ़ा कई हर्बल जानकार दर्दनिवारण के लिए सदियों से देते आएं हैं और रोगियों को कभी किसी तरह की शिकायत नहीं हुई. क्या नतीजा निकालेंगे आप?

दरअसल, छाल के काढ़े में वे रसायन भी हैं जो छालों की रोकथाम के लिए कारगर माने गए हैं और कई रसायन ऐसे भी हैं जो पेटदर्द और दस्त रोकने आदि के लिए महत्त्वपूर्ण हैं. सब से बड़ा सवाल दवाओं या जड़ीबूटियों की गुणवत्ता को ले कर बनता है. अधिकांश वैद्य, जानकार और कई फार्मा कंपनियां भी दवाओं को तैयार करने वाली जड़ीबूटियों (कच्चे माल) को बाजार से खरीदते हैं. ऐसे में कच्चे माल की गुणवत्ता पर सवाल उठना लाजिमी है.

दूसरी सब से बड़ी चिंता की

बात झोलाछाप और गैरप्रामाणिक जानकारियों का इंटरनैट या सोशल साइट्स व ढोंगी बाबाओं की ओर से संचारित होना है. आधीअधूरी जानकारी पा कर लोग खुद चिकित्सक बन जाते हैं और घर पर ही इलाज कर बैठने की सोच लेते हैं सिर्फ यह मान कर कि हर्बल दवाएं हैं, कोई दुष्प्रभाव या साइडइफैक्ट तो होगा नहीं.

हर्बल दवाओं से नुकसान

कई बार हम जानेअनजाने किसी डाक्टर को अपनी समस्याएं बताए बगैर मैडिकल स्टोर से दवाएं खरीद लाते हैं और मुफ्त में समस्याएं भी घर ले आते हैं. हर्बल लैक्सेटिव्स (विरेचक औषधि) बाजार में ओवर द काउंटर यानी ओटीसी के रूप में कहीं भी मिल जाती हैं. हम में से ज्यादातर लोग ऐसे हैं जिन्हें इन से जुड़े दुष्प्रभावों की जानकारी तक नहीं. ये विरेचक औषधियां न सिर्फ शरीर में इलैक्ट्रोलाइट संतुलन को बिगाड़ सकती हैं बल्कि कई तरह के विटामिंस और वसीय पदार्थों का विघटन भी कर देती हैं.

मूत्र संबंधित विकारों के भी दुष्प्रभावों की भी बात करनी जरूरी है जिन की वजह से विटामिन बी-1, बी-6, विटामिन सी, सीओक्यू 10 और शरीर के इलैक्ट्रोलाइट्स कम होने लगते हैं. शरीर में कैफीन की मात्रा ज्यादा होने से विटामिन ए, विटामिन बी कौंप्लैक्स, लौह तत्त्वों और पोटैशियम जैसे पोषण तत्त्वों में कमी आने लगती है.

अकसर हर्बल दवाओं को दुष्प्रभावहीन बताया जाता है और इसी कारण लोग बगैर सोचेसमझे इन दवाओं को अपना लेते हैं. वे इस बात को भूल जाते हैं कि इन की असंतुलित मात्रा या किसी प्रशिक्षित चिकित्सक की सलाह लिए बगैर इन का उपयोग गलत असर भी डाल सकता है.

वैज्ञानिक एल्विन लेविस के शोध के अनुसार, एलोवेरा के जैल की अधिक मात्रा, जिसे अकसर लोग बगैर जानकारी के तमाम रोगोपचार के लिए इस्तेमाल करते हैं, शरीर के लिए नुकसानदायक भी हो सकती है. इस के चलते पेटदर्द, पेचिस जैसी आम समस्याओं के अलावा हृदय से संबंधित कई समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है. पेड़पौधों में जो रसायन पाए जाते हैं, उन का कई बार सीधा सेवन घातक साबित होता है.

फ्लेवेनौइड नामक रसायन की अधिकता होने से मानव शरीर में कई दुष्परिणाम देखे जा सकते हैं. अमेरिकन जर्नल औफ मैडिसिंस में वैज्ञानिक अर्नस्ट के रिव्यू लेख की मानी जाए तो फ्लेवेनौइड एनीमिया जैसी समस्याओं के अलावा आप की किडनी को भी क्षतिग्रस्त कर सकते हैं.

जरूरी है चिकित्सकीय सलाह

हर्बल दवाएं किसी प्रैस्क्रिप्शन के बिना आसानी से बाजार में मिल जाती हैं लेकिन मेरी समझ से आप को हर्बल दवाओं के सेवन के वक्त चिकित्सकीय सलाह (मैडिकल गाइडैंस) लेना जरूरी है, क्योंकि अकसर हर्बल दवाओं की उपयोगिता के बारे में सभी लोग बात करते हैं लेकिन किन्हीं दूसरी दवाओं के साथ होने वाले रिऐक्शन के बारे में ज्यादा लोगों को समझ नहीं है. यही बात उन डाइटीशियंस को भी समझनी चाहिए जो चिकित्सा विज्ञान की समझ के बगैर खानपान में खासे परिवर्तन जरूर करा देते हैं लेकिन किसी खास तत्त्व की अधिकता या कमी के दुष्परिणामों की फिक्र नहीं करते.

शरीर में किसी पोषक तत्त्व की कमी है तो पोषक तत्त्व की पूर्ति के लिए औषधियों की तरफ दौड़ लगाने के बजाय तत्वों की कमी होने के कारणों को खोजा जाए और इन कारणों का प्राकृतिक रूप से निवारण किया

जाए. यदि अनियंत्रित खाद्यशैली, भागदौड़ और तनावग्रस्त जीवन में हम अपने शरीर को ढाल लेते हैं तो शरीर बीमारियों की चपेट में आता है.

हर्बल ज्ञान को सब से बड़ा नुकसान पहुंचाया

है इस के अंधाधुंध बाजारीकरण और झोलाछाप जानकारियों ने. कई जानकार जड़ीबूटियों के बारे में इतनी सारी बातें बोल जाते हैं कि ऐसा लगने लगता है कि मानो कुछ जड़ीबूटियां अमृत तो हैं. तथाकथित जानकार इस तरह की वनस्पतियों को हिमालय से ले कर सुदूर पूर्वी राज्यों के पहाड़ी इलाकों से लाने और फिर दवा बनाने का दावा करते हैं. दरअसल, हर वनस्पति की एक खासीयत होती है. हरेक वनस्पति असरदार है. इस बात को सही जानकार भी अच्छी तरह जानते हैं.

औषधियों का बाजार करोड़ों रुपयों का है किंतु प्राकृतिक रूप से शरीर स्वस्थ रखना लगभग मुफ्त है और इस मुफ्त इलाज के लिए किसी चिकित्सक की जरूरत भी नहीं, सिर्फ अपना जीवनयापन, खाद्यशैली, और रोजमर्रा की जिंदगी को सटीक कर लिया जाए तो शरीर खुद ही अपनी रक्षा कर सकता है. रोगों का उपचार बिलकुल संभव है, किंतु यह तभी होगा जब रोगों के कारणों को हम समझ पाएं और फिर कारणों के निवारणों पर अमल किया जाए.

पति का व्यवहार बहुत उदासीन हो चुका है, मैं क्या करूं?

सवाल

मैं 36 वर्षीया महिला हूं, मेरे पति 41 वर्ष के हैं. हम दोनों की 14 साल पहले अरेंज्ड मैरिज हुई थी. मैं उन से आज भी उतना ही प्रेम करती हूं जितना शादी के बाद करती थी, वे भी मुझे बहुत खुश रखते थे. हम साथ में घूमने जाते, पिक्चर देखते और ढेरों बातें किया करते. पर अब उन का व्यवहार बहुत उदासीन हो चुका है. हमारे 2 बच्चे हैं, मैं उन की देखभाल में दिन काट लेती हूं परंतु रात में मेरी इच्छा होती है कि मैं उन से अपने मन का हाल कहूं पर वे किसी तरह की रुचि नहीं दिखाते. कभीकभी तो मन होता है कि उन्हें तलाक दे कर कहीं दूर चली जाऊं, परंतु ऐसा करने की हिम्मत ही नहीं होती. बताएं मैं इस दुविधा से कैसे निकलूं.

जवाब

आप के कहे अनुसार आप की दुविधा की जड़ आप के पति की उदासीनता है. वे आप से बात नहीं करते, आप को समय नहीं देते आदि बातें आप के मन को छलनी कर रही हैं. परंतु क्या आप ने यह जानने का प्रयास किया कि आप के हमेशा चहकने वाले पति जीवन के इस दौर में उदासीन क्यों रहने लगे हैं. उन के  2 बच्चे हैं जिन की परवरिश, आप की इच्छाएं और घर का पूरा खर्च उन के सिर है. वे भी खुद को अकेला महसूस करते होंगे. इस उलझन में आप का उन्हें तलाक देने के बारे में सोचना पूर्णरूप से गलत है. उन्हें भी उन के मन की बात कहने दीजिए, न बताएं तो जबरदस्ती पूछिए. उन्हें थोड़ा रिझाने की कोशिश करें. बच्चों की देखरेख के साथसाथ मनोरंजन के लिए बाहर आइए-जाइए, किताबें पढि़ए किट्टी पार्टी जौइन कीजिए और रात को जब पति वापस आएं तो उन की दिनचर्र्या पूछिए. कोशिश कीजिए कि छुट्टी के दिन पूरा परिवार कहीं घूम आए. समय के साथ आप को थोड़ा तो समझौता करना होगा.

 

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem 

 

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