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राजनीति और व्यवसाय

देश के विकास और गुरु बनने के दावों के बीच एनडीए के एक पार्टनर तेलुगूदेशम पार्टी के सांसद का संसद में खुलेआम यह ऐलान कि वे अपना व्यवसाय और राजनीति दोनों एकसाथ नहीं चला सकते, हकीकत पेश करता है. सांसद ने शिकायत की है कि जिस तरह जांच एजेंसियों को ‘हथियार’ दिए गए हैं उसे राजनीतिक बदला लेना आज आसान हो गया है. सांसद महोदय को अपना पुश्तैनी व्यापार ज्यादा प्रिय है, इसलिए वे राजनीति का जोखिम नहीं लेना चाहते.

यह इसी व्यवसायी व राजनेता की मन की बात नहीं है, जनसेवाओं में लगे लगभग सभी लोगों की बात भी है. सरकार व्यवसायियों की बांह उन के राजनीतिक संबंधों के कारण कब मरोड़नी शुरू कर दे, यह पता नहीं. हमारे देश में हमेशा परंपरा रही है कि शक्तिशाली शासकों के आगे व्यापारी हमेशा मूंछें नीची कर के चलता है क्योंकि उसे मालूम है कि शासकों के हाथ बहुत लंबे होते हैं.

अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन पर अगर सभी बड़े घरानों के मालिक उपस्थित थे और अगर दूर बेरीकैडों के परे बैठने पर भी तालियां बजा रह थे तो इसलिए कि वे किसी भी तरह शासकों से बैर नहीं लेना चाहते. व्यापारियों ने हमेशा देशीविदेशी शासकों का साथ दिया है क्योंकि वे जानते हैं कि व्यापार चलाते हुए शासक के खिलाफ नहीं जा सकते.

व्यापार चलाने में जिस तरह की अनुमतियां आज सरकारी दफ्तरों से लेनी होती हैं वे, इस सांसद के अनुसार, जानलेवा सी हैं. 72 से भी ज्यादा अनुमतियों के बाद कोई काम शुरू किया जा सकता है और अगर व्यापारी विपक्षी दल का है तो उन अनुमतियों को कहीं भी अटकाया जा सकता है. जो आज सत्ता के साथ वाली पार्टी में है, कल विपक्ष में बैठने को मजबूर हो सकता है और उस के राजनीतिक कैरियर के साथसाथ उस का व्यावसायिक कैरियर भी दांव पर लग सकता है.

यह दुखद स्थिति है क्योंकि राजनीतिक दलों को जिंदा रखने और लोकतंत्र को बचाने में व्यवसायियों की मुख्य भूमिका होती है. वे ओपीनियन भी बनाते हैं और दलों को चुनावी लड़ाई में फंडरूपी सहयोग दे कर विपक्ष को जिंदा भी रखते हैं. विपक्ष के पास अगर धन देने वाले नहीं होंगे तो देश का लोकतंत्र एक संवैधानिक ढोल बन कर रह जाएगा. इलैक्टोरल बौंड्स का जो भी आंकड़ा सामने है उस से साफ है कि अभी भी सारा पैसा एक ही पार्टी को जा रहा है जिस के अवैतनिक वर्कर हर मंदिर और मंदिर से जुड़े व्यवसायों में भी लगे हैं जहां न ईडी, सीबीआई के हाथ पहुंचते हैं, न लोकल पुलिस के.

लोकतंत्र को असल में बचाना है तो व्यवसायियों को राजनीति में सुरक्षा मिलनी चाहिए, हालांकि, यह सिर्फ एक सपना सा ही है.

अमीरों के अमीर

दुनिया में अमीरी का हाल यह है कि आज विश्वभर के 5 सब से अमीरों के पास 869 बिलियन डौलर की संपत्ति है और हर रोज वे अगर 10 लाख डौलर भी खर्च कर डालें तो उन्हें 476 साल लगेंगे पूरा खजाना खाली करने में. ये 869 बिलियन डौलर होते कितने हैं, डौलरों में लिखें तो ये 869,000,000,000 होते हैं. रुपए में गिनना हो तो इस संख्या को 83 से गुणा कर दें.

ये अमीर क्यों हैं? इन्होंने पैसा लूटा नहीं है. इन्होंने सरकारों की तरह टैक्स भी नहीं लगाया जो बंदूक की नली के सहारे आम जनता से छीना जाता है. मोटेतौर पर देखा जाए तो इन्होंने वे प्रोडक्ट्स या सर्विसेज जनता को दीं जिन्हें जनता ने अपनी इच्छा से खरीदा और मुंहमांगे दाम दिए पर, कोई जबरदस्ती नहीं थी.

फिर इन अमीरों से जलन क्यों है? जलन इसलिए है कि यह ठीक है कि इन्होंने कुछ नई चीजें बनाईं, कुछ सेवाएं दीं, कुछ खोजें कीं पर क्या इन के बदले वे मनमाने दाम वसूलने का हक रखते हैं? उन्होंने असल में उस सामाजिक गठन का फायदा उठाया जो समाज ने अपने बचाव के लिए बनाया था, इन्होंने उन चीजों को बहका कर, बहला कर, फुसला कर बेचा और उन दामों पर बेचा, जिन पर बेचने का हक इन के पास नहीं था.

इन 5 में एलन मस्क और गौतम अडानी जैसे लोग शामिल हैं. एलन मस्क ने बहुत सी नई चीजें समाज को दीं पर गौतम अडानी ने केवल पैसा जमा करने के नए तरीके खोजे.

इन अमीरों ने बंदूक की नली का इस्तेमाल नहीं किया पर बंदूक की नली को पकड़ने वालों को इस्तेमाल किया. आज भारत में हर टैक्स औनलाइन हो गया है. एक तरह से यह सरल हो गया है पर क्या आप जानते हैं कि सरकार ने औनलाइन प्लेटफौर्मों को बनाने के लिए देश और दुनिया की कितनी इंटरनैट, सौफ्टवेयर और टैलीफोन कंपनियों को अरबोंखरबों दिए होंगे. आधार कार्ड के पीछे अरबों रुपए खर्च हुए और उन में से बहुत से रुपए 5 सब से अमीरों के हाथों में गए.

ये 5-10 अमीर आज सरकारों की नीतियों को ही नहीं, सरकारों को बदल सकते हैं. अमेरिका का फौक्स टीवी चैनल इन अमीरों के हाथ बिका है. डोनाल्ड ट्रंप इन का मोहरा हैं. भारत के सारे अमीर राम मंदिर के उद्घाटन में तो गए पर राम दरबार में नहीं. वे दरअसल राज दरबार में हाजिरी लगाने को गए. उन्होंने राम मंदिर बनवाया हो या नहीं पर उन्हें जरूर बनाया है जिन्होंने राम मंदिर बनवाया है.

यह हर देश में हुआ है. 5 अमीरों के साथ 500 और बेहद अमीर हैं जो दुनिया की आधी बचत पर बैठे हैं. वे ही सरकारों की नीतियां बनवाते हैं. वे ही लोगों को एक तरफ फालतू में खर्च करने को उकसाते हैं तो दूसरी ओर पास के या दूर के दुश्मन से लड़ने के लिए भड़काते हैं. क्यों? क्योंकि इसी से उन के पास पैसा बनता है. हर युद्ध इन अमीरों को और अमीर करता है जबकि लाखों को दानेदाने के लिए मुहताज करता है, विधवाएं बनाता है, अनाथ बनाता है.

दुनियाभर में अब संपत्ति पर टैक्स लगभग नहीं है पर ब्रैड पर हर जगह है. आम आयकर में भी अमीरों के लिए तरहतरह की छूटें हैं पर गरीबों को एक गज कपड़ा खरीदने पर भी टैक्स देना होता है. अमीरों का अरबों कर्ज माफ हो जाता है पर गरीबों का कर्ज तब तक माफ नहीं होता जब तक वे सड़क पर रहने न लगें.

पहले सिर्फ राजा अमीर होते थे. फिर धर्म के दुकानदार अमीर होने लगे. आज संपत्ति के रखवाले और टैक्नोलौजी के मालिक अमीर हो रहे हैं. धर्म और सरकार ने टैक्नोलौजी के साथ मिल कर 8 अरब गुलाम पैदा कर लिए हैं जिन के 5 सब से अमीर मालिकों के पास ये 876 बिलियन डौलर हैं.

बेटी हो तो ऐसी : भाग 1

35 वर्षीय विनायक अपनी पत्नी रंभा से तलाक लेने के बाद बिलकुल अकेला हो गया था. 5 साल पहले उस ने सरकारी अस्पताल में कार्यरत नर्स रंभा से प्रेमविवाह किया था, तभी से उस के अधिवक्ता पिता ने विनायक को अपनी चलअचल संपत्ति से बेदखल कर दिया था. साथ ही उस से पारिवारिक संबंध भी तोड़ लिया था. तब भी विनायक पितृसत्ता के आगे नतमस्तक नहीं हुआ. उस ने अपनी सच्ची लगन, कड़ी मेहनत और अपनी प्रतिभा के बल पर बैंक कंपीटिशन कंप्लीट किया और एक सरकारी बैंक में कर्मचारी के रूप में अपनी जगह पक्की कर ली. उस के बाद रंभा के साथ उस की जिंदगी की गाड़ी दौड़ने लगी थी.

नौकरी मिलने के बाद विनायक अपनी पत्नी रंभा पर कम और अपने कैरियर पर ज्यादा ध्यान देने लगा था. बावजूद दोनों रात में घर पर ही रहते और सुखमय दांपत्य जीवन का आनंद लेते थे. दोनों के बीच किसी तरह का गिलाशिकवा नहीं था. मजे में उन का हसीन सपना परवान चढ़ रहा था. लेकिन कब दोनों के मन में अमर्यादित शंका का बीज अंकुरित होने लगा पता ही न चला.

रंभा कुछ माह से इमरजैंसी वर्क का बहाना बना कर नाइट ड्यूटी में ही रहती थी. वह घर नहीं लौटती थी, जिस से विनायक की रातों की नींद हराम हो गई थी. जब विनायक को इस की सचाई मालूम हुई तो यकायक उस के आंखों के आगे अंधेरा छा गया. पत्नी की दगाबाजी पर वह क्या करे, उस को समझ नहीं आया.

सरकारी अस्पताल में रंभा की ऊपरी कमाई ज्यादा थी. बावजूद वह पैसा के लिए किसी भी हद तक गिर सकती थी. इस बात को ले कर अकसर दोनों में तकरार होने लगी थी. नाइट ड्यूटी जाने पर उसे भलाबुरा बोल देता. इस तरह धीरेधीरे दोनों के बीच दूरियां इतनी बढ़ गईं कि एक दिन तलाक तक की नौबत आ गई.

रंभा से तलाक लेने के बाद विनायक की स्थिति सांपछछुंदर सी हो गई. अब वह न घर का था न घाट का. उस के प्रेमविवाह के निर्णय पर घर वाले अलग खरीखोटी सुनाते थे तो इधर तलाकशुदा रंभा भी यह कह कर ताना मारती कि कोई परित्यक्ता युवती की कौन कहे, अब तो कोई विधवा भी घास नहीं डालेगी.

अब विनायक को महिलाओं से नफरत सी हो गई थी। किसी भी युवती में उसे रंभा का रंग, रूप और आचरण दिखाई पड़ता. वह उन से कटाकटा रहने लगा. अपने औफिस में भी उन से दूरियां बना कर रखता. जरूरत पड़ने पर वह मात्र औपचारिकताएं निभाता. रंभा द्वारा दिए गए आर्थिक, सामाजिक और मानसिक आघात से वह उबर नहीं सका था. जितनी बार उबरना चाहता रंभा की परछाइयां उस का पीछा करती रहतीं. अड़ोसपड़ोस के सामाजिक सरोकार से भी वह बिलकुल कट सा गया था. घर से औफिस जाना और वापसी के बाद अपने कमरे में बंद हो जाना, यही उस की नियति बन गई थी.

एक दिन विनायक की बुआ उस से मिलने आईं और कहा,”बिना बहू के तुम्हारा घर सूनासूना लगता है. मेरी सहेली की एक बेटी है, जो लाखों में एक है. तुम दोनों की जोड़ी खूब जमेगी, जो मांगोगे वह छप्पर फाड़ कर देगी. बोलो, पहले लड़की दिखा दूं या सहेली के घर चलेगा?”

“मैं ऐसे ही ठीक हूं. अब मुझे शादीविवाह के झमेले में नहीं पड़ना है। तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं है. तुम अपने काम से मतलब रखो.”

“अरे भतीजे, बिना बीवी के यह पहाड़ सी जिंदगी कैसे कटेगी? तेरा वंश कैसे चलेगा? इस पर भी तो सोचो।”

“कह दिया न कि शादी नहीं करनी है तो नहीं करनी है. सभी लड़कियां एक सी होती हैं, बिलकुल रंभा की तरह.”

“दूध का जला छाछ फूंक कर पीता है. तेरा सोचना बिलकुल सही है. लेकिन मेरे प्रस्ताव पर एक बार अवश्य विचार करना. अब चलते हैं,” इतना कह कर बुआ अपने घर चली गई.

आज उस के पास अपना फ्लैट और बैंक बैलेंस था. तलाक के 2 साल बाद उस के व्यवहार और आचरण में काफी बदलाव आया था. समाज के लोगों की नजरों में वह ईमानदार और विश्वासपात्र व्यक्ति था. बुआ के जाने के बाद भी शादी के कई प्रस्ताव आए. इसलिए कि विनायक नौकरीपेशा व्यक्ति था, लेकिन उस ने सभी प्रस्तावों को ठुकरा दिया.

गंभीर बीमारी का संकेत है फेशियल हेयर

महिलाओं में हलके और मुलायम फेशियल हेयर होना सामान्य बात हो सकती है, लेकिन जब बाल कड़े और मोटे होते हैं तो यह हारमोन असंतुलन का संकेत है, जिस के कारण कई जटिलताएं हो सकती हैं. इस समस्या को हिर्सुटिज्म के नाम से जाना जाता है.

महिलाओं में मध्य रेखा, ठोड़ी, स्तनों के बीच, जांघों के अंदरूनी भागों, पेट या पीठ पर बाल होना पुरुष हारमोन ऐंड्रोजन के अत्यधिक स्रावित होने का संकेत है, जो एड्रीनल्स द्वारा या फिर कुछ अंडाशय रोगों के कारण स्रावित होता है. इस प्रकार की स्थितियां अंडोत्सर्ग में रुकावट डाल कर प्रजनन क्षमता को कम कर देती हैं. पौलिसिस्टिक ओवरी सिंड्रोम (पीसीओएस) एक ऐसी ही स्थिति है, जो महिलाओं में बालों के अनचाहे विकास से संबंधित है. यह डायबिटीज व हृदयरोगों का प्रमुख खतरा भी है.

जार्जिया हैल्थ साइंसेस यूनिवर्सिटी में हुए शोध के अनुसार, पीसीओएस महिलाओं में हारमोन संबंधी गड़बडि़यों का एक प्रमुख कारण है और यह लगभग 10% महिलाओं को प्रभावित करता है.

हिर्सुटिज्म से पीडि़त 90% महिलाओं में पीसीओएस या इडियोपैथिक हिर्सुटिज्म की समस्या पाई गई है. अधिकतर मामलों में ऐस्ट्रोजन के स्राव में कमी और टेस्टोस्टेरौन के अत्यधिक उत्पादन के कारण यह किशोरावस्था के बाद धीरेधीरे विकसित होता है.

निम्न कारक ऐंड्रोजन को उच्च स्तर की ओर ले जाते हैं, जो हिर्सुटिज्म का कारण बनते हैं:

आनुवंशिक कारण: इस स्थिति का पारिवारिक इतिहास होने से खतरा अत्यधिक बढ़ जाता है. त्वचा की संवेदनशीलता एक और आनुवंशिक कारण है, जो टेस्टोस्टेरौन का स्तर कम होने पर भी कड़े और मोटे बालों के विकास का कारण बन जाता है.

पौलिसिस्टिक ओवरी सिंड्रोम: जो महिलाएं पीसीओएस से ग्रस्त होती हैं, उन के चेहरे पर बालों का अत्यधिक विकास होता है और यह प्रजनन स्वास्थ्य में कमी का सब से प्रमुख कारण हो सकता है. पीसीओएस के कारण अंडाशय में कई छोटीछोटी गांठें बन जाती हैं. पुरुष हारमोन के अत्यधिक उत्पादन के कारण अनियमित अंडोत्सर्ग, मासिकचक्र से संबंधित गड़बडि़यां और मोटापे की समस्या हो जाती है.

अंडाशय का ट्यूमर: कुछ मामलों में ऐंड्रोजन के कारण होने वाला अंडाशय का ट्यूमर, हिर्सुटिज्म का कारण बन जाता है, जिस के कारण ट्यूमर तेजी से विकसित होने लगता है. इस स्थिति के कारण महिलाओं में पुरुषों के समान गुण विकसित होने लगते हैं जैसे आवाज में भारीपन आना. इस के अलावा योनि में क्लाइटोरिस का आकार बढ़ जाना.

एड्रीनल से संबंधित गड़बडि़यां: एड्रीनल ग्रंथियां, जो किडनी के ठीक ऊपर होती हैं, ऐंड्रोजन का निर्माण भी करती हैं. इन ग्रंथियों के ठीक प्रकार से काम न करने से हिर्सुटिज्म की समस्या हो जाती है.

महिलाओं में चेहरे के बालों का विकास उन की प्रजननतंत्र से संबंधित जटिलताओं जैसे पीसीओएस, कंजेनिटल एड्रीनल हाइपरप्लेसिया (सीएएच) आदि का संकेत होता है, जो गर्भावस्था को रोकने के सब से प्रमुख रिस्क फैक्टर्स में से एक होता है.

ऐसे में डाक्टर संबंधित जटिलताओं को सुनिश्चित करने के लिए निम्न मूल्यांकन करेगा:

स्थिति का पारिवारिक इतिहास

डाक्टर यह जांचेगा कि यौवन किस उम्र में प्रारंभ हुआ, बालों के विकास की दर क्या है (अचानक है या धीरेधीरे). दूसरे लक्षण जैसे अनियमित मासिकचक्र, स्तनों में ऊतकों की कमी, सैक्स करने की प्रबल इच्छा होना, वजन बढ़ना और डायबिटीज का इतिहास. इस बात की भी जांच की जाती है कि पेट में कोई पिंड तो विकसित नहीं हो रहा है.

कई सीरम मार्कर टैस्ट भी किए जाते हैं जैसे-

टेस्टोस्टेरौन: अगर इस का स्तर सामान्य से थोड़ा बढ़ जाता है, तो यह पीसीओएस या सीएएच का संकेत है. अगर इस के स्तर में परिवर्तन सामान्य से बहुत अधिक होता है, तो यह ओवेरियन ट्यूमर का संकेत हो सकता है.

प्रोजेस्टेरौन: यह टैस्ट मासिकचक्र के प्रारंभिक चरण में किया जाता है, सीएएच के संकेत के रूप में.

हारमोंस का उच्च स्तर पीसीओएस का संकेत देता है. अगर प्रोलैक्टिन हारमोन का स्तर बढ़ा होता है, तो यह इस बात का संकेत है कि मरीज हाइपरप्रोलैक्टीमिया से पीडि़त है.

सीरम टीएसएच: थायराइड को स्टिम्युलेट करने वाले हारमोन का स्तर कम होने से हाइपरथायरोडिज्म की समस्या हो जाती है, जो महिलाओं में प्रजनन संबंधी समस्याओं का कारण बनती है.

पैल्विक अल्ट्रासाउंड: यह जांच ओवेरियन नियोप्लाज्मा या पौलिसिस्टिक ओवरीज का पता लगाने के लिए कीजाती है.

उपचार

मामूली हिर्सुटिज्म के अधिकतर मामलों में और कोई लक्षण दिखाई नहीं देते, इसलिए उपचार कराने की आवश्यकता नहीं होती है. हिर्सुटिज्म का उपचार बांझपन से संबंधित है. इस में प्रजनन स्वास्थ्य का उपचार करने को प्राथमिकता दी जाती है. इसीलिए उपचार उस समस्या पर केंद्रित होता है जो इस का कारण बनी है.

अगर कोई महिला गर्भधारण करना चाहती है, तो ऐंड्रोजन के स्तर को नियमित करने के लिए दवाएं दी जाती हैं, जिन का सेवन रोज करना होता है. ये टेस्टोस्टेरौन के स्तर को कम करने और प्रजनन क्षमता फिर से पहले जैसी करने में सहायता करती हैं.

– डा. सागरिका अग्रवाल, गाइनोकोलौजिस्ट, इंदिरा आईवीएफ हौस्पिटल, नई दिल्ली

मेरी पत्नी को लगता है, मेरा अफेयर चल रहा है, क्या करूं?

सवाल

मेरी उम्र 33 साल हैशादीशुदा हूं. मेरी मैरिड लाइफ अच्छीखासी चल रही थी लेकिन अचानक सब खराब हो गया. मेरी पत्नी को लगने लगा कि मेरा औफिस में अफेयर चल रहा है जबकि ऐसा कुछ नहीं था. मैं ने उस की गलतफहमी दूर करने की बहुत कोशिश की. वह नहीं मानी और मायके चली गई. मैं बहुत दुखी हूं. फोन करता हूं तो वह फोन नहीं उठाती. उस का शक दूर करने के लिए मैं ने जौब भी चेंज कर ली है. मैं अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता हूं. क्या करूं कि वह वापस आ जाए?

जवाब

आमतौर पर जब रिश्ते टूटते हैं तो संभालना बहुत मुश्किल हो जाता है. आप अपने रिश्ते को बनाना चाहते हैं, यह अच्छी बात है.

आप की पत्नी मायके चली गई क्योंकि उन्हें आप पर शक था पर अब आप ने उन का शक दूर करने के लिए जौब भी चेंज कर ली है, यह अच्छा किया. अब आप उन्हें पूरी तरह से यकीन दिलाएं कि आप का किसी के साथ कोई अफेयर नहीं था. आप की जिंदगी में सिर्फ वह थी और वही रहेगी.

उसे पूरी तरह से विश्वास में लें और वादा करें कि उन्हें आप की जो भी बात बुरी लगी है, वैसा दोबारा कभी नहीं होगा. आप उस के बिना नहीं रह सकते, इत्यादि बातों से अपने वादे पर खरे उतरने का भरोसा दिलाएं.

यदि आप की पार्टनर आप को माफ कर देती है तो आप को चाहिए कि आप अपने पूर्वाग्रह से बाहर आएं और अपने संबंध को जीवंत बनाने के लिए हर संभव प्रयास करें. रिश्ते को जोड़ने के लिए जरूरी है कि आप अपने साथी के साथ कहीं अकेले में समय बिताएं, जहां आप दोनों गलतफहमियों व गलतियों को भुला कर सिरे से रिश्ते की शुरुआत कर सकें.

टूटे हुए पंखों की उड़ान : क्या अपने सपने पूरे कर पाई अर्चना

गली में घुसते ही शोरगुल के बीच लड़ाईझगड़े और गालीगलौज की आवाजें अर्चना के कानों में पड़ीं. सड़ांध भरी नालियों के बीच एक संकरी गली से गुजर कर उस का घर आता था, जहां बरसात में मारे बदबू के चलना मुश्किल हो जाता था.

दुपट्टे से नाक ढकते हुए अर्चना ने घर में कदम रखा, तो वहां का नजारा ही दूसरा था. आंगन के बीचोंबीच उस की मां और पड़ोस वाली शीला एकदूसरे पर नाक फुलाए खड़ी थीं. यह रोज की बात थी, जब किसी न किसी बात पर दोनों का टकराव हो जाता था.

मकान मालिक ने किराए के लालच में कई सारे कोठरीनुमा कमरे बनवा रखे थे, मगर सुविधा के नाम पर बस एक छोटा सा गुसलखाना और लैट्रिन थी, जिसे सब किराएदार इस्तेमाल करते थे.

वहां रहने वाले किराएदार आएदिन किसी न किसी बात को ले कर जाहिलों की तरह लड़ते रहते थे. पड़ोसन शीला तो भद्दी गालियां देने और मारपीट करने से भी बाज नहीं आती थी.

गुस्से में हांफती, जबान से जहर उगलती प्रेमा घर में दाखिल हुई. पानी का बरतन बड़ी जोर से वहीं जमीन पर पटक कर उस ने सिगड़ी जला कर उस पर चाय का भगौना रख दिया.

‘‘अम्मां, तुम शीला चाची के मुंह क्यों लगती हो? क्या तुम्हें तमाशा करके मजा आता है? काम से थकहार कर आओ, तो रोज यही सब देखने को मिलता है. कहीं भी शांति नहीं है,’’ अर्चना गुस्से से बोली.

‘‘हांहां, तमाशा तो बस मैं ही करती हूं न. वह तो जैसे दूध की धुली है. सब जानती हूं… उस की बेटी तो पूरे महल्ले में बदनाम है. मक्कार औरत नल में पानी आते ही कब्जा जमा कर बैठ जाती है. उस पर मुझे भलाबुरा कह रही थी‘‘अब तू ही बता, मैं कैसे चुप रहूं?’’ चाय का कप अर्चना के सामने रख कर प्रेमा बोली.

‘‘अच्छा लाडो, यह सब छोड़. यह बता कि तू ने अपनी कंपनी में एडवांस पैसों की बात की?’’ यह कहते हुए प्रेमा ने बेटी के चेहरे की तरफ देखा भी नहीं था अब तक, जो दिनभर की कड़ी मेहनत से कुम्हलाया हुआ था.

‘‘अम्मां, सुपरवाइजर ने एडवांस पैसे देने से मना कर दिया है. मंदी चल रही है कंपनी में,’’ मुंह बिचकाते हुए अर्चना ने कहा, फिर दो पल रुक कर उस

ने कुछ सोचा और बोली, ‘‘जब हमारी हैसियत ही नहीं है तो क्या जरूरत है इतना दिखावा करने की. ननकू का मुंडन सीधेसादे तरीके से करा दो. यह जरूरी तो नहीं है कि सभी रिश्तेदारों को कपड़ेलत्ते बांटे जाएं.’’

‘‘यह क्या बोल रही है तू? एक बेटा है हमारा. तुम बहनों का एकलौता भाई. अरी, तुम 3 पैदा हुईं, तब जा कर वह पैदा हुआ… और रिश्तेदार क्या कहेंगे? सब का मान तो रखना ही पड़ेगा न.’’

‘‘रिश्तेदार…’’ अर्चना ने थूक गटका. एक फैक्टरी में काम करने वाला उस का बाप जब टीबी का मरीज हो कर चारपाई पर पड़ गया था, तो किसी ने आगे आ कर एक पैसे तक की मदद नहीं की. भूखे मरने की नौबत आ गई, तो 12वीं का इम्तिहान पास करते ही एक गारमैंट फैक्टरी में अर्चना ने अपने लिए काम ढूंढ़ लिया.

अर्चना के महल्ले की कुछ और भी लड़कियां वहां काम कर के अपने परिवार का सहारा बनी हुई थीं.

अर्चना की कमाई का ज्यादातर हिस्सा परिवार का पेट भरने में ही खर्च हो जाता था. घर की बड़ी बेटी होने का भार उस के कंधों को दबाए हुए था. वह तरस जाती थी अच्छा पहननेओढ़ने को. इतने बड़े परिवार का पेट पालने में ही उस की ज्यादातर इच्छाएं दम तोड़ देती थीं.

कोठरी की उमस में अर्चना का दम घुटने लगा, सिगड़ी के धुएं ने आंसू ला दिए. सिगड़ी के पास बैठी उस की मां खांसते हुए रोटियां सेंक रही थी.

‘‘अम्मां, कितनी बार कहा है गैस पर खाना पकाया करो… कितना धुआं है,’’ दुपट्टे से आंखमुंह पोंछती अर्चना ने पंखा तेज कर दिया.

‘‘और सिलैंडर के पैसे कहां से आएंगे? गैस के दाम आसमान छू रहे हैं. अरी, रुक जा. अभी धुआं कम हो जाएगा, कोयले जरा गीले हैं.’’

अर्चना उठ कर बाहर आ गई. कतार में बनी कोठरियों से लग कर सीढि़यां छत पर जाती थीं. कुछ देर ताजा हवा लेने के लिए वह छत पर टहलने लगी. हवा के झोंकों से तनमन की थकान दूर होने लगी.

टहलते हुए अर्चना की नजर अचानक छत के एक कोने पर चली गई. बीड़ी की महक से उसे उबकाई सी आने लगी. पड़ोस का छोटेलाल गंजी और तहमद घुटनों के ऊपर चढ़ाए अपनी कंचे जैसी गोलगोल आंखों से न जाने कब से उसे घूरे जा रहा था.

छोटेलाल कुछ महीने पहले ही उस मकान में किराएदार बन कर आया था. अर्चना को वह फूटी आंख नहीं सुहाता था. अर्चना और उस की छोटी बहनों को देखते ही वह यहांवहां अपना बदन खुजाने लगता था.

शुरू में अर्चना को समझ नहीं आया कि वह क्यों हर वक्त खुजाता रहता है, फिर जब वह उस की बदनीयती से वाकिफ हुई, तो उस ने अपनी बहनों को छोटेलाल से जरा बच कर रहने की हिदायत दे दी.

‘‘यहां क्या कर रही है तू इतने अंधेरे में? अम्मां ने मना किया है न इस समय छत पर जाने को. चल, नीचे खाना लग गया है,’’ छोटी बहन ज्योति सीढि़यों पर खड़ी उसे आवाज दे रही थी.

अर्चना फुरती से उतर कर कमरे में आ गई. गरम रोटी खिलाती उस की मां ने एक बार और चिरौरी की, ‘‘देख ले लाडो, एक बार और कोशिश कर के देख ले. अरे, थोड़े हाथपैर जोड़ने पड़ें, तो वह भी कर ले. यह काम हो जाए बस, फिर तुझे तंग न करूंगी.’’

अर्चना ने कमरे में टैलीविजन देखती ज्योति की तरफ देखा. वह मस्त हो कर टीवी देखने में मगन थी. ज्योति उस से उम्र में कुल 2 साल ही छोटी थी. मगर अपनी जवानी के उठान और लंबे कद से वह अर्चना की बड़ी बहन लगती थी.

9वीं जमात पास ज्योति एक साड़ी के शोरूम में सेल्सगर्ल का काम करती थी. जहां अर्चना की जान को घरभर के खर्च की फिक्र थी, वहीं ज्योति छोटी होने का पूरा फायदा उठाती थी.

‘‘अम्मां, ज्योति भी तो अब कमाती है. तुम उसे कुछ क्यों नहीं कहती?’’

‘‘अरी, अभी तो उस की नौकरी लगी है, कहां से ला कर देगी बेचारी?’’ मां की इस बात पर अर्चना चुप हो गई.

‘‘ठीक है, मैं फिर से एक बार बात करूंगी, मगर कान खोल कर सुन लो अम्मां, यह आखिरी बार होगा, जब तुम्हारे इन फुजूल के रिवाजों के लिए मैं अपनी मेहनत की कमाई खर्च करूंगी.’’

‘‘हांहां, ठीक है. अपनी कमाई की धौंस मत जमा. चार पैसे क्या कमाने लगी, इतना रोब दिखा रही है. अरे, कोई एहसान नहीं कर रही है हम पर,’’ गुस्से में प्रेमा का पारा फिर से चढ़ने लगा.

एक कड़वाहट भरी नजर अपनी मां पर डाल कर अर्चना ने सारे जूठे बरतन मांजने के लिए समेटे.

बरतन साफ कर अर्चना ने अपना बिस्तर लगाया और सोने की कोशिश करने लगी, उसे सुबह जल्दी उठना था, एक और जद्दोजेहद भरे दिन के लिए. वह कमर कस के तैयार थी. जब तक हाथपैर चलते रहेंगे, वह भी चलती रहेगी. उसे इस बात का संतोष हुआ कि कम से कम वह किसी के सामने हाथ तो नहीं फैलाती.

अर्चना के होंठों पर एक संतुष्टि भरी फीकी मुसकान आ गई और उस ने आंखें मूंद लीं.

कैसी है सीमा

पति और मौसेरी सास ही नहीं, सभी ससुराल वालों के प्रति सीमा का व्यवहार अत्यंत सद्भावपूर्ण था, वह तनमनधन से उन्हें समर्पित थी फिर भी वह उन की प्रशंसा का पात्र नहीं बन सकी.

‘‘आज जरा चेक पर दस्तखत कर देना,’’ प्रभात ने शहद घुली आवाज में कहा.

सीमा ने रोटी बेलतेबेलते पलट कर देखा, चेक पर दस्तखत करवाते समय प्रभात कितने बदल जाते हैं, ‘‘आप की तनख्वाह खत्म हो गई?’’ वह बोली.

‘‘गांव से पिताजी का पत्र आया था. वहां 400 रुपए भेजने पड़े. फिर लीला मौसी भी आई हुई हैं. घर में मेहमान हों तो खर्च बढ़ेगा ही न?’’

सीमा चुप रह गई.

‘‘पैसा नहीं देना है तो मत दो. किसी से उधार ले कर काम चला लूंगा. जब भी पैसों की जरूरत होती है, तुम इसी तरह अकड़ दिखाती हो.’’

‘‘अकड़ दिखाने की बात नहीं है. प्रश्न यह है कि रुपया देने वाली की कुछ कद्र तो हो.’’

‘‘मैं बीवी का गुलाम बन कर नहीं रह सकता, समझीं.’’

बीवी के गुलाम होने वाली सदियों पुरानी उक्ति पुरुष को आज भी याद है. किंतु स्त्रीधन का उपयोग न करने की गौरवशाली परंपरा को वह कैसे भूल गया?

बहस और कटु हो जाए, इस के पहले ही सीमा ने चेक पर हस्ताक्षर कर दिए.

शाम को प्रभात दफ्तर से लौटे तो लीला मौसी को 100 का नोट दे कर बोले, ‘‘मौसी, तुम पड़ोस वाली चाची के साथ जा कर आंखों की जांच करवा आना.’’

‘‘अरे, रहने दे भैया, मैं तो यों ही कह रही थी. अभी ऐसी जल्दी नहीं है. रायपुर जा कर जांच करा लूंगी.’’

‘‘नहीं मौसी, आंखों की बात है. जल्दी दिखा देना ही ठीक है.’’

मौसी मन ही मन गद्गद हो गईं.

प्रभात मौसी का बहुत खयाल रखते हैं. मौसी का ही क्यों, रिश्ते की बहनों, बूआओं, चाचाताउओं सभी का. कोई रिश्तेदार आ जाए तो प्रभात एकदम प्रसन्न हो उठते हैं. उस समय वह इतने उदार हो जाते हैं कि खर्च करते समय आगापीछा नहीं सोचते. मेहमानों की तीमारदारी के लिए ऐसे आकुलव्याकुल हो उठते हैं कि उन के आदेशों की धमक से सीमा का सिर घूमने लगता है.

‘‘सीमा, आज क्या सब्जी बनी?है?’’ प्रभात पूछ रहे थे.

‘‘बैगन की.’’

‘‘बैगन की. मौसी की आंखों में तकलीफ है. बैगन की सब्जी खाने से तकलीफ बढ़ेगी नहीं? उन के लिए परवल की सब्जी बना लो.’’

‘‘नहीं. मैं बैगन की सब्जी खा लूंगी, बेटा. बहू को एक और सब्जी बनाने में कष्ट होगा. कालिज से थक कर आई है.’’

‘‘इस उम्र में थकना क्या है, मौसी? वह तो इन के घर वालों ने काम की आदत नहीं डाली, इसी से थक जाती हैं.’’

‘‘हां, बेटा. आजकल लड़कियों को घरगृहस्थी संभालने की आदत ही नहीं रहती. हम लोग घर के सब काम कर के 10 किलो चना दल कर फेंक देते थे,’’ मौसी बोलीं.

बस, इसी बात से सीमा चिढ़ जाती है. उस के मायके वालों ने काम की आदत नहीं डाली तो क्या प्रभात ने उस के लिए नौकरों की फौज खड़ी कर दी? एक बरतनकपड़े साफ करने वाली के अलावा दूसरा कोई नौकर तो देखा ही नहीं इस घर में.

और लीला मौसी के जमाने में घरगृहस्थी ही तो संभालती थीं लड़कियां. न पढ़ाईलिखाई में सिर खपाना था और न नौकरी के पीछे मारेमारे घूमना था.

सीमा सोचने लगी, ‘लीला मौसी तो खैर अशिक्षित महिला हैं, परंतु प्रभात की समझ में यह बात क्यों नहीं आती?’

अभी पिछले सप्ताह भी ऐसा ही हुआ था. सीमा ने करेले की सब्जी बनाई थी. प्रभात ने देखा तो बोले, ‘‘करेले बनाए हैं? क्या मौसी को दुबला करने का विचार है? उन के लिए कुछ और बना लो.’’

सीमा एकदम हतप्रभ रह गई. मौसी हंसीं, ‘‘नहीं… नहीं, कुछ मत बनाओ, बहू. बस, दाल को तड़का दे दो. तब तक मैं टमाटर की चटनी पीस लेती हूं.’’

‘‘मौसी, बहू के रहते तुम्हें काम करने की क्या जरूरत है? आओ, उस कमरे में बैठें,’’ प्रभात बोले.

सीमा अकेली रसोई में खटती रही. उधर साथ वाले कमरे में मौसी प्रभात को झूठेसच्चे किस्से बताती रहीं, ‘‘तुम्हारे बड़े नानाजी खेत में पहुंचे तो देखा, सामने गांव के धोबी का भूत खड़ा है…’’

मौसी खूब अंधविश्वासी हैं. मनगढ़ंत किस्से खूब बताती हैं. भूतप्रेतों के, प्रभात के बड़े नाना, मझले नाना और छोटे नाना के, दूध सी सफेद छोटी नानी के, प्रभात की ननिहाल के जमींदार महेंद्रप्रताप सिंह और रूपा डाकू के भी. इन किस्सों के साथसाथ मौसी लोगों की मेहमाननवाजी और बढि़या भोजन को भी खूब याद करतीं. उन की व्यंजन चर्चा सुन कर श्रोताओं के मुंह में भी पानी भर आता.

मौसी मूंग के लड्डू, खस्ता, कचौरी, मेवे की गुझिया और खोए की पूरियों को याद किया करतीं.

प्रभात उन की हर फरमाइश पूरी करवाते. सीमा को कालिज जाने तक रसोई में जुटे रहना पड़ता. थकान के कारण खाना भी न खाया जाता. उस दिन भी ऐसा ही हुआ था. कालिज से लौट कर वह कुछ खाना ही चाहती थी कि प्रभात के मित्र आ गए. उस ने किसी तरह उन्हें चायनाश्ता करवाया. दूध का बरतन उठा कर अलमारी में रखने लगी तो सहसा चक्कर खा कर गिर पड़ी. सारे कमरे में दूध ही दूध फैल गया.

मौसी और प्रभात दौड़े आए. अपने निष्प्राण से शरीर को किसी तरह खींचती हुई सीमा पलंग पर जा लेटी. आंखें बंद कर के वह न जाने कितनी देर तक लेटी रही.

अचानक प्रभात ने धीरे से उसे उठाते हुए कहा, ‘‘सुनो, अब उठ कर जरा रसोई में देख लो. तब से मौसी ही लगी हुई हैं.’’

शरीर में उठने की शक्ति ही नहीं थी. ‘हूं’ कह कर सीमा ने दूसरी ओर करवट ले ली.

‘‘तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है, यह मैं मानता हूं परंतु अपने घर का काम कोई और करे यह तो शोभा नहीं देता,’’ प्रभात धीरे से बोले.

सीमा का मन हुआ चीख कर कह दे, ‘मौसी के घर में बहूबेटी बीमार होती हैं, तब क्या वह हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती हैं? एक समय भोजन बना भी लेंगी तो ऐसी क्या प्रलय हो जाएगी?’ लेकिन कहा कुछ नहीं. आवाज कहीं गले में ही फंस कर रह गई. आंखों से आंसू बह निकले. उठ कर बचा हुआ काम निबटाया.

मौसी प्रभात की प्रशंसा करते नहीं थकतीं. उस दिन किसी से कह रही थीं, ‘‘हमारे परिवार में प्रभात हीरा है. सब के सुखदुख में साथ देता है. रुपएपैसे की परवाह नहीं करता. ऐसा आदरसम्मान करता है कि पूछो मत. बहू बड़े घर की लड़की?है, पर प्रभात का ऐसा शासन?है कि मजाल है बहू जरा भी गड़बड़ कर जाए.’’

यह प्रशंसा वह पहली बार नहीं सुन रही थी. ऐसी प्रशंसा प्रभात के परिवार के हर छोटेबड़े के मुख पर रहती है. ससुराल वालों को इतना आतिथ्यसत्कार तथा सेवा करने और बैंक के चेक फाड़फाड़ कर देने के बाद भी वह प्रभात के इस सुयश की भागीदार नहीं बन सकी. या यों कहा जाए कि प्रभात ने इस में उसे भागीदार बनाया ही नहीं बल्कि अपने लोगों के सामने उसे बौना बनाने में ही वह गर्व महसूस करते रहे. उस  की कमियों और गलतियों को वह बढ़ाचढ़ा कर सुनाया करते और सारा परिवार रस ले ले कर सुना करता.

इस संबंध में सीमा को अपनी देवरानी मंगला से ईर्ष्या होती है. देवर सुनील उस के सम्मान को बढ़ाने का एक भी अवसर हाथ से नहीं जाने देते. हैदराबाद से वह साल में एक बार घर आते हैं. छोटेबड़े सभी के लिए कुछ न कुछ लाने का उन का नियम है, लेकिन लेनदेन का दायित्व उन्होंने मंगला को ही सौंप रखा है.

जब सारा परिवार मिल कर बैठता?है तब सुनील पत्नी को गौरवान्वित करते हुए कहते हैं, ‘‘मंगला, निकालो भई, सब चीजें. दिखाओ सब को, क्याक्या लाई हो तुम उन के लिए,’’ सब की नजरें मंगला पर टिक जाती?हैं. वह कितनी ऊंची हो जाती है सब की दृष्टि में.

मंगला की अनुपस्थिति में जब परिवार के लोग मिल बैठते हैं तो उस के लाए उपहारों की चर्चा होती?है. उस की दरियादिली की प्रशंसा होती है. परंतु सीमा की मेहनत की कमाई से भेजे गए मनीआर्डरों का कभी जिक्र नहीं होता. उस का सारा श्रेय प्रभात को जाता है. कभी बात चलती?है तो अम्मां उसे सुना कर साफ कह देती हैं, ‘‘सीमा की कमाई से हमें क्या मतलब? प्रभात घर का बड़ा बेटा है, उस की कमाई पर तो हमारा पूरा हक है.’’

कभीकभी सीमा सोचती है, ‘नेकी करते हुए भी किसी के हिस्से में यश और किसी के हिस्से में अपयश क्यों आता है?’ वैसे इस विषय में ज्यादा सोच कर वह अपना मन खराब नहीं करती. फिर भी उस का स्वास्थ्य ठीक नहीं रह पाता. पिछले दिनों डाक्टर ने बताया था, ‘‘पैर भारी हैं. थोड़ा आराम करना चाहिए.’’

इधर मौसी कहती थीं, ‘‘एक रोटी बनाने का ही तो काम है घर में. न चक्की पीसनी है, न कुएं से पानी खींच कर लाना है. खूब मेहनत करो और डट कर खाओ. तभी तो सेहत बनेगी.’’

और एक दिन सेहत बनाने के चक्कर में लड्डू बांधतेबांधते कालिज जाने का समय हो गया था. सीमा जल्दीजल्दी सीढि़यां उतरने लगी तो अचानक पैर फिसल गया. 3-4 सीढि़यां लांघती हुई वह नीचे जा गिरी. चोट तो उसे विशेष नहीं आई, पर पेट में दर्द होने लगा था.

‘‘इन के लिए बिस्तर पर आराम करना बहुत जरूरी है,’’ डाक्टर ने प्रभात से कहा था.

प्रभात ने लापरवाही के लिए सीमा को जी भर कर कोसा, किंतु इस परिस्थिति में डाक्टर की सलाह मानना आवश्यक हो गया.

झाड़ूपोंछा तो महरी करने लगी पर भोजन बनाने का भार मौसी पर आ पड़ा. वह नाश्ता और खाना बनाने में परेशान हो जातीं. अब वह बिना मसाले की सादी सब्जी से काम चला लेतीं. कहतीं, ‘‘अब उम्र हो गई. काम करने की पहले जैसी ताकत थोड़े ही रह गई है.’’

सीमा का मन होता, पूछे, मौसी, सिर्फ खाना ही तो बनाना?है. और खाना बनाना भी कोई काम है? तुम तो कहती थीं, दालचावल और सब्जीरोटी तो कैदियों का खाना है. तुम ऐसा खाना क्यों बना रही हो, मौसी?

किसी तरह सप्ताह बीता था कि मौसी का मन उखड़ने लगा. एक दिन प्रभात से बोलीं, ‘‘बेटा, तुम्हारे पास बहुत दिन रह ली. सुरेखा रोज सपने में दिखाई देती है. जाने क्या बात है. बहू जैसी ही उस की भी हालत है.’’

प्रभात सन्न रह गए, ‘‘मौसी, ऐसी कोई बात होती तो सुरेखा का पत्र जरूर आता. तुम चली जाओगी तो बड़ी मुसीबत होगी. अच्छा होता जो कुछ दिन और रुकजातीं.’’

पर मौसी नहीं मानीं. वह बेटी को याद कर के रोने लगीं. प्रभात निरुपाय हो गए. उन्होंने उसी दिन गांव पत्र लिखा.

सुशीला जीजी पिछले साल 2 माह रह कर गई थीं. उन्हें भी एक पत्र विस्तार से लिखा. कई दिनों बाद गांव से पत्र आया कि 15 दिनों बाद अम्मां स्वयं आएंगी. पर 15 दिनों के लिए दूसरी क्या व्यवस्था हो सकेगी?

प्रभात को याद आया कि मंगला की बीमारी का समाचार मिलते ही गांव के लोग किस तरह हैदराबाद तक दौड़े चले जाते हैं. फिर सीमा के लिए ऐसा क्यों? शायद इस का कारण वह स्वयं ही है. जिस तरह सुनील ने अपने परिजनों के हृदय में मंगला के लिए स्नेह और सम्मान के बीज बोए थे, वैसा सीमा के लिए कभी किया था उस ने?

15 दिन बाद अम्मां गांव से आ गईं. उन के आते ही प्रभात निश्चिंत हो गए. उन्हें विश्वास था कि अम्मां अब सब संभाल लेंगी. मार्च का महीना?था. वह अपने दफ्तर के कार्यों में व्यस्त हो गए. सुबह घर से जल्द निकलते और रात को देर से घर लौटते.

पिछले वर्ष जब मंगला को आपरेशन से बच्चा हुआ था, उस समय अम्मां हैदराबाद में ही थीं. उन्होंने उस की खूब सेवा की थी. उस की सेवा का औचित्य उन की समझ में आता था, लेकिन सीमा को क्या हुआ, यह उन की समझ में ही न आता. वह दिनभर काम करें और बहू आराम करे, यह उन के लिए असहाय था.

प्रभात के सामने तो अम्मांजी चुपचाप काम किए जातीं, परंतु उन के जाते ही व्यंग्य बाण उन के तरकस में कसमसाने लगते. कभी वह इधरउधर निकल जातीं.

महल्ले की स्त्रियां मजा लेने के लिए उन्हें छेड़तीं, ‘‘अम्मां, हो गया काम?’’

‘‘हां भई, काम तो करना ही है. पुराने जमाने में बहुएं सास की सेवा करती थीं, आज के जमाने में सास को बहुओं की सेवा करनी पड़ती?है.’’

सीमा सुनती तो संकोच से गड़ जाती. किस मजबूरी में वह उन की सेवा ग्रहण कर रही थी, इसे तो वही जानती थी.

उसी समय प्रभात को दफ्तर के काम से सूरत जाना पड़ा. उन के जाने की बात सुन कर सीमा विकल हो उठी थी. जाने के 2 दिन पहले उस ने प्रभात से कहा भी, ‘‘अम्मां से कार्य करवाना मुझे अच्छा नहीं लगता. उन की यहां रहने की इच्छा भी नहीं है. उन्हें जाने दीजिए. यहां जैसा होगा, देखा जाएगा.’’

‘‘परिवार से संबंध बनाना तुम जानती ही नहीं हो,’’ प्रभात ने उपेक्षा से कहा था.

प्रभात के जाते ही अम्मां मुक्त हो गई थीं. वह कभी मंदिर निकल जातीं, कभी अड़ोसपड़ोस में जा बैठतीं. सीमा को यह सब अच्छा ही लगता. उन की उपस्थिति में जाने क्यों उस का दम घुटता था.

उस दिन अम्मां सामने के घर में बैठी बतिया रही थीं. सीमा ने टंकी में से आधी बालटी पानी निकाला और उठाने ही जा रही थी कि देखा, अम्मां सामने खड़ी हैं. उसे याद आया अम्मां पीछे वाली पड़ोसिन से कह रही थीं, ‘‘प्रभात पेट में था, तब छोटी ननद की शादी पड़ी. हमें बड़ेबड़े बरतन उठाने पड़े,  पर कहीं कुछ नहीं हुआ. हमारी बहू तो 2-2 लोटा पानी ले कर बालटी भरती है, तब नहाती?है.’’

सीमा ने झेंप कर बालटी भरी और उठा कर स्नानघर तक पहुंची ही थी कि दर्द के कारण बैठ जाना पड़ा. जिस का भय था, वही हो गया. डाक्टर निरुपाय थे. गर्भपात कराना जरूरी हो गया.

अम्मां रोरो कर सब से कह रही थीं, ‘‘हम इतना काम करते थे तो भला क्या इन्हें बालटी भर पानी नहीं दे सकते थे. हमारे रहने का क्या फायदा हुआ?’’

उसी दिन शाम को प्रभात घर लौटे. अस्पताल पहुंचे तो डाक्टर गर्भपात कर के बाहर निकल रही थीं. उन्होंने दुख व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘बच्चा निकालना जरूरी हो गया था. लड़का था.’’

प्रभात हतबुद्धि से डाक्टर को देखते रह गए. फिर अचकचा कर पूछा, ‘‘सीमा कैसी है?’’

अपनी ताकत को पहचाने ‘ट्रायल कोर्ट’

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अंतर्राष्ट्रीय निशानेबाज वर्तिका सिंह की केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के खिलाफ मानहानि की शिकायत खारिज करने के एमपीएमएलए अदालत के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका खारिज कर दी. हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच ने कहा कि पत्रकारों के सवालों का जवाब देते हुए अगर याचिकाकर्ता को कांग्रेस पार्टी या गांधी परिवार से जुड़ा बताया गया तो यह उन की मानहानि नहीं है. वर्तिका सिंह ने ईरानी पर मानहानि का आरोप लगाते हुए सुल्तानपुर एमपीएमएलए अदालत में मामला दायर किया था. 21 अक्टूबर, 2022 को विशेश अदालत ने मामले को खारिज कर दिया.

वर्तिका सिंह का आरोप था कि जब पत्रकारों ने ईरानी से याचिकाकर्ता द्वारा उन के निजी सचिव के खिलाफ लगाए गए आरोपों के बारे में पूछा तो स्मृति ईरानी ने याचिकाकर्ता को कांग्रेस का ‘मोहरा’ बताया और कहा कि उन का गांधी परिवार से सीधा संबंध है. पत्रकारों के साथ ईरानी की पूरी बातचीत का हवाला देते हुए उच्च न्यायालय ने कहा कि संबंधित बयान देने से पहले स्मृति ईरानी ने अन्य मुद्दों पर बात की और इस दौरान उन्होंने याचिकाकर्ता का नाम भी नहीं लिया.

अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता के बारे में पूछे जाने पर स्मृति ईरानी ने कहा था कि याचिकाकर्ता का कांग्रेस से संबंध था और उस का आपराधिक इतिहास भी था. कोर्ट ने पाया कि याचिकाकर्ता के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं. पीठ ने कहा कि अगर अदालत स्मृति ईरानी के बयानों पर गौर करे तो वे एक राजनीतिक दल की आलोचना कर रही थीं और उन का याचिकाकर्ता को बदनाम करने का कोई इरादा नहीं था. इसलिए स्मृति ईरानी के खिलाफ मुकदमा नहीं बनता है. कोर्ट ने वर्तिका सिंह की याचिका को खारिज कर दिया.

वहीं एक और मानहनि का मामला देखें तो वह एकदम उलट है. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने एक जनसभा में ‘मोदी सरनेम’ को ले कर टिप्पणी की. वह बात किसी व्यक्ति के खिलाफ पर्सनल नहीं थी. इस के बाद भी उन को ‘ट्रायल कोर्ट’ ने सजा सुना दी. सजा भी इतनी दी जिस से उन की लोकसभा सदस्यता चली जाए.

राहुल गांधी ने 2019 लोकसभा चुनाव के दौरान कर्नाटक में एक रैली के दौरान ‘मोदी सरनेम’ को ले कर बयान दिया था. इस बयान को ले कर भाजपा विधायक पूर्णेश मोदी ने राहुल के खिलाफ मानहानि का मामला दर्ज कराया था. 4 साल बाद 23 मार्च को सूरत की निचली अदालत ने राहुल को दोषी करार देते हुए 2 साल की सजा सुनाई थी.
सुप्रीम कोर्ट ने सजा पर रोक लगा दी है. सुप्रीम कोर्ट ने राहुल गांधी की सजा और दोषसिद्धि पर अंतरिम रोक लगा दी है. इसी फैसले के साथ राहुल गांधी की संसद सदस्यता भी बहाल हो गई. ‘ट्रायल कोर्ट’ ने अगर सही तरह से अपना फैसला दिया होता तो हाईकोर्ट तक मसला न पहुंचता. ‘ट्रायल कोर्ट’ को चाहिए कि वह अपनी ताकत को सही तरह से समझे और मजिस्ट्रेट ऐसे फैसले दें जो नजीर बन सकें, जिन की चर्चा हो. न्याय व्यवस्था में ‘ट्रायल कोर्ट’ का बड़ा महत्त्व है. यहां सुधार होगा तो हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक मामले कम जाएंगे. न्याय सरल, सहज और सस्ता हो सकेगा.

क्या होती है ट्रायल कोर्ट

ट्रायल कोर्ट वह पहली अदालत होती है जिस में पुलिस अपराध करने वाले को सब से पहले पेश करती है. नियम यह कहता है कि अगर पुलिस ने अपराध करने की शक पर या किसी कि शिकायत के आधार पर किसी को गिरफ्तार किया है तो उसे 24 घंटे के अंदर मजिस्ट्रेट के सामने पेश करे. मजिस्ट्रेट यह देखता है कि कानून की जिस धारा में अपराध करने वाले को पेश किया गया है वह जमानतीय है या गैरजमानतीय. आमतौर पर जिन मामलों में सजा 3 साल से ऊपर होती है उन को गैरजमानतीय माना जाता है.
अगर मुकदमा जमानतीय धाराओं में है तो मजिस्ट्रेट जमानत दे सकता है. मुकदमा गैरजमानतीय धारा में है तो आरोपी को वह जेल भेज देता है. वहां से कई बार जमानत पर आरोपी जल्दी जेल के बाहर आ जाता है. कई बार वह सालोंसाल जेल में रहता है. यह अपराध की गंभीरता पर निर्भर करता है. वैसे तो ट्रायल कोर्ट मजिस्ट्रेट को अधिकार होता है कि वह जमानत दे दे. वह जमानत नहीं देता तब आरोपी हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट तक जमानत के लिए अपील करता है. अगर ट्रायल कोर्ट अपने स्तर पर ये मसले हल कर ले तो ऊपरी अदालतों में मुकदमों की संख्या कम होगी. न्याय जल्द मिल सकेगा.

जमानत आरोपी का अधिकार होता है. उसे यह मिलना चाहिए. अगर बहुत गंभीर या खतरनाक अपराध नहीं किया हो तो उसे जमानत देने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए. जमानत पर जेल से बाहर आने का मतलब यह नहीं होता कि सजा से बरी हो गया है. जमानत के बाद अगर वह जेल से बाहर आ कर मुकदमे को प्रभावित करने वाला कोई काम करता है या गवाहों को डराताधमकाता है तो उस की जमानत खारिज की जा सकती है. उस को वापस जेल भेजा जा सकता है. जमानत से ले कर सजा देने तक का सब से पहला और बड़ा अधिकार ट्रायल कोर्ट का होता है.

ट्रायल कोर्ट के फैसलों के खिलाफ अपील आमतौर पर सैशन कोर्ट और हाईकोर्ट में की जाती है. न्याय व्यवस्था में गवाही सुनने या साक्ष्य लेने का अधिकार केवल ट्रायल कोर्ट के पास ही होता है. ऊपरी अदालतें केवल कानून के मामलों पर ट्रायल कोर्ट के फैसलों को कसौटी पर कसती हैं. इस से समझना चाहिए कि ट्रायल कोर्ट का महत्त्व कितना होता है. ट्रायल कोर्ट को लोअर कोर्ट भी कहा जाता है. न्याय व्यवस्था के हिसाब से देखें तो 3 प्रकार के ट्रायल कोर्ट होते हैं. इन में जिला न्यायालय, सत्र न्यायालय एवं राजस्व न्यायालय होते हैं. ट्रायल कोर्ट में साक्ष्य और गवाही को साक्ष्य के नियमों के तहत स्वीकार किया जाता है.

मुकदमे की गुणवत्ता के आधार पर सुनने का काम ट्रायल कोर्ट का होता है. वह अपने विवेक के आधार पर मुकदमे को आगे चलाने के लायक समझ कर चला भी सकती है और मामले को सही न पाए जाने पर खारिज भी कर सकती है. किसी भी मुकदमे के निर्धारण में ट्रायल कोर्ट सब से प्रमुख होती है. न्याय व्यवस्था में इस का महत्त्व हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से अधिक होता है.

हमारे देश में चरमराती न्याय व्यवस्था का सब से बड़ा कारण यह है कि ट्रायल कोर्ट के पास आधारभूत सुविधाओं की बहुत कमी है. वकील और मुकदमों का सब से बड़ा बोझ ट्रायल कोर्ट पर है. अधिकतर प्रदेश की इन अदालतों में सही तरह के पंखे और कोर्टरूम भी नहीं हैं. एक मजिस्ट्रेट के पास औसतन रोज 60-80 मुकदमों को सुनने का बोझ होता है. मजिस्ट्रेट के साथ जो उन का स्टाफ होता है उस की अलग हालत खराब होती है. पारदर्शिता का अभाव है. मुकदमों को सुनने लायक जो माहौल मिलना चाहिए वह नहीं है. एक रिसर्च में कहा गया है कि हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट पहुंच कर 90 फीसदी मामलों में सजा पलट जाती है. इस की वजह ट्रायल कोर्ट पर मुकदमों का बढ़ता बोझ और आधारभूत ढांचे का सही नहीं होना होता है.

सुप्रीम कोर्ट ने जताई चिंता

ट्रायल कोर्ट की कार्यशैली पर सुप्रीम कोर्ट कई बार चिंता व्यक्त कर चुका है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मुकदमा लंबा न चले, यह सुनिश्चित करना ट्रायल कोर्ट का दायित्व है क्योंकि समय अंतराल बढ़ने से गवाहों की गवाही में समस्याएं पैदा होती हैं. जस्टिस एस के कौल और जस्टिस एम एम सुंद्रेश की पीठ ने कहा कि ट्रायल कोर्ट को किसी भी पक्ष की देरी करने की चालों पर नियंत्रण करना चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी उस व्यक्ति को जमानत प्रदान करते हुए की जो आंध्र प्रदेश में चित्तूर जिले के मेयर की हत्या करने वाले व्यक्ति को भगाने में मदद करने का आरोपित था. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह व्यक्ति पिछले 7 वर्षों से जेल में है. अभियोजन के गवाहों से अभी जिरह होनी है और मुकदमा शुरू होना है. यह पूरी तरह अस्वीकार्य है.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अभियोजन के गवाहों की उपलब्धता सुनिश्चित करना अभियोजन का दायित्व है और यह सुनिश्चित करना ट्रायल कोर्ट का दायित्व है कि कोई भी पक्ष मुकदमे को लंबा न खींच पाए. सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया कि सुनवाई पूरी होने के बाद, यह आदेश मिलने की तिथि से एक साल के भीतर ट्रायल कोर्ट का फैसला उपलब्ध हो.

कोर्ट ने कहा कि जमानत ट्रायल कोर्ट की शर्तों के तहत होगी. इस के अलावा अपीलकर्ता को सभी तिथियों पर ट्रायल कोर्ट में व्यक्तिगत रूप से प्रस्तुत होना होगा और मुकदमे में सहायता करनी होगी. अगर ट्रायल कोर्ट को लगे कि अपीलकर्ता सुनवाई में देरी करने का प्रयास कर रहा है या साक्ष्यों से छेड़छाड़ करता है तो ट्रायल कोर्ट जमानत रद करने के लिए अधिकृत है.

मध्य प्रदेश राज्य बनाम एस बी जौहरी एआईआर 2000 उच्चतम न्यायालय 665 का मामला एस जी कैंसर हौस्पिटल इंदौर के लिए दवाएं तैयार करने के दौरान झूठे सर्टिफिकेट एवं कूटरचित दस्तावेज तैयार करने हेतु आपराधिक षड्यंत्र से संबंधित था. सैशन न्यायाधीश ने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम तथा भारतीय दंड संहिता की धारा 120 बी के अधीन दंडनीय अपराध के लिए आरोप तय किए. उच्च न्यायालय ने आपराधिक पुनरीक्षण में आरोपों को भी खंडित कर दिया.

महाराष्ट्र राज्य बनाम सोमनाथ थापा एआईआर 1996 उच्चतम न्यायालय 1744 के मुकदमे में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 228, 240, 245 से संबंधित आरोप विरचित करने के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया कि किसी व्यक्ति के विरुद्ध प्रथमदृष्टया अपराध बन रहा है. ऐसा तभी उपचारित किया जाएगा यदि उस के द्वारा अपराध किए जाने का ठोस आधार हो.

इस वाद में अभियुक्तों के विरुद्ध आतंकवाद एवं चिन्हित गतिविधियां निवारण अधिनियम 1987 के अंतर्गत मुंबई बम ब्लास्ट के प्रकरण में शामिल होने का आरोप था. इन में से एक अभियुक्त के विरुद्ध आरोप भी था. उस ने स्वयं के धन से कुछ व्यक्तियों के लिए टिकट खरीद कर हथियार परीक्षण हेतु पाकिस्तान भिजवाया था, लेकिन टिकट खरीदने हेतु धन दिए जाने के पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में उसे उन्मोचित कर दिया गया.

उच्चतम न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 228, 240, 245 के संदर्भ में यह तय किया कि न्यायालय द्वारा जांच के दौरान आरोपित किए जाने के प्रथमक्रम में साथियों के कथनों के परिणाम पर विचार नहीं किया जा सकता है. उच्चतम न्यायालय ने यह भी सुनिश्चित किया कि यदि आतंकवाद निवारण अधिनियम 1995 निरसित हो चुका है, फिर भी इस अधिनियम के अधीन प्रारंभ किए गए अन्वेषण, जांच एवं विचारण आदि यथावत चालू रखे जाएंगे तथा उन्हें समाप्त हुआ नहीं माना जाएगा.

पुलिस भी जिम्मेदार

ट्रायल कोर्ट में जो हालत है उस के लिए बड़ी जिम्मेदारी पुलिस की भी है. पुलिस की विवेचना में देरी ही नहीं होती, साक्ष्यों की भी कमी होती है. जहां पर ट्रायल कोर्ट देरी करती है, मामले ऊपरी अदालतों में पहुंचते हैं तो ट्रायल कोर्ट को ही कठघरे में खड़े होना होता है. अगर ट्रायल कोर्ट अपने स्तर पर इन मामलों को सुलझा दे तो इस तरह की टिप्पणियां नहीं सुनने को मिलेंगी. इस में विवेचना करने वाली एजेंसी की जिम्मेदारी भी होती है.

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक 2021 की तुलना में 2022 में सजा दर में 33.29 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. वहीं 2022 में सजा से बरी होने की दर में भी 19.29 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. आंकड़ों के मुताबिक 2022 में 1,51,883 पुरुष, 4,466 महिलाएं और 22 ट्रांसजैंडर सहित 1,56,371 लोगों को गिरफ्तार किया गया. 2021 में 1,50,820 पुरुष, 2,971 महिला और 11 ट्रांसजैंडर सहित 1,53,802 लोगों को गिरफ्तार किया गया. 2022 में 1,322,98 और 2021 में 1,256,14 आरोपियों को दोषी ठहराया गया.

फौरेंसिक उपकरणों के बढ़ते उपयोग से क्षमता बढ़ी है और जांच की गुणवत्ता में सुधार आया है. आंकड़ों के मुताबिक 2021 की तुलना में 2022 में बरी होने वाले आरोपितों की संख्या में भी अधिक वृद्धि देखी गई. 2022 में 7,593 आरोपितों को बरी कर दिया गया, जिन में 7,403 पुरुष और 193 महिलाएं थीं. वर्ष 2021 में 5,379 पुरुषों और 163 महिलाओं को बरी कर दिया गया.

बरी होने के पीछे कई कारण हो सकते हैं. इन कारणों में साक्ष्य की कमी, संदेह का लाभ या गवाही शामिल हो सकती है, जो विश्वसनीय नहीं है. जांच अधिकारियों के प्रयासों की कमी, फौरेंसिक साक्ष्य में देरी भी कारण हो सकते हैं. जीआरपी की ओर से दर्ज मामलों में 20 प्रतिशत की वृद्धि हुई. रेलवे में हुए अपराधों की बात करें तो जीआरपी दिल्ली में 2021 में दर्ज मामलों की तुलना में पिछले वर्ष 20 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है.

बड़ी जांच एजेंसी भी जिम्मेदार

असल में हमारे देश में पुलिस हो या बड़ीबड़ी जांच एजेंसी सीबीआई, ईडी या एनआईए, ये भी सब से पहले आरोपी को पकड़ कर जेल में डाल देती हैं. वह सालोंसाल जेल में रहता है. जांच एजेसी विवेचना और चार्जशीट के नाम पर सालोंसाल लगा देती हैं. जब यह मसला ट्रायल कोर्ट पहुंचता है तो वहां आरोपी के खिलाफ लगे आरोप साबित नहीं हो पाते.

बड़े मामलों में बहुत कम लोगों को सजा हो पाती है. कई तरह के मामलों में तो सजा का प्रतिशत केवल 5 से 6 ही होता है. कई मामले ऐसे हैं जिन में सालोंसाल से लोग जेल में हैं. उन को जमानत भी नहीं मिल रही. इस से वे अपने मुकदमे लड़ने की पैरवी भी नहीं कर पाते. घरपरिवार के लोग भी उन का साथ छोड़ चुके होते हैं.

कोलकाता हाईकोर्ट ने भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में कहा है कि ईडी और सीबीआई 100 फीसदी सजा दिलाने का प्रयास करें. केंद्रीय जांच ब्यूरो यानी सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी जैसी एजेंसियों को चाहिए कि वे भ्रष्टाचार के मामलों में कंविक्शन की दर लगभग 100 फीसदी करने की कोशिश करें. इन को जापान और सिंगापुर जैसे विकसित देशों का अनुसरण करना चाहिए. अदालत ने आगे कहा कि इन देशों में कंविक्शन की दर लगभग 80 प्रतिशत थी जिस से देश भ्रष्टाचारमुक्त हो सका.
जस्टिस जौयमाल्या बागची और जस्टिस अजय कुमार गुप्ता की बैंच ने कैश के बदले नौकरी भरती घोटाले के आरोपी कुंतल घोष की जमानत याचिका पर सुनवाई के दौरान यह अहम टिप्पणी की. ईडी इस मामले की जांच कर रही है. कोर्ट ने कहा कि भ्रष्टाचार के आरोपों की शीघ्र जांच और न्यायिक प्रक्रिया पूरी हो, अन्यथा देश कभी भी भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं हो पाएगा.

डिप्टी सौलिसिटर जनरल धीरज त्रिवेदी ने इस मामले में रिपोर्ट दाखिल करने के लिए समय बढ़ाने की मांग की तो कोर्ट ने कहा कि भ्रष्टाचार के ऐसे बड़े मामलों को तत्काल निबटाया जाना चाहिए और इन्हें लोगों की याददाश्त से मिटने नहीं देना चाहिए.

कंविक्शन की दर बढ़ाने के लिए ट्रायल कोर्ट और विवेचना करने वाली एजेंसियों को सावधानी और ईमानदारी से काम करना होगा. आधारभूत ढांचे में सुधार हो. इस के अलावा एक अहम बात यह है कि सरकारी वकीलों की चयन प्रक्रिया में सुधार हो. आज जिस तरह से राजीतिक दबाव में सरकारी वकीलों की नियुक्ति होती है उस से भी कंविक्शन दर प्रभावित हो रही है. कंविक्शन दर बढ़ाने के लिए ट्रायल कोर्ट, विवेचक और सरकारी वकीलों को मिल कर सामूहिक प्रयास करना होगा. इन को राजनीतिक दबाव से अलग हो कर काम करना होगा. न्यायपालिका स्वत्रंत है, यह कहनेभर से काम नहीं चलेगा.

परीक्षा के दिनों में मेरा बेटा तनाव में रहता है, क्या करूं?

सवाल

बेटा मेरा मेरा बेटा 6ठी क्लास में पढ़ता है. जब परीक्षा देने के लिए घर से निकलता है तब भी तनाव में रहता है. हम उस पर पढ़ाई का ज्यादा प्रैशर नहीं डालते लेकिन थोड़ाबहुत तो बच्चे को कहना ही पड़ता है. इस के पापा कहते हैं कि हम नहीं सम?ाएंगे तो यह सम?ोगा कैसे. मु?ो अपने बेटे की बहुत फिक्र होती है. इकलौता बेटा है, सारा ध्यान इसी में लगा रहता है. क्या करूं जिस से यह तनाव से बाहर निकले?

जवाब

परीक्षा शब्द सुनते ही वैसे ही बच्चे तनाव में आ जाते हैं. फिर परीक्षा से पहले मातापिता की चेतावनी, नसीहत उन के डर और तनाव को और बढ़ा देती है. जबकि मातापिता भी नहीं चाहते कि उन का बच्चा हतोत्साहित हो लेकिन अकसर बच्चे के भले के लिए, उन्हें सम?ाने के चक्कर में मातापिता के मुंह से ऐसी बातें निकल जाती हैं जो उन के आत्मविश्वास, हौसले को कम क देती हैं.

सब से पहले तो परीक्षा के दिनों में घर का वातावरण खुशगवार बनाए रखना मातापिता की पहली जिम्मेदारी है, ताकि बच्चा पूरी तरह से अपना ध्यान पढ़ाई पर केंद्रित कर पाए. परीक्षा के दिनों के दौरान उस से ये बातें बिलकुल न कहें, जैसे ‘पढ़ा हुआ सब याद है न, सोने के बाद भूल तो नहीं गए?’ ‘परीक्षा को गंभीरता से लिया करो.’ ‘ये क्लास बहुत महत्त्वपूर्ण है,’ ‘तुम्हारी पढ़ाई पर इतना पैसा खर्च कर रहे हैं’ आदि.

आप ने लिखा है कि परीक्षा देने जाते वक्त भी बच्चा तनाव में रहता है तो उसे प्यार से विदा करें. ‘मार्क्स की चिंता किए बगैर परीक्षा हौल में सिर्फ पेपर पर ध्यान देना.’ ‘खुद पर विश्वास रखो, तुम अच्छा कर सकते हो.’ ‘हम ने देखा है, तुम ने बहुत मेहनत की है, बिलकुल मत घबराओ.’ ‘चाहे जैसा भी परिणाम आए, हम हमेशा तुम्हारे साथ है और तुम्हें सम?ाते हैं.’ ‘आराम से परीक्षा देने जाओ, हम तुम्हें लेने समय पर आ जाएंगे.’

मातापिता की कही हुई हर छोटी से छोटी बात भी बच्चे के मन पर काफी प्रभाव डालती है. यदि आप उस से सकारात्मक शब्द कहेंगे तो उस की ऊर्जा दोगुनी हो जाएगी और वह निश्ंिचत हो कर परीक्षा देगा.

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‘इंडिया’ की राजनीति

विपक्षी दलों के ‘इंडिया’ गठबंधन के टिकने के आसार पहले ही दिन से कम थे पर धीरेधीरे जब लगने लगा कि इंडिया ब्लौक का अर्थ होगा कि कांग्रेस को ज्यादा सीटें देना, तो पार्टियां बिदकने लगीं. इस देश में जीतने वाले नेताओं का दबदबा तो होता है, पर दूसरेतीसरे नंबर पर आने वाले नेताओं का रुतबा कम नहीं होता. इंडिया ब्लौक अगर एकजुट हो कर लड़ेगा तो दूसरेतीसरे नंबर पर हारने वाले उन नेताओं को सीटें छोड़नी पड़ेंगी जो बरसों से विपक्षी पार्टी की राजनीति करते रहे हैं.

हर पार्टी के नेता चाहते हैं कि वे सत्ता में बैठें, इस के लिए वे जमीनी लड़ाई में चुनाव लड़ने का अवसर गंवाना नहीं चाहते. जीतने वाला 2 लाख वोट पाए और चाहे वह भारतीय जनता पार्टी का हो, हारने वाले को अगर 50,000 वोट भी मिलते हैं तो यह सर्टिफिकेट होता है कि उस को इतनों का समर्थन मिल रहा है.

लोकसभा के बाद विधानसभा, जिला पंचायत, नगरपालिका, कोऔपरेटिव बैंक, स्पोर्ट्स क्लब, रोटरी या लायंस क्लब, जिमखाना क्लब, ट्रेड एसोसिएशनों आदि सब में चुनावों में हारने वाले नेता को भी पूजा जाता है और लोकसभा में हारने वाले भी छोटे चुनावों में जीत कर अपनी नेतागीरी कायम रख सकते हैं.

इंडिया ब्लौक में सम?ाते के अंतर्गत उन्हें अपनी इस हार का प्रमाणपत्र नहीं मिलना था, इसलिए जैसे ही सुगबुगाहट शुरू हुई कि सीट किसी दूसरी पार्टी को जाएगी, विपक्ष दलों में फूट पड़ने लगी. बड़े सम्राट के छोटे से जागीरदार बने रहने से हमेशा छोटे राजा अपनेअपने छोटे देश में खुश रहे हैं. छोटे देशों के राजाओं की अपनी शानशौकत बड़े देश के राजा से कम नहीं होती थी. अंगरेजों ने यह मानसिकता सम?ा ली थी और जब वे 1857 में ही पूरे देश पर आसानी से कब्जा कर सकते थे, उन्होंने राजाओं, रजवाड़ों को रहने दिया जो 600 से ज्यादा थे. उन में से ज्यादा भारत को मिले, कुछ पाकिस्तान और बंगलादेश के हिस्से में गए.

छोटे होने के बावजूद उन्हें दिल्ली के वायसराय के दरबार में इज्जत मिली थी. दिल्ली में उन के भवन आज भी इंडिया गेट के चारों ओर बिखरे हैं जबकि राजघराने और रजवाड़े 70 साल पहले खत्म हो गए थे.

यही हाल छोटी पार्टियों के हारने वाले नेताओं का है. वे अपने मुट्ठीभर समर्थकों को अपनी सहयोगी पार्टी के नेता के हवाले नहीं करना चाहते क्योंकि इस से उन का रुतबा छोटे मालिक की जगह बड़ा नौकर बन कर रह जाएगा. 20-25 पार्टियों के नेता चाहे कोई फैसला कर लें, सीटों के बंटवारे पर रस्साकशी तो होगी ही. छोटी पार्टियों के हारे नेता दूसरी हारी पार्टी के हारे नेता की जगह जीतने वाली पार्टी के अर्दली बनना पसंद करेंगे.

हां, जो नीतीश कुमार या अजित पवार की तरह पलटी मार कर भाजपा में जा बैठे, वे विपक्षी दलों, खासतौर पर कांग्रेस, का भला करेंगे. जिन्हें भाजपा को वोट नहीं देना, उन के वोट अब कम करेंगे. जिन की भाजपा से कोई सैद्धांतिक लड़ाई नहीं है वे भाजपा में रहें, यही अच्छा है.

भाजपा की संस्कृति यह है कि वहां सब को समा लेने की क्षमता है. पौराणिक कथाओं में राजा लड़ते थे दूसरे राजाओं से भी और तथाकथित दस्युओं, दानवों और राक्षसों से भी पर ऋषिमुनि एकदूसरे पर हमले करते थे, ऐसा कथाकारों ने कहीं नहीं लिखा. चूंकि पौराणिक ग्रंथ ऋषिमुनियों की महानता दर्शाने के लिए ही रचे गए, इसलिए उन से यह उम्मीद भी नहीं थी पर उन का असर आज भी है कि भारतीय जनता पार्टी में रूठने वाले भी दुबक कर बैठ जाते हैं, दूसरे दलों के नेताओं की तरह छिटक कर अपना दल नहीं बना लेते.

इंडिया ब्लौक इन बातों को सम?ाता है और इसीलिए कांग्रेस व कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़ कर हर दल भाजपा के साथ दुश्मनी एक हद तक ही करता है. इंडिया ब्लौक के मुख्य दलों को दिक्कत तब होगी जब गैरभाजपा वोट बंटेंगे, तब नहीं जब विपक्ष में बैठे कुछ लोग भाजपा में जा बैठें.

अप्रैलमई तक इंडिया ब्लौक का नामोनिशान चाहे रहे या न रहे, यह सोच भारतीय जनता पार्टी के लिए चुनौती रहेगी कि देश की 60 फीसदी जनता अब भी राम के नाम की पार्टी के साथ नहीं है.

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