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पतिपत्नी एकदूसरे के पूरक बन कर रिश्तों को संभालें

उत्तर प्रदेश के पीलीभीत में 11 फरवरी को पत्नी से प्रताड़ित हो कर एक युवक ने एसपी औफिस के बाहर जहर खा कर जान दे दी. 2 महीने पहले ही उस की शादी हुई थी. प्रदीप नाम का वह व्यक्ति अपनी पत्नी की प्रताड़ना से परेशान था. पुलिस ने उस की शिकायत दर्ज नहीं की थी. इस के बाद वह एसपी आवास के बाहर पहुंचा और वहां उस ने जहर खा लिया.

मिर्जापुर में 8 फरवरी को पत्नी से परेशान हो कर एक व्यक्ति कलेक्ट्रेट में धरने पर बैठ गया. पीड़ित पति ने धरनास्थल पर बैनर लगाया जिस में उस ने पत्नियों से सावधान रहने के लिए लोगों से अपील की. उस का कहना था कि उस की सुनवाई नहीं हो रही है. उस ने अपनी पत्नी को गुजाराभत्ता देने की लिए एक बौक्स बनाया जिस में उस ने एक स्लिप चिपका रखी थी. उस में लिखा था- ‘पत्नी गुजाराभत्ता की भीख’. वह इस तरह प्रशासन को अपनी स्थिति से अवगत कराने का प्रयास कर रहा था.

ऐसा नहीं है कि पति ही प्रताड़ित होते हैं. अखबारों में पत्नियों पर हो रहे प्रताड़ना के समाचार भरे पड़े हैं. 30 जनवरी को एक पत्नी के साथ जबरदस्ती रेप के आरोप में पति को कोर्ट ने 20 साल की सजा सुनाई. बिहार के चंपारण में अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश ने आरोपी पति को दोषी मानते हुए 20 वर्ष कठोर कारावास की सजा सुनाई, साथ ही, 60 हजार रुपए जुर्माना भी लगाया.

राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो के हालिया आंकड़े देखें तो पिछले साल 22,372 गृहिणियों ने आत्महत्या की थी. इस के अनुसार, हर दिन 61 और हर 25 मिनट में एक आत्महत्या हुई है. देश में 2020 में हुईं कुल 153,052 आत्महत्याओं में से गृहिणियों की संख्या 14.6 प्रतिशत है और आत्महत्या करने वाली महिलाओं की संख्या 50 प्रतिशत से ज्यादा है.

नेशनल फैमिली हैल्थ रिपोर्ट के अनुसार, हर 3 में से एक महिला घरेलू हिंसा की शिकार होती है. वर्ष 2022 में राष्ट्रीय महिला आयोग ने घरेलू हिंसा के 6,900 मामले दर्ज किए.

दरअसल यहां समस्या पति व पत्नी के बीच आपसी तालमेल और एकदूसरे को समझने की है. पुरुषों को बचपन से यह सिखाया जाता है कि पत्नी उस के अधीन रहेगी. उसे पत्नी और परिवार का खर्च उठाना है. वह मालिक होगा और पत्नी उस की गुलाम. पत्नी ही उस के सारे काम करेगी. वहीं लड़कियों को बचपन से ही यह घुट्टी पिलाई जाती है कि पति ही परमेश्वर है. हर हालत में पति की बात माननी होगी. घर, परिवार और बच्चों को संभालना होगा. खाना बनाना होगा. पति के सारे काम करने होंगे.

पुराणों में महिलाओं को यह भी सिखाया जाता है कि वे अपने पतियों को नाम से न बुलाएं. दरअसल स्कंद पुराण में लिखा है कि पतियों को नाम से बुलाने पर उन की उम्र घटने लगती है. इसलिए पतियों की लंबी आयु के लिए महिलाएं कभी भी उन्हें उन के नाम से संबोधित नहीं करतीं. पत्नी को पतिव्रता बनने के धर्म सिखाए जाते हैं.

स्कंद पुराण में यह भी लिखा है कि वही महिलाएं पतिव्रता स्त्री कहलाती हैं जो अपने पतियों के खाने के बाद ही भोजन करती हैं. जो महिलाएं अपने पतियों के सोने के बाद सोती हैं और सुबह पति के उठने से पहले उठ जाती हैं उन्हें ही पतिव्रता पत्नी का दर्जा दिया जाता है. यदि उन का पति किसी कारणवश उन से दूर रहता हो तो एक पतिव्रता स्त्री को कभी श्रृंगार नहीं करना चाहिए.

गरुण पुराण के 18 अध्याय के 108वें श्लोक में पत्नीधर्म का वर्णन नीचे लिखे श्लोक में दिया गया है:

सा भार्या या गृहे दक्षा सा भार्या या प्रियंवदा.
सा भार्या या पतिप्राणा सा भार्या या पतिव्रता.

मतलब, पत्नी वही है जो गृहकार्य में दक्ष हो, सब से प्रिय वचन बोले, बड़ों की इज्जत करे, पति को सर्वोपरि का दर्जा दे और पत्नी के जीवन में पति के अतिरिक्त कोई पुरुष न हो.

ऐसेहु पति कर किए अपमाना. नारि पाव जमपुर दुख नाना॥
एकइ धर्म एक ब्रत नेमा. कायं बचन मन पति पद प्रेमा॥5॥

भावार्थ: ऐसे भी पति का अपमान करने से स्त्री यमपुर में भांतिभांति के दुख पाती है. शरीर, वचन और मन से पति के चरणों में प्रेम करना स्त्री के लिए, बस यह एक ही, धर्म है, एक ही व्रत है और एक ही नियम है.

इस तरह की मान्यताएं और मिलने वाली सीखें ही दांपत्य जीवन में जहर घोलती हैं. क्योंकि इस से एकदूसरे से अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं. जिम्मेदारियों का बोझ भी बढ़ जाता है. जिसे उठाना पतिपत्नी दोनों के लिए ही आसान नहीं. वे एकदूसरे को गलत समझने लगते हैं. खुद को पीड़ित मान बैठते हैं. लड़की पढ़ीलिखी या पैसे वाले घर की हो तो उस का ईगो भी हर्ट होने लगता है. वह खुद को गुलाम समझने से इनकार करती है. यहीं से ईगो का क्लैश शुरू हो जाता है.

हाल ही में रिलीज हुई शिल्पा शेट्टी की फिल्म ‘सुखी’ एक हाउसवाइफ की जिंदगी के स्ट्रगल्स को दिखाती है. वह केवल एक दिन के लिए अपने दोस्तों से मिलने दिल्ली जाना चाहती है मगर उस के पति और बेटी ने उस को साफ मना कर दिया कि फिर घर कौन संभालेगा? मतलब, एक औरत घर संभालने और दूसरों को सुविधाएं देने के लिए ही बनी है, अपनी ख़ुशी के लिए उसे एक दिन भी नहीं मिल सकता. शिल्पा पति के मना करने के बावजूद चली जाती है और अपने दोस्तों के साथ मिल कर जिंदगी जीने का नया नजरिया ढूंढ़ती है. अपनी सभी पुरानी समस्याओं को भूल कर वह आगे बढ़ती है और अपनी जिंदगी को नए सिरे से जीने की कोशिश करती है. इस फिल्म में दिखाया जाता है कि एक कौमन हाउसवाइफ भी अनकौमन हो सकती है.

इसी तरह वर्ष 2000 में रिलीज हुई फिल्म ‘अस्तित्व’ भी महिलाओं की स्थिति दिखाती है. भारत के पितृसत्तात्मक समाज को दिखाने वाली यह फिल्म एक्सट्रामैरिटल अफेयर, पति का एब्यूज और एक महिला के अपनी पहचान को खोजने की कहानी है. आखिर में वह महिला अपने पति और बेटे को छोड़ कर चली जाती है और उस की होने वाली बहू उस का साथ देती है जो खुद अपने बौयफ्रैंड को छोड़ देती है.

वहीं, ‘पद्मावत’ जैसी फिल्में भी हैं. संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘पद्मावत’ में रानी पद्मावती का जौहर बेहद भव्य तरीके से दिखाया गया है. रानियों और राज्य की सभी महिलाओं ने खुद को क्रूर शासक अलाउद्दीन खिलजी और उस की सेना से बचाने के लिए आग में कूद कर अपनी जान दे दी. फिल्म में जौहर को जितनी भव्यता से दिखाया गया है और उस का महिमामंडन किया गया उसे आज के समाज में स्वीकारना संभव नहीं. पुराने समय में जौहर के साथ सतीप्रथा भी काफी प्रचलित थी.

वह ऐसा समय था जब भारतीय समाज में पति की मृत्यु के बाद पत्नी को अपनी पवित्रता और प्रेम साबित करने के लिए पति की चिता के साथ ही जिंदा जला दिया जाता था. कई स्त्रियां इसे प्रेम से करती थीं लेकिन कई स्त्रियों को सिर्फ प्रथा के नाम पर आग में जिंदा जलने के लिए झोंक दिया जाता था. उन की चीखें, दर्द सबकुछ इस प्रथा की आड़ में छिप जाते थे.

आज की स्त्री पढ़ीलिखी है. वह भी अपना वजूद साबित करना चाहती है और इस में कुछ बुराई नहीं है. हम अपने बच्चों को अगर यह सिखाना शुरू करें कि शादी के बाद अपने रिश्तों को कैसे संभालना है और एकदूसरे का ख़याल रखते हुए शादी कैसे मैनेज करना है तो यह बेहतर होगा.

हमें समझना होगा कि पतिपत्नी एक ही गाड़ी के 2 पहिए हैं. दोनों में कोई अगर अपना काम करना बंद कर दे तो जिंदगी की गाड़ी पटरी से उतर जाती है. इसलिए एकदूसरे को सपोर्ट देने से ही दांपत्य जीवन सही से चल पता है. कार के गियर की तरह उन्हें एकदूसरे के साथ मैनेज करना होगा. गियर के दांत एक अक्ष पर गियर के दांतों के साथ दूसरे अक्ष पर जाल बनाते हैं और इस प्रकार दोनों अक्षों के घूमने के बीच एक संबंध बनता है. जब एक धुरी घूमती है तो दूसरी भी घूमती है. गियर को अलगअलग पैटर्न में व्यवस्थित किया जाता है. वैसे ही, पतिपत्नी आपसी रिश्तों में एकदूसरे के पूरक बन कर आगे बढ़ें.

मुझे जुड़वां बच्चे होने वाले हैं, क्या मैं एक बच्चा अपनी बहन को गोद दे दूं ?

सवाल

मैं 36 वर्षीय पुरुष हूं. मेरा 3 बार तलाक हो चुका है. पत्नी से एक भी बच्चा नहीं है. अब मैं शादी करना नहीं चाहता. इसीलिए मैं ने सरोगेसी से बच्चे करने के बारे में सोचा और ऐसा किया. पहले मेरे परिवार की तरफ से भी इस फैसले को ले कर कोई परेशानी नहीं थी, परंतु अब हुआ यों कि डाक्टर ने बताया कि सरोगेसी से मेरे एक नहीं, बल्कि 2 यानी जुड़वां बच्चे होने वाले हैं. इस पर मेरी बहन ने आपत्ति जताते हुए यह कहा कि मुझे दोनों में से एक बच्चा किसी को गोद दे देना चाहिए, जबकि मुझे और मेरे मातापिता को लगता है कि दोनों बच्चों की जिम्मेदारी और लालनपालन में कोई कमी नहीं होगी. मेरी बहन को लगता है यह असंभव है. मैं दुविधा में हूं कि क्या मुझे एक बच्चे को गोद दे देना चाहिए?

जवाब

आप ने जब सरोगेसी का फैसला लिया तो क्या आप ने दीनदुनिया के विचारों पर आश्रित हो कर यह फैसला लिया था? आप और आप के मातापिता को यदि लगता है कि आप 2 बच्चों की जिम्मेदारी उठाने में सक्षम हैं तो आप को अपनी बहन का कहा नहीं सुनना चाहिए. आप खुद सोच कर देखिए, किसी भी पिता के लिए अपने बच्चे को गोद देना कोई आसान काम नहीं है. बच्चे एक हों या 2, आप के लिए तो दोनों ही समान हैं.

वैसे भी बच्चा गोद देना या लेना कोई बाएं हाथ का खेल नहीं है. फिर भी आप ऐसा सोचेंगे तो जरूरी  नहीं कि कोई गोद लेने लायक परिवार मिल ही जाए. देखा जाए तो यह तो अच्छी बात है कि आप के एक की जगह 2 बच्चे हो रहे हैं. दोनों को एकदूसरे का साथ मिल जाएगा. वे आप को परेशान भी नहीं किया करेंगे. और आप की गैरमौजूदगी में भी वे अकेलापन महसूस नहीं करेंगे.

पैंसठ की उम्र में भी क्या मां बनना संभव है, जानें एक्सपर्ट से

एक विवाहित युगल के लिए मां-बाप बनना उनके जीवन का सबसे सुखद क्षण होता है, लेकिन कभी-कभी तमाम प्रयासों के बावजूद शादीशुदा जोड़े अपने घर के आंगन में बच्चों की किलकारियां सुनने से महरूम रह जाते हैं. ऐसे दम्पत्तियों के लिए आईवीएफ सेंटर्स एक वरदान साबित हो रहे हैं. आईवीएफ उपचार के चमत्कारी परिणाम देखे जा रहे हैं. ‘पैंसठ साल की आयु में भी मां बनने का सुख उठाने वाली उस महिला की खुशी का अंदाजा आप नहीं लगा सकते, जिसने पूरी जवानी एक बच्चे की आस में गुजार दी. दुनिया भर के ट्रीटमेंट कर डाले, मगर उनके आंगन में खुशी का फूल खिला तो आईवीएफ उपचार के बाद…’. ऐसा कहना है दिल्ली के नारायणा विहार स्थित ‘द नर्चर आईवीएफ क्लिनिक’ की निदेशक डा. अर्चना धवन बजाज का.

ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी औफ नौटिंघम से रिप्रोडक्टिव टेक्नोलौजी में मास्टर्स डिग्री प्राप्त करने वाली डा. अर्चना धवन बजाज एक स्त्रीरोग विशेषज्ञ, एक परामर्शदाता, प्रसूति विशेषज्ञ और फर्टिलिटी और आईवीएफ के क्षेत्र में एक प्रतिष्ठित नाम बन चुका है. आज ‘द नर्चर आईवीएफ क्लिनिक’ में भारतीय दम्पत्ति ही नहीं, बल्कि विदेशी दम्पत्ति भी बच्चे की उम्मीद लेकर आते हैं, और अपने साथ खुशियों की सौगात लेकर जाते हैं.

आईवीएफ के प्रति आज भी लोगों में कई तरह की भ्रांतियां व्याप्त हैं. इससे जुड़े अलग-अलग प्रकार के ट्रीटमेंट से भी लोग वाकिफ नहीं हैं. इसके साथ ही आजकल गली-मोहल्लों में तेजी से खुल रहे आईवीएफ सेंटर्स में ठगे जाने के बाद कई दम्पत्ति निराश हो जाते हैं. आईवीएफ और उससे जुड़ी तकनीकी बातों पर डा. अर्चना धवन बजाज ने दिल्ली प्रेस की एसोसिएट एडिटर नसीम अंसारी कोचर से विस्तृत बातचीत की और आईवीएफ के बारे में विस्तृत जानकारी दी.

आईवीएफ क्या है?

आईवीएफ मतलब इन विट्रो फर्टिलाइजेशन अर्थात जो काम शरीर के अन्दर नहीं हो पा रहा है, उसको लैब में टेस्ट्यूब में सम्पन्न कराया जाता है और इस तरह एक महिला को मां बनने का सुख हासिल होता है. आमभाषा में इसको टेस्ट्यूब बेबी कहते हैं. महिलाएं कई कारणों से मां नहीं बन पाती हैं, जैसे उनकी फेलोपियन ट्यूब बंद हो या यूटेसर सम्बन्धी कोई रोग हो, या अनियमित मासिक हो अथवा कोई अन्य वजह हो, तो ऐसी महिला को हारमोंस के इंजेक्शन देकर हम उसके गर्भाशय में अंडे बनने की प्रक्रिया को तेज करते हैं. तैयार अंडों को ओवरी से बाहर निकाल कर लैबोरेटरी में उसके पति के स्पर्म के साथ फर्टीलाइज कराके एम्ब्रियो तैयार किया जाता है और तीन या पांच दिन के एम्ब्रियो को महिला की बच्चेदानी में डाल दिया जाता है. जब गर्भाशय की दीवार से एम्ब्रियो एटैच होकर मल्टीप्लाई करने लगता है तब कहते हैं कि महिला को गर्भ ठहर गया है. हम एक बार में ही दो या तीन एम्ब्रियो गर्भाशय में डालते हैं, ताकि गर्भ धारण में आसानी हो, लेकिन महिला की उम्र यदि ज्यादा है, अथवा अंडो की क्वालिटी बहुत अच्छी नहीं है, अथवा वह पहले भी आईवीएफ करवा चुकी है और वह फेल हो चुका है तो हम पांच या छह एम्ब्रियो भी डालते हैं ताकि गर्भधारण की सम्भावना बढ़ जाए.

आईवीएफ ट्रीटमेंट में कितना वक्त लगता है?

एक आईवीएफ साइकल को पूरा होने में बीस से पच्चीस दिन लगते हैं. ये निर्भर करता है महिला के अंडो की क्वालिटी पर भी. यदि क्वालिटी अच्छी नहीं है तो हम क्वालिटी इम्प्रूव करने के लिए कुछ दवाएं देते हैं. ऐसे में कुछ अधिक समय लग सकता है.

आईवीएफ द्वारा गर्भधारण करने के उपरान्त डिलीवरी नौरमल होती है अथवा सिजेरियन से बच्चा पैदा होता है. 

इस बारे में कोई हार्ड एंड फास्ट रूल नहीं है. यह पेट के अन्दर बच्चे की कंडीशन पर निर्भर करता है. यदि बच्चे की पोजिशन गर्भाशय में बिल्कुल ठीक है, ब्लड सप्लाई ठीक है, बच्चे के आसपास द्रव्य बेहतर है, तो नौरमल डिलीवरी भी होती है. लेकिन यदि किसी तरह की दिक्कत है, बच्चा आड़ा है, उसका वजन ज्यादा है, या जुड़वां बच्चे हैं तो आमतौर पर महिलाएं किसी तरह का रिस्क नहीं लेना चाहती हैं, इसलिए सिजेरियन कराना ही पसन्द करती हैं. आईवीएफ के जरिये बच्चा पाना किसी भी दम्पत्ति के लिए फाइनेंशियल और इमोशनल मैटर होता है, इसलिए वह बच्चे के जन्म के वक्त किसी तरह की परेशानी नहीं चाहते हैं. वे चाहते हैं कि उनका बच्चा बिल्कुल सेफ रहे, अत: ज्यादातर दम्पत्ति सिजेरियन द्वारा ही बच्चे को जन्म देने के इच्छुक होते हैं.

आईवीएफ से पहला बच्चा पाने वाली महिला को क्या भविष्य में नौरमल प्रेग्नेंसी भी ठहर सकती है? 

हां बिल्कुल हो सकती है. दरअसल आईवीएफ ट्रीटमेंट के दौरान महिला को जो दवाएं मिलती हैं, उससे गर्भाशय में अंडों की क्वालिटी अच्छी हो जाती है. इसलिए ऐसा हो सकता है कि बाद में वह नॉरमल तरीके से भी गर्भ धारण कर ले. ऐसे बहुत से उदाहरण मेरे सामने आये हैं.  कभी-कभी ये पता नहीं चलता कि गर्भधारण क्यों नहीं हो रहा है. ऐसी स्थिति में अगर पहला बच्चा आईवीएफ से हुआ है तो बहुत सम्भव है कि दूसरी बार महिला नौरमल तरीके से ही गर्भ धारण कर ले.

अगर एक बार में गर्भाशय में दो से चार एम्ब्रियो डाले जाते हैं तो क्या जुड़वा या इससे ज्यादा बच्चे होने की सम्भावना नहीं होती?

जी हां, बिल्कुल होती है. दो या कई बार तीन बच्चे भी हो जाते हैं. कई कपल्स तो इस बात से बहुत खुश होते हैं कि उनका परिवार एक ही बार के एफर्ट में पूरा हो गया. मगर कई बार आर्थिक रूप से कमजोर दम्पत्ति दो या तीन बच्चे होने पर उतनी खुशी व्यक्त नहीं कर पाते. इसके अलावा एक परेशानी बच्चे की सेहत को लेकर भी होती है. यदि तीन बच्चे मां के गर्भ में हैं तो आमतौर पर उनका वजन कम होता है. कभी-कभी डिलिवरी वक्त से पहले हो जाती है. ऐसे में जन्म के उपरान्त बच्चों को लम्बे समय तक इंटेंसिव केयर यूनिट में रखना पड़ता है, जिसके कारण दम्पत्ति पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ता है.

कम से कम और अधिक से अधिक कितनी उम्र की महिलाएं आईवीएफ के लिए आपके पास आती हैं? 

अधिक से अधिक मैंने पैंसठ साल की महिला का आईवीएफ किया है. वह बच्चा पाकर बहुत खुश हुई थीं. मगर इस उम्र में आईवीएफ कराने की राय मैं नहीं देती हूं. क्योंकि जब आप पच्हत्तर साल के होंगे, तब आपका बच्चा सिर्फ दस साल का होगा. ऐसे में उसकी देखभाल, शिक्षा और अन्य जिम्मेदारी आप किसके कंधे पर डाल कर जाएंगे? फिर साठ या पैंसठ साल की उम्र में महिलाओं का शरीर काफी कमजोर हो चुका होता है. अंडों की क्वालिटी भी अच्छी नहीं रहती. ऐसे में होने वाले बच्चे में भी स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियां पैदा हो सकती हैं. वह मानसिक रूप से कमजोर हो सकता है. इसलिए मेरा मानना है कि अगर शादी के सात से दस साल के अन्दर आप मां नहीं बन पायी हैं तो पैंतीस से पैंतालीस साल के बीच आपको आईवीएफ करवा लेना चाहिए. इस उम्र में महिला शारीरिक रूप से भी तंदरुस्त होती है और मानसिक रूप से भी. वहीं कम उम्र में आईवीएफ उसी हालत में कराना चाहिए जब गर्भाशय सम्बन्धित कोई सीरियस प्रौब्लम महिला को हो, या उसकी फेलोपियन ट्यूब ही पूरी तरह से बंद हो. ऐसे में आईवीएफ ही गर्भधारण का एक रास्ता बचता है.

आईवीएफ ट्रीटमेंट के दौरान पेशंट को काफी इंजेक्शन्स लगते हैं. इसके क्या साइड इफेक्ट होते हैं और यह कितने वक्त तक बने रहते हैं?

किसी भी तरह के रसायन का प्रयोग शरीर पर होता है तो कुछ साइड इफेक्ट तो होते ही हैं. आईवीएफ ट्रीटमेंट के बाद भी ऐसा होता है. मगर यह कोई गम्भीर समस्या नहीं है. आमतौर पर औरतों का वजन बढ़ना, बे्रस्ट का साइज बढ़ना, चिड़चिड़ाहट, थकान, एक्ने या पति के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने में दिलचस्पी न होना जैसी समस्याएं होती हैं, मगर यह थोड़े वक्त का ही असर है. कभी-कभी ऐसा होता है कि गर्भाशय में बहुत ज्यादा अंडे बनने से पेट में पानी भर जाता है. इस तरह का साइड इफेक्ट खत्म होने में थोड़ा वक्त लगता है और इसका ट्रीटमेंट करना पड़ता है. आजकल हॉरमोंस के लिए जो इंजेक्शन यूज हो रहे हैं, वह नेचुरल बॉडी हॉरमोंस से बहुत ज्यादा मिलते-जुलते हैं, जिससे साइड इफेक्ट की समस्या अब काफी कम हो गयी है.

आईवीएफ ट्रीटमेंट अभी भी आम जनता के लिए काफी मंहगा है, जिसके चलते कई दम्पत्ति माता-पिता बनने की खुशी से वंचित रह जाते हैं. क्या आपके ‘द नर्चर आईवीएफ क्लिनिक’ में आर्थिक रूप से कमजोर दम्पत्तियों के लिए कुछ विशेष छूट है?

हमारे सेंटर की पौलिसी है कि हम ‘नो प्रोफिट-नो लौस’ के सिद्धान्त पर चलते हैं. कई फार्मास्यूटिकल कम्पनियां हमारे उद्देश्यों को पूरा करने में हमारी मदद भी करती हैं. हम आर्म्ड फोर्सेस, पैरा मिलिटरी फोर्सेस या एलाइड सर्विस के लोगों को काफी छूट देते हैं. जो पेशंट आर्थिक रूप से कमजोर हैं हमारी कोशिश होती है कि कम से कम खर्च में हम उनको मां-बाप बनने की खुशी दे सकें.

आईवीएफ की सफलता की दर कितनी है?

आईवीएफ की सक्सेस रेट पर अलग-अलग डौक्टर्स की राय अलग-अलग है. मैं मानती हूं कि आईवीएफ चालीस प्रतिशत तक सफल रहता है. साठ फीसदी महिलाओं को पहली बार में गर्भ नहीं ठहरता है और उन्हें दो या तीन बार इस प्रौसेस से गुजरना पड़ता है. इसके कई कारण है. इसमें अगर महिला की उम्र बहुत ज्यादा है, उसका वजन बहुत ज्यादा है, गर्भाशय में प्रौब्लम है, अंडों की क्वालिटी खराब है, मेंटल स्थिति कमजोर है या वह कई बार आईवीएफ ट्रीटमेंट से गुजर चुकी है तो पहली बार में आईवीएफ सफल होना मुश्किल होता है.

जिस तरह से देश में आईवीएफ सेंटर्स गली-मोहल्लों में खुल रहे हैं, उनकी विश्वसनीयता कितनी है?

किसी भी चीज की सफलता निर्भर करती है कि आप कितना डिलिवर कर रहे हैं. आपका आउटपुट कितना है. अगर छोटे आईवीएफ सेंटर में भी अत्याधुनिक मशीनों पर काम हो रहा है तो उसकी सफलता निश्चित है. देखना पड़ता है कि वहां डॉक्टर कितना समझदार है, उसकी क्वालिफिकेशन क्या है, उसकी सफलताएं क्या हैं, वह अपने पेशंट्स के प्रति कितना डेडिकेटेड है, उसकी लैब कैसी है, एम्ब्रियोलोजिस्ट कैसा है. एक छोटी सी जगह में भी एक अच्छी साफ-सुथरी, अत्याधुनिक यंत्रों से सुसज्जित लैब रख कर हम वही  रिजल्ट प्राप्त कर सकते हैं जैसे बड़े क्लीनिक में मिलते हैं. मेरा कहने का आशय है कि जगह महत्वपूर्ण नहीं है, सुविधाएं महत्वपूर्ण हैं. जिनकी छानबीन कर लेनी चाहिए.

संक्षिप्त परिचय

‘द नर्चर आईवीएफ क्लिनिक’ की निदेशक डा. अर्चना धवन बजाज डा. अर्चना धवन बजाज बांझपन उपचार और आईवीएफ के क्षेत्र में एक जाना-माना नाम हैं. चिकित्सा के क्षेत्र में एमबीबीएस, डीजीओ, डीएनबी और एमएनएएस की डिग्रियां हासिल करने के बाद उन्होंने यूके स्थित नाटिंघम विश्वविद्यालय से मेडिकल रिप्रोडक्टिव टेक्नोलौजी में मास्टर्स डिग्री प्राप्त की है. वे हैचिंग, वीर्य भू्रण के संरक्षण, ओवरियन कौर्टिकल पैच, क्लीवेज स्टेज भ्रूण पर ब्लास्टमोर बायोप्सी और ब्लास्टक्रिस्ट की अग्रणी विशेषज्ञ हैं. दिल्ली में नर्चर आईवी क्लिनिक की निदेशक के तौर पर काम करते हुए डा. बजाज ने स्त्रीरोग विशेषज्ञ, एक परामर्शदाता, प्रसूति विशेषज्ञ और फर्टिलिटी एंड आईवीएफ विशेषज्ञ के तौर पर विशेष ख्याति पायी हैं.

करियर और लव लाइफ को बैलेंस करने में हो रही है परेशानी, तो अपनाएं ये 5 टिप्स

Tips to Balance Career and Love : अपने पार्टनर के साथ एक मजबूत और सुखी रिश्ता बनाना साथ ही अपने करियर को भी महत्व देना काफी मुश्किल होता है. खासतौर पर जब आप दोनों ही कामकाजी हैं. व्यस्त दिनचर्या,  बड़े लक्ष्य, अनगिनत प्रोजेक्ट्स और बहुत कुछ इन सभी के कारण आपका सम्बंध प्रभावित होने लगता है जिसके कारण आपके रिश्ते में तनाव बन सकता है. जब आप अपने करियर को काफी अहमियत देते हैं तो एक स्वस्थ रिश्ते को बनाएं रखने के लिए आपको अलग से प्रयास करने होते हैं. पूरे दिन काम करने के बाद अपने साथी के साथ आराम करने और बात करने के लिए समय निकालना भी जरुरी है. अगर आप भी अपने कैरियर और प्यार के बीच संतुलन बनाना चाहते हैं तो ये टिप्स काम आ सकते हैं.

  1. छोटी-छोटी चीजें एक साथ करें

ऐसा जरुरी नहीं है कि आप अपने साथी के साथ समय बिताने के लिए लंच प्लान करें या फिल्म देखने ही जाएं. आप अपने साथी के साथ अपना सारा समय व्यतीत नहीं कर पा रहे हैं तो इसका मतलब ये नहीं है कि आप जिस समय में उनके साथ है वो बिल्कुल परियों की कहानी जैसा हो. छोटी चीजें भी आपको खुशी दे सकती है. जब आपके पास ऑफिस के ढेर सारे काम होंगे तो आप कुछ विशेष योजना बना पाएं ये थोड़ा मुश्किल है. इसलिए जरुरी है कि जब भी आप साथ में हैं तो हर मिनट को महसूस करें. एक साथ भोजन करें, घर की सफाई करते वक्त या खाना बनाते वक्त आप एक-दूसरे को समय दें. ये छोटी चीजें आपको बेफिजूल लग सकती हैं लेकिन जब आपके पास समय कम हो तो है तो यह अपने साथी से जुड़ने का यह अच्छा तरीका है.

  1. बिना शर्त के सपोर्ट करें

अपने ऑफिस में पूरे दिन काम करने के बाद अपने पति या पत्नी के करियर में रुचि दिखाना मुश्किल हो सकता है लेकिन यह जरुरी है कि आप अपने साथी के करियर से संबंधित बातचीत करें. इस बातचीत के जरिए आप उन्हें बता पाएंगे कि आप उनके काम और करियर को सपोर्ट करते हैं. उन्हें बताएं कि आप उनके लिए हमेशा मौजूद हैं और बिना शर्त उनके काम को अपना समर्थन देते हैं. अगर आप ऐसा नहीं करते हैं तो आपके साथी के मन में असंतोष की स्थिति पैदा हो सकती है. जिससे आपके रिश्ते और करियर के बीच संतुलन बनाना मुश्किल हो जाएगा.

  1. हद से ज्यादा उम्मीदें ना करें

जब आप दोनों कामकाजी है तो आप समझ सकते हैं कि ऑफिस के बाद सम्बंध को संभालना कितना मुश्किल है. इसलिए जरुरी है कि आप अपने साथी से अधिक उम्मीदें ना बांधे क्योंकि समय के अभाव में अगर वो पूरा नहीं कर पाएंगे तो आपको बुरा लगेगा और आपका दिल टूट जाएगा. आपके लिए बेहतर होगा ऐसा सोचना बंद करें कि आपका साथी आपके लिए कोई डेट, होलीडे या पार्टी प्लान करें. अगर वो ऐसा नहीं करेगा तो आपको दुख और निराशा होगी. ये सब मैनेज करने के लिए आपके साथी को समय की जरुरत होगी और वो उनके पास नहीं है. ऐसा नहीं है कि आप उम्मीदें ही ना करें. सोचने की बजाय उनसे बात कर लें कि आप क्या चाहते हैं.

  1. कोई भी फैसला लेने से पहले साथी को बताएं

अगर आप कोई भी फैसला लेते हैं तो इसके लिए दो स्टेप जरुरी है. पहला आप इसके बारे में सोचे और फिर अपने साथी से बात करें. अब आप जीवन में स्वतंत्र रूप फैसले नहीं ले सकते हैं चाहे फिर आप कितने भी बुद्धिमान क्यों ना हों. आपका हर एक व्यक्तिगत फैसला आपके साथी पर भी असर डालेगा. आपको जानने की जरुरत है कि आपका कोई भी फैसले के बारे में आपका पार्टनर क्या सोचता है. जैसे आप जॉब छोड़ने या बदलने की सोच रहे हैं तो इसके बारे में अपने साथी से बात कर लें. हो सकता ऐसे में आपको शहर बदलना पड़े या नई जगह जाना पड़े तो इसका प्रभाव आपके साथी पर भी होगा.

5. जिम्मेदारियां बांट लें

एक रिश्ते में सामंजस्य बिठाना बहुत जरुरी है. अगर आपको रिश्ते में समझौते करने पड़ रहे हैं तो ध्यान रखें कि मिलकर समझौते करें. काम के साथ अपने रिश्ते की जिम्मेदारियों को समझें. खासकर तब जब आप शादीशुदा हैं, एक साथ रहते हैं, आपके बच्चे हैं. ऑफिस जाने के साथ खाना पकाना, बच्चों को स्कूल ले जाना लेकर आना, घर के कामकाज आदि जिम्मेदारियां एक ही व्यक्ति पर ना डालें. आपके रिश्ते में कोई भी एक व्यक्ति सभी समझौते करने के लिए तैयार नहीं होगा. इसलिए सही ढंग से फैसला लें. अधिक कुशलता से काम करें और सबसे महत्वपूर्ण हैं कि हमेशा एक साथ काम करें.

एक साथी की तलाश : आखिर मधुप और बिरुवा का रिश्ता था क्या ? – भाग 5

‘‘आप…’’ वह प्रत्यक्ष बोली.

‘‘हां श्यामला, मैं… इतने वर्षों बाद,’’ उसे देख कर वे एकाएक कातर हो गए थे, ‘‘तुम्हें लेने आया हूं,’’ वे बिना किसी भूमिका के बोले, ‘‘वापस चलो, मुझ से जो गलती हुई है उस के लिए मुझे क्षमा कर दो. मैं समझ नहीं पाया तुम्हें, तुम्हारी परेशानियों को, तुम्हारे अंतर्द्वंद्व को.’’

श्यामला अपलक उन्हें निहारती रह गई. शब्द मानो चुक गए थे. बहुतकुछ कहना चाहती थी. पर समझ नहीं पा रही थी कि कहां से शुरू करे. किसी तरह खुद को संयत किया. थोड़ी देर बाद बोली, ‘‘इतने वर्षों बाद गलती महसूस हुई आप को जब खुद को जरूरत हुई पत्नी की. लेकिन जब तक पत्नी को जरूरत थी? आखिर मैं सही थी न, कि आप ने हमेशा खुद से प्यार किया. लेकिन मेरे अंदर अब आप के लिए कुछ नहीं बचा, अब मेरे दिल को किसी साथी की तलाश नहीं है.

‘‘जिन भावनाओं को, जिन संवेदनाओं को जीने की इतनी जद्दोजेहद थी मेरे अंदर, वह सब तो कब की मर चुकी है. फिर अब क्यों आऊं आप के बाकी के जीवन जीने का साधन बन कर? मुझे अब आप की जरूरत नहीं है. मैं अब नहीं आऊंगी.’’

‘‘नहीं श्यामला,’’ मधुप ने आगे बढ़ कर श्यामला की दोनों हथेलियां अपने हाथों में थाम लीं, ‘‘ऐसा मत कहो, साथी की तलाश कभी खत्म नहीं होती. हर उम्र, हर मोड़ पर साथी के लिए तनमन तरसता है, पशुपक्षी भी अपने लिए साथी ढूंढ़ते हैं. यही प्रकृति का नियम है. मुझ से गलती हुई है. इस के लिए मैं तुम से तहेदिल से क्षमा मांग रहा हूं. इस बार तुम नहीं, मैं आऊंगा तुम्हारे पास. इस बार तुम मेरे सांचे में नहीं, बल्कि मैं तुम्हारे सांचे में ढलूंगा, संवेदनाएं और भावनाएं कभी मरती नहीं हैं श्यामला, बल्कि हमारी गलतियों व उपेक्षाओं से सुप्तावस्था में चली जाती हैं, उन्हें तो बस जगाने की जरूरत है. अपने हृदय से पूछो, क्या तुम सचमुच मेरा साथ नहीं चाहतीं, सचमुच चाहती हो कि मैं चला जाऊं…’’

श्यामला चुपचाप डबडबाई आंखों से उन्हें देखती रह गई. कितने बदल गए थे मधुप. समय ने, अकेलेपन ने उन्हें उन की गलतियों का एहसास करा दिया था. पतिपत्नी में से अगर एक अपनी मरजी से जीता है तो दूसरा दूसरे की मरजी से मरता है.

‘‘बोलो श्यामला,’’ मधुप ने श्यामला को कंधों से पकड़ कर धीरे से हिलाया, ‘‘मैं अब तुम्हारे पास आ गया हूं और अब लौट कर नहीं जाऊंगा,’’ मधुप पूरे विश्वास व अधिकार से बोले.

लेकिन श्यामला ने धीरे से उन के हाथ कंधों से अलग कर दिए. ‘‘अब मुझ से न आया जाएगा मधुप. मेरे जीवन की धारा अब एक अलग मोड़ मुड़ चुकी है, कितनी बार जीवन में टूटूं, बिखरूं और फिर जुड़ूं, मुझ में अब ताकत नहीं बची. मैं ने अपने जीवन को एक अलग सांचे

में ढाल लिया है जिस में अब आप के लिए कोई जगह नहीं. मैं अब नहीं आ पाऊंगी. मुझे माफ कर दो,’’ कह कर श्यामला दूसरे कमरे में चली गई. स्पष्ट संकेत था उन के लिए कि वे अब जा सकते हैं. मधुप भौचक्के खड़े, पलभर में हुए अपनी उम्मीदों के टुकड़ों को बिखरते महसूस करते रहे. फिर अपना बैग उठा कर बाहर निकल गए वापस जाने के लिए. बेटे के आने का भी इंतजार नहीं किया उन्होंने.

जयपुर से वापसी का सफर बेहद बोझिल था. सबकुछ तो उन्होंने पहले ही खो दिया था. एक उम्मीद बची थी, आज वे उसे भी खो कर आ गए थे. घर पहुंचे तो उन्हें अकेले व हताश देख कर बिरुवा सबकुछ समझ गया. कुछ न पूछा. चुपचाप से हाथ से बैग ले कर अंदर रख आया और किचन में चाय बनाने चला गया.

उधर श्यामला खिड़की के परदे के पीछे से थके कदमों से जाते मधुप को  देखती रही थी, जब तक वे आंखों से ओझल नहीं हो गए थे. दिल कर रहा था दौड़ कर मधुप को रोक ले लेकिन कदम न बढ़ पा रहे थे. जो गुजर चुका था, वह सबकुछ याद आ रहा था.

मधुप चले गए, लेकिन श्यामला के दिल का नासूर फिर से बहने लगा. रात देर तक बिस्तर पर करवट बदलते हुए सोचती रही कि जिंदगी मधुप के साथ अगर बोझिलभरी थी तो उन के बिना भी क्या है. क्या एक दिन भी ऐसा गुजरा जब उस ने मधुप को याद न किया हो. उस के मधुप से अलग होने के निर्णय का दर्द बच्चों ने भी भुगता था. बच्चों ने भी तब कितना चाहा था कि वे दोनों साथ रहें. अपने विवाह के बाद ही बच्चे चुप हुए थे. पर पता नहीं कैसी जिद भर गई थी उस के खुद के अंदर. और मधुप ने भी कभी आगे बढ़ कर अपनी गलती मानने की कोशिश नहीं की. उन दोनों का सारा जीवन यों वीरान सा गुजर गया. जो मधुप आज महसूस कर रहे हैं, काश, यही बात तब समझ पाते तो उन की जिंदगी की कहानी कुछ और ही होती.

लेकिन अब जो तार टूट चुके हैं, क्या फिर से जुड़ सकते हैं और जुड़ कर क्या उतने मजबूत हो सकते हैं. एक कोशिश मधुप ने की, एक कदम उन्होंने बढ़ाया तो क्या एक कोशिश उसे भी करनी चाहिए, एक कदम उसे भी बढ़ाना चाहिए. कहीं आज निर्णय लेने में उस से कोई गलती तो नहीं हो गई. इसी ऊहापोह में करवटें बदलते सुबह हो गई.

पूरी रात वह सोचती रही थी, फिर अनायास ही अपना बैग तैयार करने लगी. उस को तैयारी करते देख बेटेबहू आश्चर्यचकित थे पर उन्होंने कुछ न पूछना ही उचित समझा. मन ही मन सब समझ रहे थे. खुशी का अनुभव कर रहे थे. श्यामला जब जाने को हुई तो बेटे ने साथ में जाने की पेशकश की. पर श्यामला ने मना कर दिया.

उधर, उस दिन जब दोपहर को सोए हुए मधुप की शाम को नींद खुली तो वह शाम और दूसरी शाम की तरह ही थी, पर पता नहीं मधुप आज अपने अंदर हलकी सी तरंग क्यों महसूस कर रहे थे. तभी बिरुवा चाय बना कर ले आया. उन्होंने चाय का पहला घूंट भरा ही था कि डोरबेल बज उठी.

‘‘देखना बिरुवा, कौन आया है?’’

‘‘अखबार वाला होगा, पैसे लेने आया होगा. शाम को वही आता है,’’ कह कर बिरुवा बाहर चला गया. लेकिन पलभर में ही खुशी से उमंगता हाथ में बैग उठाए अंदर आ गया. मधुप आश्चर्य से उसे देखने लगे, ‘‘कौन है बिरुवा, कौन आया है और यह बैग किस का है?’’

‘‘बाहर जा कर देखिए साहब, समझ लीजिए पूरे संसार की खुशियां चल कर आ गई हैं आज दरवाजे पर,’’ कह कर बिरुवा घर में कहीं गुम हो गया. वे जल्दी से बाहर गए, देखा, दरवाजे पर श्यामला खड़ी थी. वे आश्चर्यचकित, किंकर्तव्यविमूढ़ से उसे देखते रह गए.

‘‘श्यामला तुम.’’ उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था.

‘‘हां मैं,’’ वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘अंदर आने के लिए नहीं कहोगे?’’

‘‘श्यामला,’’ खुशी के अतिरेक में उन्होंने आगे बढ़ कर श्यामला को गले लगा लिया, ‘‘मुझे माफ कर दो.’’

‘‘बस, अब कुछ मत कहो. आप भी मुझे माफ कर दो. जो कुछ हुआ वह सब भूल कर आई हूं.’’

दोनों थोड़ी देर एकदूसरे को गले लगाए ऐसे ही खड़े रहे. तभी पीछे कुछ आवाज सुन कर दोनों अलग हुए, मुड़ कर देखा तो बिरुवा फूलों के हार लिए खड़ा था. मधुप और श्यामला दोनों हंस पड़े.

‘‘आज तो बहुत खुशी का दिन है, साहब.’’

‘‘हां बिरुवा, क्यों नहीं. आज मैं तुम्हें किसी बात के लिए नहीं रोकूंगा,’’ कह कर मधुप श्यामला की बगल में खड़े हो गए और बिरुवा ने उन दोनों को एकएक हार थमा दिया. दोनों आज खुशी का हर पल जीना चाहते थे. बहुत वक्त गंवा चुके थे, पर अब नहीं. बस अब और नहीं.

मन के दीये : राधिका की उदासी का क्या कारण था ?

राधिका बैड के सामने खुलने वाली खिड़की से दिखाई देने वाले उस बंद गेट को मायूसी से देख रही थीं जहां से उन के बेटे उन्हें यहां परायों की भीड़ में शामिल करवा गए थे. उन का चुप रहना, खाने की प्लेट को बिन छुए सरका देना, बैड पर पड़ेपड़े कमरे की छत को देखते रहना जैसे यहां रहने वालों के लिए खास माने नहीं रखता था. 5 दिन से राधिका ऐसी ही गुमसुम थीं, कभी उठ कर बस नहाधो लेतीं, कभी चुपचाप खड़ी बाहर देखती रहतीं. किसी ने उन से बात करने की कोशिश की भी तो उन्होंने मुंह फेर लिया था. किसी ने उन्हें आग्रहपूर्वक कुछ खिलाने की कोशिश की भी तो यह सबकुछ राधिका को सहज नहीं कर पाया था. छठे दिन वे चुपचाप लेटी छत निहार रही थीं कि जैसे कमरे के शांत वातावरण में उत्साहित स्वर गूंज उठा, ‘‘राधिका, तुम्हें रंगोली बनानी आती है? कुछ ही दिनों बाद दीवाली है, सारा काम पड़ा है.’’

राधिका चुप रहीं.

नंदिनी हंसीं, ‘‘गूंगी हो क्या?’’

राधिका करवट बदल कर लेट गईं. उन का जरा भी मन नहीं हुआ जवाब देने का. फिर नंदिनी उन्हें कंधे से सीधा करती हुई बोलीं, ‘‘अरे सौरी, मैं ने अपना परिचय तो दिया ही नहीं. मैं नंदिनी, तुम्हारी रूममेट, यह दूसरा बैड मेरा ही है.’’ राधिका ने अब भी कुछ न कहा तो नंदिनी उन्हें ध्यान से देखते हुए अपना बैड और सामान ठीक करने लगीं. सुबह हुई, राधिका ने नंदिनी पर जैसे ही नजर डाली, नंदिनी ने कहा, ‘‘गुडमौर्निंग राधिका, आंखों से लग रहा है रात को सोईं नहीं ठीक से.’’ राधिका ने जवाब तो नहीं दिया, आंखें भरती चली गईं, बस जैसे खुद से मन ही मन बात की, कैसे आए नींद, जीवन भर पति और दोनों बेटों के आगेपीछे घूमती रही, पति अचानक साइलैंट हार्टअटैक में चले गए तो दोनों बेटों की गृहस्थी के कामों में लगा दिया खुद को, पोतेपोतियों, भरेपूरे परिवार की मालकिन आज मैं यहां पड़ी हूं, इन परायों के बीच, इस वृद्धाश्रम में. क्या गलती की मैं ने, विदेश जाते हुए दोनों ने घर बेच कर मुझे यहां छोड़ दिया, वीजा की समस्या का यही हल ढूंढ़ा उन्होंने, नहीं, वीजा का बहाना था. एक बार भी नहीं सोचा मैं कैसे रहूंगी परायों के बीच.

संतान का मोह भी कैसा मोह है जिस के सामने सभी मोह हथियार डाल देते हैं परंतु यही संतान कैसे इतनी निर्मोही हो जाती है कि अपने मातापिता का मोह भी उसे बंधन जान पड़ता है और वह इस स्नेह और ममता के बंधन से मुक्त हो जाना चाहती है. पिछली दीवाली पर चारों पोतेपोतियों के साथ कितना अच्छा लगा था. कहां विलुप्त हो गए वे क्षण. किस जादूगर ने अपनी छड़ी घुमा कर समेट लिए. सब मेरे साथ ही रहने आ गए थे. वह तो बाद में पता चला कि मकान बेच कर साथ रहने का जो सपना मुझे दिखाया था उस में सिर्फ उन का स्वार्थ और छल था. राधिका बेजान बुत बन कर पड़ी बस, यही सोचे जा रही थीं कि जब बेटे छोटे थे तब उन्हें मातापिता की जरूरत थी. तब हम उन पर स्नेह और ममता लुटाते रहे और उम्र के इस पड़ाव पर जब मुझे उन की जरूरत है तो वे इतने स्वार्थी हो गए कि उन के बुढ़ापे को बोझ समझ कर अकेले ही उसे ढोने के लिए छोड़ दिया, अपनी मां को अकेले, बेसहारा छोड़ देने में उन्हें जरा भी हिचकिचाहट नहीं हुई? उन के दिल पर पड़े फफोले अचानक फूट पड़े, वे जोरजोर से रोने लगीं. नंदिनी ने उन्हें सहारा दे कर बिठाया, उन्हें गले से लगा कर चुप करवाया, फिर बहुत ही स्नेह से कहा, ‘‘चुप हो जाओ, राधिका, तुम फ्रैश हो जाओ, मैं तुम्हारे लिए चाय यहीं लाती हूं, लेकिन बस आज, कल से वहीं सब के साथ पीनी है.’’

राधिका ने पहली बार आंसुओं से भरी आंखें उठा कर नंदिनी को देखा, उस से उम्र में बड़ी ही थीं वे, शांत चेहरा, कोमल स्नेहिल स्पर्श, वे अचानक छोटी बच्ची की तरह नंदिनी से लिपट गईं और कई दिनों से उन के दुखी मन का विलाप नंदिनी के स्नेहिल आगोश में सिमटता चला गया. उसी शाम को राधिका आश्रम की एक बेंच पर चुपचाप बैठी दूर से ही नंदिनी और बाकी रहने वालों को अंत्याक्षरी खेलते देख रही थीं. नंदिनी के स्वर में स्नेहभरा आदेश था जिसे वे चाह कर भी नकार नहीं पाई थीं और अब सब को हंसतेमुसकराते देख रही थीं और सोच रही थीं कि अपने घर व बच्चों से दूर ये लोग इतना खुश किस बात पर हो रहे हैं, क्या बच्चों की याद इन्हें नहीं आती? पुरुषस्त्रियां सब दिल खोल कर गा रहे थे. अब तक राधिका को पता चल गया था, नंदिनी को सब यहां दीदी ही कहते हैं, वे ही यहां उम्र में सब से बड़ी थीं और हैरत की बात यह थी कि वे ही सब से चुस्त और खुशमिजाज थीं. फिर नंदिनी उठ कर राधिका के पास ही बैठ गईं, पूछा, ‘‘राधिका, क्या सोच रही हो?’’

‘‘यही कि मैं ने क्या गलती की जो मेरे बेटे मुझे यहां छोड़ गए. मैं ने अपने पति का बनाया हुआ इतना सुंदर घर अपने बेटों के कहने पर बेच दिया.’’ ‘‘हां, यही गलती तो की तुम ने. मेरे पति ने अपनी बीमारी के अंतिम दिनों में बैंक में घर गिरवी रख दिया था, इस बात पर दोनों बेटे नाराज भी हुए पर बैंक ही हर महीने अच्छा पैसा देता है मुझे. जब मन होता है घर भी चली जाती हूं, उस घर में मैं ने भी सारी उम्र बिताई है. वहां रहने में अलग ही खुशी मिलती है मुझे पर अकेलापन तो वहां भी है. जब तुम आईं, मैं वहीं गई हुई थी. दीवाली पर वहां की भी थोड़ी सफाई करवा लेती हूं.’’ नंदिनी इधरउधर घूम कर सब के साथ मिल कर दीवाली की साफसफाई करवाने लगीं. मुंबई के ठाणे में ‘यऊर हिल’ के पास यह ‘स्नेह कुटीर’ बनी थी. हर तरफ हरियाली ही हरियाली थी. शहर के शोरशराबे से दूर शांत जगह ऐसा लगता था मानो कोई हिल स्टेशन है, फिर राधिका को यह भी पता चला कि यह ‘स्नेह कुटीर’ नंदिनी ने ही बनवाई है. वे मुंबई यूनिवर्सिटी में ही प्रोफैसर रही हैं, खुश रहती हैं, सब को खुश रहना ही सिखाती हैं.शाम को टहलते हुए नंदिनी ने कहा, ‘‘राधिका, तुम से पूछा था मैं ने, रंगोली बनानी आती है क्या?’’

‘‘मेरा त्योहार मनाने का कोई दिल नहीं है, बच्चों से दूर वृद्धाश्रम में कैसा त्योहार?’’

‘‘मेरी ‘स्नेह कुटीर’ को वृद्धाश्रम क्यों कह रही हो? यहां सब को एकदूसरे का स्नेह मिलता है, खूब महफिलें जमती हैं, यहां बस स्नेह ही लेना है, स्नेह ही बांटना है,’’ कहतेकहते नंदिनी राधिका का हाथ पकड़ कर उसे हौल में ले आईं, वहां भी कोई कह रहा था :‘‘हमेशा बच्चों की हर फरमाइश पूरी की और यही कहते रहे कि सब तुम्हारा ही है.’’

एक स्त्री ने हंसते हुए छेड़ा, ‘‘बस, उन्होंने सब ले लिया.’’ पहले बोलने वाले पुरुष को भी हंसी आ गई थी. राधिका चुपचाप बातें सुन रही थीं. नंदिनी ने उन्हें वहीं एक कुरसी पर बिठा दिया, फिर कहने लगीं, ‘‘यहां अपनी उम्र के लोगों से बात कर के एक अजीब सा सुकून मिलता है. एक जैसी समस्याएं, एक जैसी खुशियां, सबकुछ शेयर करना बहुत अच्छा लगता है. ऐसा लगता है हम अकेले नहीं हैं, हम एकदूसरे के दर्द को आसानी से समझ सकते हैं. सामने वाले के पास हमारी बात को सुनने का समय है, वह हमें गंभीरता से ले रहा है, यह एहसास ही इस उम्र में खासा सुकून देने वाला है,’’ कह कर नंदिनी ने राधिका का कंधा थपथपाया.

राधिका ने उन्हें देखा, आंखों की आंखों से बात हुई मानो मौन ही मुखर हो कर भावनाओं को बांच रहा हो. इतने में सामने बैठे एक शख्स ने कहा, ‘‘और बेटों के साथ रहने से रहने के अलावा कौन सा संरक्षण मिल रहा था मुझे. अवांछित सा इधरउधर घूमता रहता था. और अगर वे अच्छे भी होते तो क्या हो जाता, मेरे पास रातदिन तो न बैठे रहते न. उन की भी पत्नी है, बच्चे हैं, वहां भी अकेले ही खाता था. यहां तो सब के साथ हंसतेबोलते खाता हूं,’’ फिर उन्होंने राधिका से पूछा, ‘‘राधिकाजी, आप को किस चीज का शौक रहा है?’’राधिका को अभी तक किसी का नाम नहीं पता था, उसे कोई रुचि ही नहीं थी इन लोगों में, इतना ही कहा, ‘‘मैं ने हमेशा पति और बच्चों की पसंद के अलावा कभी कुछ सोचा ही नहीं.’’ नंदिनी ने स्नेहभरी फटकार लगाई, ‘‘महेशजी तुम्हारा शौक पूछ रहे हैं, कुछ न कुछ तो अपने लिए अच्छा ही लगता रहा होगा.’’

‘‘बस मुझे हमेशा परिवार के लिए कुछ न कुछ किचन में बनाना पसंद रहा है, सो कुकिंग ही शौक कह सकती हूं अपना.’’ एक महिला जोर से हंसी, ‘‘वाह, शुक्र है, खाना बनाने का शौकीन कोई तो आया, नहीं तो यहां सब को खाने का ही शौक है, किचन में हमारे श्याम काका और उन की पत्नी सरला काकी को जरा नईनई रेसिपी बता देना, कुछ अलग स्वाद होगा फिर और मजा आएगा.’’ राधिका ने ठंडी गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘‘नहीं, अब मेरा कुछ भी करने का मन नहीं है.’’ नंदिनी ने बात बदल दी, ‘‘ठीक है, चलो अब बताओ, बाजार से क्याक्या मंगवाऊं, अंजू आज फ्री है. वह शाम को लिस्ट लेने आएगी या अजय भी आ सकता है.’’ इतने में नंदिनी का मोबाइल बजा. वह बात करती हुई हौल से बाहर चली गई. राधिका ने पूछा, ‘‘अजय, अंजू कौन हैं?’’

‘‘इन का छोटा बेटा, बड़ा बेटा तो विदेश में है, अंजू इन की बेटी है.’’ राधिका को जैसे करंट लगा, ‘‘इन के बच्चे? और ये यहां रहती हैं?’’ ‘‘हां, उन्हें हम सब के साथ अच्छा लगता है, कभीकभी अपने घर भी जाती हैं, तुम आईं तो गई हुई थीं न, नहीं तो तुम्हें इतने दिन रोने थोड़े ही देतीं, यहां हर नए आने वाले का बैड उन के रूम में ही लगता है, इन्हें आता है हम जैसों को तसल्ली दे कर खुश रखना, रिटायरमैंट के बाद इन का काम है, अपने बच्चों से उपेक्षित, उदास, अकेले इंसान को फिर जीवन नए सिरे से जीना,’’ इतने में नंदिनी अंदर आ गईं तो बात वहीं रुक गई. अजय आया और आ कर जिस तरह सब से मिला, राधिका हैरान रह गईं, नंदिनी कह रही थीं, ‘‘अजय, यह रही लिस्ट, कल तक सामान पहुंचा देना और हां, मैं इस बार दीवाली पर यहीं रहूंगी.’’ ‘‘नहीं मां, दीवाली पर तो आप को हमारे पास आना ही है.’’ ‘‘नहीं, अजय, इस बार नहीं,’’ कह कर नंदिनी ने राधिका को देखा, वे कुछ हैरान सी थीं.

अजय लिस्ट ले कर चला गया. अजय अपने साथ गरमगरम कचौरी और जलेबी लाया था. श्याम काका ने नाश्ता प्लेटों में ला कर रखा, सब शुरू हो गए, किसी ने किसी को खाने के लिए नहीं कहा, सब वाहवाह करते हुए खाते रहे. उन 15 लोगों के चेहरों पर छाई शांति देख कर राधिका को अपने अंदर अचानक कुछ पिघलता सा महसूस हुआ, उन्होंने अपने बहते आंसू खुद ही पोंछ लिए थे. बेहद शांत आवाज में वे बोलीं, ‘‘दीदी, रंगोली कहांकहां बनानी है?’’ नंदिनी ने मुसकराते हुए पूछा, ‘‘तुम्हें आती है बनानी? कब से पूछ रही हूं, यहां किसी को नहीं आती, देखने का शौक सब को है. दीवाली वाले दिन मेरे एनजीओ के साथी भी आ रहे हैं यहां.’’ ‘‘रंग हैं? कुछ सामान चाहिए, और किचन में कुछ स्पैशल बनाऊंगी दीवाली वाले दिन, जो आप सब को पसंद हो, बता दें.’’ नंदिनी ने राधिका को गले लगा लिया, बोलीं, ‘‘अभी अजय का फोन मिला कर देती हूं, उसी को बता दो क्याक्या चाहिए.’’ राधिका ने पहली बार अपने आसपास के लोगों के स्वभाव, व्यवहार पर ध्यान दिया. सोच रही थीं, ये सब भी तो उसी के जैसे हैं, ये भी तो जीना सीख ही गए न. मैं भी सीख ही जाऊंगी, निर्मोही बेटों के बिना अकेले. पर अकेली कहां हूं, इतने तो साथी हैं यहां.

पिछली दीवाली पर उन अपनों के लिए क्याक्या बनाती रही जो गैर हो गए, इस बार उन गैरों के लिए बनाऊंगी जो अब हमेशा अपने रहेंगे. इन परायों को अपना मानने के अलावा रास्ता भी क्या है. फिर क्यों न खुशी से ही इस परिवार का हिस्सा बन जाऊं. बहुत दिनों बाद राधिका को अपने मन पर छाया अंधेरा दूर होता सा लगा, दीवाली से पहले ही मन के दीये जो जल उठे थे.

एक गृहिणी की आउटिंग : शोभा जी के विचार से लोग क्यों परेशान हो रहे थे ?

“थक गई मैं घर के काम करते-करते. वही एक जैसी दिनचर्या सुबह से शाम, शाम से सुबह.” “घर का सारा टेंशन लेते-लेते मैं परेशान हो चुकी हूँ, अब मुझे भी चेंज चाहिए कुछ.”

शोभा जी अक्सर ये बातें किसी न किसी से कहती रहती थीं. एक बार अपनी बोरियत भरी दिनचर्या से अलग, शोभा जी ने अपनी दोनों बेटियों के साथ इतवार को फ़िल्म देखने और घूमने का प्लान किया. शोभा जी ने तय किया इस आउटिंग में वो बिना कुछ चिंता किये सिर्फ़ और सिर्फ़ आनन्द उठाएँगी. मध्यमवर्गीय गृहिणियों को ऐसे इतवार कम ही नसीब होते हैं, जिसमें वो घरवालों पर नहीं बल्कि अपने ऊपर समय और पैसे दोनों ख़र्च करें, इसीलिए इस इतवार को लेकर शोभा जी का उत्साहित होना लाज़िमी था. ये उत्साह का ही कमाल था कि इस इतवार की सुबह, हर इतवार की तुलना में ज़्यादा जल्दी हो गई थी.

उनको जल्दी करते-करते भी, सिर्फ़ नाश्ता करके तैयार होने में ही साढ़े बारह बज गए. शो डेढ़ बजे का था, वहाँ पहुँचने और टिकट लेने के लिए भी समय चाहिए था. ठीक समय वहाँ पहुँचने के लिए बस की जगह ऑटो ही एक विकल्प दिख रहा था. और यहीं से शोभा जी के मन में ‘चाहत और ज़रूरत’ के बीच में संघर्ष शुरू हो गया. अभी तो आउटिंग की शुरुआत ही थी, तो ‘चाहत’ की विजय हुई.

ऑटो का मीटर बिल्कुल पढ़ी लिखी गृहिणियों की डिग्री की तरह, जिससे कोई काम नहीं लेना चाहता पर हाँ जिनका होना भी ज़रूरी होता है, एक कोने में लटका था. इसीलिए किराये का भाव-ताव तय करके सब ऑटो में बैठ गए.

शोभा जी वहाँ पहुँचकर, जल्दी से टिकट काउन्टर में जाकर लाइन में लग गयीं. जैसे ही उनका नम्बर आया तो उन्होंने अन्दर बैठे व्यक्ति को झट से तीन उँगली दिखाते हुए कहा- “तीन टिकट” कि बाहर के शोरगुल से भाई तुम सुन न पाओ तो उँगलियों को तो गिन ही सकते हो. अन्दर बैठे व्यक्ति ने भी बिना गर्दन ऊपर किये, नीचे पड़े काँच में उन उँगलियों की छाया देखकर उतनी ही तीव्रता से जवाब दिया-“बारह सौ”.

शायद शोभा जी को अपने कानों पर विश्वास नहीं होता यदि वो साथ में, उस व्यक्ति के होंठों को बारह सौ बोलने वाली मुद्रा में हिलते हुए नहीं देखतीं. फिर भी मन की तसल्ली के लिए एक बार और पूछ लिया- “कितने”? इस बार अन्दर बैठे व्यक्ति ने सच में उनकी आवाज़ नहीं सुनी पर चेहरे के भाव पढ़ गया. अब उसने ज़ोर से कहा- “बारह सौ”. शोभा जी की अन्य भावनाओं की तरह, उनकी आउटिंग की इच्छा भी मोर की तरह निकली जो दिखने में तो सुन्दर थी पर ज़्यादा ऊपर उड़ नहीं सकी, और धप्प करके ज़मीन पर आ गई. पर फिर एक बार दिल कड़ा करके उन्होंने अपने परों में हवा भरी और उड़ीं, मतलब बारह सौ उस व्यक्ति के हाथ में थमा दिये. हाथ में टिकट लेकर वो थिएटर की तरफ़ बढ़ गईं.

दस मिनट पहले दरवाज़ा खुला तो हॉल में अन्दर जाने वालों में शोभा जी बेटियों के साथ सबसे आगे थीं. अपनी-अपनी सीट ढूँढकर सब यथास्थान बैठ गए. विभिन्न विज्ञापनों का अम्बार झेलने के बाद, मुकेश और सुनीता के कैंसर के क़िस्से सुनकर साथ ही उनके वीभत्स चेहरे देखकर तो शोभा जी का पारा इतना ऊपर चढ़ गया कि यदि ग़लती से उन्हें अभी कोई खैनी, गुटखा या सिगरेट पीते दिख जाता तो दो चार थप्पड़ उन्हें वहीं जड़ देतीं और कहतीं कि सालों मज़े तुम करो और हम अपने पैसे लगाकर यहाँ तुम्हारा कटा-फटा लटका थोबड़ा देखें. पर शुक्र है वहाँ धूम्रपान की अनुमति नहीं थी.

लगभग आधे मिनट की शान्ति के बाद सभी खड़े हो गए. जो कान सिर्फ़ घरवालों की फ़रमाइशें सुनते थे वो राष्ट्रगान सुन रहे थे. साल में दो या तीन बार ही एक गृहिणी के हिस्से में अपने देश के प्रति प्रेम दिखाने का अवसर प्राप्त होता है और जिस प्रेम को जताने के अवसर कम प्राप्त होते हैं उसे जब अवसर मिले तो वो हमेशा आँखों से ही फूटता है. शोभा जी के रोम-रोम में देशप्रेम और आखों में आँसू साफ़ झलक रहे थे. राष्ट्रगान ख़त्म होने के बाद किसी ने “भारत माता की..” के नारे लगाने शुरू कर दिए पर “..जय” बोलने वालों में शोभा जी की आवाज़ सबसे बुलन्द थी.

जो आँखें थोड़ी ही देर पहले वीभत्स रस से सराबोर थीं, वही आँखे अब वीर रस में इतनी डूबी हुई थीं कि यदि शोभा जी को इस समय दुश्मनों के बीच खड़ा कर दिया जाता तो वो बिना किसी बन्दूक, गोली के, कलछी बेलन से ही उन्हें मार गिरातीं. देशप्रेम तो सभी में समान ही होता है चाहे सरहद पर खड़ा सिपाही हो या एक गृहिणी, बस किसी को दिखाने का अवसर मिलता है किसी को नहीं. इस समय शोभा जी वीर रस में इतनी डूबी हुईं थीं कि उनको अहसास ही नहीं हुआ कि सब लोग बैठ चुके हैं और वो ही अकेली खड़ी हैं तो बेटी ने उनको हाथ पकड़ कर बैठने को कहा.

थोड़ी ही देर में फ़िल्म शुरू हुई, शोभा जी कलाकारों की अदायगी के साथ भिन्न भिन्न भावनाओं के रोलर कोस्टर से होते हुए इन्टरवल तक पहुँचीं. चूँकि, सभी घर से सिर्फ़ नाश्ता करके निकले थे तो इंटरवल तक सबको बहुत भूख लग चुकी थी. तो  क्या-क्या खाना है, उसकी लंबी लिस्ट बेटियों ने तैयार करके शोभा जी को थमा दीं. शोभा जी एक बार फिर लाइन में खड़ीं थीं. उनके पास बेटियों द्वारा दी गयी खाने की लिस्ट लम्बी थी तो सामने खड़े लोगों की लाइन भी कम लम्बी न थी. जब शोभा जी के आगे तीन या चार लोग बचे होंगे तब शोभा जी की नज़र ऊपर लिखे मेन्यू पर पड़ी, जिसमें खाने की चीज़ों के साथ उनके दाम भी थे. उनके दिमाग़ में ज़ोरदार बिजली कौंध गयी और अगले ही पल बिना कुछ समय गँवाये वो लाइन से बाहर थीं. चार सौ के सिर्फ़ पॉपकॉर्न, समोसा पछत्तर का एक, सैंडविच सौ की एक और कोल्ड ड्रिंक डेढ़ सौ की एक. एक गृहिणी जिसने अपनी शादीशुदा ज़िन्दगी ज़्यादा रसोई में ही गुज़ारी हो उन्हें ये एक टब पॉपकार्न की क़ीमत चार सौ बता रहे थे. शोभा जी के लिए वही बात थी कि रतन टाटा को एक सुई की क़ीमत सौ रुपये बताए और उसे खरीदने को कहे.

उन्हें क़ीमत देखकर चक्कर आने लगे, मन ही मन उन्होंने मोटा मोटा हिसाब लगाया तो लिस्ट के खाने का ख़र्च, आउटिंग के ख़र्च की तय सीमा से पैर पसार कर पर्स के दूसरे पॉकेट में रखे बचत के पैसों, जो कि मुसीबत के लिए रखे थे वहाँ तक पहुँच गया था. उन्हें एक तरफ़ बेटियों का चेहरा दिख रहा था तो दूसरी तरफ़ पैसे. इस बार शोभा जी अपने मन के मोर को ज़्यादा उड़ा न पाईं और आनन्द के आकाश को नीचा करते हुए लिस्ट में से सामान आधा कर दिया. ज़ाहिर था, कम हुआ हिस्सा माँ अपने हिस्से ही लेती है. अब शोभा जी को एक बार फिर लाइन में लगना पड़ा.

सामान लेकर शोभा जी जब अन्दर पहुँची इंटरवल ख़त्म होकर फ़िल्म शुरू हो चुकी थी. कहते हैं, कि यदि फ़िल्म अच्छी होती है तो वो आपको अपने साथ समेट लेती है, लगता है मानो आप भी उसी का हिस्सा हों. और शोभा जी के साथ हुआ भी वही. बाकी की दुनिया और खाना सब भूलकर शोभा जी फ़िल्म में बहती गईं और तभी वापस आईं जब सामने ‘दी एन्ड’ लिखा हुआ देखा. और जब अपनी दुनिया में वापस आईं तो उन्हें भूख सताने लगी.

थिएटर से बाहर निकलीं तो थोड़ी ही दूरी पर उन्हें एक छोटी सी चाट भण्डार की दुकान दिखाई दी. और सामने ही अपना गोल गोल मुँह फुलाये गोलगप्पे नज़र आए. गोलगप्पे की ख़ासियत होती है कि उनसे आपको कम पैसों में ज़्यादा स्वाद मिल जाता है और ख़ुशी-ख़ुशी पानी से आपका पेट भर देते हैं . सिर्फ़ साठ रुपये में तीनों ने पेट भर गोलगप्पे खा लिए. घर वापस पहुँचने की कोई जल्दी नहीं थी तो शोभा जी ने अपनी बेटियों के साथ पूरे शहर का चक्कर लगाते हुए घूमकर जाने वाली बस पकड़ी.

बस में बैठी-बैठी शोभा जी के दिमाग़ में बहुत सारी बातें चल रही थी. कभी वो ऑटो के ज़्यादा लगे पैसों के बारे में सोचतीं तो कभी फ़िल्म के किसी सीन के बारे में सोचकर हँस पड़तीं, कभी महँगे पॉपकॉर्न के बारे में सोचतीं तो कभी महीनों या सालों बाद उमड़ी देशभक्ति के बारे में सोचकर रोमांचित हो उठतीं. उनका मन बहुत भ्रमित था क्या यही वो ‘चेंज’ है जो वो चाहतीं थीं. वो सोच रहीं थीं कि क्या सच में वो ऐसा ही दिन बिताना चाहती थीं जिसमें दिन ख़त्म होने पर उनके दिल में ख़ुशी के साथ कसक भी रह जाए.

तभी छोटी बेटी ने हाथ हिलाते हुए अपनी माँ से पूछा-“माँ अगले संडे हम कहाँ चलेंगे?”वो एक पल शोभा जी के लिए बेहद मुश्किल, ‘चाहत और ज़रूरत’ में से किसी एक को चुनने का था. शोभा जी ने भी सबकी ‘ज़रूरतों’ का ख़याल रखते हुए साथ ही अपनी ‘चाहत’ का भी तिरस्कार न करते हुए कहा- “आज के जैसे बस से पूरा शहर देखते हुए ‘बीच’ चलेंगे और ‘सनसेट’ देखेंगे.”

शोभा जी सोचने लगीं अच्छा हुआ जो प्रकृति अपना सौन्दर्य दिखाने के पैसे नहीं लेती. और प्रकृति से बेहतर ‘चेंज’ कहीं और से मिल सकता है भला!

Valentine’s Day 2024 : काश – श्रीकांत किसे देखकर हैरान हो गया था ?

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हनक : पुराने दिनों को याद करके सुमन क्यों उदास हो जाती थी ?

सुमन ने करीम से कहा, “अरे देखो तो रिसेप्शन के सामने वाले सोफे पर चेटियार साहब बैठे हुए हैं क्या?’’ करीम की नजदीक की नजर कमजोर थी और उस का चश्मा बाइफोकल नहीं था, इसलिए उस ने चश्मा निकाल कर सोफे की तरफ ध्यान से देखने के बाद कहा, ‘‘हां यार, चेटियार सर ही हैं, लेकिन उन के चेहरे पर न तो घमंड दिख रहा है और न ही पुरानी ठसक, बल्कि हार और उदासी साफसाफ दिखाई दे रही है.”
सुमन और करीम दोनों चेटियार सर के साथ लंबे समय तक काम कर चुके थे. इसलिए, दोनों उन के चेहरे के हर भाव को पढ़ सकते थे. सुमन भी करीम की बातों से सहमत लग रहा था.

करीम ने सुमन से कहा, “क्या मिला जाए, चेटियार सर से.” सुमन ने कहा, “एकदम नहीं, ऐसे मक्कार, धूर्त, चालबाज और कमीने आदमी से मिलने के लिए कह रहे हो, जो बातबात पर हमें गालियां देता था, हर वक्त नीचा दिखाने की कोशिश करता था, तुम्हें तो याद ही होगा, हम ने इन की वजह से विभाग बदलवाने की कितनी कोशिश की थी, लेकिन अपने उद्देश्य को पाने में हम सफल नहीं हो सके थे.सभी ने हमें सांत्वना दी थी, लेकिन किसी ने मदद नहीं की, सभी चेटियार सर से डरते थे.”

एक सांस में पूरा वाक्य बोलने के कारण सुमन का गला सूख गया, तो उस ने थूक से गले को तर करने के बाद पुनः कहा, “चेटियार सर के सामने से अभीअभी गुजरने वाले कई लोगों को मैं जानता हूं, जिन्होंने उन के साथ काम किया था, लेकिन उन के कमीनेपन की वजह से वे उन की अनदेखी कर रहे हैं.”

ऐसा नहीं था कि चेटियार सर अपने पुराने सहकर्मियों को नहीं देख रहे थे, लेकिन लगता है कि उन के मन में भी डर हावी था, क्योंकि अब वे बैंक के चेयरमैन नहीं थे और वे अपनी काली करतूतों से भी वाकिफ थे, इसलिए कहीं न कहीं उन के मन में भी इस बात का डर था कि कहीं कोई उन की बेइज्जती न कर दे.

सुमन ने फिर से कहा, “खुदगर्ज इनसानों की औकात कुरसी से उतरने के बाद कुत्ते से भी बदतर हो जाती है, इस सच को भोगते हुए मैं ने कई लोगों को देखा है. हो सकता है, चेटियार सर भी अब इस दौर से गुजर रहे हों, क्योंकि वे तो कमीनों के बाप थे.”

करीम ने प्रयुत्तर में कहा, “चेटियार सर को ही क्यों गालियां रहे हो? आजकल हमारे बैंक में अधिकांश शीर्ष प्रबंधक, अपने मातहतों से कहां सीधे मुंह बात करते हैं, सभी गालीगलौज और डंडे के बलबूते अपना काम करवाना चाहते हैं, ताकि बिना प्रतिरोध के उन के मातहत गलत काम करने से मना नहीं करें, जबकि प्यार से भी काम करवाया जा सकता है, लेकिन भ्रष्टाचार के दलदल में आकंठ डूबे अधिकांश शीर्ष कार्यपालक काम करवाने के लिए गुंडों व बदमाशों की तरह आतंक और खौफ का रास्ता अख्तियार करते हैं, ताकि वे नीचे वालों को मार कर या उन की जिंदगी को तबाह कर के पैसे और प्रमोशन पाते रहें.”

सुमन ने कहा, “ठीक ही कह रहे हो तुम, लेकिन कुरसी की हनक में वे भूल जाते हैं, उन की कुरसी स्थायी नहीं है, एक दिन उस का जाना तय है, जब सेवानिवृत्त होंगे, फिर क्या करेंगे, ये सोचने की कोई कोशिश नहीं करता है, ऐसे ही लोगों का बुढ़ापा खराब होता है, क्योंकि उन के पुराने व्यवहार व स्वभाव के कारण सेवानिवृत्ति के बाद हर कोई उन्हें दुत्कारता है, कहींकहीं लतिया भी दिए जाते हैं ऐसे लोग.”

करीम ने कहा, “सहमत हूं, मैं ने सुना है कि चेटियार सर की माली हालत आजकल बहुत ज्यादा खराब है, मुझे लगता है कि ये आज यहां दवाएं लेने के लिए आए हैं, मैडिकल डिपार्टमैंट पेंशनरों को फ्री में दवा मुहैया कराता है, साथ ही, डाक्टरों का कंसल्टेशन भी यहां फ्री मिल जाता है, तुम भी जानते हो, बैंकर को पेंशन, राज्य या केंद्र सरकार के कर्मचारियों की तुलना में बहुत ही कम मिलती है, इस कारण इन का गुजारा बमुश्किल हो पा रहा है, बेटा बेरोजगार है, बेटी का भी तलाक हो गया है, कभी मर्सिडीज पर घूमते थे, आज रिकशे पर जाने के लिए मजबूर हैं, कभीकभी इन के पास रिकशे के भी पैसे नहीं होते हैं. सुना है, अब ये अपनी गलतियों के लिए रोज अफसोस जताते हैं, ईश्वर से माफी मांगते हैं.”

सुमन ने कहा, “लेकिन, क्या ईश्वर को ऐसे पापियों को माफ करना चाहिए?”

“नहीं, एकदम नहीं,” करीम ने कहा.

सुमन ने फिर कहा, “पता नहीं क्यों, आज अधिकांश इनसान जानवर बनना पसंद कर रहे हैं. ऐसे लोगों को अपने कुकर्मों पर कभी पछतावा नहीं होता है, लेकिन जैसे ही पैसे और पावर उन के हाथों से रेत की मानिंद फिसलने लगते हैं, वैसे ही, वे सीधेसादे और ईमानदार बन जाते हैं और यह भी अपेक्षा करने लगते हैं कि सभी लोग उन्हें माफ कर देंगे और इज्जत से नवाजेंगे.”

करीम ने कहा, “लेकिन, ऐसे लोगों के पाप का घड़ा इतना ज्यादा भर चुका होता है और इतनी बद्दुआ मिल चुकी हुई होती है कि बाद में किया गया कोई भी अच्छा काम उन के कुकर्मों की भरपाई नहीं कर पाता है.”

थोड़ी देर में रिसेप्शन पर भीड़ कम हुई, तो चेटियार सर ने रिसेप्शनिस्ट से एंट्री पास बनाने के लिए कहा. बातचीत के दौरान बड़े विनीत लग रहे थे वे. यह देख कर सुमन ने कहा, “सचमुच, बड़े से बड़े हिटलर भी समय के सामने विवश हो जाते हैं, लेकिन क्या विनीत या निरीह बनने से ऐसे लोगों की सजा पूरी हो जाती है, कतई नहीं. ऐसे लोगों को फांसी की सजा भी दी जाए तो कम है, क्योंकि ऐसे लोग हमारे समाज में बिना खून बहाए रोज कत्ल कर रहे हैं.”

Article 370 : पूरा का पूरा कश्मीर भारत का हिस्सा था, है और रहेगा

यह चुनावी वर्ष है. वर्तमान सरकार आम चुनावों में 400 से अधिक सीटें जीतने के दावे के साथ हर तरह का प्रोपगंडा करने से पीछे नहीं है. इसी चुनावी वर्ष में तथाकथित प्रोपगंडा फिल्मों की भी बाढ़ आई हुई है. ऐसी ही फिल्मों में से एक है ‘‘आर्टिकल 370.’ 23 फरवरी को प्रदर्शित होने वाली फिल्म ‘आर्टिकल 370’ का निर्माण आदित्य धर ने किया है, जो अतीत में ‘उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक’ का निर्देशन कर शोहरत बटोर चुके हैं. इस फिल्म के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के राष्ट्रीय पुरस्कार से भी नवाजा गया था. देश के प्रधानमंत्री व तत्कालीन रक्षामंत्री ने भी इस फिल्म की प्रशंसा में कसीदे पढ़े थे. पर इस बार वे सिर्फ निर्माता हैं और निर्देशक आदित्य सुभाष जांभले हैं.

फिल्म में यामी गौतम के साथ प्रिया मणि, अरुण गोविल, वैभव तत्ववादी, स्कंद ठाकुर, अश्विनी कौल, किरण करमरकर, दिव्या सेठ शाह, राज जुत्सी, सुमित कौल, राज अर्जुन, असित गोपीनाथ रेडिज, अश्विनी कुमार और इरावती हर्षे मायादेव भी हैं. फिल्म के निर्माण में आदित्य धर के साथ ही मुकेश अंबानी की कंपनी जियो स्टूडियो भी जुड़ी हुई है.

ट्रेलर लौंच से पहले नेवल ब्रास बैंड ने गाया राष्ट्गीत

यह पहली बार हुआ जब किसी फिल्म के ट्रेलर लौंच के अवसर पर नेवल ब्रास बैंड ने राष्ट्गीत गा कर देशभक्ति का माहौल पैदा किया. उस के बाद फिल्म का ट्रेलर लौंच किया गया था. ट्रेलर में कहा गया कि यह फिल्म सच्ची घटनाओं पर आधारित है. तो वहीं फिल्मकार का दावा है कि उन की यह फिल्म उन घटनाओं पर आधारित है जिन के कारण जम्मूकश्मीर की विशेष स्थिति को रद्द कर दिया गया था. अब सच क्या है, यह तो फिल्म देखने पर ही पता चलेगा.

क्या संकेत देता है फिल्म का ट्रेलर ?

फिल्म का ट्रेलर यह स्पष्ट संकेत देता है कि यह फिल्म विवेक रंजन अग्निहेत्री की फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ के ही ढर्रे पर बनी है, जिसे सरकार ने बौक्सऔफिस पर जबरदस्त सफलता दिला दी थी. ट्रेलर से यह फिल्म जोरदार हिंसक व अतिउग्र संवादों से युक्त नजर आती है. फिल्म के ट्रेलर में साफ कहा गया है- ‘पूरा का पूरा कश्मीर भारत देश का हिसा था, है और रहेगा’. इतना ही नहीं, 2 मिनट और 40 सैकंड के ट्रेलर में खुफिया अधिकारी को जम्मूकश्मीर की विशेष स्थिति के चलते भारतीय सेना के सामने आने वाली चुनौतियों व राजनीतिक तबाही के बीच फंसा हुआ दिखाया गया है.

इस राजनीतिक फिल्म को आम चुनाव से दोतीन माह पहले प्रदर्शित करने से भी काफीकुछ समझा जा सकता है. फिल्म एक गहन कथा का वादा करती है, जो भारत सरकार द्वारा 5 अगस्त, 2019 को जम्मूकश्मीर की विशेष स्थिति से प्रेरित है. इस कदम ने जम्मूकश्मीर को जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित कर दिया.

ट्रेलर में खुफिया अधिकारी बनी यामी गौतम का चरित्र कहता है- ‘आतंकवाद कश्मीर में एक व्यवसाय है. इस का स्वतंत्रता से कोई लेनादेना नहीं है. लेकिन इस का सबकुछ पैसे से है. अनुच्छेद 370 के तहत पूर्ववर्ती राज्य की विशेष स्थिति को रद्द करना भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए महत्त्वपूर्ण है.’

आदित्य धर इसे प्रोपगंडा फिल्म नहीं मानते

फिल्म ‘आर्टिकल 370’ को प्रोपगंडा फिल्म कहे जाने पर एतराज जताते हुए फिल्म के निर्माता आदित्य धर ने कहा- ‘‘मैं ऐसा नही मनता. मेरा मानना है कि प्रधानमंत्री को चुनाव जीतने या वोट बटोरने के लिए हमारी फिल्म की जरूरत है. जहां तक फिल्म के प्रदर्शन के समय का सवाल है, तो यह निर्णय हम ने फिल्म एक्जीबीटरों संग बातचीत कर एक साल पहले ही लिया था. मेरा मानना है कि देश को जानने की जरूरत है कि कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने के मिशन को कैसे अंजाम दिया गया. इस मिशन को गुप्त तरीके से अंजाम दिया गया था और मिशन का सब से महत्त्वपूर्ण लक्ष्य यह था कि किसी निर्दोष का खून न बहे और यही इसे एक महान ओपस औपरेशन बनाता है. इसलिए बहुत सारी जानकारी सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध नहीं है.’’

आदित्य धर आगे कहते हैं, ‘‘हम ने महीनों तक शोध किया. इस मिशन में बहुत सारा ड्रामा शामिल है जो 2014 में शुरू हुआ और आखिरकार 2019 में समाप्त हुआ. प्रोटोकौल में मदद के लिए सैट पर हमारे कानूनी सलाहकार थे ताकि हम वास्तविक कहानी से भटक न जाएं. सभी संवेदनशील विवरणों को 2 घंटे के सिनेमाई अनुभव में संकलित करने के लिए हमें कदम दर कदम आगे बढ़ना था, जो एक बड़ी चुनौती थी.
जी हां, ‘आर्टिकल 370‘ एक ऐक्शन प्रधान राजनीतिक ड्रामा है जो अनुच्छेद को निरस्त करने और कश्मीर की स्थिति के प्रामाणिक चित्रण के इर्दगिर्द घूमती है.

खुफिया अधिकारी बनी यामी गौतम

यामी गौतम ने फिल्म में एक खुफिया अधिकारी की भूमिका निभाई है, जो व्यक्तिगत नुकसान से गुजर रही है. फिर उसे फ्री हैंड दे कर एक खास मिशन का नेतृत्व करने के लिए कश्मीर में तैनात किया जाता है.

निर्देशक ने दावा कि इस में सबकुछ सच बयां किया गया है. वे कहते हैं, ‘‘फिल्म में सभी घटनाएं प्रामाणिक हैं और यथार्थवादी रूप से चित्रित की गई हैं, जो कि फिल्म के लिए हम सभी का एक लक्ष्य था और हम इसे हासिल करने में सक्षम थे.‘‘

फिल्म के ट्रेलर लौंच के बाद अभिनेता अक्षय कुमार ने एक्स पर लिखा- “कश्मीर भारत का हिस्सा था, है और हमेशा रहेगा. पूरा देश जोश से भरा हुआ लग रहा है. शुभकामनाएं, जय हिंद.’

तो वहीं एक अन्य शख्स ने एक्स पर लिखा- ‘अविश्वसनीय कहानी जो भारतीय इतिहास के एक महत्त्वपूर्ण अध्याय को प्रतिध्वनित करती है. यह एक सिनेमाई जीत है जो सभी की सराहना की पात्र है.’

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