Download App

लापता: पिता और पुत्र की कहानी

जी हां, आप ने सही पहचाना. वे मेरे पापा ही हैं, त्रिलोकीनाथ चौहान, है न भारीभरकम नाम. बहुत कड़क आदमी हैं जनाब. अपने समय के कलंदर. एक वाक्य बोल कर सब को चुप करवा देते थे. ‘डोंट ट्राई टू बी ओवरस्मार्ट.’ मैं क्या, हर आदमी जो उन से वाबस्ता था उन से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता था. इन्साइक्लोपीडिया तो फिर एक छोटा शब्द है उन के सामने. कोई कहता कि वे अपनेआप में एक बड़ी संस्था थे.

हर चीज में उन का दखल काबिलेगौर था- संगीत, कविता, धर्म, विज्ञान, इतिहास या राजनीति. आप बात कर के देखते उस समय.

उन के सामने बहुत छोटा महसूस करते थे हम. उन का हर वाक्य एक कमांड होता था और हरेक शब्द एक संदेश. कभी अपनी पीठ नहीं लगने दी उन्होंने.

उन का सब से बड़ा प्लस पौइंट यह था कि वे बेदाग चरित्र के मालिक थे. साफसुथरी छवि के मालिक. कभी कोई अनर्गल बात नहीं करते थे. जो बात आज उन्होंने कही, दस साल बाद भी वही हूबहू हजारों लोगों के नाम मानो तोते की तरह रटे हुए थे.

अब कहां हैं?

जी जिंदा हैं अभी. जिंदा भी ऐसे मानो मांस का लोथड़ा हो. दिन में पता नहीं कितनी बार हिंसक हो उठते हैं. घर के एक कमरे में कैद कर के रखना पड़ता है उन्हें, ताला लगा कर.

डिमैंशिया नाम का रोग सुना होगा आप ने. इस में स्मरण शक्ति खत्म हो जाती है. रोजाना की आम गतिविधियां नहीं कर सकता वह आदमी. बातचीत में ठहराव नहीं रहता, कोई फोकस नहीं. बच्चों से भी गयागुजरा हो जाता है. बच्चा तो फिर भी हर रोज एक नई बात सीखता है मगर पापा जैसा आदमी लगातार भूलता जाता है आसपास को, अपनेआप को. यही नहीं, अपने शरीर के अंगों से नियंत्रण घटता जाता है उन का.

कई रूप हैं इस बीमारी के. मैं तो ठीक से बता भी नहीं पाऊंगा. अल्जाइमर्स रोग है या कुछ और.

मगर जो भी है आदमी आलूगोभी की तरह हो जाता है. सामने है, मगर उस का वजूद न के बराबर. अपनेआप में गुम हो गया लगता है, खो गया लगता है, लापता हो जैसे.

हम लोग पापा को कई अस्पतालों में ले गए. शुरूशुरू में पापा का कुछ और ही रूप था. तब शुरुआत थी शायद.

डाक्टर पूछता कि क्या नाम है?

पापा चौकन्ने हो कर जवाब देते, ‘त्रिलोकीनाथ चौहान.’

डाक्टर सहम जाता, ‘अरे, आप हैं सर. बहुत नाम सुना है आप का. आप को कौन नहीं जानता. आप ने तो बहुत बड़ेबड़े काम किए हैं जो कोई दूसरा नहीं कर सकता.’

पापा मुसकराते, अजीब सी दंभभरी मुसकराहट. चेहरे पर अहंकारभरे भाव आ जाते उन के.

शुरू के सालों में पापा इस बीमारी को अपने मिलने वालों पर जाहिर नहीं होने देते थे. घर में कोई भी आता, उस से मिल कर खुश हो जाते. भले ही पहचानते न थे मगर आने वाले के पास बैठते. बेशक, कुछ न पूछते. मगर ऐसा भी नहीं कि कोई रुचि न लेते, कहते- खाना खाया, कब आए हो.

दोचार बातों तक ही महदूद हो गया था उन का सारा अस्तित्व.

फिर धीरेधीरे अपने कमरे में ही रहने लगे.

सब से बुरी बात तब हुई जब वे आईने में अपनी ही सूरत भूल जाते. खुद को कोई अन्य सम?ा कर अपने अक्स से बात करने लगते.

फिर आसपास से बेखबर होने लगे. सुबह को शाम सम?ाने लगे. दिन-तारीख तो अब क्या याद रखनी थी उन्हें. कुछ बातों की जिद पकड़ लेते. कभी अपने घर की बालकनी में हम पापा को बिठाते तो कुछ देर बार वे अपने कमरे या बाथरूम का ठिकाना भूल जाते.

खाने को ले कर बहुत लोचा होने लगा. उन्हें कभी तो बहुत भूख लगती तो किसी दिन उन्हें चाय के साथ बिसकुट खिलाना भी मुसीबत हो जाता हम लोगों के लिए.

कभी अपने मृत पिता को याद करने लगते, कहते, मु?ो उन के पास छोड़ आओ. मम्मी सम?ाती. आप 90 के हैं तो आप के पिता तो कब के दुनिया छोड़ चुके.

हैरान हो कर पूछते, ‘अच्छा कब मरे? मु?ो बताया क्यों नहीं.’

उन की आंखों में आंसू छलकने लगते.

पापा की स्मरण शक्ति बहुत तेजी से घटती जा रही थी. अब मु?ो पहचानते थे या मेरी मम्मी को. मम्मी उन से 10 साल छोटी थी. सेहत तो उन की भी अच्छी नहीं थी.

बहुत क्षुद्र जीव है यह आदमी. ज्यादा देर तक शासन नहीं चला सकता. दूसरों पर ठीक है. दूसरों को चालीसपचास बरस काबू कर लेगा मगर खुद अपने शरीर से नियंत्रण हट जाए तो बहुत मुसीबत आ जाती है. खुद के साथ समीकरण बिगड़ जाए तो साथ वालों की जिंदगी हराम हो जाती है.

आप का कहना अपनी जगह सही है. सब के साथ नहीं होता ऐसा.

इंगलैंड की रानी नब्बे के आसपास है. खूब कर रही है राज. अजी क्या पावर है उस के पास. औपचारिक रूप से सोने की मोहर ही है. हां, बस इतनी सी पावर हो तो आदमी का दिमाग खराब नहीं होता.

पापा से मनोचिकित्सक उन के आसपास बैठे लोगों के बारे में पूछता, ‘ये कौन हैं?’

पापा तिरस्कार के भाव से कहते, ‘यह मेरा नालायक बेटा है. कुछ नहीं हो सका इस से. नैशनल डिफैंस एकेडमी से भाग आया. अब अपना बिजनैस चौपट कर के बैठा है.’

मु?ा से बहुत अपेक्षाएं थीं पापा

की. खुद तो बहुत बड़े महत्त्वाकांक्षी थे ही, मु?ो ले कर कुछ ज्यादा ही पजेसिव थे. मु?ो अपने से भी ऊपर देखना

चाहते थे.

जब मैं आर्मी अफसर के प्रशिक्षण केंद्र से भाग आया और इधरउधर हाथपांव मार रहा था तब पापा मु?ो उलाहने देते. बारबार कहते, ‘मैं खाली हाथ आया था दिल्ली. बाप की 5 रुपए महीने की पैंशन थी. खाने वाले 10 जीव थे. अब तुम्हारे लिए चंडीगढ़ में 2 कनाल की कोठी बनवाईर् है मैं ने. 10 एकड़ का फार्महाउस है. घर में 4 कारें खड़ी हैं. तुम ने क्या किया? मेरा नाम को बट्टा लगा दिया.’

मेरी हर चीज से शिकायत थी पापा को. मैं उन की किसी अपेक्षा पर खरा नहीं उतरा.

मैं क्या बनना चाहता था? अरे साहब, जब से होश संभाला है, मु?ा से किसी ने पूछा ही नहीं. बस, हुक्म दे दिया जाता कि ये कर लो, वो कर लो.

पूरे इलाके में पापा का इतना ज्यादा रोब था, रसूख था कि एक से एक बढि़या स्कूल में मु?ो दाखिला मिल जाता. कालेज में आराम से एडमिशन मिल जाता. टीचर मु?ा से खौफ खाते कि कहीं मेरे पापा उन के खिलाफ किसी को टैलीफोन न कर दें.

एक वक्त था शहर ही बहुत बड़ी ताकत का पर्याय थे वे, बहुत बड़ी हस्ती थे पापा. इतने ज्यादा पढ़ते नहीं थे. बस, दिमाग बहुत बड़ा था. पता नहीं सबकुछ कैसे समा जाता था. सुबह अखबार पढ़ते थे. याददाश्त बहुत गजब की थी. सामने वाले को तर्क देने लायक नहीं छोड़ते थे.

 

बहुत सारी महत्त्वपूर्ण घटनाएं थीं उन के जीवन की. फौज से सीधे अफसर बन कर गए थे. आजादी के तुरंत बाद पुलिस के बड़े अफसर आर्मी से लिए गए. पापा की टौप के लोगों में गिनती होने लगी. काम के माहिर थे और राजनीति से दूर. नेताओं ने खूब फायदा उठाया पापा का. पापा को अच्छे प्रभार मिलते. जहांजहां दंगा या अलगाववादी उपद्रव होते, पापा ने हीरो की तरह काम किया.

मैं क्याक्या बताऊंगा. आप गूगल से पूछ लेना.

वे बतातेबताते थकेगा नहीं, आप सुनतेसुनते बोर हो जाएंगे.

हम परिवारवाले बुरी तरह पक गए थे पापा की इस मशहूरी से.

उस का हमारी नौर्मल लाइफ पर बहुत बुरा असर पड़ा.

मां की जबान चली गई.

जी नहीं, गूंगी नहीं हुई. पापा के सामने बौनी होती गई. विरोध नहीं कर पाती थी. पापा ने जो कह दिया वह पत्थर की लकीर.

मैं खुद. कहांकहां नहीं धकेला गया मु?ो. और मैं था कि हर जगह नाकाम करार दे दिया जाता क्योंकि मैं वह सब नहीं करना चाहता था.

क्या करना चाहता था?

अजी सोचने का मौका ही कब मिला मु?ो. पापा ही हावी रहे मेरी सोच पर.

रिटायरमैंट भी बहुत लंबा था पापा का. 80 साल की उम्र तक तो वे

बहुत ही सक्रिय रहे. कई तरह के असाइनमैंट मिलते रहे पापा को. विदेशों में भी जाते रहते. हर समय सूटकेस तैयार रहता.

बस, एक ही बात बताई जाती हमें, ‘दिल्ली जा रहे हैं.’

हमारी सांस में सांस आती कि कुछ दिन आराम से कटेंगे.

समय बदला, लोग बदले, सरकारें बदली. पापा का स्थान दूसरे लोगों ने ले लिया. पापा की उपयोगिता कम होती जा रही थी. अब ईमानदारी की कोई कीमत नहीं रह गईर् थी. पापा अनवांटेड हो गए. समय सापेक्ष नहीं रहे. बूढ़े भी हो गए.

जब पापा की उम्र 85 से 90 के बीच थी तब पापा रुतबे से घटते गए. चिड़चिड़े हो गए. मैं 60 का हो गया था.

क्या करता हूं?

छोटेमोटे धंधे करता हूं. पापा ने इतना कुछ जमा कर लिया, उसे संभालता हूं.

लोगों ने पापा से मिलना छोड़ दिया. पापा अपने कमरे में अकेले होते गए.

कभीकभार कुछ लिखते. वह दिखाऊंगा आप को. मेरे तो कुछ पल्ले नहीं पड़ा. देश की राजनीति पर कुछ निबंध वगैरह हैं.

जी हां, पापा का लिखा दिखाया था प्रकाशकों को. वे कहते हैं कि बिकेगा नहीं. अगर 20 साल पहले लिखा होता तो शायद कुछ करते.

इंसान की यही लिमिटेशन है. समय पर खरीदा माल समय पर ही बेच

देना चाहिए. बाद में कोई कीमत नहीं मिलती.

पापा को अब घर में बांध कर रखना भी अपनेआप में फुलटाइम काम होता जा रहा था. किसी को कुछ नहीं सम?ाते थे वे. किसी का कहना नहीं मानते थे. मम्मी को सम?ाते थे कि घर की नौकरानी है.

मैं अब उन से खुल कर ?ागड़ने लगा था. शायद तभी मेरे काबू में आ जाते थे. अब मेरा डर खत्म हो गया था. पापा अब ऐसे बूढ़े शेर थे जिस के दांत टूट चुके थे और गुर्राना भी भूल चुके थे.

अब एक नई मुसीबत का सामना करना पड़ रहा था हमें. पापा बिन बताए मौका पाते ही घर से निकल जाते.

एक बार नहीं, बारबार घर से निकल कर भागे वे. पहले तो यहीं अपने

एरिया में ही गुम हो जाते. हम ढूंढ़ लाते या कोई जानपहचान वाला  छोड़ जाता.

दाढ़ी बढ़ आई थी उन की. शक्ल बदल गई थी. शहर बदल गया था. दुकानदारों को तो पापा की बीमारी के बारे में पता था मगर जानपहचान के पुराने लोग कम होते जा रहे थे. कुछ बच्चों के साथ चले गए. कुछ मरमरा गए.

यह ससुरा चंडीगढ़ है न. यहां सारे सैक्टर एकसमान लगते हैं. सैक्टर 35 के मार्केट और सैक्टर 36 के मार्केट में फर्क करना मुश्किल हो जाता है. चौक, मकान, मोड़ सब एकजैसे दिखते हैं.

अब पापा को काबू करना सच में मुश्किल हो गया था. जरा सा मौका मिलता, वे निकल भागते. दीवार फांद लेते.

सारी उम्र दिल्ली जाते रहते थे. अब भी हर वक्त एक ही रट लगाते, ‘मु?ो दिल्ली ले चलो. वहां मेरे पिताजी हैं. उन की देखभाल कौन करता होगा.’ मम्मी रोने लगती. पापा पर कोई असर नहीं होता था.

बाकी के सारे रिश्तेदार भूल गए थे उन्हें. सिर्फ मु?ो नहीं भूले. हम उन के गले में या बाजू पर नाम, पता या मेरे मोबाइल का नंबर लिखा रिबन बांध देते मगर वे उसे उखाड़ कर फेंक देते. कमीज के कौलर या बाजू के कफ के अंदर लिखा रहता पेन से. मगर किसी दूसरे को क्या पड़ी है. आजकल आदमी अपनेआप से बेखबर रहने लगा है. किसी दूसरे की तरफ तो देखता तक नहीं. पुलिस? अरे साहब उस का अपना पेट नहीं भरता. वह आम नागरिक की मदद क्यों करने लगी भला.

एक दिन वही हुआ जिस का हमें हर वक्त डर सताता रहता था.

पापा लापता हो गए.

हर वक्त दिल्ली जाने की रट लगाते रहते थे. तो किसी ने दिल्ली की बस में बिठा दिया होगा.

अब दिल्ली तो एक समुंदर है. हम लोग यहां अपने शहर, अंबाला, पटियाला में ढूंढ़ते रहे. पुलिस स्टेशन, वृद्धाश्रम, बसस्टैंड, रेलवे स्टेशन, सराए सब जगह. 2 आदमी रखे पैसे दे कर. उन्हें हर

रोज सब तरफ भेजते. लापता होने के पोस्टर भी लगवाए. अखबारों में कई दिन विज्ञापन दिया.

पापा सैक्टर 35 के स्टेट बैंक से अपनी पैंशन लेते थे. वहां पता किया. मम्मी के नाम पैंशन लगवाने की बात हुई तो वे बोले किसी जगह से मृत्यु का प्रमाणपत्र लाओ या कुछ साल इंतजार करो. उस के बाद कचहरी से लापता हो कर मरा हुआ जान कर ऐसा प्रमाणपत्र मिल जाएगा.

साल बीता, कोई खबर नहीं मिली पापा की.

घर का बंदा गुम हो जाए तो कितना तकलीफदेह हो जाता है रहनासहना.

हर रोज एक आस जगती है. फिर इस उम्र का आदमी घर से चला जाए तो सोच कर देखिए, जनाब.

हम चुप हो कर बैठे थे. क्या कर सकते थे हम.

फिर एक दिन बैंक से ही मु?ो फोन आया कि आप के पापा जिंदा हैं. दिल्ली में सरकारी अस्पताल एम्स में भरती हैं.

आखिर दिल्ली जा कर ही दम लिया पापा ने.

वहां पता नहीं कहांकहां भटकते रहे होंगे. बीमार हुए तो किसी ने लावारिस सम?ा कर एम्स में भरती करवा दिया होगा. इंग्लिश बोलते थे तो किसी ने सोचा कि अच्छे घर के होंगे. अपना नाम तक याद नहीं था पापा को.

कैसे पता चला?

डाक्टर लोग हर रोज उन से बातचीत करते होंगे तो एक दिन अचानक पापा ने बोला, ‘त्रिलोकी नाथ चौहान, स्टेट बैंक, सैक्टर 35, चंडीगढ़.’

वहां के लोगों ने यहां नंबर मिलाया और बैंक वालों ने मु?ो सूचित किया.

मैं पापा को लेने के लिए निकला. मन में गुस्सा भी था और अपराधबोध भी कि हम उन की देखभाल ठीक से नहीं कर रहे हैं.

लावारिस की तरह जनरल वार्ड में पड़े मिले वे, गंदे से कपड़ों में. बहुत शर्म आई. बहुत देर लगी यह बताने में कि मैं उन का बेटा हूं. बिलकुल पराए से लग रहे थे. आंखों में कोई भाव नहीं. कोईर् भी ले जाता उन्हें वहां से.

मु?ो उन के खर्च की फीस भरने को कहा गया. मैं 2 लाख रुपए नकद ले कर गया था. काउंडर पर बैठे आदमी ने बताया, ‘एक हजार दो सौ साठ रुपए.’ मेरा यकीन करना, साहब.

बहुत पत्थर दिल इंसान हूं मैं. मगर पहली बार फूटफूट कर मेरे आंसू निकले. गला रुंध गया. वाह रे कुदरत, यह मैं क्या देख रहा हूं. कितने दिनों से यह आदमी यहां फटेहाल पड़ा है. अब कहीं भागने की हिम्मत भी नहीं रही इस की.

मैं घर ले आया उन्हें. लाश जैसे थे वे. कार की सीटबैल्ट से बांध कर. बारबार लुढ़क जाते.

अब तो सब शांत है.

जिंदा हैं, बस. मु?ो भी बहुत बार नहीं पहचानते.

पता नहीं किस बात का इंतजार है उन्हें. तरस आता है. जीवन की नियति यही होती है क्या? तमाम उम्र कितनी भागदौड़ करते हैं हम. चोरी, डाका, फरेब, ?ागड़े और अंत में क्या शेष रहता है. एक शून्य, एक गुमशुदगी, खोई हुई अस्मिता. अपनेआप में कोई इतना लापता कैसे हो सकता है, भला.

समर्पण: भाग 2- सुधा क्यों शादी तुड़वाना चाहती थी?

अनु की शादी के बाद भी कई दिनों तक सुधा अपनेआप को सामान्य नहीं कर पाई.  तुषार से मिल कर उसे भी अच्छा लगा था। वह एक सुलझा हुआ युवक था लेकिन एक बेरोजगार दामाद को अपनाने में उसे हिचक हो रही थी.  बेटी की खुशी के आगे उन्होंने कुछ नहीं कहा.
उन्हें यकीन था एक दिन अनु जरूर कुछ न कुछ अच्छा ही करेगी.  कुछ ही महीने में अनु की मेहनत रंग लाई. उस ने पीसीएस की मुख्य परीक्षा पास कर ली थी. अनु ने साक्षात्कार की बहुत अच्छी तैयारी की थी पर वह  उस में रह गई। तुषार अभी भी संघर्षरत था. उन दोनों को इस बात का काफी मलाल हुआ. ऐसी परिस्थिति में भी तुषार ने अनु को हिम्मत बंधाई,”अनु, तुम्हें दिल छोटा नहीं करना चाहिए. तुम बहुत मेहनती और होशियार हो. एक दिन तुम्हें अपनी मेहनत का पूरा श्रेय जरूर मिलेगा.”
“तुषार, तुम ही तो मेरी प्रेरणा हो. तुम्हारी बातों से मुझे बड़ी हिम्मत मिलती है. मैं और मेहनत करूंगी और एक दिन कुछ बन कर दिखाऊंगी,” अनु बोली.
इसे कोई संयोग ही कहें कि जितना उस ने सोचा था, वह वहां तक न पहुंच पाई.  नेट परीक्षा उत्तीर्ण करने के कारण उस का यूनिवर्सिटी में असिस्टैंट प्रोफैसर के लिए चयन हो गया था. परिस्थितियों को देखते हुए अनु ने यह जौब खुशीखुशी स्वीकार कर लिया. अब उसके सामने आर्थिक परेशानी नहीं थी.
2 महीने बाद तुषार का सिलैक्शन  यूपीएससी परीक्षा के माध्यम से ही समीक्षा अधिकारी के लिए हो गया था। दोनों बेहद खुश थे. आखिरकार उन्हें एक ही शहर में नौकरी तो मिल गए थी. ये नौकरियां उन के योग्यता और सपनों के अनुरुप नहीं थीं लेकिन घरगृहस्थी चलाने के लिए पर्याप्त थीं. अनु ने यह खबर मम्मीपापा को सुनाई तो उन्हे ज्यादा खुशी नहीं हुई.
सुधा बोली,”अनु, तुम आगे भी  तैयारी करते रहना. यह नौकरी तो तुम्हें इसी शहर में रह कर पढ़ने से भी मिल सकती थी.”
“आप बिलकुल ठीक कहती हैं, मम्मी. मैं आगे भी प्रयास करती रहूंगी.”
अनु अपने काम के प्रति बहुत समर्पित थी. वह पीएचडी करना चाहती थी ताकि अपने कैरियर में किसी से पीछे न रहे. नेट की बदौलत वह इस नौकरी तक पहुंच गई थी. तुषार के सहयोग के कारण उसे आगे पढ़ने में कोई परेशानी नहीं थी.  वे दोनों अभी भी प्रतियोगिताओं की तैयारी कर रहे थे पर उन का समय  साथ नहीं दे रहा था. तुषार की नौकरी लगने के सालभर बाद अनु ने एक प्यारी सी बेटी को जन्म दिया. सुधा ऐसे समय में बेटी को अकेले पा कर मात्र 2 हफ्ते के लिए अनु के पास आई थी.  उस के नर्सिगहोम से घर आ जाने पर वह वापस लौट आई थी. तुषार जिस तरह से अनु का खयाल रखता था, सुधा उस से संतुष्ट थी.
अनु के 6 महीने मातृत्व अवकाश के साथ आराम से कट गए. उस ने कुछ महीने और शिशु देखभाल अवकाश ले लिया था. अब नौकरी के साथसाथ बच्चे को देखने के लिए एक आदमी की घर पर जरूरत थी. अनु ने कहा,”तुषार, क्यों न हम अपने पेरैंट्स को यहां बुला लें.”
“क्या उन का दिल हमारे साथ लगेगा? हम एक छोटे से फ्लैट में रहते हैं. मम्मीपापा को इस प्रकार से रहने की आदत नहीं है.”
“तुम ठीक कहते हो. उन के लिए यह घर जेल के समान हो जाएगा, भले ही हम अपनी ओर से उन:के लिए कोई कसर नहीं रखेंगे. एक सामान्य जिंदगी जीने वाले को बड़े शहरों की  आदत नहीं होती. उन की अपनी एक दिनचर्या है, जिसे वे यहां अच्छे से नहीं निभा पाएंगे। इस के साथ एक दूसरी बात भी है.”
“वह क्या?”
“तुम तो जानती हो कि उन के सपनों को तोड़ कर हम दोनों ने शादी की. उन की अपेक्षाएं हम से कुछ और थीं और हम उन के अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे. हमें देख कर उन्हें यह बात भी याद आती रहेगी. अच्छा होगा कि हम बच्चे की देखभाल के लिए एक आया रख लें.”
जल्दी ही अनु ने अपने सहकर्मियों की मदद से एक आया का इंतजाम कर दिया पर उस के भरोसे रिया को छोड़ने में दोनों को बड़ी परेशानी हो रही थी. किसी तरह 2 महीने बीते.  एक बार रिया की तबियत बिगड़ गई. ‌ऐसी हालत में उन की हिम्मत रिया को आया के भरोसे छोड़ने की न हो सकी. तब समस्या का समाधान तुषार ने निकाला,”अनु, मैं कुछ समय के लिए रिया की देखभाल के लिए छुट्टी ले लेता हूं.”
“यह क्या कर रहे हो तुम?”
“मैं ठीक कह रहा हूं. हम दोनों में से छुट्टी कोई भी ले क्या फर्क पड़ता है? बच्चा हमारा है. इतने महीने तुम उस की देखभाल कर चुकी हो.  तुम्हें अभी अपना पीएचडी का काम भी पूरा करना है. मैं औफिस से छुट्टी ले लेता हूं.”
“तुम्हें छुट्टी कहां मिलेगी?”
“तो क्या हुआ? अवैतनिक अवकाश ले लूंगा.  हमारे बच्चे की परवरिश में कोई कसर नहीं रहनी चाहिए,” तुषार ने बोला तो अनु उस के परिवार के प्रति समर्पण को देख कर नतमस्तक हो गई.
वैसे तो उन के घर में भी काम करने  वाले आते थे लेकिन उन के ऊपर भी देखभाल के लिए घर पर कोई तो चाहिए था.  तुषार ने यह जिम्मेदारी बडे अच्छे से संभाल ली.  रिया बड़ी हो रही थी.  अनु उस की ओर से बिलकुल बैफिक्र थी.  तुषार एक जिम्मेदार पिता की तरह उस की बहुत अच्छी देखभाल करता.  शाम को अनु थक कर घर आती तो उस के साथ भी बहुत अच्छा व्यवहार करता. अनु अपनेआप को धन्य मानती कि उसे पति के रूप में तुषार मिला. अनु ने यह बात मम्मी को बताई कि अब तुषार नौकरी छोड़ कर बच्चे की देखभाल करेंगे.”
“मम्मी, रिया हम दोनों की बेटी है. क्या फर्क पड़ता है कि देखभाल मैं करूं या तुषार करें?”
“बेटी, यह काम औरतों को ही शोभा देता है.”
“मम्मी, आप तुषार से मिल चुकी हैं. वे बहुत ही अच्छे इंसान है. उन्होंने मुझे कभी एहसास तक नहीं होने दिया कि मैं एक औरत हूं और वे मेरे पति। वे घर को मुझ से अच्छे तरीके से संभालते हैं और बेटी का भी बहुत ध्यान रखते हैं.”
“तो क्या घर तेरी तनख्वाह से चलेगा बेटी?”
“परिवार के बीच में तेरामेरा कहां से आ गया मम्मी? मेरा और तुषार का जो कुछ है वह हम सब का है.  इस से क्या फर्क पड़ जाता है कि घर कौन चला रहा है? फर्क इस बात से पड़ता है कि घर अच्छे से चलना चाहिए. उस में सब के लिए स्थान होना चाहिए. सब की कद्र होनी चाहिए.  रिया को घर पर आया कि नहीं मम्मीपापा की जरूरत है.  तुषार उस की बहुत अच्छे से देखभाल करते हैं. अगर तुम्हें कुछ गलत लगता है तो तुम यहां आ जाओ.”
“तुम तो जानती हो कि मैं तुम्हारे पापा को अकेले नहीं छोड़ सकती और  इतने दिन वे बेटी के घर पर रहेंगे नहीं.”
“तो तुम ही बताओ कि रिया की देखभाल कौन करेगा?”
“तुम तुषार के मम्मीपापा को बुला लो.”
“वह भी तो आप की ही तरह हैं. आप यह क्यों नहीं समझतीं?” अनु बोली तो सुधा चुप हो गई. उन्हें जरा भी अच्छा नहीं लगा था कि दामाद नौकरी से छुट्टी ले कर घर बैठ कर औरतों की तरह अपनी बेटी की देखभाल कर रहा है.  इस दौरान वे प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी भी करते रहे पर सफलता हाथ नहीं लगी.
समय कट रहा था. 3 साल बाद अनु ने एक और बेटी प्रिया को जन्म दिया. मातृत्व अवकाश में अनु ने  घर संभाला. उस ने बच्चों की देखभाल के लिए 1 साल की और छुट्टी ली. उस के बाद बच्चों को देखने की समस्या फिर खड़ी हो गई थी.  तुषार बच्चों की परवरिश में कोई भी कसर नहीं छोड़ना चाहता था.
वह इस पक्ष में नहीं था कि बच्चों को दिनभर आया के हवाले छोड़ कर खुद नौकरी पर जाया जाए. वह जानता था कि शाम को जब थक कर मम्मीपापा दोनों घर आते हैं तो उन के तनाव का बच्चों पर क्या असर पड़ता है. वे किस तरह से बच्चों की परवरिश के लिए एकदूसरे को जिम्मेदार ठहराते हैं.  समस्या गंभीर थी और इस का हल निकालना भी जरूरी था.
एक दिन तुषार बोला,”मैं सोचता हूं कि नौकरी छोड़ कर अपना समय परिवार को दे दूं.”
“नहीं, तुषार नौकरी छोड़ने की नौबत आई तो नौकरी मैं छोङूंगी तुम नहीं.”
“भला क्यों?”
“एक पुरुष का इस तरह नौकरी छोड़ कर अपने को घर पर कैद कर लेना किसी को भी अच्छा नहीं लगता.”
“मैं किसी की नहीं तुम्हारी बात पूछ रहा हूं. तुम तो जानती हो घर पर रह कर भी मैं अपने लिए कुछ न कुछ काम ढूंढ़ ही लूंगा. मुझे जितना वक्त मिलेगा उस दौरान मैं मार्केटिंग का औनलाइन काम कर लूंगा.”
“यह काम इतना सरल नहीं है.”
“मन में लगन हो तो कठिन काम भी सरल हो जाते हैं. तुम्हें मुझ पर भरोसा तो है?”

न चाहते हुए भी रोबोट बनता जा रहा है इंसान

बोलने वाले व सुनने वाले कहीं भी मिल जाएंगे. किसी भी पेड़ के नीचे टूटी चारपाइयों पर, बसस्टैंडों पर, चाय की दुकानों में, स्कूलोंकालेजों में, चर्चों, मसजिदों, मंदिरों, गुरुद्वारों में, एयरकंडीशंड हौलों में और यहां तक कि घर की बैठक और रसोई तक में भी. फर्क यह है कि इन बोलने व सुनने वालों की नीयत में हर जगह मतलब अलग होता है.

जहां स्कूलकालेजों में बोलने व सुनने वाले कुछ देना, बताना व जानना चाह रहे होते हैं वहीं सिनेमाहौल या म्यूजिक कंसर्ट में सिर्फ कुछ ऐसा सुनना चाह रहे होते हैं जो घंटों कानों में बजता रहे, कुछ मीठी यादें दिलाता रहे. टीवी, रेडियो भी यही कर रहे हैं. नेताओं को सुनने का मतलब है उन पर भरोसा कर के अपना वोट देना व अपने ऊपर उन के नियंत्रण को इजाजत देना.

मंदिर, मसजिद, चर्च, गुरुद्वारे में सुनने का अर्थ है अपने को छोटा, बेकार मानना और किसी गुजरे व्यक्ति की पुरानी बात को ले कर आज की जिंदगी चलाना. यही नहीं, जो न सुने उसे जान से मार देना भी चाहे इस दौरान अपनी ही जान चली जाए.

अब बोलने व सुनने की नई विधा आ गई है, मोबाइल. इस में आप जीभर कर हर समय, रातदिन सुनते रह सकते हैं. यह सुनना एकतरफा है. आप सवाल नहीं पूछ सकते. अगर गाने सुन रहे हैं तो सवाल भी मन में पैदा नहीं होते. म्यूजिक सूदिंग होता है, बाहरी शोर को ढक देता है पर वह आप की कुछ सुन कर उस से कुछ सम झने की ताकत को कम कर देता है.

मोबाइल पर गाने सुनना या रील्स देखना सब से पौपुलर टाइमपास हो गया है पर यह टाइमपास से टाइमवेस्ट हो गया है. यह वह नशा है जिस की लत पड़ जाए तो सामने यदि कोई हाड़मांस का व्यक्ति भी बोलता है तो उस का उत्तर देना वैसे ही जरूरी नहीं सम झा जाता जैसा किसी गाने को सुन कर या रील को देख व सुन कर कुछ कहने का मौका नहीं होता.

रेडियो और टैलीविजन ने यह क्रांति शुरू की थी पर आज यह कुछ मिनट नहीं बल्कि बहुत ही ज्यादा समय लेने लगी है और मानव स्वभाव को बदलने भी लगी है. जो लोग रील्स देखने के आदी हो रहे हैं वे एक तरफ की बात सुनने के आदी होते जा रहे है, उन में अपनी बात कहने की आदत खत्म होती जा रही है.

विकास के लिए, दिमाग को खोलने के लिए, किसी कौंप्लैक्स बात को सम झने के लिए सुनने के साथ कहते रहना जरूरी है पर मोबाइल रिवोल्यूशन आज इस मोड़ पर है जिस पर सिर्फ सुना जा रहा है, पर न सोचा जा रहा है, न सम झा जा रहा है और न जवाब दिया जा रहा है.

सिर्फ सुनते समय दिमाग एक तरह से सुन्न हो जाता है. वह उस समय विश्लेषण करना बंद कर देता है. सुनते हुए अगर प्रश्न करने की कला भूल जाएं तो बहुत खतरनाक होता है, खासतौर से हर उस शख्स की स्थिति में जो कान में इयरबड लगाए घूम रहा है.

धर्म के प्रचारक अपने भक्तों को धार्मिक प्रवचन सुनते समय हमेशा दिमाग बंद करने की सलाह देते हैं. वे सवाल न पूछने की हिदायत पहले ही दे देते हैं. जो सुनो उसे मान लो, सवाल न करो. धर्म तर्क का नहीं, आस्था का सवाल है. धर्म में जो कहा गया उसे मान लो. हर प्रवचन ईश्वर की वाणी है, उस ईश्वर की जिस ने सब को जन्म दिया, जिस ने खाना- मकान दिया, जो दुनिया चलाता है, जो जीतेजी क्या मरने के बाद फैसले करता है, जिस से किसी की कोई बात छिपी नहीं है, जो उस प्रवचन देने वाले के मुंह के माध्यम से अपनी बात कह रहा है. इस तरह की तमाम बातें सुनने वालों पर थोप दी जाती हैं.

मोबाइल यही कर रहा है. वह ईश्वर के प्रवाचकों का स्थान लेने लगा है. फिल्म में आप देख और सुन दोनों सकते हो पर जो देखा और जो सुना उसे अंतिम शब्द मान लो. मोबाइल के इन्फ्लुएंसर्स आज प्रवाचकों से ज्यादा पौपुलर हो गए हैं क्योंकि वे सिर्फ मरने, कर्मों, पाप, पुण्य की बात नहीं करते. वे वैरायटी रखते हैं पर उन का फंडा भी वही प्रवाचकों जैसा हैं. यानी, जो कहा है उसे सच मान लो. आखिर, दूसरे लाखों भी तो सच मान रहे हैं न.

पौलिटिकल नेताओं की तरह कोई इन्फ्लुएंसर्स से भी सवाल नहीं कर सकता. इंस्टाग्राम, यूट्यूब, फेसबुक सवाल पूछने के प्लैटफौर्म हैं ही नहीं. थ्रेड्स और एक्स हैं पर उन में बोला और सुना नहीं जाता बल्कि लिखा व पढ़ा जाता है, चाहे कम शब्दों में.

सिर्फ सुनने की आदत इंसान की पर्सनैलिटी को बदल रही है. सुना भी वही जिस में डांट नहीं, जिस में रास्ता दिखाने का वादा नहीं. सुना भी उन्हें जो जरूरी नहीं कि जीवन जीने की कला सिखा रहे हों. सुनने और देखने में दिन के घंटों पर घंटे और फिर हर रोज लगातार मोबाइल से चिपक कर एकतरफा संवाद के आदी इंसानों का अपना दिमाग विश्लेषण या एनालिसिस करना भूलता जा रहा है. सामाजिक उन्नति तब शुरू हुई थी जब लोगों ने सम झ कर सवाल करने शुरू किए.

आज मोबाइल पर इन्फ्लुएंसर्स रेन ड्रौप्स की तरह हैं जो किसी सरफेस पर पड़ती हैं और मिनटों में उन का सफाया हो जाता है. उन की बात, उन की तसवीर न अशोक के स्तंभों पर लिखे शब्दों की तरह हैं जो 2,500 साल बाद भी पढ़े जा सकते हैं न अजंता की गुफाओं के चित्रों की तरह जो 1,000 साल से तब का हाल बता रहे हैं.

मोबाइल कल्चर कुछ सैकंडों के लिए है, 15, 20 या 30 सैकंड में दिमाग किसी बात को ग्रहण कर उसे मन में नहीं बैठा सकता कि बाद में उस का इस्तेमाल कर सके. रील्स पौपुलर हुईं क्योंकि एक पीढ़ी ने अपनी नई पीढ़ी को इग्नोर करना शुरू कर दिया. काम में व्यस्त पीढ़ी ने युवाओं को स्कूलों के हवाले कर के और बचपन से टीवी के आगे बैठा कर एकतरफा ज्ञान को हासिल करने तक लिमिटेड कर डाला.

सदियों तक जब मानव सभ्यता बहुत धीरेधीरे विकसित हो रही थी, घरों में नए बच्चों के साथ बात करने की फुरसत किसी को नहीं होती थी. जिन्हें फुरसत होती थी उन के पास शब्द नहीं होते थे क्योंकि शब्द वही प्रचलित थे जिन्हें कोई धर्म का दुकानदार दे गया हो. छपाई की सुविधा नहीं थी. जिन्हें कहानियां याद रहती थीं उन प्रवाचकों की पूछ थी. दादियोंनानियों की पूछ थी क्योंकि वे भी कहानियां याद रखती थीं. पीढ़ी दर पीढ़ी वही कहानियां सुनाई गईं और उन्हीं पर विश्वास करना भी सिखाया गया.

नतीजा यह था कि मानव को प्रकृति के थपेड़े खाने पड़े और अपने से बलशाली मानव के भी. सिर्फ राजा या धर्मगुरु के कहने पर हजारों की फौज मरनेमारने को तैयार हो जाती थी. ह्यूमन हिस्ट्री केवल मारकाट, हिंसा, रेप, लूट, आगजनी की बन कर रह गई थी. 500 साल पहले जब प्रिंटिंग प्रैस आया और नए शब्दों को कागज पर छाप कर बांटने की तकनीक डैवलप हुई तो मानव मस्तिक का विकास शुरू हुआ. सवाल पूछे जाने लगे राजा से, धर्मगुरु से, घर में दादापिता से भी. पढ़ने पर विविधता का ज्ञान हुआ. लिखने की कला भी बढ़ने लगी. अपनी बात, जो दूसरों की बात से अलग हो, कहने का मौका मिलने लगा. जो लिखा गया, उसे छपवा कर बंटवाने की सुविधा मिलने लगी.

हर नए मोड़ पर नई चीजें बनने लगीं. लोग 10-20 मील नहीं, सैकड़ों मील जाने लगे.  झोंपडि़यों की जगह मकानों की कतारें बनने लगीं. मशीनों की खोज होने लगी. प्रकृति की देन को सम झा जाने लगा. हर चीज भगवान की बनाई नहीं होती, मानव खुद बहुतकुछ बना सकता है. जो नया निर्माण पहले 2,000 सालों में हुआ करता था, 20 सालों में होने लगा, उस के बाद तो और भी तेजी आई. हर समय कुछ न कुछ नया बना लिया जाता है.

क्यों? क्योंकि सिर्फ सुनना बंद हो गया, सिर्फ देखना बंद हो गया जबकि सोचना या सोचा जाना शुरू हो गया. जो है वह भगवान की कृपा नहीं है, हम खुद काफीकुछ कर सकते हैं केवल राजा या धर्मगुरु के लिए ही नहीं बल्कि खुद अपने लिए भी. यह तकनीक की तेजी का परिणाम है कि आज हर 2 महीनों में नई तकनीक के मोबाइल आने लगे हैं. कंप्यूटरों ने खोज व निर्माण को नया रास्ता दिखाया. लेकिन अब क्या यह अपनी पीक पर पहुंच गया है? क्या नई पीढ़ी सिर्फ सुन सकती है, सिर्फ देख सकती है? लगता तो ऐसा ही है. आज युवाओं के हाथ में पैन, कागज नहीं हैं. वे लिख नहीं सकते.

सुनने और देखने भर की क्षमता ने उन से बोलना व लिखना छीन लिया है. पढ़ने, सम झने और जो पढ़ा व सम झा उस में खामियां निकालने की कला साफ हवा की तरह गायब हो गई है. मोबाइल आधुनिक तकनीक का है पर उस ने मानव पीढ़ी को 500 साल पुराने समय की ओर धकेल दिया है जब सिर्फ सुना जाता था, राजा को या धर्मगुरु को. आज राजा और धर्मगुरुओं का स्थान इन्फ्लुएंसर्स ने ले लिया है लेकिन वे मोबाइल पर बिखरे प्लेटफौर्मों के मालिकों के लिए काम रहे हैं.

आज एक पीढ़ी केवल मानसिक गुलाम बन कर रह गई है. वह मानवरूपी रोबोट सी हो गई है. मोबाइल की आदी इस पीढ़ी को हुक्म सुनने की आदत हो गई है. वह खुद कुछ बना कर निर्माण करना भूल गई है. इस पीढ़ी में कुछ अपवाद हैं. जो कुछ पढ़ रहे हैं, सोच रहे हैं, लिख रहे हैं, सवाल भी कर रहे हैं वे ही पैसा कमा रहे हैं. अमीरगरीब के बढ़ते भेद का एक कारण यह है कि जो सिर्फ सुनने और देखने में समय नहीं लगाता, वह आगे बढ़ जाता है, भीड़ से कहीं आगे.

आप किस में है? सिर्फ सुनने और देखने वालों में या कुछ सम झ कर लिखने वालों में? सुन कर, देख कर पर साथ ही पढ़ कर सोच कर लिखना ज्यादा कठिन नहीं है. अगर मानव सभ्यता को, देशों को, अपने शहरों को, अपनी लाइफस्टाइल को, अपने परिवार को, अपने खुद को बचाना है तो फैसला करना होगा कि टाइमपास या टाइमवेस्ट करना है या टाइमयूज करना है. और लक्ष्य व दिशा जाने बिना चलना है या अपना लक्ष्य खुद सोचसम झ कर तय करना है.

 

 

 एक दाढ़ी कई अफसाने

दाढ़ी हर कोई रख और बढ़ा सकता है, इस का मैंटेनैंस भी कोई खास ज्यादा नहीं. विद्वान और परिपक्व दिखाने में दाढ़ी मददगार साबित होती है लेकिन कभीकभार यह दिक्कतें भी देती है. मु?ो बगावत की भनक पहले ही लग चुकी थी, मैं चाहता तो उस ‘दाढ़ी’ की दाढ़ी पकड़ उसे खींच सकता था,’ महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और उन की मनमोहक दाढ़ी पर इतने अधिकारपूर्वक कौन बोल सकता है. जाहिर है, सिर्फ उद्धव ठाकरे जिन की वजह से एकनाथ शिंदे आज वहां विराजे हैं जहां तक पहुंचने के लिए अच्छेअच्छों को पापड़ बेलने पड़ते हैं. फिर शिंदे तो दाढ़ी उगने के दिनों में ठाणे में औटोरिकशा चलाते थे.

एक दिन यों ही शिवसेना की रैली में हायहाय उन्होंने की तो उन का समय ऐसा चमका कि आज वे महाराष्ट्र चला रहे हैं, जिस में 2 पहिए भाजपा के और 2 शिवसेना के हैं. कुछ कलपुर्जे एनसीपी और कांग्रेस के भी इस से जुड़े हैं. अब कब तक यह जुगाड़ वाली गाड़ी, बकौल उद्धव ठाकरे, इस दाढ़ी से चल पाएगी, यह राम जाने. कम ही लोग जानते हैं कि एकनाथ शिंदे के बचपन का नाम राहुल पांचाल था और वे सतारा के एक बेहद गरीब कुनबी समुदाय के परिवार से हैं. अपने औटोरिकशा में सवारियां ठूंस कर उन्हें एडजस्ट करने का तजरबा अब सरकार चलाने के काम आ रहा है.

उद्धव क्यों शिंदे से इतना चिढ़ते हैं कि उन का असली नाम जबां पर लाने में भी अपनी तौहीन सम?ाते हैं. यह खी?ा, तकलीफ या जलन कुछ भी कह लें किसी से छिपी नहीं रह गई है. महाराष्ट्र में अब हर कोई शिंदे को दाढ़ी नाम से ही बुलाता है. उन की घनी काली दाढ़ी है ही इतनी आईकैचर कि नजर उस पर ठहर कर रह जाती है. आजकल इतनी ‘हाई क्वालिटी’ की दाढि़यां कम ही देखने में आती हैं.

उद्धव के हमले पर शिंदे चुप नहीं रहे. जवाब में उन्होंने कहा कि इस दाढ़ी के हाथ में आप की नब्ज दबी है. कव्वाली स्टाइल के ये सवालजवाब आम लोगों को सम?ा नहीं आए कि कौन सी नब्ज यानी राज की बात हो रही है जिस के उजागर होने से महफिल में न जाने क्या हो जाएगा. सम?ादार लोगों ने दाढ़ी से ज्यादा कुछ नहीं सोचा और उस में भी यही सोचा कि जो भी हो, शिंदे की काली चमकती दाढ़ी का कोई जवाब नहीं. दाढ़ी हो तो शिंदे जैसी, नहीं तो हो ही न.

राजनीति में दाढ़ी की अपनी अलग अहमियत है. यह उस वक्त और बढ़ गई थी जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोनाकाल में दाढ़ी रखी थी. इस दाढ़ी में बड़े सस्पैंस थे. वजह, यह कोई ऐरीगैरी दाढ़ी नहीं थी. कांग्रेसियों और वामपंथियों को इस में भी कोई चालाकी और साजिश नजर आ रही थी लेकिन दक्षिणापंथी भक्तगण मोदी की दाढ़ी को वात्सल्य भाव से निहारे जा रहे थे. उन की नजर में मोदीजी गुरु वशिष्ठ और गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर जैसे दिख रहे थे जबकि विरोधियों को उन की दाढ़ी का यह स्टाइल हिंदी फिल्मों के एक विलेन अनवर जैसा लग रहा था. इस दाढ़ी पर कई दिनों तक टीकाटिप्पणियां होती रहीं लेकिन वह सब भी बढ़ी दाढ़ी की तरह निरर्थक साबित हुआ, कोई निष्कर्ष नहीं निकला.

दाढ़ी और जीडीपी

कांग्रेसी नेता शशि थरूर भी मोदी की दाढ़ी को ले कर आंदोलित थे, जिस के लिए उन्होंने इंग्लिश के एक शब्द श्चशद्दशठ्ठशह्लह्म्शश्चद्ध4 का इस्तेमाल किया जिस का मतलब दाढ़ी बढ़ाना होता है. नएनए शब्द लौंच करने के लिए पहचाने जाने वाले थरूर ने एक ट्वीट के जरिए यह तक साबित कर दिया था कि जैसेजैसे जीडीपी गिर रही है वैसेवैसे मोदी की दाढ़ी बढ़ रही है. इस बाबत उन्होंने मोदी के दाढ़ीयुक्त चेहरे के 5 फोटोज भी शेयर किए थे जिन में दाढ़ी क्रमश: बढ़ती हुई नजर आ रही है.

इसी के साथ उन्होंने गिरती हुई जीडीपी के आंकड़े भी शेयर किए थे. इसे ग्राफिक्स इलस्ट्रेशन बताते हुए थरूर ने बढ़ती का नाम दाढ़ी और गिरती का नाम जीडीपी जैसी बात कर दी थी तो मोदीभक्त उन पर भड़क गए थे. उन्हें मोदी तो मोदी, उन की दाढ़ी तक की बुराई सुनना गवारा नहीं था और न आज है. क्योंकि, मोदी उन के आदर्श, आराध्य और प्रभु हैं.

पर ये लोग दाढ़ी के जरिए देश की तरक्की का ग्राफ दे कर थरूर के नहले पर दहला नहीं जड़ पाए थे. अंधभक्ति का एक बड़ा दुर्गुण यही है कि उस के पास सम्यक दृष्टि नहीं होती, फिर तर्कवर्क करना तो दूर की बात है.

मोदी की बढ़ी दाढ़ी के बवाल का जवाब कांग्रेस नेता व सांसद राहुल गांधी ने अपनी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान दिया था. उन की बढ़ी दाढ़ी पर भी खूब कमैंटबाजी हुई थी. भगवा गैंग में से किसी ने ताना मारा था कि दाढ़ी बढ़ा लेने से आप प्रधानमंत्री नहीं बन जाएंगे. मोदी समर्थक और भक्तों को राहुल की दाढ़ी इतनी चुभी थी कि उन्होंने इस की तुलना सद्दाम हुसैन की दाढ़ी से कर दी थी. असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा ने गुजरात में चुनावप्रचार के दौरान जैसे ही यह कहा कि दाढ़ी के चलते राहुल का चेहरा सद्दाम हुसैन जैसा होता जा रहा है, राहुलभक्त भी हावहाव करते उन पर टूट पड़े थे.

कांग्रेसी दिग्गज दिग्विजय सिंह ने कहा था यह वह व्यक्ति है जो कांग्रेस के नेताओं के पैर पकड़ता था. उन को शर्म आनी चाहिए आज वे जो भी हैं कांग्रेस की वजह से हैं. लेकिन हेमंत शर्मा नहीं शरमाए. शर्म तो उन्होंने तभी बेच खाई थी जिस दिन कांग्रेस छोड़ भाजपा जौइन की थी.

इस से ज्यादा चुभने वाली बात अलका लाम्बा ने यह कही कि अच्छा हुआ जब हेमंत बिस्वा राहुल से मिलने गए थे तब राहुल ने उन के बजाय अपने वफादार कुत्ते को तरजीह दी. तब हेमंत बिस्वा को यह अंदाजा नहीं रहा होगा कि राहुल की दाढ़ी भी उन्हें बेइज्जत करा देगी.

दाढ़ी से परे दिलचस्प किस्सा राहुल के कुत्ते का है जिसे हेमंत जबतब सुनाया करते हैं कि एक बार जब वे राहुल से मिलने उन के घर पहुंचे तो उन्होंने मेरी बात नहीं सुनी और अपने कुत्ते को बिस्कुट खिलाते पुचकारते रहे. अब राहुल ने उन्हें क्यों नहीं पुचकारा, यह भी कोई सस्पैंस की बात नहीं रह गई थी जो वे अपने मुंह से भाजपा की भाषा बोलने लगे थे.

खैर, वफादारी का इनाम हेमंत को भी मिला और भाजपा ने उन्हें सुग्रीव व विभीषण की तरह गले लगाते उन का राजतिलक कर दिया यानी असम का मुख्यमंत्री बना दिया, जिस के एवज में वे आज तक मोदी के सामने नतमस्तक रहते हैं और राम नामी इतने हो गए हैं कि असम से सभी दाढ़ी वालों को खदेड़ने की योजनाएं बनाते रहते हैं.

नरेंद्र मोदी की दाढ़ी ज्यादा चर्चित रही थी या राहुल गांधी की, यह तो कोई नहीं बता पाया लेकिन एक फर्क लोगों ने साफ देखा कि राहुल की दाढ़ी खिचड़ी दाढ़ी है, उस में आधे बाल काले हैं जबकि मोदी की दाढ़ी पौराणिक ऋषिमुनियों सरीखी ?ाकास सफेद है. इस का ताल्लुक उम्र से है कि अभी राहुल गांधी जवान हैं जबकि मोदीजी वानप्रस्थ आश्रम की उम्र को भी पार कर चुके हैं. लेकिन वे कुछ भी हो जाए अब कुरसी नहीं छोड़ने वाले. उम्र उन की राह में बाधा नहीं हो सकती.

अब मुमकिन है कि वे 400 पार की मंशा के लिए फिर से दाढ़ी न बढ़ाने लगें, हालांकि इस की उम्मीद कम है, फिर भी याद यह रखा जाना चाहिए कि वे मोदी हैं और मोदीजी कुछ भी कर सकते हैं, उन की मरजी.

दाढ़ी का रिवाज

दाढ़ी रखने का रिवाज मानव सभ्यता से मेल खाता हुआ है जिस का उद्भव धर्म से हुआ. हालांकि दाढ़ी खुद धर्मनिरपेक्ष है लेकिन इस दौर में दाढ़ी का भी धर्म होने लगा है. नरेंद्र मोदी ने कभी लोगों को वेशभूषा से पहचानने का मशवरा सार्वजनिक मंच से दिया था तो कई दिग्गज मुसलिम नेता तिलमिला उठे थे कि देखो, उन का इशारा मुसलमानों के कपड़ों और दाढ़ी की तरफ है. इस सच से हर कोई रोज रूबरू होता है कि हिंदुओं की दाढ़ी मुसलमानों की दाढ़ी से भिन्न होती है. इस विवाद से परे देखें तो दाढ़ी धर्मगुरुओं के चेहरे पर हमेशा से चिपकी रही है. उन की देखादेखी साधु और मौलाना वगैरह भी दाढ़ी रखते हैं.

लेकिन ?ां?ाट उस वक्त खड़ा होने लगा जब साधुओं के अलावा शैतानों ने भी दाढ़ी रखनी शुरू कर दी. वे अपनी पहचान छिपाने के लिए दाढ़ी बढ़ाते हैं जबकि धार्मिक लोग पहचान उजागर करने के लिए दाढ़ी को फलनेफूलने देते हैं. चंबल के डाकू भी दाढ़ी रखते हैं और अंडरवर्ल्ड के डौन भी व गलियों के गुंडे भी. इसीलिए रोते छोटे बच्चों को चुप कराने के लिए यह कहते डराया जाता है कि चुप हो जा, नहीं तो ?ाले और दाढ़ी वाला बाबा आ जाएगा. दाढ़ी न होती तो ये बच्चे भी बाबा से न डरते. अब थोड़ा बदलाव आया है कि अधिकतर गुंडे, डौन वगैरह क्लीन शेव रहने लगे हैं.

साहित्यिक दाढि़यां

राजनीतिक और धार्मिक दाढि़यों के बाद साहित्यिक दाढि़यां खूब प्रसिद्ध हुईं. इतनी हुईं कि रवींद्रनाथ टैगोर की दाढ़ी अपनेआप में ब्रैंड बन गई. 70-80 के दशक में दाढ़ी रखने के शौकीन युवा सैलून जा कर टैगोर कट दाढ़ी की मांग करते थे और जो समाज का लिहाज नहीं करते थे वे हिटलर कट दाढ़ी रखते थे. कवियों और शायरों की तो पहचान ही उन की दाढि़यों से होती है. तुकबंदी और पैरोडी के लिए मशहूर हास्य कवि काका हाथरसी की दाढ़ी भी अल्पकाल के लिए ब्रैंड बनी थी.

पंत और निराला की दाढि़यों की नकल कम ही हुई लेकिन अगर किसी युवा की दाढ़ी बढ़ी हुई दिखती है तो उसे मजनू, शायर, कवि और फिलौसफर जैसे संबोधनों से नवाज दिया जाता है. इधर, कुछ सालों से लोगों की राय दाढ़ी के बारे में बदली है क्योंकि उन का स्टाइल फैशन के तहत आने लगा है जो फिल्मों से प्रेरित होती हैं.

फिल्मी दाढि़यां

अमिताभ बच्चन ने जब फ्रैंच कट दाढ़ी रखी थी, समूचे युवा आंदोलित हो उठे थे. फ्रैंच कट दाढ़ी रखने की होड़ ऐसी मची थी कि नाइयों की शामत आ गई थी. अमिताभ बच्चन की दाढ़ी के आगे मोदी या राहुल की दाढ़ी कहीं नहीं ठहरती. एक नामी अखबार ने तो अमिताभ की दाढ़ी पर संपादकीय ही लिख डाला था जबकि संपादकीय आमतौर पर गंभीर सामयिक विषयों पर लिखा जाता है. फिल्मों में खलनायकों की दाढ़ी नायकों की दाढ़ी से ज्यादा लोकप्रिय होती है. ‘अमर अकबर एंथोनी’ फिल्म में प्राण ने 3 तरह की दाढि़यां रखी थीं.

बढ़ी दाढ़ी अगर विलेन के लिए अनिवार्यता थी तो क्लीन शेव रहना हीरो की अनिवार्यता थी. इस से ही दर्शक दोनों में भेद कर पाता था. यह और बात है कई फिल्मों में नायक को दाढ़ी रखनी पड़ी और विलेन क्लीन शेव रहा.

शक्ति कपूर, रंजीत और गुलशन ग्रोवर अधिकतर फिल्मों में दाढ़ीविहीन दिखे. हीरो ने कहानी की मांग के मुताबिक दाढ़ी रखी. ‘गाइड’ फिल्म में देवानंद की दाढ़ी और ‘क्रोधी’ फिल्म में धर्मेंद्र की दाढ़ी कहानी की मांग थी.

नए दौर के नायकों में नवीन कुमार गौड़ा भी हैं जिन्हें यश नाम से जाना जाता है और जो कन्नड़ सिनेमा के अभिनेता हैं. फिल्म ‘केजीएफ’ में दाढ़ी वाले लुक से वे छा गए. कार्तिक आर्यन, आयुष्मान खुराना और रणबीर कपूर भी किरदार के हिसाब से दाढ़ी रख लेते हैं लेकिन वे लहलहाती हुई नहीं होतीं, 3-4 दिन की बढ़ी हुई होती हैं.

यही चलन आज के दौर के युवाओं में ज्यादा देखने में आता है. वे डेली शेव करते हैं. बात युवाओं की हो तो दाढ़ी के माने उन के लिए अलग होते हैं. आमतौर पर युवा फोड़े, फुंसी और मुंहासे छिपाने के लिए दाढ़ी बढ़ाते हैं. कालेज के शुरुआती दिनों में अधिकतर युवा दाढ़ी बढ़ाते हैं पर उस के 2 इंच क्रौस होते ही घबरा भी उठते हैं और फिर सफाचट हो जाते हैं. आजकल की प्रेमिकाओं और पत्नियों को दाढ़ी कम ही भाती है.

दाढ़ी की महिमा अनंत है. इतिहास में अगर दक्षिण और दक्षिणापंथियों की दाढि़यां दर्ज हैं तो मार्क्स और एंगल्स की दाढि़यां भी किसी से उन्नीस नहीं थीं. उन की दाढ़ी में तिनके न के बराबर थे, इसलिए बेचारे अपनी प्रासंगिकता खो रहे हैं. ज्यादा तिनके वाली दाढ़ी दुनियाभर में चल रही है.

गुरुनानक, वशिष्ठ, भीष्म पितामह, दशरथ, रावण, वेदव्यास और कबीर तक की दाढि़यां कम मशहूर नहीं हुईं. कई विदेशी दाढि़यों ने भी लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचा था लेकिन उन में अधिकतर वैज्ञानिक ज्यादा थे, मसलन गैलेलियो, ग्राहम बैल, अल्फ्रेड नोबेल, चार्ल्स डार्विन वगैरह. लेकिन ये सब भी गुजरे कल की बात हो चले हैं. वैज्ञानिक अब दाढ़ी से बहुत ज्यादा मोह नहीं रखते.

इधर, कौर्पोरेट कल्चर के चलते भी दाढि़यां कम रखी जा रही हैं क्योंकि दाढ़ी न रखना या न बढ़ाना साहबी की निशानी मानी जाती है जो अलिखित वसीयत में अंगरेज दे गए हैं. कलैक्टर, डाक्टर और इंजीनियर से ले कर पटवारी व ड्राइवर, कंडक्टर तक दाढ़ी नहीं बढ़ाते. मुमकिन है यह उन के प्रोफैशन की मांग हो लेकिन यह नपातुला सच है कि कोई 85 फीसदी मर्द जिंदगी में एक न एक बार दाढ़ी जरूर बढ़ाता है.

कोरोना के कहर के दौरान तो थोक में दाढि़यां बढ़ीं थीं क्योंकि किसी को बाहर नहीं निकलना था. उस अप्रिय और बुरे दौर के हंसीमजाक में पत्नियां पतियों को भिक्षुक तक कहने लगी थीं. दाढ़ी पुराण के संक्षिप्त वर्णन के बाद समापन इन शब्दों के साथ कि उद्धव ठाकरे जैसे एकनाथ शिंदे को दाढ़ी कह कर संबोधित करते हैं वैसे ही उन की तरह हर दाढ़ी वाले का नामकरण रिश्ते के साथ होता है. जैसे दाढ़ी वाले फूफा, दाढ़ी वाले मौसा और दाढ़ी वाले मामा वगैरह जो हर किसी की रिश्तेदारी में निकल ही आते हैं. लेकिन, अपने पिता को कभी कोई दाढ़ी वाले पापा नहीं कहता.

 

आरोही : भाग 1- अविरल की बेरुखी की क्या वजह थी?

शाम के 5 बजे थे. आज अविरल औफिस से जल्दी आ गया था. पतिपत्नी दोनों बैठ कर कौफी पी रहे थे. तभी अविरल ने कहा, ‘‘आरोही, अगले महीने 5 दिनों की छुट्टी है, कश्मीर चलते हैं. एक दिन डल लेक में सैर करेंगे. बचपन से ही मुझे स्नोफौल देखने की बहुत बड़ी तमन्ना है. मैं ने वेदर फोरकास्ट में देखा था, श्रीनगर में स्नोफौल बता रहा है.’’ वह उम्मीदभरी नजरों से पत्नी के चेहरे को देख रहा था.

आरोही आदतन अपने मोबाइल पर नजरें लगाए कुछ देख रही थी. अविरल आईटी की एक मल्टीनैशनल कंपनी में सीनियर मैनेजर था. उस की औफिस की व्यस्तता लगातार बनी रहती थी. पत्नी डा. आरोही सर्जन थी. वह एक बड़े हौस्पिटल में डाक्टर थी. उस ने अपने घर पर भी क्लीनिक खोल रखा था. इसलिए यहां भी मरीज आते रहते थे. दोनों पतिपत्नी अपनीअपनी दिनचर्या में बहुत बिजी रहते थे.

वह धीरे से बुदबुदाई, ‘‘क्या तुम कुछ कह रहे थे?’’

‘‘आरोही, तुम्हें भी सर्जरी से ब्रेक की जरूरत है और मैं भी 2-4 दिनों का ब्रेक चाहता हूं. इसलिए मैं ने पहले ही टिकट और होटल में रूम की बुकिंग करवा ली है.’’

वह पति की बात को समझने की कोशिश कर रही थी क्योंकि उस समय उस का ध्यान अपने फोन पर था.

‘‘आजकल लगता है कि लोग छुट्टियों से पहले से ही प्लानिंग कर के रखते हैं. बड़ी मुश्किल से रैडिसन में रूम मिल पाया. एअरलाइंस तो छुट्टी के समय टिकट का चारगुना दाम बढ़ा देती हैं,’’ अविरल बोल रहा था.

‘‘कहां की बुकिंग की बात कर रहे हो?’’

‘‘तुम से तो बात करने के लिए लगता है कि कुछ दिनों के बाद मुझे भी पहले अपौइंटमैंट लेना पड़ेगा,’’ वह रोषभरे स्वर में बोला, ‘‘श्रीनगर.’’

‘‘श्रीनगर, वह भी दिसंबर में, न बाबा न. मेरी तो कुल्फी दिल्ली में ही जमी रहती थी और तुम कश्मीर की बात कर रहे हो.’’

‘‘तुम्हारे साथ तो कभी कोई छुट्टी का प्लान करना ही मुश्किल रहता है. कहीं लंबा जाने का सोच ही नहीं सकते,’’ अविरल मुंह बना कर बोला.

अविरल के मुंह से श्रीनगर का नाम सुनते ही आरोही का मूड औफ हो गया था, ‘‘जब तुम जानते हो कि पहाड़ों पर जाने से मेरी तबीयत खराब हो जाती है, फिर भी तुम हिल्स पर ही जाने का प्रोग्राम बनाते हो. तुम्हें मेरी इच्छा से कोई मतलब ही नहीं रहता. मैं ने कितनी बार तुम से कहा है कि मुझे महाबलीपुरम जाना है. समुद्र के किनारे लहरों का शोर, उन का अनवरत संघर्ष देख कर मुझे जीवन जीने की ऊर्जा सी मिलती है. लहरों की गर्जन मुझे बहुत आकर्षित करती है.’’

‘‘हद करती हो, रहती मुंबई में हो और सी बीच के लिए महाबलीपुरम जाना है?’’

‘‘तुम्हें कुछ पता भी है, यह शहर तमिलनाडु के सब से सुंदर और लोकप्रिय शहरों में गिना जाता है. यहां 7वीं और 8वीं शताब्दी में पल्लववंश के राजाओं ने द्रविड़ शैली के नक्काशीदार अद्भुत भवन बनवाए थे, वे तुम्हें दिखाना चाहती हूं. मुझ से बिना पूछे तुम ने क्यों बुकिंग करवाई जबकि तुम्हें मालूम है कि मुझे पहाड़ों पर जाना पसंद ही नहीं,’’ आरोही उत्साह के साथ बोली.

‘‘क्या तुम ने कसम खा रखी है कि तुम वहीं का प्रोग्राम बनाओगी जहां मुझे जाने में परेशानी होने वाली है?’’ अविरल नाराजगी के साथ बोला. उन दोनों की शादी हुए 3 साल हो चुके थे. दोनों की पसंद बिलकुल अलगअलग थी. इसी वजह से आपस में अकसर नोकझोंक हो जाया करती थी और फिर दोनों के बीच आपस में कुछ दिनों तक के लिए बोलचाल बंद हो जाती थी.

आरोही ने गाड़ी की चाबी उठाई और बोली, ‘‘अब बंद करो इस टौपिक को. कहीं नहीं जाएंगे. आओ, बाहर मौसम कितना सुहावना हो रहा है, चलते हैं, कहीं आइसक्रीम खा कर आते हैं. थोड़ा ठंडी हवा में बैठेंगे. आज के औपरेशन ने मुझे बिलकुल थका कर रख दिया है.’’ अविरल ने साफ मना कर दिया, ‘‘मुझे तुम्हारी तरह भटकना पसंद नहीं.’’

इस के बाद लगभग 15 दिनों तक दोनों के बीच बोलचाल बंद रही. एक दिन यों ही समझौता करने के लिए आरोही पति से कहने लगी, ‘‘अविरल, हमारे यहां लोग सर्जरी से बचने के लिए बाबाओं और हकीमों के पास चक्कर काटते रहते हैं और जब बीमारी बढ़ कर लाइलाज हो जाती है तो डाक्टर से बारबार पूछते हैं कि डाक्टर, ठीक तो हो जाएंगे न? मरीज के पत्नी, बेटे के चेहरे की मायूसी देख कर मेरा दिल दुख जाता है. अवि प्लीज, थिएटर में अमोल पालेकर का ड्रामा है. मैं ने औनलाइन टिकट बुक कर लिए हैं. रात में 8 से 10 तक का समय है.’’

‘‘मेरी तो जरूरी मीटिंग है.’’

‘‘उफ, अविरल तुम कितने बदल गए हो, पहले मेरे साथ आइसक्रीम पार्लर भी उछलतेकूदते चल देते थे. अब तो जहां कहीं भी चलने को कहती हूं, तुरंत मना कर देते हो.’’

‘‘बस भी करो, आरोही. मैं तो तुम्हें खुश करने के लिए तुम्हारे साथ चल देता था. मुझे कभी भी यहांवहां भटकना पसंद नहीं था.’’

‘‘शायद, तुम्हें याद भी नहीं है कि आज मेरा बर्थडे है. सुबह से मैं तुम्हारे मुंह से ‘हैप्पी बर्थडे’ सुनने का इंतजार कर रही थी लेकिन छोड़ो, जब तुम्हें कोई इंटरैस्ट नहीं तो अकेला चना कहां तक भाड़ झोंकता रहेगा,’’ कहते हुए उस ने तेजी से कमरे के दरवाजे को बंद किया और लिफ्ट के अंदर चली गई. आंखों से आंसू बह निकले थे. उस ने अपने आंसू पोंछे और लिफ्ट से बाहर आ कर सोचने लगी कि अब वह कहां जाए? तभी उस का मोबाइल बज उठा था. उधर उस की बहन अवनी थी, ‘‘हैप्पी बर्थडे, दी. जीजू को आप का बर्थडे याद था कि नहीं?’’

‘‘उन के यहां ये सब चोंचले नहीं होते,’’ कह कर वह हंस दी.

‘‘दी, क्या सारे आदमी एक ही तरह के होते हैं? यहां रिषभ का भी यही हाल है. उसे भी कुछ याद नहीं रहता. इस बार तो ऐनिवर्सरी भी मैं ने ही याद दिलाई तो महाशय को याद आई थी.’’

वह जानती थी कि रिषभ इन सब बातों का कितना खयाल रखता है. आज सुबह सब से पहला फोन उसी का आया था. अवनी केवल उस का मूड अच्छा करने और उसे बहलाने के लिए कह रही थी. वह थोड़ी देर तक सोसाइटी के लौन में वौक करतेकरते बहन से बात करती रही, फिर घर लौट आई. डिनर का टाइम हो रहा था. श्यामा उसे देखते ही बोली, ‘‘मैडम, खाना लगाऊं?’’

‘‘चलो, मैं हाथ धो कर किचन में आती हूं.’’

‘‘सर ने कहा है कि आज सब लोग साथ में खाएंगे.’’

अविरल अभी भी अपने फोन पर गेम खेल रहा था. उसे उस का गेम खेलते देख मूड खराब हो जाता था. वह रातदिन काम करकर के परेशान रहती है और इन साहब को इतनी फुरसत रहती है कि बैठ कर गेम खेल रहे हैं. अविरल का कहना था कि गेम खेल कर वह अपना स्ट्रैस कम करता है. उसे भी अपनेआप को कंट्रोल करना चाहिए. लेकिन आरोही को तो खुद को रिलैक्स करने के लिए बाहर जा कर शौपिंग करना या आइसक्रीम खाना पसंद है. उस के चेहरे पर मुसकराहट आ गई थी. तब तक मांजी डाइनिंग टेबल पर बैठ चुकी थीं. श्यामा ने भी खाना लगा दिया था. उस ने डोंगा खोला तो छोले देख उस के मुंह में पानी आ गया था, ‘‘ओह, आज कुछ खास बात है क्या?’’

‘‘मैडम, सर ने आज कुछ स्पैशल बनाने के लिए बोला था. आज मूंगदाल का हलवा भी बना है.’’

मूंग दाल का हलवा हमेशा से उस का फेवरेट रहा है.

‘‘मेरे तो मुंह में पानी आ रहा है, अवि. जल्दी आओ, प्लीज.’’ अविरल फोन पर किसी से बात कर रहा था.

मांजी ने उस के सिर पर हाथ रखा और उस के हाथ में अंगूठी का डब्बा पकड़ा दिया, ‘‘हैप्पी बर्थडे आरोही, यह अविरल अपनी पसंद से लाया है.’’ वह जानती थी कि यह काम अकेली मांजी का है, अविरल का दिमाग इन सब में चलता ही नहीं है, लेकिन अविरल के चेहरे की मंदमंद मुसकान देख उसे उस पर बहुत प्यार आ रहा था. अविरल मुसकरा कर बोला, ‘‘सुबह जब मैं फ्रैश हो कर इधर आया, तुम अस्पताल जा चुकी थीं. इसलिए मैं ने यह सरप्राइज प्लान कर लिया. कैसा लगा डा. आरोही, मेरा सरप्राइज?’’

‘‘ओह अविरल, यू आर वैरी क्यूट.’’

वह खाना सर्व ही कर रही थी कि तभी कौलबेल बजी. घर के अंदर मामाजी रोनी सी सूरत बना कर आए. कमरे का माहौल बदल चुका था, वे अपने हाथ में एक फाइल लिए हुए थे, ‘‘मेरी आरोही बहू इतनी बड़ी डाक्टरनी है. पहले उसे दिखाएंगे.’’ सब की निगाहें उस पर अटकी हुई थीं और आरोही के हाथ में उन्होंने फाइल पकड़ा दी.

‘‘मामाजी, आप भी खाना खा लीजिए.’’

‘‘अरे डाक्टर बहू, तुम खाने की बात कर रही हो, यहां मेरी सांसें रुकी जा रही हैं.’’

मजबूरन उस ने फाइल हाथ में ले ली, सरसरी निगाहों से देखा फिर बोली, ‘‘डाक्टर मयंक ने बायोप्सी के लिए लिखा है तो आप को सब से पहले बायोप्सी करवानी पड़ेगी.’’

‘‘बहू, तुम समझती क्यों नहीं, मुझे दर्दवर्द बिलकुल नहीं है. तुम तो बेमतलब की बात कर रही हो. काटापीटी होगी तो बीमारी बढ़ नहीं जाएगी?’’

वह पहले भी कई बार स्पष्ट रूप से सब से कह चुकी थी कि वह हार्ट की डाक्टर है, कैंसर के बारे में ज्यादा नहीं जानती लेकिन मामाजी तो, बस, बारबार बहूबहू कर के पीछे पड़ कर रह गए हैं. उस ने फाइल पकड़ाते हुए कहा, ‘‘बायोप्सी जरूरी है. यह आवश्यक नहीं कि कैंसर ही हो, फाइब्रौड भी हो सकता है. वह औपरेट कर के आसानी से निकाल दिया जाएगा.’’

‘‘अरे बहू, तुम तो इतनी बड़ी डाक्टर हो, कुछ और इलाज बता दो, औपरेशन न करवाना पड़े.’’

यह पहली बार नहीं था. कभी मामाजी तो कभी मौसाजी, तो कभी कोई अंकल हर 8-10 दिनों बाद कोई न कोई समस्या ले कर उस के सामने आ खड़े होते. मामाजी ने तो उस के लिए मुसीबत ही खड़ी कर रखी है. एक ही बात, कभी कहते कि फलां वैद्य का इलाज चल रहा है, मैं कहता था न कि अब गांठ एकदम छोटी हो गई है तो कभी कहते कि वैद्यजी सही कह रहे थे कि डाक्टर तो बस अपना धंधा चलाते हैं. देखिएगा, मैं शर्तिया 15 दिनों में ठीक कर दूंगा.

 

Holi 2024: पुरानी महबूबा शन्नो के साथ राधेश्याम जी की होली

इस बार राधेश्यामजी होली में खुद को रोक न पाए. भई महबूबा संग बाथटब में होली मनाने का मौका कोई छोड़ता है भला. उन के दबे अरमान फिर से जाग उठे और फिर निकल पड़े वे सफेद कुरतापाजामा पहने… इधर राधेश्यामजी ने कई सालों से होली नहीं खेली थी. होली पर वे हमेशा घर में ही कैद हो कर रहते थे. एक दिन रविवार को सुबहसुबह राधेश्यामजी का मोबाइल बजा, तो उन्होंने तुरंत हरा बटन दबा कर फोन को कान पर लगाया. उधर से आवाज आई, ‘‘धौलीपुरा वाले राधू बोल रहे हो?’’ राधेश्यामजी ने कहा, ‘‘हां भई हां, बोल रहा हूं. मगर अब मैं धौलीपुरा महल्ले को छोड़ कर ‘रामभरोसे लाल’ सोसाइटी में रह रहा हूं. गंदी नाली और गलीकूचे वाला महल्ला छोड़ गगन चूमते अपार्टमैंट में रहने का मजा ही अलग है और यहां मु झे अब कोई राधू नहीं कहता.

यहां मेरी इज्जत है. इसलिए इस सोसाइटी के लोग मु झे प्यार से राधेश्यामजी कह कर इज्जत से बुलाते हैं. बताइए आप कौन साहिबा बोल रही हैं?’’ फिर उधर से आवाज आई, ‘‘मैं वही जिस के महल्ले की गलियों और कालेज के आसपास तुम चक्कर लगाया करते थे. मैं रिकशे पर बैठ कर कालेज जाती थी, तो तुम अपनी साइकिल पर सवार हो कर आहिस्ता से मु झे छेड़ते और फिल्मी प्रेमगीत गाते हुए निकल जाते थे. होली पर तो हमेशा ही मु झे अकेले में रंगने और मेरे ही आसपास फटकने की कोशिश में लगे रहते थे तुम. कई बार तो होली आने से पहले ही तुम ने मेरे घर की छत पर बने बाथरूम में मु झे पकड़ कर अकेले में मेरे अंगअंग रंगने और मेरे कोमल गाल अपने कठोर गाल से रगड़ने की बुरी कोशिश भी की थी. लेकिन यह सब मैं आज बोल रही हूं, तुम्हारी अपनी शन्नो.’’ ‘‘अरे, अरे… शन्नो. वह तपेश्वरी देवी मंदिर के पास पटकापुर वाली शन्नो. कहो, कैसी हो

आज कैसे याद किया मु झे? तुम्हारी आवाज तो मेरी साली साहिबा से काफी हद तक मिलती है.’’ ‘‘जी जनाब, अपनी साली साहिबा को अब मारिए गोली. हो सकता है मेरी आवाज आप की साली से मिलतीजुलती हो. क्या बताऊं जी, बस, आज अचानक पुरानी यादें ताजा हो आईं. सो सोचा, इस बार तुम्हें होली पर अपने नजदीक बुला ही लूं. वर्षों की देर से ही सही, चलो, जीतेजी तुम्हारे अरमान पूरे कर ही दूं. अब मैं भी इस बार होली पर तुम्हीं संग रंग खेलूं, तुम्हीं संग भीगूं, तुम्हीं संग होली गीत गाऊं, तुम्हीं संग नाचूं, तुम्ही संग गुजिया खाऊं, अरमान रखती हूं.’’ अपनी पुरानी महबूबा शन्नो की बात सुनते ही राधेश्यामजी ने कहा, ‘‘क्या हुआ अकेली हो, तुम्हारा परिवारशरिवार कहां है,

जानू? होली की कविता सुना कर तो तुम ने मेरा दिल फिर से एक बार जीत लिया. जिंदा दिल कर दिया. जानू, होली और फिर से तुम्हारी याद में मेरे दिल के सुस्त पड़े चैंबरों में प्रेम उमंग की हरकत शुरू हो गई है. मेरे शरीर की धमनियों में सूखता जा रहा लाल रक्त भी अब बल्लियों उछलने लगा है.’’ शन्नो बोली, ‘‘मारो गोली परिवारशरिवार को. पहला प्यार तो पहला ही होता है. बाकी सब तो दिखावटी रिश्तेनाते होते हैं. इसलिए मैं भी अब तक तुम को कहां भूल पाई हूं. आ जाइएगा इस बार होली पर हमारे द्वार. इस बार होली के मौके पर कोई भी नहीं है हमारे घर पर. मेरा घर और मैं, बस, एकदम अकेली रहूंगी घर पर. इसलिए जम कर होली खेलने का सुनहरा मौका है. मेरे यहां तो बाथरूम में भी अब बाथटब लगा है. हो जाएगी जम कर उस में चुपचाप रंगमग्न होली.

जरूर आ जाइएगा इस बार हमारे साथ होली खेलने. और हां, नया सफेद कुरतापाजामा पहन कर ही आना तो मु झे रंगने में ज्यादा मजा आएगा. चलो, अब जल्दी से मेरे घर का पता नोट करो.’’ राधेश्यामजी भी अपने उखड़े हुए दांतों के दर्द को भूल और बिना लाठी का सहारा लिए हुए ऐसे उठ खड़े हुए मानो 21 वर्ष के नौजवान हों और बोले, ‘‘बताओ जल्दी से अपना पता, बताओ. आता हूं इस होली पर तुम्हें रंगने और खुद को भी रंगवाने. अपने वर्षों पुराने अरमान पूरे करने का मौका हाथ लगा है. भला कौन कमबख्त नहीं आएगा. मैं वादा करता हूं कि जरूर आऊंगा होली खेलने. दिल खोल कर तैयार रहिएगा.’’ अपनी महबूबा शन्नो से बातचीत करने के बाद राधेश्यामजी मन ही मन चुपचाप सोचने लगे, ‘‘अच्छा ही हुआ कि इतनी उम्र में भी अभी मेरी अक्ल दाढ़ नहीं उखड़ी, बरकरार है.

वरना अक्ल दाढ़ निकलने के बाद तो सभी पुराने रिश्ते पोपले हो जाते हैं. भतीजेभतीजी तक अपनी बूआजी से तो अपने प्रेम का पुराना रिश्ता निभाते हैं और अपने प्रिय फूफाजी को उम्र के 58वें पड़ाव पर चिढ़ाते हुए गाल फुलाफुला कर फू… फां… फू… फां… कहकह कर खाने वाली आटापंजीरी फूंकने और बातबात पर चिढ़ाने लगते हैं. सगे साले और सलहजें भी रिश्ता निभातेनिभाते परेशान हो जाते हैं. वे भी दूरी बना लेने में ही फायदा सम झते हैं. केवल साली ही आधी घरवाली बन कर अपने प्यारे जीजाश्री का साथ निभाती है. अपनी दीदी की मदद में भी अपना हाथ बंटाती है.’’ इधर रसोई में रह कर अपने कान लगाए ड्राइंगरूम में बैठे हुए आहिस्ताआहिस्ता मोबाइल पर बतियाते हुए उन की पत्नी ने सबकुछ सुन लिया, तो वे चायनाश्ते की प्लेट ले कर आते हुए बोलीं, ‘‘अजी इस बार किस के साथ होली खेलने का प्रोग्राम बन रहा है.

आप तो कहते थे मु झे होली बिलकुल भी पसंद नहीं है. मैं ने आप को पिछले कई वर्षों से होली खेलते नहीं देखा. मैं चाहती हूं आप मेरे साथ होली खेलें. लेकिन आप हर साल मना करते ही आ रहे हैं. न खुद होली खेलते हैं और न किसी को खेलने देते हैं. और अब इस बार किस के साथ होली का प्रोग्राम बन रहा था.’’ राधेश्यामजी ने पत्नी को मुसकराहटभरी गोली मारी और बोले, ‘‘अरे, मैं कहां होलीबोली. मेरा प्रमोशन आने वाला न होता तो सीधे ही नए बड़े साहब को मना कर देता. अब बड़े साहब हैं तो उन को मना भी तो नहीं किया जा सकता. ऊपर से प्रमोशन के बाद पोस्ंिटग का भी सवाल है. कहीं सूदूर क्षेत्र में भेज दिया तो तुम्हारामेरा साथ बिछुड़ जाएगा और मु झे वहां अकेले ही रहना पड़ेगा. सूदूर डिफिकल्ट स्टेशनों पर फैमिली रखना मना होता है. बस, इसलिए उन से होली खेलने, उन के घर आने की हां करनी पड़ी. बड़े साहब से ही बात हो रही थी. वही बुला रहे हैं मु झे होली पर और कह रहे हैं,

मैं इस बार होली का पहला रंग तुम से ही लगवाऊंगा. होली पर हमारे घर जरूर आना, वह भी नया सफेद कुरतापाजामा पहन कर.’’ होली के दिन राधेश्यामजी ने नया सफेद कुरतापाजामा पहना और पत्नी से बोल कर होली खेलने जाने लगे, तो उन की पत्नी बोलीं, ‘‘अकेले मत जाइए. पिंटू को भी लेते जाइए. यह आप को गाड़ी में ले जाएगा और बड़े साहब के साथ होली खेलने के बाद सावधानी से घर वापस भी ले आएगा.’’ जैसेतैसे उन्होंने पत्नी को मना किया कि रहने दो, पिंटू को क्यों तंग करती हो. उस की परीक्षा नजदीक है, उसे पढ़ने दो. वहां किसी ने गीले रंगों से रंगवंग दिया और खांसीजुकाम हो जाएगा और कहीं जुकाम छाती तक पहुंच गया तो भयंकर बुखार से पीडि़त भी हो सकता है.

फिर उस की परीक्षा चौपट हो जाएगी. वैसे भी होली तो हर साल आती है. विज्ञान में एक बार फेल हो गया, तो खामख्वाह ही साल बढ़ जाएंगे. सेहत अलग से खराब होगी, सो अलग. राधेश्यामजी ने उम्र की अंतिम पारी से पहले फिर से अपनेआप को रोमांचभरे उत्साह से भरा और अकेले ही चल पड़े अपनी पुरानी शन्नो के घर की तरफ. मन में शन्नो के शब्द गूंज रहे थे, ‘जरूर आ जाइएगा इस बार हमारे साथ होली खेलने. तुम्हीं संग रंग खेलूं, तुम्हीं संग भीगूं, तुम्हीं संग होली गीत गाऊं, तुम्हीं संग नाचूं, तुम्ही संग गुजिया खाऊं.’ अपनी पुरानी महबूबा शन्नो के बाथरूम में लगे बाथटब को सोचते हुए उन का पैर धम्म से गली की नाली में जा धंसा और छपाक से ‘छपाक’ की आवाज के साथ नाली का गंदा कीचड़युक्त पानी उन के पाजामे व कुरते को बदरंग कर गया. तेज बदबू सी भी आ रही थी, सो अलग. ‘उफ, उफ,’ कहते हुए उन्होंने अपनेआप को और अपने बढ़े नंबर वाले चश्मे को संभाला और वापस अपने घर की तरफ लपके. घर पहुंच कर पत्नी से बोले, ‘‘भागवान, दूसरा नया सफेद कुरतापाजामा निकालो.

यह तो रास्ते में ही बदरंग हो गया. बड़े साहब ने कहा था नया सफेद कुरतापाजामा ही पहन कर घर आना. अब ऐसे गया तो क्या सोचेंगे कि बड़ा नालायक है, जरा सा कहना तक नहीं मानता, कैसे करूं इस का प्रमोशन.’’ पत्नी उन से ज्यादा सम झदार थीं, सो बोलीं, ‘‘मु झे पता था इसलिए मैं ने पहले से ही आप के लिए एक जोड़ी दूसरा नया सफेद कुरतापाजामा और काला बुरका रख रखा था. लो, इसे पहन लो. काले बुरके में जाओगे तो गली का टुच्चा बदमाश हो या फूफा, कोई भी तुम पर रंग नहीं फेंक सकेगा. कुरतापाजामा साफ रहेगा तो आप के बड़े साहब भी आप को देख कर खुश हो जाएंगे.’’ पत्नी साहिबा की सम झदारी पर उन्होंने मधुर सहानुभूति जताते हुए उन के गाल पर सूखा हाथ कोमलता से फेरा, तो वे शरमा गईं, बोलीं, ‘‘आज इतने वर्षों बाद आप का प्यार पा कर मैं धन्य हो गई.

वरना आप के हाथ में अब वह दम कहां जो पहले कभी मेरे पूरे शरीर को स्पर्श मात्र से ही आनंदित कर देते थे. मैं आप का प्यार पा कर अनेक बार बिस्तर पर दोहरी हो जाती थी. और आप का उत्साह मु झे अपनी बांहों में कस कर जकड़ लेता था. लेकिन अब तो होली हो या दीवाली, आप की मीठी जबान भी तीखी कटार लिए सब पर सवार रहती है.’’ राधेश्यामजी ने कहा, ‘‘अरे नहीं, नहीं पगली, छोड़ दो पुरानी बातों को. ताना मत मारो. आज होली है. बड़े साहब के यहां से होली खेल कर आने दो, तुम्हारे साथ भी जम कर खेलूंगा होली. तुम्हें फिर से उत्साह से भर दूंगा. तुम फिर से मचल उठोगी.’’ अपनी पत्नी को बहलातेफुसलाते हुए राधेश्यामजी ने मौके की निजी नाजुकता को सम झा और नया सफेद कुरतापाजामा व बुरका पहन सीधे भाग चले अपने बड़े साहब यानी पुरानी महबूबा शन्नो के घर की तरफ.

राधेश्यामजी ने अपनी पुरानी महबूबा शन्नो के दरवाजे पर पहुंच कर डोरबेल बजाई और दरवाजा खुलने का इंतजार करने लगे. तभी छत पर से किसी ने लोहे के हुक लगी हुई डोरी उन के ऊपर ऐसे डाली कि उस डोरी में लगा हुआ लोहे का हुक सीधे उन के बुरके में जा फंसा और डोरी खींचने पर पूरा बुरका ऊपर की तरफ उठ गया. तभी यह क्या था, उन के सफेद कुरते पर ‘छपाक’, ‘छपाक’ तमाम सारे गोबर, कीचड़, तारकोल, मिट्टी और न जाने क्याक्या के ढेलों का धमाल, धमाधम, धमाधम ठाकठाक, पट्टपट्ट हो उठा. जैसेतैसे उन्होंने अपनेआप को संभाला. पीछे की तरफ हटे तो उन का पैर खटाक से कीचड़ वाले गड्ढे में जा गिरा. फिर उठने के लिए हुए तो उन की चप्पलें कीचड़ में ऐसी धंसी कि जड़ ही हो गईं. जैसेतैसे उन्होंने अपनी चप्पलों को कीचड़ को समर्पित कर अपने पैर बाहर निकाले और नंगे पैर अपने आगे से गीले और पीछे से कीचड़ से चीकट हुए पाजामे को संभालते हुए अपनी पुरानी महबूबा शन्नो के खयालों के साथ आगे बढ़े, तो उन्हें अपनी बदरंग हालत पर तरस आया और वह महबूबा के घर का दरवाजा खुलने से पहले ही मुड़ कर जाने लगे.

तो पीछे से आवाज आई, ‘‘बुरा न मानो जीजाजी, होली है.’’ राधेश्यामजी ने पीछे मुड़ कर देखा. उन की साली साहिबा और पत्नी अपने हाथों में रंगगुलाल लिए खड़े थे. उन के मुड़ते ही वे सब उन को रंगनेपोतने में जुट पड़े और साली साहिबा ने उन्हें पकड़ कर उन की पत्नी के साथ सीधे ही बाथरूम में ले जा कर बंद करते हुए उन के पजामे का नाड़ा जोर से खींचते हुए कहा, ‘‘जीजाजी, अब लीजिए मेरी दीदी के साथ बाथटब का मजा और फिर इस बार नव होली मनाइए. उन्हें शीतल कर रतिरंग कर दीजिए. मैं अभी आप के लिए स्पैशल जौहर इश्क अंबर, अश्वगंधा, शिलाजीत और श्वेत-मूसलीयुक्त एक गिलास गरम दूध ले कर आती हूं. उस में मिली स्पैशल जौहर इश्क अंबर नामक जड़ीबूटी पहली सुहागरात के दिन की तरह चुस्तदुरुस्त कर देगी आप और आप के ढीले पड़े शरीर के अंगअंग को.

मुझे यकीन है, आप आज सदा के लिए भूल ही जाएंगे अपनी पुरानी महबूबा शन्नो को. अब तो आप दीदी को ही शन्नो मान कर होली खेलिए. दीदी तो हमेशा तैयार रहती हैं आप के साथ मलमल कर, पकड़पकड़ कर और रगड़रगड़ कर होली खेलने के लिए. आप हैं कि कभी उन की सुनते ही नहीं.’’ ‘‘बाथटब में होली खेल कर राधेश्यामजी बाहर निकले तो उन्होंने पूछा, यह सब किस की योजना थी तो उन की साली साहिबा बोलीं, ‘‘दीदी ने मु झे बताया कि एक रात बिस्तर पर आप ही तो सपने में बड़बड़ा रहे थे. मेरी शन्नो, मैं आज भी तुम्हारे साथ होली खेलने का अरमान रखता हूं.

तुम्हीं तो मेरे जमाने की मेरी प्रिय प्रेमिका हो. इस बार मु झे बुला लो अपने पास होली खेलने के लिए. और कवितारूप गुनगुना रहे थे, तुम्हीं संग रंग खेलूं, तुम्हीं संग भीगूं, तुम्हीं संग होली गीत गाऊं, तुम्हीं संग नाचूं, तुम्ही संग गुजिया खाऊं.’’ प्रिय जीजाजी, बस, आप की कविता सुन कर हम दोनों ने मिल कर यह ‘समृद्ध होली खेलो’ योजना बना डाली. राधेश्यामजी ने कहा, ‘‘अरे ऐसा नहीं हो सकता. मैं तो सपने देखता ही नहीं हूं. और कविता करना तुम्हीं संग रंग खेलूं, तुम्हीं संग भीगूं, तुम्हीं संग होली गीत गाऊं… तो मेरे बस से बाहर की बात है. मैं सपने देखता भी हूं तो कभी बड़बड़ाता नहीं हूं. ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है.’’ इस बात पर कमलपुष्प समान हंसती हुई साली साहिबा बोलीं, ‘‘रहने दीजिए जीजाजी, आजकल मोबाइल का जमाना है. दीदी ने आप की सारी बड़बड़ाहट और गुनगुनाहट की रिकौर्डिंग कर रखी है.

कहें तो सुनाऊं.’’ ‘‘चलचल, बस कर अब रहने भी दे,’’ कह कर राधेश्यामजी ने अपनी साली साहिबा से कहा, ‘‘चलो, अब सभी बच्चों को भी यहां बुला लेना चाहिए. आज बहुत दिनों बाद फिर से होली की पार्टी करते हैं और महल्लेभर में शाम को सभी के घर जाजा कर होली की हार्दिक बधाई देते हैं.’’ इस बार साली साहिबा बोलीं, ‘‘मेरे प्यारे भोलेभाले जीजाजी, सुना है मेवाड़, राजस्थान की कवयित्री मीराबाई को तो एक नजर में श्याम से प्यार हो गया था. दीदी को तो राधे और श्याम दोदो रूप में आप यानी राधेश्याम मिल गए. बड़ी भाग्यशाली हैं वे. इस होली के बाद मु झे भी कहीं किसी के संग सदा के लिए बांधिए ना. वरना कहीं ऐसा न हो कि मैं आप संग ही सदा के लिए यहीं न रह जाऊं.’’

राधेश्यामजी और उन की पत्नी ने जैसे ही सुना तो दोनों एकसाथ बोले, ‘‘चल पगली, चिंता मत कर. तेरे हाथ भी अब जल्दी ही पीले कर दिए जाएंगे. अगले महीने तु झे देखने वाले आ रहे हैं. कानपुर चटाई महल्ले वाले चाचा के जानकार हैं. लड़का एमटैक टैक्निकल डायरैक्टर है.’’ तब तक उधर राधेश्यामजी के बच्चे भी सामने आ चुके थे. उन्होंने सर्फसाबुन का पाउडर घोला. उस में गहरा पक्का पीला रंग मिलाया और पूरी पीलीपीली झागयुक्त पक्के रंग की बालटी अपनी मौसी के ऊपर उड़ेल दी और कहा, ‘‘लो मौसी, हमारा इरादा तो आप के केवल हाथ ही नहीं, पूरा पीला कर के ही आप को ससुराल भेजने का है. ताकि आप वहां सदा पीलीपीली ही रहना, यहां की तरह बातबात पर तुनकतुनक कर किसी से भी लालपीली कभी मत होना.’’ बच्चों की बात सुन कर राधेश्यामजी का पूरा परिवार हंसी के ठहाके लगा कर होली की खुशियां लुटाने लगा. इस बार उन की साली साहिबा भी पीला गुलाब बन मंदमंद मुसकरा कर शरमा उठीं.

लेखक- डा. आलोक सक्सेना

मुझे अपनी शादी की कोई खुशी नहीं हो रही है, आप ही बताएं मैं क्या करूं ?

सवाल

मेरी उम्र 23 वर्ष है. मेरी और मेरी बहन की एक ही घर में शादी होने जा रही है. वह बड़ी है और मैं छोटी हूं. हर वह रस्म जिस में उस के साथ 35 मिनट खर्च किए जाते हैं तो मुझे सिर्फ 10 मिनटों में ही निबटा दिया जाता है. शादी से पहले जब अपने घर में ही यही हाल है तो पता नहीं शादी के बाद ससुराल में क्या होगा. मैं बहुत दुखी हूं, मुझे अपनी ही शादी की कोई खुशी नहीं हो रही, लग रहा है जैसे समझौता करने जा रही हूं. आखिर मैं क्या करूं ?

जवाब

आप की परेशानी जायज है लेकिन आप को खुद सोचना होगा कि आप के दुखी होने से कुछ बेहतर नहीं होगा बल्कि मन हमेशा भारी ही रहेगा. हर रस्म में सब बड़ी बहन पर ज्यादा वक्त दे रहे हैं, आप पर नहीं तो इस की एक वजह यह भी हो सकती है कि रस्में पहले पहल करने पर समय ज्यादा लगता है और दूसरी बारी में तो पता होता ही है कि आगे क्या करना है. साथ ही, आप को बड़ी बहन के दृष्टिकोण से भी सोचना चाहिए. उस के लिए भी सबकुछ नया है. वह भी हर रस्म में अपनी छोटी बहन की अठखेलियों के लिए तरस रही होगी.

सिर्फ अपने दुख के बारे में सोच कर आप बाकी सभी को भी दुखी कर रही हैं. आप को अपना मन बना लेने की जरूरत है कि कुछ बदलाव नहीं हो सकेंगे. शादी पर आप अभी खुश नहीं रहेंगी तो इस बात का पछतावा उम्रभर रहेगा.

Holi 2024: होली के रंग- उस दिन सुजाता ने क्या किया?

वह होली का दिन था जब सुबहसवेरे नितिन ने सुजाता से कहा था, ‘मां, मैं अन्नू के घर जा रहा हूं.’ ‘आज और अभी? क्या तुम्हारा अभी जाना ठीक रहेगा?’ सुजाता ने नितिन से पूछा.

‘हां, मां, अभी होली का हुड़दंग शुरू नहीं हुआ है, अभी रास्ते में परेशानी नहीं होगी,’ नितिन ने एक पुरानी कमीज पहनते हुए कहा.

‘लेकिन, आज त्योहार है, बेटा,’ सुजाता यह सोच कर घबरा उठी थी कि अगर नितिन चला गया तो उस के सिवा इस घर में कौन बचेगा? सूना घर उसे काटने को दौड़ेगा. कैसे झेल सकेगी वह इस सूनेपन को? घर के बाहर की दुनिया होली के उत्साह भरे कोलाहल में डूबी रहेगी मगर घर के भीतर श्मशान का सन्नाटा छाया रहेगा. नहीं…नहीं, उस से यह सब सहन नहीं होगा. सुजाता ने घबरा कर नितिन को एक बार फिर रोकने का प्रयास किया.

‘बेटा, अन्नू तो अपने मायके में होली मनाना चाहती थी इसलिए मैं ने उसे नहीं रोका लेकिन अब तू भी उस के पास चला जाएग तो तेरी यह बूढ़ी मां यहां अकेली रह जाएगी. अगर तू रुक सके तो…’

‘नहीं मां, अन्नू का फोन आया था वह चाहती है कि मैं उस के साथ उस के मायके में होली मनाऊं…और मां, अन्नू की छोटी बहन वीनू भी जिद कर रही थी कि जीजाजी, आप चले आइए. अब, अगर मैं नहीं जाऊंगा तो वे लोग नाराज हो जाएंगे,’ नितिन ने अपने जूते का तस्मा बांधते हुए उत्तर दिया.

‘ठीक है बेटा, जैसे तेरी इच्छा,’ सुजाता ने धीरे से स्वीकृति में अपना सिर हिलाते हुए कहा.

‘बात इच्छा की नहीं मां, और फिर तुम होली खेलती ही कहां हो जो मेरा यहां रहना जरूरी है,’ नितिन की कही यह बात सुजाता की दुखती रग को छू गई थी.

नितिन अन्नू के घर चला गया. अब सूना घर और सुजाता एकदूसरे से जूझने लगे. नितिन का आखिरी वाक्य सुजाता के मन में बारबार कौंध रहा था… ‘और फिर तुम होली खेलती ही कहां हो…’

लगभग 12 साल पहले, उस दिन भी होली के हुड़दंगी सड़कों पर ‘होली है.’ ‘होली है’ का शोर मचाते हुए घूम रहे थे. उस समय नितिन 14 साल का था और सुनीति 10 साल की थी. दोनों बच्चे बहुत छोटे तो नहीं थे लेकिन होली का त्योहार बड़ेबूढ़ों को भी बच्चा बना देता है.

नितिन और सुनीति सेवेरे से उत्साहित थे. सुजाता जानती थी कि उस की भाभी को उन दोनों बच्चों का यों खेलनाकूदना रास नहीं आता है. फिर भी वह बच्चों को मना नहीं कर पाई. जब बच्चे होली के रंग से सराबोर हो कर घर लौटे तो सब से पहले दौड़ कर अपनी मां सुजाता से लिपट गए. सुजाता के कपड़े भी उन के शरीर पर लगे रंगों से रंग गए. उसी समय भाभी आ धमकीं. भाभी अपनी सहेलियों के साथ होली खेल कर चली आ रही थीं लेकिन वे सुजाता और उस के बच्चों को देख कर भड़क उठीं.

‘यह देखो, कैसा जमाना आ गया है…अब तुझे इतना भी धरम- करम याद नहीं रहा कि विधवाएं रंग नहीं खेलती हैं. जैसे तू वैसी तेरी औलादें. मैं तो तंग आ गई हूं तुम सब से. इतना ही होली खेलने का शौक है तो दूसरा घर बसा ले, फिर जी भर कर होली खेलना,’ भाभी ने कहना शुरू किया और फिर देर तक अपने मन की भड़ास निकालती रहीं.

सुजाता ने उसी दिन तय कर लिया था कि चाहे जो भी हो मगर वह अपने भाई के घर किसी शरणार्थी की भांति जीवन नहीं व्यतीत करेगी और न ही कभी होली खेलेगी. जब उस के जीवन में ही सुहाग का रंग नहीं रहा तो वह रंग खेल कर करेगी भी क्या? वह छोटीमोटी कोई भी नौकरी कर लेगी मगर अपने बच्चों को अपने दम पर पढ़ाएगी, पालेगी.

सुजाता ने उसी शाम को अपने भाई का घर छोड़ दिया था और अपने दोनों बच्चों को ले कर अपनी एक सहेली के घर जा पहुंची थी. उस की सहेली ने उसे दूसरे दिन ही एक सिलाई सेंटर में काम दिला दिया था. अपनी मेहनत और लगन के दम पर सुजाता ने जल्दी ही अपना स्वयं का सिलाई सेंटर खोल लिया. इस तरह सुजाता के जीवन की गाड़ी चल निकली थी. उस ने अपने दोनों बच्चों को पढ़ाया और एकएक कर के दोनों का विवाह भी कर दिया. पहले नितिन की शादी हुई और अन्नू बहू के रूप में घर आई. इस के बाद सुनीति की शादी हुई और वह अपने ससुराल चली गई.

कुछ ही महीने बाद सुनीति के पति को विदेश में नौकरी मिल गई और सुनीति भी अपने पति के साथ विदेश चली गई. सुजाता के लिए लेदे कर नितिन और अन्नू का ही सहारा बचा लेकिन अन्नू को सुजाता का सादा जीवन बिलकुल रास नहीं आया. ऊपर से तो वह कुछ कहती नहीं है लेकिन भीतर ही भीतर नितिन को भड़काती रहती है कि वह अपनी मां से अलग रहने लगे.

सुजाता सबकुछ देखती, समझती हुई भी मौन रह जाती है. कहे भी तो क्या? अपने भाई का घर छोड़ने के साथ ही मानो वह जीवन के रंगों को भी छोड़ आई. अब उसे कोई भी रंग नहीं भाता है. अन्नू का भी इस में उसे कोई दोष नजर नहीं आता. आखिर नई उम्र की अन्नू रंगों से, जीवन के उल्लास से नाता रखना ही चाहेगी. भला वह क्यों नीरस, बेरंग जीवन जिए?

सुजाता, अन्नू और नितिन को किसी बात के लिए कभी मना नहीं करती. जब नितिन को हनीमून पर जाने के लिए छुट्टियां नहीं मिल पा रही थीं तो उस ने खुद ही नितिन से कहा था कि वह प्रतिदिन शाम को दफ्तर से घर लौटने के बाद अन्नू को कहीं घुमाने ले जाया करे ताकि उसे हनीमून पर न जा पाने का दुख न हो.

सुजाता की तमाम अभिलाषाएं मानो मर चुकी थीं. वह न तो कभी सिनेमा देखने जाती और न कहीं घूमने. सुजाता के रूप में घर के वातावरण में एक अव्यक्त उदासी छाई रहती और इसी उदासी से अन्नू को चिढ़ होती. परिवार का एक व्यक्ति हमेशा एक उदासी ओढ़े रहे तो बाकी सदस्य भला कैसे हंस बोल सकते हैं? एक मर्यादा उन्हें भी हंसने, चहकने से रोकती. इसीलिए अपने विवाह के बाद की यह तीसरी होली अन्नू ने अपने मायके में मनाने का निश्चय किया. सुजाता चाह कर भी उसे रोक न सकी. रोकती भी तो भला किस आधार पर? सभी को अपनी खुशियां अपने ढंग से मनाने का अधिकार होता है, अन्नू को भी है.

अन्नू अपने मायके गई, वह तो ठीक है लेकिन अब नितिन भी अन्नू के पास चला गया है. पति छूटा, मायका छूटा और अब बच्चे भी उस से दूर होते जा रहे हैं, यह सोच कर सुजाता की आंखें डबडबा गईं. अकेलापन उसे चुभने लगा. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? तभी दरवाजे की घंटी ने उसे चौंका दिया.

कौन आया होगा? सुजाता सोचती हुई दरवाजे के पास पहुंची. उस ने ‘स्पाईआई’ से झांक कर देखा. बाहर 1-2 चेहरे नजर आए लेकिन रंगों से पुते हुए. पहचानना कठिन था. दरवाजा खोले या न खोले? पल दो पल सुजाता ने सोचा, फिर उसे एक परिचित सी आवाज सुनाई दी. शायद यह उस के पड़ोस में रहने वाली मनोरमा की बेटी दिव्या की आवाज थी. सुजाता ने दरवाजा खोल दिया. दरवाजा खुलते ही 7-8 लड़केलड़कियां भीतर चले आए.

‘‘होली मुबारक हो, आंटी,’’ वे समवेत स्वर में बोल उठे. उन में से एक लड़के ने आगे बढ़ कर सुजाता के माथे पर गुलाल लगाया और झुक कर पैर छू लिया. उस के बाद एक लड़की आगे आई. उस ने सुजाता के माथे पर गुलाल लगातेलगाते गालों को भी रंग दिया. चंद ही पलों में वहां का दृश्य बदल गया. वे सारे लड़केलड़कियां सुजाता को खींच कर बाहर ले गए और उस के साथ होली खेलने लगे. पहले तो सुजाता ने झिझकते हुए कहा, ‘‘नहींनहीं, रंग मत लगाओ. मैं विधवा हूं.’’

‘‘ओह आंटी, आप भी कैसी दकियानूसी बातें करती हैं,’’ दिव्या ने सुजाता को झिड़क दिया और बाकी लड़कियां उसे रंग लगाने लगीं. सुजाता भी अपनेआप को रोक नहीं सकी, वह भी उन के चेहरों पर रंग लगाने लगी.

होली के रंगों ने उस के भीतर घिरे हुए अंधेरे को मानो साफ कर दिया. वह अपने भीतर हलकापन महसूस करने लगी. अचानक उसे झटका सा लगा. वह अवाक् खड़ी सी रह गई. नितिन और अन्नू उस के सामने खड़े थे. अब क्या अन्नू भी कहेगी कि ‘विधवाएं रंग नहीं खेलतीं.’

तभी अन्नू और नितिन ने आगे बढ़ कर उस के पैर छू लिए.

‘‘मुझे क्षमा कर दीजिए, मां. जो काम इन लोगों ने किया वह मुझे करना चाहिए था. मगर मैं आप के अकेलेपन को समझ नहीं सकी. हर इनसान के भीतर उत्साह के स्रोत पाए जाते हैं, यह तो परिस्थितियां हैं जो उन्हें दबाए रहती हैं. मैं आप की परिस्थितियों को समझ नहीं पाई और आप को उत्साहहीन मानती रही, जबकि आप के भीतर उत्साह जगाना तो हमारा कर्तव्य था न,’’ अन्नू ने सुजाता से कहा.

‘‘हां मां, आज मुझे भी अपनी गलती का एहसास हुआ और इसीलिए हम दोनों लौट आए. मैं ने आप को हमेशा ताना मारा कि आप होली नहीं खेलती हैं मगर मैं ने भी तो आप के साथ कभी होली नहीं खेली. अब तक होली के रंग भले ही आप से दूर थे लेकिन अब ये आप से दूर नहीं रहेंगे,’’ यह कहते हुए नितिन ने ढेर सारा गुलाल मां के सिर में डाल दिया.

‘‘गलती मेरी भी है. मुझे भी किसी बात को यों पकड़ कर नहीं बैठ जाना चाहिए था. भाभी ने जो भी कहा था वह उन का अपना विचार था, उन के विचारों को आत्मसम्मान का प्रश्न बना कर मुझे भी जीवन के रंगों से यों मुंह नहीं मोड़ना चाहिए था. कम से कम तुम बच्चों की खुशियों को ध्यान में रखते हुए तो हरगिज नहीं,’’ सुजाता ने भी मुट्ठी भर गुलाल अन्नू के चेहरे पर मल दिया. अन्नू खुशी से खिलखिला कर हंस पड़ी.

‘होली है’ के स्वर से सारा वातावरण गूंज उठा. सुजाता के जीवन में खुशियां एक बार फिर झूम उठीं.

आमनेसामने होंगे लोकसभा चुनाव और आईपीएल, कौन मारेगा बाजी

इस बार 4 माह मार्च, अप्रैल, मई और जून लोकसभा चुनाव बनाम आईपीएल क्रिकेट टूर्नामैंट के होंगे. लोकसभा में देश के अंदर की पार्टियां अमानेसामने होंगी, जबकि आईपीएल में देशीविदेशी दोनों खिलाड़ी होंगे. लोगों का रुझान किधर ज्यादा होगा, यह देखना दिलचस्प होगा. लोकसभा चुनाव में युवा मतदाता यानी 18 से 29 साल की उम्र वाले केवल मतदान करेंगे. उम्रदराज नेता मुख्य भूमिका में होंगे. जबकि अपने बैट और बौल से आईपीएल में धुआंधार प्रदर्शन करने वाले युवा खिलाड़ी होंगे. यहां उम्रदराज केवल व्यवस्था को ठीक करने में लगे होंगे.

आईपीएल और लोकसभा चुनाव में एक और अहम अंतर है. लोकसभा के चुनावों में अहम भूमिका राष्ट्रवाद और धर्म की रहेगी, जबकि आईपीएल में धर्म और देश की सीमा से बाहर निकल कर खिलाड़ी अपनी खेलभावना का प्रदर्शन करेंगे. चुनाव में धांधली और अपराध की घटनाएं भी होंगी, जिन को रोकने के लिए चुनाव आयोग व्यवस्था करेगा.

आईपीएल में सुरक्षा और यातायात व्यवस्था करना ही पुलिस का काम होगा. लोकसभा चुनाव के कारण आईपीएल कुछ मैचों का कार्यक्रम बदल सकता है. बहरहाल, 4 माह तक लोकसभा चुनाव और आईपीएल का खुमार लोगों के सिर चढ़ कर बोलेगा. मीडिया भी इसी रंग में रंगी दिखेगी. होली का रंग उतरते ही यह रंग चढ़ने लगेगा.

80 दिन होंगे लोकसभा चुनाव के नाम

80 दिनों के लिए लोकसभा चुनाव 2024 की तारीखों का शनिवार को ऐलान हो गया है. लोकसभा की 543 सीटों के लिए 7 फेस में चुनाव होंगे. पहले फेज की वोटिंग 19 अप्रैल को और आखिरी फेज की वोटिंग 1 जून को होगी. 4 जून को चुनाव के नतीजे आएंगे. लोकसभा के साथ 4 राज्यों आंध्र प्रदेश, ओडिशा, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम के विधानसभा चुनाव भी इसी दौर में होंगे. ओडिशा में 13 मई, 20 मई, 25 मई और 1 जून को वोटिंग होगी. अरुणाचल और सिक्किम में 19 अप्रैल, आंध्र प्रदेश में 13 मई को वोट डाले जाएंगे. सभी चुनाव परिणाम एकसाथ घोषित होंगे.

लोकसभा सीटों की संख्या 543 से बढ़ कर 544 सीटें हो गई हैं. इस की वजह मणिपुर की आउटर मणिपुर लोकसभा सीट है. मणिपुर में 2 लोकसभा सीटें इनर मणिपुर और आउटर मणिपुर हैं. इनर मणिपुर में 19 अप्रैल को और आउटर मणिपुर में 19 अप्रैल और 26 अप्रैल को चुनाव होंगे. इस से पहले 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में भी ऐसा ही हुआ था. इसलिए लोकसभा सीटों की संख्या 543 से बढ़ कर 544 हो गईं.

चुनावों के इस दौर में कई राज्यों में उपचुनाव भी होंगे. इन में गुजरात की 5, यूपी की 4, हरियाणा, बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, राजस्थान, कर्नाटक, तमिलनाडु की 1-1 विधानसभा सीट पर उपचुनाव होगा. चुनाव आयोग ने लोकसभा चुनाव को ठीक तरह से निबटाने का पूरा प्रबंध किया है. उसे कई मोरचों पर काम करना पड़ेगा. चुनाव के दौरान बीते 11 सालों में 3,400 करोड़ रुपए के कैश मूवमैंट को रोका गया था. कुछ राज्यों में हिंसा ज्यादा है, कुछ में धनबल ज्यादा है, किसी में भौगोलिक समस्या है. चुनाव आयोग को इन सब से लड़ना है.

चुनाव आयोग करेगा निगरानी

निगरानी के लिए हर जिले में कंट्रोलरूम है. टीवी, सोशल मीडिया, वोबकास्टिंग, 1950 और सी विजिल पर शिकायत की व्यवस्था की गई है. एक सीनियर अफसर हमेशा इन 5 चीजों पर नजर रखेगा. जहां शिकायत मिलेगी, सख्त कार्रवाई की जाएगी. सभी अफसरों को निर्देश दिए गए हैं कि हिंसा न होने दें. नौन बेलेबल वारंट को पुलिस एक्जिक्यूट कर रही है. इंटरनैशनल, इंटर-स्टेट बौर्डर पर कड़ी नजर रखी जा रही है और ड्रोन से चैकिंग की जा रही है.

चुनाव आयोग ने व्यवस्था की है कि शिकायत मिलते ही 100 मिनट में टीम पहुंच जाएगी. इस के लिए सी-विजिल ऐप में किसी को शिकायत करनी है, कहीं पैसा या गिफ्ट बांटा जा रहा है तो बस, फोटो खीच कर चुनाव आयोग को भेजना भर है. इस से लोकेशन ट्रेस हो जाएगी और 100 मिनट के भीतर टीम भेज कर चुनाव आयोग शिकायत का निराकरण करेगा.

चुनाव आयोग ने खास व्यवस्था की है कि अपने प्रत्याशी के बारे में भी वोटर्स मोबाइल पर देख सकते हैं. जिस का क्रिमिनल रिकौर्ड है, उसे 3 बार न्यूजपेपर, टीवी में सूचना देना पड़ेगा. पौलिटिकल पार्टी को बताना होगा कि उसे दूसरा कैंडिडेट क्यों नहीं मिला. 85 साल से ज्यादा उम्र वाले जितने वोटर हैं और जो दिव्यांग वोटर्स हैं उन के वोट घर में जा कर लिए जाएंगे. नौमिनेशन से पहले उन के घर फौर्म पहुंचा जाएंगे. इस बार पूरे देश में यह व्यवस्था एकसाथ लागू की जा रही है.

पुरुषों से ज्यादा महिला मतदाता

12 राज्यों में एक हजार से ऊपर महिला पुरुष का अनुपात है. यहां महिला मतदाता की संख्या पुरुषों से ज्यादा है. 1.89 करोड़ नए मतदाता में से 85 लाख महिलाएं हैं. जिस किसी की उम्र 1 जनवरी, 2024 को 18 साल नहीं हुई थी उस का भी नाम एडवांस लिस्ट में लिया गया है. 13.4 लाख एडवांस एप्लिकेशन आई हैं. 5 लाख से ज्यादा लोग 1 अप्रैल से पहले वोटर बन जाएंगे.

1.82 करोड़ मतदाता पहली बार वोट डालेंगे. कुल 96.8 करोड़ मतदाता हैं. 49.7 करोड़ पुरुष, 47 करोड़ महिला मतदाता हैं. 18-29 साल के 19.74 करोड़ मतदाता हैं. 88.4 लाख लोग दिव्यांग हैं. 82 लाख लोग 85 साल से ऊपर हैं. 2.18 लाख 100 साल से ज्यादा उम्र के हैं. 48 हजार ट्रांसजैंडर्स हैं. मतदान की समुचित व्यवस्था के लिए 10.5 लाख पोलिंग स्टेशन, 1.5 करोड़ पोलिंग अफसर, 55 लाख ईवीएम, 4 लाख वाहन की व्यवस्था की गई है.

67 दिन आईपीएल बढ़ाएगा रोमांच

भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड यानी बीसीसीआई ने आईपीएल 2024 के शुरुआती 21 मैचों का शैड्यूल जारी कर दिया है. आईपीएल की शुरुआत 22 मार्च को चेन्नई से होगी. टूर्नामैंट का उद्घाटन मुकाबला चेन्नई सुपर किंग्स और रौयल चैलेंजर्स बेंगलुरु के बीच होगा. शुरुआती 17 दिनों के दौरान रौयल चैलेंजर्स बेंगलुरु, दिल्ली कैपिटल्स और गुजरात टाइटन्स की टीम सब से ज्यादा 5-5 मैच खेलेंगी. वहीं चेन्नई सुपर किंग्स, सनराइजर्स हैदराबाद, मुंबई इंडियंस, राजस्थान रौयल्स, लखनऊ सुपर जायंट्स और पंजाब किंग्स को चारचार मैच खेलने को मिलेंगे. जबकि कोलकाता नाइट राइडर्स सिर्फ 3 मैचों में भाग लेगी.

ऋषभ पंत की दिल्ली कैपिटल्स अपने शुरुआती घरेलू मुकाबले वाइजैग में ही खेलेगी. वहीं बाकी टीमों के घरेलू मैच उन के होम ग्राउंड्स पर होने वाले हैं. लोकसभा चुनाव के चलते दिल्ली में मुकाबले नहीं रखे गए हैं. बीसीसीआई की ओर से बताया गया है कि लोकसभा चुनावों से संबंधित सभी आवश्यक प्रोटोकौल और निर्देशों का पालन करते हुए वह सरकार और सुरक्षा एजेंसियों के साथ मिल कर काम करेगा.

आईपीएल 2024 भी आईपीएल के 2023 सीजन की तरह होगा और इस में 74 मैच खेले जाएंगे. पिछली बार 60 दिन तक आईपीएल चला था, लेकिन इस बार का आईपीएल 67 दिनों तक चल सकता है. आम चुनाव के कारण आईपीएल के शैड्यूल में एक सप्ताह का विस्तार होने की संभावना है. 2019 में जब देश में लोकसभा चुनाव हुए थे, तब भी इसी तरह का कार्यक्रम बनाया गया था. आईपीएल फाइनल 26 मई को खेले जाने की संभावना है. मतगणना 4 जून को होगी. इस तरह से लोकसभा चुनाव और आईपीएल करीबकरीब साथ चलेंगे.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें