Dolly Sohi Passed Away: 48 वर्षीया टीवी ऐक्ट्रैस डाली सोही उन कलाकारों में से थीं जो नाम से ज्यादा अपने चेहरे से जानीपहचानी जाती हैं. छोटे परदे के कलाकार आमतौर पर अपने फैंस के बीच सीरियल के फेमस किरदार से मशहूर हो जाते हैं. जैसे डाली हिटलर दीदी के नाम से घरघर पहचानी जाने लगी थीं. डाली का कम उम्र में सर्वाइकल कैंसर से निधन टीवी इंडस्ट्री के लिए दोहरा सदमा है क्योंकि मौत के 48 घंटे पहले ही उस की ऐक्ट्रैस बहन अमनदीप की मौत भी पीलिया से हुई थी. इस दुखद इत्तफाक के थोड़े ही पहले डाली ने सोशल मीडिया पर अपने प्रशंसकों से आग्रह किया था कि वे उस के लिए दुआएं करें.
लेकिन एक बार फिर साबित हो गया कि कैंसर के मरीजों पर न दुआओं का असर होता, न ही दवाओं का. हालांकि यह कहा जाता है कि अगर पहली स्टेज पर ही कैंसर की पहचान हो जाए तो इलाज मुमकिन है. लेकिन इस घातक जानलेवा बीमारी की खूबी और दहशत इसलिए ज्यादा है कि बहुत एडवांस स्टेज पर ही इस की पहचान हो पाती है. टीवी और फिल्म इंडस्ट्री में कैंसर से मौत कोई हैरत की बात नहीं रही है लेकिन सुखद बात यह है कि कैंसर से ठीक होने वाले कलाकारों की संख्या कम नहीं. जिन में अहम नाम ऐक्ट्रैस मनीषा कोइराला का है. लीजा रे और सोनाली बेंद्रे भी इसी कड़ी के अगले नाम हैं.
दर्द का रिश्ता
कैंसर से जंग जीतने वालों में एक बड़ा नाम अभिनेता संजय दत्त का भी है जिन्हें फेफड़ों का कैंसर 2020 में हुआ था. जिस की पहचान भी चौथी स्टेज पर हुई थी. संजय दत्त अब इलाज के बाद एकदम ठीक हो चुके हैं लेकिन उन की बीमारी गौरतलब इसलिए है कि अपने दौर की मशहूर अभिनेत्री ब्यूटी क्वीन के खिताब से नवाजी गई उन की मां नर्गिस दत्त की मौत भी कैंसर से हुई थी.
संजय की पहली पत्नी की मौत भी कैंसर से हुई थी. उन के पिता सुनील दत्त ने अपनी पत्नी की याद में 1982 में फिल्म ‘दर्द का रिश्ता’ बनाई थी. इस फिल्म से होने वाले प्रौफिट को उन्होंने कैंसर के इलाज के लिए दान भी कर दिया था. सुनील दत्त की एक मंशा लोगों को कैंसर के दर्द और उस से होने वाली मौत से रूबरू कराने की भी कामयाब कोशिश थी.
‘दर्द का रिश्ता’ में कैंसर पेशेंट का रोल खुशबू ने निभाया था जिसे 11 साल की उम्र में ल्यूकोमिया यानी ब्लड कैंसर हो जाता है जिसे बोन मेरो ट्रांसप्लांट से ठीक होते दिखाया भी गया है. फिल्म की कहानी जानबूझ कर कैंसर के इर्दगिर्द गढ़ी गई जिस से अपनी बात कहने या मैसेज देने में आसानी रहे. नायक और नायिका दोनों ही डाक्टर बताए गए.
फिल्म में मुंबई के टाटा मैमोरियल अस्पताल को भी प्रमुखता से दिखाया गया है. 80 के दशक में कैंसर तेजी से फैलती बीमारी थी जिस में मरीज के बचने की कोई उम्मीद नहीं होती थी. ‘दर्द का रिश्ता’ की खूबी यह भी थी कि इस की कहानी को परिवार और खून के रिश्तों को ध्यान में रखते लिखा गया था.
रीना राय और स्मिता पाटिल दोनों ने प्रभावी अभिनय किया था. लेकिन सुनील दत्त बेहद नैचुरल एक ऐसे पिता के रोल में लगे थे जिस के चेहरे पर बेटी की मौत का खौफ हरदम मंडराता रहता है. फिल्म दर्शकों ने सराही थी और उन्हें इस से कैंसर को समझने का भी मौका मिला था.
अखियों के झरोखे से
फिल्म ‘दर्द का रिश्ता’ की खूबी यह थी कि इस में, अमेरिका में ही सही, कैंसर के इलाज को मुमकिन बताया गया था जिस का इलाज अब भारत में भी होने लगा है लेकिन यह भी कड़वा सच है कि यह बहुत महंगा है. यह चिंता भारत के मद्देनजर फिल्म के आखिर में सुनील दत्त स्मिता पाटिल के सामने जताते भी हैं.
आज भी बौन मेरो ट्रांसप्लांट आम आदमी की बस की बात नहीं जिस पर 20-25 लाख रुपए का खर्च आता है. ‘दर्द का रिश्ता’ रिलीज होने के 4 साल पहले 1978 में आई थी ‘अखियों के झरोखे से’ जिस ने बौक्सऔफिस पर धूम मचा दी थी. यह मूलतया रोमांटिक फिल्म थी जिस की कामयाबी में गीतसंगीत का भी बड़ा हाथ था. सस्ती, स्वस्थ और मनोरंजक पारिवारिक फिल्में बनाने के लिए मशहूर राजश्री प्रोडक्शन की इस फिल्म में सचिन और रंजीता की जोड़ी थी.
नायक हिंदू है जिसे क्रिश्चियन युवती से प्यार हो जाता है. लेकिन दोनों के प्यार में पेरैंट्स या समाज आड़े आता नहीं दिखाया गया है. जब शादी की बात तय हो जाती है तो पता चलता है कि नायिका को ल्यूकेमिया है. नायिका चाहती है कि नायक उस से दूर हो जाए जो हिंदी फिल्मों का एक खास टोटका है लेकिन नायक नहीं मानता. आखिर में सभी कैंसर से हार जाते हैं और नायिका नायक की बांहों में दम तोड़ देती है.
‘दर्द का रिश्ता’ और कैंसर पर बनी दूसरी फिल्मों की तरह इस में भी कैंसर को ले कर कोई खास मैसेज नहीं है लेकिन इस के बाद भी ‘अखियों के झरोझे से’ हिट हुई थी तो इस की वजह कालेज के सीन्स, रोमांस और उस से भी ज्यादा अहम बात फिल्म का अंत दुखद होना था जो आमतौर पर उन दिनों हिंदी फिल्मों का रिवाज नहीं था. कैंसर के मरीज के आखिरी दिन कितने द्वन्दात्मक होते हैं, यह दिखाने में ताराचंद बड़जात्या सफल रहे थे और रंजीता को खासी तारीफ दर्शकों व समीक्षकों की मिली थी.
आनंद
1971 में कैंसर पर प्रदर्शित पहली बड़ी फिल्म ‘आनंद’ ने ही, दरअसल, देशभर को कैंसर के खौफ से रूबरू कराया था. लेकिन कुछ इस अंदाज में कि दर्शक भले ही नम आंखें लिए सिनेमाहौल से बाहर निकले लेकिन उस के जेहन में राजेश खन्ना की ऐक्टिंग और होंठों पर उन के बोले जिंदादिल डायलौग थे कि ‘बाबू मोशाय, जिंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं.’ फिल्म फ़्लैशबैक में चलती है जिस में डाक्टर भास्कर बनर्जी बने अमिताभ बच्चन को अपने लिखे उपन्यास ‘आनंद’ के लिए पुरस्कार मिलता है.
निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी के सधे डायरैक्शन का कमाल ही इसे कहा जाएगा कि कई जगह अतिनाटकीयता होने के बाद भी फिल्म पर उन की पकड़ बनी रही. इस के एक साल पहले ही निर्देशक असित सेन 1970 में राजेश खन्ना ही अभिनीत फिल्म ‘सफर’ में भी कैंसर का दर्द दिखा चुके थे. ‘आनंद’ को देखने के बाद दर्शकों की जबान पर लिंफोस्कोर्मा औफ इंटेसटाइन यानी आंतों का कैंसर शब्द चढ़ गया था.
कैंसर का कोई इलाज न होने पर एक डाक्टर किस तरह खीझताझल्लाता है, इस बेबसी को अमिताभ बच्चन ने बखूबी जिया था. मौत जब तय हो चुकी हो तो किसी की भी प्रतिक्रिया निराशा और हताशा भरी ही हो सकती है, इस मिथक को झुठलाते हुए ‘आनंद’ का जिंदादिल किरदार दर्शकों को खूब भाया था.
‘आनंद’ में हालांकि सारे मसाले थे लेकिन कैंसर के प्रति गंभीरता भी कम नहीं थी. तब चूंकि कैंसर का कोई इलाज नहीं था, इसलिए निर्माता और निर्देशक के पास इस के अलावा कोई और थीम हो भी नहीं सकती थी कि कैंसर की गिरफ्त में आए मरीज कैसे बचीखुची जिंदगी हंसीखुशी जिएं. फिल्म के गाने आज भी शिद्दत से सुने और गुनगुनाए जाते हैं.
कल हो न हो
कैंसर पर जो कमजोर लेकिन चर्चित फिल्में बनीं उन में से एक साल 2003 में प्रदर्शित फिल्म ‘कल हो न हो’ भी है. इस फिल्म में शाहरुख खान, प्रीति जिंटा और सैफ अली खान जैसे नामी व महंगे कलाकार थे. लिहाजा, इस का चलना तो तय था.
निर्माता कारण जौहर ने इस की कहानी लिखी थी जिस में हिंदी फिल्मों को कामयाब बनाने वाले सारे टोटके आजमाए गए थे. निर्देशक निखिल आडवाणी मुद्दे की बात कम ही कर पाए लेकिन चूंकि कैंसर रोगी के रोल में शाहरुख खान थे इसलिए उन के द्वारा निभाए अमन के किरदार में थोड़ा दम तो आया था.
नायिका नैना हालात की मारी निराश युवती है जो अमन से मिलती है तो जिंदगी के माने समझती है. दोनों में प्यार हो जाता है लेकिन नायक कुछ ऐसे हालात पैदा करता है कि नायिका उस के दोस्त की तरफ झुके.
आखिर वह क्यों ऐसा चाहता है, यह राज खुलता है तो दर्शकों को पता चलता है कि उसे कैंसर है. यह थीम बहुत घिसीपिटी हो चली थी, इसलिए निखिल आडवाणी ने इस में वह सब ठूंस दिया जो दर्शक बीसियों बार देख चुके थे. अमन के किरदार पर भी ‘आनंद’ के राजेश खन्ना की छाप दिखाई पड़ती है. कैंसर पर बनी इस फिल्म में शोबाजी के चलते दर्शक नायक से उतने कनैक्ट नहीं हो पाए जितने कि दूसरी फिल्मों में हुए थे.
दिल बेचारा
कैंसर पर एक नियमित अंतराल से फिल्में बनती रहीं लेकिन अधिकतर में इसे जबरदस्ती कहानी में ठूंसा गया था. जहां सहानुभूति और मौत की दरकार थी वहां निर्माताओं ने कैंसर को एक प्रोडक्ट की तरह भुनाने की कोशिश की जिसे दर्शकों से नकार दिया. लेकिन साल 2020 में ओटीटी पर प्रदर्शित ‘दिल बेचारा’ एक हद तक इस की अपवाद मानी जा सकती है. मुकेश छावड़ा द्वारा निर्देशित ‘दिल बेचारा’ में लीड रोल सुशांत सिंह राजपूत ने निभाया था जो उन की आखिरी फिल्म भी थी.
थायराइड कैंसर की मरीज के रूप में संजना सांघी ने अपनी प्रतिभा दिखाने की पूरी कोशिश की लेकिन वह ज्यादा चल नहीं पाई. इस के बाद वे किसी फिल्म में नजर नहीं आईं. उन की पहचान केडबरी, तनिष्क और डाबर के विज्ञापनों तक ही सिमटी रही. नायक को भी आस्टियो साकोर्मा से पीड़ित दिखाया गया है जिस में कैंसर हड्डियां बनाने वाली कोशिकाओं में शुरू होता है.
भारत में हर साल एक लाख से भी ज्यादा मामले आस्टियो साकोर्मा के सामने आते हैं. इस कैंसर से ताल्लुक रखती एक अहम बात यह है कि यह ज्यादातर टीनऐजर्स में होता है. असल में ‘दिल बेचारा’ लुकिंग फार अलास्का और पेपर टाउंस जैसे चर्चित उपन्यास लिखने वाले अमेरिकी उपन्यासकार जान ग्रीन के उपन्यास पर बनी हौलीवुड की फिल्म ‘द फौल्ट इन आवर स्टार्स’ की रीमेक थी जो कोविड के चलते देर से रिलीज हुई.
सुशांत की रहस्यमय मौत के बाद मचे बवंडर का ‘दिल बेचारा’ को भरपूर फायदा मिला था. युवा उन्हें देखने को टूट पड़े थे. इस फिल्म की थीम प्यार और मौत थी जो सुशांत की जिंदगी से मैच भी करती हुई थी. मैनी के किरदार में वे ठीकठाक लगे थे जो जीने के नएनए फंडे बताता रहता है लेकिन फिल्म में वास्तविकता तब ज्यादा नजर आती है जब हताशनिराश नायिका को औक्सीजन सिलैंडर साथ ले कर चलते दिखाया जाता है.
खुद नायक भी लाइलाज बीमारी से जूझ रहा है लेकिन वह नायिका के मुकाबले जिंदादिल है और नियति को स्वीकार चुका है. नाटकीय घटनाओं के बीच दोनों में प्यार हो जाता है लेकिन आखिर में नायक मर जाता है. फिल्म थायराइड कैंसर के प्रति आगाह करती है जो पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में ज्यादा होता है. हालफिलहाल यह माना जाता है कि यह बीमारी पैसे वाली महिलाओं में ज्यादा होती है. दूसरे कैंसरों की तरह इस की पहचान भी शुरुआत में हो जाए तो इस का भी इलाज संभव है.
मैनी का किरदार कुछकुछ ‘आनंद’ से मिलताजुलता दिखाने की कोशिश की गई है लेकिन मुकेश छावड़ा ‘आनंद’ जैसी कोई बात ‘दिल बेचारा’ में पैदा नहीं कर पाए.
कैंसर पर और भी जो फिल्में बनीं उन में 1972 में ही आई ‘अनुराग’ प्रमुख थी. 1976 में आई ‘मिली’ में भी कैंसर था और 1981 में रणधीर कपूर अभिनीत फिल्म ‘हरजाई’ में भी कैंसर पर फ़ोकस किया गया था. जब कुछ फिल्में चल निकलीं तो निर्माताओं ने इस गंभीर विषय पर जो बनाया उसे दर्शकों ने सिरे से खारिज कर दिया.
‘कलंक’, ‘कट्टी बट्टी’, ‘लुटेरा’ और ‘द स्काई इज पिंक’ वक्तवक्त पर कैंसर पर बनी फ्लौप फिल्में हैं. साल 2016 में करण जौहर की ही ‘ए दिल है मुश्किल’ ऐसी ही फिल्म थी जो रणवीर कपूर ऐश्वर्या राय और अनुष्का शर्मा के लीड रोल्स में होने से ठीकठाक कमाई कर ले गई थी, वरन तो कैंसर इस में कहनेभर को था, बाकी जितनी बकवास एक फिल्म में हो सकती है वह इस में थी. कहने का मतलब यह नहीं कि कैंसर पर बनी फिल्म कोई डाक्यूमैंट्री हो लेकिन उस से इतने बंबइया होने की भी उम्मीद नहीं की जाती कि वह अपनी और मुद्दे की बात ही न कह पाए.
इस के बाद भी कैंसर पर बनी सभी फिल्मों की यह खासीयत रही कि उन में टोनेटोटकों और तंत्रमंत्र या आयुर्वेद या किसी और चमत्कार से कैंसर ठीक होते नहीं दिखाया गया. नहीं तो हिंदी फिल्मों में तो गूंगा बोलने और लंगड़ा चलने लगता है. इस के बाद भी अफसोस की बात यह है कि कैंसर मरीज के परिजन झाड़फूंक वगैरह में ज्यादा लगे दिखते हैं जिस से कुछ दिनों के लिए झूठी उम्मीद तो मिलती है लेकिन जिंदगी नहीं, जो अब एलोपैथी के इलाज से मुमकिन होने लगी है.